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शब्द का अर्थ

आर्मी  : अव्य० [अ०आमीन] =आमीन।
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आरंभ  : पुं० [सं० आ√रभ् (शब्द)+घञ्,मुम्] १. किसी काम में हाथ लगाना। शुरू करना। (कमन्समेण्ट) २. वह अवस्था जिसमें कोई कार्य पहले या शुरू होने के समय रहता है। आदि का अंश या भाग। (बिंगनिंग) ३. किसी चीज या बात की उत्पत्ति या उसका स्थान। ४. ठाट-बाट। शान शौकत। ५. परिश्रम। ६. व्यायाम।
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आरंभक  : वि० [सं० आ√रभ्+ण्वुल्-अक, मुम्] आरंभ या शुरू करनेवाला।
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आरंभण  : पुं० [सं० आ√रभ्+ल्युट्-अन, मुम्] [भू० कृ० अरंभित आरब्ध] १. आरंभ करने या आरंभ होने की क्रिया या भाव। २. अपने अधिकार या कब्जे में करना।
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आरंभतः  : अव्य० [सं० आरंभ+तस्] १. आरंभ या शुरू से। २. बिलकुल नये सिरे से।
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आरंभनाद  : अ० [सं० आरंभण] आरंभ या शुरू होना। स० कोई काम आरंभ या शुरू करना। काम में हाथ लगाना।
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आरंभवाद  : पुं० [सं० ष० त०] न्यायशास्त्र का एक सिद्धांत जिसके अनुसार सृष्टि का आरंभ और रचना ईश्वर की इच्छा से परमाणुओं के योग से हुई है।
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आरंभ-शूर  : पुं० [सं० त०] [भाव आरंभ शूरता] वह जो किसी कार्य के केवल आरंभ में बहुत अधिक उत्साह या तत्परता दिखलाता हो और कुछ समय बाद उदासीन या शिथिल हो जाता हो।
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आरंभिक  : वि० [सं० आरंभ+ठक्-इक] १. आरंभ से संबंध रखनेवाला। पहले का। २. कोई काम करने से पहले उसकी तैयारी, व्यवस्था आदि से संबंध रखनेवाला। ३. बिलकुल आरंभ की अवस्था में होनेवाला। (एलिमेन्टरी)
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आरंभी (मिन्)  : वि० [सं० आरंभ+इनि] १. आरंभ करनेवाला। २. नये सिरे या ढंग से और विशेष उत्साहपूर्वक कोई जोखिम का नया काम करने या योजना चलानेवाला। (एन्टरप्राइजिंग)
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आर  : पुं० [सं० आ√ऋ<(गति)+घञ्] १. खान से निकाला हुआ वह लोहा जो अभी साफ या शुद्ध न किया गया हो। २. पीतल। ३. हरताल। ४. पहिए का आरा। ५. लोहे की पतली कील जो साँटे में लगी रहती है। ६. मुर्गे के पंजे का ऊपर का काँटा। ७. चमड़ा छेदने या सीने की सुतारी। ८. वह कलछी जिससे ईख का रस निकालने है। पुं० [सं० अल्-डंक] बर्रें, बिच्छू आदि का डंक। स्त्री० [अ०] १. लज्जा। शर्म। २. वैर। शत्रुता। स्त्री० [हिं० आड़] जिद। हठ। मुहावरा—आर पड़ना=जिद या हट करना। पुं० [हिं० पारा का अनु०] १. इस ओर का किनारा। तट। जैसे—आर-पार। २. किनारा। सिरा।
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आरकत  : वि० =आरक्त।
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आरक्त  : वि० [सं० आ√रञ् (रँगना)+क्त] १. थोड़ा या हलका लाल। कुछ लाल। ३. लाल। पुं० लाल चंदन।
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आरक्ष  : पुं० [सं० आ√रक्ष् (बचाना)+घञ्] १. सँभालकर रखना। २. रक्षा करना। ३. गजकुंभ संधि। वि० [आ√रक्ष्+अच्] संभालकर या रक्षित रखे जाने के योग्य।
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आरक्षक  : वि० [सं० आ√रक्ष्+ण्वुल्-अक] १. रक्षा करनेवाला। बचानेवाला। २. अच्छी तरह से सँभालकर रखनेवाला। ३. दे० आरक्षिक। पुं० १. पहरेदार। प्रहरी। २. आरक्षिक बल का कोई कर्मचारी या सदस्य। आरक्षी।
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आरक्षा  : स्त्री० [सं० आ√रक्ष्+अङ्-टाप्] अच्छी तरह की जानेवाली रक्षा।
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आरक्षिक  : वि० [सं० आरक्षा+ठक्-इक] आरक्षक या आरक्षा से संबध रखने या उसके क्षेत्र में होनेवाला। जैसे—आरक्षिक बल, आरक्षिक कार्य आदि। पुं० -आरक्षक।
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आरक्षिक कार्य  : पुं० [ष० त०] राजकीय व्यवस्था, शासन आदि के क्षेत्र में ऐसी कार्यवाही या कार्य जो अराजकता, अव्यवस्था, उपद्रव आदि शांति कराने के उद्देश्य से (सैनिक बल की सहायता से) किये जाएँ। (पुलिस एक्शन) जैसे—हैदराबाद राज्य में भारत सरकार को आरक्षित कार्य करना पड़ा था।
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आरक्षिक-कारवाई  : स्त्री० =आरक्षिक कार्य।
