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ऊ  : देवनागरी वर्णमाला का छठा स्वर वर्ण जो भाषा-विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से ओष्ठय, संवृत्त, दीर्घ पश्च स्वर है। पुं० [सं० √अव्(रक्षा आदि)+क्विप्] १. शिव। २. चंद्रमा। अव्य० १. भी। (अवधी)। जैसे—तेऊ, सेऊ आदि। २. वाला। जैसे—खाऊ, बेचू, लेऊ आदि। सर्व०=वह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँख  : पुं०=ऊख (ईख)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँग  : स्त्री०=ऊँघ।
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ऊँगना  : पुं० [देश] १. चौपायों की एक बीमारी जिसमें उनका शरीर ठंढ़ा हो जाता है और कान बहने लगते है। स० दे० ‘औंगना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँगा  : पुं० [सं० अपामार्ग] [स्त्री० ऊँगी] चिचड़ा।
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ऊँघ  : स्त्री० [सं० अवाङ-नीचे मुँह] ऊँघने की क्रिया या भाव। उँघाई। अर्द्ध-निद्रा। झपकी। (डोज)
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ऊँघन  : स्त्री०=ऊँघ। (उँघाई)।
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ऊँघना  : अ० [सं० अवाङ=नीचे मुँह] बैठे-बैठे झपकी आने पर आँखें बंद होना और सिर का बार-बार झुकना। नींद की आरंभिक अवस्था में झूमना। (डोजिंग)।
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ऊँच  : पुं० [सं० उच्च] वह जो उत्तम जाति या कुल का हो। कुलीन। उदाहरण—दानव देव ऊँच अरु नीचू।—तुलसी। वि० ऊँचा। उदाहरण— ऊँच निवास, नीच करतूती।—तुलसी। यौ-ऊँच-नीच (क) छोटी जाति का और बड़ी जाति का। (ख) भला-बुरा या हानि-लाभ। जैसे—किसी बात का ऊँच-नीच समझना।
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ऊँचा  : वि० [सं० प्रा० पा० उच्च, गु० ऊँचो, पं० उच्चा, मरा० उचा, सि० ऊचो, सिह० उसू] [भाव० ऊँचाई, स्त्री० ऊँची] १. किसी आधार या तल के विचार से, जो ऊपर की ओर दूर तक चला गया हो। ऊर्ध्व दिशा में गया हुआ। यथेष्ट ऊपर उठा हुआ। नीचा का विपर्याय। जैसे—ऊँची दीवार, ऊँचा पेड़, ऊँचा मकान। २. तल या भूमि से बहुत कुछ ऊपर या ऊपरी भाग में स्थित। जैसे—(क) यह चित्र बहुत ऊँचा टँगा है। (ख) इस वृक्ष की शाखाएँ इतनी ऊँची है कि उन तक हाथ नहीं पहुँचता। ३. आस-पास के तल से ऊपर उठा हुआ। जैसे—ऊँची जमीन, ऊँचा टीला। ४. मान या माप के विचार से, कुछ नियत या विशिष्ट विस्तार का। लंबा। जैसे—चार हाथ ऊँचा पौधा, दस हाथ ऊँचा बाँस। ५. किसी नियत या निश्चित बिन्दु से ऊपर उठा हुआ। जैसे—गोली (या तीर) का निशाना कुछ ऊँचा लगा था, जिससे शेर (या हिरन) बचकर भाग गया। ६. किसी विशिष्ट मात्रा या मान से अथवा किसी मानक स्तर से आगे बढ़ा हुआ। जैसे—(क) उनका खर्च बहुत ऊँचा है। (ख) अब तो सारी चीजों का भाव ऊँचा होता जाता है। ७. अधिकार, पद, मर्यादा आदि के विचार से, औरों से आगे बढ़ा हुआ या ऊपर माना जानेवाला। जैसे—ऊँची अदालत, ऊँची जाति, ऊँचा पद। ८. गंभीरता, नैतिकता, मनन-शीलता आदि के विचार से, औरों से आगे बढ़ा हुआ। उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—ऊँचा आदर्श, ऊँचे विचार। ९. उदारता, परोपकारिता, सहृदयता आदि से युक्त और श्रेष्ठ पक्ष में रहनेवाला। जैसे—ऊँचे आदमियों का हाथ भी सदा ऊँचा (अर्थात् दान-शीलता में प्रवृत्त) रहता है। १॰० (ध्वनि या शब्द) जो साधारण से अधिक ऊपर उठा हुआ या तेज हो। जोर का। तीव्र। जैसे—ऊँची आवाज, ऊँचा स्वर। मुहावरा—ऊंचा सुनना कुछ बहरे होने के कारण ऐसा ही शब्द सुन सकना जो ऊँचा, जोर या का तीव्र हो। जैसे—आज-कल वह कुछ ऊँचा सुनने लगा है। पद—ऊँचा नीचा, ऊँचे-नीचे। (दे०)
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ऊँचाई  : स्त्री० [हिं० ऊँचा+ई (प्रत्यय)] १. ऊँचे या उच्च होने की अवस्था या भाव। उच्चता। (हाइट) २. गौरव। बड़ाई।
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ऊँचा-नीचा  : वि० [हिं० ऊँचा+नीचा] [स्त्री० ऊँची-नीची] १. (स्थान) जो बीच-बीच में कहीं कुछ ऊँचा और कहीं कुछ नीचा हो। उबड-खाबड़। असम। मुहावरा—ऊँचे-नीचे पैर पड़ना=कुमार्ग आदि में प्रवृत्त होना, विशेषतः लैगिक दृष्टि से पतन होना। जैसे—लड़के पर ध्यान रखो, कहीं ऊँचे-नीचे पैर न पड़ जाय। २. (कार्य या व्यवहार) जिसमें कही कोई भलाई हो और कही कोई बुराई। भले-बुरे, हानि-लाभ आदि से युक्त। जैसे—(क) उन्हें सब ऊँचा-नीचा समझा देना चाहिए। (ख) सब ऊँचा-नीचा सोच लो, तब पैर आगे बढ़ाओ। ३. (उक्ति या कथन) जो कहीं कुछ अच्छा या उचित भी हो और कहीं कुछ बुरा या अनुचित भी हो। खरा और खोटा दोनों। जैसे—उन्हें जरा ऊँची-नीची (बातें) सुनाओ, तब वे मानेगे।
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ऊँचे  : क्रि० वि० [हिं० ऊँचा] १. ऊपर की ओर। ऊँचाई पर। २. कहने बोलने आदि के संबंध में, जोर से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँछना  : स० [उञ्छन=बीनना] बाल झाड़ना। बालों में कंघी करना।
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ऊँट  : पुं० [सं० उष्ट्र, पा० उट्ट] [स्त्री० ऊँटनी] एक प्रसिद्ध रेगिस्तानी पशु जिस पर सवारी की जाती तथा बझ लादा जाता है। यह रेतीले मैदानों में बिना कुछ खाये-पीये कई दिन निरंतर चलता रहता है। कहावत-ऊँट किस करवट बैठता है=इस बात की प्रतीक्षा में रहना कि किसी बात या समस्या का अंत किस या कैसा प्रकार होता है। मुहावरा— ऊँट के गले में बिल्ली बाँधना किसी बहुत बड़ी समस्या को साधारण ठहराते हुए उसके साथ कोई ऐसी बहुत ही छोटी या साधारण समस्या लगा देना जिसके बिना उस बड़ी समस्या का निराकरण ही न हो सकता हो। २. रहस्य संप्रदाय में, मन। मुहावरा—ऊँट के मुँह में जीरा=किसी बहुत बड़े डील-डौलवाले आदमी को उसके आकार या खुराक के विचार से बहुत थोड़ी चीज खाने को देना।
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ऊँटकटारा  : पुं० [सं० उष्ट्र-कण्ट] एक प्रकार की कँटीली झाड़ी या पौधा।
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ऊँटवान  : पुं० [हिं० ऊंट+वान (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो ऊंट चलाता हो।
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ऊँड़ा  : पुं० [सं० कुंड] १. वह बरतन जिसमें रूपये-पैसे रखकर जमीन के अंदर गाड़ते हैं। २. इस प्रकार धन गाड़ने या छिपाने के लिए बनाया हुआ गड्ढा। चहबच्चा। ३. तहखाना। वि० गंभीर। गहरा। (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँदर  : पुं०=इंदुर (चूहा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँधा  : पुं० [हिं० औधा] जलाशय का वह ढालुआँ किनारा जहाँ से पशु नहाने और पानी पीने आते-जाते हैं। वि०=औधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँहू  : अव्य० [देश] किसी के या किसी बात के उत्तर में कहा जानेवाला अस्वीकृति सूचक शब्द जो प्रायः नाक से बोला जाता है। कदापि नहीं।
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ऊना  : अ०=उअना (उगना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊआबाई  : वि० [हिं० आव० बाव या सं० वायुहवा] १. इधर-उधर का। २. व्यर्थ या निरर्थक। स्त्री० इधर-उधर की या बे-सिर पैर की बात।
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ऊक  : स्त्री० [सं० उल्का] १. उल्का। २. जलती हुई लकड़ी। ३. दाह। ताप। आँच। स्त्री०=चूक।
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ऊकटना  : स०=उकठना। (राज०)
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ऊकना  : अ०=चूकना। स० १. जान-बूझकर या भूल से छोड़ देना। २. उपेक्षा करना। स० [हिं० ऊकताप] १. दग्ध करना० जलाना। २. कष्ट या ताप पहुँचाना। अ० १. जलना। २. ताप उत्पन्न करना। तपाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊकसना  : अ०=उकसना। स०=उकसाना। (राज०)।
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ऊकार  : पुं० [सं० ऊ+कार] ‘ऊ’ अक्षर या उसकी ध्वनि।
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ऊख  : पुं० [सं० इक्षु, प्रा० इच्छु, गु० ऊस, बं० आकु, उ० आखु, सिंह० उक, ईक, मरा० ऊँस] घास या सरकंडे की जाति का एक प्रसिद्ध पौधा जिसके कांड के रस से गुड़ और चीनी बनाई जाती है। वि० [सं० उष्ण या उष्म] तपा हुआ। गरम। उदाहरण— उष्ण काल अरू देह खिन मगपंथी तन ऊख-तुलसी। पुं० ग्रीष्म ऋतु। गरमी के दिन। स्त्री० उषा या उषःकाल। उदाहरण— ऊख समै वर दुजनि कह वंटिअप्प कर दिन्न।—चंदवरदाई।
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ऊखड़  : पुं० [सं० ऊषट] पहाड़ के नीचे की सूखी जमीन। भाभर।
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ऊखम  : पुं०=उष्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊखल  : पुं० [सं० उलूखल] धान आदि कूटने के लिए बनाया हुआ काठ या पत्थर का गहरा पात्र। ओखली। मुहावरा—ऊखल में सिर देना=जान-बूझकर किसी जोखिमों या झंझट के काम में पड़ना। पुं० [सं० ऊष्म] गरमी। पं० [सं० उखवेल] एक प्रकार का तृण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊखा  : स्त्री० [सं० ऊष्मा] १. आग। २. गरमी। ताप। उदाहरण—और दिनन ते आजु दहो हम ऊखा ल्याई।
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ऊखाणा  : पुं० [सं० उपाख्यान] कहावत। (राज०)
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ऊखिल  : वि० [सं० उखर्वल] १. तिनका। तृण। २. खटकनेवाली चीज। काँटा। उदाहरण— ऊखिल ज्यौं खरकै पुतरीन मैं।—घनआनंद।
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ऊगट  : वि० [सं० उद्धर्त्त] ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। उदाहरण—साखिए ऊगट माँजिणउ खिजमति करइ अनंत।—ढो० मा०।
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ऊगना  : अ०—उगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊगरना  : स०=उगलना। उदाहरण—बाहर थाजइ ऊगरइ भीगा माँझ धरेह।—ढो० मा० अ० बाहर निकलना।
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ऊगरा  : वि० [?] उबाला हुआ । जैसे—ऊगरा चावल उबाला हुआ चावल या भात।
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ऊचाला  : पुं० [सं० उत्-चल] प्रयाण। प्रस्थान। उदाहरण— पिंगल ऊचालऊ कियऊ नल नरवरच देसि।—ढोला मारू।
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ऊछजना  : अ० [सं० उत्-सज्जा] (अस्त्र आदि) ऊपर उठाकर अपने बचाव के लिए तैयार होना। उदाहरण— बड़फरि ऊछजतै विरुधि।—प्रिथीराज।
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ऊछाह  : पुं०=उछाह। (उत्साह)
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ऊज  : पुं० [सं० उद्धन-ऊपर फेंकना] १. उपद्रव। २. अंधेर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊजड़  : वि० उजाड़। जैसे—ऊजड़ ग्राम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊजना  : अ० [हिं० पूजना का अनु] पूर्ण या परिपूर्ण होना। स० पूर्ण या परिपूर्ण करना।
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ऊजम  : पुं०=उद्यम।
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ऊजर  : वि०=उजला। वि० उजाड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊजरा  : वि०=उजला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊटक-नाटक  : पुं० [सं० उत्कट-नाटक] १. दिखावटी पर महत्त्वहीन कार्य। २. इधर-उधर का व्यर्थ का या साधारण काम। वि० निरर्थक। व्यर्थ।
