आचार्य श्रीराम शर्मा के एक लेख से उद्धृत -
अनेकों कठिन बीमारियों के इलाज ढूँढ़ निकाले गये हैं, पर एक रोग आज भी ऐसा है जो अनेकों औषधियों के उपरांत भी काबू में नहीं आ रहा है वह है-जुकाम।
शरीरशास्त्रियों के अनुसार जुकाम के भी विषाणु होते हैं। पर उनकी प्रकृति अन्य सजातीयों से सर्वथा भिन्न है। चेचक आदि का आक्रमण एक बार हो जाने के उपरांत शरीर में उस रोग से लड़ने की शक्ति उत्पन्न होती है। फलतः नये आक्रमण का खतरा नहीं रहता, पर जुकाम के बारे में यह बात नहीं है। वह बार-बार और लगातार होता रहता है। एक बार जिस दवा से अच्छा हुआ था, दूसरी बार उससे अच्छा नहीं होता, जबकि यह बात दूसरी बीमारियों पर लागू नहीं होती।
कनाडा के एक शरीरशास्त्री और मनोविज्ञानी डॉ० डानियल कोपान का मत है-"जुकाम उतना शारीरिक रोग नहीं जितना मानसिक है।" जब मनुष्य थका, हारा और निढाल होता है तो उसे अपनी असफलताएँ निकट दीखती हैं, उस लांछन से बचने के लिए वह जुकाम बुला लेता है, ताकि दूसरे उसकी हार का दोष इस आपत्ति के सिर मढ़ते हुए उसे निर्दोष ठहरा सकें। यह रोग वस्तुतः अंतर्मन का अनुदान है, जो व्यक्ति को स्वल्प शारीरिक कष्ट देकर उसे असफलता के लांछन से बचाता है। ऐसा रोगी बहुत हद तक पराजय की आत्म-प्रताड़ना से बच जाता है। जुकाम की दैवी विपत्ति टूट पड़ने से वह हारा, उसकी योग्यता, हिम्मत एवं चेष्टा में कोई कमी नहीं थी। यह मान लेने पर मनुष्य को सांत्वना की एक हल्की थपकी मिल जाती है। अंत.चेतना इसी प्रयोजन के लिए जुकाम का ताना-बाना बुनती है।
कोपान ने अपनी मान्यता की पुष्टि में अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। खिलाड़ी लोग प्रतियोगिता के दिनों, विद्यार्थी परीक्षा के दिनों, प्रत्याशी चुनाव तिथि पर अक्सर जुकाम पीड़ित होते हैं और इनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी सफलता पर संदेह होता है और हार की विभीषिका दिल को कमजोर करती है। जुकाम के विषाणु होते तो हैं और उनमें एक से दूसरे को छूत लगाने की भी क्षमता होती है, पर उतने कष्टकारक नहीं होते जितने कि मनुष्यों को पीड़ित करते हैं। चूहे, बंदर आदि के शरीर में जुकाम के विषाणु प्रवेश कराये गये, किंतु उनके शरीर पर कोई असर नहीं हुआ।
जुकाम का कारण सर्दी है, यह मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि ध्रुव प्रदेश में कड़ाके की ठंड का सामना करते हुए पीढ़ियाँ बिता देने वाले एस्किमो लोगों में से किसी को कभी भी जुकाम नहीं होता। उस क्षेत्र में अन्वेषण के लिए जाने वाले खोजी दलों का भी यही कथन है कि जब तक वे ध्रुव प्रदेश में रहे तब तक उन्हें जुकाम नहीं हुआ। पर्यवेक्षणों का निष्कर्ष यह है कि शीत ऋतु में कम और गर्मी के दिनों में जुकाम का प्रकोप अधिक होता है।
जुकाम की कितनी ही दवाएँ आविष्कृत हुईं, पर वे सभी अपने प्रयोजन में असफल रहीं। एस्प्रीन कुछ लाभ जरूर पहुँचाती है, पर उससे दूसरी प्रकार की नई उलझनें उठ खड़ी होती हैं, जो मूल रोग से कम कष्टकारक नहीं हैं। वस्तुत: जुकाम की शारीरिक नहीं मानसिक रोग कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन दिनों अधिकांश रोगों के मूल में मानसिक विकृतियाँ सामने आ रही हैं। शरीर के अंदरूनी अवयवों में आई खराबी के कारण उत्पन्न होने वाली परेशानियाँ तो आसानी से दूर हो जाती हैं। शरीर स्वयं ही उनकी सफाई कर लेता है, परंतु कई घातक रोग–जिन्हें दुःसाध्य भी कहा जाता है, मनोविकारों की ही परिणति होते हैं। मिर्गी रोग को ही लें, मिर्गी रोग से पीड़ित मनुष्य की कैसी दयनीय स्थिति होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। जब दौरा पड़ता है तो सारा शरीर विचित्र जकड़न एवं हड़कंप की ऐसी स्थिति में फंस जाता है कि देखने वाले भी डरने-घबराने लगें। जहाँ सुरक्षा की व्यवस्था न हो वहाँ दौरा पड़ जाय तो दुर्घटना भी हो सकती है। सड़क पर गिर कर किसी वाहन की चपेट में आ जाने, आग की समीपता होने पर जल मरने की आशंका बनी ही रहती है। मस्तिष्कीय जड़ता के कारण बुद्धि मंद होती जाती है और क्रिया कुशलता की दृष्टि से पिछड़ता ही जाता है। दौरा पड़ने के बाद जब होश आता है तो रोगी अनुभव करता है-मानो कई दिनों की बीमारी के बाद उठने जैसी अशक्तता ने उसे घेर लिया है। लोग सोचते हैं मिर्गी होने की अपेक्षा यदि एक हाथ-पॉव चला जाता तो कहीं अच्छा रहता।
