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आकंपन  : पुं० [सं० आ√कम्प् (काँपना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आकंपित] १. कंपन होना। काँपना। २. हिलना-डुलना।
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आकंपित  : भू० कृ० [सं० आ√कम्प्+क्त] जो कँपाया या हिलाया गया हो।
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आक  : पुं० [सं० अर्क, पा० अक्क] मदार का पौधा। पद—आक की बुढिया—(क) आक या मदार के भीतर का बहुत हलका और मुलायम पदार्थ। (ख) ऐसा वृद्धा स्त्री जिसमें कुछ भी दम न हो।
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आकड़ा  : पुं० -आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकन  : पुं० [सं० आखनन-खोदना] १. खेत में से व्यर्थ की घास आदि निकाल कर बाहर फेंकना। चिखुरी। २. इस प्रकार निकली हुई घास आदि।
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आकबत  : स्त्री० [अ० आकिबत] १. मृत्यु होने के पश्चाताप के अवस्था। २. अंत। ३. परलोक। मुहावरा—आकबत में दिया दिखाना=परलोक में काम आना। जैसे—कुछ गरीबों को भी दिया करो, यहीं आकबत में दिया दिखाएगा।
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आकबती लंगर  : पुं० [अ० आकिबत+हिं० लंगर] जहाज में एक प्रकार का लंगर, जो विशेष संकट के समय गिराया या डाला जाता है।
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आकबाक  : वि० [सं० वाक्य] अंडबंड या ऊटपटांग।
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आकर  : पुं० [सं० आ√कृ(करना)+घ] १. खान। २. वह स्थान जहाँ किसी वस्तु की बहुतायत हो। आधान। ३. खजाना। जैसे—गुणाकर, रत्नाकर। ४. उत्पत्ति का स्थान। ५. तलवार चलाने का एक ढंग। वि० १. श्रेष्ठ। २. बहुत अधिक या यथेष्ठ। ३. खान में निकलने या प्राप्त होनेवाला। पुं०=आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकरकरहा  : पुं० [अ०] दे० ‘अकरकरा’।
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आकरखाना  : स० [सं० आकर्षण] अपनी ओर आकृष्ट करना। खीचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकर-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] वह मूल भाषा जो किसी दूसरी भाषा की जननी हो तथा उसे अपने शब्दभांडार से निरंतर पुष्ट तथा संवर्द्धित करती हो। जैसे—गुजराती, बंगला, हिन्दी आदि की आकर भाषा संस्कृत है।
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आकरसना  : स० [सं० आकर्षण] अपनी ओर आकृष्ट करना। खींचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आकरिक  : वि० [सं० आकर+ठञ्+इनि] १. खान में काम करनेवाला। २. सुरंग बनाने या खोदनेवाला।
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आकरिक  : वि० [सं० आकर+ठञ-इक] १ खान में काम करनेवाला। २. सुरंग बनाने या खोदनेवाला।.
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आकरी (रिन्)  : वि० [सं० आकर+इनि] १. खान से निकाला हुआ (खनिज पदार्थ)। २. अच्छी जाति या नस्ल का। स्त्री० [सं० आकर] १. खान खोदकर उसमें से चीजें निकालने का काम या व्यवसाय। २. सुरंग बनाने का काम। स्त्री०-आकुलता। पुं० दे० ‘आकरिक’।
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आकर्ण  : अव्य० [सं० अव्य० स०] काम तक। वि० कानों में पहुँचा या सुना हुआ।
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आकर्णित  : भू० कृ० [सं० आ√कर्ण् (सुनना)+क्त] सुना हुआ।
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आकर्ष  : पुं० [सं० आ√कृष् (खींचना)+घञ्] १. अपनी ओर खींचना। २. पासे से खेला जानेवाला जुआ। ३. ऐसे खेल की बिसात। ४. इंद्रिय। ५. धनुष चलाने का अभ्यास। ६. कसौटी। ७. चुंबक पत्थर।
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आकर्षक  : वि० [सं० आ√कृष्+ण्वुल्-अक] १. आकर्षण करने या खींचनेवाला। २. प्रभावित या मोहित करके अपनी ओर ध्यान खींचनेवाला। (एट्रैक्टिव)
