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शब्द का अर्थ

सं  : उप० [सं० सम्] एक संस्कृत उपसर्ग जो कुछ शब्दों के पहले लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है—१. संग, सहित या साथ, जैसा—संगम, संभाषण, संयुक्त आदि। २. अच्छी या पूरी तरह से, जैसा—सतोष संन्यास, संपादन आदि। ३. उत्कृष्टता या सुन्दरता। जैसा—संस्तुति। विशेष-कभी-कभी इसके योग से मूल शब्द का अर्थ प्रायः ज्यों का त्यों बना रहता है, और उसमें कोई विशेषता नहीं आती। जैसा—संप्राप्ति। अव्य० द्वारा। से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँइतना  : स०=सैतना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँउपना  : स०=सौंपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संक  : स्त्री०=शंका।
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संकट  : पुं० [सं० सम√ कट् (बरसना या ढकना)+अच्] १. सँकरा रास्ता। तंग राह। २. विशेषतः जल या स्थल के दो भागों को जोड़नेवाला तंग रास्ता। जैसा—गिरि-संकट,जल-संकट, स्थल-संकट। ३. दो पहाड़ों के बीच का रास्ता। दर्रा। ४. ऐसी स्थिति जिसमें दोनों ओर कष्टों या विपत्तियों का सामना करना पड़ता हो और बीच में निश्चितता या सुखपूर्वक रहने के लिए बहुत ही थोड़ा अवकाश रह गया हो। ५. आफत। विपत्ति। वि० सँकरा। जैसा—संकट मुख।
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संकट-चौथ  : स्त्री० [सं० सकंट+हिं० चौथ] माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी।
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संकट-मुख  : वि० [सं०] जिसका मुँह सँकरा हो।
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संकट-संकेत  : पुं० [सं० ष० त०] विपत्ति या संकट में पड़े हुए लोगों का वह सांकेतिक संदेश जो आस-पास के लोगों को अपनी रक्षा या सहायता के लिए भेजा जाता है (एस० ओ० एस) जैसा—डूबते या जलते हुए जहाज का संकट-संकेत।
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संकटा  : स्त्री० [सं० संकट-टाप्] १. एक प्रसिद्ध देवी जो संकट या विपत्ति का निवारण करनेवाली मानी जाती है। २. फलित ज्योतिष में अष्ट योगिनियों में से एक।
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संकटापन्न  : भू० कृ० [सं० द्वि० त०] १. संकट या कष्ट में पडा हुआ। २. संकटपूर्ण।
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संटकी (टिन्)  : वि० [सं० सकंट+इनि] जो संकट में पड़ा हो।
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संकत  : पुं० =संकेत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकना  : अ० [सं० शंका] १. शंका करना। संदेह करना। २. आशंकित या भयभीत होना। डरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकर  : वि० [सं० सम्√ कृ (फेंकना)+अप्] १. दो या अधिक भिन्न भिन्न तत्त्वों या पदार्थों के मेल से बना हुआ। जैसा—संकर राग। २. दो अलग अलग जातियों, वर्णों के जीवों या प्राणियों के संसर्ग से उत्पन्न। दोगला। पुं० १. अलग अलग की दो चीजों का आपस में मिलकर एक होना। २. वह जिसकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न वर्गों या जातियों के पिता और माता से हुए हो। दोगला। ३. साहित्य में ध्वनि का वह प्रकार या भेद जिसमें एक ही आश्रय से कई अभिप्राय या ध्वनियाँ निकलती हों। जैसा—प्रिय के आने पर तीन स्तनों और चंचल तथा विशाल नेत्रोंवाली नायिका द्वार पर मंगल कलश और कमलों से वंदनवार का काम बिना आयाम के ही संपादित कर रही थी। यहाँ स्तनों से कलशों और नेत्रों से कमलों के वंदनवार का भी भाव निकलता है। ४. साहित्य में दो या अधिक अलंकारों के इस प्रकार एक साथ और मिले-जुले रहने की अवस्था जिसमें या तो वे एक दूसरे से अलग न किए जा सकें या जिनका उस प्रसंग में स्वतंत्र रूप सिद्ध न हो सके। (काम्मिक्सचर) उदाहरणार्थ—यदि किसी वर्णन में दो या अधिक अंलकार समान रूप से घटित होते हों तो उन्हें संकर कहा जायगा। इसकी गणना स्वतंत्र अलंकार के रूप में होती है। ५. न्याय के अनुसार किसी एक ही स्थान या पदार्थ में अत्यंताभाव और समानाधिकरण का एक ही में होना। जैसा—मन में मूर्तत्व तो हैं, पर भूतत्व नहीं है और आकाश में भूतत्त्व हैं, पर मूर्तत्व नहीं है। परन्तु पृथ्वी में भूतत्व भी है और मूर्तत्व भी है। ६. झाडू देने पर उड़नेवाली धूल। ७. आग के जलने का शब्द। पुं०=शंकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरक  : वि० [सं० संकर+कन्] १. मिलाने या मिश्रण करनेवाला। २. संकर रूप में लानेवाला।
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संकरखण  : पुं०=संघर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकर घरनी  : स्त्री० [सं० संकर+गृहणी] शंकर की पत्नी, पार्वती।
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संकरण  : पुं० [सं०] १. संकर या मिश्रित करने की क्रिया या भाव। २. दो भिन्न भिन्न जातियों या वर्गों के प्राणियों, वनस्पतियों आदि का संयोग करा के किसी अच्छी या नई जाति का प्राणी या वनस्पति उत्पन्न करने की क्रिया, प्रणाली या भाव। (क्रास ब्रीडिंग)
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संकरता  : स्त्री० [सं० संकर+तल्+टाप्] १. संकर होने की अवस्था, धर्म या भाव। सांकर्य। २. दोगलापन।
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संकर-पद  : पुं० [सं०] भाषा में ऐसा समस्त पद जो विभिन्न स्रोतों या भाषाओं के शब्दों के योग से बना हो।
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संकर समास  : पुं० [सं०] व्याकरण में दो ऐसे सब्दों का समास जिनमें से एक शब्द किसी एक भाषा का और दूसरा किसी दूसरी भाषा का हो।
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सँकरा  : वि० [सं० संकीर्ण] [स्त्री० सँकरी] १. (रास्ता) जिसकी चौड़ाई कम हो। २. (वस्त्र) जो पहनने पर कस जाता हो या जो बहुत मुश्किल से पहना जाता हो। तंग। पुं० कठिनता, विपत्ति आदि की स्थिति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० श्रृंखला] सिक्कड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरा  : पुं०=शंकराभरण (राग)।
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सँकराना  : स० [हि० सँकरा+आना (प्रत्यय)] संकुचित करना। तंग करना। स० [हिं० साँकल] अन्दर बन्द करके बाहर से साँकल लगाना। अ० सँकरा या तंग होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरित  : भू० कृ० [सं० संकर+इतच्] किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ।
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संकरिया  : पुं० [सं० संकर] एक प्रकार का हाथी।
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संकरी (रिन्)  : पुं० [सं० संकर+इनि] वह जो भिन्न वर्ण या जाति के पिता और माता से उत्पन्न हो। संकर। दोगला। स्त्री०=शंकरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरीकरण  : पुं० [सं० संकर+च्वि√ कृ (करना)+ल्युट-अन] १. दो या अधिक अलग अलग जातियों, जीवों पदार्थों आदि के योग से नया जीव या पदार्थ उत्पन्न करने की क्रिया। २. धर्म-शास्त्र में नौ प्रकार के पापों में से एक जो जातियों या प्राणियों में वर्ण-संकरता उत्पन्न करने से लगता है।
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संकर्षण  : पुं० [सं०] १. अपनी ओर खींचने की क्रिया या भाव। २. खेत में हल जोतना। ३. ग्यारह रुद्रों में से एक रुद्र। ४. श्रीकृष्ण के भाई बलदेव का एक नाम। ५. वैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके प्रवर्तक निम्बार्क जी थे। ६. कानून में अधिकार, उत्तरदायित्व आदि के विचार से किसी वस्तु या व्यक्ति के स्थान पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति का रखा या नाम चढ़ाया जाना (सबरोगेशन)।
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संकर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०√ कृष् (खींचना)+णिनि अथवा संकर्ष+इनि] १.खींचने या खींचकर मिलानेवाला। २. छोटा करनेवाला।
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संकल  : पुं० [सं० सम्√ कल् (गणना करना)+अच्] १. दो या अधिक चीजों को एक में मिलाना। २. इकट्ठा करना। संकलन। ३. गणित में जोड़ या योग नाम की क्रिया। ४. पश्चिमी पंजाब की एक प्राचीन पहाड़ी और उसके आस-पास का स्थान (आजकल का सांगला)। स्त्री० [सं० श्रृंखला] साँकल। सिकड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकलन  : पुं० [सं० सम्√ कल्+ल्युट-अन] [भू० कृ० संकलित] १. एकत्र करने की क्रिया। संग्रह करना। जमा करना। २. काम की और अच्छी चीजें चुनकर एक जगह एकत्र करना। ३. कोई ऐसी साहित्यिक कृति जिसमें अनेक ग्रन्थों या स्थानों से बहुत सी बातें इकट्ठी करके रखी गई हों। (कम्पाइलेशन)। ४. ढेर। राशि। ५. गणित में योग नाम की क्रिया। जोड़।
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संकलप  : पुं०=संकल्प।
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संकलपना  : स० [सं० संकल्प+हिं० ना (प्रत्यय)] १. किसी बात या संकल्प या दृढ़ निश्चय करना। २. धार्मिक रीति से संकल्प या मंत्रपाठ करते हुए कोई चीज दान करना। इस प्रकार छोड़ देना मानों संकल्प करके दान कर दिया हो। उदाहरण—सुख संकलपि दुख सांबर लीन्हेंऊँ—जायसी। ४. मन में किसी बात की कल्पना या विचार करना। सोचना।
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संकला  : पुं० [सं० शाक] शाक द्वीप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँकलाना  : स० [हिं० संकल्पना] १. धार्मिक वृत्ति से संकल्प या मंत्रपाठ करते हुए दान करना। उदाहरण—जब मेरे बाबा सँकलाए हे होइबों तोहारि।—लोकगीत।
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संकलित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कल्+क्त] १. जिसका संकलन हुआ हो। २. जो संकलन की क्रिया से बना हो। ३. चुन या छांटकर इकट्ठा किया हुआ। ४. (राशियों या संख्याएँ) जिसका जोड़ लगाया गया हो। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. जो थोडा-थोड़ा करके बढ़ा या इकट्ठा होकर एक हो गया हो (एग्रिगेट)।
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संकल्प  : पुं० [सं० सम√ कृप्+घञ्, र-ल] १. कोई कार्य करने की इच्छा जो मन में उत्पन्न हो। विचार। इरादा। २. कोई कार्य करने का मन में होनेवाला दृढ़ निश्चय। ३. सभा-समिति में किसी विषय में विचारपूर्वक किया हुआ पक्का निश्चय (रिजोल्यूशन) ४. धार्मिक क्षेत्र में, दान, पुण्य या और कोई देवकार्य आरंभ करने से पहले एक निश्चित मंत्र का उच्चारण करते हुए अपना दृढ़ निश्चय या विचार प्रकट करना। ५. वह मंत्र जिसका उच्चारण करते हुए उक्त प्रकार का निश्चय या विचार कार्य-रूप में परिणत किया जाता है। मुहावरा—(कोई चीज) संकल्प करना=दान करना या दान करने का दृढ़ निश्चय करना।
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संकल्पक  : वि० [सं० संकल्प+कन्] संकल्प करनेवाला।
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संकल्पना  : स्त्री० [सं०] १. संकल्प करने की क्रिया या भाव। २. शब्द, प्रतीक आदि का लगाया हुआ सामान्य से भिन्न विचारपूर्ण तथा बौद्धिक अर्थ (कन्सेपशन) ३. धारणा। ४. इच्छा। स०=संकल्पना।
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संकल्पा  : स्त्री० [सं० संकल्प+टाप्] दक्ष की एक कन्या जो धर्म की भार्या थी।
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संकल्पित  : भू० कृ० [सं० संकल्प+इतच्] १. संकल्प किया हुआ। २. निश्चयपूर्वक स्थिर किया हुआ। ३. जिसकी संकल्पना की गई हो।
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संकल्प  : वि० [सं० सम√कल्+ण्यत्, वृद्धयभाव] जिसका संकलन होने को हो या हो सकता हो। २. जो थोड़ा या युक्त किया जाने को हो। योग्य।
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संकष्ट  : पुं० [सं०] संकट (कष्ट)।
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संका  : स्त्री०=शंका।
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संकाना  : अ० [सं० शंका] १. शंकित होना। २. भयभीत होना। डरना। स० १. शकित करना। भयभीत करना। २. डराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संकाय  : स्त्री० [सं०] उच्च कोटि के अध्ययन के लिए ज्ञान-विज्ञान आदि का कोई विशिष्ट विभाग या शाखा (फैकल्टी)।
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संकायाध्यक्ष  : पुं० [सं०] आज-कल विश्वविद्यालयों में किसी संकाय का प्रधान अधिकारी (डीग ऑफ़ फ़ैकल्टी)।
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संकार  : पुं० [सं० सम√ कृ (करना)+घञ्] १. कूड़ा-करकट। २. वह धूल जो झाड़ू से उड़े। ३. आग के जलने का शब्द। स्त्री० [हिं० सँकारना] १. सँकारने की क्रिया या भाव। २. इशारा संकेत।
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सँकारना  : स० [हिं० संकार+ना (प्रत्यय)] संकेत करना। इशारा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँकारा  : पुं०=सकारा (प्रातःकाल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकाश  : वि० [सं० सम√ काश् (प्रकाश करना)+अच्] समस्त पदों के अंत में सदृश्य या समान। जैसा—अग्निसंकाय। पुं० १. प्रकाश। रोशनी। २. चमक। दीप्ति। अव्य० १. सदृश। समान। २. पास। समीप।
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संकास  : वि० पुं० अव्य०=संकाश।
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संकिस्त  : वि० [सं० संकृष्ट] जो अधिक चौडा न हो। सँकरा। तंग।
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संकीर्ण  : वि० [सं० सम√ कृ+क्त] [भाव० संकीर्णता] १. जो अधिक चौड़ा या विस्तृत न हो। संकुचित। सँकरा। २. किसी के साथ मिला हुआ। मिश्रित। ३. छोटा। ४. तुच्छ। ५. नीच। ६. वर्ण-संकर। ७. लाक्षणिक अर्थ में जो उदार न हो। जिसमें व्यापकता न हो। जैसा—संकीरण विचारधारा। पुं० १. ऐसा राग या रागिनी जो दो अन्य रागों या रागिनियों के मेल से बना हो। २. विपत्ति। संकट। ३. साहित्य में एक प्रकार का गद्य जिसमें कुछ अवृत्तगंधि का मेल होता है।
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संकीर्णता  : स्त्री० [सं० संकीर्ण+टल्-टाप्] १. संकीर्ण होने की अवस्था या भाव। २. नीचता। ३. ओछापन। क्षुद्रता।
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संकीर्तन  : पुं० [सं० सम√ कीर्त (वर्णन करना)+ल्युट-अन] १. भली-भाँति किसी की कीर्ति का वर्णन करना। २. ईश्वर देवता आदि का नाम जपना या यश गाना। कीर्तन।
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संकुचक  : वि० [सं०] संकुचित करने या सिकोड़नेवाला। पुं० कुछ ऐसी मछलियाँ जो सिकुड़कर छोटी और फैलकर बड़ी हो सकती हैं।
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संकुचन  : पुं० [सं० सम√ कुच् (संकुचित होना)+ल्युट-अन] १. संकुचित करने या होने की क्रिया या भाव। सिकुड़ना। २. एक प्रकार का बाल ग्रह रोग।
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संकुचना  : अ०=सकुचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकुचित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कुच् (संकोच करना)+क्त] १. जिसमें संकोच हो। संकोच। युक्त। लज्जित। जैसा—संकुचित दृष्टि। २. सिकुड़ा या सिकोड़ा हुआ। ३. तंग। सँकरा। संकीर्ण। ४. जिमसें उदारता का अभाव हो। अनुदार।
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संकुड़ित  : वि०=संकुचित।
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संकुरना  : अ०=सिकुड़ना।
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संकुल  : वि० [सं० सम√ कुल् (इकट्ठा होना)+क] [भाव० संकुलता] १. संकुलित ।। धना। २. भरा हुआ। पूर्ण। ३. पूरा। सारा। समूचा। पुं० १. युद्ध। समर। २. झुंड। दल। ३. जन-समूह। भीड़। ४. जनता। ५. असंगत वाक्य। ६. ऐसे वाक्य जो परस्पर विरोधी हो।
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संकुलता  : स्त्री० [सं० संकुल+तल्+टाप्] संकुल होने की अवस्था या भाव।
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संकुलित  : भू० कृ० [सं० संकुल+इतच्, अथवा सम√ कुल् (इकट्ठा होना)+क्त वा] १. घना किया हुआ। २. भरा हुआ। ३. पूरा किया हुआ। ४. इकट्ठा किया हुआ।
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संकुष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√ कृष् (खींचना)+क्त] १. खींचकर नजदीक लाया हुआ। २. एक साथ किया हुआ।
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संकृष्टि  : स्त्री०=संकर्षण।
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संकेंद्रण  : पुं० [सं०] १. चारों ओर से इकट्ठा करके एक केन्द्र पर लाना या स्थिर करना। २. मन के भाव या विचार किसी एक ही बात या विषय पर लाकर लगाना (कान्सेन्ट्रेशन)।
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संकेत  : वि०=संकरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=संकेत।
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संकेत  : पुं० [सं० सम्√ कित् (बहाना)+घञ्] १. चिन्ह। निशा। २. वह चीज जो किसी को किसी प्रकार की निशानी या पहचान के लिए दी जाय (टोकन)। ३. ऐसी शारीरिक चेष्टा जिससे किसी पर अपना उद्देश्य, भाव या विचार प्रकट किया जाय। इंगित। इशारा। जैसा—आँख या हाथ से किया जानेवाला संकेत। ४. कोई ऐसी बात या क्रिया जो किसी विशेष और बँधी हुई बात या कार्य की सूचक हो। ५. किसी घटना, प्रसंग आदि पर प्रकाश डालनेवाली कोई बात। प्रतीक। ६. संकेत स्थल (दे०)।
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संकेतकी  : स्त्री० [सं० संकेत] आपस में व्यवहार में संक्षेप और गोपन के लिए स्थिर की हुई वह वार्ता-प्रणाली जिसमें साधारण शब्दों और पदों के लिए छोटे-छोटे सांकेतिक सब्द बना लिये जाते हैं। व्यापारिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रायः तार द्वारा समाचार और आदेश भेजने के लिए इसका उपयोग होता है। सांकेतिक भाषा (कोड)।
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संकेत-ग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में शब्द की अभिधा शक्ति से ग्रहण किया जाने अथवा निकलनेवाला अर्थ। बिंबग्रहण से भिन्न।
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संकेत-चित्र  : पुं० न ऐसा चित्र जिसमें प्रतीक के सहारे कोई बात दिखाई गई हो।
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संकेत-चिन्ह  : पुं० [सं०] १. वह चिन्ह जो शब्द के संक्षिप्त रूप के आगे लगाया जाता है। जैसा—पुं० में का—०। २. शब्द का संक्षिप्त रूप। जैसा—मध्य प्रदेश का संकेत चिन्ह है।—म० प्र०।
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संकेतन  : पुं० [सं० सम्√कित् (बहाना)+ल्युट-अन] १. संकेत करने की क्रिया या भाव। २. ठहराव। निश्चय। ३. संकेत स्थल।
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संकेतना  : अ० [सं० संकेत+हिं० ना (प्रत्यय)] संकेत या इशारा करना। स० [सं० संकीर्ण] संकट में डालना।
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संकेत-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] १. साहित्य में वह स्थल जहाँ पर प्रेमी और प्रेमिका मिलते हों। २. वह स्थान जो औरों से छिपाकर कुछ लोगों ने किसी विशेष कार्य के लिए नियत या स्थिर किया हो।
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संकेताक्षर  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसी लिपि-प्रणाली जिसमें वर्ण-माला के अक्षर अपने शुद्ध रूप में नही बल्कि निश्चित संकेत रूप में लिखे जाते हैं (साइफ़र)।
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संकेतित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कित् (बहाना)+क्त, अथवा संकेत+इतच्] १. संकेत के रूप में लाया हुआ। जिसके संबंध में संकेत हुआ हो। २. ठहराया हुआ। निश्चित। ३. आमंत्रित।
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संकेतितार्थ  : पुं० [सं० संकेतित+अर्थ] शब्द या पद का संकेत रूप से निकलनेवाला अर्थ (साधारण शब्दार्थ से भिन्न)।
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संकेलना  : स० [सं० संकुल] १. इकट्ठा करना। २. समेटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकोच  : पुं० [सं०] १. सिकुड़ने की क्रिया या भाव। २. वह मानसिक स्थिति जिसमें भय या लज्जा अथवा साहस के अभाव के कारण कुछ करने को जी नहीं चाहता। ३. असमंजस। भागा-पीछा। ४. थोड़े में बहुत सी बातें करना। ५. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें विकास अलंकार के विरुद्ध-वर्णन होता है या किसी वस्तु का अतिशय संकोच पूर्वक वर्णन किया जाता है। ६. एक प्रकार की मछली। ७. केसर।
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संकोचक  : वि० [सं० सम√ कुच् (सिकुड़ना)+ण्वुल्-अक] १. संकोच करनेवाला। २. सिकोडऩेवाला।
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संकोचन  : पुं० [सं० सम√ कुच्+ल्युट-अन] सिकुड़ने या सिकोडऩे की क्रिया या भाव।
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सँकोचना  : स० [सं० संकोच] संकुचित करना। अ० मन में संकोच करना। असमंजस में पड़ना।
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संकोचित  : भू० कृ० [सं० संकोच+इतच्] १. संकोच युक्त। जिसमें संकोच हुआ हो। लज्जित। शरमिन्दा। पुं० तलवार चलाने का एक ढंग।
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संकोची (चिन्)  : वि० [सं० सम√कुच्+णिनि, अथवा संकोच इति] १. संकोच करनेवाला। २. सिकुड़नेवाला। ३. जिसे स्वभावतः या प्रायः संकोच होता हो। संकोचशील।
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सँकोपना  : अ० [सं० संकोप+हिं० ना (प्रत्य)] कोप या क्रोध करना। क्रुद्ध होना। गुस्सा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संकोरना  : स०=सिकोड़ना।
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संक्रंदन  : पुं० [सं० सम√क्रन्द (रोदन)+ल्युट-अन] १. शक्र। इंद्र। २. पुराणानुसार भौत्य मनु का एक पुत्र। ३. दे० ‘क्रंदन’।
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संक्रम  : पुं० [सं०] १. सीधी अर्थात् सामने की ओर होनेवाली गति। विक्रम का विपर्याय। २. सूर्य की दक्षिणायन गति। ३. दे० ‘संक्रमण’।
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संक्रमण  : पुं० [सं० सम√क्रम् (चलना)+ल्युट-अन] १. आगे की ओर चलना या बढ़ना। ‘विक्रमण’ का विपर्याय। २. अतिक्रमण। लाँघना। ३. घूमना-फिरना। ४. एक अवस्था में धीरे-धीरे बदलते हुए दूसरी अवस्था में पहुंचना। जैसा—संक्रमण काल। ५. एक के हाथ या अधिकार से दूसरे के हाथ या अधिकार में जाना (पासिंग)। ६. सूर्य का एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करना। ७. एक स्थिति पार करते हुए दूसरी स्थिति में जाना या पहुंचना। ८. कीटाणु, रोग आदि का फैलते हुए एक से दूसरे को होना।
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संक्रमण-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह समय जब कोई पहले रूप से बदलकर दूसरे रूप में आ रहा हो। २. दे० ‘संक्रांति’।
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संक्रमण-नाशक  : वि० [सं० ष० त०] रोग के संक्रमण से बचाने या मुक्त करनेवाला। (डिसइनफ़ेक्टैंट)
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संक्रमना  : अ० [सं० संक्रमण] संक्रमण करना या होना। जैसा—सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संक्रमिक  : वि० [सं० सम√ क्रम्+ठन्] १. जिसका संक्रमण हुआ या हो रहा हो। २. अंतरित या हस्तांतरित होनेवाला।
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संक्रमित  : भू० कृ० [सं० सम्√ क्रम्+क्त] १. जिसका या जिसमें संक्रमण हुआ हो। २. किसी में युक्त या सम्मिलित किया हुआ। जैसा—संक्रमित वाक्य। ३. किसी के अन्दर पहुँचाया या प्रविष्ट किया हुआ। ४. परिवर्तित किया या बदला हुआ।
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संक्रमिता (तृ)  : वि० [सं० सम्√क्रम्+तृच्] १. संक्रमण कनरे वाला। २. जानेवाला। गमन करनेवाला। ३. प्रवेश करनेवाला।
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संक्रांत  : पुं० [सं० सम√ क्रम् (चलना)+क्त] १. दायभाग के अनुसार वह धन जो कई पीढ़ियों से चला आ रहा हो। २. दे० ‘संक्रांति’।
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संक्रांति  : स्त्री० [सं० सम्√ क्रम् (चलना)+क्तिन्] १. सूर्य का एक राशि से दूसरे राशि में जाना। २. वह समय जब सूर्य एक राशि पार करके दूसरी राशि में पहुँचता है। ३. वह दिन जिसमें सूर्य का उक्त प्रकार का संचार होता है और इसीलिए जो हिन्दुओं में पर्व या पुण्यकाल माना जाता है। ४. अंतरण या हस्तांतरण।
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संक्राम  : पुं० [सं० सम√क्रम् (चलना)+घञ्] १. कठिनाई से गमन करना। २. दुर्गम मार्ग। ३. संक्रमण।
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संक्रामक  : वि० [सं०] १. (रोग) जो या तो रोगी के संसर्गज से या पानी हवा आदि के द्वारा भी उत्पन्न होता अथवा फैलाता हो। संसर्ग से भिन्न (कान्टेजियस)। विशेष—संक्रामक और संसर्गज रोगों का अन्तर जानने के लिए देखें संसर्गज का विशेष। २. (काम या बात) जिसके औचित्य या अनौचित्य का विचार किये बिना और केवल दूसरों की देखा देखी प्रचलन या प्रचार होता हो (कान्टेजियस)।
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संक्रामित  : भू० कृ० [सं० सम√क्रम् (चलना)+क्त] संक्रमण के द्वारा कही तक पहुँचाया हुआ।
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संक्रीडन  : पुं०[सं० सम्√ क्रीडा (खेलना करना)+ल्युट-अन] १. क्रीड़ा करना। खेलना। २. परिहास करना।
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संक्रोन  : स्त्री०=संक्रांति। पुं०=संक्रमण।
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संक्रोश  : पुं० [सं० सं०√ क्रुश् (चिल्लाना)+घञ्] जोर से शब्द करना चिल्लाना।
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संक्षय  : पुं० [सं० सम्√ क्षि+अच्] १. पूरी तरह से होनेवाला नाश। २. प्रलय।
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संक्षारक  : वि० [सं०√ क्षर+ण,क्षार,+कन्,सम+क्षारक] संरक्षण करनेवाला (कोरोसिव)।
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संक्षारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संक्षारित] क्षार आदि की उत्पति या योग के कारण किसी पदार्थ का धीरे-धीरे क्षीण होकर नष्ट होना (कोरोजन)।
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संक्षालन  : पुं० [सं० सम्√ क्षल् (धोना)+णिच्-ल्युट-अन] [भू० कृ, संक्षालित] १. धोने की क्रिया। २. वह जल जो धोने नहाने आदि के काम में आता हो।
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संक्षिप्त  : वि० [सं०√ क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. ढेर के रूप में आया या लगाया हुआ। २. जो संक्षेप में कहा या लिखा गया हो। ३. (लेख, पुस्तक आदि का वह रूप) जिसमें कुछ बातें घटाकर उसका रूप छोटा कर दिया गया हो। ४. (शब्द आदि का रूप) जो लघु हो।
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संक्षिप्तक  : पुं० [सं० संक्षिप्त] शब्द या पद का संक्षिप्त रूप या संकेत चिन्ह। (एब्रिविएशन)।
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संक्षिप्त-लिपि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार की लेखन प्रणाली जिसमें ध्वनियों के सूचक अक्षरों या वर्णों के स्थान पर छोटी रेखाओं, बिन्दुओं आदि का प्रयोग करके लिपि का रूप बहुत संक्षिप्त कर दिया जाता है (शार्ट हैन्ड)। विशेष—इसमें लिपि उतनी ही जल्दी लिखी जाती है, जितनी जल्दी आदमी बोलता चलता है।
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संक्षिप्ता  : स्त्री० [सं० संक्षिप्त—टाप्] ज्योतिष में बुध ग्रह की एक प्रकार की गति।
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संक्षिप्ति  : स्त्री० [सं० सम्√ क्षिप् (संक्षिप्त करना)+क्तिन्] नाटक में चार प्रकार की आरभटियों में से एक।
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संक्षेप  : पुं० [सं० सम√ क्षिप् (संक्षिप्त करना)+घञ्] १. थोड़े में कोई बात कहना। २. थोड़े में कही हुई बात का रूप। ३. कम करना। घटाना। ४. लेख आदि का काट-छांट कर कम किया हुआ रूप। समाहार। ५. चुंबक पत्थर।
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संक्षेपक  : वि० [सं०] १. फेंकनेवाला। २. नष्ट करनेवाला। ३. संक्षिप्त रूप में लानेवाला।
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संक्षेपण  : पुं० [सं० सम√ क्षिप् (कम करना)+ल्युट-अन] काट-छाँट कर या और किसी प्रकार संक्षिप्त (कम या छोटा) करने की क्रिया या भाव।
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संक्षेपतः  : अव्य० [सं० संक्षिप्त+तमिल्] संक्षेप में। थोड़े में।
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संक्षेपतया  : अव्य० [सं० संक्षेप+तल्-टाप्—टा] संक्षेप में। संक्षेपतः।
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संक्षोभ  : पुं० [सं० सम्√क्षृभ् (चंचल होना)+घञ्] १. चंचलता। २. कंपन। ३. विप्लव। ४. उलट-फेर। ५. अहंकार। घमंड। ६. किसी अप्रिय घटना के कारण मन को लगनेवाला गहरा आघात या धक्का (शॉक)।
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संख  : पुं०=शंख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संख—दराउ  : पुं० [सं० संखद्राव] अमलबेंत।
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संख-नारी  : स्त्री० [सं० शंखनारी] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो यगण (य, य) होते हैं। सोमराजी वृत्त।
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संखा-हुली  : स्त्री० दे० ‘शंखपुष्पी’।
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संखिया  : पुं० [सं० श्रृंगिका या श्रृंग विष] १. एक प्रकार की बहुत जहरीली प्रसिद्ध उपधातु जो प्रायः सफेद पत्थर की तरह होती है। २. उक्त धातु की भस्म। सोमल।
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संख्यक  : वि० [सं० संख्य+कन्] जिसकी या जिसमें संख्या हो। संख्यावाला। जैसा—अल्प-संख्यक, बहु संख्यक।
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संख्यता  : स्त्री० [सं० संख्य+तल्—टाप्] संख्या का गुण, धर्म या भाव। संख्यत्व।
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संख्यांक  : पुं० [सं० संख्या+अंक] गणित में कोई संख्या सूचित करनेवाला अंक। (न्यूमरल) जैसा—१ से ९ तक के अंक।
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संख्यांकन  : पुं० [सं०] पदार्थों के क्रम से संख्या-सूचक अंक लगाना या लिखना। (नम्बरिंग)
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संख्या  : स्त्री० [सं० संख्या+अङ्-टाप्] १. गिनती। तादाद। २. राशि। ३. १, २, ३ आदि अंक। ४. जोड़। ५. विचार। ६. सामयिक पत्र का कोई अंक। ७. बुद्धि।
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संख्याता  : स्त्री० [सं० संख्यात-टाप्] संख्या के सहारे बनी हुई एक तरह की पहेली। वि० संख्या या गिनती करनेवाला।
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संख्यातीत  : वि० [सं० संख्या√ अत् (गमन करना)+क्त] जिसकी गणना न हो सके। बहुत अधिक। अनगिनत।
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संख्यान  : पुं० [सं० सं०√ ख्या (ख्याल होना)+ल्युट-अन] १. संख्या। गिनती। २. गिनने की क्रिया या भाव। ३. ध्यान। ४. प्रकाश।
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संख्या-लिपि  : स्त्री० [सं०] वह सांकेतिक लिपि-प्रणाली जिसमें अक्षरों के स्थान पर संख्या-सूचक अंकों का प्रयोग किया जाता है।
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संख्येय  : वि० [सं० संख्या+यत्] १. जो गिना जा सके। गणनीय। २. विचारणीय।
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संग  : पुं० [सं० संङ्] १. मिलने की क्रिया। मिलन। २. साथ होने या रहने की अवस्था या भाव। सहवास। सोहबत। साथ। विशेष-संग और साथ के अंतर के लिए दे० साथ का विशेष। ३. सांसारिक विषयों या सुख-भोग के प्रति होनेवाला अनुराग आसक्ति। ४. नदियों का संगम। ५. संपर्क। सम्बन्ध। ६. मैत्री। ७. युद्ध। लड़ाई। ७. रुकावट। बाधा। क्रि० वि० साथ। हमराह। सहित। जैसा—कोई किसी के संग नहीं जाता। मुहावरा—(किसी के) संग लगना=साथ हो लेना। पीछे लगना। (किसी को) संग लेना=अपने साथ लेना या ले चलना। (किसी के) संग सोना=मैथुन या संभोग करना। पुं० [फा०] [वि० संगी, संगीन] पत्थर। पाषाण। जैसा—संगमूसा, संगमरमर। वि० पत्थर की तरह का। बहुत कठोर। बहुत कड़ा। जैसा—संग दिल।
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संग-अँगूर  : पुं० [फा० संग+हिं० अंगूर] एक प्रकार की वनस्पति जो हिमालय पर होती है।
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संग-असवद  : पुं० [फा० संग+अ० असवद] काले रंग का एक बहुत प्रसिद्ध पत्थर।
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संगकूपी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की वनस्पति जो ओषधि के काम आती है।
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संग-खारा  : पुं० [फा० संग+खार] चकमक पत्थर।
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संगच्छध्वं  : अव्य० [सं०] साथ साथ चलो। उदाहरण—संगच्छध्वं के पुनीत, स्वर, जीवन के प्रति पग गाओ।—पंत।
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संग-जराहत  : पुं० [फा० संग+अ० जराहत] एक प्रकार का सफेद चिकना पत्थर।
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संगठित  : भू० कृ०=संघटित।
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संगणन  : पुं० [सं०] १. गणना का वह गंभीर और जटिल प्रकार या रूप जिसमें साधारण गणना के सिवा अनुभवों, घटनाओं नियत सिद्धान्तों आदि का भी उपयोग किया जाता है (कम्प्यूटेशन) जैसा—फलित ज्योतिष में आँधियों, भूकंपों आदि की भविष्टवाणी संगणन के आधार पर ही होती है। २. दे० ‘अनुगणन’।
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संगणना  : स्त्री० [सं०] अभिकलन (दे०)।
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संगत  : वि० [सं०] १. किसी के साथ जुड़ा या मिला या लगा हुआ। २. इकट्ठा किया हुआ। ३. जो किसी वर्ग, जाति आगि का होने के कारण उसके साथ रखा, बैठाया या लगाया जा सका हो। ४. पूर्वापर या आस-पास की बातों के विचार से अथवा और किसी प्रकार से ठीक बैठने या मेल खानेवाला। (रेलेवेन्ट)। ५. जिसमें संगति हो। ६. किसी के साथ दाम्पत्य या वैवाहिक बंधन से बंधा हुआ। स्त्री० [सं०√ गम् (जाना)+क्त] १. संग रहने या होने का भाव। साथ रहना। सोहबत। संगति। २. साथ रहनेवालों का दल या मंडली। ३. गाने-बजानेवालों के साथ रहकर सारंगी, तबला, मँजीरा आदि बजाने का काम। क्रि० प्र०—बजाना।—में रहना। मुहावरा—संगत करना=गानेवाले के साथ ठीक तरह से तबला, सारंगी, सितार आदि बजाना। ४. गाने-बजानेवालों का दल या मंडली। उदाहरण—इधर और उधर रखके कंधे पे हाथ। चलो नाचती गाती संगत के साथ।—कोई शायर। ५. वह जो इस प्रकार किसी गाने या नाचनेवाले के साथ रहकर साज बजाता हो। ६. उदासी, निर्मले आदि साधुओं के रहने का मठ। ७. लगाव। संपर्क। संसर्ग। ८. स्त्री और पुरुष का मैथुन। संभोग (बाजारू)।
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संगतरा  : पुं०=संतरा (मीठी नारंगी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संग-तराश  : पुं० [फा०] १. पत्थर काटने या गढ़नेवाला मजदूर। पत्थर कट। २. पत्थर काटने का एक प्रकार का औजार।
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संग-तराशी  : स्त्री० [फा०] संग-तराश का कार्य, पद या भाव।