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आरक्षिक-बल  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य शासन की वह शक्ति जो स्वतंत्र विभाग के रूप में रहकर देश तथा समाज में नियम-पालन शांति, स्थापन आदि की व्यवस्था करती और अपराधियों, अभियुक्तों आदि को विचारार्थ न्यायालय के सामने उपस्थित करती है। (पुलिस फोर्स)
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आरक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० आरक्ष+इनि]—आरक्षिक।
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आरख  : स्त्री० =आयुष्प। (राज।)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आरग्वध  : पुं० [सं० आ√रग् (शंका)+क्विप्, आरग√हन्(हिंसा)+अच्, वधोदेश] अमलतास।
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आरचित  : भू० कृ० [सं० आ√रच्(रचना करना)+क्त] बनाया हुआ। रचित।
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आरज  : पुं० =आर्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरजा  : पुं० [अ० आरिजः] बीमारी। रोग।
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आरजी  : वि० [अ० अराजी] १. जो वास्तविक या सैद्धांतिक न हो। आरोपित या कल्पित। २. अस्थायी।
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आरजू  : स्त्री० [फा० आरजू] १. अभिलाषा। कामना। मुहावरा—आरजू निकालना या मिटाना=इच्छा पूरी करना। २. प्रार्थना। आरजू। विनती।
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आरट  : वि० [सं० आ√रट् (रटना)+अच्] चिल्लाने या शोर करनेवाला। पुं० -विदूषक।
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आरट्ठ  : पुं० [सं० आ√रट्+ठच्] १. उत्तर-पूर्व पंजाब का एक प्राचीन जनपद। २. वहाँ का निवासी। ३. उक्त प्रदेश का घोडा।
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आरण  : पुं० अरण्य। (जंगल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरणि  : पुं० [सं० आ√ऋ (गति)+अनि] १. आवर्त्त। भँवर। स्त्री० [सं० आर-लोह] लोहे का घन। उदाहरण—रूकमइयों पेखि तपत आरणि रणि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आरण्य  : वि० [सं० अरण्य+ण] अरण्य या वन से संबंध रखने या उसमें होनेवाला। जंगली।
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आरण्यक  : वि० [सं० अरण्य+वुञ्-अक] १. अरण्य या वन से संबंध रखनेवाला। २. वन में उत्पन्न या वन में रहनेवाला। जंगली। वन्य। पुं० १. वन का निवासी। २. वेदों का वह अंश या भाग जिसमें वानप्रस्थ आश्रम से संबंध रखनेवाली बातों का विवेचन होता है, और जिनका अध्ययन-अध्यापन वनों में ही होता था।
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आरत  : वि० [सं० ] १. जिसका अंत हो चुका हो। २. शांत। ३. सुशील। ४. (मुद्रा या सिक्का) जिसपर ठप्पे से कोई चिन्ह आदि अंकित हो, उसे चलानेवाले का नाम या समय अंकित न हो। (पंचमार्कड्) वि० =आर्त्त।
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आरति  : स्त्री० [सं० आ-रम् (क्रीड़ा)+र्क्त्ति] विरक्ति। स्त्री० १. आरती। २. =आर्त्ति।
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आरभट  : वि०=आर्त्त। (दुःखी)।
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आरती  : स्त्री० [सं० आरात्रिका] १. देव-पूजन अथवा परम आदरणीय या आराध्य व्यक्ति के स्वागत के समय घी का दिया, कपूर या धूप आदि जलाकर बार-बार घुमाते हुए सामने रखना। नीराजन। मुहावरा—आरती उतारना या करना=घी का दिया कपूर आदि जलाकर बार-बार देवता के मुख तथा अन्य अंगों के सामने भक्तिपूर्वक घुमाना। आरती लेना-आरती कर चुकने के बाद उसकी लौ पर दोनों हथलियाँ रखकर फिर उनसे अपनी आँखें और मुँह छूना। २. वह विशेष प्रकार का आधान या पात्र जिसमें उक्त क्रिया के लिए घी और रूई की बत्ती या बत्तियाँ रखी जाती है। ३. वह विशिष्ट स्त्रोत जो किसी देवता को आरती करने के समय पढ़ा जाता है।
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आरथ  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह गाड़ी या रथ जिसमें एक घोड़ा या बैल जुतता है।
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आरन  : पुं० =अरण्य। उदाहरण— कीन्हेंसि साउज आरन रहही।—जायसी।
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आर-पार  : पुं० [सं० आर-किनारा या कोना+सं० पार] १. किसी दलदार या मोटी चीज का इस ओर का तल और दूसरी ओर का तल। जैसे—शीशे का आर-पार। २. किसी विस्तार वाली चीज का इधर का किनारा या सिरा और उधर या दूसरी तरफ का किनारा या सिरा। जैसे—झील या नदी का आर-पार। अव्य० इधरवाले तल या सिरे से उधर वाले तल या सिरे तक। इस ओर से उस ओर तक। जैसे—शीशे के आर-पार दिखाई देना, तीर का शरीर के आर-पार होना आदि।
