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नाराचिका  : स्त्री० [सं०] छन्द शास्त्र में वितान वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में नगण, रगण, लघु और गुरु होता है।
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नारंग  : पुं० [सं०√नृ (ले जाना)+अंगच्, वृद्धि] १. नारंगी। २. गाजर। ३. पिप्पलिरस। ४. यमज प्राणी।
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नारंगी  : स्त्री० [सं० नागरंग, अ० नारंज] १. नीबू की जाति का एक प्रकार की मझोला पेड़, जिसमें मीठे सुगंधित और रसीले फल लगते हैं। २. उक्त पेड़ का फल। वि० नारंगी (फल) के छिलके की तरह के पीले रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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नार  : वि० [सं० नर+अण्] १. नर या मनुष्य-संबंधी। नर का। २. आध्यात्मिक। पुं० १. गौ का बछड़ा। २. जल। पानी। ३. मनुष्यों का झुंड, दल या समूह। ४. सोंठ। स्त्री० [सं० नाल] १. गला। २. गरदन। ग्रीवा। मुहा०–नार नवाना या नीची करना=लज्जा संकोच आदि से अथवा आदर-सम्मान प्रकट करने के लिए किसी के आगे गरदन या सिर झुकाना। ३. वह नाड़ी या नली जिससे नव-जात शिशु माता के गर्भ से बँधा रहता है। नाल। (दे०) पद–नार-बेवार। (दे०) ४. छोटा रस्सा। ५. वह डोरी जो घाघरे, पाजामे आदि के नेफे में पिरोई रहती है और जिसकी सहायता से वे कमर में बाँधे जाते हैं। नाड़ा। नाला। ६. पौधों के वे डंठल जो बालें काट लेने के बाद बच रहते हैं। ७. मैदानों में चरनेवाले चौपायों का झुंड। स्त्री०=नारि (स्त्री)। उदा०–नीके है छींके हुए ऐसे ही रह नार।–बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारक  : पुं० [सं० नरक+अण्] १. नरक। २. नरक में रहनेवाला प्राणी।
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नारकिक  : वि०=नारकी।
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नारकी  : वि० [सं० नारकिन्] १. नरक में पड़ा हुआ। जो नरक भोग रहा हो। २. जिसका नरक में जाना निश्चित हो; अर्थात् परम दुराचारी या पापी।
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नारकीट  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कीड़ा। अश्मकीट। २. वह जो किसी को आशा में रखकर निराश करे; फलतः अधम या नीच।
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नारकीय  : वि० [सं० नरक+छण्–ईय] १. नरक-संबंधी। २. नरक में रहने या होनेवाला। ३. बहुत ही अधम या पापी (व्यक्ति)।
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नारद  : पुं० [सं० नार=आत्मज्ञान√दा (देना)+क] १. एक प्रसिद्ध देवर्षि और भगवान के परम भक्त जो ब्रह्मा के पुत्र कहे गए हैं, और जिनका नाम अनेको आख्यानों, कथाओं आदि में आता है। २. उक्त के आधार पर ऐसा व्यक्ति जो प्रायः लोगों में लड़ाई-झगड़े कराता रहता हो। ३. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। ४. एक प्रजापति। ५. चौबीस बुद्धों में से एक बुद्ध। ६. कश्यप ऋषि की संतान, एक गन्धर्व। ७. शाक द्वीप का एक पर्वत।
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नारद-पुराण  : पुं० [सं० मध्य स०] १. अठारह पुराणों में से एक जिसमें सनकादिक ने नारद को संबोधन करके अनेक कथाएँ कही हैं और उपदेश दिए हैं। इसमें तीर्थों और व्रतों के माहात्मय बहुत अधिक हैं। २. एक-उपपुराण, जिसे बृहन्नारदीय भी कहते हैं।
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नारदी (दिन्)  : पुं० [सं० नारद+इनि] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
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नारदीय  : वि० [सं० नारद+छ–ईय] नारद का। नारद-संबंधी। जैसे–नारदीय पुराण।
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नारन  : पुं० [सं० नार+हिं० न (प्रत्य०)] नर-समूह। मनुष्यों का समुदाय। उदा०–मनौं तज्यो तारन बिरद, बारक नारन तारि।–बिहारी।
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नारना  : वि० [सं० ज्ञान, प्रा० णाण+हिं० न] थाह लगाना। पता लगाना। भाँपना। नाड़ना।
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नारफ़िक  : पुं० [अं० नारफ़िक] इंग्लैण्ड के नारफॉक प्रदेश में होनेवाले घोड़ों की एक जाति।
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नार-बेबार  : पुं० [हिं० नार+सं० विवार=फैलाव] तुरंत के जनमे हुए बच्चे की नाल, खेड़ी आदि।
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नारमन  : पुं० [अं०] १. फ्रांस के नारमंडी प्रदेश का निवासी, व्यक्ति या इन व्यक्तियों की जाति। २. जहाज पर का वह खूँटा जिसमें रस्सा बाँधा जाता है। स्त्री० फ्रांस के नारमंडी प्रदेश की बोली या भाषा !