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आकर्षण  : पुं० [सं० आ+कृष्+ल्युट्-अन] [वि० आकर्षक, भू० कृ० आकर्षित, आकृष्ट] १. अपने बल या शक्ति की सहायता से किसी को अपनी ओर ले आना। खीचंना। २. अपने गुण, विशेषता आदि के बल पर किसी का ध्यान अपनी ओर ले आना। ३. वह व्यापार जो किसी का ध्यान या मन अपनी ओर खींचने या अपने पास बुलाने के लिए किया जाता है। (एट्रैक्शन)
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आकर्षण-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. ऐसी शक्ति जो किसी को अपनी ओर खींचे। २. वह गुण, विशेषता या शक्ति जो किसी को प्रभावित तथा मोहित करे या अपनी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त करे।
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आकर्षणी  : स्त्री० [सं० आकर्षण+ङीष्] १. एक प्राकर का पुराना सिक्का। २. अँकुसी।
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आकर्षन  : पुं०=आकर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आकर्षना  : स० [सं० आकर्षण] १. अपनी ओर खींचना। २. प्रभावित या मोहित करके अपनी ध्यान खींचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आकर्षित  : भू० कृ० [सं० आकृष्ट] १. खिंचा हुआ। २. जो किसी से प्रभावित होकर उसकी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त हुआ हो।
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आकर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं० आ√कृष्+णिनि]-आकर्षक।
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आकलन  : पुं० [सं० आ+कल् (गिनना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आकलित, वि० आकल्य] १. किसी को साथ बाँधना, मिलाना या लगाना। २. इच्छा। कामना। ३. संग्रह। ४. हिसाब लगाना। गणना करना। ५. आज-कल गणना का वह प्रकार जिसमें संभावनाओं का ध्यान रखते हुए भावी कार्य के संबंध में अनुमान या कल्पना की सहायता से कोई विचार या व्यय स्थिर किया जाता है। अंदाज। (एस्टिमेशन) जैसे—मकान बनाने से पहले उसके व्यय का आकलन।
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आकलनीय  : वि० [सं० आ√कृल्+अनीयर] १. जिसका आकलन होने को हो। २. जिसका आकलन करना उचित हो।
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आकलित  : भू० कृ० [सं० आ√कृल्+क्त] जिसका आकलन हुआ हो या किया गया हो।
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आकली  : स्त्री० [सं० आकुल+ई (प्रत्यय)] व्याकुलता। बेचैनी। स्त्री० [?] गौरैया पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकल्प  : पुं० [सं० आ√कृप् (सामर्थ्य)+णिच्+घञ्] १. वेश-भूषा। २. सज्जित होने या सज्जित करने की क्रिया या भाव। ३. अस्वस्थता।
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आकल्पक  : पुं० [सं० आ√कृप्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अँधकार। २. मोह। ३. उत्कंठा। ४. हर्ष। ५. मूर्च्छा। ६. गाँठ। ७. दुःखमय स्मृति।
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आकल्प  : पुं० [सं० आकल+यत्] बीमारी। रोग।
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आकल्लक  : पुं० [सं० ] अकरकरा नामक पौधा।
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आकष  : पुं० [सं० आ√कष् (कसना)+अच्] कसौटी।
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आकमात्  : अव्य=आकस्मात्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकस्मिक  : वि० [सं० अकस्मात्+ष्ठक्-इक] अकस्मात् अर्थात् अप्रत्याशित रूप से या एकाएक घटित होनेवाला। अचानक सामने आने या होनेवाला।
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आकस्मिक छुट्टी  : स्त्री [सं० +हिं० ] वह छुट्टी जो यों ही या अचानक कोई काम पड़ने पर ली जाए। (कैजुअल लीव)
