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शब्द का अर्थ

अस्तंगत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. जो अस्त हो चुका हो। जैसे—अस्तंगत सूर्य। २. जो अवनत होकर प्रायः नष्ट हो चुका हो।
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अस्त  : भू० कृ० [सं०√अस् (फेंकना)+क्त] १. जिसकी अवनति पतन या ह्रास हो चुका हो। २. जो अदृश्य ओझल या तिरोहित हो गया हो। ३. (तारा, नक्षत्र या कोई आकाशस्थ पिंड) जो दृष्टि-पथ के बाहर चला गया हो। पुं० १. अवनति, पतन या ह्रास। २. अंत, समाप्ति या नाश। ३. आँखों से ओझल या तिरोहित होना। ४. कुंडली में लग्न से सातवाँ स्थान।
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अस्त-काल  : पं० [ष० त०] [वि० अस्तकालीन] १. किसी ग्रह या नक्षत्र के विचार से वह समय जब वह दृष्टि-पथ के बाहर हो जाता है। २. किसी बात, वस्तु या व्यक्ति के विचार से वह समय जब कि उसके प्रताप महत्त्व वैभव आदि की समाप्ति या अंत होता हो।
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अस्त-गमन  : पुं० [स० त०] १. अवनति या ह्रास की ओर चलना। २. आँखों से ओझल होना। ३. मृत्यु। ४. अंत या नाश।
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अस्त-गिरि  : पुं० [ष० त०] पश्चिम का वह पर्वत जिसके पीछे सूर्य का अस्त होना माना जाता है।
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अस्तन  : पुं०=स्तन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्तनी  : स्त्री० [सं० न० ब० ङीष्] वह स्त्री जिसके स्तन बहुत छोटे-छोटे हों।
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अस्तबल  : पुं० [अ० अस्तबल] वह स्थान जहाँ घोड़े बाँधे जाते है। गुड़साल। तबेला। (स्टेबल)।
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अस्तब्ध  : वि० [सं० न० त०] १. जो स्तब्ध न हुआ हो, फलतः अस्थिर, चंचल या विकल। २. विनय-शील। विनयी।
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अस्त-भवन  : पुं० [ष० त०] ज्योतिष में, उदय के लग्न से सातवाँ लग्न।
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अस्तमती  : स्त्री० [सं० अस्तम्√अत्(निरंतर गति)+अच्-ङीष्] शालपर्णी।
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अस्तमन  : पुं० [सं० अस्तम्√अन्(जीना)+अप्] [भू० कृ० अस्तमित] १. ग्रहों आदि का अस्त होना। २. प्रताप, वैभव आदि का अंत होना।
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अस्तमन-नक्षत्र  : पुं० [ष० त०] वह नक्षत्र जिसके पास तक पहुँचकर कोई ग्रह अस्त होता है।
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अस्त-मस्तक  : पुं० [ष० त०] अस्ताचल का शिखर।
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अस्तमित  : भू० कृ० [सं० अस्तम्-इत, द्वि० त०] १. (ग्रह या नक्षत्र) जो अस्त हो चुका हो। २. जो आँखों से ओझल हो चुका हो। ३. नष्ट। ४. मरा हुआ। मृत।
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अस्तर  : पुं० [सं० स्तर] १. किसी दोहरी चीज में, नीचेवाली या पहली तह। नीचे का वह आधार जिसके ऊपर कोई दूसरी चीज बनाई रखी या लगाई जाती जाए। भितल्ला। जैसे—(क) दोहरे कपड़े में नीचे वाला कपड़ा या पल्ला। (ख) दोहरे चमड़े में नीचेवाला चमड़ा। या (ग) दो बार किये जानेवाले रंगों में नीचेवाला या पहला रंग अस्तर कहलाता है। २. महीन साड़ियों आदि के साथ पहना जानेवाला एक प्रकार का मोटा कपड़ा जो कमर से पैरों तक रहता है। अँतरौटा। ३.वह पहला तेल जिसमें दूसरे सुगंधित पदार्थों का योग करके कोई दूसरा तेल बनाया जाता है। जमीन। जैसे—बढ़िया तेलों में चंदन के तेल का और घटिया तेलों में मिट्टी के तेल का अस्तर रहता है। ४. किसी प्रकार की भीतरी तह या स्तर।
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अस्तरकारी  : स्त्री० [हिं० अस्तर+फा० कारी] १. दीवारों की ईटों पर मसाले का स्तर बनाना। पलस्तर करना। २. दीवारों पर सफेदी या चूना लगाना, अथवा किसी प्रकार का रंग करना। (क्व०)।
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अस्तरबट्टी  : स्त्री० [हिं० ] १. तसवीर या जमीन का पहला स्तर घोंटने की पत्थर की बट्टी।
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अस्तरी  : स्त्री० १. स्त्री० । २. इस्तरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्त-व्यस्त  : वि० [सं० द्व० स०] १. इधर-उधर बिखरा हुआ। तितर-बितर। २. जिसका क्रम या व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी हो।
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अस्ताचल  : पुं० [सं० अस्त-अचल, कर्म० स०] पुराणानुसार पश्चिम दिशा में स्थित वह कल्पित पर्वत जिसेक पीछे सूर्य का अस्त माना गया है।
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अस्ताद्रि  : पुं० [सं० अस्त-अद्रि, कर्म० स०]=अस्ताचल।
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अस्ति  : स्त्री० [सं०√अस् (सत्ता)+श्तिप्] [भाव० अस्तित्व] १. वर्त्तमान होने की अवस्था या भाव। विद्यमानता। सत्ता। २. कंस को ब्याही गई जरासंध की कन्या का नाम। मुहावरा—अस्ति अस्ति कहना=वाह वाह कहना। साधुवाद कहना। अस्ति-नास्ति- कहना=हाँ या नहीं कहकर निराकरण करना।
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अस्ति-काय  : पुं० [सं० न० ब०] सत्व-विद्या संबंधी अर्थात् दार्शनिक धारणा जिसके पाँच प्रमुख अंग है-जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अर्धास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और आकाशास्तिकाय। (जैन०)।
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अस्तित्व  : पुं० [सं० अस्ति+त्व] १. समय या अवकाश में स्थित होने की अवस्था या स्थिति। २. होने का भाव। विद्यमानता। सत्ता। (एग्जिस्टेन्स)