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ऊटना  : अ० [हिं० औटना=खलबलाना] १. उमंग में आना। २. मन में किसी प्रकार की योजना बनाना। मंसूबा बाँधना। उदाहरण—जूटैलगे जान गन,ऊटै लगे ज्वान जन, छूटै लगे बाज धन, लूटै लगे प्रान तन।—गोपाल। ३. तर्क-वितर्क का सोच-विचार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊट-पटांग  : वि० [हं० अटपट+अंग या ऊँट पर टांग ?] १. जो आकार, रचना आदि के विचार से बहुत ही बेढंगा बना हो। २. (कार्य या बात) जो बिना किसी क्रम या तत्त्व के हो। ३. निरर्थक। व्यर्थ का।
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ऊड़ना  : स० [सं० ऊढ़] १. विवाह करना। ब्याहना। २. किसी स्त्री को रखेली बनाकर घर में रखना। उदाहरण—बूढ़ खाइ तो होइ नवजोबन सौ मेहरी लै ऊड़।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊड़ा  : पुं० [सं० ऊन] १. कमी। त्रुटि। २. टोटा। घाटा। ३. अकाल या महँगी के दिन। ४. नाश। ५. निशाना। लक्ष्य।
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ऊड़ी  : स्त्री० [हिं० उड़ना] १. पनडुब्बी नाम की चिड़िया। २. लक्ष्य। निशाना। ३. एक प्रकार की चरखी। ४. टेकुआ। (जुलाहे)
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ऊढ़  : वि० [सं० √वह (ढोना, पहुँचाना)+क्त] जिसका विवाह हुआ हो।
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ऊढ़ना  : अ० [सं० ऊह-सोच-विचार] १. सोच-विचार करना। २. अनुमान या तर्क करना। अ० [सं० ऊढ़] विवाह होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊढा  : स्त्री० [सं०√वह+क्त-टाप्] १. विवाहिता स्त्री। २. साहित्य में वह नायिका जो अपने पति को तथा सांसारिक लोक-लज्जा त्याग कर पर-पुरुष से प्रेम करती हो।
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ऊत  : वि० [सं० अपुत्र, प्रा० अउत्त] १. बिना पुत्र का। निपूता। निःसंतान। २. उजडैड्। मूढ़। ३. उद्धत।
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ऊतक  : पुं० [सं० ऊति से] [वि० औतिक] १. ऐसी चीज जिसमें ताने-बाने वाली बुनावट हो। २. जीव-विज्ञान में जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों आदि में वह बहुत सूक्ष्म अंग या अंश जो एक ही प्रकार की केशिकाओं से बना और उन्हीं से ओत-प्रोत होता है। (टिश्यू)।
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ऊतर  : पुं० [सं० उत्तर] १. उत्तर। जबाव। २. ऐसी झूठी या बनावटी बात जो अपना बचाव करने के लिए उत्तर के रूप में कही जा सके। बहाना। हीलाहवाला। उदाहरण—ऊता कौन हू कै पदमाकर दै फिरै कुंजगलीन में फेरी।—पद्याकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊतला  : वि० [हिं० उतावला] १. तेज। वेगवान। २. चंचल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊताताई  : वि० [हिं० ऊत] नासमझ। मूर्ख।
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ऊति  : स्त्री० [सं०√अव् (रक्षण)+क्तिन्] १. सीने का काम। सिलाई। २. बुनावट। ३. रक्षा। हिफाजत। ४. कृपा। अनुग्रह। ५. सहायता। ६. खेलवाड़। तमाशा। ७. पुराणों में कर्म की वासना। ८. चुआने या टपकाने की क्रिया या भाव।
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ऊतिमा  : वि०=उत्तम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊथापना  : स०=उथपना।
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ऊद  : पुं० [अ०] १. अगर नामक वृक्ष या उसकी लकड़ी। २. एक प्रकार का बाजा। पुं०=ऊदबिलाव। (जंतु)
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ऊदबत्ती  : स्त्री० [अ० ऊद+हिं० बत्ती] ऊद या अगर की बनी हुई सुंगधित बत्ती।
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ऊदबिलाव  : पुं० [सं० उद्र+हिं० बिलाव-विडाल] नेवले की तरह का परंतु उससे कुछ बड़ा एक जंतु जो स्थल के सिवा प्रायः जल में भी रहता है। वि० मूर्ख। बुद्धू।
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ऊदल  : पुं० [?] १. हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का पेड़। २. महोबे के राजा परमाल का एक सामंत जो आल्हा का अनुज था।
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ऊदा  : वि० [अ० ऊद या फा० कबूद] [स्त्री० ऊदी] ललाई लिए हुए काला या बैंगनी रंग का। पुं० १. उक्त प्रकार का रंग। २. उक्त रंग का घोड़ा।
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ऊधम  : पुं० [सं० उद्धम-ध्वनित] (बच्चों का या बच्चों जैसा) हो-हल्ला मचाना या उछलना-कूदना। धमा-चौकड़ी।
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ऊधमी  : वि० [हिं० ऊधम] ऊधम मचानेवाला।
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ऊधरना  : अ० [सं० उद्धरण] उद्धार पाना। बचना। उदाहरण—ऊधरी पताल हूँ।—प्रिथीराज। स० उद्धार करना।
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ऊधरा  : वि० [सं० ऊर्ध्व] ऊँचा। उच्च (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊधव  : पुं० उद्धव (कृष्ण के सखा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊधो  : पुं० [सं० उद्धव] उद्धव (कृष्ण के सखा)।
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ऊन  : पुं० [सं० ऊर्ण, प्रा० ऊणु, गु० उर्णा, सि० ऊणु, सिह० उन, मरा० उण, पं० उन्न] भेड़ों, बकरियों आदि के शरीर पर होनेवाले रोएँ जो बहुत ही चमकीले, बारीक, मजबूत और गुरचे या ऐठें हुए होते हैं तथा जिन्हें बटकर कंबल, चादरें, पहनने के गरम कपड़े आदि बनाये जाते हैं। विशेष—आज-कल कई तरह के रेशों से कृत्रिम या नकली ऊन भी बनने लगा है। वि० [सं० ऊन् (कम करना)+अच्] १. कम। थोड़ा। उदाहरण—शमित करने को स्वमद अति ऊन।—दिनकर। स्त्री० १. कमी। त्रुटि। २. किसी चीज या बात के अभाव या कमी के कारण नष्ट या खेद। मुहावरा—(किसी बात की) ऊन मानना कमी, त्रुटि आदि का अनुभव करते हुए मन में दुःखी होना। दिल छोटा करना। उदाहरण—सुनु कपि जिय मानसि मत ऊना।—तुलसी। पुं० [?] स्त्रियों के व्यवहार के लिए बनाई हुई एक प्रकार की छोटी तलवार।
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ऊनक  : वि० [सं० उन+कन्] १. अपर्याप्त। कम। थोड़ा। २. हीन। छोटा। ३. सदोष।
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ऊनता  : स्त्री० [ऊन+तल्-टाप्] १. ऊन या कम होने की अवस्था या भाव। कमी। न्यूनता। २. अभाव।
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ऊनना  : अ० [हिं० ऊन] १. कम पड़ना या होना। घटना। २. छोटा या संकीर्ण होना। स० १. कम करना। घटाना। २. तुच्छ या संकीर्ण करना।
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ऊना  : वि० [हिं० ऊन=कम] १. कम। थोड़ा। २. अधूरा। अपूर्ण। ३. तुच्छ। हीन। पुं० [?] स्त्रियों के व्यवहार के लिए बनाई हुई एक प्रकार की छोटी तलवार।
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ऊनित  : भू० कृ० [सं०√ऊन्+क्त] जिसे कम किया गया हो। घटाया हुआ।
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ऊनी  : वि० [हिं० ऊन] ऊन का या ऊन से बना हुआ। जैसे—ऊनी कंबल या चादर। स्त्री० [हिं० ऊनकमी] १. कमी। न्यूनता। २. त्रुटि। दोष। ३. मन में होनेवाला खेद या ग्लानि। ४. उदासीनता। उदासी।
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ऊन्हालउ  : पुं० उन्हाला। उदाहरण— ऊन्हालउ ऊतारियउ, प्रगट्यउ पावस मास।—ढोला मारू।
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ऊप  : पुं० [सं० वप्] अनाज का वह अतिरिक्त अंश जो किसानों को ऋण के रूप में बोने के लिए लिये हुए बीजों के संबंध में चुकाना पड़ता है। बीजों का अन्न के रूप में दिया जानेवाला ब्याज। स्त्री० ओप (चमक)।
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ऊपना  : अ० [हिं० उपजना] उत्पन्न होना। उपजना। उदाहरण—त दुख यह सुख उपनै, रैन माँझ दिन होय।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊपन्न  : वि० उत्पन्न।
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ऊपर  : अव्य० [सं० उपरि] [वि० ऊपरी] एक संबंधसूचक शब्द जो प्रायः क्रिया विशेषण की तरह और कभी-कभी विशेषण और फलतः संज्ञा की तरह प्रयुक्त होता और नीचे लिखे अर्थ देता है- १. किसी तल,बिन्दु या विस्तार की तुलना में ऊँचाई की ओर, आकाश की ओर, ऊर्ध्व दिशा में। तले या नीचे का विपर्याय। जैसे—(क) नीचे पृथ्वी और स्वर्ग ऊपर है। (ख) सूर्य ऊपर आ चला है। २. उत्सेध के विचार से ऊँचे तल या पार्श्व पर। ऊँचे स्थान में या ऊँचाई पर। जैसे—(क) चलो ऊपर चलकर बातें करे। (ख) ऊपरवाली दोनों पुस्तकें उठा लाओ। ३. किसी विस्तार के विचार से, इस प्रकार इधर-उधर या चारों (फैला हुआ) कि कोई चीज या इसका कुछ अंश ढक जाय। जैसे—कमीज के ऊपर कोट पहन लो या ऊपर चादर डाल लो। ४. टिके या ठहरे रहने के विचार से,किसी के आधार या सहारे पर। जैसे—(क)गिलास के ऊपर तश्तरी रख दो। (ख) ये चीजें चौकी के नीचे से निकालकर उसके ऊपर रख दो० ५. किसी पदार्थ या विस्तार के किनारे पर या पास ही सटकर। जैसे—(क) तालाब के ठीक ऊपर मंदिर है। (ख) वे गंगा के ठीक ऊपर मकान बनवा रहे हैं। ६. (पुस्तक लेख आदि में) किसी प्रकार के क्रम के विचार से जो पहले आया या हुआ हो अथवा जो पहले से वर्त्तमान हो। आदि या आरंभिक भाग में। जैसे—(क) पहले ऊपर की सब रकमों का जोड़ लगा लो। (ख) हम ऊपर कहे आये हैं कि राजनीति हमारा मुख्य विषय नहीं है। ७. ऊँची या उच्च कोटि के वर्ग या श्रेणी में। जैसे—छोटा भाई तो परीक्षा में पारित होकर ऊपर चला गया और बड़ा जहाँ का तहाँ रह गया है। ८. पद, मर्यादा आदि के विचार से, आधिकारिक और उच्च या श्रेष्ठ स्थिति में। जैसे—(क) दल सिपाहियों के ऊपर एक जमादार रहता है। (ख) ऊपर की अदालत ने यह आज्ञा रद्द कर दी है। ९. कार्य के निर्वाह या भार के वहन के विचार से उत्तरदायित्व के रूप में। जैसे—तुमने इतने काम अपने ऊपर ले रखे हैं, जिनकी गिनती नही। १॰ उपयोगिता, गुण, विशेषता आदि के विचार से औरों से बढ़कर। उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—आपकी सम्मति सबसे ऊपर है। ११. अंकित, नियत या निर्धारित मात्रा या मान से अधिक। ज्यादा। जैसे—जरा-सी बात में सौ रुपये से ऊपर लग गये। पद—ऊपर कानियत, नियमित, साधारण आदि से भिन्न। जैसे—(क) ऊपर के काम करने के लिए एक आदमी और रख लो। (ख) उनका सारा खर्च तो ऊपर की आमदनी से चल जाता है, और वेतन यों ही बच रहता है। (ग) देखो, ऊपर के सब लोग इस कमरे में न आने पावें। ऊपर ऊपर (क) प्रस्तुत के साथ बिना किसी संपर्क या संबंध के। अलग और बाहर। जैसे—वे ऊपर-ऊपर आये और चले गये। हमसे मिले भी नहीं। (ख) बिना किसी को जतलाये। चुप-चाप। चुपके से। जैसे—तुम ऊपर-ऊपर सब कारवाई कर लेते हो, हमसे पूछते भी नहीं। ऊपर से अतिरिक्त। अलग। सिवा। जैसे—ज्वर तो था ही, ऊपर से पेट में दरद भी होने लगा। १२. अंदर की तुलना में, प्रत्यक्ष, बाहर या सामने। जैसे—इस दवा से अन्दर का रोग ऊपर आ जायगा। पद—ऊपर-ऊपर से बिना गहराई या तह तक पहुँचे। जैसे—अभी तो हमने ऊपर-ऊपर से सब बातें देखी या समझी है। ऊपर का जो प्रत्यक्ष या सामने हो। जैसे—इनकी ऊपर की आँखे तो फूटी ही है, अंदर की भी फूटी हैं। ऊपर से औपचारिक रूप में या दिखलाने भर के लिए। जैसे—ऊपर से तो उनका व्यवहार अच्छा ही है,अंदर की राम जानें। ऊपर से देखने पर-साधारणतः पहले पहल देखने पर जोरूप दिखाई देता हो,उसके आधार पर या विचार से। (प्राइमाफेसी) पद—ऊपर तलेऊपर-नीचे(दे०)। विशेष—‘ऊपर’ और ‘पर’ बहुत अधिक परन्तु बहुत सूक्ष्म अन्तर है। प्रस्तुत प्रसंग में ‘पर’ का मुख्य अर्थ होता है-ऐसे रूप में कि किसी के ऊपरी तल के साथ दूसरी चीज का नीचेवाला तल सटा रहे, परंतु ‘ऊपर’ में तल के सटे होने का भाव न तो अनिवार्य ही है, न मुख्य ही। इसमें मुख्य भाव उत्सेध या ऊँचाई पर आश्रित रहने या स्थित होने का है। ‘बंदर’ पेड़ पर बैठा है। और बंदर पेड़ के ऊपर जा पहुँचा। में जो अंतर है, वह स्पष्ट ही है। परन्तु नीचे के उदाहरणों से यह अंतर और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जायगा। (क) टोपी सिर पर पहनी जाती है और पगड़ी उस (टोपी) के ऊपर बाँधी जाती है। (ख) रेल की पटरी या लाइन पुल पर बिछी रहती है, परंतु (दोहरे पुलों में) पुल के ऊपर (अर्थात् पटरीवाले विस्तार के ऊपरी भाग में, कुछ ऊँचाई पर) वह सड़क होती है। जिसपर पैदल यात्री, बैल-गाड़ियाँ आदि चलती हैं। (ग) नावें पानी पर चलती या तैरती हैं, परन्तु मछलियाँ उछलकर पानी के ऊपर आती हैं। कुछ अवस्थाओं में, जहाँ ‘अंदर’ की अपेक्षा, तुलना या विपरीतता का प्रसंग होता है, वहाँ ‘पर’ के स्थान पर भी ‘ऊपर’ का प्रयोग होता है। जैसे—(क) तुम इतना भी नही जानते कि गाड़ी पुल के ऊपर चलती हैं, नीचे नहीं चलती ? (ख) अधिकतर नावें (या जहाज) तो पानी के ऊपर ही चलते हैं, परंतु पनडुब्बी नावें पानी के ऊपर भी चलती हैं और अंदर (या नीचे) भी।