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आकम्मिकता  : स्त्री० [सं० आकस्मिक+तल्-टाप्] आकस्मिक रूप से या अचानक घटित होने का भाव।
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आकस्मिकतावाद  : पुं० [सं० ष० त०] दर्शन शास्त्र का एक सिद्धांत जो यह प्रतिपादित करता है कि संसार में जो कुछ होता है वह सब अप्रत्यशित रूप से, अचानक तथा आप से होता है। (ऐक्सीडेन्टलिज्म)
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आकस्मिक-निधि  : स्त्री० [कर्म० स०] किसी संस्था या राज्य की वह सुरक्षित निधि जो किसी भावी आकस्मिक विपत्ति या संकट की स्थिति के निवारण के लिए बचाकर रखी गयी हो।
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आकस्मिकी  : स्त्री० [सं० आकस्मिक+ङीष्] अचानक घटित होनेवाली घटना या बात (कैजुएलिटी)
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आकांक्षक  : वि० [सं० आ√कृङ्क्ष् (चाहना)+ण्वुल्-अक] आकांक्षा करने या चाहनेवाला।
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आकांक्षित  : भू० कृ० [सं० आ√कृङ्क्ष्+क्त] (बात या विषय) जिसके लिए आकांक्षा की गई हो।
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आकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० आ√काङ्क्ष्+णिनि] [स्त्री० आकांक्षिणी] जिसे किसी बात की आकांक्षा हो। आकांक्षा करने या रखनेवाला।
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आका  : पुं० [सं० आकाय] १. कौड़ा। अलाव। २. भट्ठी। ३. आँवाँ। पंजावा। पुं० [तु० आका] मालिक। स्वामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकाय  : पुं० [सं० आ√चि (चयन करना)+घञ्, कुत्व] १. चिता की आग। २. चिता। ३. निवास-स्थान।
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आकार  : पुं० [सं० आ√कृ (करना)+घञ्] १. पुकारना। बुलाना। २. बाहरी रेखाओं का वह विन्सास जिससे किसी पदार्थ विषय या व्यक्ति के रूप का ज्ञान या परिचय होता है। आकृति। शकल। मुहावरा—आकार दिखाना=चित्रकला में, रेखन के द्वारा पदार्थों या मनुष्यों का आकार मात्र दिखानेवाली रेखाएँ अंकित करना। ३. आकृति या चेहरे का ऐसा रंग-ढंग जिसमें मन का कोई भाव या विचार प्रकट होता हो। जैसे—आकार-गुप्ति-मन के भाव छिपाना। ४. आजकल मुख्य रूप से किसी वस्तु या व्यक्ति की लंबाई-चौड़ाई, ऊँचाई आदि जो उसके छोटे-बड़े, मँझोले आदि होने की सूचक होती हैं। (साइज) जैसे—इस बार यह पुस्तक बड़े आकार मे छपेगी। ५. [आ+कार] आ की मात्रा या वर्ण।
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आकारक  : पुं० [सं० आ√कृ+णिचि+ण्वुल्-अक] न्यायालय का वह पत्र जिसमें किसी को सात्री आदि देने के लिए न्यायालय में उपस्थित होने के लिए कहा जाता है। (सम्मन साइटेशन)
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आकारण  : पुं० [सं० आ√कृ+णिच्+ल्युट्-अन] किसी को अपने पास बुलाना।
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आकार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘रूपक’। (फार्म)।
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आकार-रेखन  : पुं० [सं० आकार-लेखन] चित्रों आदि में पदार्थों या मनुष्यों का आकार मात्र दिखाने के लिए रेखाएँ बनाना। (स्केचिंग)
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आकार-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘रूप-रेखा’।
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आकारवान् (वत्)  : वि० [सं० आकार+मतुप्, वत्व] १. जिसका कोई आकार या रूप हो। साकार। २. अच्छे या बड़े आकार या डीलडौल वाला।
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आकारांत  : वि० [सं० आकार-अन्त, ब० स०] (शब्द) जिसके अंत में आ हो।
