शब्द का अर्थ
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एकांक :
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वि० [सं० एक-अंक, ब० स०]=एकांकी। |
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समानार्थी शब्द-
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एकांकी :
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वि० [सं० एकांक] (दृश्यकाव्य या नाटक) जो एक ही अंक में पूरा हो। जिसमें एक ही अंक हो। पुं० १. दस प्रकार के रूपको में से एक। २. आजकल वह छोटा नाटक जिसमें कई दृश्यों का एक ही अंक हो। (वन-एक्ट-प्ले) |
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एकांग :
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वि० [एक-अंग, ब० स०] १. एक अंगवाला। २. जिसका कोई एक अंग नष्ट हो गया हो तथा दूसरा एक ही अंग बच रहा हो। विकलांग। पुं० १. विष्णु। २. बुध ग्रह। ३. चंदन। ४. सिर। |
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एकांग-घात :
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पुं० [ब० स०] अंगघात रोग का एक प्रकार जिसमें दाहिने या बाँए हाथ या पैर में से कोई एक अंग सुन्न और अक्रिय हो जाता है। (मॉनो-प्लेगिया)। |
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एकांग-वध :
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पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत में अपराधी को दिया जानेवाला वह दंड जिसमें उसका कोई एक अंग काट लिया जाता है। |
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एकांग-वात :
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पुं० [ब० स०] पक्षाघात। लकवा। |
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एकांगी :
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वि० [सं० एकांग] १. जिसका एक ही अंग हो। एक अंगवाला। २. जिसका संबंध एक ही अंग या पक्ष से हो। एक-तरफा। एक-पक्षीय। ३. एक ही बात पर अड़ा रहनेवाला। जिद्दी। हठी। स्त्री० एक ओषधि जो वात या रुधिर-संबंधी विकारों को दूर करनेवाली कही गई है। |
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एकांत :
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वि० [एक-अन्त, ब० स०] १. (स्थान) जो निर्जन या सूना हो। २. पूरी तरह से किसी एक ही पक्ष में रहनेवाला या किसी नियम, निष्ठा आदि का पालन करनेवाला। एक को छोड़ और किसी ओर ध्यान न देनेवाला। जैसे—दुर्गा या शिव का एकांत भक्त। पुं० ऐसा स्थान जहाँ कोई न हो। निर्जन स्थान। पद—एकांत-कैवल्य—=१. एकांत-वास। २. जीवन्मुक्ति। |
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एकांतता :
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स्त्री० [सं० एकांत+तल्-टाप्] एकांत होने की अवस्था या भाव। |
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एकांतर :
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वि० [सं० एक-अंतर, ब० स०] क्रमात् हर बार बीच में अगले एक को छोड़कर उसके बाद वाले स्थान पर आने या पड़नेवाला। जैसे—१, ३, ५, ७, ९, आदि या २, ४, ६, ८, १0 आदि एकांतर संख्यायें हैं। |
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एकांतरिक :
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वि० [सं० एकांतर, एक-अंतर, कर्म० स०+ठक्-इक] एकांतर। |
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एकांत-वास :
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पुं० [स० त०] [वि० एकांतवासी] एकांत अर्थात् निर्जन स्थान में रहने की क्रिया या भाव। ऐसे स्थान में रहना जहाँ और कोई मनुष्य न बसता या न रहता हो। विशेष—यह अपनी इच्छा से भी होता है, और दंड-स्वरूप या राजाज्ञा आदि के कारण भी। |
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एकांतवासी (सिन्) :
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वि० [सं० एकांतवस् (बसना)+णिनि] [स्त्री० एकांतवासिनी] १. एकांत में रहनेवाला। २. एकांतवास करनेवाला। |
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एकांत-स्वरूप :
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वि० [सं० ब० स०] १. जो किसी के साथ कुछ भी मिलता न हो। २. असंग। निर्लिप्त। |
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एकांतिक :
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वि०=ऐकांतिक। |
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एकांती (तिन्) :
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पुं० [सं० एकांत+इनि] ऐसा भक्त, जो सबसे अलग होकर तथा निर्जन स्थान में बैठकर एकाग्र चित्त से अपने देवी या देवता का भजन करता हो। |
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एका :
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स्त्री० [सं० एक+टाप्] दुर्गा। पुं० [हिं० एक] सब लोगों का मिलकर (किसी विषय में) एकमत होना। एकता। (यूनिटी) |
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एकाई :
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स्त्री०=इकाई। |