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संगत-संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्राचीन भारतीय राजनीति में अच्छे राष्ट्र के साथ होनेवाली संधि जो अच्छे और बुरे दिनों में एक-सी बनी रहती है। कांचन संधि।
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संगति  : स्त्री० [सं०] [वि० संगत] १. संगत होने की अवस्था, क्रिया या भाव (कम्पैटिबिलिटी)। २. किसी के संग मिलने की क्रिया या भाव। मेल। मिलाप। मुहावरा—संगति बैठाना, मिलाना या लगाना=दो चीजों या बातों का मेल मिलाकर उन्हें संगत सिद्ध करना। ३. संग। साथ। सोहबत। ४. संपर्क। संबंध। ५. साहित्य में आगे-पीछे जानेवाले वाक्यों आदि का अर्थ के विचार से या कार्यों आदि का पूर्वापर के विचार से ठीक बैठना या मेल खाना (कन्सिस्टेन्सी)। क्रि० प्र०—बैठना।—बैठाना।—मिलना।—मिलाना। ६. कला के क्षेत्र में किसी कृति के भिन्न भिन्न अंगों की ऐसी सुसंघटित स्थिति जिसमें कहीं से कोई चीज या बात उखडती या टूटती हुई न जान पडे और उसका सारा प्रवाह या रूप कहीं से खटकता हुआ सा जान पड़े। तालमेल। सामंजस्य। (हाँर्मनी)। ७. लोक व्यवहार में आस-पास की बातों या पूर्वापर स्थितियों के विचार से सब बातों के उपयुक्त और ठीक रूप से यथा-स्थान होने की ऐसी अवस्था या भाव जिसमें कहीं परस्पर विरोधी तत्व न दिखाई देते हों। (रेलेवेन्सी)। क्रि०प्र०-बैठना।—बैठाना।—मिलना-मिलाना। ८. कोई बात जानने या समझने के लिए उसके संबंध में बार-बार प्रश्न करना। ९. जानकारी। ज्ञान। १॰. सभा। समाज। ११. मैथुन। संभोग। १२. मुक्ति। मोक्ष।
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संगतिया  : पुं० [सं० संगत+हिं०इ या (प्रत्यय)] १. गवैया या नाचनेवालों के साथ रहकर तबला, मँजीरा सारंगी आदि बजानेवाला व्यक्ति। साजिंदा। २. संगी। साथी।
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संगती  : पुं० [सं० संगत+हिं० ई (प्रत्यय)] १. वह जो साथ में रहता हो। संग रहनेवाला। २. दे० संगतिया।
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संगथ  : पुं० [सं०] संग्राम। युद्ध।
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संगदिल  : वि० [फा०] [भाव० संगदिली] पत्थर हो दिल जिसका। अर्थात् निर्दय।
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संगपुश्त  : वि० [फा०] जिसकी पीठ पत्थर के समान कड़ी हो। पुं० कछुआ।
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संगबसरी  : वि० [फा०] एक प्रकार की मिट्टी जिसमें लोहे का अंश अधिक होता है।
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संगम  : पुं० [सं० सम्√ गम् (जाना)+अप्] १. दो वस्तुओं के मिलने की क्रिया या भाव। मिलाप। संयोग। मेल। २. दो धाराओं या नदियों के मिलने का स्थान। जैसा—गंगा और यमुना का संगम। ३. दो या अधिक रेखाओं आदि के एक साथ मिलने का भाव या स्थान। (जंक्शन)। ४. संग। साथ। ५. मैथुन। संभोग। ६. सम्पर्क। सम्बन्ध। उदाहरण—तेउ पुनि तिहि चलीं रँगीली तजिगृह संगम।—नन्ददास। ७. वर्तमान काल की सब बातों का ज्ञान। उदाहरण-आगम संगम निगम मति ऐसे मंत्र विचारि।—केशव। ८. ज्योतिष में ग्रहों का योग। कई ग्रहों आदि का एक स्थान पर मिलना या एकत्र होना।
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संगमन  : पुं० [सं० सम्√ गन् (जाना)+ल्युट-अन] लोगों में आपस में होनेवाला पत्राचार, मेल-मिलाप और व्यवहार। संचार (कम्यूनिकेशन)।
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संग-मरमर  : पुं० [फा० संग+अ० मर्मर] सफेद रंग का एक प्रकार का बहुत चिकना और मुलायम प्रसिद्ध पत्थर।
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संग-मूसा  : पुं० [फा०] काले रंग का एक प्रकार का चिकना बहुमूल्य पत्थर।
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संग-यशब  : पुं० [फा०] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर जो नीले-सफेद हरे आदि रंगों का होता है। विशेष-हौलदिली इसी प्रकार की बनती है।
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संगर  : पुं० [सं० सम√ गृ (शक करना)+अप्] १. युद्ध। समर। संग्राम। २. विपत्ति। संकट। ३. प्रतिज्ञा। ४. अंगीकरण। स्त्रीकरण। ५. प्रश्न। सवाल। ६. नियम। ७. जहर। विष। ८. शमी वृक्ष का फल। पुं० [फा०] १. वह घुस या दीवार जो ऐसे स्थान में बनाई जाती है जहाँ सेना ठहरती है। रक्षा के लिए सैनिक पड़ाव के चारों ओर बनाई हुई खाँई, घुस या दीवार। २. मोरचेबन्द।
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सँगरा  : पुं० [फा० संग] १. कूओं के तख्ते पर बना हुआ एक छेद जिसमें पानी खींचने का पम्प बैठाया हुआ होता है। पुं०=सेंगरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संग-रासिख  : पुं० [फा०] ताँबे की मैल जो खिजाब बनाने के काम में आती है।
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संगरेजा  : पुं० [फा० संग+रेजः] पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े। कंकड़। बजरी।
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संग-रोध  : पुं० [सं०] वह क्रिया या व्यवस्था जो देश में बाहर से आनेवाले किसी संक्रामक रोग को रोकने के लिए मार्ग में किसी स्थान पर की जाती है, और जिसके अनुसार यात्री आदि निरीक्षण, परीक्षण आदि के लिए कुछ समय तक रोक रखे जाते हैं (क्वारंटीन)।
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संगल  : पुं० [देश] एक प्रकार का रेशम। स्त्री० [सं० श्रृंखला] १. लोहे की जंजीर या सिक्कड़। २. अपराधियों के पैरों में पहनाई जानेवाली बेड़ी।
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संगव  : पुं० [सं०] प्रातःस्नान के तीन मुहुर्त बाद का समय जो दिन के पाँच भागों में से दूसरा है और जिसमें गौएँ दुहने के बाद चरने के लिए ले जायी जाती थीं।
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संगवाना  : स० [सं० संगर] १. हत्या करना। मरवा। डालना। २. अधिकार या वश में करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संगविनी  : स्त्री० [सं० संगव+इनि] वह स्थान जहाँ गौएँ दुहने के लिए एकत्र की जाती थीं।
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संग-सार  : पुं० [फा०] प्राचीन काल का एक प्रकार का प्राण दंड जिसमें अपराधी को पत्थरों के साथ दीवार के रूप में चुनवा दिया जाता था। वि० पूरी तरह से ध्वस्त या बरबाद किया हुआ।
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संग-सुरमा  : पुं० [फा० संग-सुर्मः] काले रंग की एक प्रकार की उपधातु जिसे पीसकर आँखों में लगाने का सुरमा बनाया जाता है।
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संगाती  : पुं० [हि० संग+आती (प्रत्यय)] १. वह जो संग रहता हो। साथी। संगी। २. दोस्त। मित्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० पूरी तरह से ध्वस्त या बरबाद किया हुआ।
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संगायन  : पुं० [सं० सम्√ (गान करना)+ल्युट-अन] १. साथ साथ गाना या स्तुति करना। २. प्राचीन काल में वह सभा जिसमें बौद्ध भिक्षु साथ मिलकर महात्मा बुद्ध के उपदेशों का गान या पाठ करते थे। ३.आज-कल कोई बड़ी धर्म-सभा।
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संगिनी  : स्त्री० [हि० संगी का स्त्री०रूप०] १. साथ रहनेवाली स्त्री। सहचरी। २. पत्नी। भार्या।
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संगिस्तान  : पुं० [फा०] पथरीला-प्रदेश।
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संगी  : पुं० [सं० संग+हि० ई (प्रत्यय)] [स्त्री० संगिनी] १. वह जो सदा या प्रायः संग रहता हो। साथी। २. दोस्त। मित्र। स्त्री० [देश] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। वि० [फा० संग=पत्थर] पत्थर का।
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संगीत  : पुं० [सं० सम्√ गै (गाना)+क्त] मधुर ध्वनियों या स्वरों का कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार और कुछ विशिष्ट लय में होनेवाला प्रस्फुटन। यह दो प्रकार का होता है—(क) कंठ्य संगीत और (ख) वाद्य संगीत।
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संगीतक  : पुं० [सं० संगीत+कन्] १. गान, नृत्य और वाद्य के द्वारा लोगों का मनोरंजन। २. एक प्रकार का अभिनयात्मक और संगीत प्रधान नृत्य।
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संगीत-कला  : स्त्री० [सं०] गाने-बजाने की विद्या।
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संगीतज्ञ  : पुं० [सं०] संगीत (कला तथा शास्त्र) में निपुण।
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संगीत-रूपक  : पुं० [सं०] आज-कल प्रायः रोडियों में प्रसारित होनेवाला एक प्रकार का छोटा नाटक या रूपक, जिसमें गीतों की प्रधानता होती है और जिसकी मुख्य कथा कहीं तो पात्रों के वार्तालाप के द्वारा और कहीं रूपक प्रस्तुत करनेवाले व्यक्ति की वार्ता से सम्बद्ध रूप में बतलाई जाती है।
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संगीत-विद्या  : स्त्री०=संगीत शास्त्र।
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संगीत-शास्त्र  : पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें गाने-बजाने की रीतियों, प्रकारों आदि का विवेचना होता है।
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संगीति  : स्त्री० [सं० सम्√ गै (गाना)+क्तिन्] १. वार्तालाप। बातचीत। २. दे० ‘संगीत’।
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संगीतिका  : स्त्री० [सं०] पाश्चात्य शैली का ऐसा नाटक जिसका अधिकाँश संगीत के रूप में होता है। गेय नाटक। सांगीत (ऑपिरा)।
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संगीन  : वि० [फा०] [भाव० संगीनी] १. पत्थर का बना हुआ। जैसा—संगीन इमारत। २. मोटी तह या मोटे दलवाला। जैसा—संगीन पोत का कपड़ा। ३. पत्थर की तरह कठोर। ४. मजबूत। ५. घोर तथा दंडनीय (अपराध)। स्त्री० [फा०] लोहे का एक प्रकार का अस्त्र जो तिपहला और नुकीला होता है।
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संगीनी  : स्त्री० [फा०] संगीन होने की अवस्था, गुण या भाव।
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संगुप्ति  : स्त्री० [सं० सं√ गुप् (रक्षा करना)+क्तिन्] १. छिपाव। दुराव। २. सुरक्षा।
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संगढ़  : पुं० [सं० सम√ ग्रह् (संवरण करना)+क्त] चीजों का ऐसा ढेर या राशि जिस पर सुरक्षा आदि के विचार से रेखाएँ अंकित हों।
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संगृहीत  : भू० कृ० [सं०] १. संग्रह किया हुआ एकत्र किया हुआ। जमा किया हुआ। संकलित। २. प्राप्त। लब्ध। ३. शासित। ४. स्वीकृत। ५. संक्षिप्त किया हुआ।
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संगृहीता (तृ)  : वि० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+तृच्] संग्रह करनेवाला।
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संगोपन  : पुं० [सं० सम्√ गुप् (रक्षा करना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह से छिपाकर रखना।
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संग्रह  : पुं० [सं०] १. एकत्र करने की क्रिया या भाव। इकट्ठा या जमा करना। संचय। जैसा—धन संग्रह करना। २. इकट्ठी की हुई चीजों का ढेर या समूह। जैसा—चित्रों या पुस्तकों का संग्रह। ३. ग्रहण करना या लेने की क्रिया। ४. जमघट। जमावड़ा। ५. गोष्ठी या सभा-समाज। ६. पाणिग्रहण। विवाह। ७. स्त्री-प्रसंग। मैथुन। संभोग। ८. वह ग्रंथ जिसमें अनेक विषयों की बातें एकत्र की गई हों। ९. अपना फेंका हुआ अस्त्र-मंत्र-बल से अपने पास लौटने की क्रिया। १॰. तालिका। सूची। फेहरिस्त। ११. निग्रह। संयम। १२. रक्षा। हिफाजत। १३.कोष्ठ-बद्धता। कब्जियत। १४.स्वीकार। मंजूरी। १५.शिव का एक नाम। १६. सोम याग।
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संग्रहक  : वि०=संग्राहक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संग्रहण  : पुं० [सं०] १. ग्रहण करना। लेना। २. प्राप्ति। लाभ। ३. गहनों में नग आदि जड़ना। ४. मैथुन। संभोग। ५. व्यभिचार। ६. स्त्री के गोप्य अंगों का किया जानेवाला स्पर्श। ७. अपहरण।
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संग्रहणी  : स्त्री० [सं०] पाचन क्रिया के विकार के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें बराबर और बार-बार पतले दस्त होते रहेत हैं (स्प्रू)।
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संग्रहणीय  : वि० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+अनीयर्] १. संग्रह किए जाने के योग्य। संग्राह्य। २. (ओषधि या औषध) जिसका सेवन आवश्यक और उपयोगी हो।
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संग्रहना  : स० [सं० संग्रहण] संग्रह करना। संचय करना। जमा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संग्रहाध्यक्ष  : पुं०=संग्रहालयाध्यक्ष।
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संग्रहालय  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ एक ही अथवा अनेक प्रकार की बहुत सी चीजों का संग्रह हो। २. वह भवन अथवा उसका कोई अंग जिसमें स्थायी महत्व की वस्तुएँ प्रदर्शित की तथा सुरक्षित रखी गई हों (म्यूज़ियम)।
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संग्रहालयाध्यक्ष  : पुं० [?] किसी संग्रहालय (म्यूजियम) की देखरेख या व्यवस्था करनेवाला प्रधान अधिकारी। (क्यूरेटर)।
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संग्रही (हिन्)  : वि० [सं०] १. संग्रह या एकत्र करनेवाला। संग्राहक। जैसा—सर्व-संग्रही। २. सांसा-रिक वैभव की कामना रखने और धन-दौलत इकट्ठा करनेवाला। त्यागी का विपर्याय। पुं० महसूल या लगान आदि उगाहनेवाला कर्मचारी। कर एकत्र करनेवाला अधिकारी।
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संग्रहीता (तृ)  : पुं० [सं० सं√ ग्रह (रखना)+तृच्] वह जो संग्रह करता हो। जमा करनेवाला। एकत्र करनेवाला।
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संग्राम  : पुं० [सं०] युद्ध। लडाई। समर।
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संग्राम-तुला  : स्त्री० [सं०] युद्ध के रूप में होनेवाली अग्निपरीक्षा।
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संग्राम-पटह  : पुं० [सं०] रण में बजनेवाला एक प्रकार का बाजा। रण भेरी। रण-डिमडिम।
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संग्राह  : पुं० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+घञ्] १. औजार या हथियार का दस्ता या मूठ पकड़ना। २. मुट्ठी। ३.मुक्का।
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संग्राहक  : वि० [सं० संग्राह+कन्] जो संग्रह करता हो। एकत्र या जमा करनेवाला। संग्रहकारी।
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संग्राही (हिन्)  : पुं० [सं०] १. वैद्यक में वह पदार्थ जो कफादि दोष,धातु, मल तथा तरल पदार्थों को खींचता हो। वह पदार्थ जो मल के पेट से निकलने में बाधक होता है। कब्जियत करनेवाली चीज। २. कुटज। वि० संग्रह करनेवाला। संग्राहक।
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संग्राह्य  : वि० [सं० सम√ ग्रह् (रखना)+ण्यत्] संग्रह किये जाने के योग्य। जमा करके रखने लायक।
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संघ  : पुं० [सं०] १. लोगों का समुदाय या समूह। २. लोगों का एक साथ मिलकर रहना। ३. आपस में गठे या मिले हुए होने की अवस्था या भाव। ४. मनुष्यों का वह समाज या समुदाय जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए बना हो। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार का लोकतंत्री राज्य या शासन प्रकार जिसकी व्यवस्था जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते थे। ६. उक्त के अनुकरण पर गौतम बुद्ध की बनाई हुई वह प्रतिनिधिक संस्था जो बौद्ध धर्म के अनुयायियों और विशेषतः भिक्षुओं आदि के संबंध में आचार, व्यवहार आदि के नियम बनाती और व्यवस्था करती थी। इसका महत्त्व इतना अधिक था कि बुद्ध और धर्म के साथ इसकी गणना भी बौद्धों में होने लगी थी। ७. साधु सन्यासियों विशेषतः बौद्ध भिक्षुओं और श्रमणों के रहने का मठ। ८. आधुनिक राजनीति में, राज्यों, राष्ट्रों आदि के पारस्परिक समझौते से बननेवाला ऐसा संघठन जो कुछ विशिष्ट बातों में एक केन्द्रीय सत्ता का अधिकार और अनुशासन मानता हो (फेडरेशन)।
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संघचारी (रिन्)  : वि० [सं०] १. (पक्षी और पशु) जो झुंड बनाकर रहता हो। २. (व्यक्ति) जो अधिकतर लोगों अर्थात् बहुमत के अनुसार कोई काम करता हो। पुं० मछली।
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संघट  : पुं०[सं० सम्√ घट् (मिलना)+अच्] १. समूह। राशि। ढेर। २. मुठ-भेड़। संघर्ष। ३. दे० ‘संघटन’।
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संघटन  : पुं० [सं०] १. किसी चीज के विभिन्न अवयवों को जोड़कर उसे प्रतिष्ठित करना। रचना। २. व्यक्तियों का मिलना। ३.किसी विशिष्ट वर्ग या कार्य-क्षेत्र के लोगों का मिलकर एक इकाई का रूप धारण करना जिससे वे सामूहिक रूप से अपने हितों की रक्षा कर सकें। ४.बिखरी हुई शक्तियों को एक में मिलाकर उन्हें किसी काम के लिए तैयार करना। ५. इस उद्देश्य से बनाई हुई संस्था (आरगनाइजेशन, अंतिम तीनों अर्थो के लिए)। २. स्वरों या शब्दों का संयोग।
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संघटित  : भू० कृ० [सं] १. जिसका संघटन हुआ हो। २. (व्यक्तियों का वर्ग) जो एक होकर तथा सामूहिक रूप से अपने ध्येय की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हो। ३. युद्ध, प्रतियोगिता आदि में लगा हुआ। उदा०—सुर बिमान हिम-भानु, भानु संघटित परस्पर।—तुलसी। ४. बजाता हुआ।
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संघट्ट  : पुं० [सं०] १. रचना का प्रकार या स्वरूप। बनावट। गठन। २. संघर्ष।
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संघट्ट-चक्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष में, युद्ध का परिणाम जानने के लिए बनाया जानेवाला एक प्रकार का चक्र।
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संघट्टन  : पुं० [सं०] १. बनावट। रचना। गठन। २. मिलन। संयोग। ३. घटना। ४. दे० ‘संघटन’।
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संघट्टित  : भू० कृ० [सं० सं√ घट्ट (इकट्ठा करना)+क्त] १. एकत्र किया हुआ। २. बनाया हुआ। निर्मित। रचित। ३. चलाया हुआ। चालित। ४. रगड़ा या पीसा हुआ। घर्षित।
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संघतिया  : पुं० १. =संगतिया। २. =संघाती। (साथी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघती  : पुं०[सं० संघ, हिं० संग] १. संगी। साथी। सहचर। २. दे० ‘संगतिया’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघ-न्यायालय  : पुं० [ष० त०] संघराज्य का सर्वोच्च न्यायालय (फ़ेडरल कोर्टं)।
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संघपति  : पुं०[स० ष० त०] किसी संघ का प्रधान अधिकारी।
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संघरना  : पुं० [सं० संहार+हिं० ना (प्रत्य०)] १. संहार करना। मार डालना। नाश करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सँघराना  : स० [हिं० संग?] दुःखी या उदास गौ को, उसका दूध दूहने के लिए, परचाना और पुचकारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघर्ष  : पुं० [सं०] १. कोई चीज घिसने, घोटने या रगड़ने की क्रिया। २. किसी चीज के कण अलग करने या उसका तल घटाने या घिसने के लिए की जानेवाली कोई ऐसी क्रिया जिसमें बल लगाकर किसी कड़ी चीज से बार बार रगड़ते हैं। रगड़। ३. दो विरोधी दलों या पक्षों में एक दूसरे को दबाने के लिए होनेवाला कोई ऐसा प्रयत्न जिसमें दोनों अपनी सारी शक्ति लगा देते और यथा-साध्य एक दूसरे का उपकार या हानि करने पर तुले रहते हैं। ४. उक्त के आधार पर, कठिनाइयों, बाधाओं आदि से बचने तथा प्रबल विरोधी शक्तियों को दबाने के लिए प्राणपन से की जानेवाली चेष्टा या प्रयत्न (स्ट्रगल; अंतिम दोनों अर्थों के लिए)। ५. आधुनिक पाश्चात्य साहित्यकारों के मत से नाटक में वह स्थिति जिसमें दो परस्पर विरोधी शक्तियाँ एक दूसरे को दबाने का प्रयत्न करती हैं। ६. वह अहंकारपूर्ण बात जो अपने प्रतिपक्षी को अपना बड़प्पन जतलाने के लिए कही जाये। ७. बाजी या शर्त लगाना। ८. स्पर्धा। होड़। ९. द्वेष। वैर। १॰. काम की प्रबल वासना। ११. धीरे धीरे खिसकना, चलना या रेंगना।
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संघर्षण  : पुं० [सं० सम्√ घृष् (रगड़ना)+ल्युट्-अन] १. संघर्ष करने की क्रिया या भाव। २. भूगोल में, धारा में बहते हुए कंकड़ों की चट्टानों आदि से होनेवाली रगड़ (कोरेसन)।
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संघर्षी (षिन्)  : वि० [सं०] १. संघर्ष-रत। संघर्ष करनेवाला। २. घिसने या रगड़नेवाला। पुं० व्याकरण में ख् ग् फ् व् और द् व्यंजन वर्ग जिनका उच्चारण करते समय मख द्वार खुला रहता है परन्तु फिर भी हवा टकराती हुई झटके से बाहर निकलती है।
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संघ-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] मिलकर काम करने के लिए सम्मिलित होने की क्रिया या प्रवृत्ति।
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संघाट  : वि० [सं० संघ√ अट् (गमनादि)+यज्] दल या समूह में रहनेवाला। जो दल बाँधकर रहता हो।
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संघाटिका  : स्त्री० [सं० सम्√ घट् (मिलना)+णिच्+ण्वुल्-अक-इत्व-टाप्] १. प्राचीन भारत में स्त्रियों का एक प्रकार का पहनावा। २. कुटनी। दूती। ३. सिंघाड़ा। ४. कुंभी।
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संघाटी  : स्त्री० [सं०] बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का चीवर।
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संघाणक  : पुं० [सं०] श्लेष्मा। कफ।
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संघात  : पुं० [सं०] १. जमाव। समूह। समष्टि। २. आघात; विशेषतः अकस्मात तथा जोर से लगनेवाला आघात। टक्कर। (इम्पैक्ट)। ३. वध। हत्या। ४. कफ। श्लेष्मा। ५. देह। शरीर। ६. रहने की जगह। निवास-स्थान। ७. एक नरक का नाम।
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संघातक  : वि० [सं० संघात+कन्] १. घात करनेवाला २. प्राण लेनेवाला। ३. नष्ट या बरबाद करनेवाला।
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संघातन  : पुं० [सं०] संघात करने की क्रिया या भाव।
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सँघाती  : पुं०=सँघाती (संगी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघाती  : पुं० [सं० संघाती+इनि] संघातक। प्राणनाशक।
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संघाधिप  : पुं० [सं० ष० त०] १. धार्मिक संघ का प्रधान (जैन)। २. किसी प्रकार के संघ का अध्यक्ष।
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संघार  : पुं०=संहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संघारना  : स०=संहारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संघाराम  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्ध भिक्षुओं, श्रमणों आदि के रहने का मठ। विहार।
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संघी  : वि० [सं० संघीय] १. दे ‘संघीय’। २. किसी संघ से संबद्ध। जैसा—जन-संघी। ३. समूहों में रहनेवाला। पुं० किसी संघ का सदस्य।
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संघीय  : वि० [सं०] १. संघ-संबंधी। संघ का। २. जिसका संघटन संघ के रूप में हुआ हो (फेडरल)।
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संघृष्ट  : भू० कृ० [सं० सं√घृष् (रगड़ना)+क्त] १. रगड़ खाया हुआ। २. रगड़ा हुआ।
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संघेला  : पुं० [सं० संग] १. साथी। सहचर। संगी। २. दोस्त। मित्र।
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संघोष  : पुं० [सं० सम्√ घुष् (ध्वनि होना)+घञ्] जोर का शब्द। घोष।
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संच  : पुं० [सं० सम्√ चि (संगृह करना)+ड] लिखने की स्याही। पुं० संचने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संचक  : पुं० [सं० संच+कन्] साँचा।
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संचकर  : वि० [सं० संचय+कर] १. संचय करनेवाला। २. देख-भाल करनेवाला। ३. कंजूस। कृपण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संचना  : पुं० [सं० संचयन] १. एकत्र या संग्रह करना। संचय करना। २. देख-भाल करना। अ० [सं० सं०+चर] प्रविष्ट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संचय  : पुं० [सं० सम्√ चि (चयन करना)+अच् भू० कृ० संचित] १. चीजें इकट्ठी करने की क्रिया या भाव। २. जमा करना। संकलन। ३. इकट्ठी की हुई चीजों का ढेर या राशि (एक्यूमुलेशन)। ४. अधिकता। बहुलता।
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संचयन  : पुं० [सं० सम्√ चि (एकत्र करना)+ल्युट्-अन] १. संचय करने या होने की क्रिया या भाव। २. किसी वस्तु का धीरे धीरे एकत्र होते हुए किसी बड़ी राशि का चित्र धारण करना। इकट्ठा या जमा होना (एक्यूमुलेशन)।
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संचयिका  : वि० [सं० संचय+ठञ्-इक] जो संचय करता हो। एकत्र या जमा करनेवाला।
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संचयी (यिन्)  : वि० [सं० संचय+इनि] संचय करनेवाला जमा करनेवाला। पुं० कंजूस। कृपण।
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संचर  : पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+घ] १. गमन। चलना। २. पुल। सेतु। ३.पानी निकलने का रास्ता।। ४. मार्ग। रास्ता। ५. जगह। स्थान। ६. देह। शरीर। ७. संगी। साथी।
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संचरण  : पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+ल्युट्-अन] १. संचार करने की क्रिया या भाव। चलना। गमन। २. पसरना। फैलना। ३. काँपना।
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संचरना  : अ० [सं० संचरण] १. घूमना-फिरना। चलना। २. फैलना। ३. प्रचलित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=संचारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संचल  : पुं० [सं० सम्√ चल (अस्थिर)+अच्] सौवर्च्चल लवण। साँचर नमक। वि० काँपता हुआ।
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संचलन  : पुं० [सं० सम्√ चल् (हिलना)+ल्युट्-अन] १. हिलना-डोलना। २. चलना। ३. काँपना।
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संचार  : पुं० [सं०] १. गमन। चलना। २. चलाना। ३. किसी के अन्दर पैठकर दूर तक फैलना। ४. वह राह जिस पर से होकर कोई चीज फैलती हो। ५. आज-कल संदेश, समाचार आदि तथा आदमी सामान आदि भेजने की क्रिया प्रकार और साधन (कम्यूनिकेशन)। ६. रास्ता दिखाना। मार्गदर्शन। ७. विपत्ति। ८. साँप की मणि। ९. देश। १॰. उत्तेजित करना। ११. संक्रमण (ग्रह आदि का)।
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संचारक  : वि० [सं० सम्√ चर् (चलना)+ण्वुल्-अक][स्त्री० संचारिका] संचार करने या फैलानेवाला। पुं० १. नेता। सरदार। २. अन्वेषक।
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संचारण  : पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+णिच्-ल्युट्-अन][भू० कृ० संचारित] संचार करने की क्रिया या भाव।
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संचारना  : स० [सं० संचारण] १. संचार करना। फैलाना। २. चलाना। ३.चलने और घूमने फिरने में प्रवृत्त करना। उदा०—पुनि इबलीस सँचारेउ डरत रहे सब कोउ।—जायसी।
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संचार-साधन  : पुं० [ष० त०] दो या अधिक स्थानों या व्यक्तियों के बीच संबंध स्थापित करने के साधन। डाक, तार, समुद्री तार, रेडियो आदि और गमनागमन के साधन। (मीन्स ऑफ़ कम्यूनिकेशन)।
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संचारिका  : स्त्री० [सं०] १. दूती। कुटनी। २. नासिका। नाक। ३. बू। गंध। वि० ‘संचारक’ का स्त्री०।
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संचारिणी  : स्त्री० [सं० सम्√चर् (चलना)+णिनि-ङीप्] १. हंसपदी नाम की लता। २. लाल लजालू। वि० ‘संचारी’ का स्त्री।
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संचारित  : भू० कृ० [सं० सम्√चर् (चलना)+णिच्-कत] १. जिसका संचार किया गया हो। चलाया या फैलाया हुआ। २. भड़काया हुआ। ३. पहुँचाया हुआ।
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संचारी  : वि० [सं० सम्√ चर् (चलना)+णिनि-दीर्घ-नलोप][स्त्री० संचारिणी] १. संचरण या संचार करने वाला। २. आया हुआ। आगंतुक। पुं० १. साहित्य में वे तत्त्व, पदार्थ या भाव जो रस में संचार करते हुए उसके परिपाक में उपयोगी तथा सहायक होते हैं। इन्हीं को ‘व्यभिचारी भाव’ भी कहते हैं। (स्थायी भाव से भिन्न)। विशेष—यह माना गया है कि स्थायी भाव तो रस के परिपाक तक स्थिर रहते हैं परन्तु संचारी भाव अस्थिर होते और आवश्यकता तथा सुभीते के अनुसार सभी रसों में संचार करते रहते हैं। इसकी संख्या ३३ कही गई है,यथा-निर्वेद ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, मद धृति, आलस्य, विषाद, मति, चिंता, मोह, स्वप्न, बिबोध, स्मृति, आमर्ष, गर्व, उत्सुकता, अवहित्थ, दीनता, हर्ष, व्रीड़ा, उग्रता, निद्रा, व्याधि, मरण, अपस्मार, आवेग, मस, उन्माद, जड़ता, चपलता और विर्तक। २. संगीत में किसी गीत के चार चरणों में से तीसरा। ३. वायु। हवा। ४. धूप नामक गंध द्रव्य।
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संचाल  : पुं० [सं० सम्√ चल् (काँपना)+ण—घञ् या संचालन] १. काँपना। २. चलना।
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संचालक  : वि० [सं० संचाल+कन् सम्√ चल् (चलना)+ण्वुल-अक] जो संचालन करना हो। चलाने या गति देनेवाला। परिचालक। पुं० वह प्रधान अधिकारी जो किसी कार्य, विभाग, संस्था आदि चलने की सारी व्यवस्था करता हो। निरीक्षण तथा निर्देशन करनेवाला विभागीय अधिकारी जो किसी कार्य, विभाग, संस्था आदि चलने की सारी व्यवस्था करता हो। निराक्षण तथा निर्देशन करनेवाला विभागीय अधिकारी। निदेशक (डाइरेक्टर)।
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संचालन  : पुं० [सं० सम्√चल् (चलना)+णिच्-ल्युट्-अन] १. चलाने की क्रिया। परिचालन। २. ऐसा प्रबंध या व्यवस्था जिसमें कोई काम चलता या होता रहे। किसी कार्य आदि का किया जानेवाला निर्देशन। ३. नियंत्रण।
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संचालित  : भू० कृ० [सं०] (कार्य, विभाग या संस्था) जिसका संचालन किया गया हो या किया जा रहा हो।
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संचाली  : स्त्री० [सं० संचाल-ङीप्] गुंजा। घुँघची। वि० दे० ‘संचालक’।
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संचिका  : स्त्री० [सं० संचय] वह नत्थी जिसमें पत्र, कागज आदि इकट्ठे करके रखे जाते हैं। मिसिल (फ़ाइल)।
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संचित  : भू० कृ० [सं०] १. संचय किया हुआ। इकट्ठा, एकत्र या जमा किया हुआ। २. ढेर के रूप में रखा, लगाया या लाया हुआ (एक्यूमुलेटेड)। ३. संचिका या नत्थी में लगाया हुआ।
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संचित-कर्म  : पुं० [सं०] १. वैदिक युग में यज्ञ की अग्नि संचित कर लेने पर किया जानेवाला एक विशिष्ट कर्म। २. आज-कल, पूर्व जन्म में किए हुए वह वे सब कर्म जिनका फल इस जन्म में अथवा आनेवाले जन्मों में भोगना पड़ता है।
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संचिति  : स्त्री० [सं० सम्√ चि (रखना)+क्तिन्] १. संचित करने की क्रिया या भाव। संचय। २. तह लगाना।
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संछर्दन  : पुं० [सं० सं√छर्द् (वमन करना)+ल्युट्-अन] ग्रहण में एक प्रकार का मोक्ष (ज्योतिष)।
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संज  : पुं० [सं० सम्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. शिव। २. ब्रह्मा।
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संजन  : पुं० [सं०√ सञ्ज् (बाँधना)+ल्युट्-अन] १. बाँधना। २. बन्धन। ३. संघठन।
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संजनन  : पुं० [सं० सम्√जन् (उत्पन्न करना)+ल्युट्-अन][भूत० कृ० संजनित]=जनन।
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संजनी  : स्त्री० [सं० संजन-ङीप्] वैदिक काल का एक प्रकार का अस्त्र जिससे वध या हत्या की जाती थी।
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संजनीपति  : पुं० [सं०] यमराज (डिं०)।
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संजम  : पुं०=संयम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजमी  : वि०=संयमी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजय  : पुं० [सं० सं√ जि (जीतना)+अष्] १. ब्रह्मा। २. शिव। ३. धृतराष्ट्र का मुख्य मंत्री जिसने उन्हें युद्ध-क्षेत्र का सारा हाल सुनाया था।
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संजल्प  : पुं० [सं०] साथ बैठकर आपस में की जानेवाली बात-चीत।
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संजात  : भू० कृ० [सं०] १. किसी के साथ उत्पन्न। २. किसी से उत्पन्न। जात। जैसे—घात-संजात=हनुमान्। ३. मिला हुआ। प्राप्त। पुं० पुराणानुसार एक प्राचीन जाति।
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संजात बलि  : वि० [सं०] मरे हुए प्राणियों का माँस खानेवाला। पुं० डोमकौआ।
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संजाफ  : स्त्री० [फा० संजाफ़] १. झालर। किनारा। कोर। २. रजाइयों आदि में लगाई जानेवाली गोट। मगजी। पुं० वह घोड़ा जिसका आधा भाग लाल तथा आधा भाग सफेद (या हरा) होता है।
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संजाफी  : वि० [हिं० संजाफ] जिसमें संजाफ लगी हो। किनारेदार। झालरदार।
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संजाब  : पुं० [फा०] १. चूहे के आकार का एक जन्तु जो प्रायः तुर्किस्तान में होता है। २. एक प्रकार का चमड़ा। ३. संजाफ। (घोड़ा)।
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संजीदगी  : स्त्री० [फा०] १. संजीदा होने की अवस्था या भाव। २. आचरण, विचार य़ा व्यवहार की गंभीरता। ३. स्वभाव संबंधी शिष्टता तथा सौम्यता।
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संजीदा  : वि० [फा० संजीदा] [भाव० संजीदगी] जिसके व्यवहार या विचारों में गंभीरता हो। गंभीर और शान्त। २. बुद्धिमान। समझदार।
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संजीव  : पुं० [सं०] १. मरे हुए को फिर से जिलाना। पुनः जीवन देना। २. वह जो मरे हुए को फिर से जीवित करता हो। ३. बौद्धों के अनुसार एक नरक।
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संजीवक  : वि० [सं० सम्√जीव् (जिलाना)+ण्वुल्-अक] पुनर्जीवित करने वाला। नया जीवन देने वाला।
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संजीवकरणी  : स्त्री० [सं०] १. एक कल्पित बूटी जिसके द्वारा मृत को फिर से जीवित किया जाता था। २. एक प्रकार की विद्या जिसके प्रभाव से मृत प्राणी फिर से जीवित किया जाता है।
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संजीवन  : पुं० [सं० सम्√ जीव् (जीवित करना)+ल्युट्-अन] १. भली-भाँति जीवन व्यतीत करने की क्रिया। अच्छी तरह जीवित रहना या जीवन बिताना। २. पुनर्जीवित करना। नया जीवन देना। मनु-स्मृति के अनुसार। एक नरक। वि० जीवन देने या जिलाने वाला।
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संजीवनी  : स्त्री० [सं० संजीवन-ङीष्] १. पुनर्जीवित करने वाली एक कल्पित ओषधि। २. पुनर्जीवित करने की एक विद्या।