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आकरिका  : स्त्री० [सं० आ√कृ+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] दे० ‘रूप विधान’।
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आकारित  : भू० कृ० [सं० आ√कृ+णिच्+क्त] जिसे कोई आकार या रूप दिया गया हो। किसी आकार में लाया हुआ।
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आकारी  : वि० [सं० आकार+हिं० ई(प्रत्यय)] आकारवाला। आकति या शक्लवाला।
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आकारीठ  : पुं० [सं० आकारण-बुलाना] लड़ाई। युद्ध। (डिं०)।
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आकाल  : पुं० [सं० प्रा०स०] १. उपयुक्त या ठीक समय। २. [आकाल+अण्] अनुपयुक्त या बुरा समय।
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आकालिक  : वि० [सं० अकाल+ठञ्-इक] अपने ठीक समय से पहले या पीछे होनेवाला।
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आकालिकी  : स्त्री० [सं० आकालिक+ङीष्] बिजली।
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आकाश  : पुं० [सं० आ√काश् (चमकना)+घञ्] १. शब्द, गुण से युक्त वह शून्य अनंत अवकाश जिसमें विश्व के सभी पदार्थ (सूर्य, चंद्र, ग्रह, उपग्रह आदि) स्थित है और जो सब पदार्थों में व्याप्त है। २. खुले स्थान में ऊपर की ओर दिखाई देनेवाला नीला अपार स्थान। अंतरिक्ष। आसमान। मुहावरा—आकाश खुलना=आंकाश से बादलों का हटना। आकाछूना या चूमना— (क) बहुत ऊँचा या लंबा होना। (ख) बहुत लंबीश चौड़ी बाते करना। आकाश पाताल एक करना—पूरी शक्ति से कोई काम करना। कोई बात उठा न रखना। आकाश बाँधना—असंभव तथा अनोहनी बातें कहना। आकाश से बातें करना—बहुत ऊंचा होना। जैसे—उनका महल आकाश से बातें करता था। पद—आकाश कुसुम=(क) ऐसी बात या वस्तु जिसका कुछ भी अस्तित्व न हो। (ख) ऐसी वस्तु जिसकी प्राप्ति असंभव हो। आकाश पाताल का अंतर—बहुत बड़ा अंतर। आकाश पुष्प=आकाश कुसुम। ३. एक लचीला पारदर्शी तत्त्व जो उक्त खाली स्थान में व्याप्त माना जाता है और जिसमें से होकर सूर्य की किरणों, विद्युत तरंगों आदि का संचार होता है। व्योम। (ईथर) ४. ऐसा शून्य स्थान जिसमें वायु के अतिरिक्त और कुछ न हो। ५. छिद्र। ६. ब्रह्म। ७. अभ्रक। ८. रहस्य संप्रदाय में (क) अंतःकरण (ख) आत्मा (ग) परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग।
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आकाश-कक्षा  : स्त्री० [ष० त०] आकाश का उतना क्षेत्र, भाग या स्थान जहाँ तक सूर्य के प्रकाश की व्याप्ति होती है।
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आकाश-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. ब्रह्मांड में फैले हुए बहुत से छायापथों में से वह जो हमें रात के समय आकाश में उत्तर-दक्षिण फैला हुआ चमकीली चौड़ी पट्टी या सड़क के रूप में दिखाई देता है। हाथी की डहर। (मिल्कीवे) २. पुराणों के अनुसार स्वर्ग की नदी। मंदाकिनी।
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आकाशचारी (रिन्)  : वि० [सं० आकाश√चर् (गति)+णिनि] [स्त्री० आकाशचारिणी] आकाश में गमन करने या विचरनेवाला। आकाशगामी। पुं० १. सूर्य, चंद्र, ग्रह नक्षत्र आदि जो आकाश में चक्कर लगाते रहते है। २. वायु। ३. पक्षी। ४. देवता। ५. भूत-प्रेत, राक्षस आदि।
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आकाश-चोटी  : स्त्री० [सं० आकाश+हिं० चोटी]=शीर्षबिन्दु।
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आकश-जल  : पुं० [मध्य० स०] १. आकाश में बरसनेवाला जल। वर्षा का पानी। २. ओस।
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आकाश-दीआ  : पुं०=आकाश दीप।
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आकाश-दीप  : पुं० [मध्य० स०] १. बहुत अधिक ऊँचाई पर जलनेवाला दीआ। २. कार्तिक मास में विष्णु और देवताओं के उद्देश्य से जलाया जानेवाला वह दीआ, जो ऊँचे बाँस के ऊपरी सिरे पर बँधा रहता है।
