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त्याग  : पुं० [सं०√त्यज् (त्यागना)+घञ्] १. किसी चीज पर से अपना अधिकार या स्वत्व हटा लेने अथवा उसे सदा के लिए अपने पास से अलग करने की क्रिया। पूरी तरह से छोड़ देना। उत्सर्ग। जैसे–घर-गृहस्थी, संपत्ति या सांसारिक संबंधों का त्याग। पद–त्याग-पत्र (देखें)। २. किसी काम, चीज या बात से लगाव या सम्बन्ध हटा लेने अथवा उसे छोड़ने की क्रिया या भाव। जैसे–(क) मोह-माया का त्याग। (ख) दुर्व्यसनों का त्याग। ३. मन में विरक्ति या वैराग्य उत्पन्न होने पर सांसारिक व्यवहार, सम्बन्ध आदि छोड़ने की क्रिया या भाव। जैसे–संन्यास ग्रहण करने से पहले मन में त्याग की भावना उत्पन्न होना आवश्यक है। ४. दूसरों के उपकार या हित के विचार से स्वयं कष्ट उठाने या अपना सुख-सुभीता छोड़ने की क्रिया या भाव। जैसे–लोकमान्य तिलक (या अरविन्द घोष) का त्याग अनुकरणीय है। ५. इस प्रकार सम्बन्ध तोड़ना कि अपने ऊपर कोई उत्तरदायित्व न रह जाय। जैसे–पत्नी या पुत्र को त्याग करके उनसे अलग होना। ६. उदारता पूर्वक किया जानेवाला उत्सर्ग या दान। ७. कन्या दान। (डिं०)।
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त्यागना  : स० [सं० त्याग] त्याग करना। छोड़ना। तजना। संयो० क्रि०–देना।
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त्याग-पत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह पत्र जिसमें यह लिखा हुआ हो कि हमने अमुक काम, चीज या बात सदा के लिए छोड़ दी है। २. वह पत्र जो कोई कार्यकर्त्ता या सेवक अपने अधिकारी या स्वामी की नौकरी या पद छोड़ने के समय लिखकर देता है और जिसमें यह लिखा रहता है कि अब मैं इस पद प नहीं रहूँगा या उसका काम नहीं करूगाँ। इस्तीफा (रेजिग्नेशन)।
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त्यागवान्(वत्)  : वि० [सं० त्याग+मतुप्] जिसने त्याग किया हो अथवा जिसमें त्याग करने की शक्ति हो। त्यागी।
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त्यागि(गिन्)  : वि० [सं०√त्यज्+घिनुण] १. त्यागने या छोड़नेवाला। २. संसार की झंझटों से विरक्त होकर वैभव या सुख-भोग के सब साधनों या सामग्री का त्याग करनेवाला। ‘संग्रही’ का विपर्याय। ३. किसी अच्छे काम के लिए अपने स्वार्ध या हित का त्याग करनेवाला।
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