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एकाएक :
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क्रि० वि० [फा० यकायक] अकस्मात्। अचानक। सहसा। |
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एकाएकी* :
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क्रि० वि०=एकाएक। वि०=एकाकी (अकेला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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एकाकार :
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पुं० [सं० एक-आकार, ब० स०] किसी में मिलकर इस प्रकार एक हो जाना कि आकार या स्वरूप के विचार से दोनों में कोई भेद न रह जाय। वि० १. एक से आकार-प्रकार का। २. जो किसी में मिलकर उसी के आकार या रूप का हो गया हो। ३. कइयों के योग से जिसने एक-रूप धारण कर लिया हो। |
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एकाकी (किन्) :
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वि० [सं० एक+आकिन्] [स्त्री० एकाकिनी] जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। |
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एकाक्ष :
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वि० [सं० एक-अक्षि, ब० स० षच्] [स्त्री० एकाक्षी] १. जिसकी एक ही आँख हो। एक आँखवाला। २. जिसकी एक ही आँख बच रही हो, दूसरी न रह गई हो। काना। ३. एक ही अक्ष पर रहने या घूमनेवाला। (यूनी-एक्सिअल) पुं० १. शुक्राचार्य। २. कौआ। |
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एकाक्ष-पिंगल :
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पुं० [ब० स०] कुबेर। |
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एकाक्षर :
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वि० [सं० एक-अक्षर, ब० स०] जिसमें एक ही अक्षर हो। एक अक्षरवाला। पुं० एक अक्षर का मंत्र ‘ॐ’। |
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एकाक्षरी (रिन्) :
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वि० [सं० एकाक्षर, एक-अक्षर, कर्म० स०+इनि] १. जिसमें एक ही अक्षर हो। एक अक्षरवाला। जैसे—एकाक्षरी मंत्र। २. जिसमें एक-एक अक्षर अलग-अलग हो। प्रत्येक अक्षर के विचार से अलग-अलग रहने या होनेवाला। जैसे—एकाक्षरी कोश। |
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एकाक्षरी कोश :
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पुं० [सं० व्यस्त पद] वह कोश जिसमें प्रत्येक अक्षर के अलग-अलग अर्थ दिये हों। |
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एकाक्ष-रूद्राक्ष :
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पुं० [कर्म० स०] ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख या बिंदी हो। एकमुखी रुद्राक्ष। (यह बहुत कम मिलता है और शुभ माना जाता है)। |
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एकाक्षी :
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वि० एकाक्ष। |
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एकाग्र :
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वि० [सं० एक-अग्र, ब० स०] १. किसी एक ही वस्तु या विषय पर दत्तचित्त होकर पूरा ध्यान लगानेवाला। जैसे—एकाग्र दृष्टि। २. किसी में मिला या समाया हुआ। पुं० [सं० ] चित्त की पाँच अवस्थाओं या वृत्तियों में से एक,जिसमें चित्त निरंतर किसी एक ही बात या विषय में लगा रहता है। (योग)। |
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एकाग्र-चित्त :
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वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसका चित्त या ध्यान किसी एक बात में लगा हो। जो पूरी लगन से किसी एक ही काम या बात में लीन हो। |
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एकाग्रता :
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स्त्री० [सं० एकाग्र+तल्-टाप्] एकाग्र होने की अवस्था या भाव। |
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एकाग्र-दृष्टि :
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वि० [सं० ब० स०] जिसकी दृष्टि किसी एक ही चीज या बात पर लगी हो। जो टक लगाये हुए देख रहा हो। |
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एकाग्र-भूमि :
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स्त्री० [कर्म० स०] चित्त की वह अवस्था, जिसमें वह किसी एक बात पर जम या लगकर तद्रूप हो जाता है। (योग)। |
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एकात्म (न्) :
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वि० [सं० एक-आत्मन्, ब० स०] जो आत्मा की दृष्टि या विचार से किसी के साथ मिलकर एक हो गया हो। एक-प्राण। अभिन्न। |
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एकात्मता :
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स्त्री० [सं० एकात्मन्+तल्-टाप्] १. एकात्म होने की अवस्था या भाव। एकता। २. दो वस्तुओं का आपस में इस प्रकार मिलना कि एक वस्तु दूसरी को आत्मसात् कर ले। ३. गुण रूप आदि के विचार से किसी के इतना समान होना कि दोनों एक दूसरे सी जान पड़े। (आइडेण्टिटी) |
