शब्द का अर्थ
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सोना :
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पुं० [सं० स्वर्ण] १. एक प्रसिद्ध बहु—मूल्य पीला धातु जिसके गहने आदि बनते हैं। स्वर्ण। कांचन। (गोल्ड) पद–सोने की कटार=ऐसी चीज जो सुंदर होने पर भी घातक या हानिकारक हो। सोने की चिड़िया=ऐसा संपन्न व्यक्ति जिससे बहुत कुछ धन प्राप्त किया जा सकता हो। मुहा०–सोने का घर मिट्टी करना=बहुत अधिक धन—संपत्ति व्यर्थ और पूरी तरह से नष्ट करना। सोने में घुन लगना=परम असंभव बात होना। सोने में सुगंध होना=किसी बहुत अच्छी चीज में और भी कोई ऐसा गुण या विशेषतः होना कि जिससे उसका महत्व या मूल्य और भी बढ़ जाय। विशेष–लोक में भूल से इसी की जगह ‘सोने में सुहागा होना’ भी प्रचलित है। २. बहुत सुंदर या बहुमूल्य पदार्थ। ३. राजहंस। स्त्री० [?] प्रायः एक हाथ लंबी एक प्रकार की मछली जो भारत और वरमा की नदियों में पाई जाती हैं। पुं० [?] मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष। अ० [सं० शयन] १. लेटकर शरीर और मस्तिष्क को विश्राम देने वाली निद्रा की अवस्था में होना। नींद लेना। मुहा०–सोते-जागते=हर समय। २. शरीर का किसी अंग का एक ही स्थिति में रहने के कारण कुछ समय के लिए सुन्न हो जाना। जैसे–पैर या हाथ सोना। ३. किसी विषय या बात की ओर से उदासीन होकर चुप या निष्क्रिय रहना। |
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समानार्थी शब्द-
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सोना-कुत्ता :
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पुं०=सोनहा (जंतु)। |
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सोना-गेरु :
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पुं० [हिं० सोना+गेरू] एक प्रकार का गेरू जो मामूली गेरू से अधिक लाल, चमकीला और मुलायम होता है। |
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सोना-पठा :
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पुं० [हिं० शोण+हिं० पाठा] एक प्रकार का ऊँचा वृक्ष जो भारत और लंका के सर्वत्र में होता है और जिसके कई भेद होते हैं। श्योनक। |
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सोनापुर :
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पुं० [हिं०] स्वर्ग। मुहा०–सोनापुर सिधारना=मर जाना। |
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सोना-पेट :
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पुं० [हिं० सोना+पेट=गर्भ] सोने की खान। |
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सोना-फूल :
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पुं० [हिं० सोना+फूल] आसाम और खसिया पहाड़ियों पर होने वाली एक प्रकार की झाड़ी। |
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सोना-मक्खी :
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स्त्री० [सं० स्वर्णमक्षिका] १. मक्षिका नामक खनिज पदार्थ का वह भोद जो पीला होता है। (देखें मक्षिका) २. रेशम का एक प्रकार का कीड़ा। |
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सोना-माखी :
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स्त्री० =सोनामक्खी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनार :
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पुं० =सुनार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनारी :
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पुं० [?] संगीत में पन्द्रह मात्राओं का एक ताल जिसमें पाँच आघात और तीन खाली होते हैं। |
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