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ऊपर-तले  : वि० [हिं० ऊपर+तले] १. (दो या दो से अधिक पदार्थ) जो क्रम के विचार से एक दूसरे के ऊपर पड़े या रखे हों। २. काल-क्रम के विचार से एक के तुरंत बाद दूसरावाला। पद—ऊपर-तले के (ऐसे भाई-बहन) जो एक-दूसरे के ठीक पहले या ठीक बाद उत्पन्न हुए हों। अव्य० १. एक के ऊपर एक। २. एक के बाद एक (काल-क्रम के विचार से)। जैसे—ऊपर-तले कई घटनाएँ एक साथ घटी थी।
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ऊपर-नीचे  : वि० , अव्य० [हिं० ऊपर+नीचे] ऊपर-तले।
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ऊपरवाला  : पुं० [हिं० ऊपर+वाला] १. ईश्वर। २. सूर्य। ३. चंद्रमा। ४. बादल। ५. इंद्र। वि० १. जो ऊपर रहता या होता हो। २. अपरिचित या बाहरी।
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ऊपरी  : वि० [हिं० ऊपर] १. क्रम, स्थिति आदि के विचार से ऊपर की ओर होने या रहनेवाला। ऊपर का। जैसे—(क) घर का ऊपरी खंड या भाग। (ख) बादाम का ऊपरी छिलका। २. जो किसी निश्चित क्षेत्र, वर्ग आदि से अलग या बाहर का हो। जैसे—ऊपरी आदमी। ३. नियत या नियमति से भिन्न। अतिरिक्त। जैसे—ऊपरी आमदनी। ४. जिसका प्रस्तुत से कोई संबंध न हो। जैसे—ऊपरी बातें। ५. जिसका आविर्भाव किसी ऊपरी (अर्थात् अलौकिक) कारणों, उपद्रवों आदि से हो। जैसे—ऊपरी फसाद (भूत-प्रेत आदि की बाधा)। ६. (आचरण या व्यवहार) जो केवल ऊपर से अर्थात् दिखाने भर के लिए किया जाय, वास्तविक या हार्दिक न हो। औपचारिक या दिखावटी। जैसे—ऊपरी आदर-सत्कार। ७. (कार्य) जिसका कोई ठोस आधार या भीतरी तत्त्व न हो। जैसे—ऊपरी तड़क-भड़क।
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ऊफणना  : अ०=उफनना। उदाहरण— अति अँबु कोपि कुँवर ऊफणियौ।—प्रिथीराज।
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ऊब  : स्त्री० [हिं० ऊबना] १. ऊबने की क्रिया या भाव २. बेचैनी। विकलता। स्त्री०=ऊभ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊबट  : पुं० [सं० उद्बुरा+वर्त्त्म, प्रा० बह-मार्ग] कठिन मार्ग। बीहड़ रास्ता। वि० ऊबड़-खाबड़। टेढ़ा-मेढ़ा।
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ऊबड-खाबड़  : वि० [अनु] (मार्ग या स्थल) जो कहीं पर ऊँचा और कहीं पर नीचा हो। अटपट या असमतल।
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ऊबना  : अ० [सं० उडेजन, पा० उब्बिजन] किसी वस्तु के यथेष्ठ भोग से तृप्ति हो जाने के उपरांत उसके प्रति मन में विरक्ति उत्पन्न होना। जी भर जाने के उपरांत किसी वस्तु-विशेष में रुचि न रह जाना।
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ऊबर  : वि० [हिं० उबरनाबचना] १. अधिक। ज्यादा। २. अतिरिक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊभ  : वि० [हिं० ऊभना=खड़ा होना] ऊँचा उठा हुआ। स्त्री० १. मन में उत्पन्न होनेवाली उमंग। स्त्री० १. ऊब। २. =ऊमस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊभ-चूभ  : स्त्री० [हिं० ऊभ(उमंग)+अनु०चूभ] १. (जल में) डूबने-उतराने की क्रिया। २. (मन में) कभी आशा और कभी निराशा होने की अवस्था या भाव।
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ऊभना  : अ० [सं० उद्भवऊपर उठना] १. ऊपर की ओर उठना। २. खड़ा होना। अ० ऊबना।
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ऊभा  : वि० [हिं० ऊभना] [स्त्री० ऊभी] १. उठा हुआ। २. खड़ा। उदाहरण— आवासि उतारि जोड़ि कर ऊभा-प्रिथीराज।
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ऊभासाँसी  : स्त्री० [हिं० ऊबना+साँस] १. दम घुटने या ठीक तरह से साँस न आने की अवस्था या भाव। दम घुटना। २. घबराहट। बेचैनी। विकलता।
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ऊमंतना  : अउमड़ना।
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ऊमक  : स्त्री० [हिं० उमगना] १. उमंग। २. झोंक। वेग।
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ऊमटना  : अ० उमड़ना।
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ऊमना  : अ० १. =उमगना। २. =उमड़ना।
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ऊमर  : पुं० [सं० उदुम्बर] गूलर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊमस  : स्त्री०=उमस।
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ऊमहना  : अ०=उमहना।
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ऊमा  : स्त्री० [सं० उम्बी] गेहूँ, जौ आदि की हरी बाल।
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ऊरज  : वि०=ऊर्ज। पुं०=ऊर्जा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊरध  : वि०=ऊर्ध्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊरव्य  : पुं० [सं० ऊरु+यत्] [स्त्री० ऊख्या]=ऊरुज (वैश्य)
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ऊरा  : वि० [हिं० पूरा का अनु०] अधूरा। अपूर्ण। उदाहरण— सांग का पूरा ग्यान का ऊरा।—गोरखनाथ।
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ऊरी  : स्त्री० [देश०] जुलाहों का एक औजार।
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ऊरु  : पुं० [सं० ऊर्णु (आच्छादन)+कु] जाँघ। रान।
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ऊरुज  : वि० [सं० ऊरु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जिसका जन्म जाँघ से हुआ हो। पुं० वैश्य जाति जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा की जाँघ से मानी गई है।
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ऊरु-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] वैश्य। पुं० [सं० ] घुटना।
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ऊरुस्तंभ  : पुं० [सं० ऊरु√स्तंभ(रोकना)+अण्] एक प्रकार का वात रोग जिसमें घुटने और जाँघे जकड़ जाती हैं।
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ऊरू  : स्त्री० [देश] अलई या ऐल नामक कँटीली लता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊरूद्भव  : वि० पुं० [सं० ऊरु-उद्भव, ब० स०] दे० ‘ऊरुज’।
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ऊर्ज  : वि० [सं०√ऊर्ज् (बल, जीवन)+अच्] १. बली। शक्तिमान। २. बल या शक्तिवर्धक। बल देनेवाला। पुं० १. बल। शक्ति। २. वीर्य। ३. जीवन। ४. श्वास। साँस। ५. उत्साह। ६. प्रयत्न। ७. जल। पानी। ८. अन्न का सार-भूत रस। ९. एक काव्यालंकार जिसमें शक्ति या सहायकों के कम होने पर भी आत्माभिमान और उत्साह ज्यों का त्यों बना रहने का उल्लेख होता है। १॰० आज-कल, विद्युत की गति-दायक शक्ति की सार्वराष्ट्रीय नाप जो इकाई के रूप में मानी गई है। (वोल्ट)
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ऊर्ज-मान  : पुं० [ष० त०] बिजली की गति-दायक शक्ति जो ऊर्ज के मान से जानी या नापी जाती है। (वोल्टेज)
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ऊर्जस्  : पुं० [सं०√ऊर्ज्+असुन] १. शक्ति। २. उत्साह। ३. आहार। भोजन।
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ऊर्जस्वल  : वि० [सं० ऊर्जस्+वलच्] १. ऊर्ज से युक्त। बलवान। २. तेजस्वी। ३. श्रेष्ठ।
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ऊर्जस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० ऊर्जस्+मतुप्] १. ऊर्जा से युक्त। २. रसीला।
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ऊर्जस्वित  : वि० [सं० ऊर्जस्+इतच्] ऊर्जा से युक्त या संपन्न।
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ऊर्जस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० ऊर्जस्+विनि] १. जिसमें यथेष्ठ ऊर्ज या ऊर्जा हो, फलतः तेजस्वी और बलवान। २. प्रतापी।
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ऊर्जा  : स्त्री० [सं०√ऊर्ज्+अ-टाप्] १. शक्ति। बल। २. किसी वस्तु की वह शक्ति जो काम करने के समय उसमें लगती या व्यय होती है। (एनर्जी) ३. आहार। ४. प्रजापति दक्ष की कन्या जिसका विवाह वशिष्ठ से हुआ था।
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ऊर्जित  : वि० [सं० √ऊर्ज+क्त] १. ऊर्जा से युक्त, फलतः ओजस्वी, तेजस्वी या बलवान। २. श्रेष्ठ। ३. गंभीर। ४. समृद्ध।
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ऊर्जी (र्जिन्)  : वि० [सं० ऊर्ज्+इनि] (स्थान) जहाँ खाने-पीने की वस्तुओँ की अधिकता हो।
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ऊर्ण  : पुं० [सं० ऊर्णा+अच्] १. ऊन। २. ऊनी कपड़ा।
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ऊर्ण-नाभ  : पुं० [सं० ऊर्ण+नाभि+ब० स०,+अच्] मकड़ा।
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ऊर्णा  : स्त्री० [सं० √ऊर्णु+ड-टाप्] १. ऊन। २. भौंहों के बीच की भौंरी।
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ऊर्णायु  : पुं० [सं० ऊर्णा+युस्] १. ऊनी कंबल या चादर। २. भेड़ा। ३. मकड़ा।
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ऊर्ध  : वि० अव्य=ऊर्ध्व।
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ऊर्ध्व  : अव्य० [सं० उत√हा (गति)+ड, पृषो, उर्आदेश] ऊपर की ओर। ऊपर। वि० १. ऊपर की ओर सीधा गया हुआ। उदग्र। (वर्टिकल) २. ऊँचा। ३. खड़ा। स्त्री० १. दस दिशाओं में से एक जो सिर के ठीक ऊपर की ओर पड़ती है। २. संगीत में एक प्रकार की ताल।
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ऊर्ध्वग  : वि० [सं० ऊर्ध्व√गम् (जाना)+ड] १. ऊपर की ओर जानेवाला। २. जो सीधा ऊपर की ओर गया हो। उदाहरण—ऊर्ध्वग श्रंगों के समीर को, आओ साँसो से उर में भर।—पंत।
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ऊर्ध्व-गति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. ऊपर की ओर की चाल या गति। २. मुक्ति। मोक्ष। वि० जिसकी गति ऊपर की ओर हो।
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ऊर्ध्वगामी (मिन्)  : वि० [सं० ऊर्ध्व√गम्+णिनि] १. ऊपर या ऊपर की ओर जानेवाला। २. जो ऊपर की ओर गया हुआ हो। ३. मुक्त होकर ऊपर या स्वर्ग की ओर जानेवाला।
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ऊर्ध्व-चरण  : वि० [ब० स०] जिसके पैर ऊपर की ओर हों। पुं० शरभ नाम का कल्पित और पौराणिक सिंह, जिसके चार पैर नीचे और चार पैर ऊपर को उठे हुए माने गये हैं।
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ऊर्ध्व-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि या निगाह ऊपर की ओर हो। २. जो बहुत ऊपर उठना चाहता हो। उच्चाकांक्षी। स्त्री० योग की एक क्रिया जिसमें दृष्टि ऊपर ले जाकर त्रिकुटी पर जमाई जाती है।
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ऊर्ध्व-देव  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु।