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अस्ति-नास्ति  : पद स्त्री० [सं० क्रिया रूप अथवा तिङ्न्तप्रतिरूपक अव्यय] ऐसी स्थिति जिसमें यह निश्चय करना आवश्यक हो कि अमुक बात वास्तव में ठीक है या नहीं। ‘हाँ’ या ‘नहीं’ करना अथवा कहना।
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अस्तिमंत  : पुं०=अस्तिमान्।
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अस्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० अस्ति+मतुप्] धनवान। मालदार। संपन्न।
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अस्तिरूप  : वि० =अहिक (या भाव-रूप)।
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अस्तीन  : स्त्री०=आस्तीन।
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अस्तु  : अव्य० [सं०√अस् (दीप्ति)+तुन्] १. जो हो। चाहे जो हो। २. ऐसा ही सही। खैर। भला। ३. ऐसा ही हो।
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अस्तुति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. स्तुति का भाव या विरोधी भाव। २. अपकीर्ति। निंदा। स्त्री०=स्तुति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अस्तुरा  : पुं० दे० ‘उस्तरा’।
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अस्तेय  : पुं० [सं० न० त०] १. स्तेय या चोरी करना । २. चोरी न करने की प्रतिज्ञा या व्रत जो सदाचार के मुख्य नियमों या सिद्धांतों में से एक है। ३. योग के साठ अंगों में नियम नामक अंग के अंतर्गत एक व्रत।
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अस्तेय-व्रत  : पुं० [ष० त०] आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ अपने पास न रखना या उनका उपयोग न करने का व्रत जो यह समझाकर धारण किया जाता है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी एक प्रकार की चोरी है।
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अस्त्र  : पुं० [सं०√अस् (पेंकना)+ष्टन्] १. ऐसे हथियार जो शत्रु पर फेंके या फेंककर चलाये जाते है। (शस्त्र से भिन्न) जैसे—भाला, बाण, बम आदि। २. वह उपकरण जिससे कोंई चीज फेंकी जाए। जैसे—धनुष तोप, बन्दूक आदि। ३. वह हथियार जिससे शत्रु के चलाए हथियारों की रोक हो। जैसे—ढाल। ४. वह हथियार जो मंत्र द्वारा चलाया जाए। जैसे—जृंभास्त्र।
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अस्त्र-कंटक  : पुं० [अपमि स०] बाण।
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अस्त्रकार  : पुं० [सं० अस्त्र√कृ (करना)+अण्] वह कारीगर जो अस्त्र या हथियार बनाता हो।
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अस्त्रघला  : वि० [सं० अस्त्र+हिं० घालना-फेंकना] अस्त्र चलानेवाला। (डिं०)
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अस्त्र-चिकित्सक  : पुं० [ष० त०] शल्यकार।
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अस्त्र-चिकित्सा  : स्त्री० [तृ० त०] =शल्य चिकित्सा।
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अस्त्रजीवी (विन्)  : पुं० [सं० अस्त्र√जीव्(जीना)+णिनि] वह जिसकी जीविका अस्त्र से चलती हो। जैसे—अस्त्रकार, सैनिक आदि।
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अस्त्रधारी (रिन्)  : पुं० [सं० अस्त्र√धृ (धारण करना)+णिनि] अस्त्र धारण करनेवाला, अर्थात् सैनिक।
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अस्त्र-बंध  : पुं० [तृ०त०] अस्त्रों की अविराम या निरंतर वर्षा।
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अस्त्र-लाघव  : पुं० [स० त०] अच्छी तरह अस्त्र चलाने का कौशल या योग्यता।
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अस्त्र-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] १. अच्छी तरह अस्त्र चलाने की विद्या या कला। २. वह शास्त्र जिसमें अस्त्रों के प्रयोग आदि का विवेचन होता है।
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अस्त्र-वेद  : पुं० [ष० त०] धनुर्वेद, जिसमें अस्त्र बनाने और चलाने की विद्या का विवेचन होता है।
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अस्त्र-शस्त्र  : पुं० [द्व० स०] अस्त्र और शस्त्र दोनों।
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अस्त्र-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ अस्त्र रखे जाए। अस्त्रगार। २. वह स्थान जहाँ अस्त्र बनते हैं।
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अस्त्र-शिक्षा  : स्त्री० [ष० त०] अस्त्र आदि चलाने या उनका प्रयोग करने की शिक्षा।
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अस्त्रगार  : पुं० [अस्त्र-आगार, ष० त०] अस्त्र रखने का स्थान। अस्त्रशाला।
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अस्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० अस्त्र+इनि] =अस्त्रधारी।
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अस्त्रीक  : वि० [सं० न० ब० कप्] (पुरुष) जिसकी स्त्र न हो। स्त्री से रहित। बिना स्त्री का। जैसे—कुँआरा या रँडुआ।
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अस्त्रीकरण  : पुं० [सं० अस्त्र+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्-अन] [वि० अस्त्रीकृत] किसी देश की सेना तथा नागरिकों को किसी भावी युद्ध के लिए अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित करने की क्रिया या भाव। (मिलिटराइ ज़ेशन)
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अस्त्रोत्र  : पुं० =स्तोत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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