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आरबला  : स्त्री० =आयुर्बल।
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आरब्ध  : भू० कृ० [सं० आ√रभ् (उत्सुक होना)+क्त] जिसका आरंभ हो चुका हो या किया जा चुका हो। शुरू किया हुआ।
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आरब्धि  : स्त्री० [सं० आ√रभ्+क्तिन्] आरंभ। शुरू।
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आरभट  : पुं० [सं० आ√रभ्+अट] १. वह जो साहसपूर्वक जोखिम से कार्य करता हो। २. नाटक में वीरतापूर्ण और साहस के कामों का अभिनय। ३. साहस।
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आरभटी  : स्त्री० [सं० आ√रभ्+अटि-हीष्] १. दृढ़ता, साहस आदि की मनोवृत्ति। २. दुःखात्मक मनोविकारों का तीव्र वेग। ३. बल-वैभव आदि का अभिमान या गर्वपूर्वक किया जानेवाला उनका प्रदर्शन। उदाहरण—झूठों मन, झूठी यह काया, झठी आरभटी।—सूर। ४. साहित्य में एक प्रकार की वृत्ति या शैली जिसमें यमक का अधिक प्रयोग होता है जो भयानक, रौद्र, वीभत्स आदि रसों के लिए प्रयुक्त कई गयी है।
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आरमण  : पुं० [सं० आ√रभ् (क्रीड़ा)+ल्युट्-अन] १. रमण करना। २. भोग से प्राप्त होनेवाला सुख। इंद्रिय-सुख। ३. आनन्द, मोद या सुख। ४. रमणीय स्थान।
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आरव  : पुं० [सं० आ√रु (शब्द)+अप्] जोरों का शब्द। नाद।
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आरषी  : वि० =आर्ष।
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आरस  : पुं० -आलस्य। स्त्री० =आरसी।
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आरसा  : पुं० [हिं० रस्सा] १. मोटा तथा लंबा रस्सा। २. रस्से या रस्सी में लगी हुई गांठ या मुद्धी।
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आरसी  : स्त्री० [सं० आदर्श, प्रा० आरिस] १. दर्पण। शीशा। आइना। २. हाथ के अँगूठें में पहनने की वह अँगूठी जिसमें शीशा जड़ा होता है।
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आरस्य  : पुं० [सं० अरस+ष्यञ्] अ-रस या रस-हीन होने की अवस्था या भाव। अ-रसता। नीरसता।
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आरा  : पुं० [सं० आ√ऋ(गति)+अच्-टाप्] [स्त्री० अल्प० आरी] १. लोहे की वह दाँतीदार पट्टी जिससे लकड़ी, लोहा आदि से चीरते है। २. चमड़ा सीने का सूजा। ३. लकड़ी की वह पट्टियाँ जो पहिए की बीच की गड़ारी या उसके बाहरी चक्कर तक जडी होती है। ४. लकड़ी की कड़ी या पत्थर की पटरी जिसे दीवार पर रखकर उसके ऊपर घोड़ियां या टाँटा बैठाते हैं। दीवार-दासा। प्रत्यय-[फा०] (यौगिक शब्दों के अंत में) जिसके रहने से किसी की शोभा बढ़े। सुशोभित करनेवाला। जैसे—जहाँ आरा।
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आराइश  : स्त्री० [फा०] सजावट।
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आराइशी  : वि० [फा०] आराइश या सजावट के काम में आनेवाला।
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आराकस  : पुं० [फा०] वह जो आरे से लकड़ी, लोहा आदि चीरता हो। आरा चलानेवाला।
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आराज  : पुं० =अराजकता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आराज़ी  : स्त्री० [अ०] १. भूमि। जमीन। २. कृषि के योग्य भूमि। खेत।
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आराण  : पुं० [सं० रण] युद्ध। (डि०) उदाहरण—अरि देखें आराण में, तृण मुख माँझल त्याँह।—बाँकीदास।
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आरात  : अव्य० [सं० आरात्] निकट। पास। उदाहरण—अंबिकालय नयर आरात।—प्रिथीराज।
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आराति  : पुं० [सं० आ√रा(देना)+क्तिच्] वैरी। शत्रु।
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आरात्रिक  : पुं० [सं० अरात्रि+ठञ्-इक] १. आरती करनेवाला व्यक्ति। २. आरती के लिए धूप, दीप आदि ऱखने का आधान या पात्र।
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आराधक  : वि० [सं० आ√राध् (उपासना करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० आराधिका] आराधना करनेवाला।
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आराधन  : पुं० [सं० आ√राध्+ल्युट्-अन] [वि० आराधक, आराधित, आराधनीय, आराध्य] आराधना करने की क्रिया या भाव।