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संजीवित  : भू० कृ० [सं० सम√जीव् (जीवित रखना+क्त) १. जो मर जाने पर फिर से जीवित किया गया हो। २. संजीवनी द्वारा जिसे पुनर्जीवित किया गया हो।
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संजीवी (विन्)  : वि० [सं० सम्√जीव् (जीवित करना)+णिनि] मृत को जीवित करने वाला।
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संजुक्त  : वि०=संयुक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजुग  : [सं० संयुक्त] संग्राम। युद्ध। लड़ाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संजुत  : वि०=संयुक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजुता  : स्त्री० [सं० संयुक्ता] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ज, ग, होते है। इसे ‘संयुक्त’ या संयुक्ता भी कहते हैं।
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संजूत  : वि० [?] सावधान—उदा-होहू संजूत बहुरि नहिं अवना।—जायसी।
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संजोइल  : वि० [सं, सज्जित हिं० संजोना] अच्छी तरह सजाया हुआ। सुसज्जित। २. एकत्र किया हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संजोऊ  : पुं० [हिं० संजोना] १. सजावट। २. तैयारी। उपक्रम। ३. सामग्री। सामान। पुं=संयोग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोग  : पुं०=संजोग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजोगिता  : स्त्री०=संयोगिता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संजोगिनी  : स्त्री०=संयोगिनी (जो वियोगिनी न हो अर्थात जिसका प्रेमी उसके पास हो।)
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संजोगी  : वि० [सं० संयोगिन] १. संयुक्त, मिला हुआ। २. जो अपने प्रियतम के पास या साथ हो। संयोगी। ‘वियोगी’। का विपर्याय। पुं० एक तरह का बड़ा पिंजरा। जो वस्तुतः दोपिंजरों को जोड़कर बनाया गया होता है।
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सँजोना  : स० [सं० सज्जा] १. सज्जित करना। अलंकृत करना। सजाना। २. सामग्री आदि एकत्र करके क्रम से रखना।
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सँजोवन  : पुं० [हिं० संजोना] सज्जित करने की क्रिया या भाव। सजाने का व्यापार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवना  : स०=सँजोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवल  : पुं० [हिं० संजोना] १. सुसज्जित। २. आवश्यक सामाग्री से युक्त। सेना या सैनिक सामग्री से युक्त। ३. सजग। सावधान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवस  : वि०=संजोवल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोवा  : पुं० [हिं० सँजोना] १. सजावट। श्रृंगार। २. लोगों का जमघट। जमावड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँजोह  : पुं० [सं० संयोग] लकड़ी का वह चौखट जो जुलाहे कपड़ा बुनते समय लटका देते हैं और जिसमें राछ या कंघी लटकी रहती है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संज्ञ  : वि० [सं० सम√ज्ञा (जानना)+क] १. जिसे संज्ञा प्राप्त हो। चेतन। २. नामधारी। ३. चलते समय जिसके घुटने टकराते हों। पुं० झाऊ या पीतकाष्ठ नामक पौधा।
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संज्ञक  : वि० [सं० संज्ञ+कन्]जिसकी कुछ संज्ञा हो। संज्ञा से युक्त। गोपाल संज्ञक व्यक्ति।
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संज्ञपन  : पुं० [सं० सम्√ ज्ञप् (जानना)+ल्युट्-अन] १. मार डालने की क्रिया। हत्या। २. कोई बात किसी पर अच्छी तरह प्रकट करना। ठीक और पूरी तरह से बतलाना।
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संज्ञप्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संज्ञप्ति] सूचित किया हुआ।
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संज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० सम्√ज्ञप् (बताना)+क्तिन) सूचित करना। संज्ञपन।
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संज्ञा  : स्त्री० [सं०] १. प्राणियों के शारीरिक अंगों की वह शक्ति जिससे उन्हें बाह्म पदार्थों का ज्ञान अपने शरीर या मन के व्यापारों की अनुभूति हो। चेतनाशक्ति। होश। (सेन्स)। २. बुद्धि। ३. ज्ञान। ४. वस्तु, व्यक्ति आदि के पुकारे जाने का नाम। ५. किसी वस्तु या कार्य के लिए परिभाषित रूप में प्रचलित नाम। (टेक्निकल टर्म) ६. व्याकरण में वह विकारी शब्द जो किसी वास्तविक या कल्पित वस्तु का बोधक होता है। जैसे—राम, पर्वत, घोड़ा, दया आदि। (नाउन) ७. आँख, हाथ आदि हिलाकर किया जाने वाला इशारा। या संकेत। ८. विश्वकर्मा की एक कन्या जो सूर्य को ब्याही थी। ९. गायत्री का एक नाम।
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संज्ञात  : भू० कृ० [सं० सम्√ज्ञा (जानना)+क्त) अच्छी तरह जाना या समझा हुआ।
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संज्ञान  : पुं० [सं० सम√ज्ञ (जानना)+ल्यूट-अन] १. संकेत। २. इशारा। ३. ज्ञान विशेषतः सम्यक् ज्ञान।
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संज्ञापन  : पुं० [सं०] वह शब्द जो किसी वस्तु या भाव की संज्ञा का नाम के रूप में प्रचलित हो। नामवाचक शब्द।
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संज्ञापन  : पुं० [सं० सम्√ज्ञा (जानना)+णिच्-प्रक-ल्यूट-अन्] १. ज्ञान कराना या सूचित करना।। २. सूचना पत्र विशेशतः ऐसा सूचना पत्र जो माल के साथ भेजा जाता और जिसमें भेजे हुए माल का मूल्य विवरण आदि रहता है। (एडवाइस) ३. कथन।
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संज्ञापुत्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] सूर्य की पुत्री, यमुना जो संज्ञा के गर्भ में उत्पन्न हुई थी।
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संज्ञावली  : स्त्री०=नामावली।
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संज्ञावान् वत्)  : वि० [सं० संज्ञा+मतुप्-य=व-नुम्-दीर्घ] १. जो संज्ञा से युक्त हो। २. जिसमें चेतना या होश-हवास हो। ३. जिसका कोई नाम हो।
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संज्ञाहीन  : वि० [सं० तृ० त०] जिसे संज्ञा या चेतना न हो। चेतना-रहित। बेहोश। बेसुध।
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संज्ञिका  : स्त्री० [सं० संज्ञा+कन्-इत्व-टाप]=संज्ञा (नाम)।
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संज्ञी  : वि०=संज्ञावान। पुं० जीव। प्राणी।
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संज्वर  : पुं० [सं० स०√ज्वर (ताप बढ़ना)+णिच्-अच्] १. बहुत तीव्र ज्वर। बहुत तेज बुखार। २. क्रोध का उग्र आवेश।
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सँझ  : स्त्री० हिं० साँझ का संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० पदों के पहले लगने पर प्राप्त होती है। जैसे—सँझला, सँझवाती।
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सँझला  : वि० [सं० संध्या० प्रा० सँझा+हिं० ला (प्रत्य०)] संध्या संबंधी। संध्या का। वि० [हिं० मँझली का अनु०] मँझला से कुछ छोटा, और छोटा से बड़ा।
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सँझवाती  : स्त्री० [सं० संध्या+वती] १. संध्या के समय जलाया जाने वाला दीपक। शाम का चिराग। २. देहात में दीपक जलाने के समय गाया जाने वाला गीत। वि० संध्या-संबंधी। संध्या का।
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संझा  : स्त्री०=संध्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संझिया, सँझैया  : पुं० [सं० संध्या] वह भोजन जो संध्या के समय किया जाता है। रात्रि का भोजन। स्त्री०=साँझ (संध्या का समय)।
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सँझोखा  : पुं० [सं० संध्या] संध्याकाल। वि० [स्त्री० सँझोखी] संध्या के समय का। उदा—चलि बरि अलि अभिसार को भलीसँझोखी सैल।—बिहारी।
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सँझोखे  : अव्य=संध्या समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँठ  : पुं० [सं० शांत] १. शांति। २. निस्तब्धता। २. चुप्पी। मौन। मुहा—सेँठ मारना=चुप हो जाना। चुप्पी साधना। वि०=शठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संड  : पुं० [सं० शंड] साँड़। पद—संड-मुसंड।
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संड-मुसंड  : वि० [सं० शुंड, मुशुंडि=हाथी, हिं० संड+मुसंड (अनु०)] हट्टा-कट्टा। मोटा-ताजा।
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सँड़सा  : पुं० [हिं० सँड़सी] बड़ी सँड़सी।
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सँड़सी  : स्त्री० [?] रसोई में बरता जाने वाला एक तरह का कैंची नुमा उपकरण जिसके द्वारा बटलोई, तसला आदि चूल्हे पर से उतारे जाते हैं।
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संडा  : वि० [हिं० साँड़] साँड़ के समान ताकत वाला। हष्ट-पुष्ट। उदा०-मुल्को में सरनाम कि जिनके अधिक विराजे झंडे। जितने चेले गुरु नानक के, सदा बने रहें झंडे। पद—संडा-मुसंडा। पुं० बलवान और हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति या प्राणी।
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संड़ाई  : स्त्री० [हिं० साँड़] मशक की तरह बना हुआ भैंस आदि का वह हवा भरा हुआ चमड़ा जो नदी आदि पार करने के लिए नाव के स्थान पर काम पर लाते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संडास  : पुं०[?]कुएँ की तरह एक प्रकार का गहरा गड्ढा जिसमें लोग मल त्याग करते हैं। शौच-कूप।
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संडास-टंकी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की लोहे की टंकी जिसमें घर भर का मल या पाखाना इकठ्ठा होता रहता है (सेप्टिक टैंक)।
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संत  : पुं० [सं० सत] १. साधु, सन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष। सज्जन और महात्मा। २. परम धार्मिक और साधु व्यक्ति। ३.साधुओं की परिभाषा में, वह सम्प्रदाय मुक्त साधु जो विवाह करके ग्रहस्थ बन गया हो। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २१ मात्राएँ होती हैं। वि० बहुत ही निर्मल और पवित्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतत  : अव्य० [सं०] निरंतर। बराबर। लगातार। वि० १. फैला या फैलाया हुआ। विस्तृत। २. लगातार चलता या बना रहने वाला। जैसे—संतत ज्वर, संतत वर्षा। स्त्री०=संतति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतति  : स्त्री० [सं०] १. फैलाव। विस्तार। २. किसी काम या बात का लगातार होता रहना। ३. बाल-बच्चे। संतान। औलाद। ४. प्रजा। रिआया। ५. गोत्र। ६. झुंड। दल। ७. मार्कंडेय पुराण के अनुसार ऋतु की पत्नी जो दत्त की कन्या थी।
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संतति-होम  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो संतान की कामना से किया जाता था।
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संतपन  : पुं० [सं० सम्√ तप् (तप्त होना)+ल्युट-अन] १. अच्छी तरह तपने या तापने की क्रिया या भाव। २. बहुत अधिक संताप या दुःख देना।
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संतृप्त  : भू० कृ० [सं०] १. बहुत अधिक तपा या जला हुआ। दग्ध। २. जिसे बहुत अधिक संताप या मानसिक कष्ट पहुँचा हो। ३. जिसका मन बहुत दुःखी हो। ४. थका हुआ। श्रान्त। ५. गला या पिघला हुआ।
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संतरण  : पुं० [सं० सम्√ तृ (तैरकर पार होना)+ल्यूट्—अन] १. अच्छी तरह से तैरने या पार होने की क्रिया या भाव। वि० १. तारने वाला। २. नष्ट करने वाला (यौं के अंत में )
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संतरा  : पुं० [पुर्त० संगतरा] एक प्रकार का बड़ा और मीठा नीबू। बड़ी नारंगी।
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संतरी  : पुं० [अं० सेंटरी] १. किसी स्थान पर पहरा देने वाला सिपाही। पहरेदार। २. द्वारपाल।
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संतर्जन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संतर्जित] १. डाँट-डपट करना। डराना। धमकाना। २. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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संतर्पक  : वि० [सं० सम√तृप् (तृप्त करना)+ण्वुल्-अक] संतर्पण करने वाला।
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संतर्पण  : पुं० [सं०] [कर्ता संतर्पक, भू० कृ० संतृप्त] १. अच्छी तरह तृप्त, प्रसन्न या संतुष्ट करने की क्रिया या भाव। २. आधुनिक विज्ञान में, कोई ऐसी प्रक्रिया जिससे (क) कोई घोल किसी वस्तु के अन्दर पूरी तरह से समा जाय; या (ख) कोई तत्व या वस्तु किसी दूसरे पदार्थ के अन्दर अच्छी तरह से भर जाय।
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संतान  : पुं० [सं०] १. स्त्री और पुरुष या नर और मादा के संयोग से उत्पन्न होने वाले उसी प्रकार या वर्ग के अन्य जीव आदि। २. बाल-बच्चे लड़के बाले। संतति। औलाद। ३. कुल। वंश। ४. विस्तार। फैलाव। ५. लगातार चलता रहने वाला क्रम। धारा। ६. प्रबंध। व्यवस्था। ७. कल्पतरु। ८. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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संतान-गणपति  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक विशिष्ट गणपति जो संतान देने वाले कहे गये हैं।
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संतान-संधि  : स्त्री० [सं०] राजनीति क्षेत्र में ऐसी संधि जो अपना लड़का या लड़की देकर की जाय।
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संतानिक  : वि० [सं० संताम+ठन्-इक] कल्पतरु के फूलों से बना हुआ। वि० संतान-संबंधी। संतान का।
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संतानिका  : स्त्री० [सं० संतानिक—टाप्] १. क्षीर सागर। २. फेन। ३. मलाई। ४. चाकू का फल। ४. एक तरह की घास।
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संतानिनी  : स्त्री० [सं० संताप+इनि-ङीप्] दूध या दही पर की मलाई। साढ़ी। वि० संतान अर्थात बाल-बच्चों वाली (स्त्री)।
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संताप  : पुं० [सं० सम्√तप् (तपना)+घञ] १. अग्नि धूप आदि का बहुत तीव्र ताप। आँच। २. शरीर में किसी कारण से होने वाली बहुत अधिक जलन। ३. ज्वर। बुखार। ४. शरीर में होने वाला दाह नामक रोग। ५. कोई ऐसा बहुत बड़ा कष्ट या दुःख जिससे मन जलता हुआ सा जान पड़े। बहुत तीव्र मानसिक क्लेश या पीड़ा। ६. दुश्मन। शत्रु। ७. पाप आदि करने पर मन में होने वाला अनुताप।
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संतापन  : पुं० [सं० सम्√तप् (तपाना)+णिच्-ल्यूट्—अन्] १. संताप देने या संतप्त करने की क्रिया। जलाना। २. किसी को बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। संतप्त करना। ३. एक हथियार। ४. काम देव के पाँच बाणों में से एक वि० संतप्त करने वाला।
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संतापना  : स० [सं० संतापन] संताप देना। बहुत अधिक दुःख देना। सताना।
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संतापित  : भू० कृ०[सं० सम्√ तप् (ताप पहुँचाना)+णिच्-क्त] जिसे बहुत संताप पहुँचाया गया हो। पीड़ित। संतप्त।
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संतापी (पित्)  : वि० [सं० सम्√ तप् (तप्त करना)+णिन्, संतापिन] संतप्त करने या दोष देनेवाला।
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संताप्य  : वि० [सं० सम्√ तप् (तपाना)+णिच्-ण्यत्] १. जलाये या तपाये जाने के योग्य। २. पीड़ित या संतप्त किये जाने योग्य।
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संति  : स्त्री० [सं०√ सनु (दान करना)+क्तिच्] १. दान। २. अन्त। समाप्ति।
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संती  : अव्य० [सं० संति?] १. बदले में। एवज में। स्थान पर। २. द्वारा।
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संतुलन  : पुं० [सं०] १. अच्छी तरह तौलने की क्रिया या भाव। २. तौलते समय तराजू के दोनों पलड़े बराबर या ठीक करना या होना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, वह स्थिति जिसमें सभी अंग या पक्ष बराबर के तथा यथा स्थान हों (बैलेन्स)।
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संतुलित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका संतुलन हुआ हो। २. जिसमें दोनों पक्षों का बल या प्रभाव समान हो या रखा जाय। ३. न अधिक न कम। ठीक (बैलेन्सड)।
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संतुष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√तुष् (संतोष होना)+क्त] [भाव० संतुष्टि] १. जिसका संतोष कर दिया गया हो। जिसकी तृप्ति हो गई हो। तृप्त। २. समझाने बुझाने से राजी हो गया या मान गया हो।
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संतुष्टि  : स्त्री० [सं० सम्√तुष् (तुष्ट होना)+क्तिज] १. संतुष्ट होने की क्रिया या भाव। पृप्ति २. संतोष। ३. प्रसन्नता।
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संतूर  : पुं० [कश्मी०] शत-तंत्री वीणा का कश्मीरी नाम।
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संतोख  : पुं०=संतोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संतोष  : पुं० [सं० स०√तुष् (संतोष करना)+घञ] १. वह मानसिक अवस्था जिसमें व्यक्ति प्राप्त होने वाली वस्तु को यथेष्ट समझता है और उससे अधिक की कामना नहीं रखता है। २. वह अवस्था जिसमें अभीष्ट कार्य होने या वांछित वस्तु प्राप्त होने पर क्षोभ मिट जाता है। और फलतः कुछ अवस्थाओं में हर्ष भी होता है। जैसे—मजदूरों की माँगें पूरी हो जाने पर ही संतोष होगा। तृप्ति। ३. हर्ष। आनन्द। ४. धैर्य।
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संतोषक  : वि० [सं० संतोष+कन्] १. संतुष्ट करने वाला। २. प्रसन्न करने वाला।
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संतोषण  : पुं० [सं० सम्√ तुष् (संतोष होना)+ल्युटु-अन] १. संतोष करने की क्रिया या भाव। २. संतुष्ट करने की क्रिया भाव।
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संतोषणीय  : पुं० [सं० सम्√ तुष् (संतोष होना)+अनीयर] जिससे या जितने में संतोष हो सके।
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संतोषना  : अ० [सं० संतोष] १. संतोष होना। २. संतुष्ट होना। स० १. संतोष करना। २. संतुष्ट करना।
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संतोषी (षिन्)  : वि० [सं० सम्√तुष् (प्रसन्न रहना)+णिनि] (व्यक्ति) जो प्राप्त होने वाली वस्तु को यथेष्ट समझता होता हो और उसी में संतुष्ट रहता हो।
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संतोष्य  : वि० [सं० सम्√तुष् (संतोष करना)+यत्] जिसका संतोष करना या जिसे संतुष्ट करना आवश्यक या उचित हो।
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संत्रस्त  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे बहुत संताप हुआ हो। २. बहुत डरा हुआ। ३. भय से काँपता हुआ।
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संत्रास  : पुं० [सं० सम√त्रस् (भयभीत होना)+घञ] १. बहुत अधिक या तीव्र त्रास। २. आतंक।
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संत्री  : पुं०=संतरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संथा  : स्त्री० [सं० संहिता?] १. एक बार में पढ़ा या पढ़ाया हुआ अंश। पाठ। सबक।
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संदंश  : पुं० [सं० सं√ दंश् (पकड़ना)+अच्] १. संडसी नाम का एक औजार। २. सुश्रूत को अनुसार संडसी के आकार का प्राचीन काल का एक प्रकार का औजार जिसकी सहायता से शरीर में गड़ा हुआ काँटा आदि निकालते थे। कंकमुख। ३. न्याय या तर्क शास्त्र में अपने प्रति पक्षी को दोनो ओर से उसी प्रकार जकड़ या बाँध देना जिसप्रकार संडसी से कोई बरतन पकड़ते हैं।
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संदंशक  : पुं० [सं० संदंश+कन्] [स्त्री० अल्पा० संदंशिका] १. चिमटा। २. सँड़सी।
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संदंशिका  : स्त्री० [सं० सं√ दंश् (पकड़ना)+ण्वुल्—अक—टाप्—इत्व] १. सँड़सी। २. चिमटी। ३. कैंची।
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संद  : स्त्री० [सं० संधि] १. दरार। छेद। बिल। २. दबाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चंद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदन  : पुं०=स्यंदन (रथ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संदर्प  : पुं० [सं० सं√दर्प् दप् (गर्व करना)+घञ] अहंकार। घमंड।
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संदर्भ  : पुं० [सं०] १. भिन्न-भिन्न तत्वों या वस्तुओं को मिलाकर कोई नया और उपयोगी रूप देना। जैसे—पिरोना, बुनना, सीना आदि। २. बनावट। रचना। ३. पुस्तक लेख आदि में वर्णित प्रसंग, विषय जिसका विचार या उल्लेख हो (कान्टेक्स्ट)। जैसे—यह पद्य ‘रामवनगमन’ संदर्भ का है। ४. किसी गूढ विषय पर लिखा हुआ कोई विवेचनात्मक ग्रन्थ। ५. किसी ग्रन्थ में लिखा हुआ वह पाठ जिसके आधार पर पूर्वापर के विचार से संगति बैठकर उसका अर्थ लगाया जाता है (कान्टेक्स्ट)। जैसे—संदर्भ से तो इसका यही ठीक अर्थ जान पड़ता है। ६. एक ग्रंथ में आयी हुई ऐसी बातें जिसका उपयोग लोग अपनी जानकारी बढ़ाने के लिये या संदेह दूर करने के लिए करते हैं। वि० दे० ‘संदर्भ ग्रन्थ’।
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संदर्भ ग्रंथ  : पुं० [सं०] ऐसा ग्रंथ जिसमें जानकारी या विमर्श के लिए कुछ विशिष्ट प्रसंगों की बातें देखी जाती हों। विशेष—ऐसा ग्रंथ आद्योपान्त पढ़ा नहीं जाता बल्कि किसी जिज्ञासा की पूर्ति या संदेह के निवारण के उद्देश्य से देखा जाता है। जैसे—कोश, विश्वकोश, साहित्य कोश आदि संदर्भ के ग्रंथ हैं।
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संदर्भ साहित्य  : पुं० [सं०] साहित्य का वह अंश या वर्ग जिसमें ऐसे बड़े और महत्वपूर्ण ग्रंथ आते हैं जिनमें एक अथवा अनेक विषयों की गूढ़ बातों की पूरी छानबीन और विवेचन होता है। विशेष—ऐसे साहित्य का उपयोग साधारण रूप से पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की तरह नहीं बल्कि विशिष्ट अवसरों पर विशेष प्रकार की गंभीर जानकारी प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है। जैसे—विश्व कोष, शब्द कोष, विभिन्न जातियों, देशों और साहित्यों के इतिहास आदि (रेफरेन्स बुक्स)।
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संदर्भिका  : स्त्री० [सं० संदर्भ] किसी विशिष्ट विषय से संबंध रखने वाले संदर्भ ग्रंथों की नामावली या सूची (बिब्लियोग्राफ़ी)।
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संदर्श  : पुं० [सं० सं√दृश (देखना)+अच्] दे० ‘परिदृष्टि’।
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संदर्शन  : पुं० [सं०] १. अच्छी तरह देखना या दिखाना। अवलोकन करना या कराना। २. जाँच। परीक्षा। ३. ज्ञान। ४. आकृति। शक्ल। सूरत। ५. दर्शन।
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संदल  : पुं० [सं० चन्दन से फा०] चन्दन।
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संदली  : वि० [फा० संदल] १. संदल अर्थात चन्दन के रंग का। हलका पीला (रंग)। २. चन्दन की लकड़ी का बना हुआ। ३. (खाद्य पदार्थ) जिसमें संदल का सत्त छोड़ा गया हो। फलताः जिसमें संदल की महक हो। पुं० १. हलका पीला रंग। २. वह हाथी जिसके बाहरी दाँत नहीं होते।
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संदष्ट  : भू० कृ० [सं०] जिसे अच्छी तरह डंक या दंश लगा हो या लगाया गया हो। २. कुचला या रौंदा हुआ हो। पुं० वीणा, सितार आदि की तुंबीकी घोड़ियों में तारों के बैठने के लिए बनाए हुए खाँचे या निशान।
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संदान  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार की निहाई जिसका एक कीला नुकीला और दूसरा चौड़ा होता है। २. बाँधने की रस्सी या सिकड़ी। ३. बाँधने की क्रिया या भाव। ४. हाथी का गंडस्थल जहाँ से उसका मद बहता है।
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संदानिनी  : स्त्री० [सं० संदान+इनि—ङीप्] गौओं के रहने का स्थान। गोशाला।
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संदाह  : पुं० [सं० सं√ दह् (जलना)+घञ] वैद्यक के अनुसार मुख तालू और होठों में होने वाली जलन।
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संदि  : स्त्री०=संधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदिग्ध  : वि० [सं०] १. (कथन या वाक्य) जिसके संबंध में निर्विवाद रूप से कुछ भी कहा न जा सकता हो। २. (अर्थ, निर्वचन या व्याख्या) जिसके संबंध में किसी प्रकार का अनिश्चय हो। ३. (व्यक्ति) जिसके संबंध में अनुमान हो सके कि वह अपराधी या दोषी है (सस्पेक्टेड)। पुं० अस्पष्ट कथन। २. अनिश्चय। ३. एक प्रकार का व्यंग्य। ४. वह व्यक्ति जिसके अपराधी होने पर संदेह हो। ५. तर्क में एक प्रकार का मिथ्या उत्तर।
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संदिग्धत्व  : पुं० [सं० संदिग्ध+त्व] १. संदिग्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। संदिग्धता। २. साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस समय माना जाता है जब किसी अलंकारिक उक्ति का ठीक-ठीक अर्थ प्रकट नहीं होता या अर्थ के संबंध में कुछ संदेह बना रहता है।
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संदिग्धार्थ  : वि० [सं० संदिग्ध+त्व] १. संदिग्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस समय माना जाता है जब किसी अलंकारिक उक्ति का ठीक-ठीक अर्थ प्रकट नहीं होता या अर्थ के संबंध में कुछ संदेह बना रहता है।
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संदिग्धार्थ  : वि० [सं० कर्म० स०] जिसका अर्थ संदिग्ध या अस्पष्ट हो। पुं० विवादग्रस्त विषय।
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संदिष्ट  : वि० [सं० सं√ दिश् (कहना)+क्त] १. कहा हुआ। उक्त। कथित। २. संदेह के रूप में कहा या कहलाया हुआ। पुं० १. वार्ता। २. समाचार। ३. संदेशवाहक।
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संदी  : स्त्री० [सं० सं√दो (बँधना)+ड-ङीप्] शय्या। पलंग। खाट।
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संदीपक  : वि० [सं० सं√ दीप् (प्रदीप्त)+ण्वुल्-अक] संदीपन करने वाला। उद्दीपक।
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संदीपन  : पुं० [सं० सं√दीप् (प्रदीप्त करना)+ल्युट्-अन] १. उदीप्त अर्थात तीव्र या प्रबल करने की इच्छा या भाव। उद्दीपन। २. श्रीकृष्ण के गुरु का नाम। ३. कामदेव के पाँच बाणों में से एक। वि० उदीप्त करने वाला।
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संदीपनी  : स्त्री० [सं० संदीपन—ङीप्] संगीत में पंचम स्वर की चार श्रतियों में से तीसरी श्रुति। वि० संदीपन या उद्दीपन करनेवाली।
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संदीपित  : भू० कृ०=संदीप्त।
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संदीप्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संदीप्त] १. जिसका भली-भाँति संदीपन या उद्दीपन हुआ हो। २. जलता हुआ। प्रज्वलित। ३. खूब चमकता हुआ प्रकाशमान्।
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संदीप्य  : पुं० [सं० सं√दीप् (प्रदीप्त करना)+श—यक्] मयूर शिखा नामक वृक्ष। वि० जिसका संदीपन हो सके या होने को हो। संदीपनीय।
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संदुष्ट  : भू० कृ० [सं० सं√दुष् (खराब करना)+क्त] १. दूषित या कलुषित किया हुआ। खराब किया हुआ। २. दुष्ट। ३. कमीना।
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संदूक  : पुं० [अ० संदूक] [अल्पा संदूकचा] लकड़ी, लोहे, चमड़े आदि का बना हुआ एक प्रकार का चौकोर आधान या पिटारा जिसमें प्रायः कपड़े गहने आदि चीजें रखते हैं। पेटी। बकस।
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संदूकचा  : पुं० [अ० संदूक+चः (प्रत्य०] [स्त्री० अल्पा० संदूकची] छोटा संदूक। छोटा बकस। छोटी पेटी।
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संदूकची  : स्त्री०=संदूकंचा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूकड़ी  : स्त्री० [अ० संदूक+हिं० ड़ी (प्रत्य)] छोटा संदूक। छोटा बकस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूकी  : वि० [अ०] १. संदूक की शक्ल का। २. जो चारों ओर से संदूक की तरह बंद हो।
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संदूर  : पुं०=सिंदूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूषण  : पुं० [सं० सं√दूष् (दूषण करना)+ल्यूट्-अन्] [भू० कृ० संदूषित, संदुष्ट] १. कलुषित करना। २. गंदा या खराब करना।
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संदेश  : पुं० [सं०] १. खबर। समाचार। २. वह कथन या बात जो लिखित या मौखिक रूप से एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति भेजी गई हो। संदेशा। ३. अलौकिक, ईश्वरी या दैवी प्ररणा दायक विचार। ४. आजकल किसी बहुत बड़े आदमी वह कथन जिसमें उसके मतों या विचारों का मुख्य सारांश होता है और प्रायः जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार का आचार व्यवहार करने का उल्लेख होता है (मेसेज, अंतिम दोनों अर्थों के लिए)। ५. आज्ञा। आदेश।
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संदेश-काव्य  : पुं० [सं०] ऐसा काव्य जिसमें बिरही की विरह-वेदना किसी के द्वारा संदेश के रूप में अपने प्रिय के पास भेजने का वर्णन होता है। विशेष—ऐसे काव्यों की परम्परा कालीदास के सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूत से चली थी। उसके अनुकरण पर पवन-दूत, हंस-दूत आदि अनेक काव्यों की रचना हुई थी।
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संदेश-हर  : पुं० [सं०] संदेश या समाचार ले जाने वाला दूत। वार्तावह।
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संदेशा  : पुं०=संदेश।
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संदेशी  : पुं० [सं० सं√दिश (कहना)+णिनि, संदेशिन] संदेश लाने या ले जाने वाला। संदेशवाहक।
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संदेस  : पुं०=संदेश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदेसी  : पुं० [हिं० संदेसा+ई (प्रत्य०)] वह जो संदेश ले जाता हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदेह  : पुं० [सं०] १. किसी चीज या बात के संबंध में उत्पन्न होने वाला यह भाव या विचार कि कहीं यह अनुचित, त्याज्य या दूषित तो नहीं हैं अथवा क्या इसकी वास्तविकता या सत्यता मानने योग्य है। शक (सस्पिशन)। विशेष—मन में इस प्रकार का भाव प्रायः यथेष्ट प्रमाण के आभाव में ही उत्पन्न होता है, और ऊपर से दिखाई देने वाले तत्व या रूप पर सहसा विश्वास नहीं होता। दे० ‘शंका’ और ‘संशय’। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—मिटना।—मिटाना।—होना। २. उक्त के आधार पर साहित्य में, एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी चीज या बात को देखकर उसकी यथार्थता या वास्तविकता के संबंध में मन में संदेह बने रहने का उल्लेख होता। इस प्रकार का कथन कि जो कुछ सामने है, वह अमूक है अथवा कुछ और ही है। यथा (क) कैंधौं फूली दुपहरी, कैधौं फूली साँझ।—मतिराम। (ख) निद्रा के उस अलसित में वह क्या भावों की छाया। दृग पलकों में विचर रही या वन्य देवियों की माया।—पंत।
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संदेहवाद  : पुं० [सं०] दार्शनिक क्षेत्र में यह मत या सिद्धान्त की वास्तविक या सत्य का कभी ठीक और पूरा ज्ञान नहीं होने पाता, इसीलिए हर बात के संबंध में मन में संदेह का भाव बना ही रहना चाहिए। विशेष—जिसमें जिज्ञासा की तृ्ति के लिए संदेह का स्थायी रूप में बना रहना आवश्यक माना जाता है।
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संदेहवादी  : वि० [सं०] संदेह वाद संबंधी। पुं० वह जो संदेहवाद का अनुयायी और समर्थक हो।
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संदेहात्मक  : वि० [सं०] संदिग्ध (दे०)।
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संदेहास्पद  : वि० [सं०] संदिग्ध (दे०)।
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संदोल  : पुं० [सं० सं√दुल् (झूलना)+घञ] कान में पहनने का कर्ण फूल नाम का गहना।
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संदोह  : पुं० [सं० सं√दूह् (पूरा करना)+घञ्] १. दूध दोहना। २. किसी वस्तु का समूचा मान या रूप। ३. ढेर। राशि। ४. समूह। झुंड।
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संद्रव  : पुं० [सं० सं√द्रु (गूंथना)+अच्] गूँथने की क्रिया। गुंथन।
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संद्राव  : पुं० [सं० सं√द्रु (भागना)+घञ्] युद्ध क्षेत्र में पराजित होने पर अथवा पराजय के भय से भागना। पलायन।
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संध  : स्त्री० [सं० संधि] १. जोड़। संधि। २. दो चीजों के बीच में पड़ने वाली थोड़ी सी जगह। ३. दे० ‘सेंध’।
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संधउरा  : पुं०=सिंधोरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संधना  : अ० [सं० संधि] संयुक्त होना। मिलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० संयुक्त करना। मिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=संधानना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संधा  : वि० [सं०] १. अभिसंधि या अभिप्राय से युक्त। जैसे—संधाभाषा स्त्री० १. मेल। संधि। २. घनिष्ठ संबंध। ३. अभिप्राय। आशय। ४. आपस में होने वाला करार, निश्चय या समझौता। ५. किसी प्रकार का दृढ निश्चय। ६. सीमा। हद। ७. स्थिति। ८. सवेरे और संध्या के समय दिखाई पड़ने वाली सूर्य की लालिमा या उसके कारण होने वाला प्रकाश। ९. संध्या का समय। १॰. अनुसंधान। तलाश।
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संधाता  : पुं० [सं० सं√ (रखना)+तृच्, संधातू] १. शिव। २. विष्णु।
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संधान  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संधानित] १. निशाना लगाने के लिए कमान पर ठीक तरह से लगाना। निशाना बैठना। २. ढूँढने या पता लगाने का काम। ३. युक्त करना। मिलाना। ४. मृत शरीर को जीवित करना। संजीवन। ५. दो चीजों का मिलना। संधि। ६. किसी का किसी उद्देश्य से किसी ओर मिलना। संश्रय। (एलायन्स)। ७. धातु आदि के खंडों को मिलाकर जोड़ना (वेल्डिंग)। ८. किसी चीज को सड़ाकर उसमें खमीर उठाना (फ़मटेशन)। ९. मदिरा या शराब चुआना। १॰. मदिरा। शराब। ११. काँजी। १२. अचार। १३. सीमा। हद। १४. काठियावाड़ या सौराष्ट्र प्रदेश का पुराना नाम। १५. संधि।
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संधानना  : स० [सं० संधान+ना (प्रत्य०)] १. धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्य साधना। निशाना लगाना। २. तीर या बाण चलाना। ३. किसी प्रकार का शस्त्र चलाने के लिए निशाना साधना।
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संधाना  : पुं० [सं० संधानिका] अचार।
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संधानित  : भू० कृ० [सं० संधान+इतच्] १. जोड़ा बाँधा या मिलाया हुआ। २. लक्ष्य किया हुआ। जिस पर निशाना साधा गया हो।
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संधानिनी  : स्त्री० [सं० संधान+इनि-ङीप्] गौओं के रहने का स्थान। गौशाला।