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आकाश-धुरी  : स्त्री० [सं० आकाश-धुरी] आकाश ध्रुव।
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आकाश-ध्रुव  : पुं० [मध्य० स०] ज्योतिष में खगोल का ध्रुव।
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आकाश-नदी  : स्त्री० [मध्य० स०]=आकाश गंगा।
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आकाश-नीम  : स्त्री० [सं० आकाश+हिं० नीम] नीम के पेड़ पर होने वाली एक प्राकर का वनस्पति। नीम का बाँदा।
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आकाश-फल  : पुं० [ष० त०] संतान। संतति।
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आकाश-बेल  : स्त्री० [सं० आकाश+हिं० बेल] दे० ‘अमर बेल’।
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आकाश-भाषित  : पुं० [स० त०] नाटक के अभिनय में, किसी पात्र का आकाश की ओर देखकर इस प्रकार कोई बात कहना कि मानों कि वह ऊपर के किसी प्रश्नकर्ता के प्रश्न का उत्तर दे रहा हो।
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आकाश-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] हठ-योग में सहस्रार चक्र का एक नाम।
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आकाश-मुखी  : वि० [सं० आकाश-मुख] जिसका मुँख आकाश की ओर हो। पुं० एक प्रकार के साधु जो आकाश की ओर मुँह करके तपस्या करते है।
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आकाश-मूली  : स्त्री० [सं० आकाश-मूल, ब० स० ङीष्]=जलकुंभी।
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आकाश-यान  : पुं० [मध्य० स०] वायुयान। (दे०)।
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आकाश-लोचन  : पुं० [स० त०]=वेधशाला। (दे०)।
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आकाश-वाणी  : स्त्री० [मध्य०स०] १. वह कथन या बात जो किसी देवता या ईश्वर की ओर से कही हुई तथा आकाश से सुनाई पड़नेवाली मानी जाती है। २. रेडियों-यंत्र की सहायता से विद्युत-तरंगों के द्वारा दूर-दूर तक प्रसारित की जानेवाली ध्वनियाँ (संगीत, समाचार वार्ताएँ आदि) ३. वह भवन या स्थान जहाँ से विद्युत तरंगों द्वारा संगीत, समाचार, वार्ताएँ आदि प्रसारित की जाती है। प्रसारण ग्रह। (ब्राडकास्टिंग हाउस) जैसे—आकाश-वाणी पटना या लखनऊ।
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आकाश-वृत्ति  : स्त्री० [मध्य० स०] ऐसी वृत्ति या जीविका जिसका कुछ भी निश्चय या ठिकाना न हो। अनिश्चित वृत्ति। जैसे—दान, भिक्षा आदि।
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आकाश-वृत्तिक  : पुं० [ब० स० कप्] वह जो केवल आकाश वृत्ति के सहारे जीवन बिताता हो।
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आकाश-स्फटिक  : पुं० [मध्य० स०] १. एक प्रकार का पत्थर जो आकाश में निर्मित माना जाता है। २. ओला।
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आकाशी  : स्त्री० [सं० आकाश+ई (प्रत्यय)] १. धूप आदि से बचने के लिए ताना जानेवाला चँदोआ। २. ताड़ी। वि०=आकाशीय।
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आकाशीय  : वि० [सं० आकाश+छ-ईय] १. आकाश में होनेवाला। आकाशी संबंधी। २. जो आकाश में स्थित हो। ३. दैवी।
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आकिलं  : वि० [सं० आकिल]=अक्लमंद (बुद्धिमान्)।
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आकिलखानी  : पुं० [सं० आकिलखाँ (नाम)] कालापन लिए हुए एक प्रकार का लालरंग। कत्थई रंग।
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आकीर्ण  : वि० [सं० आ√कृ (छितराना)+क्त] १. छितराया या बिखेरा हुआ। २. भरा हुआ। व्याप्त। पुं० भीड़।