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नारसिंह  : पुं० [सं० नरसिंह+अण्] १. नरसिंह रूपधारी विष्णु। २. एक उप-पुराण जिसमें नृ-सिंह अवतार की कथा है। ३. एक तांत्रिक ग्रंथ।
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नारसिंही  : वि० [सं० नारसिंह] १. नारसिंह-संबंधी। नारसिंहका। २. बहुत उग्र, प्रबल या विकट। जैसे–नरसिंही टोना-टोटका।
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नारांतक  : पुं० [सं०] रावण का एक पुत्र।
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नारा  : पुं० [सं० नाल, हिं० नार] १. घाघरे, पाजामे आदि के नेफे में की वह मोटी डोरी जो पहनावे पहनते समय कमर में बाँधी जाती है। २. रँगा हुआ लाल रंग का वह सूत जो प्रायः पूजन के अवसर पर देवताओं को चढ़ाया जाता है। ३. हल के जूए में बँधी हुई रस्सी। पुं० [स्त्री० नारी] बड़ी नाली। नारा। पुं० [अ० नडारः] १. जोर का शब्द। २. किसी दल, समुदाय आदि की तीव्र अनुभूति और इच्छा का सूचक कोई पद या गठा हुआ वाक्य जो लोगों को आकृष्ट करने के लिए उच्च स्वर से बोला और सब को सुनाया जाता है। जैसे–भारत माता की जय।
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नाराइन  : पुं०=नारायण।
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नाराच  : पुं० [सं० नार-आ√चम् (खाना)+ड] १. ऊपर से नीचे तक लोहे का बना हुआ तीर या बाण। २. ऐसा दिन जिसमें बादल घिरे रहें। मेघों से आच्छादिन दिन। दुर्दिन। ३. एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २4 मात्राएँ होती हैं। ४. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और चार रगण होते हैं। इसे महामालिनी और नारका भी कहते हैं।
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नाराच घृत  : पुं० [सं०] चीते की जड़, त्रिफला, भटकटैया, बायविडंग आदि एक साथ मिलाकर तथा घी में पकाकर तैयार किया हुआ एक औषध जो मालिश, लेप आदि के काम आता है।
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नाराचिका  : स्त्री० [सं० नाराच+ठन्–इक, टाप्] सुनारों आदि का छोटा काँटा या तराजू।
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नाराची  : स्त्री० [सं० नाराच+अच्–ङीष्] सुनारों आदि का छोटा काँटा।
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नाराज  : वि० [फा० नाराज] [भाव० नाराजगी] अप्रसन्न। रुष्ट। नाखुश। खफा।
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नाराजगी  : स्त्री० [फा०] नाराज होने की अवस्था या भाव।
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नाराजी  : स्त्री०=नाराजगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारायण  : पुं० [सं० नार-अयन, ब० स०] १. ईश्वर। परमात्मा। भगवान। २. विष्णु। ३. कृष्ण यजुर्वेद के अंतर्गत एक उपनिषद्। ४. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ५. ‘अ’ अक्षर की संज्ञा। ६. पूस का महीना। पौष मास।
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नारायण-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] गंगा के प्रवाह से चार हाथ तक की भूमि।
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नारायण तैल  : पुं० [सं०] आयुर्वेद में एक तरह का तेल जो मालिश करने के काम आता है।
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नारायण-प्रिय  : पुं० [ष० त० या ब० स०] १. महादेव। शिव। २. पाँचों पांडवों में के सहदेव। ३. पीला चंदन।
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नारायण-बलि  : स्त्री० [मध्य० स० या च० त०] आत्म-हत्या आदि करके मरे हुए व्यक्ति की आत्मा की शांति तथा शुद्धि के लिए उसके दाह-संस्कार से पहले प्रायश्चित्त के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, यम और प्रेत के उद्देश्य से दी जानेवाली बलि।