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संधानी  : स्त्री० [सं०] एक में मिलने या मिश्रित होने की क्रिया या मिलन। मिश्रण। २. प्राप्ति। लाभ। ३. बंधन। ४. अन्वेषण। तलाश। ५. पालन-पोषण। ६. काँजी। ७. अचार। ८. शराब बनाने की जगह। ९. धातुओं आदि की ढलाई करने की जगह। १॰. दे० ‘संधान’।
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संधापगमन  : पुं० [सं०] समीपवर्ती शत्रु से संधि करके दूसरे शत्रु पर चढाई करना।
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संधा भाषा  : स्त्री० [सं०] बौद्ध तांत्रिकों और परावर्ती साधकों में प्रचलित एक प्राचीन भाषा-प्रणाली जिसमें अलौकिक और रहस्यात्मक बातें सीधे सादे शब्दों में नहीं बल्कि, ऐसे प्रतीकात्मक जटिल शब्दों में कही जाती थीं, जिनसे जनसाधारण कुछ भी मतलब नहीं निकाल सकते थे।
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संधा-वचन  : पुं०=संधा-भाषा।
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संधि  : स्त्री० [सं०] १. दो या अधिक चीजों का एक में जुड़ना या मिलना। मेल। संयोग। २. वह स्थान जहाँ कई चीजें एक में जुड़ी या मिली हों। मिलन की जगह। जोड़। ३. शरीर में वह स्थान जहाँ कई हड्डियाँ एक दूसरे से मिलती हैं। गाँठ। जोड़। (ज्वाइन्ट) जैसे—कोहनी, घुटना आदि। ४. व्याकरण में शब्दों के रूप में होने वाला वह विकार जो दो अक्षरों के पास-पास आने पर उनके मेल या योग के कारण होता है। ५. एक युग की समाप्ति और दूसरे युग के आरंभ के बीच का समय। युग-संधि। ६. एक अवस्था की समाप्ति के बीच का समय। जैसे—वयःसंधि। ७. दो चीजों के बीच खाली जगह। अवकाश। ८. दरज। दरार। ९. राजाओं या राज्यों आदि में होने वाला वह निश्चय या प्रतिज्ञा जिसके अनुसार पारस्परिक युद्ध बन्द किया जाता है, मित्रता या व्यापार संबंध स्थापित किया जाता है, अथवा इसी प्रकार का और कोई काम होता है (ट्रीटी)। १॰. नाटक में किसी प्रधान प्रायोजक के साधक कथांशो का किसी एक मध्यवर्ती प्रयोजन के साथ होने वाला संबंध। ये संधियाँ पाँच प्रकार की कही गई हैं—मुखसंधि, प्रतिमुख-संधि, गर्भसंधि, अवमर्श या विमर्श संधि और निर्वहण संधि। ११. चोरी आदि करने के लिए दीवार में किया हुआ छेद। सेंध। १२. स्त्री की भग। योनि। १३. दोस्ती-मित्रता। १४. संघटन। १५. भेद। रहस्य। १६. कार्य करने का साधन।
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संधिक  : पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का सन्निपात, जिसमें शरीर की संधियों में वायु के कारण बहुत पीड़ा होती है।
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संधि-गुप्त  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ शत्रु की आने वाली सेना पर छापा मारने के लिए सैनिक लोग छिपकर बैठते हैं।
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संधि-चौर  : पुं० [सं०] सेंध लगाकर चोरी करने वाला। सेंधिया चोर।
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संधिच्छेद  : पुं० [सं०] १. चोरी करने के लिए किसी के घर में सेंध लगाना। २. प्राचीन भारतीय राजनीति में, पारस्परिक संधि के नियम भंग करने वाला पक्ष। ३. दे० ‘संधि-विच्छेद’।
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संधिज  : पुं० [सं०] १. (चुआकर तैयार किया हुआ) मद्य, आसव आदि। २. शरीर के संधि स्थान पर होनेवाली गाँठ या फोड़ा। वि० संधि से उत्पन्न या बना हुआ।
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संधित  : भू० कृ० [सं० संधा+इतच्] जिसमें संधि हो। संधियुक्त। पुं० आसव। अरक।
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संधिनी  : स्त्री० [सं० संधा+इनि-ङीप्] १. गाभिन गौ। २. ऐसी गौ जो गाभिन होने की दशा में भी दूध देती हो। ३. ऐसी गौ जो बछड़ा पास न रहने पर भी दूध देती हो। ४. दिन-रात में केवल एक बार दूध देने वाली गौ।
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संधिप्रच्छादन  : पुं० [सं०] संगीत में स्वर साधन की एक विशिष्ट प्रणाली जो इस प्रकार होती है। आरोही—सारेग, रेगम, गमप, मपध, पधनि, धनिसा,। अवरोही—सानिध, निधप, धपम, पमग, मगरे, गरेसा।
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संधि-पत्र  : पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें आपस की संधि या मेल-जोल की बात निश्चित होने पर उसके संबंध की शर्तें लिखी जाती हैं।
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संधि-बंधन  : पुं० [सं०] शिरा। नाड़ी। नस।
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संधि-भंग  : पुं० [सं०] १. संधि की शर्तों का टूटना या तोड़ना। २. वैद्यक के अनुसार हाथ या पैर आदि के किसी जोड़ की हड्डी टूटना।
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संधिभग्न  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें अंग की संधियों में बहुत पीड़ होती है।
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संधि-मोक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजनीति में पुरानी संधि तोड़ना। संधिभंग। २. दे० ‘समाधिमोक्ष’।
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संधिरंध्रिका  : स्त्री० [सं०] १. सुरंग। २. सेंध।
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संधि-राग  : पुं० [सं०] सिंदूर।
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संधिला  : स्त्री० [सं०] १. सुरंग। २. सेंध। ३. नदी। ४. मदिरा। शराब।
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संधि-विग्रहक (हिक)  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में परराष्ट्रों के साथ युद्ध या संधि का निर्णय करने वाला मंत्री या राजकीय अधिकारी।
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संधि-विग्रही  : पुं०=संधि-विग्रहक।
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संधि-विच्छेद  : पुं० [सं०] १. आपस की संधि या समझौता तोड़ना या टूटना। २. व्यकरण में किसी पद को संधि के स्थान से तोड़कर उसके शब्द अलग-अलग करना। जैसे—मतैक्य का संधि विच्छेद होगा=मत+ऐक्य।
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संधि-विद्ध  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें हाथ पैर के जोड़ों में सूजन और पीड़ा होती है।
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संधिवेला  : स्त्री० [सं०] संध्या का समय। सायंकाल। शाम।
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संधिहारक  : पुं० [सं० संधि√तृ (हरण करना)+ण्वुल्-अक] वह चोर जो सेंध लगाकर चोरी करता हो। सेंधिया चोर।
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संधेय  : वि० [सं० स०√धा (रखना) यत्] जिसके साथ संधि की जा सके।
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संध्यंग  : पुं० [सं० ष० त०] नाटक में मुखसंधि आदि संधियों के अंग।
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संध्यंतर  : पुं० [सं० संधि+अन्तर]=उप-सन्धि।
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संध्य  : वि० [सं० संधि+यत्] संधि-संबंधी। संधि का।
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संध्यांश  : पुं० [सं०] दो युगों के बीच का समय। युग-संधि।
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संध्या  : स्त्री० [सं०] १. दिन और रात दोनों के मिलन का समय। संधि-काल। २. वह समय जब दिन का अंत और रात का आरंभ होता है। सूर्यास्त से कुछ पहले का समय। सायंकाल। शाम। मुहा०—संध्या फूलना=दिन ढलने पर धीरे-धीरे संध्या का सुहावना समय आना। ३. भारतीय आर्यों की एक प्रसिद्ध उपासना जो सवेरे, दोपहर और संध्या को होती है।। ४. एक युग की समाप्ति और दूसरे युग के बीच का समय। दो युगों के मिलने का समय। युग-संधि। ५. सीमा। हद। ६. एक प्राचीन नदी। ७. एक प्रकार का फूल और उसका पौधा। ८. दे० ‘संधा भाषा’।
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संध्याचल  : पुं० [सं० ष० त०]=अस्ताचल।
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संध्याबल  : पुं० [सं०] निशाचर। निश्चर।
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संध्या-भाषा  : स्त्री० दे० ‘संधा भाषा’।
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संध्याराग  : पुं० [सं०] १. संगीत में, श्याम कल्याण राग। २. सिंदूर।
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संध्यालोक  : पुं० [सं०] सांध्य प्रकाश।
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संध्यावधू  : स्त्री० [सं० ष० त०] रात्रि। रात। निशि।
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संध्यासन  : पुं० [सं०] आपस में लड़कर शत्रुओं का कमजोर हो जाना (कामदंक)।
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संध्योपासन  : पुं०[सं० ष० त०] संध्या के समय की जाने वाली आर्यों की संध्या पूजा आदि।
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संनिक्षप्ता  : पुं० [सं० सम् नि√क्षिप्त (फेंकना)+तृच्] श्रेणी या संध के धन का रक्षक या खजांची (कौ०)।
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संन्यस्त  : भू० कृ० [सं०] १. फेंका या छोड़ा हुआ। २. हटाया या अलग किया हुआ। ३. जमाना या बैठाया हुआ। ५. खड़ा किया हुआ। ६. जिसने सन्यास आश्रम में प्रवेश किया हो।
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संन्यास  : पुं० [सं०] [वि० संन्स्त] १. पूरी तरह से छोड़ना। परित्याग करना। २. हिंदुंओं के चार आश्रम में से अंतिम जिसमें सब प्रकार के सांसारिक बंधन या संबंध तोड़कर और त्यागी तथा विरक्त होकर सब कार्य निष्काम भाव से किये जाते हैं। चतुर्थ आश्रम। ३. किसी निश्चित क्षेत्र या सीमा के अन्दर ही रहने अथवा कोई काम करने तथा उस क्षेत्र सीमा से बाहर न निकलने की प्रतिज्ञा या व्रत। जैसे—ग्रह सन्यास, क्षेत्र सन्यास (देखें)। ४. अपने विधिक या कानूनी अधिकारों का स्वेच्छापूर्वक त्याग (सिविल सुइसाइड)। ५. अपस्मार, भीषण ज्वर, विषयोग आदि के कारण होने वाली लह अवस्था जिसमें रोगी की चेतना शक्ति बिल्कुल नष्ट हो जाती है (कॉमा)। विशेष—मूर्च्छा और संन्यास में यह अंतर है कि मूर्च्छा तो अनेक अवस्थाओं आप से आप दूर हो जाती है, परंतु संन्यास किसी प्रकार के उपचार या चिकित्सा के बिना दूर नहीं होती। ६. सहसा होने वाली मृत्यु। अचानक मर जाना। ७. बहुत अधिक थक जाना परमशिथिल होना। ८. थाती। धरोहर। न्यास। ९. इकरार। वादा। १॰. प्रतिस्पर्धा। होड़।
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संन्यासी (सिन्)  : पुं० [सं० संन्यास+इनि] १. वह जिसनें सन्यास आश्रम ग्रहण किया हो। संन्यास आश्रम में रहने और उसके नियमों का पालन करने वाला। २. त्यागी और विरक्त व्यक्ति। यति।
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सँपई  : स्त्री० [हिं० साँप] १. एक प्रकार का लंबा कीड़ा जो मनुष्यों और पशुओं की आँतो में उत्पन्न होता है। पेट का केंचुआ। २. बेला नाम का पौधा और फूल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपक  : वि० [सं० सम्√ पच् (पकाना)+क्त-व] १. अच्छी तरह उबाला या पकाया हुआ। २. जो पूरा पक चुकने पर अंत या समाप्ति के समीप पहुँच चुका हो।
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संपत्  : स्त्री० [सं०] संहद्।
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संपति  : स्त्री=संपत्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपत्कुमार  : पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।
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संपत्ति  : स्त्री० [सं०] १. धन दौलत जायदाद आदि जो किसी के अधिकार में हो और खरीदी या बेची जा सकती हो। जायदाद। (प्रापर्टी; एफेक्ट्स) २. कोई ऐसी चीज जो महत्व की और स्वामी के लिए लाभदायक हो। जैसे—वन्य सम्पतत्ति, पशु-सम्पत्ति आदि। ३. ऐश्वर्य। बैभव। ४. अधिकता। बहुतयता।
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संपत्तिकर  : पुं० [सं०] वह कर जो किसी की उसकी संपत्ति के विचार से लगाया जाता है (प्रापर्टी टैक्स)।
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संपद्  : स्त्री० [सं०] १. कार्य की पूर्णता या सिद्धि। काम पूरा होना। २. धन-दौलत। सम्पत्ति। २. भण्डार। जैसे—शब्द-संपत। ३. सुख और सौभाग्य की स्थिति। ४. जैसे—संपद-विपद् सब में साथ देने वाला व्यक्ति। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. अधिकता। बहुतायत। ७. मोतियों की माला। ८. बुद्धि नामक ओषधि।
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संपदा  : स्त्री० [सं० संपद्] १. धन। दौलत। २. ऐश्वर्य। वैभव।
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संपना  : अ० [सं० सम्पन्न्] १. (कार्य) पूरा होना। २. (पदार्थ) समाप्त होना। न बचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपन्न  : वि० [सं०] १. पूरा किया हुआ। पूर्ण। सिद्ध। साधित। मुकम्मल। २. (कार्य) जो पूरा या सिद्ध हो चुका हो। ३. किसी गुण या वस्तु से भली-भाँति युक्त। जैसे—धन-संपन्न, विद्या संपन्न। ४. धनवान। अमीर। पुं० अच्छा और स्वादिष्ट भोजन। व्यंजन।
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संपन्न-क्रम  : पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि (बौद्ध)।
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संपराय  : पुं० [सं० सम्-पर√इण (गमनादि)+घञ्] १. ऐसी स्थिति जो सदा से चली आ रही हो। २. मृत्यु। मौत। ३.युद्ध। लड़ाई। ४. आपत्ति। मुसीबत। ५. भविष्य।
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संपरिग्रह  : पुं० [सं०] अच्छी तरह आदर या स्वागत करना।
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संपरीक्षण  : पुं० [सं० सं परि√इक्ष (देखना)+ल्युट्—अन] लेख्य आदि की अच्छी तरह जाँच करके यह देखना कि वह सब प्रकार से नियमानुसार ठीक है या नहीं (स्क्रुटनी)।
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संपर्क  : पुं० [सं० सं√पृच् (मिलाना)+घञ] [वि० संयुक्त] १. मिश्रण। मिलावट। २. मेल। संयोग। ३. आपस में होने वाला किसी प्रकार का लगाव, वास्ता य़ा संसर्ग। ४. स्पर्श। ५. गणित में राशियों या संख्याओं का जोड़। योग।
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संपर्क अधिकारी  : पुं० [सं०] वह राजकीय अधिकारी जो (क) प्रजा और सरकार में अथवा (ख) भिन्न देशों के साथ सैनिक अथवा और किसी प्रकार का संपर्क बनाये रखने के लिए नियत होता है (लिएसन अफ़िसर)।
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संपा  : स्त्री० [सं० सम्√यत् (गिरना)+ड-टाप्] विद्युत। बिजली।
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संपाक  : पुं० [सं० ब० स०] १. अच्छी तरह पकाना। परिपाक। २. अमतलास। वि० १. तर्क-वितर्क करने वाला। २. लम्पट। ३. चालाक। धूर्त। ४. अल्प। कम। थोड़ा।
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संपाट  : पुं० [सं०√पट् (गत्यादि)+घञ] १. ज्यामिती में, किसी त्रिभुज की बढ़ी हुई भुजा पर लम्ब का गिरना। २. चरखे का तकला।
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संपात  : पुं० [सं०] [वि० संपातिक] १. एक साथ गिरना या पड़ना। २. संपर्क। संसर्ग। ३. संगम। समागम। ४. मिलने का स्थान। संगम। ५. वह स्थान जहाँ एक रेखा दूसरे पर पड़ती या उससे मिलती हो। ६. किसी पर झपटना या टूट पड़ना। ७. पहुँच। पैठ। प्रवेश। ८. घटित होना। ९. गाद। तलछट। १॰. उपयोग में आ चुकने का बाद किसी चीज का बचा हुआ अंश।
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संपाति  : पुं० [सं० सम√पत् (गिरना)+णिच्-इनि] १. एक गीध जो गरुण का ज्येष्ठ पुत्र और जटायु का भाई था। २. माली नामक राक्षस का एक पुत्र जो विभीषण का मंत्री था।
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संपाती (तिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० संपातिनी] १. एक साथ टूटने या झपटने वाला। २. उड़ने, कूदने आदि में होड़ लगाने वाला। पुं०=संपाति।
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संपादक  : वि० [सं० सम√पद् (स्थान आदि)+णिच् ण्वुल्-अक] १. कार्य संपन्न करने वाला। कोई काम पूरा करने वाला। २. प्रस्तुत या तैयार करने वाला। पुं० वह जो किसी पुस्तक, सामयिक पत्र आदि के सब लेख या विषय अच्छी तरह ठीक करके या देखकर क्रम से लगाता और उन्हें प्रकाशन के याग्य बनाता हो (एडिटर)।
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संपादकत्व  : पुं० [सं० संपादक+त्व] संपादक का कार्य या पद।
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संपादकी  : स्त्री० [सं० संपादक+हिं० ई (प्रत्य०)] संपादक का काम या पद। जैसे—उन्हें एक पत्र की संपादकी मिल गई है।
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संपादकीय  : वि० [सं०] १. संपादक-संबंधी। संपादक का। २. स्वयं संपादक का लिखा हुआ। वि० संपादक द्वारा लिखी हुई टिप्पणी या अग्रलेख।
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संपादन  : पुं० [सं०] [वि० संपादनीय, संपादी, संपाद्य] १. किसी काम को अच्छी और ठीक तरह से पूरा करना। अंजाम देना। २. तैयार या प्रस्तुत करना। ३. ठीक या दुरुस्त करना। ४. किसी पुस्तक का विषय या सामयिक पत्र के लेख आदि अच्छी तरह देखकर, उनकी त्रुटियाँ आदि दूर करके और उनका ठीक क्रम लगाकर उन्हें प्रकाशन के योग्य बनाना।
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संपादयिता  : वि० [सं० सम√पद् (स्थान आदि)+णिच्-तुचु, संपादयितृ]=संपादक।
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संपादित  : भू० कृ० [सं० सम√पद् (स्थान आदि)+णिच्-क्त] (काम) जो पूरा किया गया हो। २. (ग्रन्थ, सामयिक-पत्र या लेख) जिसका क्रम, पाठ आदि ठीक करके सम्पादन किया गया हो।
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संपादी  : वि० [सं० संपादित] [स्त्री० संपादिनी]=संपादक।
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संपाद्य  : नि० [सं०] १. जिसका संपादन किया जाने को हो या होने को हो। २. दे० ‘निर्मेय’।
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संपालक  : पुं० [सं० सं√पाल् (पालन करना)+णिच्-ण्वुल्-अक]=अभिरक्षक।
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संपित  : पुं० [देश] असम में होने वाला एक प्रकार का बाँस जिसके टोकरे बनते हैं।
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संपिष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√विष् (चूर करना)+क्त] १. अच्छी तरह पीसा हुआ। २. अच्छी तरह दबाकर नष्ट किया हुआ।
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संपीडन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संपीडित] १.चारों ओर से इस प्रकार दबाना कि आपत्ति या विस्तार कम हो जाय (कान्प्रेशन)। २. निचोड़ना, मलना या मसलना। ३. बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। पीड़ित करना। ४. साहित्य में, शब्दों के उच्चारण का एक दोष जो उस दशा में माना जाता है जब किसी शब्द पर व्यर्थ ही बहुत जोर दिया या जोर से उच्चारण किया जाता है।
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संपुट  : पुं० [सं० सम√पुट् (संबंध रखना)+क] १. किसी पदार्थ को कुछ मोड़कर दिया हुआ वह रूप जिसके अंदर कुछ खाली जगह बन गई हो और इसीलिए उसमें कुछ रखा जा सके। आधान या पात्र का-सा गोलाकार और अंदर से खाली अवकाश रखने वाला रूप। जैसे—पत्तों का संपुट, हथेली का संपुट। २. पत्तों का बना हुआ दोना। ३. ढक्कन-दार डिब्बा, पिटारी या संदूक। ४. हथेली की अंजली। ५. फूल को दलों का ऐसा समूह जिसके बीच खाली जगह हो। कोश। ६. वैद्यक औषध पकाने या रस बनाने के समय किसी पात्र को दिया जाने वाला वह रूप जिसमें गीली मिट्टी आदि से उसका मुँह बंद करके चारों ओर से गीली मिट्टी लपेट देते हैं। ७. मृतक की खोपड़ी। कपाल। खप्पर। ८. लेन-देन में वह धन जो उधार दिया गया हो या किसी के यहाँ बाकी पड़ा हो। ९. कटसरैया का फूल। कुरवक।
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संपुटक  : पुं० [सं० संपुट+कन्] १. ढकने की चीज। आवरण। २. गोल डिब्बा या पिटारा। ३. एक प्रकार का आसन या रतिबंध।
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संपुटिका  : स्त्री० [सं०] १. औषध के रूप में खाने के लिए ऐसी गोली या टिकिया जो ऐसे आवरण के अंदर बन्द हो जो किसी खाद्य पदार्थ का बना हो। २. कोई ऐसा संपुट जो किसी दूसरे पदार्थ के चारों ओर से आवृत्त या बन्द हो (कैपस्यूल)।
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संपुटी  : स्त्री० [सं० संपुट-ङीप्] एक तरह की छोटी कटोरी जिसमें पूजा के लिए घिसा हुआ चन्दन, अक्षत आदि रखते हैं।
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संपुष्टि  : स्त्री० [सं०] १. अच्छी तरह होने वाली पुष्टि। २. दे० ‘परि-पुष्टि’।
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संपूज्य  : वि० [सं० सम√पूज् (पूजा करना)+ण्यत्] बहुत आदरणीय या पूज्य।
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संपूरक  : वि० [सं०] १. संपूर्ण या पूरा करने वाला। २. विशेष रूप से किसी पूर्ण वस्तु की उपदेयता, सार्थकता आदि बढाने के लिए उसके अंत में जोड़ा या मिलाया जाने वाला। ‘अनुपूरक’ से भिन्न (काम्प्ली-मेन्टरी)। विशेष—अनुपूरक और संपूरक में मुख्य अंतर यह है कि अनुपूरक तो किसी पूरी चीज के पीछे या बाद में स्वतंत्र इकाई के रूप में जोड़ा या लगा हुआ होता है, परंतु संपूरक किसी चीज या बात का कोई अभाव या कमी पूरी करने के लिए आकर उसमें मिल जाता है। पुं० वह अंश, मात्रा या भाव जो किसी पदार्थ में उसे पूर्ण करने के लिए लगाया जाता हो या लगना आवश्यक होता हो। किसी चीज को पूर्ण बनाने के लिए बाद में जोड़ा जाने वाला अंग। ‘अनुपूरक’ से भिन्न (काम्प्लिमेन्ट)।
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संपूरण  : पुं० [सं० सम्√पूर (पूरा होना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संपूरित] अच्छी तरह भरना।
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संपूर्ण  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह भरा हुआ। २. आदि से अंत तक सब। पूरा। सारा। ३. पूरा या समाप्त किया हुआ। ४. जो अपने पूर्ण रूप में हो। पुं० १. संगीत में ऐसा राग जिसमें सातों स्वर लगते हों। २. दार्शनिक क्षेत्र में, आकाश नामक भूत।
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संपूर्ण ओड़व  : पुं० [सं०] संगीत में ऐसा राग जो आरोही में संपूर्ण और अवरोही में ओड़व हो।
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संपूर्णतः  : अव्य० [सं० संपूर्ण+तसिल] पूरा-पूरा। पूर्ण रूप से।
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संपूर्णतया  : अव्य० [सं० संपूर्ण+तल्-टापटा्] संपूर्णतः।
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संपूर्णता  : स्त्री० [सं० संपूर्ण+तल्—टाप] १. संपूर्ण होने की अवस्था या भाव। पूरापन। २. अन्त। समाप्ति।
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संपेला  : पुं०=सँपोला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपृक्ता  : भू० कृ० [सं० सम्√पृ (मिलना)+कत] १. जिससे संपर्क स्थापित हो चुका हो या किया गया हो। २. संबद्ध। २. लगा या सटा हुआ।
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संपृष्ट  : वि० [सं० सं√प्रच्छ् (पूछना)+क्त-] १. जिससे प्रश्न किये गये हों। २. जिससे पूछ-ताछ की गई हो।
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संपेखना  : सं० [सं० संप्रेक्षण] देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँपेरा  : पुं० [हिं० साँप+एरा (प्रत्य०)] [स्त्री० सँपेरिन] वह जो साँप पकड़कर पालता और लोगों को उनके तमाशे दिखाता हो। मदारी।
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सँपेला  : पुं०=सँपोला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपै  : स्त्री० १.=संपत्ति। २.=शंपा। (बिजली)।
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सँपोला  : पुं० [हिं० साँप+ओला (अल्पा० प्रत्य०)] साँप का छोटा बच्चा। २. लाक्षणिक अर्थ में खतरनाक व्यक्ति।
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सँपोलिया  : पुं० [हिं० साँप+ओलिया]=सँपेरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपोषक  : वि० [सं०] [स्त्री० संपोषिका] १. भली-भाँति पालन-पोषण करने वाला। २. अच्छी तरह बढाने वाला।
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संपोषण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संपोषित, वि० संपोष्य] अच्छी तरह पोषण करना।
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संपोष्य  : वि० [सं० सम√पुष् (पालन करना)+ण्यत्] जिसका संपोषण हो सकता हो या होना उचित हो।
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संप्रक्षाल  : वि० [सं० सम् प्र√क्षाल् (धोना)+अच्] पूर्ण विधि से स्नान करने वाला। पुं० १. एक प्रकार के यति या साधु। २. एक ऋषी जिनके संबंध में कहा गया है कि ये प्रजापति के चरणोदक से उत्पन्न हुए थे।
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संप्रक्षालन  : पुं० [सं० संप्र√क्षाल (धोना)+ल्यूट्-अन] १. अच्छी तरह धोना। खूब धोना। २. पूरी तरह से स्नान करना। ३. जल-प्रलय।
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संप्रज्ञात  : भू० कृ० [सं०] अच्छी तरह जाना हुआ। पुं० योग में समाधि का एक भेद जिसमें विषय भावना बनी रहती है।
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संप्रति  : अव्य० [सं०] १. इस समय। अभी। २. वर्तमान समय में। ३. किसी के सामने। ४. तुलना या मुकाबले में। ५. ठीक तरह से। पुं० १. पूर्व अवसर्पिणी के २४ वें अर्हत का नाम। (जैन) २. अशोक के पुत्र कुणाल का एक पुत्र।
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संप्रतिपत्ति  : स्त्री० [सं०] १. पहुँच। गुजर। २. प्राप्ति। लाभ। ३. किसी बात का ठीक और पूरा ज्ञान। ४. बुद्धि। समझ। ५. किसी के साथ होने वाली मत या विचार की एकता। मतैक्य। ६. कार्य का संपादन। ७. मंजूरी। स्वीकृति। ८. अभियुक्त द्वारा न्यायालय में सच्ची बात मानना या कहना।
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संप्रतिपन्न  : भू० कृ० [सं० सम्-प्रति√पद (स्थान आदि)+क्त] १. आया या पहुँचा हुआ। उपस्थित। २. मंजूर। स्वीकृति। ३.उपस्थिति बुद्धि। प्रत्युत्पन्न-मति।
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संप्रतीति  : स्त्री० [सं० सम्-प्रति√इ (गमनादि)+क्तिन] १. पूर्ण विश्नास। २. पूर्ण ज्ञान। ३. विनय।
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संप्रत्यय  : पुं० [सं० सं० प्रति√इ (गमनादि)+घञ) १.स्वीकृति। मंजूरी। २. दृढ़ विश्वास। ३. सम्यक ज्ञान का बोध। ४. मन की भावना या विचार।
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संप्रदा  : पुं०=संप्रदाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=संपदा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संप्रदान  : पुं० [सं० सम्-प्र√दा (देना)+ल्युट्-अन] १. दान देने की क्रिया या भाव। २. दीक्षा के समय शिष्य को गुरु का मंत्र देना। ३. उपहार। भेंट। ४. व्याकरण में एक कारक जो उस संज्ञा की स्थिति का बोध कराता है जिसके निमित्त कोई कार्य किया गया होता है। इसकी निभक्ति ‘को’ तथा ‘के’ लिए है। ५. किसी की वस्तु उसे देना या उसके पास पहुँचाना। (डिलिवरी)
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संप्रदाय  : वि० [सं०] [वि० सांप्रदायिक] देने वाला। पुं० १. परम्परा से चला आया हुआ ज्ञान, मत या सिद्धात। २. परम्परा से चली आई हुई परिपाटी, प्रथा या रीति। ३. गुरु- परम्परा से मिलने वाला उपदेश या मंत्र। ४. किसी धर्म के अन्तर्गत कोई विशिष्ट मत या सिद्धान्त। ५. उक्त प्रकार का मत या सिद्धान्त मानने वालों का वर्ग या समूह। जैसा—वैष्णव या शैव सम्प्रदाय। फिरका। ६. कोई विशिष्ट धार्मिक मत या सिद्धन्त। धर्म। जैसे—भारत में अनेक मतों और सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। ७. किसी विचार, विषय या सिद्धान्त के संबंध में एक ही तरह के विचार या मत रखने वाले लोगों का वर्ग। (स्कूल) ८. मार्ग। रास्ता।
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संप्रदायक  : वि०=सांप्रदायिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संप्रदायी (यिन)  : वि० [सं० सम्-प्र√दा (देना)+णिनि-पुक्] [स्त्री० संपर्दायिनी] १. देने वाला। २. कोई काम करने या कोई बात सिद्ध करने वाला। ३.किसी संप्रदाय का अनुयायी।
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संप्रभु  : वि० [सं०] ऐसा प्रभु या सत्ताधारी जिसके ऊपर और कोई प्रभु या सत्ताधारी न हो। सर्वप्रधान प्रभु अथवा सत्ताधारी (व्यक्ति या राष्ट्र)। (सावरेन)
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संप्रभुता  : स्त्री० [सं०] संप्रभु होने की अवस्था, गुण या भाव (सावरेंटी)।
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संप्रयुक्त  : भू० कृ० [सं० सम्-प्र√युज् (मिलना)+क्त] १. किसी के साथ अच्छी तरह जोड़ा या मिलाया हुआ। २. किसी के साथ बाँधा या लगाया हुआ। ३. प्रयुक्त।
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संप्रयोग  : पुं० [सं० सम्-प्र√युज् (संयोग करना)+घञ्] १. जोड़ने या मिलाने की क्रिया या भाव। एक साथ करना। मिलाना। २. मेल। समागम। ३. मैथुन। संभोग। ४. उपयोग। प्रयोग। ५. ज्योतिष में किसी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का होने वाला योग। ६. इन्द्रजाल। जादूगरी। ७. उच्चाटन, मोहन, वशीकरण आदि का प्रयोग।
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संप्रयोगी (गिन्)  : पुं० [सं० संम्-प्र√युज् (संबंध करना)+घिनुण्, संप्रयोग+इनि वा] [स्त्री० संप्रयोगिनी] १. कामुक। लम्पट। २. ऐन्द्रजालिक। जादूगर।
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संप्रयोजन  : पुं० [सं० सम्‘√युज् (मिलाना)+ल्युट्-अन] [वि० संप्रयोजनीय, संप्रयोज्य, भू० कृ० संप्रयोजित, संप्रयुक्त] अच्छी तरह जोड़ना या मिलाना।
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संप्रवर्तक  : वि० [सं० सम्-प्र√वृत (वर्तमान रहना)+ण्वुल्-अक] १. चलाने वाला। २. जारी या प्रचलित करने वाला।
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संप्रवर्तन  : पुं० [सं० सम्-प्र√वृत (वर्तमान रहना)+ण्वुल्-अन] [वि० संप्रवर्तनीय] १. गीति देना। चलाना। २. घुमाव। मोड़ना। ३. जारी या प्रचलित करना।
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संप्रवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० सम्-प्र√व-त (रहना)+णिनि] ठीक या व्यवस्थित करनेवाला।
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संप्रवाह  : पुं० [सं० सं-प्र√वह् (ढोना)+घञ्] लगातार चलता रहने वाला क्रम या होता रहने वाला प्रवाह।
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संप्रवत्त  : वि० [सं० सम्-प्र√वृत्त् (रहना)+क्त] १. आगे आया या बढा हुआ। अग्रसर। २. प्रस्तुत। मौजूद। ३. आरंभ या प्रचलित किया हुआ।
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संप्रवृत्ति  : स्त्री० [सं० सम्-प्र√वृत्त (रहना)+क्तिन] १. आसक्ति। २. किसी का अनुकरण करने की इच्छा। ३. उपस्थिति। मौजूदगी। ४. मिलकर एक होना। संगटन।
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संप्रसादन  : पुं० [सं०] [वि० संप्रसाद्य, भू० कृ० संप्रसादित] किसी को अच्छी तरह या सब प्रकार से प्रसन्न करना।
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संप्रसाद्य  : वि० [सं०] [स्त्री० संप्रसाद्या] जिसे सब प्रकार से प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना आवश्यक या उचित हो।
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संप्राप्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संप्राप्ति] १. आया या पहुँचा हुआ। उपस्थित। २. मिला हुआ। प्राप्त। जो घटित हुआ हो।
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संप्राप्ति  : स्त्री० [सं०] १. संप्राप्त होने की अवस्था या भाव। २. शरीर विज्ञान में वह क्रिया या प्रक्रम जो शरीर में किसी रोग के कीटाणु पहुँचने, उस रोग के परिपक्व होने और बाह्य लक्षण या स्वरूप होने तक होती है (इन्क्यूबेशन)। जैसे—चेचक का संप्राप्ति-काल दो सप्ताह माना गया है। ३. घटना आदि का उपस्थित या घटित होना।
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संप्रेक्षण  : पुं० [सं० सम्-प्र√इक्ष् (देखना)+ल्यूट्-अन] [भू० कृ० संप्रेक्षित, वि० संप्रेक्ष्य] १. अच्छी तरह देखना। २. जाँच-पड़ताल या देख भाल करना।
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संप्रेक्ष्य  : वि० [सं०] जिसका संप्रेक्षण होने को हो या हो सकता हो। देखने या निरीक्षण करने योग्य।
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संप्रेषक  : वि० [सं०] संप्रेषण करने वाला (ट्रान्समीटर)।
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संप्रेषण  : पुं० [सं०] १. अच्छी तरह एक जगह से दूसरी जगह भेजना। २. मार्ग, माध्यम या साधन बनकर कोई चीज (जैसे—आज्ञा, प्रकाश, विद्युत, समाचार आदि) एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाना। (ट्रान्समिशन)। ३. काम या नौकरी से अलग करना। बरखास्त करना।
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संप्रेषणी  : स्त्री० [सं० संप्रेषण-ङीष्] हिंदुओं में मृतक का एक कृत्य जो द्वादश को होता है।
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संप्रेष  : पुं० [सं० सम्-प्र√इष् (इच्छा करना)+घञ्] १. यज्ञादि में ऋत्विजों को नियुक्त करना। २. आमंत्रण। आह्वान।
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संप्रोक्त  : भू० कृ० [सं० सम्-प्र√वच् (कहना)+क्त-व-ड] १. संबोधित। २. कथित। ३. घोषित।
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संप्रोक्षण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संप्रोक्षित, वि० संप्रोक्ष्य] १. खूब पानी छिड़ककर (मंदिर आदि ) साफ करना। २. धोना। ३. मदिरा आदि का उत्सर्ग।
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संप्लव  : पुं० [सं० सम्√प्लु (डूबना)+अप्] [भू० कृ० संप्लुत] १. पानी की बाढ़। २. बहुत बड़ी राशि या समूह। ३. हो-हल्ला। शोरगुल। ४. आन्दोलन। हलचल।
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संप्लुत  : भू० कृ० [सं० सम्-प्लु (डूबना)+क्त] १. जल से तराबोर। २. डूबा हुआ।
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संफेट  : पुं० [सं०] १. क्रोध में आकर किसी से भिड़ना। भिड़ंत। लड़ाई। २. कहासुनी। तकरार।
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संबंध  : १. किसी के साथ बँधना। जुड़ना या मिलना। २. वह स्थिति जिसमें कोई जुड़ा बँधा या लगा रहता है। ताल्लुक। लगाव। ३. एक कुल में होने के कारण अथवा विवाह दत्तक आदि संस्कारों के कारण होने वाला पारस्परिक लगाव। नाता। रिश्ता। ४. आपस में होने वाली बहुत अधिक घनिष्ठता या मेल-जोल। ५. किसी प्रकार का मेल या संयोग। ६. विवाह। शादी। ७. व्याकरण में एक कारक जिसमें एक शब्द के साथ दूसरे शब्द का संबंध या लगाव सूचित होता है। जैसे—राम का घोड़ा। ८. प्रसंगवश किसी सिद्धान्त का किया जाने वाला उल्लेख । हवाला। ९. ग्रन्थ। पुस्तक। १॰. एक प्रकार की ईति या उपद्रव।
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संबंधक  : वि० [सं० संबंध+कन्] १. संबंध रखने वाला। संबंधी। विषयक। २. उपयुक्त। योग्य। ३. जो दो वस्तुओं, व्यक्तियों आदि में पारस्परिक संबंध करता या कराता हो (कनेक्टिंग)। पुं० १. रक्त या विवाह संबंधी। २. मैत्री। ३. मित्र। ४. रिश्तेदार। संबंधी। ५. राजाओं में होने वाली वह संधि जो आपस में विवाह करके स्थापित की जाती थी।
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संबंध तत्त्व  : पुं० [सं०] भाषा विज्ञान में वह तत्व जो किसी पद या वाक्य में आये हुए अर्थ तत्व वाले शब्दों का पारस्परिक संबंध मात्र बतलाता है। ‘अर्थतत्त्व’ का विपर्याय (मॉरफीम)। जैसा—‘समाज का स्वरूप’ में ‘का’ शब्द संबंधतत्व वाला है।, क्योंकि वह समाज और स्वरूप में संबंध मात्र स्थापित करता है।
