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दान  : पुं० [सं०√दा (दान)+ल्युट्—अन] १. किसी को कुछ देने की क्रिया या भाव। देन। २. धर्म, परोपकार, सहायता आदि के विचार से अथवा उदारता, दया आदि से प्रेरित होकर किसी को कुछ देने की क्रिया या भाव। खैरात। ३. उक्त प्रकार से दिया हुआ धन या कोई वस्तु। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। ४. राजनीति के चार उपायों में से एक, जिसमें किसी को कुछ देकर शत्रु का पक्ष निर्बल किया जाता है अथवा विरोधी को अपनी ओर मिलाया जाता है। ५. कर। महसूल। ६. हाथी के मस्तक से निकलनेवाला मद। ७. शुद्धि। ८. छेदने की क्रिया या भाव। छेदन। ९. एक प्रकार का मधु या शहद। वि० [फा०] १. जाननेवाला। जैसे—कद्र-दान। २. (यौ० के अंत में संज्ञा रूप में प्रयुक्त) आधार या पात्र बनकर अपने अंतर्गत रखनेवाला। जैसे—कलमदान, पानदान।
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दानक  : पुं० [सं० दान+कन्] कुत्सित या निकृष्ट दान। बुरा दान।
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दान-कुल्या  : स्त्री० [ष० त०] हाथी का मद।
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दान-धर्म  : पुं० [मध्य. स०] दान देने का धर्म।
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दान-पति  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा दानी। २. अक्रूर का एक नाम जो स्यमंतक मणि के प्रभाव से सदा बहुत अधिक दान करता रहता था।
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दान-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें अपनी संपत्ति सदा के लिए किसी को दान रूप में देने का उल्लेख किया जाता है।
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दान-पात्र  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जिसे दान देना उचित हो। दान प्राप्त करने का अधिकारी।
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दान-प्रतिभू  : पुं० [ष० त०] किसी के द्वारा लिये जानेवाले धन की जमानत करनेवाला व्यक्ति।
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दान-प्रतिष्ठा  : स्त्री० [ष० त०] किसी दान की हुई संपत्ति के साथ दक्षिणा रूप में दिया जानेवाला धन। दक्षिणा। उदाहरण—पुनि कछु गुनि बोले अब दान-प्रतिष्ठा दीजै।—रत्ना०।
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दान-लीला  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. कृष्ण की वह लीला जिसमें वे ग्वालिनों से गोरस बेचने का कर वसूल करते थे। २. वह पुस्तक जिसमें उक्त लीला का विस्तृत वर्णन हो।
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दानलेख  : पुं०=दान-पत्र।
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दानव  : पुं० [सं० दनु+अण्] दनु (कश्यप की स्त्री) के वे पुत्र जो देवताओं के घोर शत्रु थे। असुर। राक्षस।
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दानव-गुरु  : पुं० [ष० त०] शुक्राचार्य।
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दानवज्र  : पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्रकार के घोड़े जो देवताओं और गंधर्वों की सवारी में रहते हैं, कभी बुड्ढे नहीं होते और मन की तरह वेगवान् होते हैं।
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दान-वारि  : पुं० [कर्म० स०] हाथी का मद।
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दानवारि  : पुं० [सं० दानव-अरि, ष० त०] १. दानवों का नाश करनेवाले, विष्णु। २. देवता। ३. इंद्र।
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दानवी  : वि० [सं० दानवी] दानवों का। दानव-संबंधी। जैसे—दानवी माया। स्त्री० [सं० दानव+ङीष्] दानव जाति की स्त्री। राक्षसी।
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दान-वीर  : पुं० [स० त०] वह जो सदा बहुत बड़े-बड़े दान करता रहता हो और दान करने में कभी पीछे न हटता हो।
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दानवेंद्र  : पुं० [सं० दानव-इंद्र, ष० त०] राजा बलि।
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दान-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० दानशीलता] जो स्वभावतः बहुत कुछ दान देता रहता हो। बहुत बड़ा दानी।
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दान-शीलता  : स्त्री० [सं० दानशील+तल्+टाप्] दानशील होने की अवस्था या भाव।
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दान-सागर  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का बहुत बड़ा दान जिसमें भूमि, आसन आदि सोलह पदार्थों का दान किया जाता है। (बंगाल)
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दानांतराय  : पुं० [दान-अंतराय, ष० त०] जैनशास्त्र के अनुसार अंतराय या पाप-कर्म जिनके उदय होने पर मनुष्य दान करने में असमर्थ होता है।