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नारायणी  : स्त्री० [सं० नारायण+अण्–ङीप्] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. गंगा। ४. मुद्ल ऋषि की पत्नी का नाम। ५. श्रीकृष्ण की वह प्रसिद्ध सेना जो उन्होंने महाभारत के युद्ध में दुर्योधन को उसकी सहायता के लिए दी थी। ६. शतावर। ७. संगीत में, खम्माच ठाठ की एक रागिनी। वि०=नारायणी। जैसे–नारायणी माया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारायणीय  : वि० [सं० नारायण+छ–ईय] नारायण-संबंधी। नारायण का। पुं० महाभारत के शांति-पर्व का एक उपाख्यान जिसमें नारद और नारायण ऋषि की कथाएँ हैं।
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नाराशंस  : वि० [सं० नर-आ√शंस् (स्तुति)+घञ् नाराशंस=पितर+अण्] मनुष्यों की प्रशंसा या स्मृति से संबंध रखनेवाला। पुं० १. वेद में के रुद्र दैवत्य मंत्र, जिनमें मनुष्यों की प्रशंसा की गई है। २. ऊम, और्व और काव्य, ये तीन पितृगण। ३. उक्त पितृगणों के निमित्त यज्ञ आदि में छोड़ा जानेवाला सोमरस। ४. एक तरह का पात्र जिससे यज्ञ में उक्त उद्देश्य से सोमरस छोड़ा जाता था। ५. पितर।
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नाराशंसी  : स्त्री० [सं० नार-आशंसी, ष० त०] १. मनुष्यों की प्रशंसा या स्तुति। २. वेदों का वह मंत्र-भाग जिसमें अनेक राजाओं के दानों आदि का प्रशंसात्मक उल्लेख है।
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नारि  : स्त्री० [हिं० नाल] १. बड़ी तोप, विशेषतः हाथी पर रखकर चलाई जानेवाली तोप। २. दे० ‘नाड़’। ३. गरदन। उदा०–अति अधीन सुजान कनौड़े गिरिधर नारि बनावति।–सूर स्त्री० [सं० नार] १. समूह। झुंड। २. आगार। भंडार। स्त्री०=नारी (स्त्री)।
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नारिक  : वि० [सं० नार+ठक्–इक] १. जल का। जल-संबंधी। २. जल से युक्त। अध्यात्म-संबंधी। आध्यात्मिक। पुं० [?] पीतल, फूल आदि के वे पुराने बरतन जो दूकानदार लोग मरम्मत करके फिरसे नये के रूप में बेचते हैं। (कसेरे)
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नारिकेर  : पुं०=नारिकेल (नारियल)।
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नारिकेरी  : स्त्री०=नारिकेली।
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नारिकेल  : पुं० [सं०√किल् (क्रीड़ा)+घञ्, नारी-केल, ष० त०, पृषो० ह्रस्व] नारियल नामक वृक्ष और उसका फल।
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नारिकेल-क्षीरी  : स्त्री० [सं०] दूध में गरी डालकर बनाई जानेवाली खीर।
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नारिकेल  : खंड
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नारिकेली  : स्त्री० [सं० नारिकेल+अण्–ङीष्] नारियल के पानी से बनाई जानेवाली एक तरह की मदिरा।
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नारिदान  : पुं०=नाबदान (पनाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारि-माला  : स्त्री० [हिं० नली+माला] हल के पीछे लगी हुई वह नली और उसके ऊपर बना हुआ कटोरी के आकार का पात्र जिसमें बीज बोने के लिए छोड़े जाते हैं। नली को नारि और उसके मुँह पर के पात्र को माला कहते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारियल  : पुं० [सं० नारिकेल] १. समुद्र के किनारे और उसके आस-पास की भूमि में होनेवाला खजूर की जाति का एक तरह का ऊँचा बड़ा पेड़ जिसके फल की ऊपरी खोपड़ी को तोड़ने पर अंदर से गरी निकलती है। २. उक्त पेड़ का फल। पद–नारियल की जटा=नारियल के फल के ऊपर के कड़े और मोटे रेशे जिनसे रस्से आदि बनाये जाते और गद्दे भरे जाते हैं। मुहा०–नारियल तोड़ना=मुसलमानों की एक रीति जो गर्भ रहने पर की जाती है। नारियल तोड़कर उससे लड़का या लड़की होने का शकुन निकालते हैं। ३. नारियल की खोपड़ी से बनाया हुआ हुक्का।