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संबंधातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें पारस्परिक संबंध का आभाव होते हुए भी संबंध दिखाया जाता है।
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संबंधित  : भू० कृ० [सं०] जिसका किसी से संबंध स्थापित हो। संबद्ध।
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संबंधी (धिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० संबंधिनी] १. संबंध या लगाव रखने वाला। २. किसी विषय से लगा हुआ। विषयक। पुं० १. वह जिसके साथ रक्त अथवा विवाह का संबंध हो। रिश्तेदार। २. दे० ‘समधी’।
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संबंधु  : पुं० [सं० सम्√बन्ध् (बाँधना)] १. आत्मीय। भाई-विरादक। २. नातेदार। संबंधी।
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संब  : पु०=शंब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबत  : पुं०=संवत्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबद्ध  : वि० [सं०] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। २. किसी प्रकार का संबंध रखनेवाला।
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संबद्ध-लिंग  : पुं० दे०‘लिंग’ (न्याय-शास्त्रवाला विवेचन)।
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संबद्धीकरण  : पुं० [सं०] १. संबद्ध करने की क्रिया या भाव। २. विद्यालय, संस्था आदि को अपना अंग या सदस्य मानकर उसे अपने साथ संबद्ध करना। अपने परिवार या संघठन का सदस्य बनाना (एफिलिएशन)।
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संबरन  : पुं०=संवरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबरना  : [सं० संवरण] संवरण करना। रोकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संबल  : पुं० [√ सम्ब्+कलच्] १. कहीं जाने के समय रास्ते के लिए साथ में रखा हुआ खाने पीने का सामान। २. कोई ऐसी चीज, बात या साधन जिससे किसी का या बात में आगे बढ़ने में पूरी-पूरी सहयता मिलती हो या जिसका आश्रय लिया जाता हो (रिसोरसेज)। ३. सहारा। ४. गेहूँ की फसल का एक रोग जो पूरब की हवा अधिक चलने से होता है। ५. सेमल का वृक्ष। पुं०=संबुल (संखिया)।
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संवाद  : पुं०=संवाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संबाध  : पुं० [सं० सम्√बाध् (बाधा देना)+घञ, ब० स०] १. बाधा। अड़चन। २. भीड़। समूह। ३. संघर्ष। ४. भंग। योनि। ५. कष्ट। तकलीफ। ६. भरा हुआ। ३. जनाकीर्ण।
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संबाधक  : वि० [सं० सम्√बाध (बाधा देना)+ण्वुल्-अक] १. बाधा डालने वाला। बाधक। २. तंग करने वाला या सताने वाला।
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संबाधन  : वि० [सं० ब० स०] १. बाधक होना। बाधा डालना। २. रेल-पेल। ३. रुकावट। ४. द्वारपाल। ५. शूल की नोक। ६. भंग। योनि। पुं०=शंबक या शंबुक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संबुद्ध  : वि० [सं० सम्√बुध् (ज्ञान प्राप्त करना)+क्त] १. जिसे बोध या ज्ञान हो चुका हो। २. जिसे ज्ञान प्राप्त हो चुका हो। ३. जागा हुआ। जाग्रत। ४. अच्छी तरह जाना हुआ। ज्ञात। पुं० १. ज्ञानी। २. गौतम बुद्ध। ३. जैनों के जिन देव।
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संबुद्धि  : स्त्री० [सं० सम्√बुद् (ज्ञान प्राप्त करना)+क्तिन] १. संबुद्ध होने की अवस्था या भाव। २. पूरी तरह से होने वाला ज्ञान या बोध। ३. बुद्धिमत्ता। समझदारी। ४. आह्वान। पुकार।
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संबुल  : पुं० [अ० सुंबुल] १. बाल-छड़ नामक सुगंधित वनस्पति। २. अनाज की बाल जिसमें दाने रहते हैं।
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संबुल खताई  : पुं० [फा०] तुर्किस्तान में होने वाला एक प्रकार का पौधा जो औषध के काम में आता है और जिसकी पत्तियों की नसें मिठाई में पड़ती हैं।
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संबेसर  : पुं० [सं० सं+हिं० बसेरा] नींद (डिं०)।
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संबोध  : पुं० [सं० सम्√बुध् (ज्ञान करना)+घञ्] १. सम्यक ज्ञान। पूरा बोध। २. अच्छी और पूरी जानकारी। ३. ढ़ारस। सान्त्वना।
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संबोधक  : वि० [सं०] संबोधन करनेवाला।
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संबोधन  : पुं० [सं०√बुध् (ज्ञान प्राप्त करना)+ल्युट्-अन] [वि० संबोधित, संबोध्य] १. नींद से उठाना। जगाना। २. ज्ञान या बोध कराना। ३. समझाना-बुझाना। ४. आह्वान करना। पुकारना। ५. व्याकरण में वह शब्द जिसमें किसी को पुकारा जाता है। विशेष-भूल से इसकी गिनती कारकों में की जाती है, जबकि यह क्रिया के रूप का साधन नहीं करता। ६. वह स्थिति जिसमें किसी से कुछ कहने के लिए उसके प्रति ध्यान दिया या मुख किया जाता है।
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संबोधनगीति  : स्त्री० [सं०] आधुनिक साहित्य में ऐसा विशद जाति काव्य जो किसी को संबोधित करके लिखा गया हो। और उच्च भावनाओं से युक्त हो (ओड)। जैसे—दिनकर कृत ‘हिमालय’ या पंत कृत ‘भावी’ पत्नी के प्रति।
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संबोधना  : सं० [सं०] १. समझाना-बुझाना। बोध कराना। ३. ढारस या सान्त्वना देना।
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संबोधि  : स्त्री० [सं० संबोध+इनि्] पूर्ण ज्ञान (बौद्ध)।
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संबोधित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे संबोधन किया गया हो। २. जिसका ध्यान आकृष्ट किया गया हो। ३. जिसे बोध कराया गया हो। ४. (विषय) जिसका ज्ञान या संबोधन कराया गया हो।
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संबोध्य  : वि० [सं०] १. जिसे संबोधन किया जाय। २. जिसे बोध या ज्ञान कराया जाय।
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संभ  : पुं०=शंभु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभक्त  : भू० कृ० [सं० सम्√भज् (भाग करना)+क्त] [भाव० संभक्ति] १. बँटा हुआ। विभक्त। २. भाव या हिस्सा पाने या लेने वाला। ३. भोग करने वाला। पुं० अच्छा और पूरा भक्त।
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संभक्ति  : स्त्री० [सं० सम्√भज् (भाग करना)+क्तिन्] १. विभाजन। २. विभाग। ३. उपभोग। ४. उत्तम और पूरी भक्ति।
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संभक्ष  : वि० [सं० सम्√भक्ष् (खाना)+अच्] खाने वाला (समास में)। पुं० १. किसी के साथ बैठकर खाना। सहभोज। २. खाद्य पदार्थ।
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संभग्न  : वि० [सं०] १. बहुत टूटा-फूटा। २. हारा हुआ। परास्त। ३. विफल। पुं० शिव।
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संभर  : वि० [सं० सम्√भृ (भरण करना)+अच्] भरण पोषण करने वाला। पुं०=साँभर (झील)।
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संभरण  : पुं० [सं० सम्√ भृ (भरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० संभरणीय, संभृत] १. पालन-पोषण। २. एकत्र करना। चयन। संचय। ३. किसी काम या बात की योजना या विधान। ४. सामग्री। सामान। ५. लोगों की आवश्यकता की चीजें उनके पास पहुँचने की व्यवस्था। समायोजन। (सप्लाई) ६. यज्ञ की वेदी में लगाई जानेवाली ईटें।
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सँभरणी  : स्त्री० [सं० संभरण-ङीप्] सोमरस रखने का एक यज्ञपात्र।
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सँभरना  : अ०=संभलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० स्मरण]=स्मरण करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभल  : पुं० [सं०] १. किसी लड़की से विवाह करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति। २. स्त्रियों का दलाल। ३. वह स्थान जहाँ विष्णुव्यास नामक ब्राह्मण के घर विष्णु का दसवाँ कल्कि अवतार होने को है। इसे कुछ लोग मुरादाबाद जिले का संभल नाम का कसबा समझते हैं।
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सँभलना  : अ० [सं० संभरण] १. किसी ओर गिरने, फिसलने, लुढ़कने, भ्रष्ट आदि होने से रुकना। २. किसी बोझ आदि का रोका या किसी कर्तव्य आदि का निर्वाह किया जा सकना। ३. किसी आधार या सहारे पर रुका रहना। ४. होशियार या सावधान रहना। ५. चोट या हानि से बचाव करना। ६. स्वस्थ होना। ७. बुरी दशा से बचकर रहना। ८. अच्छी दशा में आना। स० [सं० श्रवण] सुनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सँभला  : पुं० [हिं० सँभलना] एक बार बिगड़कर फिर सँभली हुई फसल।
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सँभली  : स्त्री० [सं० संभली] कुटनी। दूती।
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संभव  : वि० [सं०] १. (काम) जो किया जा सकता हो अथवा हो सकता हो। किये जाने अथवा हो सकने योग्य। २. जिसके घटित होने की संभावना हो। जिसके संबंध में यह समझा या सोचा जा सकता हो कि ऐसा हो सकता है। मुमकिन (पाँसिबल)। पुं० १. उत्पत्ति। जन्म। पैदाइश। जैसे—कुमार संभव। २. कोई काम या बात घटित होने की अवस्था या भाव। ३. मूल कारण हेतु। मिलन। ४. संयोग। ५. स्त्री-प्रसंग। सहवास। ६. उपयुक्तता। समीचीनता। ७. किसी को अंतर्गत कर सकने की योग्यता। समाई। ८. ध्वंस। नाश। ९. मान, मूल्य आदि में समान होने की अवस्था या भाव जो तर्क में एक प्रकार का प्रमाण माना जाता है। जैसे—एक रुपया और सौ पैसे दोनों बराबर हैं। १॰. वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे अर्हत (जैन)। ११. बौद्धों के अनुसार एक लोक का नाम।
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संभवतः  : अव्य० [सं० संभु+तरिल] १. हो सकता है। संभव है कि। मुमकिन है कि। गालिबन। २. संभावना है कि। हो सकता है कि।
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संभवन  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+ल्युट्—अन] [वि० संभवनीय, संभाव्य, भू० कृ० संभूत] १. उत्पन्न होना। पैदा होना। २. संभव या मुमकिन होना। ३. घटित या संभूत होना।
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सँभवना  : स० [सं० संभव+हिं० ना (प्रत्य०)] उत्पन्न करना। पैदा करना। अ० उत्पन्न होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभवनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे तीर्थकर (जैन)।
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संभवनीय  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+अनीयर्] १. जो हो सकता हो। मुमकिन। २. जिसकी संभावना हो।
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संभविष्णु  : पुं० [सं० सम्√ भू (होना)+इष्णुंच] १. जनक। २. उत्पादक। ३. स्त्रष्टा।
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संभवी  : [सं० संभविन] १. किसी से संभूत या उत्पन्न होने वाला। जैसे—स्वतः संभवी वस्तु या हेतु। २. जो हो सकता हो। मुमकिन। संभव।
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संभव्य  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+यत्] कपित्थ। कैथ। वि० जो हो सकता हो। संभव।
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संभाखन  : पुं०=संभाषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँभार  : स्त्री०=सँभाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभार  : पुं० [सं०] १. एकत्र या इकट्ठा करना। संचय। २. साज-सामान। सामग्री। ३. आयोजन। तैयारी। ४. धन संपत्ति। ५. दल-झुंड। ६. ढ़ेर। राशि। ७. पालन-पोषण। ८. देख-रेख। निगरानी। ९. नियंत्रण। निरोध।
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संभार तंत्र  : पुं० [सं०] आधुनिक युद्ध कला का वह अंग जिसमें सेना के संचालन, निवास आदि और सैनिको को उनकी आवश्यक सामग्री पहुँचाने की व्यवस्था होती है।
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सँभारना  : स० [सं० स्मरण] स्मरण करना। याद करना। स०=सँभालना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभाराधिप  : पुं० [सं०] राजकीय पदार्थों का अध्यक्ष। तोश खाने का अफसर (शुक्रनीति)।
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संभारी (रिन्)  : वि० [सं० संभार+इनि सं०√भू (भरण करना)+णिनि, संभारिन] [स्त्री० संभारिणीं] १. संभार करने वाला। २. भरा हुआ। पूर्ण।
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सँभाल  : स्त्री० [सं० संभार] १. सँभलने या सँभालने की क्रिया या भाव। २. कोई चीज सँभालकर रखने की क्रिया या भाव। देख-रेख। हिफाजत। ३. शरीर के अंग आदि सँभालकर रखने की शक्ति या समझ। तन-बदन की सुध। जैसे—वह इतना वृद्ध हो गया है कि उसे शरीर की भी सँबाल नहीं रहती। ४. प्रबंध। व्यवस्था। जैसे—गृहस्थी की संभाल। ५. किसी का किया जाने वाला पालन-पोषण।
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सँभालना  : स० [हिं सँभलना का स०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कुछ या कोई सँभले। २. गिरते हुए को बीच में ही रोकना। बीच में पकड़ या रोक रखना। ३. बिगड़ते हुए के संबंध में ऐसी क्रिया करना वह अधिक बिगड़ने न पावे और धीरे-धीरे सुधरने लगे। ४. ऐसी देख-रेख रखना कि बिगड़ने या नष्ट न होने पाए। निगरानी करना। जैसे—घर की चीजें सँभालकर रखना। ५. किसी का पालन-पोषण करना। ६. उचित प्रबंध या व्यवस्था करना। ७. कर्तव्य, कार्य भार आदि अपने ऊपर लेकर उसका ठीक तरह से निर्वाह करना। जैसे—शासन का कार्य सँभालना। ८. यह देखना कि कोई चीज जितनी या जैसी होनी चाहिए उतनी वैसी ही है न। जैसे—अपना अब सामान सँभाल लो। ९. अपने आपको आवेग-युक्त या क्षुब्ध न होने देना।जैसे—उस पर क्रोध मत करना अपने आप को सँभाले रहना। संयो० क्रि०—देना।—लेना।
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सँभाला  : पुं० [हिं० सँभलना] १. सँभलने या सँभालने की क्रिया या भाव। २. मरणासन्न व्यक्ति की वह स्थिति जिसमें वह कुछ समय के लिए थोड़ा चैतन्य हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि उसकी स्थिति सँभल जायगी।—वह मरने से बच जायगा। उदा—बीमारे महब्बत ने लिया तह से सँभाला लेकिन वह सँभाले से सँभल जाय तो अच्छा-कोई शायर। क्रि०—प्र०—लेना।
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सँभालू  : पुं० [हिं० सिंधुवार] श्वेत सिंधुवार वृक्ष।
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संभावन  : पुं० [सं० सम्√भू० कृ० (होना)+णिच्-ल्युट्-अन संभावना] [वि० संभावनीय, संभावितव्य, संभाव्य, भू० कृ० संभावित] १. कल्पना। भावना। अनुमान। २. इकट्ठा करना। ३. ठीक या पूरा करना। ४. आदर-सम्मान। ५. किसी के प्रति होने वाली पूज्य बुद्धि या श्रद्धा। ६. पात्रता। योग्यता। ७. ख्याति। प्रसिद्धि। ८. स्वीकृति।
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संभावना  : स्त्री० [सं० संभावन-टाप्] १. किसी घटना या बात के संबंध की वह स्थिति जिसमें उस घटना के घटित होने या उस बात के पूरे होने की शक्यता होती है। ऐसा जान पड़ता है कि अमुक घटना या बात होना बहुत कुछ संभव प्रतीत होता है (पौसिबिलिटी)। २. साहित्य में उक्त के आधार पर एक प्रकार का अलंकार जिसमें इस बात का उल्लेख होता है कि यदि अमुख बात हो जाय तो अमुक बात हो सकती है। जैसे—एहि विधि उपजै लच्छि जब होइ सीय सम तूल।—तुलसी। ३. दे० ‘संभावन’
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संभावनीय  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+णिच्-अनीयर] १. जिसकी संभावना हो या हो सकती हो। २. जिसकी कल्पना की जा सकती हो। ध्यान या विचार में आ सकने योग्य।
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संभावित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी कल्पना या विचार किया गया हो। २. उपस्थित या प्रस्तुत किया हुआ। ३. आदृत। ४. प्रसिद्धि। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. जिसकी संभावना हो। संभावनीय। संभव। मुमकिन।
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संभावितव्य  : वि० [सं० सं√भू (होना)+णिच्-तव्य] १. कल्पना या अनुमान के योग्य। २. जिसके संबंध में अनुमान या कल्पना की जा सके। ३. जिसका सत्कार किया जा सकता हो या किया जाने को हो। ४. मुमकिन। संभव।
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संभाव्य  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+णिच्-यत] १. जिसकी संभावना हो। जो हो सकता हो। २. प्रशंसनीय। ३. आदर या पूजा का अधिकारी अथवा पात्र। पूज्य और मान्य। ४. जो कल्पना या विचार में आ सकता हो।
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संभाव्यतः  : अव्य० [सं०] संभावना है कि।
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संभाष  : पुं० [सं० सं√भाष् (कहना)+घञ्, सम्भाष] १. कथन। बातचीत। संभाषण। २. करार। वादा।
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संभाषण  : पुं० [सं० सम्√भाष् (भाषण करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० संभाषित, वि० संभाषणी, संभाष्य] आपस में होनेवाली बातचीत। वार्तालाप।
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संभाषणीय  : वि० [सं० सम√भाष् (भाषण अरना)+अनीयर्] जिसके साथ बात-चीत या वार्तालाप किया जा सकता हो।
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संभाषा  : स्त्री० [सं० सम्√भाष (कहना)+अङ्—टाप्] १. संभाषण। २. किसी बात या विषय का तथ्य या स्वरूप जानने के लिए होने वाला वाद विवाद या विचार। (डिबेट)
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संभाषित  : भू० कृ० [सं० सं√भाष् (भाषण देना)+क्त] १. अच्छी तरह कहा हुआ। २. जिसके साथ बात-चीत की गई हो।
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संभाषी (षिन्)  : वि० [सं० संभाष (भाषण करना)+णिनि] [स्त्री० संभाषिणी] १. कहने वाला। २. बातचीत करना।
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संभाष्य  : वि० [सं० सम्√भाष् (बात-चीत करना)+यत्] १. जिससे बातचीत करना उचित हो। जिससे वार्तालाप किया जा सकता हो। २. (विषय) जिस पर संभाष हो सके। (डिबेटेबुल)।
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संभिन्न  : भू० कृ० [सं०] १. पूर्णतः टूटा हुआ। २. तोड़ा फोड़ा हुआ। ३. जिसमें क्षोभ या हलचल उत्पन्न की गई हो। ४. गठा हुआ। ठोस। ५. खिला हुआ। प्रस्फुटित। ६. ठोस।
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संभिन्न प्रलाप  : पुं० [सं०] व्यर्थ की बात-चीत जो बौद्ध शास्त्र के अनुसार एक पाप है।
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संभीत  : भु० कृ० [सं० सम्√भी (डरना)+क्त] बहुत अधिक डरा हुआ।
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संभु  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+डु]=शंभु।
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संभुक्त  : भू० कृ० [सं० सं√भुज् (खाना)+क्त] १. खाया हुआ। २. उपभोग किया या भोगा हुआ। प्रयोग में लाया हु्आ। ३. अतिक्रान्त।
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संभूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभूति] १. जो किसी दूसरे के साथ उत्पन्न हुआ हो। २. उत्पन्न। जात। ३. युक्त। सहित। ४. बिल कुल बदला हुआ। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. बराबर। समान।
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संभूति  : स्त्री० [सं०] १. संभूत होने की अवस्था या भाव। उत्पत्ति। २. विभूति। वैभव। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. योग से प्राप्त होने वाली विभूति या अलौकिक शक्ति। ५. क्षमता। शक्ति। ६. शक्ति का प्रदर्शन। ७. उपयुक्तता। ८. पात्रता। योग्यता। ९. मरीच की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की कन्या थी।
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संभूय  : अव्य० [सं०] १. एक में। एक साथ। २. साझे में।
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संभूयकारी  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत में, किसी संघ में मिलकर व्यापार करने वाला व्यापारी जो उस संघ का हिस्सेदार होता था। (स्मृति) २. किसी के साथ-साथ काम करनेवाला।
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संभूय-क्रय  : पुं० [सं०] थोक माल बेचना या खरीदना (कौ०)।
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संभूय-गमन  : पुं० [सं०] शत्रु पर होने वाली ऐसी चढाई जिसमें सब सामंत भी अपने दलबल के साथ हों (कामंदक)।
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संभूय-समुत्थान  : पुं० [सं०] कई हिस्से दारों के साथ मिलकर किया जाने वाला व्यापार। साझे का कारबार।
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संभूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभृति] १. इकट्ठा या जमा किया हुआ। एकत्र। २. पूरी तरह से भरा या लदा हुआ। ३. युक्त। सहित। ४. पाला-पोसा हुआ। ५. जिसका आदर या सम्मान किया गया हो। ६. तैयार। प्रस्तुत। ७. बनाया हुआ। निर्मित। पुं० चीख-पुकार। हो-हल्ला।
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संभृति  : स्त्री० [सं० सम्√भृ (भरण करना)+क्तिन, संभृति] १. एकत्र करने की क्रिया या भाव। २. भीड़। समूह। ३. ढ़ेर। राशि। ४. अधिकता। बहुतायत। ५. सामान। सामग्री। ६. पालन-पोषण।
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संभृष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√भ्रष्ज् (भूनना)+क्त-भृ=भृषत्व-स्टूत्व] १. खूब भुना या तला हुआ। कुरकुरा। भूने या तले जाने के कारण जो करारा हो गया हो।
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संभेद  : पुं० [सं० सम्√भिद् (प्रथक करना)+घञ्, सभ्भेद] १. अच्छी तरह छिदना या भिदना। २. ढीला होकर खिसकना या स्थान भ्रष्ट होना। ३. अलग या जुदा होना। ४. भेद-नीति। ५. प्रकार। भेद। ६. मिलन।
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संभेदन  : पुं० [सं० सम्√भिद् (भेदन करना)+ल्युट्-अन] [ वि० संभेदनीय, संभेद्य, भू० कृ० संभिन्न] अच्छी तरह छेदना या आर पार घुसाना। खूब धँसाना।
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संभेद्य  : वि० [सं० सम्√भिद् (फाड़ना)+यत्] जिसका संभेदन होने को हो या हो सकता हो।
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संभोग  : पुं० [सं०] १. किसी वस्तु का भली-भाँति किया जाने वाला पूरा उपयोग। २. स्त्री और पुरुष का मैथुन। रति-क्रीड़ा। ३. हाथी के कुम्भ का मस्तक का एक विशिष्ट भाग। ४. साहित्य ऋंगार का वह अंश जो संयोग ऋंगार कहलाता है (दे०‘ऋंगार’)।
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संभोग-काय  : पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार वह शरीर जिसमें आकर इस संसार के सुख-दुःख आदि भोगे जाते हैं।
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संभोग-ऋंगार  : पुं०=संयोग-ऋंगार।
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संभोगी (गिन्)  : वि० [सं० संभोग+इनि] [स्त्री० संभोगिनी] १. संभोग करनो वाला। व्यवहार करके सुख भोगने वाला। पुं० १. विलासी व्यक्ति। ? कामुक व्यक्ति।
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संभोग्य  : वि० [सं० सम्√भुज् (भोग करना)+ण्यत्] १. जिसका भोग व्यवहार होने को हो। जो काम में लाया जाने को हो। २. जिसका भोग या व्यवहार हो सकता हो।
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संभोज  : पुं० [सं० सं√भुज् (खाना)+घञ्] १. भोजन। खाना। २. खाद्य पदार्थ।
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संभोजक  : वि० [सं० सम्√भुज् (खाना)+ण्वुल्-अक] १. भोजन करने या खाने वाला। २. स्वाद लेने वाला।
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संभोजन  : पुं० [सं० सम्√भुज् (खाना)+ल्युट्-अन] [वि० संभोजनीय, संभोज्य, भू० कृ० संभुक्त] १. बहुत से लोगों का मिलकर खाना। २. भोज। दावत। ३. खाने की चीजें। ४. भोजन की सामग्री।
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संभोजनीय  : वि० [सं० सम्√भुज् (खाना)+अनीयर्] १. जो खाया जाने को हो। २. जो खाया जा सकता हो।
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संभोज्य  : वि० [सं०]=संभोजनीय।
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संभ्रम  : पुं० [सं०] १. चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। फेरा। २. उतावली। जल्दीबाजी। ३. घबराहट। ४. बेचैनी। विकलता। ५. किसी का सामना होने पर उससे सहमना या सिटपिटाना। ६. किसी को बड़ा समझकर उसके आगे आदर पूर्वक सिर झुकाना। ७. किसी की वह स्थिति जिसके कारण लोग उसका आदर करते या सहमते हों। ८. किसी के प्रति होने वाला पूज्य भाव। ९. गहरी चाह। उत्कंठा। १॰. साहस। हौसला। ११. गलती। चूक। भूल। १२. छवि। शोभा। १३. शिव के एक प्रकार के गण।
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संभ्रान्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभ्रांति] १. चारों ओर घुमाया हुआ। २. क्षुब्ध। ३. प्रतिष्ठित। सम्मानित।
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संभ्रांति  : स्त्री० [सं०] १. संभ्रांत होने की अवस्था या भाव। २. क्षोभ। ३. प्रतिष्ठा। सम्मान।
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संभ्राजना  : अ० [सं० संभ्राज] पूर्णतः सुशोभित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संमत  : वि० [सं० सम्√मन् (मानना)+क्त नलोप]=सम्मत।
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संमान  : पुं० [सं०√मन् (मानना)+अच्]=सम्मान।
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संमित  : भू० कृ० [सं०√मा (नाप)+क्त]=सम्मित।
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संमुख  : वि० [सं०] १. जो किसी के सामने या किसी की ओर मुँह किये हो। २. सामने आया हुआ। उपस्थित। प्रस्तुत। अव्य० समक्ष। सामने।
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संमुखीन  : वि०=संमुख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संमुद्रण  : पुं० [सं०] बहुत बढ़िया छपाई करना।
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संमेलन  : पुं० [सं० सं√यम् (संयम करना)+ल्युट्-अक]=सम्मेलन।
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संभ्राज  : पुं०=साम्राज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संयंता  : वि० [सं० सम्√यम् (संयम करना)+तृच्, अक] १. संयम करने वाला। निग्रही। २. शासक।
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संयंत्रित  : भू० कृ० [सं० संयंत्र+इतच्] १. बँधा या जकड़ा हुआ। बद्ध। २. दबाया या रोका हुआ। ३. बन्द।
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संयत्  : वि० [सं० सम्√यत्न (पद्य करना)+क्विप्-यम्+क्विप-तुक वा] १. संबद्ध। लगा हुआ। २. जिसका क्रम न टूटे। लगातार होनेवाला। पुं० १. नियत स्थान। २. करार। वादा। ३. लड़ाई-झगड़ा। ४. एक प्रकार की पुरानी चाल की ईट जो वेदी बनाने के काम आती थी।
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संयत  : वि० [सं०] १. बँधा या जकड़ा हुआ। बद्ध। २. दबाया या रोका हुआ। ३. कैद या बन्द किया हुआ। ४. किसी प्रकार की मर्यादा या सीमा के अंदर रहने वाला। मर्यादित। (मॉडरेट) ५. क्रम, नियम आदि से व्यवस्थित किया हु्आ। ६. उद्धत। सन्नद्ध। ७. इन्द्रिय-निगृही। ८. सीमा के अंदर रखा हुआ। पुं० १. शिव। २. योगी।
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संयत-प्राण  : वि० [सं०] जिसमें प्राणायाम के द्वारा प्राणवायु या श्वास को वश में किया हो।
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संयतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें मन को वश में किया हो। चित्तवृत्ति का विरोध करने वाला।
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संयति  : स्त्री० [सं० सम्√यम् (रोकना)+क्तिन-नलोप] १. संयत रहने या होने की अवस्था या भाव। २. निरोध। रोक।
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संयद्वसु  : पुं० [सं०] सूर्य की सात किरणों में से एक। वि० धनवान। सम्पन्न।
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संयम  : पुं० [सं० सम्√यम् (संयम करना)+घञ्] [कर्ता, संयमी, भू० कृ० संयमित, वि० संयत] १. दबा या रोककर रखने की क्रिया य़ा भाव। वश में रखना। २. धार्मिक तथा नैतिक दृष्टि से मन को विषय-वासनाओं को अनुचित, बुरे या हानि कारक मार्गों में प्रवृत्त होने से रोकना। चित्त की अनुचित वृत्तियों का निरोध। इंद्रिय-निग्रह। ३. शरीर-रक्षा अथवा स्वास्थ की दृष्टि से हानि कारक कार्यों या बातों से बचते हुए अलग या दूर रहना। परहेज। ४. व्यावहारिक दृष्टि से अपने आपको अनौचित्य की सीमा से बचाना। अनुचित कामों या बातों से अपने आप को रोकना। (मॉडरेशन) ५. क्रोध आदि में न आना। शांत बने रहना। ६. अच्छी तरह व्यवस्थित रूप से बन्द करना या बाँधना। जैसे—केश-संयम। ७. खुला न रहने देना। मूँदना। ८. बंधन। ९. योग में, ध्यान, धारण, और समाधि का साधन। १॰. उद्योग। प्रयत्न। ११. प्रलय।
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संयमक  : वि० [सं० सम्√यम् (रोकना)+ण्वुल—अक या संयम+कन्] संयम करने वाला।
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संयमन  : पुं० [सं० सम्√म् (रोकना)+ल्युट्-अन्] १. संयम करने की क्रिया या भाव। २. अनुचित या बुरी बातों से मन को रोकना। निग्रह। ३. दमन। ४. आत्म-निग्रह। ५. बंधन या रुकावट में रहना। ६. अच्छी तरह बाँधना। जकड़ना। ७. अपनीं ओर खींचना या तानना। ७. यम की पुरी संयमिनी।
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संयमनी  : स्त्री०=संयमिनी।
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संयमित  : भू० कृ० [सं० सम्√यम् (रोकना)+णिच्-क्त संयम इतच्—वा्] १. जिसके विषय या संबंध में संयम किया गया हो। २. रोक कर वश में किया या लाया हुआ। किसी का दमन किया गया हो अथवा हुआ हो। ४. कसा या बाँधा हुआ। ५. अच्छी तरह पकड़ा हुआ। वि० इंद्रियों का संयम करने वाला। इंद्रिय-निग्रही।
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संयमिता  : स्त्री० [सं०√यम् (रोकना आदि)+णिच्-तृच्] संयम करने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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संयमिनी  : स्त्री० [सं० संयम+इनि-ङीप्] १. यमराज की नगरी। यमपुरी जो मेरु पर्वत पर स्थित कही गई है। २. काशीपुरी।
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संयमी (मिन्)  : वि० [सं० संयमिन्-दीर्घ, नलोप] १. संयम करने वाला २. संयम पूर्वक जीवन बिताने वाला। संयम से रहने वाला। आत्म-निग्रही। पं० १. योगी। २. राजा। ३. शासक।
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संयात  : वि० [सं० सम्√या (गमनादि)+क्त] १. साथ चलने या जाने वाला। २. साथ लगा हुआ। ३. आया या पहुँचा हुआ। प्राप्त।
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संयात्रा  : स्त्री० [सं०] १. यात्रा में किसी की साथ होना। साथ-साथ यात्रा करना। २. ऐसी यात्रा जिसमें समुद्र पार करना पड़े।
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संयान  : पुं० [सं० सम्√या (गमनादि)+ल्युट्-अन] [वि० संयात, संयायी] १. किसी के साथ चलना या जाना। सह-गमन। २. यात्रा। पद-उत्तम मंयान=मृत शरीर को अंत्येष्टि क्रिया के लिए ले जाना। ३. प्रस्थान। रवानगी। ४. गाड़ी। याना।
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संयाम  : पुं० [सं० सं√यम (रोकना)+क्त]
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संयुक्त  : पुं० [सं० सं√युज (जोड़ना)+क्त] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। २. (संघठन या संस्था) जिसका विघटन न हुआ हो। जैसे—संयुक्त परिवार। ३.जिसके दो या अधिक भागीदार हों। जैसे—संयुक्त खाता। ४. सहित। ५. साथ रहकर या मिलकर काम करने वाला। जैसे—संयुक्त संपादक।
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संयुक्त खाता  : पुं० [सं०+हिं०] लेन-देन आदि का वह लेखा या हिसाब जो एक से कुछ अधिक आदमियों के साथ चलता हो। (ज्वाइन्ट एकाउन्ट)।
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संयुक्त राष्ट्र संघ  : पुं० [सं०] पुराने राष्ट्र संघ की तरह वह संस्था जो दूसरे महायुद्ध के उपरांत उसके स्थान पर अप्रैल १९४६ में बनाई गई थी, और आज-कल जो सारे संसार में शांति बनाए रखने, मानव-हितों की रक्षा करने तथा इसी प्रकार के और लोक कल्याण के कार्यों में सक्रिय है। (युनाइटेड नेशन्स ऑर्गनिजेशन)
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संयुक्त-लेखा  : पुं०=संयुक्त खाता।
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संयुक्त-वाक्य  : पुं० [सं०] व्याकरण में ऐसा वाक्य जिसमें दो या अधिक ऐसे उपवाक्य होते हैं जो एक दूसरे के अधीन न हों। (कम्पाउन्ड सेन्टेन्स)
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संयुक्त-सरकार  : स्त्री० [सं०+हिं०]किसी देश का वह सरकार जो किसी आपात या विशेष संकट के समय सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के सहयोग से बनी हो। (कोएलिशन गवर्नमेंट)
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संयुक्ताक्षर  : पुं० [सं० संयुक्त+अक्षर] वह अक्षर जो अक्षरों के मेल से बना हो। जैसे—क् और त् के योग से ‘क्त’ या प् और ल् के योग से ‘प्ल’ ।
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संयुग  : पुं० [सं० सम्√युम् (मना करना)+अच्-नलोप-पृषो्] १. मेल। मिलाप। २. संयोग। समागमन। ३. भिड़न्त। ४. युद्ध। लड़ाई।
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संयुत  : वि० [सं०] १. किसी के साथ मिला या लगाया हुआ। २. जो कई वस्तुओं के योग से बहुत अधिक या इकट्ठा हो गया हो। (क्युमुलेटेड)
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संयुति  : वि० [सं०] १. संयुत होने की अवस्था या भाव। २. दो या अधिक पदार्थों का एक में एक स्थान पर इकट्ठा होना या मिलना। जैसे—ग्रहों की संयुति। (कंजंक्शन)
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संयोग  : पुं० [सं०] १. दो या अधिक वस्तुओं का एक में एक साथ होना। मेल। मिश्रण। (काम्बिनेशन) २. समागम। ३. लगाव। संबंध। ४. स्त्री और पुरुष या प्रेमी और प्रेमिका का मिलन। ५. मैथुन। रतिक्रीड़ा। संभोग। ६. वैवाहिक संबंध। ७. किसी काम या बात के लिए कुछ लोगों में होने वाला मेल। ८. आकस्मिक रूप से आने वाली वह स्थिति जिसमें एक घटना को साथ ही कोई दूसरी घटना भी घटती हो। पद-संयोगसे=बिना पहले से निश्चत किये हुए और आकस्मिक रूप से। जैसे—मैं यहां बैठा हुआ था इतने में संयोग से वे भी आ पहुँचे। ९. किसी बात या विचार में होने वाला मतैक्य। भेद का विपर्याय। १॰. व्याकरण में कई व्यंजनों का एक साथ होने वाला मेल। ११. अनेक संस्थाओं का योग। जोड़।
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संयोग-प्रथकत्व  : पुं० [सं० द्व० स० त्व, या० ब० स०] ऐसा पार्थक्य या अलगाव जो नित्य न हो। (न्याय)
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संयोग-मंत्र  : पुं० [सं० ष० त० या मध्य० स०] विवाह के समय पढ़ा जानेवाला वेदमंत्र।
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संयोग-विरुद्ध  : पुं० [सं० तृ० त०] ऐसे पदार्थ जो साथ-साथ खाने के योग्य नहीं होते, और यदि खाये जायँ तो रोग उत्पन्न करते है। जैसे—घी और मधु, मछली और दूध।
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संयोगिता  : स्त्री० [सं०] जयचन्द्र की कन्या जिसका पृथ्वीराज ने हरण किया था।