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ऊर्ध्व-देह  : स्त्री० [कर्म० स०] वह देह या शरीर जो मनुष्य को मरने के बाद ऊपर की ओर जाने के समय प्राप्त होता है। सूक्ष्म या लिंग शरीर।
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ऊर्ध्व-द्वार  : पुं० [कर्म० स०] ब्रह्मांड का छिद्र। ब्रह्मरंध्र।
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ऊर्ध्व-नयन  : वि० [ब० स०] जिसकी आँखें ऊपर की ओर हों। पुं० ऊर्ध्व चरम या शरभ नामक पौराणिक सिंह।
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ऊर्ध्व-पाद  : पुं०=ऊर्ध्व-चरण।
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ऊर्ध्व-पुंड्र  : पुं० [कर्म० स०] वैष्णव या रामानंद संप्रदायवालो का तिलक जो माथे पर खड़े बल में लगाया जाता है।
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ऊर्ध्व-बाहु  : वि० [ब० स०] जिसकी भुजाएँ ऊपर की ओर उठी हों। पुं० एक प्रकार के तपस्वी जो सदा अपनी एक बाँह ऊपर उठाये रहते हैं।
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ऊर्ध्व-मंडल  : पुं० [कर्म० स०] वायुमंडल का वह भाग जो अधोमंडल से ऊपर है और पृथ्वीतल से २0 मील की ऊंचाई तक माना जाता है। इसमें तापमान प्रायः एक-सा रहता है।
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ऊर्ध्वमंथी (थिन्)  : पुं० [सं० ऊर्ध्व√मन्थ् (मथना)+णिनि]=ऊर्ध्वदेता।
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ऊर्ध्व-मुख  : वि० [ब० स०] जिसका मुँह ऊपर की ओर हो। पुं० अग्नि। आग।
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ऊर्ध्व-मूल  : पुं० [ब० स०] यह जगत् या संसार जिसकी जड़ या मूल ऊपर की ओर मानी गई है।
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ऊर्ध्व-रेखा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. सामुद्रिक में हाथ की एक सीधी लंबी रेखा जो ऐश्वर्य और सौभाग्य की सूचक मानी गई है। २. उक्त प्रकार की एक रेखा जो विष्णु के अवतारों के चरण-चिन्हों में से एक मानी गई है।
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ऊर्ध्व-रेता (तस्)  : वि० [ब० स०] योग की क्रियाओं द्वारा अपने वीर्य की रक्षा करनेवाला और अपना वीर्य ब्रह्मरंध्र की ओर ले जानेवाला (अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचारी)। पुं० १. महादेव। शिव। २. भीष्म पितामह। ३. हनुमान ४. सनक और सनंदन महर्षि। ५. संन्यासी।
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ऊर्ध्वलिंगी  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-लिंग, कर्म० स०+इनि] १. शिव। २. ब्रह्मचारी।
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ऊर्ध्व-लोक  : पुं० [कर्म० स०] १. आकाश। २. स्वर्ग।
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ऊर्ध्व-वात  : पुं० [कर्म० स०] १. मुँह के रास्ते से निकलनेवाली वात। २. अधिक डकार आने का रोग।
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ऊर्ध्व-वायु  : स्त्री० [कर्म० स०] डकार।
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ऊर्ध्व-विन्दु  : पुं० [कर्म० स०] १. सिर के ऊपर का सबसे ऊँचा विन्दु या स्थान। शीर्ष-विंदु। (ख-स्वस्तिक) २. अनुस्वार।
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ऊर्ध्वशायी (यिन्)  : वि० [सं० ऊर्ध्व√शी (सोना)+णिनि] ऊपर की ओर मुँह करके सोनेवाला। पुं० शिव।
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ऊर्ध्व-श्वास  : पुं० [कर्म० स०] १. ऊपर की ओर आने या चढ़नेवाला श्वास। २. मरने के समय, श्वास की वह गति जो अधिकतर ऊपर की ओर होती है।
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ऊर्ध्वांग  : पुं० [ऊर्ध्व-अंग, कर्म० स०] १. किसी चीज का ऊपरी अंग या भाग। २. शरीर का ऊपरी अंग या भाग, अर्थात् सिर।
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ऊर्ध्वा  : स्त्री० [सं० ऊर्ध्व+टाप्] एक प्रकार की पुरानी नाव जो 3२ हाथ लंबी, १६ हाथ चौड़ी और १६ हाथ ऊँची होती थी।
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ऊर्ध्वाकर्षण  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-आकर्षण, कर्म० स०] ऊपर की ओर होनेवाला आकर्षण या खिंचाव।
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ऊर्ध्वायन  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-अयन, कर्म० स०] १. ऊपर की ओर जाना या उड़ना। २. ऊपर की ओर अर्थात् परलोक या स्वर्ग जाने का मार्ग।
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ऊर्ध्वारोह  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-आरोह, कर्म० स०] १. ऊपर की चढ़ना या जाना। २. मर कर स्वर्ग जाना। ३. मृत्यु।
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ऊर्ध्वारोहण  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-आरोहण, कर्म० स०] ऊर्ध्वारोह।
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ऊर्मि  : स्त्री० [सं०√ऋ+मि, (गति)ऊर् आदेश] १. हलकी या छोटी लहर। तरंग। २. प्रवाह। बहाव। ३. वेग। ४. प्रकाश। ५. पंक्ति। ६. कपड़े पर पड़नेवाली शिकन। सिलवट। ७. खेद। ८. इच्छा। ९. न्याय में, गरमी, सरदी, भूख, प्यास, मोह और लोभ ये छः क्लेश। १॰ उक्त के आधार पर छः की संख्या।
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ऊर्मिका  : स्त्री० [सं० ऊर्मि√कै (शब्द करना)+क-टाप्] १. लहर। २. कपड़े की शिकन। ३. अँगूठी। ४. भौंरे की गूँज।
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ऊर्मिमान् (मत्)  : वि० [सं० ऊर्मि+मतुप्] १. तरंगित। २. घुँघराला (बाल)। ३. टेढ़ा-मेढ़ा। कुंचित।
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ऊर्मि-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. लहरों की श्रंखला या समूह। २. एक प्रकार का छंद।
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ऊर्मिमाली (लिन्)  : पुं० [सं० ऊर्मिमाला+इनि] १. लहरों से युक्त। २. (जलाशय) जिसमें छोटी-छोटी तरंगें या लहरें उठती हों।
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ऊर्मिल  : वि० [सं० ऊर्मिल+लच्] १. लहरों से युक्त। २. (जलाशय) जिसमें छोटी-छोटी तरंगे या लहरें उठती हों।
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ऊर्मिला  : स्त्री० [सं० ऊर्मिल+टाप्] लक्ष्मण की पत्नी का नाम।
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ऊर्मी  : स्त्री०=ऊर्मि।
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ऊर्वशी  : स्त्री०=उर्वशी।
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ऊलंग  : स्त्री० [देश०] एक तरह की चाय। वि०=उलंग (नंगा)
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ऊल  : स्त्री० [हिं० ऊलना] ऊलने या उल्लसित होने की क्रिया या भाव। उल्लास। उमंग। पद—ऊल-फूल (देखें)।
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ऊलक  : पुं० [देश] एक प्रकार का वन-मानुष जो असम की पहाड़ियों में होता है।
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ऊल-जलूल  : वि० [देश] १. (काम या बात) जिसका कोई ठीक-ठिकाना या सिर-पैर न हो। अंड-बंड। २. (व्यक्ति) जिसमें बुद्धि, शिष्टता, सभ्यता आदि का पूरा अभाव हो। बेवकूफ और बेहूदा।
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ऊलना  : अं० [हिं० उछलना] १. प्रसन्न या उल्लसित होना। २. उछलना। ३. मर्यादा का उल्लंघन करना। ४. मनमाना आचरण करना। ५. आतुर होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊल-फूल  : स्त्री० [हिं० ऊलना-फूलना] उल्लास और प्रफुल्लता या प्रसन्नता।
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ऊलर  : स्त्री० [?] कश्मीर की एक प्रसिद्ध बड़ी झील।
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ऊलहना  : अ०=उलहना। पुं०=उलाहना।
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ऊवड़ना  : अ० उमड़ना। उदाहरण— ऊजलियाँ धाराँ ऊवड़ियौ।—प्रिथीराज।
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ऊषक  : पुं० [सं० ऊष+कन्] १. तड़का। प्रभात। भोर। २. नमक। ३. काली मिर्च।
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ऊषर  : पुं० [सं० ऊष+र अथवा ऊष√रा (देना)+क] ऊसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊषरज  : पुं० [सं० ऊषरजन् (उत्पन्न होना)+ड] १. नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक। २. एक प्रकार का चुंबक।
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ऊषा  : स्त्री० [सं० भष्+क-टाप्] १. दिन चढ़ने से पहले का वह समय जब अँधेरा रहने पर भी पूर्व में उदित होने वाले सूर्य की लाली दिखाई देती है। तड़का। प्रभात। २. पौ फटने के समय दिखाई देनेवाली उक्त लाली। अरुणोदय की अरुणिमा। ३. बाणासुर की कन्या जो अनिरुद्ध को ब्याही थी। ऊषा-कर
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ऊषा-काल  : पुं० [ष० त०] १. तड़का। प्रभात। २. प्रातःकाल। सबेरा।
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ऊषा-पति  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध, जो बाणासुर की कन्या ऊषा के पति थे।
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ऊष्म  : पुं० [सं०√भष्+मक्] १. गरमी। २. गरमी के दिन। ग्रीष्म ऋतु। ३. भाप। वि० गरम।
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ऊष्म-वर्ण  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में, उच्चारण के विचार से श, ष, और ह ये अक्षर या वर्ण।
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ऊष्मा (ष्मन्)  : स्त्री० [सं० √ऊष्+मनिन्] १. गरमी का मौसम। ग्रीष्म ऋतु। गरमी। २. गरम होने की अवस्था, गुण या भाव। ताप। ३. भाप। वाष्प।
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ऊष्मायण  : पुं० [सं० ऊष्म+फक्-आयन] ग्रीष्म ऋतु।
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ऊसन  : पुं० [देश०] तरमिका नाम का पौधा।
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ऊसर  : पुं० [सं० √ऊषर] ऐसी भूमि जिसकी मिट्टी में रेह की मात्रा बहुत अधिक होती है। और इसी लिए जिसमें पेड़-पौधे नहीं उगते। वि० (क्षेत्र या भूमि) जिसमें कुछ उत्पन्न न होता हो।
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ऊह  : अव्य० [अनु०] कष्ट या पीड़ा-सूचक अव्यय। ओह।पुं० [सं०√ऊह् (तर्क करना)+घञ] =ऊहा।
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ऊहन  : पुं० [सं०√ऊह्+ल्युट-अन] १. ऊह या तर्क-वितर्क करना। २. परिवर्त्तन करना। बदलना। ३. संस्कार या सुधार करना।
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ऊहनीय  : वि० [सं०√ऊह्+अनीयर] (विषय) जो तर्क-वितर्क या बुद्धि के द्वारा जाना या समझा जा सके।
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ऊहा  : स्त्री० [सं०√ऊह्+अ-टाप्] १. अनुमान, कल्पना, तर्क-वितर्क, व्युत्पत्ति आदि द्वारा किसी बात का अर्थ या आशय जानना या समझना। २. बुद्धि। समझ। ३. तर्क। ४. किंवदंती। जन-प्रवाद।
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ऊहापोह  : पुं० [सं०√ऊह-अपोह, द्व० स०] किसी विषय में कुछ निश्चय न होने की दशा में मन में होनेवाला तर्क-वितर्क या सोच-विचार।
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ऊही (हिन्)  : वि० [सं० ऊह+इनि] ऊहा करनेवाला।
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ऊह्य  : वि० [सं०√ऊह्+ण्यत्] (बात या विषय) जिसके संबंध में ऊह (तर्क-वितर्क या सोच-विचार) हो सके। ऊहनीय।