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आराधना  : स्त्री० [सं० आ√राध्+णिच्+मुच्-अन-टाप्] देवी, देवता आदि को संतुष्ट तथा अपने अनुकूल करने के लिए की जानेवाली उनकी उपासना या पूजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आराधनीय  : वि० [सं० आ√राध्+णिच्+अनीयर] जिसकी आराधना करना इष्ट तथा उचित हो।
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आराधित  : भू० कृ० [सं० आ√राध्+णिच्+क्त] [स्त्री० आराधिता] जिसकी आराधना की गई हो।
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आराध्य  : वि० [सं० आ√राध्+णिच्+यत्] [स्त्री० आराध्या] जिसकी आराधना की जाती हो। पूजनीय। पूज्य।
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आराम  : पुं० [सं० आ√रम् (क्रीड़ा)+घञ्] उपवन। वाटिका। बगीचा। पुं० [फा०] १. ऐसी स्थिति जिसमें शांति, संतोष तथा सुख हो। जैसे—हम यहाँ आराम से हैं। मुहावरा—आराम से-धीरे-धीरे। जैसे—काम आराम से होता रहेगा। २. रोग में कमी होने या रोग दूर हो जाने की अवस्था। जैसे—आजकल उन्हें पहले से आराम है। वि० जिसका रोग कम हो गया हो या दूर हो गया हो। जैसे—वह जल्दी ही आराम हो जायँगे।
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आराम-कुर्सी  : स्त्री० [फा०] एक प्रकार की लंबी कुर्सी जिसमें सहारा लगाकर लेटने तथा दोनों ओर हाथ रखने के लिए लंबी पटरियाँ होती है। सुखासन। (ईजी चेअर।
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आराम-गाह  : स्त्री० [फा०] सोने की जगह। शयनागर।
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आराम-तलब  : वि० [फा०] [भाव० आराम० तलबी] १. सुख चाहनेवाला। २. सुकुमार। ३. आलसी।
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आराम-तलबी  : स्त्री० [फा०] आराम तलब होने की अवस्था या भाव।
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आराम-दान  : पुं० [फा०आराम+दान] १. पायदान। २. सिंगारदान।
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आराम-पाई  : स्त्री० [फा०आराम+हिं० पाय] एक प्रकार का हलका जूता।
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आरालिक  : पुं० [सं० अराल+ठक्-इक] [स्त्री० आरालिका] रसोई या भोजन पकानेवाला। पाचक। रसोइया।
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आरास्ता  : वि० [फा० आरास्तः] सजा या सजाया हुआ। सुसज्जित।
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आरि  : स्त्री० [सं० अल् या आर ? हिं० अड़ का पुराना रूप] जिद। टेक। हठ। उदाहरण—(क) कबहूँ सस माँगत आरि करै। -तुलसी। (ख) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै। (दे० आर)। स्त्री० [?] झिल्ली या झीगुर नाम का कीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आरित्रिक  : वि० [सं० अरित्र+ष्ठञ्-इक] अरा से संबंध रखनेवाला अरा-संबंधी।
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आरिया  : स्त्री० [सं० आरू-ककड़ी] ककड़ी की तरह का एक प्रकार का फल। पुं०=आर्य-समाजी।
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आरी  : स्त्री० [हिं० आरा का स्त्री०अल्पा०] १. लकड़ी, लोहा आदि चीरने का एक प्रसिद्ध दाँतदार औजार। २. लोहे की वह कील जो बैल हाँकने के पैने की नोक में लगी रहती है। ३. चमड़ा सीने का सूजा। सुतारी। स्त्री० [देश] १. बबूल की जाती का एक पेड़। स्थूल-कंटक। २. दुर्गंध खैर। बबुरी। स्त्री० [सं० आर=किनारा] १. ओर। तरफ। २. किनारा। सिरा। ३. खेत की मेड़। उदाहरण— थोर जोताई बहुत हेगाई,ऊँचे बाँधै आरी।—घाघ। वि० [अ०] १. दीन। २. लाचार।
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आरुक  : वि० [सं० आरू+कन्] हानिकारक।पुं० १. हिमालय में होनेवाली आड़ नाम की जड़ी। २. आलू-बुखारा।
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आरुण  : वि० [सं० अरुण+अण्] अरुण-संबंधी।
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आरुणि  : पुं० [सं० अरूण+इञ्] १. अरुण के वंशज। २. सूर्य के यम पुत्र आदि। ३. उद्दालक ऋषि। पुं० [सं० अरि] वैरी। शत्रु। उदाहरण—लौहानो अज्जान जित्त आरुणि जसुन्यन्नौ।—चंदवरदाई।
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आरुण्य  : पुं० [सं० अरूण+ष्टञ्] अरुणता। लाली।
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आरूढ़  : वि० [सं० आ√रूह् (उत्पन्न होना)+क्त] [भाव० आरूढ़ता] १. किसी के ऊपर चढ़ा हुआ। २. (घोड़े पर) चढ़ा हुआ। सवार। ३. (प्रतिज्ञा वचन आदि पर) दृढ़ या स्थिर। ४. तत्पर। सनन्द्ध।
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आरूढ़-यौवना  : स्त्री० [ब० स०] साहित्य में चार प्रकार की मध्यमा नायिका में से एक जो पूर्ण रूप से युवती हो चुकी हो।