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आकुंचन  : पुं० [सं० आ√कुञ्च्(सिकुड़ना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आकुंचित] १. विस्तार में कमी होना। सिकुड़ना। सिमटना। (कन्ट्रैक्शन) २. सिकुड़ने से विस्तार में होनेवाली कमी। (श्रिंकेज) ३. वैशेषिक मत के अनुसार पाँच प्रकार के कर्मों में से एक कर्म।
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आकुंचित  : भू० कृ० [सं० आ√कुञ्च्+क्त] १. सिकुड़ा हुआ। २. जिसमें सिकुड़न पड़ी हो।
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आकुंठन  : पुं० [सं० आ√कुण्ठ् (कुंद होना)+ल्युट्-अन] १. कुंद होने की अवस्था या भाव। २. लज्जा।
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आकुंठित  : भू० कृ० [सं० आ√कुण्ठ+क्त] १. जो तीखा या धारदार न हो। २. जो तेज न हो। मंद। जैसे—आकुंठित बुद्धि। ३. लज्जित।
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आकुल  : वि० [सं० आ√कुल् (बाँधना, इकट्ठाहोना)+क] [भाव० आकुलता] १. जो किसी काम या बात के लिए बहुत ही उत्सुक, चितिंत या व्यग्र हो। उद्धिग्न। २. विह्वल। कतार। ३. अव्यवस्थित। ४. भरा हुआ। व्याप्त। ५. अस्पष्ट और संदिग्ध। पुं० १. खच्चर। २. बस्ती।
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आकुलता  : स्त्री० [सं० आकुल+तल्-टाप्] [भू० कृ० आकुलित] १. आकुल होने की अवस्था या भाव। घबराहट। २. व्याप्ति।
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आकुलि  : पुं० [सं० आ√कुल्+इनि] असुरों का एक प्रसिद्ध पुरोहित।
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आकुलित  : भू०कृ० [सं० आ√कुल+क्त] १. जो आकुल हुआ हो या किया गया हो। २. घबराया हुआ। ३. बेचैन। विकल। ४. व्याप्त।
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आकूजन  : पुं० [सं० आ√कूज् (शब्द)+ल्युट्-अन] १. पक्षियों का कूजना। २. गुनगुनाना।
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आकूत  : पुं० [सं० आ√कू (शब्द)+क्त] १. इच्छा। चाह। २. उद्देश्य। ३. प्रायोजन। ४. उत्तेजना। बढ़ावा। पुं० [सं० आकूति] उत्साह।
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आकूति  : पुं० [सं० आ√कू+क्तिन्] १. इच्छा। २. उद्देश्य। ३. प्रयोजन। ४. उत्साह। ५. सदाचार। ६. स्वायंभुव मनु की एक कन्या जो रुचि नामक प्रजापति को ब्याही गयी थी।
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आकूवारी  : पुं०=अकूपार समुद्र।
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आकृत  : भू० कृ० [सं० आ√कू (करना)+क्तिन्] १. जिसे कोई (आकार या रूप) दी गई हो या मिली हो। बना हुआ। २. क्रम से लगा या लगाया हुआ। व्यवस्थित।
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आकृति  : स्त्री० [सं० आ√कृ+क्तिन्] १. किसी वस्तु व्यक्ति या ढाँचे का निश्चित, स्पष्ट तथा स्थिर रूप जिससे उसकी पहचान होती है। २. उक्त के अनुसार किसी वस्तु या व्यक्ति का अंकित या चित्रित किया हुआ रूप। ३. ज्यामिति में केवल रेखाओं की सहायता से क्षेत्रों आदि के बनाये जानेवाले रूप। (फिगर उक्त सभी अर्थों मे) ४. भाव-भंगी प्रकट करनेवाली मुद्रा। ५. सवैया नामक छंद का एक प्रकार जिसमें मद्रक मंदारमाला मदिरा हंसी आदि कई भेद है।
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आकृति-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] मनुष्य की आकृति (उसके अंगों की गठन तथा मुद्रा) के आधार पर उसकी प्रवृत्ति, स्वभाव, गुण-दोष आदि बतलाने की विद्या। (फिसियोग्नाँमी)
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आकृष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√कृष्+क्तिन्] १. खिंचा या खींचा हुआ। २. जो किसी के गुण, रूप आदि पर मुग्ध या मोहित हुआ हो।
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आकृष्टि  : स्त्री० [सं० आ√कृष्+क्तिन्] १. आकृष्ट करने या अपनी ओर खींचने की क्रिया या भाव। ३. मुग्ध या मोहित होने का भाव।