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संयोगिनी  : स्त्री० [सं० सं योग+इनि—ङीप्] वह स्त्री जो अपने पति या प्रियतम के साथ हो। ‘वियोगिनी’ का विपर्याय।
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संयोगी (गिन्)  : वि० [सं० संयोगिन्-दीर्घ-नलोप] [स्त्री० संयोगिनी] १. जिसका संयोग हो चुका हो। २. जो संयोग के फलस्वरूप हुआ हो। ३. विवाहित। ४. जिसकी प्रिया उसके पास या साथ रहती हो।
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संयोजक  : वि० [सं० सम्√युज् (मिलाना)+ण्वुल्-अक] संयोजन करने वाला। पुं० १. व्याकरण में वह शब्द (अव्यय) दो शब्दों या वाक्यों को जोड़ने का काम करता हो। जैसे—अथवा और या। २. आजकल सभा समितियों का वह सदस्य जो अन्य सदस्यों को बुलाकर उनका अधिवेशन कराता हो तथा सभापति के कर्तव्यों का पालन भी करता हो। (कन्वीनर)
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संयोजन  : पुं० [सं० सम्√युज् (जोड़ना)+ल्युट्-अन्] [वि० संयोगी, संयोजनीय, संयोज्य, संयोजित] १. संयोग करने अर्थात जोड़ने या मिलाने की अवस्था या भाव। युग्मन। (कान्जुरेशन) २. एक साथ किसी दूसरी चीज को संलग्न या सम्मिलित करने की क्रिया या भाव। (अटैचमेंट) ३.दो या अधिक चीजों का आपस में मिलना या मिलाया जाना। (काम्बिनेशन) ४. मैथुन। संभोग। ५. कार्य का आयोजन या व्यवस्था। प्रबंध। ६. संसार के जंजाल में मनुष्य को लगाए रखने वाला भव-बंधन या कारण। (बौद्ध)
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संयोजना  : स्त्री० [सं० संयोजन-टाप्]=संयोजन।
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संयोजित  : भू० कृ० [सं० सम्√युज् (मिलाना)+णिच्-क्त] जिसका संयोजन किया हुआ हो या किया गया हो।
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संयोज्य  : वि० [सं० सम्√युज् (मिलाना)+ण्यत्] जिसका संयोजन हो सकता हो अथवा होने को हो।
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संयोष  : पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई।
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संयोना  : स०=सँजोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संरंभ  : पुं० [सं०] १. ग्रहण करना। पकड़ना। २. आतुरता। उत्कंठा। ३. उद्विग्नता। उद्वेग। ४. खलबली। क्षोभ। ५. उत्साह। उमंग। ६. क्रोध। कोप। ७. ऐंठ। ठसक। ८. शोक। ९. अधिकता। बाहुल्य। १॰. आरंभ। शुरू। ११. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। १२. फोड़े या घाव का सूजना या लाल होना। (सुश्रुत)।
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संरक्त  : वि० [सं०√रज्ज (राग होना)+क्त] १. अनुरक्त। आसक्त। २ आकर्षक। मनोहर। ३. जो क्रोध से लाल हो रहा हो।
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संरक्षक  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षाकरना)+णवुल्-अक] [स्त्री० संरक्षिका] १. संरक्षण करने वाला। २ देख-रेख, पालन-पोषण आदि करने वाला। ३. आश्रय या शरण देने वाला। पुं० १. वह जो किसी बालक, स्त्री की देख-रेख भरण पोषण आदि का भार वहन करता हो। अभिभावक। (गार्जियन) २. वह जिसके निरीक्षण या देख रेख में किसी वर्ग के कुछ लोग रहते हों। (वार्डन) ३. आजकल संस्थाओं आदि में वह बहुत बड़ा मान्य व्यक्ति जो उसके प्रधान पोषकों या समर्थकों में माना जाता है। (पेट्रन) विशेष-प्रायः संस्थाएँ अपनी प्रामाणिकता, मान्यता आदि बढ़ाने के लिए गणमान्य विशिष्ट व्यक्तियों को अपना संरक्षक बना लेती हैं।
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संरक्षकता  : स्त्री० [संरक्षक+तल्—टाप्] १. संरक्षक होने की अवस्था या भाव। २. संरक्षक का कार्य या पद।
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संरक्षण  : पुं० [सं० समे√रक्ष् (रक्षा करना) ल्युट्+अन] १. अच्छी और पूरी तरह से रक्षा करने की क्रिया या भाव। पूरी देख-रेख और हिफाजत। २. अधिकार। कब्जा। ३. अपने आश्रय में रहकर पालना-पोसना। ४. आर्थिक क्षेत्र में देश या विदेशी माल की प्रतियोगिता होने पर शासन द्वारा देशी माल की रक्षा करना। (प्रोटेक्शन उक्त सभी अर्थों में)
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संरक्षण-वाद  : पुं० [सं०] आधुनिक राजनीति में यह सिद्धान्त कि राष्ट्र को अपने आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्योग का संरक्षण करना और बाहरी प्रतियोगिता के दुष्परिणामों से बचाना चाहिए। (प्रोटेक्शनिज्म)
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संरक्षण शुल्क  : पुं० [सं०] आधुनिक अर्थ शास्त्र में वह शुल्क या कर जो अपने देश में बनी हुई चीजों को प्रतियोगिता के कारण नष्ट होने से बचाने के लिए विदेशी चीजों पर लगाया जाता है जो सस्ती बिक सकती हों। भरण्य शुल्क (प्रोटेक्शन ड्यूटी)। जैसे—देशी चीनी का व्यापार बढाने के लिए यहाँ विदेशी चीनी पर संरक्षण शुल्क लगाया जाता था।
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संरक्षणीय  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षा करना)+अनीयर्] १. जिसका संरक्षण करना आवश्यक या उचित हो। संरक्षण का अधिकारी या पात्र। २. बचाकर रखे जाने योग्य।
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संरक्षित  : भू० कृ० [सं० सं√रक्ष् (रक्षा करना)+क्त] १. जिसका संरक्षण किया हो या हुआ हो। २. अच्छी तरह बचाकर रखा गया हो। पुं० वह जो किसी संरक्षक की देख-रेख में रहता हो। प्रतिपाल्य। (वार्ड)
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संरक्षित राज्य  : पुं० [सं०] आधुनिक राज्य में वह दुर्बल राज्य जिसे किसी दूसरे सबल राज्य ने अपने संरक्षण में ले लिया हो। (प्रोटेक्टोरेट)
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संरक्षितव्य  : वि० [सं०√रक्ष् (रक्षा करना)+तव्य] जिसका संरक्षण करना आवश्यक या उचित हो।
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संरक्षी  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षा करना)+णिनि संरक्षा+इति] [स्त्री० संरक्षिणी] १. संरक्षण करने वाला। २. देख-बाल करने वाला।
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संरक्ष्य  : वि० [सं० सम्√रक्ष् (रक्षा करना) ण्यत्-यत वा]=संरक्षणीय।
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संरचना  : स्त्री० [सं०] [भू० कृ० संरचित] १. कोई ऐसी चीज बनाने की क्रिया या भाव जिसमें अनेक प्रकार बहुत से अंगों-उपांगों का प्रयोग करना पड़ता हो ? जैसे—किले, पुल या भवन की संरचना। लाक्षणिक रूप में, किसी अमूर्त वस्तु का सारा ढाँचा। बनावट। २. उक्त प्रकार से बनी हुई चीज। (स्ट्रक्चर)।
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संरब्ध  : वि० [सं० सम्√रभ् (मिलना)+क्त] १. किसी के साथ अच्छी तरह जुडा़, मिला या लगा हुआ। २. जो किसी के साथ हाथ मिलाए हो। ३. उद्विग्न। क्षुब्ध। ४. क्रोध से भरा हुआ। ५. फूला या सूजा हुआ। ६. घबराया हुआ।
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संराधक  : पुं० [सं० सम्√राध् (ध्यान करना)+ण्वुल्-अक्] १. संराधन करने वाला। आराधना करने वाला।
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संराधन  : पुं० [सं०] [वि० संराधनीय, संराध्य, भू० कृ० संराधित] १. आराधना या पूजन और ध्यान करना। २. जयजयकार । ३. आज-कल किसी अप्रसन्न व्यक्ति को समझा बुझाकर तुष्ट और प्रसन्न करना। (कान्सिलिएशन)
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संराधन अधिकारी  : पुं० [ष० त०] आजकल वह राजकीय अधिकारी जो कल कारखानों-आदि में काम करने वाले कर्मचारियों और उनके मालिकों में झगड़ा होने पर समझा-बुझाकर उनमें समझौता कराता हो। (कान्सिलिएशन आफ़िसर)
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संराधनीय  : वि० [सं० सम्√राध् (आराधना करना)+अनीयर्] जिसकी आराधना करना उचित या आवश्यक हो।
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संराधित  : भू० कृ० [सं० सम्√राध् (पूजा करना)+क्त] जिसका संराधन किया गया हो।
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संराध्य  : वि० [सं० सम्√राध् (आराधना करना)+ण्यत्]=संराधनीय।
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संराव  : पुं० [सं] १. कोलाहल। शोर। २. हलचल। धूम।
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संरुद्ध  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह रोका हुआ। २. चारों ओर से घिरा या घेरा हुआ। ३. अच्छी तरह बन्द किया हुआ। ४. छाया या ढका हुआ। ५. पूरी तरह से भरा हुआ। ६. मना किया हुआ। वर्जित।
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संरूढ  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह चढा हुआ। २. किसी पर अच्छी तरह जमा या लगा हुआ। ३. अंकुरित। ४. (घाव) जो पूज या सूख रहा हो। ५. आगे निकला या बाहर आया हुआ। ६. धृष्ट। प्रल्लभ। ७. पुष्ट और प्रौढ।
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संरोदन  : पुं० [सं० सम्√रुद्र् (रोना)+ल्युट्—अन] जोर-जोर से या ढाढ मारकर रोना।
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संरोध  : पुं० [सं०] १. रोक। रुकावट। २. अड़चन। बाधा। ३. आधुनिक राजनीति शत्रु के किसी देश या स्थान को चारों ओर से इस प्रकार घेरना कि बाहरी जगत से उसे कोई सहायता न मिल सके। नाकेबंदी। (ब्लाकेड) ४. बन्द करना। ५. हिंसा।
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संरोधन  : पुं० [सं०] [वि० संरोधनीय, संरोध्य, संरुद्ध] १. रुकावट डालना। रोकना। २. बाधा खड़ी करना। बाधक होना। ३.चारों ओर से घेरना। ४. सीमा या हद बनाना। ५. बन्द करना। मूँदना। ६. बंदी बनाना। कैद करना। ७. दमन करना। दबाना।
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संरोधनीय  : वि० [सं० सम्√रुध् (घेरना)+अनीयर] जिसका संरोधन हो सके या किया जाने को हो।
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संरोध्य  : वि० [सं० सम्√रुध् (ढकना)+ण्यत्]=संरोधनीय।
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संरोपण  : पुं० [सं० सम्√रुह् (अंकुरित होना)+णिच्-ह=प—ल्युट्-अन] [वि० संरोपणीय, संरोप्य, भू० कृ० संरोपित] १. पेड़ पौधा लगाना। जमाना। बैठाना। रोपना। २. घाव को सुखाकर अच्छा करना।
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संरोपित  : भू० कृ० [सं०√रुह् (उगना)+णिच्-ह=प-क्त] १. जिसका संरोपण हुआ हो या किया हो। २. ऊपर से लगाया या रोपा हुआ।
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संरोप्य  : वि० [सं० रुह् (उगना)+णिच-ह=प-ण्यत्] जिसका संरोपण हो सकता हो या होने को हो।
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संरोह  : पुं० [सं० सम्√रुह् (उगना)+अच्] १. ऊपर चढना, जमना या बैठना। २. घाव सूखने पर पपड़ी जमना या बनना। ३. बीज आदि का अंकुरित होना। ४. आविर्भूत या प्रकट होना। आविर्भाव।
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संरोहण  : पुं० [सं० सम्√रुह् (अंकुरित होना)+ल्युट्-अन] [वि० संरोहणीय, संरोही, भू० कृ० संरोहित] संरोह होने की क्रिया या भाव।
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संलक्षण  : पुं० [सं० सम्√लक्ष् (देखना आदि)+ल्युट्-अन] [वि० संलक्षणीय, संलक्ष्य, भू० कृ० संलक्षित] १. रूप या उसका लक्षण निश्चित करना। २. पहचानना। ३. ताड़ना। लखना।
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संलक्षित  : भू० कृ० [सं० सम्√लक्ष् (देखना आदि)+क्त] १. लक्षणों से जाना या पहचाना हुआ। २. ताड़ा या लखा हुआ।
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संलक्ष्य  : वि० [सं० सम्√लक्ष् (देखना आदि)+यत्] १. जो लक्षणों से पहचाना जाय। २. जो देखने में आ सके। ३. जो ताड़ा या लखा जा सके।
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संलक्ष्य क्रम व्यंग्य  : पुं० [सं० समलक्ष्य,-क्रम-ब०स०,-व्यंग्य-मध्य०स०] साहित्य में, व्यंग्य को दो भेदों में से एक ऐसा व्यंग्य या व्यंजना जिसमें वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ की प्राप्ति का क्रम लक्षित हो।
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संलग्न  : वि० [सं०√लग् (संग रहना)+क्त-पषोण, सम√ लाज् (लज्जित आदि)+क्त-न] १. किसी के साथ मिला हुआ। २. किसी काम या बात में लगा हुआ। ३. जुड़ा हुआ। संबद्ध। ४. किसी दूसरे के साथ अंत में या पीछे से जोड़ा या लगाया हुआ। (एपेंडेड, अटैच्ड)
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संलपन  : पुं० [सम्√लप (कहना)+ल्युट्-अन] इधर उधर की बात-चीत। या गप-शप।
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संलब्ध  : वि० [सम्√लभ् (प्राप्त होना)+क्त]=लब्ध।
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संलय  : पुं० [सम्√ली (दमनादि)+अच] [वि० संलीन] १. पक्षियों का उतरना या नीचे आना। २. निद्रा। नींद। ३. प्रलय।
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संलाप  : पुं० [संम√लप् (कहना)+घञ्] १. आपस की बात-चीत वार्तालाप। २. नाटक में, ऐसी बात-चीत या संवाद जो धीरता पूर्ण हों और जिसमें आदेश या क्षोभ न हो। ३. साहित्य में जो आप ही आप कुछ बोलना या बडबड़ना जो पूर्वराग की दस दशाओं में एक माना गया है। ४. वियोग की दशा में प्रिय से मन ही मन की जाने वाली बातें।
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संलापक  : भू० कृ० [संलाप+कन्] नाटक में, संलाप। वि० संलाप करनेवाला।
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संलिप्त  : भू० कृ० [सम्√लप् (लेप करना)+क्त] १. भली-भाँति लिप्त या लीन। २. अच्छी तरह लगा हुआ।
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संलीन  : वि० [सं०] १. अच्छी तरह लगा हुआ। २. छाया या ढका हुआ। ३. पूरी तरह से किसी में समाया हुआ। ४. सिकुड़ा हुआ। संकुचित।
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संलेख  : पुं० [सं०] १. बौद्ध धर्म के अनुसार पूरा-पूरा संयम। २. आज-कल कोई ऐसा पत्र या लेख जिसमें किसी विविध कृत्य का प्रामाणिक विवरण हो। विलेख। ३. विधिक क्षेत्र में, वह लेख या विलेख जो नियमानुसार लिखा हुआ, ठीक और प्रामाणिक माना जाता हो। (वैलिड डीड) ४. राज्यों में होने वाली संधि का वह पूर्व रूप या मसौदा जिस पर पारस्परिक समझौते की मुख्य-मुख्य बातें लिखी हों तथा जिस पर संबद्ध पक्षों के प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर हुए हों। पूर्व-लेख। (प्रोटोकोल)
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संलोडन  : पुं० [सम्√लोड् (घोलना)+ल्युट्-अन्] [वि० संलोडित] १. (जल आदि की) खूब हिलाना या चलाना। मथना। २. झकझोरना। ३. उलटना-पुलटना। ४. उथल-पुथल करना या मचाना।
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संलोभन  : पुं०=प्रलोभन।
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संवत्  : पुं० [सं०] १. वर्ष। साल। २. किसी विशिष्ट गणना क्रम वाली काल-गणना। जैसे—विक्रमी संवत्, शक संवत्। विशेष-इसका प्रयोग मुख्यता भारतीय गणना प्रणालियों के संबंध में होता है। पाश्चात्य गणना प्रणालियों के संबंध में प्रायः सन् का प्रयोग होता है।
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संवत्सर  : पुं० [सं०] १. वर्ष। साल। २. फलित ज्योतिष में पाँच-पाँच वर्षो के युगों में से प्रत्येक का प्रथम वर्ष। ३. शिव का एक नाम।
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संवत्सरीय  : वि० [सम्वत्सर+छ-ईय] १. संवत्सर संबंधी। संवत्सर का। २. हर साल होने वाला। वार्षिक।
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संवदन  : पुं० [सम्√वद् (बोलना)+ल्युट्-अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. संदेशा। ३. आलोचनात्मक विचार। ४. जाँच-पड़ताल।
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संवदना  : स्त्री० [संवदन-टाप्] मंत्र-तंत्र आदि से अथवा और किसी प्रकार किसी को वश में करने की क्रिया। वशीकरण।
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संवनन  : पुं० [सम्√वन् (वश करना)+ल्युट्-अन्] [भू० कृ० संवनित] १. यंत्र-मंत्र आदि के द्वारा स्त्रियों को फसाना या वश में करना। २. दे० ‘संवदन’।
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सँवर  : स्त्री० [सं० स्मरण] १. याद। स्मृति। २. वृत्तान्त। हाल। ३. खबर। समाचार। स्त्री० [हिं० सँवरना] सँवेरे अर्थात सजे हुए होने की अवस्था या भाव।
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संवर  : पं० [सम्√व् (वरण करना)+अप्] १. संवरण करने की क्रिया। या भाव। २. रुकावट। रोक। ३. इंद्रिय-निग्रह। ४. जैन दर्शन में कर्मों का प्रवाह रोकना। ५. बौद्ध मतानुसार एक प्रकार का व्रत। ६. जलाशयों आदि बाँध। ७. पुल। सेतु। ८. चुनने की क्रिया या भाव। चुनाव। ९. कन्या का अपने लिए वर चुनना। स्वयंवर।
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संवरण  : पुं० [सं०] [वि० संवरणीय] १. दूर करना। हटाना। २. बन्द करना। ३. आच्छादित करना। ढकना। ४. छिपाना। ५. कोई ऐसी चीज जिसमें कोई दूसरी चीज छिपाई, ढकी या रोकी जाय। ६. आड़ करने या बचाने वाली चीज। ७. मनोवेग आदि को दबा या रोककर वश में रखना। नियंत्रण से बाहर न होने देना। निग्रह। जैसे—क्रोध या लोभ का संवरण करना। ८. जलाशयों आदि का बाँध। ९. पुल। सेतु। १॰. पसंद करना। चुनना। ११. कन्या का विवाह के लिए अपना पति या वर चुनना। १२. वैद्यक में गुदा के चमड़े की तीन तहों या पर्तों में से एक। १३. आज-कल सभा-समितियों, सँसदों आदि में किसी विषय पर यथेष्ट वाद-विवाद हो चुकने पर किया जाने वाला उसका अंत या समाप्ति। (क्लोजर)
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संवरणीय  : वि० [सम्√वृ (वरण करना)+अनीयर्] [स्त्री० संवरणीया] १. जिसका संवरण हो सकता हो या होना उचित हो। २. जिसे छिपाकर रखना वांछित हो। गोपनीय। ३. जो वरण अर्थात विवाह के योग्य हो चुका हो।
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सँवरना  : अ० [सं० संवर्णन] १. बनकर अच्छी या ठीक दशा को प्राप्त होना अथवा सुंदर रूप में आना। सँवारा जाना। २. अलंकृत या सज्जित होना। स० [सं० स्मरण] स्मरण करना। उदा—पुनि बिसरा भा सँवरना, जनु सपने भइ भेंट।—जायसी।
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सँवरा  : वि०=साँवला।
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सँवरिया  : वि०=साँवला। पुं०=साँवलिया।
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संवर्ग  : पुं० [सम्√वृजी् (मना करना)+घञ्] १. अपनी ओर समेटना। २. इकट्ठा करना। ३. खा-जाना। भक्षण। ४. खपत। ५. विलय। ६. (गणित में) गुणन फल।
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संवर्जन  : पुं० [सम्√वृज (त्यागना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवर्जित, वि० संवर्जनीय, संवृक्त] १. बलपूर्वक ले लेना। हरण करना। छीनना। २. उड़ा डालना। समाप्त कर देना।
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संवर्त  : पुं० [सं०] १. लपेटना। २. घुमाव। फेरा। लपेट। ३. लपेट कर बनाई हुई पिंडी। ४. शत्रु से भिड़ना। ५. गोली। बटी। ६. बड़ी राशि या समूह। ७. संवत्सर। ८. एक प्रकार का दिव्यास्त्र। ९. ग्रहों का एक प्रकार का योग। १॰. एक केतु का नाम। ११. एक कल्प का नाम। १२. प्रलय काल के भेदों में से एक। १३. इंद्र का अनुचर एक मेघ जिससे बहुत जल बरसता है। १४. बादल। मेघ। १५. बहेड़ा।
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संवर्तक  : वि० [सं०√वृत् (रहना)+णिच्-ण्वुल्-अक] १. संवर्तन करने या लपेटने वाला। २. नाश या लय करने वाला। पुं० १. कृष्ण के भाई बलराम का एक नाम। २. बलराम का एक अस्त्र, हल। ३. बड़वानल। ४. बहेड़ा। ५. प्रलय नामक मेघ। ६. प्रलय मेघ की अग्नि।
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संवर्त-कल्प  : पुं० [मध्यम० स०] बौद्धों के अनुसार प्रलय का एक प्रकार या रूप।
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संवर्तकी  : पुं० [संवर्तक+इति, संर्वतकिन्] कृष्ण के भाई बलराम का एक नाम।
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संवर्तन  : पुं० [सं०√वृत् (रहना)+ल्युट्-अन] [वि० संवर्तनीय, संवृत, भू० कृ० संवर्तित] १. लपेटना। २. चक्कर या फेरा देना। ३. किसी ओर प्रवत्त होना या मुड़ना। ४. पहुँचना। ५. खेत जोतने का हल। ६. भारतीय युद्ध कला में, एक शत्रु का प्रसार रोकना।
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संवर्तनी  : स्त्री० [संवर्तन-ङीष्] सृष्टि का लय। प्रलय।
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संवर्तनीय  : वि० [सं०√वृत् (रहना)+अनीयर्] जिसका संवर्तन हो सकता हो या होने को हो।
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संवर्ति  : स्त्री० [संवृत+इति] दे० ‘संवर्तिका’।
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संवर्तिका  : स्त्री० [संवर्ति+कन्+टाप्] १. लपेटी हुई वस्तु। २. बत्ती। ३. ऐसा बँधा हुआ पत्ता जो अभी खिलने या फूलने को हो। ४. खेत जोतने का हल।
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संवर्तित  : भू० कृ० [सं०√वृत् (रहना)+क्त] १. लपेटा हुआ। २. घुमाया, फेरा या मोड़ा हुआ।
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संवर्ती  : वि० [सं०] [स्त्री० संवर्तिनी] १. किसी के साथ वर्तमान रहने या होने वाला। २. किसी समान पद या स्थिति में रहने वाला। ३. एक ही काल में औरों के साथ, प्रायः उसी रूप में परंतु भिन्न-भिन्न स्थानों पर होने वाला। (कान्करेन्ट) जैसे—संवर्ती घोषणा या सूची=ऐसी घोषणा या सूची जो एक सात कई स्थानों में प्रकाशित हो।
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संवर्द्धक  : पुं० [सम्√वृध् (बढाना)+णिच्-ण्वुल्-अक] संवर्धन करनेवाला।
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संवर्द्धन  : पुं० [सम्√वृध (बढ़ना)+णिच्-ल्युट्-अन] [वि० संवर्द्धनीय, संवर्द्धित, संवृद्ध] १. अच्छी तरह बढ़ना या बढ़ना। २. जितना या जो पहले से वर्तनाम हो उसमें कुछ और अधिकता या वृद्धि करना। (आग्मेन्टेशन) ३. पशु-पक्षियों पौधों आदि के संबंध में ऐसी क्रिया और देख भाल करना जिससे उनके वंश आदि का विकास, विस्तार या वृद्धि हो। (कल्चर) जैसे—पपीते के पेड़ों, मधुमक्खियों आदि का संवर्धन। पाल-पोसकर बड़ा करना। ४. उन्नत करना। बढ़ाना।
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संवर्द्धनीय  : वि० [सम्√वृध् (बढ़ाना) णिच्-अनीयर] जिसका संवर्द्धन करना आवश्यक या उचित हो। २. जिसका पालन-पोषण करना आवश्यक या उचित हो।
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संवर्द्धित  : भू० कृ० [सम्‘√वृध् (भढ़ना)+णिच्-क्त] जिसका संवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो।
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संवर्धन  : पु०=संवर्द्धन।
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संवल  : पुं० [सम्+वल् (संवरण करना)+क]=संवल।
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संवलन  : पुं० [सं० सम्+वलन] [वि० संवलित] १. किसी ओर घुमाना या मोड़ना। २. मिलाना। मिश्रण। ३. मेल। ४. मिलावट। मिश्रण। ५. ऐसी व्यवस्था करना कि आवश्यकता के अनुसार घटाया-बढाया जा सके। (कंडीशनिंग) जैसे—वायु-संवलन। ६. बल दिखाने के लिए मुठ-भेड़ करना। (भिड़ंना)।
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सँवलाना  : अ० [हिं० साँवला] रंग का साँवला पड़ना या होना। उदा०—लड़की का चेहरा और ज्यादा साँवला गया।—सआदत हसन मन्टो। स० साँवला करना। जैसे—धूप ने उसका रंग सँवला कर दिया था।
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संवलित  : भू० कृ० [सम्√बल् (पकड़ना)+क्त] १. जिसका संकलन हुआ हो या किया हो। २. किसी के साथ मिला हुआ। युक्त। सहित। ३. घिरा या घेरा हुआ। ४. जो शत्रु से भिड़ या लड़ गया हो।
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संवसथ  : पुं० [सम्√वस (रहना)+अथ] मनुष्यों की बस्ती।
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संवह  : वि० [सम्√वह् (ढोना)+अच्] १. वहन करनेवाला। ले जाने वाला। पुं० १. एक वायु जो आकाश के सात मार्गों में से तीसरे मार्ग में रहती है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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संवहन  : पुं० [सम्√वह् (ढोना)+ल्युट्-अन्] [भू० कृ० संवहित] १. वहन करना। ले जाना। ढोना। २. प्रदर्षित करना। दिखाना।
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संवाच्य  : पुं० [सम्√वच (कहना)+ण्यत्] अच्छी तरह बात-चीत या कथा कहने का ढंग जो ६४ कलाओं में से एक है।
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संवातन  : पुं० [सं०] [वि० संवाती, भू० कृ० संवातित] ऐसी अवस्था या व्यवस्था जिसमें कमरे, कोठरी आदि में हवा ठीक तरह से आती जाती रहे। हवादारी। (वेंटिलेशन)
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संवाद  : पुं० [सं०] [वि० संवादिक] १. एक-रूपता, सादृश्य आदि के कारण चीजों, बातों आदि का आपस में ठीक बैठना या मेल खाना। २. किसी से की जाने वाली बात-चीत। वार्तालाप। ३. किसी के पास भेजा हुआ या आया हुआ विवरण या वृत्तान्त। ४. खबर। समाचार। ५. चर्चा। ६. नियुक्ति। ७. मुकदमा। व्यवहार। ८. सहमति। ९. स्वीकृति।
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संवादक  : वि० [सम्√वद (कहना)+विच्-ण्वुल्-अक] १. बोलने या बात-चीत करने वाला। २. संवाद या समाचार देने वाला। ४. बात मान लेने वाला। ५. बजाने वाला।
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संवाददाता  : पुं० [सं०] १. वह जो किसी प्रकार का संवाद या खबर देता हो। २. आज-कल वह व्यक्ति जो समाचार पत्रों में छपने के लिए स्थानीय विवरण लिखकर भेजता हो। (रिपोर्टर, कारेस्पान्डेन्ट)
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संवादन  : पुं० [सम्√वद् (कहना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवदित] [वि० संवादनीय, संवादी, संवादय्] १. बात-चीत करना। बोलना। २. किसी कथन या मत से सहमत होना। ३. किसी का अनुरोध या बात मान लेना। ४. बाजे आदि बजाना।
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संवादिका  : स्त्री० [सम्√वद् (कहना)+णिच्-ण्वुल्-अक-टाप्] १. कीट। कीड़ा। २. च्यूँटी।
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संवादित  : भू० कृ० [सं० वद्√ (कहना)+णिच्-क्त] १. संवाद अर्थात बात-चीत में लगाया या प्रवृत्त किया हुआ। २. प्रसन्न करके मनाया या राजी किया हुआ।
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संवादिता  : स्त्री० [संवादित्-टाप्] संवादी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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संवादी  : वि० [सम्√ वाद् (कहना)+णिनि] [स्त्री० संवादिनी] १. संवाद अर्थात बात-चीत करने वाला। २. राजी या सहमत होने वाला। ३. किसी के साथ अनुकूल पड़ने, बैठने या होने वाला। ४. बाजा बजाने वाला। पुं०संगीत में वह स्वर जो किसी राग के वादी स्वर के साथ मिलकर उसका सहायक होता और उसे अधिक श्रति—मधुर बनाता है। जैसे—पंचम से षड़ज तक जाने में बीच के तीन स्वर संवादी होंगे।
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सँवार  : स्त्री० [हिं० सँवरना] १. सँवरने या सँवारने की क्रिया, भाव या स्थिति। २. सँवारा या सँवारा हुआ रूप। ३.संशोधन। उदा-केर सणवार गोसाई जहाँ परै कछु चूक।—जायसी। ४.‘मार’ के स्थान पर मंगल भाषित बोला जाने वाला शब्द। (मुसलमान स्त्रियाँ) जैसे-तुझ पर खुदा की सँवार (अर्थात मार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० संवाद, स्मरण] हाल। समाचार। उदा०—पुनि रे सँवार कहेसि अरु दूजी।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँवार  : पुं० [सम√वृ (ढ़कना)+घञ्] १. आवरण डालकर कोई चीज छिपाना या ढकना। २. शब्दों के उच्चारण के समयकंठ के भीतरी भाग का कुछ दबना या सिकुड़ना। ३. उच्चारण के वाह्य प्रयत्नों में से एक जिसमें कंठ का आंकुचन होता है। ‘विवार’ का उल्टा। ४. बाधा। अड़चन।
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संवारण  : पुं० [सम्√वृ (वारण करना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवादित, वि० संवार्य] १. दूर करना। निवारण करना। हटाना। २. न आने देना। रोकना। ३. निषेध करना। मनाही। ४. छिपाना। ढकना।
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संवारणीय  : वि० [सम्√वृ (दूर करना)+णिच्-अनीयर्] जिसका संवारण हो सके या होने को हो।
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सँवारना  : स० [सं० संवर्णन] १. किसी चीज को ऐसा रूप देना कि वह अच्छा और सुन्दर जान पड़े। २. ठीक और दुरुस्त करके काम में आने के योग्य बनाना। ३. अलंकृत करना। सजाना। ४. क्रम से लगाकर या ठीक करके रखना। ५. सुचारु रूप से कोई कार्य सम्पन्न करना। जैसे—ईश्वर ही हमारे सब कार्य सँवारता है।
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संवारित  : भू० कृ० [सम्√वृ (हटाना)+णिच्-क्त] जिसका संवारण किया गया हो या हुआ हो।
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संवार्य  : वि० सम्√वृ (मना करना)+णिच्-णयत्]=संवारणीय।
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संवास  : पुं० [सम्√वस (रहना)+घञ] १. साथ बसना या रहना। पारस्परिक संबंध। ३. स्त्री० संभोग। मैथुन। ४. सभा। समाज। ५. जन-साधारण के उपयोग के लिए नियत खुला स्थान। ६. घर। मकान।
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संवासन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संवासित] १. संवास करने की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह सुगंधित करने की क्रिया। या भाव।
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संवासी (सिन्)  : वि० [सम्√वस् (रहना)+णिच्-अत्] १. ले जाना। ढोना। २. पैर दबाना। ३. पीड़ित करना। सताना। ४. बाजार। मंडी। ५. जन-साधारण के उपयोग के लिए रक्षित खुला स्थान।
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संवाहक  : वि० [सं०] १. ढोकर अथवा और किसी प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जानेवाला। वहनक। वाहक। (कैरिअर) पुं० शरीर के हाथ पैर आदि अंग दबाने वाला सेवक।
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संवाहकता  : स्त्री० [सं०] १. संवाहक होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। २. आधुनिक विज्ञान में किसी पदार्थ का वह गुण या धर्म जिसके फलस्वरूप ताप, विद्युत शीत आदि उसके एक अंग से बढ़कर शेष अंगों में पहुँचते अथवा दूसरे सधर्मी पदार्थो में संवहन करते हैं। (कान्डक्टिविटी)
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संवाहन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संवाहित, कर्ता संवाहक, संवाही; वि० संवाहनीय, संवाह] १. कोई चीज एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की क्रिया या भाव। २. ताप, वाष्प, विद्युत आदि एक स्थान से किसी दूसरे अंश या बिंदु तक पहुँचाने की क्रिया या भाव। (कान्डक्शन) ३. परिचालित करना। चलाना। ४. शरीर के हाथ पैर अंग आदि दबाना या उनमें मालिश करना।
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संवाहित  : भू० कृ० [सम्√वह् (ढोना)+णिच्-क्त] १. जिसका संवाहन हुआ हो या किया गया हो।
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संवाही  : वि० [सम्√वह् (ढोना)+णिनि] [स्त्री० संवाहिनी]=संवाहक।
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संवाह्य  : वि० [सम्√वह् (ढोना)+ण्यत्] जिसका संवहन हो सके या होने को हो। संवाहन का अधिकारी या पात्र।
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संविग्न  : वि० [सं०] १. घबराया हुआ। उद्विग्न। २. क्षुब्ध। ३. डरा हुआ। भीत।
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संविज्ञ  : वि० [सम्०वि√ज्ञ् (जानना)+क] अच्छा जानकार। सुविज्ञ।
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संविज्ञान  : पुं० [सं०] १. ठीक और पूरा ज्ञान। सम्यक् बोध। २. स्वीकृति। मंजूरी। ३. सहमति।
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संवित  : स्त्री० [सं०]=संविद।
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संवित्ति  : स्त्री० [सम्√विद् (जानना)+क्तिन] १. प्रतिपत्ति। २. सहमति। ३. चेतना। संज्ञा। ४. अनुभव। तजरुबा। ५. बुद्धि। समझ।
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संवित्पत्र  : पुं० [सं] १. वह पत्र जिसमें दो ग्रामों या दो प्रदेशों के बीच किसी बात के लिए मेल का प्रतिज्ञा या शर्त लिखी हों। (शुक्रनीति) २. किसी प्रकार का इकरारनामा या पट्टा। संविदापत्र।
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संविद  : स्त्री० [सं०] १. चेतना-शक्ति। चैतन्य। २. ज्ञान। बोध। समझ। ३. सांख्य में महत्व। ४. अनुभूति। संवेदन। ५. आपस में होने वाला इकरार या समझौता। ६. उपाय। तकबीर। युक्ति। ७.वृत्तान्त। हाल। ८.प्रथा। रीति। ९.नाम। संज्ञा। १॰.तुष्टि। तृप्ति। ११. युद्ध। लड़ाई। १२. इशारा। संकेत। १३. प्राप्ति। लाभ। १४. जायदाद। संपत्ति। १५. मिलने के लिए नियत किया हुआ स्थान। संकेत-स्थल। १६. योग में प्राणायाम से प्राप्त होने वाली एक भूमि। १७. भाँग। विजय। वि० चेतनायुक्त। चेतन।
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संविदा  : स्त्री० [सं०] १. कुछ खास शर्तों पर आपस में होने वाला किसी प्रकार का इकरार, ठहराव या समझौता। (कन्ट्रैक्ट) २. गाँजे या भाँग का एक पौधा।
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संविदापत्र  : पुं० [सं०] वह पत्र जिस पर किसी संविदा की शर्तें लिखी हों। इकरारनामा। ठीकानामा। (कान्ट्रैक्ट डीड)
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संविदा प्रविधि  : स्त्री० [सं०] वह प्रविधि या कानून जिसमें संविदा या ठीके से संबंध रखने वाले नियमों का विवेचन हो। (लॉ आफ कन्ट्रैक्ट)
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संविदित  : भू० कृ० [सम्√विद् (जानना)+क्त] १. अच्छी तरह जाना हुआ। पूर्णतया ज्ञात। २. खोजा या ढूँढ़ा हुआ। ३. सबकी सम्पत्ति से ठहराव या निश्चित किया हुआ। ४. जिसके संबंध में वचन दिया या वादा किया गया हो। ५. अच्छी तरह बतलाया या समझाया हुआ।
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संविद्वाद  : पुं० [ष० त०] पाश्चात्य दर्शन का एक सिद्धान्त जिसमें वेदान्त के समान चैतन्य के अतिरिक्त और किसी वस्तु पारमार्थिक सत्ता नहीं मानी जाती है। चैतन्यवाद।
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संविधा  : स्त्री० [सम् वि√धा (रखना)+क-टाप्] १. रहन-सहन। आचार-व्यवहार। ३. प्रबंध व्यवस्था।
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संविधाता (तृ)  : वि० [सम्-वि√धा (रखना)+तृच्] संविधान करने वाला। पुं० विधाता (सृष्टा)।
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संविधान  : पुं० [सं० वि√धा (रखना)+ल्युट्-अन] १. ठीक तरह से किया गया विधान या व्यवस्था। उत्तम प्रबंध। २. बनावट। रचना। ३. आधुनिक राजनीति और शासन तंत्र में कानून या विधान के रूप में बने हुए वे मौलिक नियम और सिद्धान्त जिसके अनुसार किसी राज्य, राष्ट्र या संस्था का संघठन, संचालन और व्यवस्था होती है। (कान्स्टिच्यूशन) ४. दस्तूर। प्रथा। रीति। ५. अनूठापन। विलक्षणता।
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संविधानक  : वि० [सं० संविधान+कन] संविधान करने वाला। संविधाता। पुं० १. कोई विचित्र घटना या व्यापार। २. उपन्यास, नाटक आदि की कथनानुसार कथानक (प्लाट)
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संविधान-परिषद  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वह परिषद या सभा जो देश, राष्ट्र या संस्था की व्यवस्था और शासन के लिए नियमावली या संविधान बनाने के लिए नियुक्त या संघठित की गई हो। (कांस्टिच्यूएशन एसेम्बली)