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ऊ  : देवनागरी वर्णमाला का छठा स्वर वर्ण जो भाषा-विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से ओष्ठय, संवृत्त, दीर्घ पश्च स्वर है। पुं० [सं० √अव्(रक्षा आदि)+क्विप्] १. शिव। २. चंद्रमा। अव्य० १. भी। (अवधी)। जैसे—तेऊ, सेऊ आदि। २. वाला। जैसे—खाऊ, बेचू, लेऊ आदि। सर्व०=वह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँख  : पुं०=ऊख (ईख)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँग  : स्त्री०=ऊँघ।
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ऊँगना  : पुं० [देश] १. चौपायों की एक बीमारी जिसमें उनका शरीर ठंढ़ा हो जाता है और कान बहने लगते है। स० दे० ‘औंगना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँगा  : पुं० [सं० अपामार्ग] [स्त्री० ऊँगी] चिचड़ा।
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ऊँघ  : स्त्री० [सं० अवाङ-नीचे मुँह] ऊँघने की क्रिया या भाव। उँघाई। अर्द्ध-निद्रा। झपकी। (डोज)
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ऊँघन  : स्त्री०=ऊँघ। (उँघाई)।
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ऊँघना  : अ० [सं० अवाङ=नीचे मुँह] बैठे-बैठे झपकी आने पर आँखें बंद होना और सिर का बार-बार झुकना। नींद की आरंभिक अवस्था में झूमना। (डोजिंग)।
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ऊँच  : पुं० [सं० उच्च] वह जो उत्तम जाति या कुल का हो। कुलीन। उदाहरण—दानव देव ऊँच अरु नीचू।—तुलसी। वि० ऊँचा। उदाहरण— ऊँच निवास, नीच करतूती।—तुलसी। यौ-ऊँच-नीच (क) छोटी जाति का और बड़ी जाति का। (ख) भला-बुरा या हानि-लाभ। जैसे—किसी बात का ऊँच-नीच समझना।
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ऊँचा  : वि० [सं० प्रा० पा० उच्च, गु० ऊँचो, पं० उच्चा, मरा० उचा, सि० ऊचो, सिह० उसू] [भाव० ऊँचाई, स्त्री० ऊँची] १. किसी आधार या तल के विचार से, जो ऊपर की ओर दूर तक चला गया हो। ऊर्ध्व दिशा में गया हुआ। यथेष्ट ऊपर उठा हुआ। नीचा का विपर्याय। जैसे—ऊँची दीवार, ऊँचा पेड़, ऊँचा मकान। २. तल या भूमि से बहुत कुछ ऊपर या ऊपरी भाग में स्थित। जैसे—(क) यह चित्र बहुत ऊँचा टँगा है। (ख) इस वृक्ष की शाखाएँ इतनी ऊँची है कि उन तक हाथ नहीं पहुँचता। ३. आस-पास के तल से ऊपर उठा हुआ। जैसे—ऊँची जमीन, ऊँचा टीला। ४. मान या माप के विचार से, कुछ नियत या विशिष्ट विस्तार का। लंबा। जैसे—चार हाथ ऊँचा पौधा, दस हाथ ऊँचा बाँस। ५. किसी नियत या निश्चित बिन्दु से ऊपर उठा हुआ। जैसे—गोली (या तीर) का निशाना कुछ ऊँचा लगा था, जिससे शेर (या हिरन) बचकर भाग गया। ६. किसी विशिष्ट मात्रा या मान से अथवा किसी मानक स्तर से आगे बढ़ा हुआ। जैसे—(क) उनका खर्च बहुत ऊँचा है। (ख) अब तो सारी चीजों का भाव ऊँचा होता जाता है। ७. अधिकार, पद, मर्यादा आदि के विचार से, औरों से आगे बढ़ा हुआ या ऊपर माना जानेवाला। जैसे—ऊँची अदालत, ऊँची जाति, ऊँचा पद। ८. गंभीरता, नैतिकता, मनन-शीलता आदि के विचार से, औरों से आगे बढ़ा हुआ। उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—ऊँचा आदर्श, ऊँचे विचार। ९. उदारता, परोपकारिता, सहृदयता आदि से युक्त और श्रेष्ठ पक्ष में रहनेवाला। जैसे—ऊँचे आदमियों का हाथ भी सदा ऊँचा (अर्थात् दान-शीलता में प्रवृत्त) रहता है। १॰० (ध्वनि या शब्द) जो साधारण से अधिक ऊपर उठा हुआ या तेज हो। जोर का। तीव्र। जैसे—ऊँची आवाज, ऊँचा स्वर। मुहावरा—ऊंचा सुनना कुछ बहरे होने के कारण ऐसा ही शब्द सुन सकना जो ऊँचा, जोर या का तीव्र हो। जैसे—आज-कल वह कुछ ऊँचा सुनने लगा है। पद—ऊँचा नीचा, ऊँचे-नीचे। (दे०)
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ऊँचाई  : स्त्री० [हिं० ऊँचा+ई (प्रत्यय)] १. ऊँचे या उच्च होने की अवस्था या भाव। उच्चता। (हाइट) २. गौरव। बड़ाई।
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ऊँचा-नीचा  : वि० [हिं० ऊँचा+नीचा] [स्त्री० ऊँची-नीची] १. (स्थान) जो बीच-बीच में कहीं कुछ ऊँचा और कहीं कुछ नीचा हो। उबड-खाबड़। असम। मुहावरा—ऊँचे-नीचे पैर पड़ना=कुमार्ग आदि में प्रवृत्त होना, विशेषतः लैगिक दृष्टि से पतन होना। जैसे—लड़के पर ध्यान रखो, कहीं ऊँचे-नीचे पैर न पड़ जाय। २. (कार्य या व्यवहार) जिसमें कही कोई भलाई हो और कही कोई बुराई। भले-बुरे, हानि-लाभ आदि से युक्त। जैसे—(क) उन्हें सब ऊँचा-नीचा समझा देना चाहिए। (ख) सब ऊँचा-नीचा सोच लो, तब पैर आगे बढ़ाओ। ३. (उक्ति या कथन) जो कहीं कुछ अच्छा या उचित भी हो और कहीं कुछ बुरा या अनुचित भी हो। खरा और खोटा दोनों। जैसे—उन्हें जरा ऊँची-नीची (बातें) सुनाओ, तब वे मानेगे।
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ऊँचे  : क्रि० वि० [हिं० ऊँचा] १. ऊपर की ओर। ऊँचाई पर। २. कहने बोलने आदि के संबंध में, जोर से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँछना  : स० [उञ्छन=बीनना] बाल झाड़ना। बालों में कंघी करना।
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ऊँट  : पुं० [सं० उष्ट्र, पा० उट्ट] [स्त्री० ऊँटनी] एक प्रसिद्ध रेगिस्तानी पशु जिस पर सवारी की जाती तथा बझ लादा जाता है। यह रेतीले मैदानों में बिना कुछ खाये-पीये कई दिन निरंतर चलता रहता है। कहावत-ऊँट किस करवट बैठता है=इस बात की प्रतीक्षा में रहना कि किसी बात या समस्या का अंत किस या कैसा प्रकार होता है। मुहावरा— ऊँट के गले में बिल्ली बाँधना किसी बहुत बड़ी समस्या को साधारण ठहराते हुए उसके साथ कोई ऐसी बहुत ही छोटी या साधारण समस्या लगा देना जिसके बिना उस बड़ी समस्या का निराकरण ही न हो सकता हो। २. रहस्य संप्रदाय में, मन। मुहावरा—ऊँट के मुँह में जीरा=किसी बहुत बड़े डील-डौलवाले आदमी को उसके आकार या खुराक के विचार से बहुत थोड़ी चीज खाने को देना।
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ऊँटकटारा  : पुं० [सं० उष्ट्र-कण्ट] एक प्रकार की कँटीली झाड़ी या पौधा।
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ऊँटवान  : पुं० [हिं० ऊंट+वान (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो ऊंट चलाता हो।
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ऊँड़ा  : पुं० [सं० कुंड] १. वह बरतन जिसमें रूपये-पैसे रखकर जमीन के अंदर गाड़ते हैं। २. इस प्रकार धन गाड़ने या छिपाने के लिए बनाया हुआ गड्ढा। चहबच्चा। ३. तहखाना। वि० गंभीर। गहरा। (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँदर  : पुं०=इंदुर (चूहा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँधा  : पुं० [हिं० औधा] जलाशय का वह ढालुआँ किनारा जहाँ से पशु नहाने और पानी पीने आते-जाते हैं। वि०=औधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊँहू  : अव्य० [देश] किसी के या किसी बात के उत्तर में कहा जानेवाला अस्वीकृति सूचक शब्द जो प्रायः नाक से बोला जाता है। कदापि नहीं।
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ऊना  : अ०=उअना (उगना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊआबाई  : वि० [हिं० आव० बाव या सं० वायुहवा] १. इधर-उधर का। २. व्यर्थ या निरर्थक। स्त्री० इधर-उधर की या बे-सिर पैर की बात।
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ऊक  : स्त्री० [सं० उल्का] १. उल्का। २. जलती हुई लकड़ी। ३. दाह। ताप। आँच। स्त्री०=चूक।
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ऊकटना  : स०=उकठना। (राज०)
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ऊकना  : अ०=चूकना। स० १. जान-बूझकर या भूल से छोड़ देना। २. उपेक्षा करना। स० [हिं० ऊकताप] १. दग्ध करना० जलाना। २. कष्ट या ताप पहुँचाना। अ० १. जलना। २. ताप उत्पन्न करना। तपाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊकसना  : अ०=उकसना। स०=उकसाना। (राज०)।
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ऊकार  : पुं० [सं० ऊ+कार] ‘ऊ’ अक्षर या उसकी ध्वनि।
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ऊख  : पुं० [सं० इक्षु, प्रा० इच्छु, गु० ऊस, बं० आकु, उ० आखु, सिंह० उक, ईक, मरा० ऊँस] घास या सरकंडे की जाति का एक प्रसिद्ध पौधा जिसके कांड के रस से गुड़ और चीनी बनाई जाती है। वि० [सं० उष्ण या उष्म] तपा हुआ। गरम। उदाहरण— उष्ण काल अरू देह खिन मगपंथी तन ऊख-तुलसी। पुं० ग्रीष्म ऋतु। गरमी के दिन। स्त्री० उषा या उषःकाल। उदाहरण— ऊख समै वर दुजनि कह वंटिअप्प कर दिन्न।—चंदवरदाई।
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ऊखड़  : पुं० [सं० ऊषट] पहाड़ के नीचे की सूखी जमीन। भाभर।
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ऊखम  : पुं०=उष्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊखल  : पुं० [सं० उलूखल] धान आदि कूटने के लिए बनाया हुआ काठ या पत्थर का गहरा पात्र। ओखली। मुहावरा—ऊखल में सिर देना=जान-बूझकर किसी जोखिमों या झंझट के काम में पड़ना। पुं० [सं० ऊष्म] गरमी। पं० [सं० उखवेल] एक प्रकार का तृण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊखा  : स्त्री० [सं० ऊष्मा] १. आग। २. गरमी। ताप। उदाहरण—और दिनन ते आजु दहो हम ऊखा ल्याई।
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ऊखाणा  : पुं० [सं० उपाख्यान] कहावत। (राज०)
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ऊखिल  : वि० [सं० उखर्वल] १. तिनका। तृण। २. खटकनेवाली चीज। काँटा। उदाहरण— ऊखिल ज्यौं खरकै पुतरीन मैं।—घनआनंद।
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ऊगट  : वि० [सं० उद्धर्त्त] ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। उदाहरण—साखिए ऊगट माँजिणउ खिजमति करइ अनंत।—ढो० मा०।
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ऊगना  : अ०—उगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊगरना  : स०=उगलना। उदाहरण—बाहर थाजइ ऊगरइ भीगा माँझ धरेह।—ढो० मा० अ० बाहर निकलना।
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ऊगरा  : वि० [?] उबाला हुआ । जैसे—ऊगरा चावल उबाला हुआ चावल या भात।
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ऊचाला  : पुं० [सं० उत्-चल] प्रयाण। प्रस्थान। उदाहरण— पिंगल ऊचालऊ कियऊ नल नरवरच देसि।—ढोला मारू।
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ऊछजना  : अ० [सं० उत्-सज्जा] (अस्त्र आदि) ऊपर उठाकर अपने बचाव के लिए तैयार होना। उदाहरण— बड़फरि ऊछजतै विरुधि।—प्रिथीराज।
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ऊछाह  : पुं०=उछाह। (उत्साह)
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ऊज  : पुं० [सं० उद्धन-ऊपर फेंकना] १. उपद्रव। २. अंधेर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊजड़  : वि० उजाड़। जैसे—ऊजड़ ग्राम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊजना  : अ० [हिं० पूजना का अनु] पूर्ण या परिपूर्ण होना। स० पूर्ण या परिपूर्ण करना।
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ऊजम  : पुं०=उद्यम।
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ऊजर  : वि०=उजला। वि० उजाड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊजरा  : वि०=उजला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊटक-नाटक  : पुं० [सं० उत्कट-नाटक] १. दिखावटी पर महत्त्वहीन कार्य। २. इधर-उधर का व्यर्थ का या साधारण काम। वि० निरर्थक। व्यर्थ।
