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आश्रम  : पुं० [सं० आ√श्रम्(तपस्या करना)+घञ्] [वि० आश्रमी] १. प्राचीन भारत में, वनों में वह स्थान जहाँ ऋषि-मुनि कुटी बनाकर रहते और तपस्या करते थे। जैसे—कण्व ऋषि या भरद्वाज मुनि का आश्रम। २. आज-कल साधु-संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों, धार्मिक यात्रियों के रहने का कोई ऐसा विशिष्ट स्थान या भवन जिसमें लोग सासांरिक झंझटों से बचकर शांति-पूर्वक रह सकते हों। (एसाइलम) जैसे—श्री अरविंद आश्रम अथवा अनाथाश्रम विधवाश्रम आदि। ३. स्मृतियों आदि में बतलाई हुई जीवन यापन की वह व्यवस्था जिसमें सौ वर्षों की पूरी आयु चार समान भागों में बाँटकर प्रत्येक के अलग-अलग कर्त्तव्य कर्म और विधान बतलाये गये हैं। यथा-ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। ४. विष्णु का एक नाम।
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आश्रम-धर्म  : पुं० [ष० त०] स्मृतियों में बतलाये हुए चारों आश्रमों (दे० आश्रम) में से प्रत्येक के लिए निश्चित अलग अलग कर्त्तव्य कर्म।
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आश्रमवासी (सिन्)  : वि० [सं० आश्रम√वस्(बसना)+णिनि] आश्रम में रहनेवाला। पुं० वानप्रस्थ।
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आश्रमिक  : वि० [सं० आश्रम+ठन्-इक] १. आश्रम संबंधी। आश्रम का। २. आश्रम में रहनेवाला। ३. आश्रम धर्म का पालन करनेवाला।
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आश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० आश्रम+इनि] १. आश्रम संबंधी। आश्रम का। २. किसी आश्रम (देखें) में रहनेवाला या उससे युक्त। जैसे—संन्यासाश्रमी।
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