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संविधानवाद  : पुं० [सं० संविधान√वद्+घञ] [वि० संविधानवादी] १. यह मत या सिद्धान्त कि किसी देश या राज्य का शासन निश्चित संविधान के अनुसार होना चाहिए। (कान्स्टिच्युशनलिज्म)
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संविधानवादी  : वि० [सं० संविधान√वद्+णिनि] संविधानवाद संबंधी। संविधानवाद का। पुं० वह जो संविधानवाद का अनुयायी और पोषक हो। (कांस्टिच्यूशनलिस्ट)
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संविधानसभा  : स्त्री०=संविधान परिषद।
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संविधानिक  : वि० [सं० संविधान+ठन-इक्] संविधान अथवा उसके नियमों आदि से संबंध रखने वाला। (कांस्टिच्यूशनल)
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संविधानी  : वि०=संविधानिक।
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संविधि  : वि० स्त्री० [सम्-वि√धा (रखना)+कि] १. विधान। रीति। दस्तूर। २. प्रबंध। व्यवस्था। ३. दे० ‘प्रविधान’। पुं० [सं०] विधान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव जो विधान के अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है। (स्टैच्यूट)
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संविधेय  : वि० [सम्-वि√धा (रखना)+यत्-आ=ए] १. जिसका संविधान होने को हो या हो सकता हो। २. (काम) जो किया जाने को हो या जिसका प्रबंध होने को हो।
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संविभक्त  : वि० [सम्-वि√भज् (देना)+क्त] १. अच्छी तरह बँधा हुआ। २. ठीक और सुंदर बना हुआ। सुडौल। ३. विभक्त किया हुआ।
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संविभाग  : पुं० [सम्-वि√भज् (देना)+घञ] १. ठीक तरह से किया गया विभाग। २. प्रदान। ३. राज्य के मंत्री का कार्यालय और वह विशिष्ट विभाग जिसके सब कार्य वहाँ होते हों। (पोर्टफ़ोलियो)
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संविभागी (गिन्)  : पुं० [संविभाग+इनि] अपना अंश या भाग लेने वाला। हिस्सेदार।
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संविभाजन  : पुं० [सं० संवि√भज्+णिचि-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संविभाजित, [संविभक्त]=विभाजन।
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संविवेक  : पुं० [सं० सं-वि√विच्+घञ] १. विवेक। २. वह मानसिक शक्ति जिसके द्वारा विकट अवसरों पर हम सब बातें सोच-समझकर उचित कर्तव्य या निर्णय करते हैं। (डिस्क्रीशन)
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संविष्ट  : वि० [सं० विस् (प्रवेश करना)+क्त] १. आया या पहुँचा हुआ। प्राप्त। २. लेटा या सोया हुआ। ३. बैठा हुआ।
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संवीक्षण  : पुं० [सम्-वि√ईक्ष् (देखना)+ल्युट्-अन] [वि० संविक्षणीय, संवीक्ष्य] १. अच्छी तरह इधर-उधर देखना। अवलोकन। २. तलाश करना। ढ़ूँढ़ना। जाँच-पड़ताल। अन्वेषण।
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संवीक्षा  : स्त्री० [सं०√संवीक्ष्+अ-टाप्] [भू० कृ० संवीक्षित, वि० संवीक्ष्य] किसी चीज या बात के विल्कुल ठीक होने की ऐसी जाँच-पड़ताल जिसमें ब्यौरे की छोटी से छोटी भूल-चूक पर भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। (स्क्रूटनी)
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संवीत  : भू० कृ० [सम्√वृ (संवरण करना)+क्त-य-इए] १. ढ़का हुआ। आवृत। २. कवच द्वारा सुरक्षित किया हुआ। ३. जो कुछ पहने हो। ४. रुका हुआ। रुद्ध। ५. जो दिखाई न दे रहा हो। अदृष्य। लुप्त। ६. देखकर भी अनदेखा किया या टाला हुआ। पुं० पहनने के कपड़े। परिच्छद। पोशाक। २. सफेद कटभी।
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संवीती  : वि० [सं० संवीत+इनि] जो यज्ञोपवीत पहने हो।
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संवृक्त  : भू० कृ० [सम्√वृज् (रखना आदि)+क्त√वृक् (लेना)+क्त वा] १. छीना हुआ हरण किया हुआ। २. लापरवाही से खरचा, खाया या उड़ाया हुआ। (धन)।
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संवृत  : भू० कृ० [सम्√वृ (ढकना)+क्त] १. ढका या बंद होना। आच्छादित। २. लपेटा हुआ। ३. घिरा या घेरा हुआ। ४. युक्त। सहित। ५. रक्षित। ६. जिसका दमन किया गया हो। दबाया हुआ। ७. जो अलग या दूर हो गया हो। ८. धीमा किया हुआ। ९. रुँधा हुआ (गला)। १॰. (अक्षर या वर्ण) जिसके उच्चारण में संवार नामक बाह्य प्रयत्न होता हो। विवृत या विपर्याय। पुं० [सम्√वृ (छिपाना) +क्तन्] १. वरुण देवता। २. गुप्त स्थान। ३. एक प्रकार का जलबेंत।
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संवृति  : स्त्री० [सम्√वृ (रहना)+क्त] संवृत होने की अवस्था या भाव।
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संवृत्त  : भू० कृ० [सं० संवत् (रहना)+क्त] १. पहुँचा हुआ। समागत। प्राप्त। २. जो घटित हो चुका हो। ३. (उद्देश्य या विचार) जो पूरा सिद्ध हो चुका हो। ४. उत्पन्न। ५. उपस्थित। मौजूद। पुं० वरुण देवता।
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संवत्ति  : स्त्री० [सम्√वृत्त (रहना)+क्तिन] १. उद्देश्य, कार्य आदि की निष्पत्ति। सिद्धि। २. एक देवी का नाम।
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संवृद्ध  : वि० [सम्√वृध् (बढना)+क्त] १. बढ़ा या बढ़ाया हुआ। २. ऊपर उठा हुआ। उन्नत।
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संवृद्धि  : स्त्री० [सम्√वृध् (बढ़ना)+क्तिन] १. बढ़ने की क्रिया या भाव। बढ़ती। वृद्धि। २. समृद्धि।
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संवेग  : पुं० [सम्√विज् (आकुल होना)+घञ] १. गति आदि का पूरा वेग। चाल की तेजी। २. मन में होने वाली खलबली। उद्विग्नता। घबराहट। ३. डर। भय। ४. अतिरेक। ५. दे० ‘मनोवेग’।
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संवेजन  : पुं० सम्√विज् (घबड़ाना)+ल्युट्-अञ] [भू० कृ० संवेजित, वि० संवेजनीय] १. उद्वग्न करना। २. खलबली या हलचल मचाना। ३. भयभीत करना या डराना। ४. उत्तेजित करना। भड़काना। ५. ऊपर उठना या खड़ा होना। जैसे—रोम संवेजन।
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संवेत गाम  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा संगीत जिसमें अनेक प्रकार के बाजे एक साथ बजते हों। २. कई आदमियों का एक साथ मिलकर कोई चीज गाना। सहगान। (कोरस)
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संवेद  : पुं० [सम्√विद् (जानना)+घञ] १. सुख-दुःख आदि की अनुभूति। २. ज्ञान। बोध।
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संवेदन  : पुं० [सं० सम्√विद्+ल्युट्-अन] [वि० संवेदनीय, संवेद्य, भू० कृ० संवेदित] १. मन में सुख दुःख आदि की होने वाली अनुभूति या प्रतीति। २. किसी प्रकार के प्रभाव, स्पर्शं आदि के कारण शरीर के अंगों या स्नायुओं में प्राकृतिक रूप से होने वाला वह स्पन्दन जिससे मन को उसकी अनुभूति होती है। उदा०—मनु का मन था बिकल हो उठा समवेदन से खाकर चोट।—प्रसाद। ३. किसी को किसी बात का ज्ञान या बोध कराना। ४. नक-छिकनी नाम की घास।
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संवेदन-सूत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्रणियों के सारे शरीर में जल के रूप में फैली हुई बहुत ही सूक्ष्म नसों में से प्रत्येक नस। (नर्व) विशेष दे० ‘तंत्रिका’।
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संवेदनहारी  : वि० दे० ‘निश्चेतक’।
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संवेदना  : स्त्री० [सं० संवेदन+टाप्] १. मन में होने वाला अनुभव या बोध। अनुभूति। २. किसी को कष्ट में देखकर मन में होने वाला दुःख। किसी की वेदना देखकर स्वयं भी बहुत कुछ उसी प्रकार की वेदना का अनुभव करना। सहानुभूति। (सिम्पेथी) ३. उक्त प्रकार का दुःख या सहानुभूति प्रकट करने की क्रिया या भाव। (कन्डोलेंस)
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संवेदनीय  : वि० [सम्√विद (जानना)+अनीयर्] जिसमें या जिसे संवेदन का ज्ञान हो सकता हो। २. जतलाया या बतलाया जा सकता हो।
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संवेदित  : भू०कृ०[सम्√ निद (जानना)+णिच्-क्त] जिसकी संवेदना के रूप में अनुभूति हुई हो। २. जतलाया या बतलाया हुआ।
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संवेदय  : वि०[सम्√ विद् (जानना)+ण्यत्] [भाव० संवेद्यता] १. संवेदना के रूप में जिसकी अनुभूति या ज्ञान हो सकता हो। २. (बात या विषय) जिसका अनुभव या ज्ञान कराया जा सकता हो। ३. संवेदनीय।
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संवेद्यता  : स्त्री०[सं०संवेद्य+तल्-टाप] संवेद्य होने की अवस्था ,गुण या भाव। (सेन्सिबिलिटी)
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संवेश  : पुं० [सम्√ विश् (घुसना)+घञ] १. पास आना या जाना। पहुँचना। २. प्रवेश। भेंट। ३. आसन लगाना। बैठना। ४. लेटना या सोना। ५. बैठने का आसन या पीढ़ा। ६. काम-शास्त्र में एक प्रकार का रति-बंध। ७. अग्नि देवता जो रति के अधिष्ठाता माने गये हैं।
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संवेशक  : वि० [सम्√विश्+णिच्-ण्वुल्-अक] चीजें क्रम से तथा यथा-स्थान रखनेवाला।
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संवेशन  : वि० [सम्√विश्+णिच्-ण्वुल्-अन] [वि० संवेषणीय, संवेश्य, भू० कृ० संवेशित] १. बैठना। २. लेटना या सोना। ३. घुसना। पैठना। ४. स्त्री० संभोग। मैथुन। रति।
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संवेशी  : वि० [सम्√विश् (रहना)+णिनि]=संवेशक।
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संवेश्य  : वि० [सम्√विश् (रहना)+ण्यत] १. जिस पर लेटा जा सके। २. जिसके अन्दर घुसा या पैठा जा सके।
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संवेष्ट  : पुं० [सम्√विष्ट् (लपेटना)+घञ] लपेटने का कपड़ा। बेठन।
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संवेष्टक  : पुं० [सं० सम्√ विष्ट्+णिच्-ण्वुल्-अक, कन, वा] वह जो वस्तुओं का संवेष्टन करता हो। पोटली आदि बाँधने वाला। (पैकर)
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संवेष्टन  : पुं० [सं० सम्√ वेष्ट्+णिन्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संवेष्टित] १. कोई चीज चारों तरफ से अच्छी तरह लपेटकर बाँधना। २. वह कपड़ा, कागज, टाट या ऐसी और कोई चीज जिसमें कहीं भेजने के लिए कोई चीज बाँधी जाय। (पैकिंग) ३.चारों ओर से घेरना। ४. बन्द करना।
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संवेष्टित  : वि० [सम्√वेष्ट (लपेटना)+णिच्-क्त] चारों ओर से घेरना या बंद किया हुआ। परिवेष्टित। (एन्कलोज्ड)
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संवैधानिक  : वि० [सं० संविधान+ठक-इक] संविधान से संबंध रखने वाला। संविधान संबंधी। (कान्स्टिच्यूशनल)
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संवैधनिक राजतंत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी राज्य का ऐसा तंत्र या शासन जिसका प्रधान अधिकारी ऐसा राजा हो जिसके अधिकार और कर्तव्य संविधान द्वारा नियमित और मर्यादित हो। (कान्स्टिच्यूशनल मॉनर्की)
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संव्यवहार  : पुं० [सम्-वि-अव√हृ (हरण करना)+घञ] १. अच्छा व्यवहार या सलूक। एक दूसरे के प्रति उत्तम आचरण। २. बाच-चीत का प्रसंग या विषय। ३. लेन-देन या व्यवहार। ४. लगाव। संपर्क। ५. किसी पदार्थ का उपयोग या व्यवहार। ६. व्यवसायी। रोजगारी। ७. महाजन। ८. लोक में प्रचलित सुबोध शब्द।
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संशप्त  : वि० [सम्√शप् (शाप देना)+क्त] १. जो शाप ग्रस्त हो। २. जिसे शाप मिला हो। २. जिसने किसी से प्रतिज्ञा की हो या किसी को वचन दिया हो। वचन बद्ध।
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संशप्तक  : पुं० [संशप्त० ब० स०+कप्] १. ऐसा योद्धा जिसने बिना सफल हुए लड़ाई आदि से न हटने की शपथ खाई हो। २. कुरुक्षेत्र के युद्ध में एक दल जिसने उक्त प्रकार से अर्जुन से वध की प्रतिज्ञा की थी पर स्वयं मारा गया था।
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संशब्द  : पुं० [सम्√शब्द् (शब्द करना)+घञ] १. ललकार। २. उक्ति। कथन। ३. प्रशंसा। स्तुति।
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संशम  : पुं० [सम्√शम् (शान्त होना)+अच्] कामना, वासना आदि से पूरी तरह से निवृत्त होना। इच्छाओं आदि का दमन।
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संशमन  : पुं० [सम्√शम् (शान्त होना)+ल्युट्-अन] १. शान्त करना। २. नष्ट करना। ३.वैद्यक में, ऐसी दबा जो दोषों को बिना घटाए-बढ़ाए रोग दूर करे।
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संशमन वर्ग  : [पुं० त०] वैद्यक में, संशमन करने वाली औषधियों (कुट, देवदारु, हलदी आदि) का वर्ग।
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संशय  : पुं० [सं० सम्√शी+अच्] १. पड़े रहना। लेटना। २. मन की वह स्थिति जिसमें किसी बात के संबंध में निराकरण या निश्चय नहीं होता, और उस बात का ठीक रूप जानने या समझने के लिए मन में उत्कंठा या जिज्ञासा बनी रहती है। तथ्य या वास्तविकता तक पहुँचने के लिए मन जिज्ञासापूर्ण वृत्ति। शक। (डाउट) विशेष-संशय बहुधा ऐसी बातों के संबंध में होता है जिन पर पहले से लोग कोई निश्चय तो कर चुके हों, फिर भी उस निश्चय से हमारा संतोष या समाधान न होता हो। हमारे मन में यह बात बनी रहती है कि ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। यथा-कछु संशय तो फिरती बारा।—तुलसी। प्रायः शंका और संदेह के स्थान पर भी इसका प्रयोग होता है। दे० ‘शंका’ और ‘संदेह’। इसी आधार पर यह न्यायशास्त्र में १६ पदार्थों में एक माना गया है। ३. खतरे या संकट की आशंका या संभावना। जैसे—प्राणों का संशय होना। ४. साहित्य में, संदेह नामक काव्यालंकार का दूसरा नाम।
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संशयवाद  : पुं० [सं० संशय√वद्+घञ] १. दार्शनिक क्षेत्र में वह सैद्धान्तिक स्थिति जिसमें अंधविश्वास या श्रद्धा और शब्द प्रमाण की उपेक्षा करके यह सोचा जाता है कि अब जो मान्यताएँ चली आ रहीं हैं, वे ठीक भी हैं, तथा नहीं भी और वे ठीक हो भी सकती हैं और नहीं भी हो सकतीं। (स्केप्टिसिज़्म) विशेष—इसमें प्रत्यय, प्रमाण और प्रयोगात्मक अनुभव ही ग्राह्या या मान्य होते हैं। शेष बातों के संबंध में संशय ही बना रहता है।
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संशयवादी  : पुं० [सं० संशय√वद्+णिनि] वह जो संशय वाद का अनुयायी या समर्थक हो।
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संशय-सम  : पुं० [सं०] न्याय दर्शन में २ ४ जातियों अर्थात खंडन की असंगत युक्तियों में से एक। वादी के दृष्टांत में साध्य और असाध्य दोनों प्रकार के धर्मों का आरोप करके उसके साध्य विषय को संदिग्ध सिद्ध करने का प्रयत्न।
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संशयाक्षेप  : पुं० [ष० त०] १. संशय का दूर होना। २. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार।
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संशयात्मक  : वि० [ब० स०] जिसमें संशय के लिए अवकाश हो।
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संशयात्मा  : पुं० [मध्य० स०] वह जिसका मन किसी बात पर विश्वास न करता हो। वह जिसके मन में हर बात के विषय में कुछ न कुछ संशय बना रहता हो।
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संशयालु  : वि० [संशय+आलुच्] बात-बात में संशय या संदेह करनेवाला।
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संशयावह  : वि० [संशय-आ√वह (ढोना)+अच्] १. मन में संशय उत्पन्न करने वाला। २. जो संकट उत्पन्न कर सकता हो। भयावह।
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संशयित  : भू० कृ० [सम्√शी (शयन करना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसके मन में संशय उत्पन्न हुआ हो। २. (बात) जिसके विषय में संशय किया गया हो। संदिग्ध।
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संशयिता  : वि० [सम्√शी (शयन करना)+तृच्] संशय करनेवाला।
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संशयी  : वि० [सं० संशय+इनि] १. जिसके मन में प्रायः संशय होता रहता हो। शक्की स्वभाव वाला। २. जिसके मन में संशय उत्पन्न हुआ हो। ३. जो प्रायः संशय करता रहता हो। जैसे—संशयी बुद्धि या स्वभाव।
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संशयोपमा  : स्त्री० [मध्य० स०] साहित्य में संशय अलंकार का एक भेद जिसमें कई वस्तुओं की समानता का उल्लेख करके संशय का भाव प्रकट किया जाय।
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संशरण  : पुं० [सम्√शृ (चूर्ण करना)+ल्युट्-अन्] १. भंग करना। तोड़ना। २. चूर-चूर या टुकड़े-टुकड़े करना। ३. किसी की शरण लेना।
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संशरुक  : वि०[सम्√ शृ (भंग करना)+उन्-कन्] संशरण करने वाला।
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संशासन  : पुं०[सम्√ शास् (शासन करना)+ल्युट्-अन] अच्छा शासन। उत्तम राज्य-प्रबंध।
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संशित  : भू० कृ० [सं० सम्√शो+क्त] १. सान पर चढ़ाकर चोखा या तेज किया हुआ। २. उद्यत। तत्पर। ३. दक्ष। निपुण। ४. दृढ। पक्का। जैसा—संशित व्रत।
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संशितात्मा (त्मन्)  : वि० [कर्म० स०] जिसने दृढ संकल्प कर लिया हो।
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संशिति  : स्त्री० [सं०√शो (तेज करना आदि)+क्तिज] १. संशय। संदेह। शक। २. सान पर चढाकर धार तेज करने की क्रिया या भाव।
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संशीत  : भू० कृ० [सम्√शौ (गमनादि)+क्त-संप्र०] १. ठंढ़ा किया हुआ। २. ठंढ के कारण जमा हुआ।
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संशीलन  : पुं० [सम्√शील (अभ्यास करना)+ल्युट्-अन] १. नियमित रूप से अभ्यास करना। २. संसर्ग।
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संशुद्ध  : वि० [सं०] १. यथेष्ट शुद्ध। विशुद्ध। २. अच्छी तरह साफ किया हुआ। ३. (ऋण या देना) चुकाया हुआ। ४. जाँचा हुआ। परीक्षित। ५. अपराध, दोष आदि से मुक्त होना। ६. प्रायश्चित आदि के द्वारा पापों से मुक्त किया हुआ।
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संशुद्धि  : स्त्री० [सम्√शध् (शुद्ध करना)+क्तिन] संशुद्ध होने की अवस्था या भाव।
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संशुष्क  : वि० [सं०√शुष् (सूखना)+क्त=क] १. बिल्कुल सूखा हुआ। खुश्क। २. नीरस। फीका। ३. जो रसिक या सहृदय न हो।
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संशोधक  : वि० [सम्√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्-ण्वुल्-अक] १. शोधन करने वाला। दुरुस्त या ठीक करने वाला। २. संस्कार या सुधार करने वाला। ३. ऋण या देन चुकाने वाला। ४. (तत्व) जो किसी बात या पदार्थ की शुद्धि में साहयक होता हो। (करेक्टिव)
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संशोधन  : पुं० [सम्√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्-ल्युट-अन] [वि० संशोधनीय, संशोधन, संशुद्ध, संशोध्य] १. शुद्ध करना या साफ करना। २. त्रुटि, दोष आदि को दूर करके ठीक और दुरुस्त करना। (करेक्शन) ३.आज-कल विशेष रूप से किसी प्रस्ताव या प्रस्तुत किये हुए विचार के संबंध में यह कहना कि इसमें अमुक बात घटाई या बढाई जाय अथवा उसका रूप बदलकर उसे अमुक प्रकार से बनाया जाय। (अमेन्ड-मेन्ट) ४.ऋण देना आदि चुकाने की क्रिया या भाव।
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संशोधनीय  : वि०[सम√ शुध् (शुद्ध करना)+अनीयर) जिसका संशोधन हो सके या होने को हो।
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संशोधित  : भू० कृ० [सम्√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्+क्त] १. जिसका संशोधन हुआ हो। २. जो ठीक, शुद्ध, दुरुस्त किया गया हो। ३. (ऋण या देन) जो चुकाया गया हो।
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संशोधी  : वि० [सं०√शुध् (शुद्ध करना)+णिनि] [स्त्री० संशोधनी] संशोधक।
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संशोध्य  : वि० [सं०√शुध् (शुद्ध करना)+ण्यत]=संशोधनीय।
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संशोभित  : वि० [सम्√शुभ] (शोभित होना)+णिच्+क्त] १. अलंकृत। २. सुशोभित।
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संशोषण  : पुं० [सम्√शुष् (सोखना)+णिच्-ल्युट्-अन] [वि० संशोणीय, संशोध्य] १. अच्छी तरह सीखना। २. सुखाना।
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संशोषित  : भू० कृ० [सम्√शुष् (सोखना)+क्त] सुखाया या सोखा हुआ।
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संशोषी (षिन्)  : वि० [सम्√शुष् (सूखना)+णिनि] १. सोखने वाला। २. सुखाने वाला। जैसे—संशोषी ज्वर।
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संशोष्य  : वि० [सम्√शुष् (सुखाना)+ण्यत] जो सोखा जा सकता हो या सोखा जाने को हो।
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संश्रय  : पुं० [सम्√श्रि (सेवा करना)+अच्] [भू० कृ० संश्रित] १. संयोग। मेल। २. आजकल कुछ विशिष्ट प्रकार के दलों ,शक्तियों आदि का किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए आपस में मेल या मैत्री स्थापित करना। (एलायन्स) ३. लगाव। संपर्क। ४. आश्रय। शरण। ५. अवलम्ब। सहारा। ६. आश्रय या शरण लेने की जगह। ७. अंश। भाग। ८. घर। मकान। ९. उद्देश्य। लक्ष्य। १॰. अंश। भाग। ११. राजाओं में पारस्परिक और सहायता के लिए होने वाली संधि।
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संश्रयण  : पुं० [सम्√ श्रि (सेवा करना)+ल्युट्-अन] [वि०संश्रयणीय, संक्षयी, भू० कृ० संश्रित] १. सहारा लेना। अवलम्ब पकड़ना। २. किसी के पास जाकर उसका आश्रय लेना। पनाह लेना।
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संश्रयणीय  : वि० [सम्√श्रि (सेवा करना)+अनीयर्] १. जिसका आश्रय लिया जा सके। २. जिसे आश्रय दिया जा सके।
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संश्रयी  : वि० [सम्√श्रि (सेवा करना)+इनि] १. संश्रय अर्थात आश्रय या सहारा लेने वाला। २. शरण लेने वाला। पुं० नौकर। भृत्य।
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संश्रवण  : पुं० [सम्√श्रु (सुनना)+ल्युट्-अन] [वि० संश्रवणीय, संश्रुत] १. अच्छी तरह ध्यान लगाकर सुनना। २. अंगीकृत या स्वीकृत होना। ३. वचन देना। वादा करना।
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संश्राव  : पुं० [सम्√श्रु (सुनना)+घञ] [वि० संश्रावणीय, भू० कृ० संश्रावित]=संश्रवण।
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संश्रावक  : वि० [सम्√श्रु (सुनना)+ण्वुल्-अक] १. सुनने वाला। श्रोता। २. सुनकर मान लेने वाला। पुं० चेला। शिष्य।
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संश्रावित  : भू० कृ० [सम्√श्रु (सुनना)+णिच्-क्त] १. सुनाया हुआ। २. जोर से पढ़कर सुनाया हुआ।
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संश्राव्य  : वि० [सम्√श्रु (सुनना)+ण्यत] १. जो सुना जा सके। २. जो सुनाया जा सके।
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संश्रित  : भू० कृ० [सं०√श्रि (सेवा करना)+क्त] १. जुड़ा या मिला हुआ। संयुक्त। २. साथ लगा हुआ। संलग्न। ३. जो किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी दल या वर्ग में मिल गया हो। जिसने किसी के साथ संश्रय स्थापित किया हो। (एलायड) ४. टाँगा, टिकाया या लयकाया हुआ। ५. गले से लगाया हुआ। आलिंगित। ६. शरण में आया हुआ। शरणागत। ७.जिसे आश्रय देकर शरण में रखा गया हो। ८. जिसने सेवा करना स्वीकृत किया हो। ९. जो किसी काम या बात के लिए दूसरे पर आश्रित हो। परावलम्बी। पुं० नौकर। भृत्य।
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संश्रुत  : भू० कृ० [सम्√श्रु (सुनना)+क्त] १. अच्छी तरह सुना हुआ। २. अंगीकृत। स्वीकृत।
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संश्लिष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. किसी से अच्छी तरह जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। २. किसी के साथ मिलकर एक किया हुआ। एकीकृत। ३.मिश्रित या सम्मिलित किया हुआ। ४. गले लगाया हुआ। आलिंगित। ५. संश्लेषण की क्रिया से किसी के साथ बना या मिला हुआ। श्लिष्ट। (सिन्थेटिक) पुं० १. ढेर। राशि। २. समूह। ३. वास्तु शास्त्र में, एक प्रकार का मंडप।
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संश्लेष  : पुं० [सं०√श्लिष (मिलाना)+घञ] १. मिलने या मिलाए जाने की क्रिया या भाव। २. गले लगाना। आलिंगन। परिरम्भण।
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संश्लेषक  : वि० [सं०] संश्लेषण या संश्लेष करनेवाला।
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संश्लेषण  : पुं० [सम्√श्लिष (मिलाना)+ल्युट्-अन] [वि० संश्लेषणीय, भू० कृ० संश्लेषित, संश्लिष्ट] १. किसी के साथ जोड़ना, मिलाना या लगाना। २. टाँगना या लटकाना। ३. वह जिससे कुछ जोड़ा या बाँधा जाय। बंधन। ४. कार्य से कारण अथवा किसी नियम या सिद्धान्त से किसी चीज या बात के परिणाम का फल या विचार करना। मिलान करना। ‘विश्लेषण’ का विपर्याय। (सिन्थेसिस) ५. भाषा-विज्ञान में, वह स्थिति जिसमें किसी पद से अर्थ का भी और पर-सर्ग आदि के द्वारा संबंध का भी बोध होता है। जैसे—‘मेरा’ शब्द में ‘मैं’ वाले अर्थ तत्व के सिवा ‘रा’ पर सर्ग के कारण संबंध सूचक तत्व भी सम्मिलित है। (एग्लूटिनेशन) विशेष—संस्कृत व्याकरण में इसी तत्व या प्रक्रिया को ‘सामर्थ्य’ कहते हैं।
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संश्लेषित  : भू० कृ० [सम्√श्लिष (मिलाना)+णिच्-क्त] जिसका संश्लेषण किया गया हो या हुआ हो।
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संश्लेषी  : वि० [सम्√श्लिष (मिलाना)+इनि] [स्त्री० संश्लेषिणी] संश्लेषक।
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संष  : स्त्री=संख्या। पुं०=शंख(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संस  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसइ  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसक्त  : भू० कृ० [सं०] १. किसी के साथ मिला, लगा या सटा हुआ। (कान्टिगुअस) २. जुड़ा हुआ। सम्बद्ध। ३. किसी कार्य में लगा हुआ या प्रवृत्त। ४. किसी के प्रेम में फँसा हुआ। आसक्त। ५. सांसारिक विषय वासना में लगा हुआ। ६. प्रतियोगिता, युद्ध, विवाद आदि में किसी से भिड़ा हुआ। ७. युक्त। सहित। ८. घना। सघन।
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संसक्ति  : स्त्री० [सं०] [विसक्त] १. किसी के साथ सटे या लगे होने का भाव। (कन्टीगुइटी) २. एक ही तरह के पदार्थो या तत्वों का आपस में मिल या सटकर एक रूप होना। ३. वह शक्ति जिससे वस्तु के सब अंग एक साथ लगे या सटे रहते हैं। (कोहेशन) ४. संबंध। लगाव। ५. विषय अनुराग या आसक्ति। लगन। ६. लीनता। प्रवृत्ति।
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संसगर  : वि० [सं० शस्य=अन्न, फसल+आगार] १. (भूमि) जिसमें पैदावार अधिक हो। उपजाऊ। उर्वर। २. लाभ-दायक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसज्जन  : पुं० [सं० सम्√सज्ज् (तैयार होना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसज्जित] १. अच्छी तरह सजाने की क्रिया या भाव। २. आज-कल युद्ध आदि के लिए सैनिक एकत्र करने और उन्हे अस्त्र शस्त्र आदि से पूर्णतः युक्त करने की क्रिया। (मोबिलाइजेशन)
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संसद  : स्त्री० [सं०] १. समाज। सभा। मंडली। २. किसी विशेष कार्य के लिए संगठित बहुत से लोगों का निकाय या समुदाय। (एसोसिएशन) ३. आज-कल राज्य शासन संबंधी कार्यों में सहायता देने, पुराने विधानों में संशोधन करने तथा नये विधान बनाने के लिए प्रजा के प्रतिनिधियों की चुनी हुई सभा। (पार्लमेंट) ४. प्राचीन भारत में (क) राज-सभा। (ख) न्याय सभा। ५. एक प्रकार का यज्ञ जो २४ दिनों में पूरा होता है।
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संसदीय  : वि० [सं० संसद] संसद संबंधी। सांसद।
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संसय  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसरण  : पुं० [सम्√सृ (गमनादि)+ल्युट्—अण] [वि० संसरणीय, संसरित, संसृत] १. आगे की ओर खिसकना या बढ़ना। सरकना। २. गमन करना। चलना। ३. सेना या सैनिकों का बिना बाधा के आगे बढते चलना। ४. एक जीवन त्यागकर दूसरा नया जन्म लेना। ५. बहुत दिनों से चला आया हुआ मार्ग या रास्ता। ६. जगत्। संसार। ७. युद्ध का आरंभ। ९. लड़ाई छिड़ना। १॰. प्रचीन भारत में, नगर के मुख्य द्वार के बाहर बना हुआ वह स्थान जहाँ फाटक बंद हो जाने के बाद आये हुए यात्री रात के समय ठहरा करते थे।
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संसर्ग  : पुं० [सं०] १. ऐसा लगाव या संबंध जो पास या सात रहने से उत्पन्न होता है। (कन्टैक्ट) जैसे—(क) संसर्ग से ही गुण और दोष उत्पन्न होते हैं। (ख) यह रोग संसर्ग से ही फैलता है। २. व्यवहारिक घनिष्ठता। मेल-जोल। ३. संपर्क। संबंध। ४. किसी के साथ रहने की क्रिया या भाव। सहवास। ५. मैथुन। संभोग। ६. संपत्ति का ऐसी स्थिति में होना कि परिवार के सब लोगो का उस पर समान अधिकार हो। ७. वैद्यक में बात, पित्त, और कफ में से दो का एक साथ होने वाला प्रकोप या विकार। ८. वह बिन्दु जहाँ एक रेखा दूसरी को काटती हो।
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संसर्गज  : वि० [सं०] १. संसर्ग से उत्पन्न होने वाला। २. (रोग) जो किसी को छूने से उत्पन्न होता है। छुतहा। (इन्फैक्सस) विशेषः संक्रामक और संसर्गज रोगो में अंतर यह है कि संक्रामक रोग तो पानी, हवा आदि के द्वारा भी फैलते हैं, परंतु संसर्गज रोग केवल रोगी के संसर्ग में रहने अथवा उसे छूने मात्र से उत्पन्न होते हैं। अर्थात संसर्गज रोग तो केवल प्रत्यक्ष संबंध से उत्पन्न होतो हैं ,परंतु संक्रामक रोग अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनो रूपों में फैलते हैं।
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संसर्ग-दोष  : पुं० [सं०] वप दोष या बुराई जो किसी संसर्ग से उत्पन्न हो।
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संसर्ग-रोध  : पुं० [सं०] १. ऐसी अवस्था जो किसी स्थान को संक्रामक रोगो आदि से बचाने के लिए बाहर से आने वाले लोगों को कुछ समय तक कहीं अलग रख कर की जाती है। २. उक्त कार्य के लिए अलग या नियत किया हुआ स्थान। (क्वारेनेटाइन)
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संसर्ग-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] लोगों से मेल जोल पैदा करने की कला। व्यवहार-कुशलता।
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संसर्गाभाव  : पुं० [ष० त०] १. संसर्ग का आभाव। संबंध का न होना। २. न्यायशास्त्र में आभाव का वह प्रकार या भेद जो संसर्ग न रहने की दशा में माना जाता है। जैसे—यदि घर में घड़ा न हो तो वह संसर्गाभाव माना जायगा। क्योंकि घर में न होने पर भी कहीं बाहर तो घड़ा होगा ही।
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संसर्गी  : वि० [संसर्ग+इति, सम्√सृज (छोड़नादि)+धिनुण वा] [स्त्री० संसर्गिनी] १. संसर्ग या लगाव रखने वाला। २. प्रायः या सदा साथ रहने वाला। संगी। साथी० पुं० धर्मशास्त्र आदि के अनुसार वह जो पैतृक सम्पत्ति का विभाग हो जाने पर भी कुटुम्बियों आदि के साथ रहता हो।
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संसर्जन  : पुं० [सम्√सृज (देना आदि)+ल्युट्—अन] [वि० संसर्जनीय, संसर्ज्य, भू० कृ० संसर्जित] १. संयोग होना। मिलना। २. जुड़ना या सटना। ३. अपनी ओर मिलाना। ४. त्याग करना। छोड़ना।
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संसर्प  : पुं० [सम्√सृप (धीरे चलना)+घञ] १. रेंगना। २. खिसकना। सरकना। ३. ज्योतिष में चन्द्र गणना के अनुसार वह अधिक भाग जो किसी छय मास वाले वर्ष में पड़ता है।
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संसर्पण  : पुं० [सं०√सृप् (धीरे चलना)+ल्युट्—अन] [वि० संसर्प-णीय, भू० कृ० संसर्पणीय] १. धीरे-धीरे आगे की और चलना या बढना। २. खिसकना या रेंगना। ३. उक्त प्रकार या रूप से ऊपर की ओर बढ़ना या चढ़ना। ४. सहसा आक्रमण करना। अकस्मात हमला करना।
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संसर्पी  : वि० [संसर्प+इनि, सम√सृप् (धीरे चलना)+णिनि वा] १. संसर्पण करने वाला। २. वैद्यक में पानी में तैरने या उतरने वाला।
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संसा  : पुं० १. =संशय। २. =साँस। ३. =सँड़सा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसादन  : सं० सम्√सद् (गत्यादि)+णिच्-ल्युट्—अन] [वि० संसादनीय, संसाद्य, भू० कृ० संसादित] १. इकट्ठा करना या एकत्र करना। जमा करना० २. क्रम या सिलसिले से रखना या लगाना।
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संसाधक  : वि० [सम्√साध् (सिद्ध करना)+ल्युट्-अक] जीतने या वश में करने वाला।
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संसाधन  : पुं० [सम्√साध् (सिद्ध करना)+ल्युट्-अन] [वि० संसाधनीय, संसाध्य, भू० कृ० संसाधित] १. कोई काम अच्छी तरह पूरा करना। २. काम करने की तैयारी। आयोजन। ३. जीत या दबाकर वश में करना। दमन करना।
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संसाधनीय  : वि० सम्√साध् (सिद्ध करना)+अनीयर्] =संसाध्य।
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संसाध्य  : वि० सम्√ साध् (सिद्ध करना)+ण्यत] १. जो काम पूरा किया जा सकता हो या हो सकता हो। २. जो जीता या दबाया जा सकता हो। ३.जो किये जाने योग्य हो। ४.जो जीते या दबाये जाने योग्य हो।
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संसार  : पुं० [सं०] १. लगातार एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाते रहना। २. यह जगत या दुनिया जिसमें जीव या प्राणी आते जाते रहते है। इहलोक। मर्त्यलोको। ३. इस संसार में बार-बार जन्म लेने और मरने की अवस्था। ४. जीवन तथा संसार का प्रबंध और माया। ५. घर-गृहस्थी और उसमें का जीवन। उदा—मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा।—प्रसाद। ६. समूह। (क्व०) ७. दुर्गन्ध खादिर। विट् खादिर।
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संसार-गुरु  : पुं० [सं०] १. संसार को उपदेश देने वाला। जगदगुरु। २. कामदेव।
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संसार-चक्र  : पुं० [मध्यम० स०] १. बार-बार इस संसार मे आकर जन्म लेने और मर कर यह संसार छोड़ने का क्रम या चक्र। २. संसार का जंजाल या झंझट। सांसारिक प्रपंच। ३. संसार में होता रहने वाला उलटफेर या परिवर्तन।
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संसारण  : पुं० सम्√सृ (गमनादि)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसारित] गति देना। चलाना।
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संसार-तिलक  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक प्रकार का बढिया चावल।
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संसार-पथ  : पुं० [ष० त०] १. संसार में आने का मार्ग। २. स्त्रियो की जननेंद्रिय। भग। योनि।
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संसार-भावन  : पुं० [सं०] संसार को दुखमय समझना।
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संसार-सारथि  : पुं० [सं०] संसार की जीवन यात्रा चलाने वाला, परमेश्वर। २. शिव।
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संसारी  : वि० सम्√सृ (गत्यादि)+णिन् संसार+इनि वा] [स्त्री० संसारिणी] १. संसार संबंधी। लौकिक। सांसारिक। २. घर में रहकर घर-गृहस्थी चलाने या ग्रहस्थ जीवन व्यतीत करने वाला। ३. संसार में आकर बार-बार जन्म लेने और मरने वाला। ४. लोक व्यवहार मे कुशल। दुनियादार।
