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शब्द का अर्थ

मुद्रांक  : पुं० [सं० मुद्रा-अंक, मध्य० स०] १. सरकारी कागज जिस पर अर्जी-दावा लिखा पढ़ी की जाती है। २. डाक का टिकट। ३. छाप। मोहर।
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मुद्रांकन  : पुं० [सं० मुद्रा-अंकन, तृ० त०] [भू० कृ० मुद्रांकित] १. किसी प्रकार की मुद्रा की सहायता से चिन्ह आदि अंकित करने का काम। २. छापने का काम या भाव। छपाई।
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मुद्रांकित  : भू० कृ० [सं० मुद्रा-अंकित, तृ० त०] १. (पदार्थ) जिस पर मुद्रांकन हुआ हो। २. मोहर किया या लगाया हुआ। ३. (व्यक्ति) जिसके शरीर पर विष्णु के आयुध के चिन्ह गरम लोहे से दागकर बनाए गये हों। वैष्णव।
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मुद्रा  : स्त्री० [सं० मुद्र+टाप्] १. किसी चीज पर चिन्ह, नाम आदि अंकित करने की मोहर (सील) २. ऐसी अँगूठी जिस पर किसी का नाम या और कोई वैयक्तिक चिन्ह अंकित हो। विशेष—प्राचीन भारत में राजा, व्यापारी आदि ऐसी ही अँगूठी से लेख्यों आदि को प्रमाणिक सिद्ध करने के लिए उन पर अपनी मोहर करने या छाप लगाने का काम लेते थे। ३. उक्त के आधार पर प्राचीन भारत में किसी मार्ग से आने-जाने का राजकीय अधिकार-पत्र जिस पर उक्त प्रकार की छाप अंकित रहती है। राहदारी का परवाना। ४. विष्णु के शंख, चक्र, आदि आयुधों के वे चिन्ह जो वैष्णव भक्त तथा साधु अपनी छाती, बाँह आदि अंगों पर अंकित कराते या तपे हुए लोहे से दगवाते हैं। ५. राज्य द्वारा प्रचलित भिन्न-भिन्न मूल्योंवाले वे सभी धातु-खंड जिन पर राज्य की छाप होती है और जो किसी देश में क्रय-विक्रय के माध्यम या साधन के रूप में प्रचलित होते हैं। सिक्का (क्वायन)। जैसे—प्राचीन काल की अनाहत मुद्रा, आधुनिक काल की आहत मु्द्रा। ६. आजकल सभी ऐसी चीजें जो क्रय-विक्रय के सुभीते या देना-पावना चुकाने के लिए उक्त साधन के रूप में राज्य या राष्ट्र के द्वारा मान्य कर ली गई हों, और जो जनता में निःसंकोच भाव से लेन-देन के काम में आती हों। द्रव्य। धन। (मनी) जैसे—सरकारी नोट, सिक्के आदि। ७. किसी विशिष्ट देश या राष्ट्र में प्रचलित उक्त प्रकार के सभी उपकरण या साधन। चलार्थ। (करेन्सी) जैसे—भारतीय मुद्रा, रूसी मुद्रा, सुलभ मुद्रा आदि। ८. गोरखपंथी साधुओं का कान में पहनने का काठ, स्फटिक आदि का कुंडल या वलय। ९. खड़े रहने, बैठने आदि के समय शरीर के अंगों की कोई विशिष्ट स्थिति। ठवन। (पोसचर) १॰. आँख, नाक, मुँह हाथ आदि की कोई ऐसी क्रिया जिससे मन की कोई विशिष्ट प्रवृत्ति या भाव प्रकट होता हो। इंगित। (जेसचर) जैसे—उनके मुख की मुद्रा से ही उनका आशय प्रकट हो गया था। ११. धार्मिक क्षेत्र में, आराधन, ध्यान पूजन आदि के समय कुछ विशिष्ट प्रकार के बैठने के अनेक ढंगों में से कोई ऐसा ढंग जो किसी प्रकार की फल-सिद्धि कराने में सहायक माना जाता है। जैसे—(क) तांत्रिकों की धेनु, मुद्रा, पदम मुद्रा। (ख) हठयोग की खेचरी, गोचरी, भूचरी आदि मुद्राएँ। १२. आधुनिक मुद्रण कला में ग्रंथों, सामयिक पत्रों आदि की छपाई के लिए सीसे के ढले हुए उलटे अक्षर जो छापने पर सीधे आते हैं। (टाइप) १३. साहित्य में एक प्रकार का शब्दालंकार जो श्लेष अलंकार का