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ऊटना  : अ० [हिं० औटना=खलबलाना] १. उमंग में आना। २. मन में किसी प्रकार की योजना बनाना। मंसूबा बाँधना। उदाहरण—जूटैलगे जान गन,ऊटै लगे ज्वान जन, छूटै लगे बाज धन, लूटै लगे प्रान तन।—गोपाल। ३. तर्क-वितर्क का सोच-विचार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊट-पटांग  : वि० [हं० अटपट+अंग या ऊँट पर टांग ?] १. जो आकार, रचना आदि के विचार से बहुत ही बेढंगा बना हो। २. (कार्य या बात) जो बिना किसी क्रम या तत्त्व के हो। ३. निरर्थक। व्यर्थ का।
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ऊड़ना  : स० [सं० ऊढ़] १. विवाह करना। ब्याहना। २. किसी स्त्री को रखेली बनाकर घर में रखना। उदाहरण—बूढ़ खाइ तो होइ नवजोबन सौ मेहरी लै ऊड़।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊड़ा  : पुं० [सं० ऊन] १. कमी। त्रुटि। २. टोटा। घाटा। ३. अकाल या महँगी के दिन। ४. नाश। ५. निशाना। लक्ष्य।
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ऊड़ी  : स्त्री० [हिं० उड़ना] १. पनडुब्बी नाम की चिड़िया। २. लक्ष्य। निशाना। ३. एक प्रकार की चरखी। ४. टेकुआ। (जुलाहे)
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ऊढ़  : वि० [सं० √वह (ढोना, पहुँचाना)+क्त] जिसका विवाह हुआ हो।
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ऊढ़ना  : अ० [सं० ऊह-सोच-विचार] १. सोच-विचार करना। २. अनुमान या तर्क करना। अ० [सं० ऊढ़] विवाह होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊढा  : स्त्री० [सं०√वह+क्त-टाप्] १. विवाहिता स्त्री। २. साहित्य में वह नायिका जो अपने पति को तथा सांसारिक लोक-लज्जा त्याग कर पर-पुरुष से प्रेम करती हो।
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ऊत  : वि० [सं० अपुत्र, प्रा० अउत्त] १. बिना पुत्र का। निपूता। निःसंतान। २. उजडैड्। मूढ़। ३. उद्धत।
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ऊतक  : पुं० [सं० ऊति से] [वि० औतिक] १. ऐसी चीज जिसमें ताने-बाने वाली बुनावट हो। २. जीव-विज्ञान में जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों आदि में वह बहुत सूक्ष्म अंग या अंश जो एक ही प्रकार की केशिकाओं से बना और उन्हीं से ओत-प्रोत होता है। (टिश्यू)।
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ऊतर  : पुं० [सं० उत्तर] १. उत्तर। जबाव। २. ऐसी झूठी या बनावटी बात जो अपना बचाव करने के लिए उत्तर के रूप में कही जा सके। बहाना। हीलाहवाला। उदाहरण—ऊता कौन हू कै पदमाकर दै फिरै कुंजगलीन में फेरी।—पद्याकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊतला  : वि० [हिं० उतावला] १. तेज। वेगवान। २. चंचल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊताताई  : वि० [हिं० ऊत] नासमझ। मूर्ख।
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ऊति  : स्त्री० [सं०√अव् (रक्षण)+क्तिन्] १. सीने का काम। सिलाई। २. बुनावट। ३. रक्षा। हिफाजत। ४. कृपा। अनुग्रह। ५. सहायता। ६. खेलवाड़। तमाशा। ७. पुराणों में कर्म की वासना। ८. चुआने या टपकाने की क्रिया या भाव।
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ऊतिमा  : वि०=उत्तम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊथापना  : स०=उथपना।
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ऊद  : पुं० [अ०] १. अगर नामक वृक्ष या उसकी लकड़ी। २. एक प्रकार का बाजा। पुं०=ऊदबिलाव। (जंतु)
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ऊदबत्ती  : स्त्री० [अ० ऊद+हिं० बत्ती] ऊद या अगर की बनी हुई सुंगधित बत्ती।
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ऊदबिलाव  : पुं० [सं० उद्र+हिं० बिलाव-विडाल] नेवले की तरह का परंतु उससे कुछ बड़ा एक जंतु जो स्थल के सिवा प्रायः जल में भी रहता है। वि० मूर्ख। बुद्धू।
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ऊदल  : पुं० [?] १. हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का पेड़। २. महोबे के राजा परमाल का एक सामंत जो आल्हा का अनुज था।
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ऊदा  : वि० [अ० ऊद या फा० कबूद] [स्त्री० ऊदी] ललाई लिए हुए काला या बैंगनी रंग का। पुं० १. उक्त प्रकार का रंग। २. उक्त रंग का घोड़ा।
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ऊधम  : पुं० [सं० उद्धम-ध्वनित] (बच्चों का या बच्चों जैसा) हो-हल्ला मचाना या उछलना-कूदना। धमा-चौकड़ी।
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ऊधमी  : वि० [हिं० ऊधम] ऊधम मचानेवाला।
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ऊधरना  : अ० [सं० उद्धरण] उद्धार पाना। बचना। उदाहरण—ऊधरी पताल हूँ।—प्रिथीराज। स० उद्धार करना।
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ऊधरा  : वि० [सं० ऊर्ध्व] ऊँचा। उच्च (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊधव  : पुं० उद्धव (कृष्ण के सखा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊधो  : पुं० [सं० उद्धव] उद्धव (कृष्ण के सखा)।
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ऊन  : पुं० [सं० ऊर्ण, प्रा० ऊणु, गु० उर्णा, सि० ऊणु, सिह० उन, मरा० उण, पं० उन्न] भेड़ों, बकरियों आदि के शरीर पर होनेवाले रोएँ जो बहुत ही चमकीले, बारीक, मजबूत और गुरचे या ऐठें हुए होते हैं तथा जिन्हें बटकर कंबल, चादरें, पहनने के गरम कपड़े आदि बनाये जाते हैं। विशेष—आज-कल कई तरह के रेशों से कृत्रिम या नकली ऊन भी बनने लगा है। वि० [सं० ऊन् (कम करना)+अच्] १. कम। थोड़ा। उदाहरण—शमित करने को स्वमद अति ऊन।—दिनकर। स्त्री० १. कमी। त्रुटि। २. किसी चीज या बात के अभाव या कमी के कारण नष्ट या खेद। मुहावरा—(किसी बात की) ऊन मानना कमी, त्रुटि आदि का अनुभव करते हुए मन में दुःखी होना। दिल छोटा करना। उदाहरण—सुनु कपि जिय मानसि मत ऊना।—तुलसी। पुं० [?] स्त्रियों के व्यवहार के लिए बनाई हुई एक प्रकार की छोटी तलवार।
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ऊनक  : वि० [सं० उन+कन्] १. अपर्याप्त। कम। थोड़ा। २. हीन। छोटा। ३. सदोष।
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ऊनता  : स्त्री० [ऊन+तल्-टाप्] १. ऊन या कम होने की अवस्था या भाव। कमी। न्यूनता। २. अभाव।
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ऊनना  : अ० [हिं० ऊन] १. कम पड़ना या होना। घटना। २. छोटा या संकीर्ण होना। स० १. कम करना। घटाना। २. तुच्छ या संकीर्ण करना।
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ऊना  : वि० [हिं० ऊन=कम] १. कम। थोड़ा। २. अधूरा। अपूर्ण। ३. तुच्छ। हीन। पुं० [?] स्त्रियों के व्यवहार के लिए बनाई हुई एक प्रकार की छोटी तलवार।
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ऊनित  : भू० कृ० [सं०√ऊन्+क्त] जिसे कम किया गया हो। घटाया हुआ।
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ऊनी  : वि० [हिं० ऊन] ऊन का या ऊन से बना हुआ। जैसे—ऊनी कंबल या चादर। स्त्री० [हिं० ऊनकमी] १. कमी। न्यूनता। २. त्रुटि। दोष। ३. मन में होनेवाला खेद या ग्लानि। ४. उदासीनता। उदासी।
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ऊन्हालउ  : पुं० उन्हाला। उदाहरण— ऊन्हालउ ऊतारियउ, प्रगट्यउ पावस मास।—ढोला मारू।
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ऊप  : पुं० [सं० वप्] अनाज का वह अतिरिक्त अंश जो किसानों को ऋण के रूप में बोने के लिए लिये हुए बीजों के संबंध में चुकाना पड़ता है। बीजों का अन्न के रूप में दिया जानेवाला ब्याज। स्त्री० ओप (चमक)।
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ऊपना  : अ० [हिं० उपजना] उत्पन्न होना। उपजना। उदाहरण—त दुख यह सुख उपनै, रैन माँझ दिन होय।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊपन्न  : वि० उत्पन्न।
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ऊपर  : अव्य० [सं० उपरि] [वि० ऊपरी] एक संबंधसूचक शब्द जो प्रायः क्रिया विशेषण की तरह और कभी-कभी विशेषण और फलतः संज्ञा की तरह प्रयुक्त होता और नीचे लिखे अर्थ देता है- १. किसी तल,बिन्दु या विस्तार की तुलना में ऊँचाई की ओर, आकाश की ओर, ऊर्ध्व दिशा में। तले या नीचे का विपर्याय। जैसे—(क) नीचे पृथ्वी और स्वर्ग ऊपर है। (ख) सूर्य ऊपर आ चला है। २. उत्सेध के विचार से ऊँचे तल या पार्श्व पर। ऊँचे स्थान में या ऊँचाई पर। जैसे—(क) चलो ऊपर चलकर बातें करे। (ख) ऊपरवाली दोनों पुस्तकें उठा लाओ। ३. किसी विस्तार के विचार से, इस प्रकार इधर-उधर या चारों (फैला हुआ) कि कोई चीज या इसका कुछ अंश ढक जाय। जैसे—कमीज के ऊपर कोट पहन लो या ऊपर चादर डाल लो। ४. टिके या ठहरे रहने के विचार से,किसी के आधार या सहारे पर। जैसे—(क)गिलास के ऊपर तश्तरी रख दो। (ख) ये चीजें चौकी के नीचे से निकालकर उसके ऊपर रख दो० ५. किसी पदार्थ या विस्तार के किनारे पर या पास ही सटकर। जैसे—(क) तालाब के ठीक ऊपर मंदिर है। (ख) वे गंगा के ठीक ऊपर मकान बनवा रहे हैं। ६. (पुस्तक लेख आदि में) किसी प्रकार के क्रम के विचार से जो पहले आया या हुआ हो अथवा जो पहले से वर्त्तमान हो। आदि या आरंभिक भाग में। जैसे—(क) पहले ऊपर की सब रकमों का जोड़ लगा लो। (ख) हम ऊपर कहे आये हैं कि राजनीति हमारा मुख्य विषय नहीं है। ७. ऊँची या उच्च कोटि के वर्ग या श्रेणी में। जैसे—छोटा भाई तो परीक्षा में पारित होकर ऊपर चला गया और बड़ा जहाँ का तहाँ रह गया है। ८. पद, मर्यादा आदि के विचार से, आधिकारिक और उच्च या श्रेष्ठ स्थिति में। जैसे—(क) दल सिपाहियों के ऊपर एक जमादार रहता है। (ख) ऊपर की अदालत ने यह आज्ञा रद्द कर दी है। ९. कार्य के निर्वाह या भार के वहन के विचार से उत्तरदायित्व के रूप में। जैसे—तुमने इतने काम अपने ऊपर ले रखे हैं, जिनकी गिनती नही। १॰ उपयोगिता, गुण, विशेषता आदि के विचार से औरों से बढ़कर। उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—आपकी सम्मति सबसे ऊपर है। ११. अंकित, नियत या निर्धारित मात्रा या मान से अधिक। ज्यादा। जैसे—जरा-सी बात में सौ रुपये से ऊपर लग गये। पद—ऊपर कानियत, नियमित, साधारण आदि से भिन्न। जैसे—(क) ऊपर के काम करने के लिए एक आदमी और रख लो। (ख) उनका सारा खर्च तो ऊपर की आमदनी से चल जाता है, और वेतन यों ही बच रहता है। (ग) देखो, ऊपर के सब लोग इस कमरे में न आने पावें। ऊपर ऊपर (क) प्रस्तुत के साथ बिना किसी संपर्क या संबंध के। अलग और बाहर। जैसे—वे ऊपर-ऊपर आये और चले गये। हमसे मिले भी नहीं। (ख) बिना किसी को जतलाये। चुप-चाप। चुपके से। जैसे—तुम ऊपर-ऊपर सब कारवाई कर लेते हो, हमसे पूछते भी नहीं। ऊपर से अतिरिक्त। अलग। सिवा। जैसे—ज्वर तो था ही, ऊपर से पेट में दरद भी होने लगा। १२. अंदर की तुलना में, प्रत्यक्ष, बाहर या सामने। जैसे—इस दवा से अन्दर का रोग ऊपर आ जायगा। पद—ऊपर-ऊपर से बिना गहराई या तह तक पहुँचे। जैसे—अभी तो हमने ऊपर-ऊपर से सब बातें देखी या समझी है। ऊपर का जो प्रत्यक्ष या सामने हो। जैसे—इनकी ऊपर की आँखे तो फूटी ही है, अंदर की भी फूटी हैं। ऊपर से औपचारिक रूप में या दिखलाने भर के लिए। जैसे—ऊपर से तो उनका व्यवहार अच्छा ही है,अंदर की राम जानें। ऊपर से देखने पर-साधारणतः पहले पहल देखने पर जोरूप दिखाई देता हो,उसके आधार पर या विचार से। (प्राइमाफेसी) पद—ऊपर तलेऊपर-नीचे(दे०)। विशेष—‘ऊपर’ और ‘पर’ बहुत अधिक परन्तु बहुत सूक्ष्म अन्तर है। प्रस्तुत प्रसंग में ‘पर’ का मुख्य अर्थ होता है-ऐसे रूप में कि किसी के ऊपरी तल के साथ दूसरी चीज का नीचेवाला तल सटा रहे, परंतु ‘ऊपर’ में तल के सटे होने का भाव न तो अनिवार्य ही है, न मुख्य ही। इसमें मुख्य भाव उत्सेध या ऊँचाई पर आश्रित रहने या स्थित होने का है। ‘बंदर’ पेड़ पर बैठा है। और बंदर पेड़ के ऊपर जा पहुँचा। में जो अंतर है, वह स्पष्ट ही है। परन्तु नीचे के उदाहरणों से यह अंतर और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जायगा। (क) टोपी सिर पर पहनी जाती है और पगड़ी उस (टोपी) के ऊपर बाँधी जाती है। (ख) रेल की पटरी या लाइन पुल पर बिछी रहती है, परंतु (दोहरे पुलों में) पुल के ऊपर (अर्थात् पटरीवाले विस्तार के ऊपरी भाग में, कुछ ऊँचाई पर) वह सड़क होती है। जिसपर पैदल यात्री, बैल-गाड़ियाँ आदि चलती हैं। (ग) नावें पानी पर चलती या तैरती हैं, परन्तु मछलियाँ उछलकर पानी के ऊपर आती हैं। कुछ अवस्थाओं में, जहाँ ‘अंदर’ की अपेक्षा, तुलना या विपरीतता का प्रसंग होता है, वहाँ ‘पर’ के स्थान पर भी ‘ऊपर’ का प्रयोग होता है। जैसे—(क) तुम इतना भी नही जानते कि गाड़ी पुल के ऊपर चलती हैं, नीचे नहीं चलती ? (ख) अधिकतर नावें (या जहाज) तो पानी के ऊपर ही चलते हैं, परंतु पनडुब्बी नावें पानी के ऊपर भी चलती हैं और अंदर (या नीचे) भी।