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आरूढ़ि  : स्त्री० [सं० आ√रुह्+क्तिन्] आरूढ़ होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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आरेक  : पुं० [सं० आ√रिच्(मिलाना, अलग करना)+घञ्] १. रिक्त या खाली करना। २. संदेह।
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आरेचन  : पुं० [सं० आ√रिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आरेचित] १. खाली करना या कराना। बाहर निकलना या निकालना। २. संकुचित करना या होना।
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आरेस  : स्त्री०-ईर्ष्या। उदाहरण—कबहुँ न कियहु सवति आरेसू।—तुलसी। पुं० -आलस्य।
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आरो  : पुं० [सं० आख] घोर शब्द। नाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरोग  : पुं० =आरोग्य।
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आरोगना  : स० [सं० आरोग्य] भोजन करना। खाना। (आदरार्थक)।
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आरोग्य  : पुं० [सं० अरोग+ष्यञ्] अरोग होने की अवस्था या भाव।
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आरोग्यता  : स्त्री० [सं० आरोग से] अरोग होने की अवस्था या भाव।
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आरोग्य-प्रमाणक  : पुं० [ष० त०] किसी व्यक्ति के संबंध का वह प्रमाणपत्र जो यह सूचित करता है कि अमुख व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से बिलकुल निरोग और स्वस्थ है। (हेल्थ सर्टिफिकेट)।
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आरोग्य-शाला  : स्त्री० [ष० त०] दे० स्वास्थ्य-निवास।
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आरोग्य-स्नान  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह स्नान जो बहुत दिनों का रोगी से मुक्त और स्वस्थ होने पर पहले पहल करता है।
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आरोध  : पुं० [सं० आ√रुध्(रोकना)+घञ्] १. अच्छी तरह से खड़ी की हुई बाधा या रूकावट।२. अवरोध। घेरा। ३. ऐसी आज्ञा या उसके अनुसार होनेवाली रूकावट जिसमें कोई माल कहीं भेजा या कहीं से मँगाया न जा सके। (एम्बार्गो)।
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आरोधना  : स० [सं० आ+रुंधन-छेकना] १. बाधा या रुकावट खड़ी करना। २. काँटों की बाढ़ लगाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरोप  : पुं० [सं० आ√रुह् (बीज उत्पन्न करना)+णिच्,पुक्+घञ्] [भू०कृ०आरोपित,वि० आपोप्य०कर्त्ता आरोपक] १. ऊपर से या कहीं से लाकर बैठाना या लगाना। जैसे—कही से कोई पेड़-पौधा लाकर उसका आरोप करना। २. साहित्य में किसी वस्तु में दूसरी वस्तु का गुण या धर्म लाकर लगाना या उसकी कल्पना करना। ३. किसी के संबंध में यह कहना कि अमुक अनुचित दंडनीय या नियम-विरुद्ध कार्य किया है। (एलिगेशन) मुहावरा—(किसी पर कोई) आरोप लगाना=(क) साधारण रूप में यह कहना कि इसने अमुक अनुचित काम किया है। (ख) विधिक क्षेत्र में, आरंभिक जाँच गवाही आदि के बाद न्यायालय का यह स्थिर करना कि अभियुक्त अमुक अपराध का कर्त्ता हो सकता है। दफा लगाना। ४. अधिकारपूर्वक किसी पर कोई कर या शुल्क नियत करना। (लेवी)।
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आरोपक  : वि, [सं० आ√रुह्+णिच्,पुक्+ण्वुल्-अक] १. आरोप करनेवाला। २. अभियोग या दोष लगानेवाला।
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आरोपण  : पुं० [सं० आ√रुह्+णिच्+पुक्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आरोपित, वि० आरोप्य] आरोप करने की क्रिया या भाव।
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आरोपना  : स० [सं० आरोपण] आरोप या आरोपण करना। लगाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरोप-फलक  : पुं० [ष० त०] वह फलक या लेख्य, जिसमें न्यायालय द्वारा किसी पर लगाये हुए आरोपों आदि का विवरण लिखा होता है। (चार्ज शीट)।
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आरोपित  : भू० कृ० [सं० आ√रुह्+णिच्, पुक्+क्त] १. जिसका आरोपण हुआ हो। स्थापित किया या लगाया हुआ। २. रोपा हुआ।
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आरोपी (पिन्)  : वि० [सं० आ√रुह्+णिच्, पुक्+णिनि]-आरोपक।
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आरोप्य  : वि० [सं० आ√रुह्+णिच्,पुक्+यत्] १. आरोप किये जाने के योग्य। जिसपर आरोप करना उचित या संगत हो। २. रोपे जाने के योग्य।
