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चस्का  : पुं० [सं० चषण] १. किसी काम या बात से होनेवाली तृप्ति या मिलने वाले सुख के कारण फिर-फिर वैसी ही तृप्ति या सुख पाने के लिए मन में होनेवाली लालसापूर्ण प्रवृत्ति या मनोवृत्ति। चाट। जैसे–जूए या शराब का चस्का, गाना सुनने या बातें करने का चस्का। २. उक्त प्रकार की प्रवृत्ति का वह पुष्ट रूप जो आदत या बान बन गया हो। लत। क्रि० प्र०–पड़ना।–लगना।–लगाना। विशेष–इस शब्द का प्रयोग मुख्यतः ऐसे ही कामों या बातों के संबंध में होता है जो लोक में या तो कुछ बुरी या प्रायः अनावश्यक और व्यर्थ की समझी जाती है। साधारणतः भगवद्भक्ति का चस्का’, या ‘साहित्य सेवा की चस्का’ सरीखे प्रयोग देखने-सुनने में नहीं आते।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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