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ऊपर-तले  : वि० [हिं० ऊपर+तले] १. (दो या दो से अधिक पदार्थ) जो क्रम के विचार से एक दूसरे के ऊपर पड़े या रखे हों। २. काल-क्रम के विचार से एक के तुरंत बाद दूसरावाला। पद—ऊपर-तले के (ऐसे भाई-बहन) जो एक-दूसरे के ठीक पहले या ठीक बाद उत्पन्न हुए हों। अव्य० १. एक के ऊपर एक। २. एक के बाद एक (काल-क्रम के विचार से)। जैसे—ऊपर-तले कई घटनाएँ एक साथ घटी थी।
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ऊपर-नीचे  : वि० , अव्य० [हिं० ऊपर+नीचे] ऊपर-तले।
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ऊपरवाला  : पुं० [हिं० ऊपर+वाला] १. ईश्वर। २. सूर्य। ३. चंद्रमा। ४. बादल। ५. इंद्र। वि० १. जो ऊपर रहता या होता हो। २. अपरिचित या बाहरी।
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ऊपरी  : वि० [हिं० ऊपर] १. क्रम, स्थिति आदि के विचार से ऊपर की ओर होने या रहनेवाला। ऊपर का। जैसे—(क) घर का ऊपरी खंड या भाग। (ख) बादाम का ऊपरी छिलका। २. जो किसी निश्चित क्षेत्र, वर्ग आदि से अलग या बाहर का हो। जैसे—ऊपरी आदमी। ३. नियत या नियमति से भिन्न। अतिरिक्त। जैसे—ऊपरी आमदनी। ४. जिसका प्रस्तुत से कोई संबंध न हो। जैसे—ऊपरी बातें। ५. जिसका आविर्भाव किसी ऊपरी (अर्थात् अलौकिक) कारणों, उपद्रवों आदि से हो। जैसे—ऊपरी फसाद (भूत-प्रेत आदि की बाधा)। ६. (आचरण या व्यवहार) जो केवल ऊपर से अर्थात् दिखाने भर के लिए किया जाय, वास्तविक या हार्दिक न हो। औपचारिक या दिखावटी। जैसे—ऊपरी आदर-सत्कार। ७. (कार्य) जिसका कोई ठोस आधार या भीतरी तत्त्व न हो। जैसे—ऊपरी तड़क-भड़क।
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ऊफणना  : अ०=उफनना। उदाहरण— अति अँबु कोपि कुँवर ऊफणियौ।—प्रिथीराज।
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ऊब  : स्त्री० [हिं० ऊबना] १. ऊबने की क्रिया या भाव २. बेचैनी। विकलता। स्त्री०=ऊभ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊबट  : पुं० [सं० उद्बुरा+वर्त्त्म, प्रा० बह-मार्ग] कठिन मार्ग। बीहड़ रास्ता। वि० ऊबड़-खाबड़। टेढ़ा-मेढ़ा।
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ऊबड-खाबड़  : वि० [अनु] (मार्ग या स्थल) जो कहीं पर ऊँचा और कहीं पर नीचा हो। अटपट या असमतल।
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ऊबना  : अ० [सं० उडेजन, पा० उब्बिजन] किसी वस्तु के यथेष्ठ भोग से तृप्ति हो जाने के उपरांत उसके प्रति मन में विरक्ति उत्पन्न होना। जी भर जाने के उपरांत किसी वस्तु-विशेष में रुचि न रह जाना।
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ऊबर  : वि० [हिं० उबरनाबचना] १. अधिक। ज्यादा। २. अतिरिक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊभ  : वि० [हिं० ऊभना=खड़ा होना] ऊँचा उठा हुआ। स्त्री० १. मन में उत्पन्न होनेवाली उमंग। स्त्री० १. ऊब। २. =ऊमस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊभ-चूभ  : स्त्री० [हिं० ऊभ(उमंग)+अनु०चूभ] १. (जल में) डूबने-उतराने की क्रिया। २. (मन में) कभी आशा और कभी निराशा होने की अवस्था या भाव।
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ऊभना  : अ० [सं० उद्भवऊपर उठना] १. ऊपर की ओर उठना। २. खड़ा होना। अ० ऊबना।
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ऊभा  : वि० [हिं० ऊभना] [स्त्री० ऊभी] १. उठा हुआ। २. खड़ा। उदाहरण— आवासि उतारि जोड़ि कर ऊभा-प्रिथीराज।
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ऊभासाँसी  : स्त्री० [हिं० ऊबना+साँस] १. दम घुटने या ठीक तरह से साँस न आने की अवस्था या भाव। दम घुटना। २. घबराहट। बेचैनी। विकलता।
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ऊमंतना  : अउमड़ना।
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ऊमक  : स्त्री० [हिं० उमगना] १. उमंग। २. झोंक। वेग।
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ऊमटना  : अ० उमड़ना।
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ऊमना  : अ० १. =उमगना। २. =उमड़ना।
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ऊमर  : पुं० [सं० उदुम्बर] गूलर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊमस  : स्त्री०=उमस।
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ऊमहना  : अ०=उमहना।
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ऊमा  : स्त्री० [सं० उम्बी] गेहूँ, जौ आदि की हरी बाल।
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ऊरज  : वि०=ऊर्ज। पुं०=ऊर्जा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊरध  : वि०=ऊर्ध्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊरव्य  : पुं० [सं० ऊरु+यत्] [स्त्री० ऊख्या]=ऊरुज (वैश्य)
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ऊरा  : वि० [हिं० पूरा का अनु०] अधूरा। अपूर्ण। उदाहरण— सांग का पूरा ग्यान का ऊरा।—गोरखनाथ।
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ऊरी  : स्त्री० [देश०] जुलाहों का एक औजार।
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ऊरु  : पुं० [सं० ऊर्णु (आच्छादन)+कु] जाँघ। रान।
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ऊरुज  : वि० [सं० ऊरु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जिसका जन्म जाँघ से हुआ हो। पुं० वैश्य जाति जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा की जाँघ से मानी गई है।
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ऊरु-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] वैश्य। पुं० [सं० ] घुटना।
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ऊरुस्तंभ  : पुं० [सं० ऊरु√स्तंभ(रोकना)+अण्] एक प्रकार का वात रोग जिसमें घुटने और जाँघे जकड़ जाती हैं।
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ऊरू  : स्त्री० [देश] अलई या ऐल नामक कँटीली लता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊरूद्भव  : वि० पुं० [सं० ऊरु-उद्भव, ब० स०] दे० ‘ऊरुज’।
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ऊर्ज  : वि० [सं०√ऊर्ज् (बल, जीवन)+अच्] १. बली। शक्तिमान। २. बल या शक्तिवर्धक। बल देनेवाला। पुं० १. बल। शक्ति। २. वीर्य। ३. जीवन। ४. श्वास। साँस। ५. उत्साह। ६. प्रयत्न। ७. जल। पानी। ८. अन्न का सार-भूत रस। ९. एक काव्यालंकार जिसमें शक्ति या सहायकों के कम होने पर भी आत्माभिमान और उत्साह ज्यों का त्यों बना रहने का उल्लेख होता है। १॰० आज-कल, विद्युत की गति-दायक शक्ति की सार्वराष्ट्रीय नाप जो इकाई के रूप में मानी गई है। (वोल्ट)
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ऊर्ज-मान  : पुं० [ष० त०] बिजली की गति-दायक शक्ति जो ऊर्ज के मान से जानी या नापी जाती है। (वोल्टेज)
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ऊर्जस्  : पुं० [सं०√ऊर्ज्+असुन] १. शक्ति। २. उत्साह। ३. आहार। भोजन।
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ऊर्जस्वल  : वि० [सं० ऊर्जस्+वलच्] १. ऊर्ज से युक्त। बलवान। २. तेजस्वी। ३. श्रेष्ठ।
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ऊर्जस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० ऊर्जस्+मतुप्] १. ऊर्जा से युक्त। २. रसीला।
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ऊर्जस्वित  : वि० [सं० ऊर्जस्+इतच्] ऊर्जा से युक्त या संपन्न।
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ऊर्जस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० ऊर्जस्+विनि] १. जिसमें यथेष्ठ ऊर्ज या ऊर्जा हो, फलतः तेजस्वी और बलवान। २. प्रतापी।
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ऊर्जा  : स्त्री० [सं०√ऊर्ज्+अ-टाप्] १. शक्ति। बल। २. किसी वस्तु की वह शक्ति जो काम करने के समय उसमें लगती या व्यय होती है। (एनर्जी) ३. आहार। ४. प्रजापति दक्ष की कन्या जिसका विवाह वशिष्ठ से हुआ था।
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ऊर्जित  : वि० [सं० √ऊर्ज+क्त] १. ऊर्जा से युक्त, फलतः ओजस्वी, तेजस्वी या बलवान। २. श्रेष्ठ। ३. गंभीर। ४. समृद्ध।
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ऊर्जी (र्जिन्)  : वि० [सं० ऊर्ज्+इनि] (स्थान) जहाँ खाने-पीने की वस्तुओँ की अधिकता हो।
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ऊर्ण  : पुं० [सं० ऊर्णा+अच्] १. ऊन। २. ऊनी कपड़ा।
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ऊर्ण-नाभ  : पुं० [सं० ऊर्ण+नाभि+ब० स०,+अच्] मकड़ा।
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ऊर्णा  : स्त्री० [सं० √ऊर्णु+ड-टाप्] १. ऊन। २. भौंहों के बीच की भौंरी।
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ऊर्णायु  : पुं० [सं० ऊर्णा+युस्] १. ऊनी कंबल या चादर। २. भेड़ा। ३. मकड़ा।
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ऊर्ध  : वि० अव्य=ऊर्ध्व।
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ऊर्ध्व  : अव्य० [सं० उत√हा (गति)+ड, पृषो, उर्आदेश] ऊपर की ओर। ऊपर। वि० १. ऊपर की ओर सीधा गया हुआ। उदग्र। (वर्टिकल) २. ऊँचा। ३. खड़ा। स्त्री० १. दस दिशाओं में से एक जो सिर के ठीक ऊपर की ओर पड़ती है। २. संगीत में एक प्रकार की ताल।
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ऊर्ध्वग  : वि० [सं० ऊर्ध्व√गम् (जाना)+ड] १. ऊपर की ओर जानेवाला। २. जो सीधा ऊपर की ओर गया हो। उदाहरण—ऊर्ध्वग श्रंगों के समीर को, आओ साँसो से उर में भर।—पंत।
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ऊर्ध्व-गति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. ऊपर की ओर की चाल या गति। २. मुक्ति। मोक्ष। वि० जिसकी गति ऊपर की ओर हो।
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ऊर्ध्वगामी (मिन्)  : वि० [सं० ऊर्ध्व√गम्+णिनि] १. ऊपर या ऊपर की ओर जानेवाला। २. जो ऊपर की ओर गया हुआ हो। ३. मुक्त होकर ऊपर या स्वर्ग की ओर जानेवाला।
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ऊर्ध्व-चरण  : वि० [ब० स०] जिसके पैर ऊपर की ओर हों। पुं० शरभ नाम का कल्पित और पौराणिक सिंह, जिसके चार पैर नीचे और चार पैर ऊपर को उठे हुए माने गये हैं।
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ऊर्ध्व-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि या निगाह ऊपर की ओर हो। २. जो बहुत ऊपर उठना चाहता हो। उच्चाकांक्षी। स्त्री० योग की एक क्रिया जिसमें दृष्टि ऊपर ले जाकर त्रिकुटी पर जमाई जाती है।
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ऊर्ध्व-देव  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु।