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एकात्म-वाद :
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पुं० [ष० त०] यह वाद या सिद्धांत कि आत्मा या जीव और ब्रह्म वस्तुतः एक ही है। अद्धैतवाद। |
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एकादश :
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वि० पुं० [सं० एक-दशन्, मध्य० स०] ग्यारह। गिनती में दस से एक ऊपर। |
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एकादशाह :
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पुं० [सं० एकादश-अहन्, द्विगुस०] किसी के मरने के ग्यारहवें दिन किया जानेवाला कर्मकांड का कृत्य। |
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एकादशी :
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स्त्री० [सं० एकादश+ङीष्] प्रत्येक चौंद्रमास के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की ग्यारहवी तिथि, जिस दिन उपवास या व्रत का विधान है। |
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एकाध :
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वि० [हिं० एक+आध] जो गिनती में बहुत ही कम हो, अर्थात् एक या दो से अधिक न हो। |
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एकाधिकार :
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पुं० [सं० एक-अधिकार, ष० त०] किसी क्षेत्र या बात में अथवा किसी वस्तु के व्यवसाय या व्यापार पर होनेवाला किसी व्यक्ति या संस्था का ऐसा पूरा-पूरा अधिकार या नियंत्रण जिसमें और कोई साझीदार न हो। (मानोपोली) |
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एकाधिप :
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पुं० [सं० एक-अधिप, कर्म० स०] १. सारे देश पर एकच्छत्र राज्य करनेवाला। राजा। २. अकेला या एकमात्र स्वामी। |
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एकाधिपत्य :
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पुं० [सं० एक-आधिपत्य, ष० त०] १. किसी कार्य या देश आदि पर होनेवाला किसी एक व्यक्ति का पूर्ण अधिकार या आधिपत्य। २. दे० ‘एकाधिकार’। |
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एकायन :
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वि० [सं० एक-अयन्, ब० स०] एकाग्र। पुं० १. ऐसा एक ही मार्ग जिसे छोड़कर और कोई मार्ग न हो। २. नीति-शास्त्र। |
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एकार :
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पुं० [सं० ए+कार] ए अक्षर और उसकी ध्वनि। क्रि० वि० [सं० एक+हिं०वार] एक साथ। एकदम से। उदाहरण—आर्णेद उमै हुआ एकार।—प्रिथीराज। |
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एकार्गल :
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पुं० [सं० एक-अर्गल, कर्म० स०, ब० स० वा] ज्योतिष में, खर्जूरवेध नामक योग। |
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एकार्थ :
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वि० [सं० एक-अर्थ, ब० स०] १. एक ही अर्थवाला। २. (दो या कई शब्द) जिनके अर्थ एक-से हों। |
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एकार्थक :
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वि० [सं० एक-अर्थ, ब० स० कप्] (शब्द या पद) जिनके अर्थ एक से ही या समान हो। समानार्थक। (इक्विवेलेन्ट) जैसे—आदित्य और सूर्य एकार्थक हैं। |
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एकावली :
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स्त्री० [सं० एका-आवली, कर्म० स०] १. एक ही लड़ की मोतियों की लंबी माला या हार। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें उत्तरोत्तर एक के बाद एक बात की स्थापन या निषेध करते हुए बातों की लड़ी बाँध दी जाती है। जैसे—कूर्म पर वराह, वराह पर शेषनाग, शेषनाग पर पृथ्वी, पृथ्वी पर हिमालय, हिमालय पर शिव और शिव की जटा पर गंगा विराजती है। ३. पंकजवाटिका नामक छंद का एक नाम। |
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एकाह :
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वि० [सं० एक-अहन्, कर्म० स० टच्] एक ही दिन में पूरा होनेवाला (कार्य)। जैसे—रामायण का एकाह पाठ, एकाह यज्ञ आदि। |
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एकाहार :
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पुं० [सं० एक-आहार, कर्म० स०] १. कोई एक ही चीज खाकर रहने की प्रतिज्ञा या व्रत। २. दिन-रात में एक ही बार भोजन करने का नियम या व्रत। |
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एकाहारी (रिन्) :
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पुं० [सं० एकाहार+इनि] १. वह जो एकाहार के व्रत का पालन करता हो। २. वह जो दिन-रात में एक बार भोजन करता हो। |
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एकाहिक :
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वि० [सं० एकाह+ठन्-इक]=एकाह। |
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