अनेकों कठिन बीमारियों के इलाज ढूँढ़ निकाले गये हैं, पर एक रोग आज भी ऐसा है जो अनेकों औषधियों के उपरांत भी काबू में नहीं आ रहा है वह है-जुकाम।
शरीरशास्त्रियों के अनुसार जुकाम के भी विषाणु होते हैं। पर उनकी प्रकृति अन्य सजातीयों से सर्वथा भिन्न है। चेचक आदि का आक्रमण एक बार हो जाने के उपरांत शरीर में उस रोग से लड़ने की शक्ति उत्पन्न होती है। फलतः नये आक्रमण का खतरा नहीं रहता, पर जुकाम के बारे में यह बात नहीं है। वह बार-बार और लगातार होता रहता है। एक बार जिस दवा से अच्छा हुआ था, दूसरी बार उससे अच्छा नहीं होता, जबकि यह बात दूसरी बीमारियों पर लागू नहीं होती।
कनाडा के एक शरीरशास्त्री और मनोविज्ञानी डॉ० डानियल कोपान का मत है-"जुकाम उतना शारीरिक रोग नहीं जितना मानसिक है।" जब मनुष्य थका, हारा और निढाल होता है तो उसे अपनी असफलताएँ निकट दीखती हैं, उस लांछन से बचने के लिए वह जुकाम बुला लेता है, ताकि दूसरे उसकी हार का दोष इस आपत्ति के सिर मढ़ते हुए उसे निर्दोष ठहरा सकें। यह रोग वस्तुतः अंतर्मन का अनुदान है, जो व्यक्ति को स्वल्प शारीरिक कष्ट देकर उसे असफलता के लांछन से बचाता है। ऐसा रोगी बहुत हद तक पराजय की आत्म-प्रताड़ना से बच जाता है। जुकाम की दैवी विपत्ति टूट पड़ने से वह हारा, उसकी योग्यता, हिम्मत एवं चेष्टा में कोई कमी नहीं थी। यह मान लेने पर मनुष्य को सांत्वना की एक हल्की थपकी मिल जाती है। अंत.चेतना इसी प्रयोजन के लिए जुकाम का ताना-बाना बुनती है।
कोपान ने अपनी मान्यता की पुष्टि में अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। खिलाड़ी लोग प्रतियोगिता के दिनों, विद्यार्थी परीक्षा के दिनों, प्रत्याशी चुनाव तिथि पर अक्सर जुकाम पीड़ित होते हैं और इनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी सफलता पर संदेह होता है और हार की विभीषिका दिल को कमजोर करती है। जुकाम के विषाणु होते तो हैं और उनमें एक से दूसरे को छूत लगाने की भी क्षमता होती है, पर उतने कष्टकारक नहीं होते जितने कि मनुष्यों को पीड़ित करते हैं। चूहे, बंदर आदि के शरीर में जुकाम के विषाणु प्रवेश कराये गये, किंतु उनके शरीर पर कोई असर नहीं हुआ।
जुकाम का कारण सर्दी है, यह मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि ध्रुव प्रदेश में कड़ाके की ठंड का सामना करते हुए पीढ़ियाँ बिता देने वाले एस्किमो लोगों में से किसी को कभी भी जुकाम नहीं होता। उस क्षेत्र में अन्वेषण के लिए जाने वाले खोजी दलों का भी यही कथन है कि जब तक वे ध्रुव प्रदेश में रहे तब तक उन्हें जुकाम नहीं हुआ। पर्यवेक्षणों का निष्कर्ष यह है कि शीत ऋतु में कम और गर्मी के दिनों में जुकाम का प्रकोप अधिक होता है।
जुकाम की कितनी ही दवाएँ आविष्कृत हुईं, पर वे सभी अपने प्रयोजन में असफल रहीं। एस्प्रीन कुछ लाभ जरूर पहुँचाती है, पर उससे दूसरी प्रकार की नई उलझनें उठ खड़ी होती हैं, जो मूल रोग से कम कष्टकारक नहीं हैं। वस्तुत: जुकाम की शारीरिक नहीं मानसिक रोग कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन दिनों अधिकांश रोगों के मूल में मानसिक विकृतियाँ सामने आ रही हैं। शरीर के अंदरूनी अवयवों में आई खराबी के कारण उत्पन्न होने वाली परेशानियाँ तो आसानी से दूर हो जाती हैं। शरीर स्वयं ही उनकी सफाई कर लेता है, परंतु कई घातक रोग–जिन्हें दुःसाध्य भी कहा जाता है, मनोविकारों की ही परिणति होते हैं। मिर्गी रोग को ही लें, मिर्गी रोग से पीड़ित मनुष्य की कैसी दयनीय स्थिति होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। जब दौरा पड़ता है तो सारा शरीर विचित्र जकड़न एवं हड़कंप की ऐसी स्थिति में फंस जाता है कि देखने वाले भी डरने-घबराने लगें। जहाँ सुरक्षा की व्यवस्था न हो वहाँ दौरा पड़ जाय तो दुर्घटना भी हो सकती है। सड़क पर गिर कर किसी वाहन की चपेट में आ जाने, आग की समीपता होने पर जल मरने की आशंका बनी ही रहती है। मस्तिष्कीय जड़ता के कारण बुद्धि मंद होती जाती है और क्रिया कुशलता की दृष्टि से पिछड़ता ही जाता है। दौरा पड़ने के बाद जब होश आता है तो रोगी अनुभव करता है-मानो कई दिनों की बीमारी के बाद उठने जैसी अशक्तता ने उसे घेर लिया है। लोग सोचते हैं मिर्गी होने की अपेक्षा यदि एक हाथ-पॉव चला जाता तो कहीं अच्छा रहता।
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