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ऊर्ध्व-देह  : स्त्री० [कर्म० स०] वह देह या शरीर जो मनुष्य को मरने के बाद ऊपर की ओर जाने के समय प्राप्त होता है। सूक्ष्म या लिंग शरीर।
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ऊर्ध्व-द्वार  : पुं० [कर्म० स०] ब्रह्मांड का छिद्र। ब्रह्मरंध्र।
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ऊर्ध्व-नयन  : वि० [ब० स०] जिसकी आँखें ऊपर की ओर हों। पुं० ऊर्ध्व चरम या शरभ नामक पौराणिक सिंह।
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ऊर्ध्व-पाद  : पुं०=ऊर्ध्व-चरण।
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ऊर्ध्व-पुंड्र  : पुं० [कर्म० स०] वैष्णव या रामानंद संप्रदायवालो का तिलक जो माथे पर खड़े बल में लगाया जाता है।
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ऊर्ध्व-बाहु  : वि० [ब० स०] जिसकी भुजाएँ ऊपर की ओर उठी हों। पुं० एक प्रकार के तपस्वी जो सदा अपनी एक बाँह ऊपर उठाये रहते हैं।
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ऊर्ध्व-मंडल  : पुं० [कर्म० स०] वायुमंडल का वह भाग जो अधोमंडल से ऊपर है और पृथ्वीतल से २0 मील की ऊंचाई तक माना जाता है। इसमें तापमान प्रायः एक-सा रहता है।
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ऊर्ध्वमंथी (थिन्)  : पुं० [सं० ऊर्ध्व√मन्थ् (मथना)+णिनि]=ऊर्ध्वदेता।
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ऊर्ध्व-मुख  : वि० [ब० स०] जिसका मुँह ऊपर की ओर हो। पुं० अग्नि। आग।
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ऊर्ध्व-मूल  : पुं० [ब० स०] यह जगत् या संसार जिसकी जड़ या मूल ऊपर की ओर मानी गई है।
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ऊर्ध्व-रेखा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. सामुद्रिक में हाथ की एक सीधी लंबी रेखा जो ऐश्वर्य और सौभाग्य की सूचक मानी गई है। २. उक्त प्रकार की एक रेखा जो विष्णु के अवतारों के चरण-चिन्हों में से एक मानी गई है।
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ऊर्ध्व-रेता (तस्)  : वि० [ब० स०] योग की क्रियाओं द्वारा अपने वीर्य की रक्षा करनेवाला और अपना वीर्य ब्रह्मरंध्र की ओर ले जानेवाला (अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचारी)। पुं० १. महादेव। शिव। २. भीष्म पितामह। ३. हनुमान ४. सनक और सनंदन महर्षि। ५. संन्यासी।
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ऊर्ध्वलिंगी  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-लिंग, कर्म० स०+इनि] १. शिव। २. ब्रह्मचारी।
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ऊर्ध्व-लोक  : पुं० [कर्म० स०] १. आकाश। २. स्वर्ग।
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ऊर्ध्व-वात  : पुं० [कर्म० स०] १. मुँह के रास्ते से निकलनेवाली वात। २. अधिक डकार आने का रोग।
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ऊर्ध्व-वायु  : स्त्री० [कर्म० स०] डकार।
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ऊर्ध्व-विन्दु  : पुं० [कर्म० स०] १. सिर के ऊपर का सबसे ऊँचा विन्दु या स्थान। शीर्ष-विंदु। (ख-स्वस्तिक) २. अनुस्वार।
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ऊर्ध्वशायी (यिन्)  : वि० [सं० ऊर्ध्व√शी (सोना)+णिनि] ऊपर की ओर मुँह करके सोनेवाला। पुं० शिव।
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ऊर्ध्व-श्वास  : पुं० [कर्म० स०] १. ऊपर की ओर आने या चढ़नेवाला श्वास। २. मरने के समय, श्वास की वह गति जो अधिकतर ऊपर की ओर होती है।
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ऊर्ध्वांग  : पुं० [ऊर्ध्व-अंग, कर्म० स०] १. किसी चीज का ऊपरी अंग या भाग। २. शरीर का ऊपरी अंग या भाग, अर्थात् सिर।
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ऊर्ध्वा  : स्त्री० [सं० ऊर्ध्व+टाप्] एक प्रकार की पुरानी नाव जो 3२ हाथ लंबी, १६ हाथ चौड़ी और १६ हाथ ऊँची होती थी।
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ऊर्ध्वाकर्षण  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-आकर्षण, कर्म० स०] ऊपर की ओर होनेवाला आकर्षण या खिंचाव।
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ऊर्ध्वायन  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-अयन, कर्म० स०] १. ऊपर की ओर जाना या उड़ना। २. ऊपर की ओर अर्थात् परलोक या स्वर्ग जाने का मार्ग।
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ऊर्ध्वारोह  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-आरोह, कर्म० स०] १. ऊपर की चढ़ना या जाना। २. मर कर स्वर्ग जाना। ३. मृत्यु।
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ऊर्ध्वारोहण  : पुं० [सं० ऊर्ध्व-आरोहण, कर्म० स०] ऊर्ध्वारोह।
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ऊर्मि  : स्त्री० [सं०√ऋ+मि, (गति)ऊर् आदेश] १. हलकी या छोटी लहर। तरंग। २. प्रवाह। बहाव। ३. वेग। ४. प्रकाश। ५. पंक्ति। ६. कपड़े पर पड़नेवाली शिकन। सिलवट। ७. खेद। ८. इच्छा। ९. न्याय में, गरमी, सरदी, भूख, प्यास, मोह और लोभ ये छः क्लेश। १॰ उक्त के आधार पर छः की संख्या।
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ऊर्मिका  : स्त्री० [सं० ऊर्मि√कै (शब्द करना)+क-टाप्] १. लहर। २. कपड़े की शिकन। ३. अँगूठी। ४. भौंरे की गूँज।
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ऊर्मिमान् (मत्)  : वि० [सं० ऊर्मि+मतुप्] १. तरंगित। २. घुँघराला (बाल)। ३. टेढ़ा-मेढ़ा। कुंचित।
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ऊर्मि-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. लहरों की श्रंखला या समूह। २. एक प्रकार का छंद।
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ऊर्मिमाली (लिन्)  : पुं० [सं० ऊर्मिमाला+इनि] १. लहरों से युक्त। २. (जलाशय) जिसमें छोटी-छोटी तरंगें या लहरें उठती हों।
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ऊर्मिल  : वि० [सं० ऊर्मिल+लच्] १. लहरों से युक्त। २. (जलाशय) जिसमें छोटी-छोटी तरंगे या लहरें उठती हों।
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ऊर्मिला  : स्त्री० [सं० ऊर्मिल+टाप्] लक्ष्मण की पत्नी का नाम।
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ऊर्मी  : स्त्री०=ऊर्मि।
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ऊर्वशी  : स्त्री०=उर्वशी।
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ऊलंग  : स्त्री० [देश०] एक तरह की चाय। वि०=उलंग (नंगा)
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ऊल  : स्त्री० [हिं० ऊलना] ऊलने या उल्लसित होने की क्रिया या भाव। उल्लास। उमंग। पद—ऊल-फूल (देखें)।
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ऊलक  : पुं० [देश] एक प्रकार का वन-मानुष जो असम की पहाड़ियों में होता है।
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ऊल-जलूल  : वि० [देश] १. (काम या बात) जिसका कोई ठीक-ठिकाना या सिर-पैर न हो। अंड-बंड। २. (व्यक्ति) जिसमें बुद्धि, शिष्टता, सभ्यता आदि का पूरा अभाव हो। बेवकूफ और बेहूदा।
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ऊलना  : अं० [हिं० उछलना] १. प्रसन्न या उल्लसित होना। २. उछलना। ३. मर्यादा का उल्लंघन करना। ४. मनमाना आचरण करना। ५. आतुर होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊल-फूल  : स्त्री० [हिं० ऊलना-फूलना] उल्लास और प्रफुल्लता या प्रसन्नता।
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ऊलर  : स्त्री० [?] कश्मीर की एक प्रसिद्ध बड़ी झील।
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ऊलहना  : अ०=उलहना। पुं०=उलाहना।
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ऊवड़ना  : अ० उमड़ना। उदाहरण— ऊजलियाँ धाराँ ऊवड़ियौ।—प्रिथीराज।
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ऊषक  : पुं० [सं० ऊष+कन्] १. तड़का। प्रभात। भोर। २. नमक। ३. काली मिर्च।
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ऊषर  : पुं० [सं० ऊष+र अथवा ऊष√रा (देना)+क] ऊसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ऊषरज  : पुं० [सं० ऊषरजन् (उत्पन्न होना)+ड] १. नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक। २. एक प्रकार का चुंबक।
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ऊषा  : स्त्री० [सं० भष्+क-टाप्] १. दिन चढ़ने से पहले का वह समय जब अँधेरा रहने पर भी पूर्व में उदित होने वाले सूर्य की लाली दिखाई देती है। तड़का। प्रभात। २. पौ फटने के समय दिखाई देनेवाली उक्त लाली। अरुणोदय की अरुणिमा। ३. बाणासुर की कन्या जो अनिरुद्ध को ब्याही थी। ऊषा-कर
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ऊषा-काल  : पुं० [ष० त०] १. तड़का। प्रभात। २. प्रातःकाल। सबेरा।
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ऊषा-पति  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध, जो बाणासुर की कन्या ऊषा के पति थे।
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ऊष्म  : पुं० [सं०√भष्+मक्] १. गरमी। २. गरमी के दिन। ग्रीष्म ऋतु। ३. भाप। वि० गरम।
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ऊष्म-वर्ण  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में, उच्चारण के विचार से श, ष, और ह ये अक्षर या वर्ण।
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ऊष्मा (ष्मन्)  : स्त्री० [सं० √ऊष्+मनिन्] १. गरमी का मौसम। ग्रीष्म ऋतु। गरमी। २. गरम होने की अवस्था, गुण या भाव। ताप। ३. भाप। वाष्प।
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ऊष्मायण  : पुं० [सं० ऊष्म+फक्-आयन] ग्रीष्म ऋतु।
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ऊसन  : पुं० [देश०] तरमिका नाम का पौधा।
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ऊसर  : पुं० [सं० √ऊषर] ऐसी भूमि जिसकी मिट्टी में रेह की मात्रा बहुत अधिक होती है। और इसी लिए जिसमें पेड़-पौधे नहीं उगते। वि० (क्षेत्र या भूमि) जिसमें कुछ उत्पन्न न होता हो।
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ऊह  : अव्य० [अनु०] कष्ट या पीड़ा-सूचक अव्यय। ओह।पुं० [सं०√ऊह् (तर्क करना)+घञ] =ऊहा।
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ऊहन  : पुं० [सं०√ऊह्+ल्युट-अन] १. ऊह या तर्क-वितर्क करना। २. परिवर्त्तन करना। बदलना। ३. संस्कार या सुधार करना।
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ऊहनीय  : वि० [सं०√ऊह्+अनीयर] (विषय) जो तर्क-वितर्क या बुद्धि के द्वारा जाना या समझा जा सके।
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ऊहा  : स्त्री० [सं०√ऊह्+अ-टाप्] १. अनुमान, कल्पना, तर्क-वितर्क, व्युत्पत्ति आदि द्वारा किसी बात का अर्थ या आशय जानना या समझना। २. बुद्धि। समझ। ३. तर्क। ४. किंवदंती। जन-प्रवाद।
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ऊहापोह  : पुं० [सं०√ऊह-अपोह, द्व० स०] किसी विषय में कुछ निश्चय न होने की दशा में मन में होनेवाला तर्क-वितर्क या सोच-विचार।
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ऊही (हिन्)  : वि० [सं० ऊह+इनि] ऊहा करनेवाला।
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ऊह्य  : वि० [सं०√ऊह्+ण्यत्] (बात या विषय) जिसके संबंध में ऊह (तर्क-वितर्क या सोच-विचार) हो सके। ऊहनीय।
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