एक भेद है और जिसमें किसी साधारण वर्णन के आधार पर प्रवृत्त या प्रस्तुत अर्थ तो निकलता ही हो, इसके सिवा शब्दों के कुछ अक्षर अपने आगे-पीछे वाले दूसरे अक्षरों के साथ मिलाने पर कुछ और अर्थ भी निकलता हो। जैसे—की करपा करतार ‘ईश्वर ने कृपा की’ में कीकर, पाकर और तार या ताड़ वृक्ष भी आ जाते हैं। और जा मन फल सा आ मिला (यह मन को वांछित फल के रूप में प्राप्त हुआ) में जा मन या जामुन, फल सा या फालसा आ मिला या आँवला फलों के नाम भी आ जाते हैं इसी प्रकार ‘कच्चोरी पिय हे सखी, पक्कोरी प्रिय नाहिं। बराबरी कैसे करूँ पूड़ी परती नाहिं’। में कचौडी पकौड़ी, बरा, बरी और पूरी नामक पकवानों के नाम भी आ जाते हैं। १४. तांत्रिकों की बोलचाल में भूना हुआ अन्न या उसके दाने। १५. अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामु्द्रा का संक्षिप्त नाम।
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मुद्रा-कर  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो किसी प्रकार की मुद्रा तैयार करता हो। २. प्राचीन भारत में राज्य का वह प्रधान अधिकारी जिसके हाथ में राजा की मोहर रहती थी। ३. वह जो किसी प्रकार का मुद्रण करता हो।
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मुद्रा-कान्हड़ा  : पुं० [सं० मुद्रा+हिं० कान्हड़ा] एक प्रकार का राग जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
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मुद्राक्षर  : पुं० [सं० मुद्रा-अक्षर, मयू० स०] १. वह अक्षर जिसका प्रयोग किसी प्रकार के मुद्रण के लिए होता है। २. आज-कल सीसे के वे अक्षर जिनमें छापेखाने में पुस्तकें आदि छपती हैं। टाइप।
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मुद्रा-टोड़ी  : स्त्री० [सं० मुद्रा+हिं० टोडी] एक प्रकार की रागिनी जिसमें मात्र कोमल स्वर लगते हैं।
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मुद्रा-तत्त्व  : पुं० [सं० ब० स०] वह शास्त्र जिसके अनुसार किसी देश के पुराने सिक्कों आदि की सहायता से उस देश की ऐतिहासिक बातें जानी जाती है।
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मुद्रा-बाहुल्य, मुद्रा-विस्तार  : पुं० दे० ‘मुद्रा-स्फीति’।
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मुद्रा-यंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] छापने या मुद्रण करने का यंत्र।
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मुद्रा-विज्ञान  : पुं० दे० ‘मुद्रा-तत्त्व’।
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मुद्रा-शास्त्र  : पुं० दे० ‘मुद्रा तत्त्व’।
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मुद्रा-संकोच  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘अवस्फीति’।
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मुद्रा-स्फीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] आधुनिक अर्थशास्त्र में वह स्थिति जिसमें कागजी मुद्रा या नोट देश की व्यापारिक आवश्यकताओं से कहीं अधिक प्रचलित कर लिए जाते हैं, और इसी लिए जिसके फलस्वरूप देश में सब चीजें बहुत महँगी बिकने लगती हैं। (इनफ्लेशन)
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