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आकोप  : पुं० [प्रा०स०] थोड़ा या हलका कोप या क्रोध।
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आक्रंद  : पुं० [सं० आ√कंद्र(रोना)+घञ्] १. जोर से पुकारना या बुलाना। २. जोर का शब्द। घोष। ३. शोर। हल्ला। ४. विलाप करना। रोना। ५. इष्ट-मित्र और भाई-बन्धु। ६. घोर युद्ध। ७. ज्योतिष में, एक ग्रह का दूसरे ग्रह प्रबल होना। ८. प्राचीन भारतीय राजनीति में गुप्त रूप से प्रधान शत्रु की सहायता करनेवाला देश या राज्य।
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आक्रंदन  : पुं० [सं० आ√कंद+ल्युट्-अन] १. जोर से पुकारने बुलाने या चिल्लाने की क्रिया या भाव। २. रुदन। रोना।
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आक्रंदी (दिन्)  : वि० [सं० आ√कन्द+णिनि] १. रो-रो कर प्रार्थना करनेवाला। २. चीखने-चिल्लानेवाला।
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आक्रम  : पुं० [सं० आ√क्रम (चरण क्षेप)+घञ्] १. किसी की ओर जाना या पहुंचना। २. ऊपर की ओर जाना। ३. धावा करना। ४. अधिक भार लादना। ५. पराक्रम। वीरता।
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आक्रमण  : पुं० [सं० आ√क्रम+ल्युट्-अन] [वि० आक्रमणीय, आक्रांत] १. किसी की ओर जाने अथवा किसी की सीमा का उल्लंघन करने की क्रिया या भाव। २. विपक्षी या शत्रु पर शस्त्रों से किया जानेवाला प्रहार। ३. एक राज्य का दूसरे राज्य को दबाने या हड़पने के लिए उसकी सीमा का बलपूर्वक उल्लंघन। ४. किसी के आचरण कार्य विचार या सिद्धांत पर किया जानेवाला निंदात्मक आक्षेप। (अटैक, अंतिम तीनो अर्थों के लिए)
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आक्रमित  : भू० कृ० [सं० आक्रांत] [स्त्री० आक्रमिता] जिस पर आक्रमण किया गया हो या हुआ हो। आक्रांत।
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आक्रमिता  : स्त्री० [सं० आक्रांत] साहित्य में केशव के अनुसार प्रौढ़ा नायिका जो मन, वचन और कर्म से अपने पति या प्रेमी को अपने वश में करने का प्रयत्न करती है। (देव ने इसी को आक्रांता कहा है)
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आक्रय  : पुं० [सं० आ√क्री (खरीदना)+अच्] क्रय करना। खरीदना।
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आक्रस्स  : पुं०=आक्रोश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आक्रांत  : भू० कृ० [सं० आ√क्रम+क्त] १. जिसपर आक्रमण हुआ हो। २. जो किसी की अधीनता में हो। वशीभूत। ३. व्याप्त।
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आक्रांता  : स्त्री० दे० आक्रमिता।
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आक्रांति  : स्त्री० [सं० आ√क्रम+क्तिन्] १. आक्रांत करने या होने की अवस्था या भाव। २. किसी को दबाकर उसे अपने अधीन करना। ३. ऊपर चढ़ना। आरोहण।
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आक्रामक  : वि० [सं० आ√क्रम+ण्वुल्-अक] आक्रमण करनेवाला।
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आक्रीड़  : पुं० [सं० आ√क्रीड़ (खेल करना)+घञ्] खेलने का मैदान। क्रीड़ा-स्थल। २. विहार-स्थल। ३. बगीचा। वि० क्रीड़ा करनेवाला। खेलाड़ी।
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आक्रीडन  : पुं० [सं० आ√क्रीड्+ल्युट्-अन] क्रीड़ा करना। खेलना।
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आक्रीडी (डिन्)  : वि० [सं० आ√क्रीड़+घिनुण्] [स्त्री० आक्रीडिनी] १. क्रीड़ा करनेवाला। खेलाड़ी।
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आक्रुष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√क्रुश+(कोसना)+क्त] =आक्रोशित।