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नारियल पूर्णिमा  : स्त्री० [हिं० +सं०] बम्बई प्रदेश में मनाया जानेवाला एक उत्सव जिसमें समुद्र में नारियल फेंकते हैं।
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नारियली  : स्त्री० [हिं० नारियल+ई (प्रत्य०)] १. नारियल की खोपड़ी। २. उक्त खोपड़ी का बना हुआ हुक्का। ३. नारियल की ताड़ी।
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नारी  : स्त्री० [सं० नृ.+अञ्–ङीन्] [भाव० नारीत्व] १. सं० ‘नर’ का स्त्री० रूप। मनुष्य जति का लिंग के विचार से वह वर्ग जो गर्भाधारण करके प्राणियों को जन्म देता है। २. विशेषतः वह स्त्री जिसमें लज्जा, सेवा, श्रद्धा आदि गुणों की प्रधानता हो। ३. युवती तथा वयस्क स्त्रियों की सामूहिक संज्ञा। ४. धार्मिक क्षेत्र में तथा साधकों की परिभाषा में (क) प्रकृति और (ख) माया। ५. तीन गुरु वर्णों की एक वृत्ति। स्त्री० [हिं० नार] वह रस्सी जिससे जुए में हल बाँधा जाता है। स्त्री० [सं० नारीष्टा] चमेली। मल्लिका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [?] जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक तरह की भूरे रंग की चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० १.=नाड़ी। २.=थाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारी-कवच  : पुं० [ब० स०] एक सूर्यवंशी राजा जिसे स्त्रियों ने अपने बीच में घेर कर परशुराम से वध किये जाने से बचा लिया था। क्षत्रियों का वंश विस्तार इन्हीं से माना जाता है।
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नारीकेल  : पुं०=नारिकेल (नारियल)।
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नारीच  : पुं० [सं० नाडीच, ड=र] नालिता नाम का शाक।
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नारी-तरंगक  : पुं० [ष० त०] १. वह व्यक्ति जो नारी का हृदय तरंगित करे। २. प्रेमी। ३. व्यभिचारी व्यक्ति।
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नारी-तीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] एक तीर्थ जहाँ अर्जुन ने ब्राह्मण के शाप से ग्राह बनी हुई पाँच अप्सराओं का उद्धार किया था।
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नारी-मुख  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार कूर्म विभाग से नैर्ऋत् की ओर का एक देश।
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नारीष्टा  : स्त्री० [नारी-इष्टा, ष० त०] चमेली। मल्लिका।
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नारुंतुद  : वि० [सं० न-अरुन्तुद] जिसके शरीर पर कोई आघात न लगता हो।
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नारू  : पुं० [देश०] १. जूँ। ढील। २. एक प्रसिद्ध रोग जिसमें शरीर में होनेवाली फुंसियों में से सफेद रंग के सत के सूत के समान लंबे-लंबे कीड़े निकलते हैं। ये कीड़े त्वचा के तंतु-जाल में से निकलते हैं, रक्त में से नहीं। पुं० [हिं० नाली, पु० हिं० नारी] क्यारियों में की जाने या होनेवाली बोआई।
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नार्दल  : पुं० [देश०] पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नार्पत्य  : वि० [सं० नृपति+ष्यञ्] नृपति अर्थात् राजा से संबंध रखनेवाला।
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नार्मद  : वि० [सं० नर्मदा+अण्] नर्मदा-संबंधी। नर्मदा नदी का। पुं० नर्मदा में से निकलनेवाले एक प्रकार के शिव लिंग।
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नार्मर  : पुं० [सं०] ऋग्वेद में वर्णित एक असुर जिसका वध इन्द्र ने किया था।
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नार्य्यग  : पुं० [सं० नारी-अंग, ब० स०] नारंगी।
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नार्य्यतिक्त  : पुं० [सं०] चिरायता।
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