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आरोप्यमाण  : वि० [सं० आ√रुह्+णिच्, पुक्+यक्+शानच्] जिसमें किसी वस्तु या तत्त्व का आरोप किया जाए। जैसे—दूध ही मेरा जीवन है में दूध आरोप्यमाण और ‘जीवन’ आरोप्य है।
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आरोह  : पुं० [सं० आ√रुह्+घञ्] १. किसी के ऊपर आरूढ़ होना या चढ़ना। सवार होना। २. नीचे से क्रमात् ऊपर की ओर जाना या बढ़ना। चढ़ाव। ३. वेदांत में, जीवात्मा की उत्तरोत्तर होनेवाली उन्नति या ऊर्ध्व गति। क्रमशः उत्तमोत्तम योनियों की होनेवाली प्राप्ति। ४. दर्शन और विज्ञान में कारण से कार्य का आविर्भाव होना या किसी पदार्थ का आरंभिक या हीन अवस्था से बढ़कर उन्नत और विकसित अवस्था में पहुँचना। जैसे—बीज से अंकुर या अंकुर से वृक्ष बनना, अथवा अल्प, चेतना वाले जीवों क्रमात् प्राणियों की सृष्टि होना। ५. संगीत में, पहले नीचे वाले स्वरों का उच्चारण करते हुए उत्तरोत्तर ऊँचे स्वरो का उच्चारण करना। जैसे—सा,रे,ग,म,प,ध,नि, अथवा रे,ग,प,नि,सा। ६. ऐसा मार्ग जो क्रमशः ऊँचा होता गया हो। चढ़ाई। (एस्सेन्ट, सभी अर्थों के लिए)। ७. फलित ज्योतिष में ग्रहण लगने का एक विशिष्ट प्रकार का भेद। ८. प्राचीन भारत में पशुओं के वे चमड़े जो ऊपर ओढ़ें जाते थे। ९. चूतड़। नितंव।
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आरोहक  : वि० [सं० आ√रुह्+ण्वुल्-अक] आरोहण करने या चढ़ानेवाला।
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आरोहण  : पुं० [सं० आ√रुह्+ल्युट्-अन] [कर्त्ता आरोहक, भू० कृ० आरोहित] १. ऊपर की ओर जाना या बढ़ना। २. किसी के ऊपर चढ़ना या सवार होना। ३. चढ़ाई का मार्ग का रास्ता। ४. सीढ़ी।
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आरोहना  : अ० [सं० आरोहण] ऊपर चढ़ना। आरोहण करना। उदाहरण—दरसन लागि लोग अदनि आरो हैं।—तुलसी।
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आरोहित  : भू० कृ० [सं० आरोह+इतच्] १. जिसने आरोहण किया हो। चढ़ा हुआ। २. ऊपर गया या ऊपर की ओर बढ़ा हुआ।
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आरोही (हिन्)  : पुं० [सं० आ√रुह्+णिनि] [स्त्री०आरोहिणी] १. आरोहण करने या ऊपर चढ़नेवाला। (एसेंडिग)। २. वह जो किसी के ऊपर चढ़ा हो। सवार। ३. संगीत में, स्वर-साधन का वह भेद जिसमें पहले नीचे के स्वरो का उच्चारण करते हुए क्रमशः ऊँचे स्वरों का उच्चारण किया जाता है। इसका विपर्याय अवोरही है। जैसे—सा,रे,ग,म,प,ध,नि,सा।
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आरौ  : पुं० आरव (घोरशब्द)। उदाहरण—घुरघुरात हय आरौ पाए।—तुलसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आर्क  : वि० [सं० अर्क+अण्] अर्क (सूर्य मदार आदि) से संबंध रखने वाला। अर्क-संबंधी।
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आर्कि  : पुं० [सं० अर्क+इञ्] सूर्य के पुत्र, यथा-शनि, यम, कर्ण आदि।
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आर्गल  : पुं० [सं० अर्गल+अण्]-अर्गल।
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आर्घा  : स्त्री० [सं० आ√अर्ध् (मूल्य)+अच्-टाप्] पीले रंग की एक बड़ी मधु-मक्खी। सारंग।
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आर्ध्य  : पुं० [सं० आर्धा+यत्] १. आर्धा नामक मधु-मक्खियों का मधु। सारंग-मधु। २. एक प्रकार का महुआ जिसका गोंद सफेद होता है।
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आर्जव  : पुं० [सं० ऋजु+अण्] १. ऋजु होने की अवस्था, गुण या भाव। ऋजुता। साधापन। २. सरलता। सुगमता। ३. व्यवहार आदि की सरलता या साधुता। (स्ट्रेट-फार्वर्डनेस)
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आर्जुनि  : पुं० [सं० अर्जुन+इञ्] अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु।
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आर्त्त  : वि० [सं० आ√ऋ (गति)+क्त] [भाव० आर्ति, आर्त्तता] १. विपत्ति या संकट में पड़ा हुआ। २. जिसे आघात लगा या कष्ट पहुँचा हुआ हो। पीड़ित। ३. जो उक्त स्थिति में पड़कर विह्रल हो रहा हो और अपने छुटकारे के लिए सहायता चाहता हो। ४. जिससे विशेष दुःख या संकट प्रकट होता हो। जैसे—आर्त्त स्वर। ५.अस्वस्थ। रूग्ण। बीमार। ६.नश्वर। पुं० चार प्रकार के भक्तों में से एक जो संसार के कष्टों से परम दुःखी होकर भगवान की शरण में जाता है।
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आर्त्तता  : स्त्री० [सं० आर्त्त+तल्-टाप्] १. आर्त्त होने की अवस्था या भाव। २. कष्ट। दुःख।
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आर्त्तध्वनि  : स्त्री० [ष० त०] आर्त्त नाद।