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आक्रोश  : पुं० [सं० आ√क्रुश्+घञ्] १. क्रोधपूर्वक कठोर कर्कश स्वर में की जानेवाली भर्त्सना। २. गालियाँ देते हुए कोसना, भला-बुरा कहना या शाप देना। ३. चीख-पुकार। चिल्लाहट। ४. कसम। शपथ।
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आक्रोशक  : पुं० [सं० आ√क्रुश्+ण्वुल्-अक] आक्रोश करने या बिगड़कर भला-बुरा कहनेवाला।
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आक्रोशन  : पुं० [सं० आ√क्रुश्+ल्युट्-अन] आक्रोश करने (कोसने या शाप देने) की क्रिया या भाव।
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आक्रोशित  : भू० कृ० [सं० आक्रोश+इतच्] जिसपर आक्रोश किया गया हो। जिसे गालियाँ या शाप मिला हो।
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आक्रोष्टा  : (ष्टु) वि० [सं० आ√क्रुश्+तृच्]-आक्रोशक।
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आक्लांत  : वि० [सं० आ√क्लम (ग्लानि)+क्त] १. भीगा हुआ। तर। २. लथ-पथ। सना हुआ। जैसे—रुधिराक्लांत।
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आक्लिन्न  : वि० [सं० आ√क्विद्+घञ्] तर या नम होना। भीगना।
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आक्ष  : वि० [सं० अक्ष+अण्] अक्ष संबंधी। (सभी अर्थों में)।
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आक्षपाद  : वि० [सं० अक्षपाद+अण्] अक्षपाद संबंधी अक्षरपाद का। पुं० १. न्याय शास्त्र। २. न्याय-शास्त्र का ज्ञाता। नैयायिक।
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आक्षिक  : वि० [सं० अक्षि+ठक्-इक] १. अक्षृ-संबंधी। आक्ष। २. पासा या शतरंज खेलनेवाला। पुं० १. जुए में लगाया जानेवाला दाँव या धन। २. आल का वृक्ष।
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आक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० आ√क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. जिसका आक्षेपण हुआ हो। फेका या हटाया हुआ। २. जिसपर आक्षेप किया गया हो। ३. घबराया हुआ। व्याकुल। ४. लगा हुआ। युक्त।
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आक्षीरी (रिन्)  : वि [सं० आ√क्षिप्, प्रा० स०+इनि] (पेड़ या पौधा) जिसके डंठल तने या पत्ते में से दूध जैसा गाढ़ा तरल पदार्थ निकलता हो। (लैटिसिफेरस)।
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आक्षेप  : पुं० [सं० आ√क्षिप्+घञ्] [कर्ता आक्षेपक] १. दूर हटाना या फेकना। २. किसी के ऊपर कुछ गिरना या गिराना। ३. किसी के आचरण, कथन या कार्य के संबंध में कही जानेवाली कोई ऐसी अप्रिय कटु या कठोर बात जिससे वह कुछ दोषी सिद्ध हो या मन में लज्जित हो। व्यंग्यपूर्ण दोषारोपण। ४. साहित्य में, एक अर्थालंकार जिसमें पहले कोई बात कहकर फिर अपवाद रूप में उसका प्रतिषेध किया जाता है। (पैरालैप्सिस) जैसे—(क) जदपि कवित रस एकौ नाँही। राम-प्रताप प्रकट एहिं मांही। (ख) उपकार तो दुर्जनों का भी करना चाहिए, पर होता है वह ऊपर में बीज बोने के ही समान। ५. एक बात रोग जिसमें हाथ पैर रह-रहकर ऐंठतें और काँपते हैं। (कन्वल्शन)
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आक्षेपक  : वि० [सं० आ√क्षिप्+ण्वुल्-अक] १. गिराने फेकने या दूर हटानेवाला। २. आक्षेप या व्यंग्यपूर्ण आपत्ति करनेवाला। पुं० आक्षेप नामक वात रोग।
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आक्षेपण  : पुं० [सं० आ√क्षिप्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आक्षिप्त] १. गिराना, दूर हटाना या फेकना। २. व्यग्यपूर्ण आपत्ति या आक्षेप करना।
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आक्षेपी (पिन्)  : वि० [सं० आ√क्षिप्+णिनि]=आक्षेपक।
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आक्षोट  : पुं० [सं० आ√अक्ष्(व्याप्ति)+ओट] अखरोट (पेड़ और फल)।
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