शब्द का अर्थ
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नीर :
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पुं० [सं०√नी+रक्] १. जल। पानी। २. जल की तरह का कोई तरल पदार्थ। जैसे–नयनों का नीर=आँसू शीतला का नीर=चेचक के फफोलों में से निकलनेवाला चेप या रस। मुहा०–(किसी की आँखों का) नीर ढल जाना=आँखों में लज्जा या शील-संकोच न रह जाना। (आँखों से) नीर ढलना=मरने के समय आँखों से जल निकलना या बहना। ३. आब। कांति। चमक। उदा०–आड़ हू भुलावै नख-सिख भरी नीर की।–सेनापति। ४. नीम के पेड़ से निकलनेवाला स्राव। ५. सुगंधबाला। ६. रहस्य संप्रदाय में, सहस्रार चक्र से झरनेवाला वह रस जो परम आवश्यक कहा गया है। उदा०–आगामी सरुभरिआ नीर। ता यहिं केवल बहु बिस्थीर।–नानक। |
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नीर-क्षीर-विवेक :
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पुं० [सं० नीर-क्षीर, द्व० स०, नीरक्षीर-विवेक, ष० त०] ऐसा विवेक या ज्ञान जो भले बुरे न्याय-अन्याय आदि में ठीक पूरा और स्पष्ट भेद या विभाग कर सके। विशेष–कहा जाता है कि हंस में इतना ज्ञान होता है कि वह पानी मिले हुए दूध में से दूध तो पी लेता है और पानी छोड़ देता है। इसी आधार पर यह पद बना है। |
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नीरछ :
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पुं०=नीरद (मेघ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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नीरज :
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वि० [सं० नीर√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो जल या जल से उत्पन्न हुआ हो। जलीय। पुं० १. कमल। २. मोती। ३. कुट नामक ओषधि। ४. एक प्रकार का तृण। |
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नीरण :
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पुं० [सं० नीर से] १. जल देना या पहुँचाना। २. नल आदि के सहायता से जल या कोई तरल पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँचाना। (पाइपिंग)। |
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नीरत :
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वि० [सं० निर-रत्, प्रा० स०] विरत। |
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नीरद :
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वि० [सं० नीर√दा (देना)+क] नीर अर्थात् जल देनेवाला। पुं० १. बादल। मेघ। २. उत्तराधिकारी या वंशज जो अपने पितरों या पूर्वजों को जल देता अर्थात् उनका तर्पण करता हो। वि० [सं० निः+रद] जिसे दाँत न हो। बिना दाँतोंवाला। दंतहीन। |
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नीरधर :
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वि० [सं० नीर√धृ (धारण)+अच्] जल धारण करनेवाला। पुं० मेघ। |
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नीरधि :
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पुं० [सं० नीर√धा+कि] समुद्र। सागर। |
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नीरना :
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स० [हिं० नीर] १. जल छिड़कना। २. सींचना। ३. पोषक द्रव्य भोजन आदि देकर जीवित रखना। पालना-पोसना। स० [?] छितराना। बिखेरना। |
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नीर-निधि :
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पुं० [सं० ष० त०] समुद्र। |
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नीर-पति :
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पुं०[सं० ष० त०] वरुण देवता। |
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नीर-प्रिय :
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पुं० [सं० ब० स०] जल-बेंत। |
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नीरम :
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पुं० [देश०] वह बोझ जो जहाज पर केवल उसका संतुलन ठीक रखने के लिए रखा जाता है। |
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नीरव :
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वि० [सं० निर-रव, ब० स०] १. जिसमें से रव अर्थात् ध्वनि या शब्द निकलता हो। २. जिसमें रव या शब्द न होता हो। ३. जो बोल न रहा हो। चुप। मौन। |
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नीरस :
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वि० [सं० निर-रस, ब० स०] [भाव० नीरसता] १. जिसमें रस न हो। रसहीन। २. जिसके स्वाद में मिठास न हो। फीका। ३. जिससे या जिसमें मन को रस अर्थात् आनन्द न मिलता हो। ४. जिसमें कोई आकर्षण, मनोरंजक या रुचिकर तत्त्व या बात न हो। ५. सूखा हुआ। शुष्क। |
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नीराँजन :
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पुं० दे० ‘नीराजन।’ |
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नीराँजनी :
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स्त्री० [सं० नीराजन] वह आधार या पात्र जिसमें आरती के लिए दीप जलाये जाते हैं। आरती। |
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नीरा :
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स्त्री० [सं० नीर] खजूर या ताड़ के वृक्ष का वह रस जो प्रातःकाल उतारा जाता है और जो पीने में बहुत स्वादिष्ट और गुणकारी होता है। अव्य० [हिं० नियर] समीप। पास। उदा०–दूरि बात खत पाया नीरा।–कबीर। |
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नीराखु :
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पुं० [सं० नीर-आखु, ष० त०] ऊदबिलाव। |
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नीराजन :
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पुं० [सं० निर्√राज् (शोभित होना)+ल्युट्–अन] १. देवता को दीप दिखाने की क्रिया। आरती। दीपदान। क्रि० प्र०–उतारना।–वारना। २. हथियारों को साफ करके चमकाने की क्रिया या भाव। ३. मध्य युग में वर्षाकाल बीतने पर और प्रायः आश्विन् मास में राजाओं के यहाँ होनेवाला एक पर्व जिसमें युद्ध से पहले सब हथियार साफ करके चमकाये जाते थे। |
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नीराजना :
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स० [सं० नीरांजन] १. नीराजन में दीप जलाकर किसी देवी या देवता की आरती करना। २. हथियार माँजकर साफ करना और चमकाना। |
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नीराशय :
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पुं०=जलाशय। |
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नीरिंदु :
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पुं० [सं० नि√ईर्+क्विप्, नीर्√इन्द्+उण्] सिहोर (वृक्ष)। |
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नीरुज :
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वि० [सं० निर्-रुज, ब० स०, रलोप, दीर्घ] रोग-रहित। पुं० कुट नामक ओषधि। |
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नीरे :
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अव्य०=नियरे (निकट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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नीरोग :
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वि० [सं० निर्-रोग, ब० स० रलोप, दीर्घ] १.(व्यक्ति) जिसे कोई रोग न हो। स्वस्थ। २. जिसमें दोष, विकार आदि न हों। जैसे–नीरोग वातावरण। |
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नीरोवर :
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पुं० [सं० नीरवर] समुद्र। (सरोवर के अनुकरण पर) उदा०–नीरोवरि प्रवसंति नई।–पृथीराज। |
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