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आर्त्तनाद  : पुं० [ष० त०] जोर का ऐसा नाद या शब्द जो घोर संकट में पड़े हुए व्यक्ति के मुहँ से निकलता है। परम दुखिया की दर्द भरी पुकार।
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आर्त्तभक्ति  : स्त्री० [ष० त०] गौणी भक्ति का भेद जिसमें भक्त कष्ट में पड़कर तथा उसे दूर करने के लिए आर्त्त-भाव से उपासना और प्रार्थना करता है।
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आर्त्तव  : वि० [सं० ऋतु+अण्] [स्त्री० आर्त्तवी ऋतु+अण्] १. ऋतु या मौसिम से संबंध रखनेवाला। २. किसी विशिष्ट ऋतु में उत्पन्न होनेवाला। मौसिमी। पुं० ऋतुमती स्त्रियों के मासिक धर्म के समय निकलनेवाला रज। पुष्प।
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आर्त्तव-दोष  : पुं० [कर्म० स०] स्त्रियों के मासिक धर्म की गड़बड़ी। ऋतु-दोष।
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आर्त्तवेयी  : स्त्री० [सं० ऋतु+ञक्-एय-ङीष्] ऋतुमती या रजस्वला स्त्री।
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आर्त्ति  : स्त्री० [सं० आ√ऋ+क्तिन्] १. आर्त्त होने की अवस्था या भाव। आर्त्तता। २. कष्ट। दुःख। ३. रुग्णता। बीमारी।
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आर्त्त्विज  : वि० [सं० ऋत्विज्+अण्] [स्त्री० आर्त्त्विजी] ऋत्विज संबंधी।
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आर्थ  : वि० [सं० अर्थ+अण्] [स्त्री०आर्थी] १. जिसका कोई विशेष अर्थ या महत्व हो। २. शब्दों या वाक्यों के अर्थ से संबंध रखनेवाला। ३. साहित्य में, स्पष्ट कथन के अभाव में केवल अर्थ से निकलने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। ‘शब्द’ से भिन्न और उसका विपर्याय। जैसे—आर्थी व्यंजना या विभावना। ४. दे० ‘आर्थिक’।
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आर्थिक  : वि० [सं० अर्थ+ठक्-इक] १. अर्थ से संबंध रखनेवाला। अर्थ संबंधी। २. राजनीति और समाजशास्त्र में धन-संपत्ति और इसके अर्जन,उत्पादन,विभाजन व्यवस्था आदि से संबंध रखनेवाला। रुपए-पैसे, आय-व्यय आदि से संबंध रखने या इनके विचार से होनेवाला। (इकाँनामिक) जैसे—देश की आर्थिक उन्नति। ३. दे० ‘आर्थी’।
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आर्थिकी  : स्त्री० [सं० अर्थ से] अर्थशास्त्र।
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आर्थी  : वि० [सं० आर्थ+ङीष्] शब्दों के अर्थ से संबंध रखनेवाला। जैसे—आर्थी व्यंजना।
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आर्थी-अपह्रति  : स्त्री० [सं० व्यस्त०पद] दे० ‘कैतवापह्वति’।
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आर्थी-व्यंजना  : स्त्री० [सं० व्यस्त०पद] साहित्य में, व्यंजना (शब्द शक्ति) का वह प्रकार या भेद जिसमें स्वयं शब्दों से नहीं, बल्कि उनके द्वारा निकलनेवाले अभिप्राय या आशय से अथवा शारीरिक चेष्टा, व्यंग्य काकु, प्रसंग आदि के द्वारा कोई विशेष अर्थ या भाव व्यंजित होता है। जैसे—‘बाल-मराल कि मंदर लेही’। से वक्ता यह बतलाना चाहता है कि रामचंद्र धनुष नहीं उठा सकते।
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आर्द्ध  : वि० [सं० अर्द्ध+अण्] अर्ध-संबंधी। अर्ध का। यौ० शब्दों के आरंभ से। जैसे—आर्द्ध वार्षिकी।
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आर्द्र  : वि० [सं० √अर्द्(गति)+रक्, दीर्घ] [भाव० आर्द्रता] १. गीला। तर। नम। २. पिघला हुआ। ३. किसी प्रकार के रस या तरल पदार्थ से युक्त। जैसे—आर्द्र काष्ठ, आर्द्र नेत्र आदि। ४. सना हुआ। लथ-पथ।
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आर्द्रक  : पुं० [सं० आर्द्र+कन्] अदरक। आदी।
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आर्द्रता  : स्त्री० [सं० आर्द्र+तल्-टाप्] आर्द्र होने की अवस्था या भाव। नमी।
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आर्द्रा  : स्त्री० [सं० आर्द्र+टाप्] १. एक नक्षत्र जो प्रायः आषाढ़ में पड़ता है और साधारणयतः जिसमें वर्षा आरंभ होती है। २. एक वर्णवृत्त जिसके पहले और चौथे चरण में जगण, तगण और दो गुरु और दूसरे तथा तीसरे चरणों में दो तगण, जगण और दो गुरू होते हैं। ३. अदरक। आदी। ४. अतीस।