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संसिक्त  : भू० कृ० [सम्√सिच (सींचना)+क्त] अच्छी तरह सींचा हुआ। जिस पर खूब पानी छिड़का गया हो।
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संसिद्ध  : वि० [सम्√सिध् (पूरा करना)+क्त] १. (काम) जो अच्छी तरह किया गया हो या ठीक तरह से पूरा उतरा हो। २. (खाद्य पदार्थ) जो अच्छी तरह सीझा या पका हो। ३. प्राप्त। लब्ध। ४. निरोग। स्वस्थ। ५. उदयत्। प्रस्तुत। ६. कुशल। दक्ष। निपुण। ७. जिसनें योग साधन करके सिद्धि प्राप्त कर ली हो।
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संसिद्धि  : स्त्री० [सम्√सिध् (पूरा करना)+क्तिन] १. प्रसिद्ध होने की अवस्था या भाव। २. सफलता। ३. पक्वता। ४. पूर्णता। ५. स्वस्थता। ६.परिणाम। ७. मुक्ति। ८. अवश्य और निश्चित होने वाली बात। ९. निसर्ग। प्रक्रति। १॰. स्वभाव। ११. मगमत्त स्त्री।
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संसी  : स्त्री०=सँड़स।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसुप्त  : भू० कृ० [सम्√सुप् (शयन करना)+क्त] गहरी नींद में सोया हुआ।
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संसुप्ति  : स्त्री० [सं०] गहरी नींद।
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संसूचक  : वि० [सम्√सूच् (सूचना देना)+णिच्—णवुल्—अक स्त्री० संसूचिका] १. प्रकट करने या जताने वाला। २. भेद या रहस्य बतलाने वाला। ३.समझाने बुझानेवाला। ४. डाँटने डपटने वाला।
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संसूची  : वि० [सम्√ सूच् (सूचना देना)+णिनि] [स्त्री० संसूचनी]=संसूचक।
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संसूच्य  : वि० [सम्√सूच् (सूचना देना)+ण्यत] जिसके संबंध में या जिसके प्रति संसूचन हो सके। संसूचन का अधिकारी या पात्र। पुं० दे० ‘सूच्य’। (नाटक का)
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संसृति  : स्त्री० [सम्√सृ (गत्यादि)+क्तिन] १. संसार में बार-बार जन्म लेने की परम्परा। आवागमन। २. जगत। संसार।
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संसृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. जो एक साथ उत्पन्न या अविर्भूत हुए हों। २. जो आपस में एक दूसरे से मिलें हो। संश्लिष्ट। ३. परस्पर संबद्ध। ४. जो किसी के अंतर्गत अंतर्भूत हों। ५. बहुत आधिक हिला मिला हुआ। बहुत मेल जोल वाला। ६. (काम) पूरा या सम्पन्न किया हुआ। ७. इकट्ठा किया हुआ। संग्रहित। ८. वैद्यक में, (रोगी) जिसका पेट वमन, विरेचन आदि के द्वारा साफ कर दिया गया हो। ९. धर्मशास्त्र में (परिवार) बँटवारा हो चुकने के बाद भी मिलकर एक हो गये हों। पुं० १. घनिष्ठता। हेल-मेल। २. एक पौराणिक पर्वत।
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संसृष्टत्व  : पुं० [सं० संसृष्ट+त्व] १ संसृष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. संपत्ति का बँचवारा हो के बाद फिर हिस्सेदारों का एक में मिलकर रहना। (समृति)
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संसृष्ट-होम  : पुं० [सं०] अग्नि और सूर्य को एक साथ दी जाने वाली आहुति।
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संसृष्टि  : स्त्री० [सम० सम्√सृज (बना)+क्तिव+षत्व स्टुत्व] १. सृसष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. घनिष्ठता। हेल-मेल। ३. मिलावट। मिश्रण। ४. लगाव। संबंध। ५. बनावट। रचना। ६. संग्रह। ७. धर्म-शास्त्र में बँटवारा या विभाजन हो जाने पर भी परिवारों का फिर मिलकर एक हो जाना। ८. साहित्य में, दो या अधिक काव्यालंकारों का इस प्रकार संसृष्ट होना। या साथ-साथ हो जाना। कि वे सब अलग-अलग दिखाई दें। इसकी गणना एक स्वतंत्र अलंकार के रूप में होती है।
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संसृष्टि (ष्टिन)  : पुं० [सं० सृष्ट+इनि] धर्मशास्त्र में, ऐसे परिवार या संबंधी जो विभाजन हो चुकने पर भी मिलकर एक हो गये हों।
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संसेक  : पुं० [सं० सम्√सिच् (सींचना)+घञ] अच्छी तरह किये जाने वाला पानी आदि का छिड़काव।
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संसेचन  : पुं० [सं०] संभोग के समय नर की वीर्य मादा के अंड में मिलना जो प्रजनन के लिए आवश्यक होता है। (इन्सेमिनेशन) विशेष—अब यह क्रिया रासायनिक पद्धतियों में भी होने लगी है।
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संसेवन  : पुं० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसेवित, वि० संसेवनीय, संसेव्य] १. अच्छी तरह की जाने वाली सेवा। २. सदा सेवा में उपस्थित रहने की क्रिया या भाव। ३. अच्छी तरह किया जाने वाला उपयोग या व्यवहार। ४. अच्छी तरह किया जानेवाला आदर-सत्कार।
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संसेवा  : स्त्री० [सं० सं√सेव् (सेवा करना)+अ]=संसेवन।
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संसेवित  : भू० कृ० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+क्त] जिसका अच्छी तरह से संसेवन किया हो। अथवा हुआ हो। उदा—सुरांगना, संपदा, सुराओं से संसेवित, नर पशुओ भूभार मनजता जिनसे लज्जित।—पन्त।
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संसेवी (विन्)  : वि० [सं०,सम्√सेव् (सेवा करना)+णिनि] संसेवन करने वाला। पुं० टहलुआ। खिदमतगार।
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संसेव्य  : वि० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+यत] जिसका संसेवन हो सकता हो आवश्यक या उचित हो।
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संसौ  : पुं० [पुं० [स० श्वास] १. श्वास। साँस। २. जीवनी। शक्ति। प्राण। पुं०=संशय।
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संस्करण  : पुं० [स० सम्√कृ (करना)+ल्यिट-अन-सुट्] १. संसकार करने की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह ठीक, दुरुस्त या शुद्ध करना। सुधारना। ३. अच्छा, नया और सुंदर रूप देना। ४. द्विजातियों के लिए विहित संस्कार करना। ५. आज-कल पुस्तकों, समाचार-पत्रों आदि की एक बार में और एक तरह की होने वाली छपाई। आवृत्ति (एडिशन) जैसे—(क) पुस्तक का राज संस्करण, (ख) समाचार-पत्र का प्रातः संस्करण।
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संस्कर्ता  : वि० [सं० सम्√कृ (करना)+तृच्-सुट्] संस्कार करने वाला।
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संस्कार  : पुं० [सं०] १. किसी चीज को ठीक या दुरुस्त करके उचित रूप देने की क्रिया। जैसे—व्यारकण में होने वाला शब्दो का संस्कार। २. किसी चीज की त्रुटियाँ, दोष, विकार आदि दूर करके उसे उपयोगी तथा निर्मल बनाने की क्रिया। जैसे—वैद्यक में होने वाला पारे का संस्कार। ३. किसी प्रकार की असंगति, भद्दापन आदि दूर करके उसे शिष्ट और सुन्दर रूप देने की क्रिया। जैसे—भाषा का संस्कार। ४. धो-पोंछ या माँजकर की जाने वाली सफाई। जैसे—शरीर का संस्कार। ५. किसी को उन्नत, सभ्य, समर्थ आदि बनाने के लिए कुछ बताने, सिखाने या अच्छे मार्ग पर लाने की क्रिया। जैसे—बुद्धि का संस्कार। ६. मनो-वृत्ति, स्वभाव आदि का परिष्करण तथा संशोधन करने की क्रिया। (कल्चर) ७. उपदेश, शिक्षा, संगीत, आदि के प्रभाव का वह बहुत कुछ स्थाई परिणाम जो मन में अज्ञात अथवा ज्ञात रूप से बना रहता है और हमारे परिवर्ती आचार व्यवहार, रहन-सहन आदि का स्वरूप स्थिर करता है। जैसे—बाल्यावस्था का संस्कार, देश समाज आदि के कारण बनने वाला संस्कार। ८. भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में, इंद्रियों के विषय भोगसे मन पर पड़ने वाला संस्कार। ९. धार्मिक क्षेत्र में पूर्वजन्मो के लिए हुए आचार-व्यवहार, पाप-पुण्य आदि का आत्मा पर पड़ा हुआ वह प्रभाव जो मनुष्य के परिवर्ती जन्मों में से उसके कार्यों, प्रवृत्तियों, रुचियों आदि के रूप में प्रकट होता है। १॰. सामाजिक क्षेत्र में, धार्मिक दृष्टि से किया जाने वाला कोई ऐसा कृत्य जो किसी से कोई पात्रता अथवा योग्यता उत्पन्न करने वाला माना जाता हो और उसका कुछ विशिष्ट अवसरों के लिए विधान हो। (सेक्रामेंट) जैसे—(क) जातिच्युत या विधर्मी को जाति या धर्म में मिलाने के लिए किया जाने वाला संस्कार। (ख) मृतक का अन्त्येष्टि संस्कार। ११. हिंदुओं में, जन्म से मरण तक होने वाले वे विशिष्ट धार्मिक कृत्य जो द्विजातियो के लिए विहित हैं। जैसे—मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कार। (रिचुअल राइट) विशेष—मनुस्मृति में, नाम-कर्म, निष्क्रमण, अन्नप्रशन, चूड़ा-कर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन और विवाह। परवर्ती स्मृतिकारों इनमें चार और संस्कार बढ़ाकर इनकी संख्या १६ करदी है। परंतु इन नये संस्कारों के नामों के संबंध में उनके मत भेद हैं। १२. वैशेशिक दर्शन में गुण का वह धर्म जिसके कारण या फलस्वरूप वह अपने आपको अभिव्यक्त करता है। १३. अन्न आदि कूट पीसकर पकाने और उन्हे खाद्य बनाने की क्रिया। १४. स्मरण शक्ति। १५. अलंकरण। सजावट। १६. पत्थर आदि का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर कोई चीज साफ की जाती हो। जासे०—पैर के तलुओं के रगड़ने का झाँवाँ।, धातुएँ चमकाने के लिए पत्थर की बटिया आदि।
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संस्कारक  : वि० [सं०] संस्कार करने वाला।
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संस्कारवर्जित  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार न हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कारवान (वत्)  : वि० [सं० संस्कार+मतुप्-म=व-नुम् दीर्घ] १. जिसका संस्कार हुआ हो। २. जिसपर किसी संस्कार का प्रभाव दिखाई देता हो। ३. सुन्दर।
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संस्कारहीन  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कार्य  : वि० [सं० सं√कृ (करना)+ण्यत] १. जिसका संस्कार हो सकता हो। २. जिसका संस्कार होना आवश्यक या उचित हो।
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संस्कृत  : वि० [सम्√कृ (करना)+क्त—सुट्] [भाव० संस्कृति] १. जिसका संस्कार किया गया हो। २. परिमार्जित। परिष्कृत। ३. निखारा और साफ किया हुआ। ४. (खाद्य पदार्थ) पकाया सिझाया हुआ। ५. ठीक किया या सुधारा हुआ। ६. अच्छे रूप में लाया हुआ। सँवारा या सजाया हुआ। ७. जिसका उपनयन संस्कार हो चुका हो। स्त्री० भारतीय आर्यों की प्राचीन साहित्यिक और शिष्ट समाज की भाषा जो जन साधारण की बोलचाल की तत्कालिक प्राकृत भाषा को परिमार्जित करके प्रचलित की गई थी। देव-वाणी। विशेष—इस भाषा के दो मुख्य रूप हैं—वैदिक और लौकिक। पाणिनी नें अपने व्याकरण के द्वारा इसे एक और निश्चित और परिनिष्ठित रूप दिया था।
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संस्कृति  : स्त्री० [सं० सम्√कृ (करना)+क्तिन्-सुट्] [वि० सांस्कृतिक] १. संस्कार करने अर्थात किसी वस्तु को संस्कृत रूप देने की क्रिया या भाव। परिमार्जित, शुद्ध या साफ करना। संस्कार। २. अलंकृत करना। सजाना। ३. आज-कल किसी समाज की वे सब बातें जिनसे विदित होता है कि उसने आरंभ से अब तक कुछ विशिष्ट क्षेत्र में कितना उन्नति की है। विशेष—आधुनिक विद्वानों के मत से संस्कृति भी सभ्यता का ही दूसरा अंग या पक्ष है। सभ्यता मुख्यता आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक सिद्धियो से संबद्ध है, और संस्कृति आध्यातमिक, बौद्धिक तथा मानसिक सिद्धियों से संबद्ध है। यह संस्कृति कला, कौशल के क्षेत्र की उन्नति के आधार पर आँकी जाती है। सभ्यता मानव समाज की बाह्य और भौतिक सिद्धियों की मापक है, और संस्कृति लोगो के आंतरिक तथा मानसिक उन्नति की परिचायक होती है। इसी लिए सभ्यता समाजगत और संस्कृति मनोगत है। ४. छंदशास्त्र में २४ वर्णो वाले वृत्तों की संज्ञा।
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संस्कृतीकरण  : पुं० [सं०] १. कोई चीज संस्कृत करने की क्रिया या भाव। २. अन्य भाषा के शब्दों को संस्कृत रूप देना।
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संस्क्रिया  : स्त्री० [सं० सम्√कृ (करना)+श्-यक-रिपङ-रिङ् बा] संस्कार।
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संस्खलन  : पुं० [सं० सम√स्खल् (गिरना+ल्युट्-अन] १. गति का सहसा होने वाला रोध। एक बारगी रुक जाना। २. निश्चेष्ठता। ३. स्तब्धता। ४. लकवा या इसी प्रकार का कोई ऐसा रोग जिसमें कोई अंग बेकार या सुन्न हो जाता हो। ५. दृढता। ६. धीरता। ७. जिद। हठ। ८. आधार। सहारा।
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संस्तंभन  : पुं० [सं०] [वि० संस्तब्ध, संस्तंभनीय, संस्तंभित] १. गति का सहसा रुकना या रोकना। एकबारगी ठहर जाना। २. निश्चेष्ठता या संतब्ध करना या होना। ३. सहारा देना या लेना।
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संस्तंभी (भिन्)  : वि० [सं० सम्√स्तभ्भ् (रुकना)+क्त=ध-भ्-म लोप] १. एकबारगी रुका या ठहरा हुआ। २. निश्चेष्ट। स्तब्ध। ३. सहारा देकर रोका हुआ।
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संस्तर  : पुं० [सं० सम्√स्तृ (रुकना)+अच्] १. तह। परत। २. घास-फूस आदि की चटाई या बिछौना। ३. घास-फूस आदि का छप्पर। ५. जलाशय या नदी का नीचे वाला भू-भाग। तल। ६. भू-गर्भ में, कोई ऐसी तह या परत जो एक ही तरह के तत्व या पदार्थ की बनी हो, अथवा किसी विशिष्ट काल में जमी हो। (बेड) जैसे—कोयले का संस्तर, चूने का संस्तर आदि।
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संस्तरण  : पुं० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन करना)+ल्युट्-अन] १. फैलाना। पसरना। २. बिछौना। बिछावन। ३.छितराना। बिखेरना। ४. तह या परत चढ़ना। ५. बिछौना। बिस्तर।
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संस्तव  : पुं० [सं०] १. प्रशंसा। स्तुति। तारीफ। २. उल्लेख। कथन। जिक्र। ३. जान-पहिचान। परिचय। ४. घनिष्ठता। हेल-मेल।
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संस्तवन  : पुं० [सं० सम्√स्तु (प्रशंसा करना)+ल्युट—अन] १. प्रशंसा करना। स्तुति करना। २. कीर्ति या यश का गान करना। ३.आज-कल किसी की प्रशंसा करते हुए उसके सम्बन्ध में यह कहना कि यह अमुख (काम, बात या सेवा के लिए उपयुक्त और योग्य है। (कॉमेन्डेशन)
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संस्तार  : पुं० [सं०] १. तह। परत। २. बिछौना। बिस्तर। ३. खाट या पलंग। शय्या। ४. एक प्रकार का यज्ञ।
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संस्ताव  : पुं० [सं० सम्√स्तु (स्तुति करना)+घञ] १. यज्ञ में सतुति करने वाले ब्राह्मणों के बैठने का स्थान। २. प्रशंसा। स्तुति। ३. जान-पहचान। परिचय।
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संस्ताव्य  : वि० [सम्√स्तु (प्रशंसा करना)+विच्+यत्] प्रशंसनीय। जिसका या जिसके संबंध में संस्तवन हो सकता हो। (कॉमेंडेबिल)
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संस्तीर्ण  : वि० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन)-कु-रु-दीर्घ] १. फैलाया या पसारा हुआ। २. बिछाया हुआ। ३. छिटकाना या बिखेरा हुआ। ४. ढका या छिपाया हुआ।
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संस्तुत  : वि० [सं० सम्√स्तु (सतुति करना)+क्त] १. जिसकी खूब प्रशंसा या स्तुति की गई हो। २. साथ में गिना हुआ। ३. जाना हुआ। ज्ञात। ४. परिचित।
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संस्तुति  : स्त्री० [सं० सम्√स्तु (स्तुति करना)+क्तिन] १. अच्छी या पूरी तरह से होने वाली तारीफ या स्तुति। २. अनुशंसा। सिफारिश। (रिकमेन्डेशन)
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संस्तृत  : भू० कृ० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन करना)+क्त]=संस्तीर्ण।
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संस्थ  : पुं० [सं० सं√स्था (ठहरना)+क] १. अपने देश का निवास। स्वदेश वासी। २. चर। दूत।
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संस्था  : स्त्री० [सं०] १. ठहरने की क्रिया या भाव। ठहराव। स्थति। २. प्रकट होने की क्रिया या भाव। अभिव्यक्ति। आविर्भाव। ३. बँधा हुआ नियम, मर्यादा या विधि। रुढि। ४. आकृति। रूप। ५. गुण। सिफत। ६. कोई काम, चीज या बात ठिकाने लगाने की क्रिया। आवश्यक या उचित परिणाम तक पहुँचना। ७. अंत। समाप्ति। ८. मृत्यु। मौत। ९. धवंस। नाश। १॰. वध। हिंसा। ११. प्रलय। १२. यज्ञ का मुख्य अंग। १३.गुप्तचरों या भेदियों का दल या वर्ग। १४. पेशा। व्यवसाय। १५. गिरोह। जत्था। दल। १६. राजाज्ञा। फरमान। १७. समानता। सादृश्य। १८. समाज। १९. आज-कल कोई संघठित वर्ग, समाज या समूह। (बॉडी) २॰. किसी विशिष्ट सामाजिक या सार्वजनिक कार्य की सिद्धी के उद्देश्य से संघठित मंडल या समाज। २१. व्यवसायिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट नियमों सिद्धांतो के अनुसार काम करने वाला कोई संधठित दल, वर्ग या समाज। (सोसाइटी) जैसे-सहकारी संस्था। २२ राजनीतिक या सामाजिक जीवन से संबंध रखने वाला कोई नियम, विधन या परम्परागत प्रथा जो किसी समाज में समान रूप से प्रचलित हो। (इन्स्टिच्यूशन) जैसे—हिंदुओं में विवाह धार्मिक संस्था है, आन्यान्य जातियो की तरह मात्र सामाजिक समझौता नहीं।
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संस्थान  : [सं०] १. ठहराव। स्थिति। २. बैठाना। स्थापन। ३. अस्तित्व। ४. देश। ५. सर्व-साधारण के इकट्ठे होने का स्थान। ६. किसी राज्य के अंतर्गत जागीर आदि। ७. साहित्य, विज्ञान, कला आदि की उन्नति के लिए स्थापित समाज। (इन्स्टीच्यूशन) ८. प्रबंध। व्यवस्था। ९. किसी काम या बात का अच्छी तरह किया जाने वाला अनुसरण। पालन। १॰. जनपद। बस्ती। ११. आकृति। रूप। शक्ल। १२. कांति। चमक। १३. सुंदरता। सौन्दर्य। १४. प्रकृति। स्वभाव। १५. अवस्था। दशा। १६. जोड़। योग। १७. समष्टि। १८. अंत। समाप्ति। १९. नाश। ध्वंस। २॰. मृत्यु। मौत। २१. निर्माण। रचना। २२. निकटता। सामीष्ट। २३. पास-पड़ोस। २४. चौमुहानी। चौराहा। २५. चौखटा। ढाँचा। २६. साँचा। २७. रोग का लक्षण। २८. ब्रिटिश शासन के समय देशी रियासत। (दक्षिणभारत)
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संस्थापक  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+विच् पुक्-ष्टवुल-अक] [स्त्री० संस्थापिका] १. संस्थापन करने वाला। २. बनाकर खड़ा या तैयार करने वाला। ३.नये काम या बात का प्रवर्तन करने वाला। प्रवर्तक। ४. चित्र, खिलौना आदि बनाने वाला। ५. किसी प्रकार का आकार या रूप देने वाला। पुं० आज-कल किसी संस्था, सभा या समज का वह मूल व्यक्ति, जिसने पहले पहल उसकी स्थापना की हो।
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संस्थापन  : पुं० [सं० सम्√श्था (ठहरना)+णिच्-यक, ल्युट्-अन] [वि० संस्थापनीय, संस्थाप्य, भू० कृ० संस्थापित] १. अच्छी तरह जमाकर बैठाना या रखना। २. मशीनों यंत्रो आदि को किसी स्थान पर लगाना। प्रतिष्ठित करना। ३. उक्त रूप में बैठाए या लगाए हुए यंत्रों की सामूहिक संज्ञा। प्रस्थापन। (इन्स्टालेशन) ४. कोई नई चीज बनाकर खड़ी या तैयार करना। निर्मित करना। जैसे—भवन का संस्थापन। ५. कोई नया काम या नई बात चलाना या जारी करना, अथवा उसके लिए कोई संस्था स्थापित करना। ६. उक्त प्रकार से स्थापित की हुई संस्था अथवा उसमें काम करने वाले लोगो का वर्ग या समूह। (एस्टैब्लिशमेंट) ७. किसी काम, चीज या बात को कोई नया आकार या रूप देना। ८. नियंत्रित करना। रोकना। ९. शांत करना।
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संस्थापना  : स्त्री० [सं० संस्थापन-टाप्]=संस्थापन।
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संस्थापनीय  : वि० [सं० सं√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक्-अनीयर] जिसका संस्थापना हो सकता हो या होने को हो।
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संस्थापित  : भू० कृ० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक्, क्त] १. जिसका संस्थापन किया गया हो या हुआ हो। २. जमाकर बैठाया, रखा या स्थित किया हुआ। ३.चलाया या प्रचलित किया हुआ। ४. इकट्ठा किया हुआ। संचित।
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संस्थाप्य  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक, यत्] जिसका संस्थापन हो सकता हो या होना उचित हो।
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संस्थित  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+क्त] १. टिका, ठहरा या रुका हुआ। २. अच्छी तरह जमा या बैठा हुआ। ३. किसी नये और विशिष्ट रूप में आया लाया हुआ। ४. बनाकर खड़ा या तैयार किया हुआ। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. मरा हुआ। मृत।
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संस्थिति  : स्त्री० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+क्तिन] १. खड़े होने की क्रिया, अवस्था या भाव। २. ठहराव। स्थिरता। ३. बैठने की क्रिया या भाव। ४. एक ही अवस्था में बने रहने की क्रिया या भाव। संस्थान। ५. दृढता। मजबूती। ६.धीरता। ७. अस्तित्व। हस्ती। ८. आकृति। रूप। ९. गुण। १॰. क्रम। सिलसिला। ११. प्रबंध। व्यवस्था। १२. प्रकृति। स्वभाव। १३. अंत। समाप्ति। १४. मृत्यु। मौत। १५. नाश। १६. कोष्ठबद्धता। कब्जियत। १७. ढेर। राशि।
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संस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० सम्√स्पर्ध (संघर्ष करना)+घज्-टाप] १. स्पर्धा। २. ईर्ष्या।
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संस्पर्द्धी  : वि० [सं० सम्√स्पर्ध (स्पर्धा करना)+णिनि] [स्त्री० संस्पर्द्धनी] संस्पर्धा करनेवाला।
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संस्पर्श  : पुं० [सं० सम्√स्पृश (छूना)+घञ] अच्छी या पूरी तरह से होने वाला स्पर्श।
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संस्पर्शी  : वि० [सं० सम्√स्पृश (छूना)+णिनि संस्पर्शिनी] स्पर्श करने या छूने वाला।
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संस्पृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. छुआ हुआ। जिसका किसी के साथ स्पर्श हुआ हो। २. किसी के साथ लगा या सटा हुआ। ३. किसी के साथ जुड़ा या बँधा हुआ। ४. जो बहुत पास हो समीपस्थ। ५. जिसपर किसी का बहुत थोड़ा नाम मात्र का प्रभाव पड़ा हो।
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संस्फुट  : वि० [सं० सम्√स्फुट् (विकसित होना) +क] १. अच्छी तरह फूटा या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ।
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संस्फोट  : पुं० [सं० सम्√स्फुट् (भेदन करना)+घञ] युद्ध। लड़ाई।
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संस्मरण  : पुं० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+ल्युट्-अन] [वि० संस्मरणीय] १. अच्छी तरह या बार-बार स्मरण करना। २. ईष्टदेव आदि का बार-बार स्मरण करना या उनका नाम जपना। ३. पूर्व-जन्म के संस्कारों आदि के कारण उत्पन्न या पआपात होने अथवा बना रहने वाला ज्ञान। ४. आज-कल किसी व्यक्ति विशेषतः मृत व्यक्ति के संबंध की महात्वपूर्ण और मुख्य घटनाओं या बातों का उल्लेख या कथन। (रेमिनिसेन्सेज)
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संस्मरणीय  : वि० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+अनीयर्] १. जिसका प्रायः संस्मरण होता रहता है। बहुत दिनों तक याद रहने लायक। २. जिसका संस्मरण (नाम, जप आदि) करना आवश्यक और उचित हो।
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संस्मारक  : वि० [सं० सम्√स्मृर् (स्मरम करना)+णिच्-णवुल्-अक] [स्त्री० संस्मारिका] स्मरण करने वाला। याद दिलाने वाला।
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संस्मारण  : पुं० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+णिच्-ल्युट्-अन्] [भू० कृ० संस्मरित] १. स्मरण करना। याद दिलाना। २. चौपायों आदि की गिनती करना।
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संस्मृत  : वि० [सं० सं√ स्मृर् (स्मरण करना)+कृ] स्मरण किया हुआ। याद किया हुआ।
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संस्मृति  : स्त्री० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+क्तिन] पूर्ण स्मृति। पूरी याद।
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संस्त्रव  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहाव मे जाना)+णिच्] [स्त्री० संस्त्रवा] १. मिल-जुल कर एक साथ रहना। २. अच्छी तरह बहना। ३. बहती हुई चीज। ४. जल की धारा या प्रवाह। ५. तरल पदार्थ का रस कर टपकना या बहना। ६. किसी चीज में से उखाड़ा या नोंचा हुआ अंश। ७. एक प्रकार का पिंड दान।
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संस्त्रवण  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+ल्युट्-अन] १. प्रवाहित होना। बहना। २. गिरना। चूना या टपकना। जैसे—गर्भ का संश्रवण।
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संस्त्रष्टा  : वि०[सं०सम्√सृज् (सृजन करना)+क्तच, ज, त्र-तत्र संस्त्रष्ट] [स्त्री० संस्त्रष्टी] १. आयोजन करने वाला। २. मिलाने जुलाने वाला। ३. बनाने वाला। रचयिता। ४. लड़ाई-झगड़ा करनेवाला।
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संस्त्राव  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+घञ] १. प्रवाह। बहाव। २. शरीर के घाव, फोड़े आदि में मवाद का इकट्ठा होना। ३.गाद। तलछट।
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संस्त्रावण  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संस्त्रावित] १. प्रवाहित करना। बहाना। २. प्रवाहित होना। बहाना।
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संस्त्रावित  : भू० कृ० [सं० सम्√सु (बहना)+णिच्-क्त] १. बहाया हुआ। बहा हुआ। ३.चू, टपक या रिसकर निकला हुआ।
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संस्त्राव्य  : वि० [सं० सम्√स्त्रु (बहाना)+णिच् यत] १. बहाने या टपकाने योग्य। २. बहाये या टपकाए जाने योग्य।
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संस्वेद  : पुं० [सं०] स्वेद। पसीना।
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संस्वेदी (दिन्)  : वि० [सं०√स्विद् (पसीना होना)+णिच्] १. जिसके बदन से पसीना निकल रहा हो। २. जिसके प्रभाव से बहुत पसीना आता या आने लगता हो। पसीना लाने वाला।
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संहंता  : वि० [सं० सम्√हन् (मारना)+तृच्, संहंतृ] [स्त्री० संहंत्री] हनन या वध करने वाला। मार डालने वाला।
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संहत  : वि० [सं० सम्√हन् (मारना)+क्त] १. अच्छी तरह गठा, जुड़ा, मिला या सटा हुआ। २. जो जमकर बिल्कुल ठोस हो गया हो। ३. गाढ़ा या घना। ४. दृढ। मजबूत। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. अच्छी तरह मिलाकर एक किया हुआ। (कन्सालिडेटे़ड्) ७. चोटखाया हुआ। आहत। घायल। पुं० नृत्य में एक प्रकार की मुद्रा।
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संहत जानु  : पुं० [सं०] दोनो घुटने सटाकर बैठने की मुद्रा।
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संहतांग  : वि० [सं० कर्म० स० ब० स० वा०] हृष्ट-पुष्ट। मजबूत।
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संहति  : स्त्री० [सं०] १. आपस में चीजों का मिलना। मेल। २. इकट्ठा या एकत्र होना। ३. ढेर-राशि। ४. झुंड। दल। ५. घनत्व। घनापन। ६. जोड़। संधि। ७. घठकर या मिलकर एक होना। संघठन। (कंसालिडेशन)
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संहनन  : पुं० [सं० सम्√हन् (मारना)+ल्युट् अन] १. संहत करना। एक में मिलाना। जोड़ना। २. अच्छी तरह घना या ठोस करना। ३. मार डालना। वध करना। ४. मिलन। मेल। ५. दृढ़ता। मजबूती। ६. पुष्टता। ७. सामंजस्य। ८. देह। शरीर। ९. कवच। १॰. शरीर की मालिश।
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संहरण  : पुं० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+ल्युट् अन] १. एकत्र या संग्रह करना।। बटोरना। २. सिर पर इकट्ठे करके बाँधना। ३. जबरदस्ती लेना। छीनना। हरण। ४. नाश या संहार करना। ५. प्रलय।
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संहरता  : वि०=संहर्ता। (संहारक)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संहरना  : स० [सं० संहार] संहार करना। अ० १. संहार होना। २. नष्ट होना।
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संहर्ता  : वि० सम्√हृ (हरण करना)+तृच] [स्त्री० संहर्त्री] १. इकट्ठा करने वाला। बटोरने वाला। २. नाश या संहार करने वाला। ३. मार डालने या वध करने वाला।
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संहर्ष  : पुं० [सं० सम्√हृष (हर्षित होना)+घञ] १. प्रसन्नता के कारण शरीरी के रोओ का खड़ा होना। पुलक। उमंग। २. भय से रोयें खड़े होना। रोमांच। ३. लाग-डांट। स्पर्धा। होड़। ४. ईर्ष्या। डाह। ५. रगड़। संघर्ष। ६. शरीर की मालिश।
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संहर्षण  : पुं० [सं० सम्√हृष (प्रसन्न होना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संहर्षित, संहृष्ट] १. पुलकित होना। २. लाग-डाँट। स्पर्धा। होड़।
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संहर्षी  : वि० [सं० सम्√हृष् (रोमांच होना)+णिनि, सहर्षिनी [स्त्री० सहर्षिणी] १. पुलकित होने वाला। २. पुलकित करने वाला। ३. ईर्ष्या करने वाला। ४. स्पर्धा करने वाला।
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संहात  : पुं० [सं० सम्√हन् (मारना)+क्त, न-आ, कुत्वाभाव] १. समूह। २. एक नरक का नाम। ३. दे० ‘संघात’।
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संहार  : पुं० [सं०] १. एक में करना या मिलाना। इकट्ठा करना। २. संचय। ३. सिर के बाल आच्छी तरह बाँधना। ४. अंत। समाप्ति। जैसे—वेणी संहार। ५. ध्वंस नाश। ६. बहुत से व्यक्तियों की युद्ध आदि में एक साथ होने वाली हत्या। ७. कल्पांत। प्रलय। ८. संक्षेप में और सार रूप में कही हुई बात। ९. किसी काम या बात को निष्फल या व्यर्थ करने की क्रिया। निवारण। परिहार। जैसे—किसी के चलाए हुए अस्त्र का संहार अर्थात विफलीकरण। १॰. अपना छोड़ा हुआ अस्त्र फिर से लौटाना या वापिस लाना। ११. कौशल। निपुणता। १२. सिकुड़ना। आंकुचन। १३. पुराणानुसार एक नरक का नाम।
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संहारक  : वि० [सं० सम्√हृ (हरण करना) णिच्-ण्वुल्-अक, संहार-कारिणी] [स्त्री० संहारिका] संहार करने वाला। संहर्ता।
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संहारकारी  : वि० [सं० संहाक+कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० संहार कारिणी] संहार या नाश करने वाला।
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संहारकाल  : पुं० [सं०] विश्व के नाश का समय। प्रलय काल।
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संहारना  : स० [सं० संहरण] मार डालना।
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संहार-भैरव  : पुं० [सं०] भैरव के आठ रूपों या मूर्तियों में से एक काल भैरव।
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संहारमुद्रा  : स्त्री० [सं०] तांत्रिक पूजन में अंगो की एक प्रकार की स्थिति, जिसे विसर्जन मुद्रा भी कहते हैं।
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संहारिक  : वि० [सं० संहार+ठन्-इक्] १. संहार करने वाला। २. संहार संबंधी। संहार का।
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संहारी (रिन्)  : वि० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+णिनि] संहार या नाश करने वाला।
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संहार्य  : वि० [सं० सम्√हृ (हरण करना (+ण्यत] १. समेटने या बटोरने योग्य। संग्रह करने योग्य। इकट्ठा करने लायक। २. जिसका संहार किया जाने को हो या किया जा सकता हो। ३.जो कहीं दूसरी जगह ले जाया जा सकता हो या ले जाया जाने को हो। ४. जिसका निवारण या परिहार हो सकता हो।
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संहित  : वि० [सं० सम्√धा (रखना)क्ति, धा=हि] १. एक स्थान पर जोड़ या मिलाकर रखा हुआ। एकत्र किया या बटोरा हुआ। २. मिलाया या सम्मिलित किया हुआ। ३. संबंद्ध। संश्लिष्ट। ४. अन्वित। युक्त। ५. अनुकूल। अनुरूप। ६. आजकल जो अधिकारियों के द्वारा नियमों विधियो आदि की संहिता के रूप में लाया गया हो। (कोडिफ़ायड)
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संहिता  : स्त्री० [सं०] १. सहिंत अर्थात एक में मिले हुए होने की अवस्था या भाव। मेल। संयोग। २. वह नया रूप जो बहुत सी नयी चीजें एकत्र करने या एक साथ रखने पर प्राप्त होता है। संकलन। संग्रह। ३. कोई ऐसा ग्रंथ जिसके पाठ आदि का क्रम परम्परा से किसी नियमित और निश्चित रूप से चला आ रहा हो। जैसे—अत्रि। (या मनु) की धर्म संहिता। ४. वेदों का वह मंत्र (ब्राह्मण नामक भाग से भिन्न) जिसके पद पाठ आदि का क्रम निश्चित है और जिसमें स्तोत्र आशीर्वादात्मक सूक्त, यज्ञ विधियों से संबंध रखने वाली प्रार्थनाएँ सम्मिलित हैं। व्याकरण में अक्षरों की होने वाली रापस्परिक संधि। ६. राजकीय अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत किया हुआ नियमों, विधियों आदि का संग्रह। (कोड) जैसे—भारतीय दंड संहिता। (इन्डियल पेनल कोड) ७. ब्रह्मा जो समस्त विश्व को धारण किये हैं और उनका नियंत्रण करता है।
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संहिताकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संहिताकृत] नियमों विधानो आदि को व्यवस्थित रूप देने की क्रिया या भाव। किसी बात या विषय को संहिता का रूप देना। (कोडिफिकेशन)
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संहित  : स्त्री० [सं०] १. संहित होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘संश्लेषण’
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संहृत  : भू० कृ० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+क्त] १. एकत्र किया हुआ। समेटा हुआ। २. ध्वस्त। नष्ट। बरबाद। ३. पूरा किया हुआ।समाप्त। ४. दूर किया या रोका हुआ। निवारित।
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संहृति  : स्त्री० [सं० सम्√हृ (हरण करना)+क्तिन] १. बटोरने या समेटने की क्रिया। २. संग्रह। ३. नाश। ४. प्रलय। ५. अंत समाप्ति। ६. परिहार। रोक। ७. लूट-खसोट। हरण।
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संहृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. खड़ा (रोम)। २. (व्यक्ति) जिसके रोएं भय से खड़े हों या हुएं हो। रोमांचित। ३. पुलकित।
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संह्नाद  : पुं० [सं० सम√ह्लाद् (अव्यक्त ध्वनि)+घञ्] १. कोलाहल। शोर। २. हिरण्याकशिपु का एक पुत्र।
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संह्नादन  : पुं० [सं० सम√ह्नाद (अव्यक्त ध्वनि)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संह्नादित] १. कोलाहल करना। शोर मचाना। २. चीखना चिल्लाना।
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संकलेंदु  : पुं० [सं०] पूर्णिमा का चाँद। पूरा चाँद।
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संजीवनी-बूटी  : स्त्री० [सं० संजीवनी+हिं० बूटी] १. रुदंती। रुद्रवंती। २. दे० ‘सजीवनी’।
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संजावनमूर, संजीवनमूरि  : स्त्री०=संजीवनी (बूटी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संपक (ा)  : वि० [सं० स+पक=कीचड़] १. कीचड़ से भरा हुआ। २. जिसे पार करना बहुत कठिन हो। बीहड़। विकट।
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