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आर्नव  : पुं० =आर्णव (समुद्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आर्य  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+ण्यत्] [भाव० आर्यत्व, स्त्री० आर्या] १. आदरणीय, प्रतिष्ठित या श्रेष्ठ व्यक्ति। २. वह जो अपने धर्म के प्रति पूरी निष्ठा और श्रद्धा रखता हो। ३. एक प्रसिद्ध प्राचीन उन्नत और सभ्य जाति जो मध्य एशिया से आकर आर्यावर्त्त या भारत में बसी थी, और जिसकी कुछ शाखाएँ यूरोप आदि की ओर फैली थी। ४. आचार्य, गुरु, पति आदि पूज्य व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक पुराना संबोधन। ५. मनु, सावर्ण का एक पुत्र। ६. एक बुद्ध। वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. पूज्य। मान्य। ३. कुलीन। ४. उपयुक्त।
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आर्य-घोटक  : पुं० [सं० कर्म० स०] जलूस में निकाला जानेवाला बिना सवार का सजा हुआ घोड़ा। कोतल।
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आर्यत्व  : पुं० [सं० आर्य+त्व] आर्य होने की अवस्था, गुण, या भाव। आर्यपन।
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आर्य-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. आर्यों की संतान। २. स्त्री की ओर से पति के प्रति प्रयुक्त होने वाला एक प्राचीन संबोधन।
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आर्यव  : पुं० [सं० आर्य√वा (गति)+क] १. अच्छा और श्रेष्ठ आचरण। सदाचार। २. उचित और न्याय संगत व्यवहार।
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आर्य-वृत्त  : पुं० [ष० त०] धर्मात्मा और सदाचारी।
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आर्य-सत्य  : पुं० [ष० त०] बौद्धों में माने जानेवाले चार मूल और परम उत्कृष्ट सत्य सिद्धांत जो बौद्ध धर्म के मूल आधार माने गये हैं।
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आर्य-समाज  : पुं० [ष० त०] [वि० आर्य-समाजी] हिंदुओं के अंतर्गत एक आधुनिक संप्रदाय जिसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। और जो मूर्ति-पूजा, पुराणों आदि का खंडन तथा मूल वैदिक धर्म का पोषण करता है।
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आर्य-समाजी (जिन्)  : पुं० [सं० आर्यसमाज+इनि] वह जो आर्यसमाज के सिद्धांत मानता हो और उसका अनुयायी हो। वि० १. आर्यसमाज संबंधी। २. आर्य समाजियों की तरह का।
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आर्य्या  : स्त्री० [सं० आर्य+टाप्] १. पार्वती। २. पितामही, सास आदि बड़ी बूढ़ियों के लिए आदर सूचक-संबोधन। ३. एक प्रकार का अर्ध-मात्रिक छंद।
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आर्या-गीति  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] आर्या छंद का एक भेद जिसके सम चरणों में बीस और विषम चरणों में बारह मात्राएँ होती है।
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आर्यावर्त्त  : पुं० [सं० आर्य-आ√वृत्त (रहना)+घञ्] भारतवर्ष का वह उत्तरी और मध्य भाग जिसमें आर्य जाति पहले पहल आकर बसी थी।
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आर्येतर  : वि० [सं० आर्य-इतर, पं० त०] १. जो आर्यन हो, बल्कि उससे भिन्न हो।
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आर्ष  : वि० [सं० ऋषि+अण्] १. ऋषियों से संबंधित। ऋषियों का। २. ऋषियों का बनाया हुआ। ३. वैदिक रचनाओं और स्तोत्रों से संबंधित। ४. जो ऋषियों द्वारा प्रचिलित होने के कारण ही मान्य हो। जैसे—आर्ष प्रयोग।
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आर्ष-प्रयोग  : पुं० [सं० कर्म० स०] भाषा के क्षेत्र में, किसी पद या शब्द का ऐसा प्रयोग जो व्याकरण के नियमों से ठीक न सिद्ध न होने पर भी इसलिए प्रचलित तथा मान्य हो कि प्राचीन ऋषि आदि ऐसा प्रयोग कर गये हैं।
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आर्षभ  : वि० [सं० ऋषभ+अण्] ऋषभ संबंधी। ऋषभ का। पुं० ऋषभ का वंशज।
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आर्ष-विवाह  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्मृतियों के अनुसार आठ प्रकार के विवाहों में से तीसरा जिसमें कन्या का पिता वर से दो गौएँ या बैल शुल्क के रूप में लेकर उसे अपनी कन्या देता था।
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आर्षेय  : वि० [सं० ऋषि+ढक्-एय] १. ऋषियों से संबंध रखने या उनमें होनेवाला। २. पूज्य। मान्य। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० १. ऋषियों का गोत्र। २. मंत्र-दृष्टा ऋषि। ३. यजन-याजन और अध्ययन-अध्यापन आदि जो ऋषियों के कार्य है।
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आर्हत  : वि० [सं० अर्हत्+अण्] अर्हत से या जैन-सिद्धांतों से संबंध रखनेवाला। पुं० १. जैन-सिद्धांत। २. जैन-सिद्धांतो का अनुयायी।
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