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दाना  : पुं० [फा० दानः] १. अन्न का कण या बीज। २. अन्न जो पकाकर खाया जाता है। अनाज। पद—दाना पानी। (देखें) मुहावरा—दाने-दाने को तरसना या मोहताज होना=कुछ भी भोजन न मिलने के कारण बहुत ही दीन भाव से कष्ट भोगना। दाना बदलना=एक पक्षी का अपने मुँह का दाना दूसरे पक्षी के मुँह में डालना। चारा बाँटना। दाना भरना या भराना=पक्षियों का अपने छोटे बच्चों के मुँह में अपनी चोंच से दाना डालना या रखना। ३. भाड़ में भूँजा हुआ अन्न। ४. वनस्पतियों आदि के बीज। जैसे—राई या सरसों का दाना। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार की छोटी गोलाकार चीजों का वाचक शब्द। जैसे—घुँघरू, मूँगे या मोती का दाना, गले में पहनने के कंठे या माला के दाने। ६. कुछ विशिष्ट प्रकार के पदार्थों का गोलाकार छोटा कण। जैसे—घी, चीनी, दही या मलाई के ऊपर दिखाई देनेवाले दाने। ७. उक्त प्रकार की गोलाकार छोटी चीजों के साथ प्रयुक्त होनेवाला संख्या-सूचक शब्द। जैसे—चार दाना आम, तीन दाना काली मिर्च, दो दाना मुनक्का। ८. रोग, विकार आदि के कारण शरीर के चमड़े पर होनेवाले गोलाकार छोटे उभार। जैसे—खुजली या शीतला के दाने। ९. किसी तल पर दिखाई देनेवाले छोटे गोलाकार उभार। जैसे—नारंगी के छिलके पर के दाने, नकाशीदार बरतनों पर के दाने। वि० [फा०] [भाव० दानाई] बुद्धिमान। अक्लमंद। जैसे—नादान दोस्त से दाना दुश्मन अच्छा होता है।
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दानाई  : स्त्री० [फा०] अक्लमंदी। बुद्धिमत्ता।
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दाना-चारा  : पुं० [फा० दाना+हिं० चारा] जीव-जन्तुओं को दिया जानेवाला भोजन।
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दाना-चीनी  : स्त्री० [हिं०] वह चीनी जो महीन चूर्ण के रूप में नहीं, बल्कि कुछ मोटे कणों या दानों के रूप में होती है।
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दानादेश  : पुं० [सं० दान-आदेश, च० त०] १. किसी को कुछ दान दिये जाने की आज्ञा। २. ‘देयादेश।’
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दानाध्यक्ष  : पुं० [सं० दान-अध्यक्ष, ष० त०] मध्ययुग में किसी देशी राज्य का वह अधिकारी जो यह निश्चय करता था कि राजा या राज्य की ओर से किये कितना दान दिया जाना चाहिए।
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दाना-पानी  : पुं० [फा० दाना+हिं० पानी] १. जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक खाने-पीने की चीजें। अन्न-जल। २. पेट भरने के लिए कुछ चीजें खाने या पीने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—छोड़ना।—मिलना। ३. भरण-पोषण का आयोजन। जीविका। ४. भाग्य की वह स्थिति जिसके कारण किसी को कहीं जाकर रहना और वहाँ कुछ खाना-पीना पड़ता हो, अथवा वहाँ रहकर जीविका का निर्वाह करना पडता हो। अन्न-जल। मुहावरा—(कहीं से किसी का) दाना-पानी उठना=भाग्य या विधि का ऐसा विधान होना जिससे किसी व्यक्ति को किसी स्थान से (कहीं और जाने के लिए) हटना पड़े।
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दाना-बंदी  : स्त्री० [फा० दान+बंदी] खड़ी फसल से उपज का अंदाज करने के लिए खेत को नापने का काम।
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दानिनी  : स्त्री० [सं०] दान करनेवाली स्त्री।
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दानिया  : पुं० [सं० दान] १. वह जो दान अर्थात् कर उगाहता हो। २. दानी। दाता। वि० १. दान-संबंधी। २. दान लेनेवाला। जैसे—दानिया ब्राह्मण।
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दानिश  : स्त्री० [फा०] १. अक्ल। बुद्धि। विवेक। २. विद्या।
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दानिस  : स्त्री० [फा० दानिस्त] १. समझ। बुद्धि। २. राय। सम्मति। स्त्री०=दानिश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दानी (निन्)  : वि० [सं० दान+इनि] [स्त्री० दानिनी] १. बहुत दान करनेवाला। दानशील। २. देनेवाला। (यौ० के अंत में) पुं० १. वह जो दान देने में बहुत उदार हो। बहुत बड़ा दाता या दानशील। पुं० [सं० दानीय] १. कर आदि उगाहनेवाला अधिकारी। २. नैपालियों की एक जाति या वर्ग। स्त्री० [फा० दान से] कोई चीज रखने का छोटा आधान या पात्र। (यौ० के अंत में) जैसे—चूहेदानी, बालूदानी सुरमेदानी।
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दानीय  : वि० [सं०√दा (देना)+अनीयर] दान किये जाने योग्य। जो दान के रूप में दिया जा सके।
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दानु  : वि० [सं०√दा+नु] १. दाता। २. विजयी। ३. वीर। बहादुर। पुं० १. दान। २. दानव। ३. वायु। हवा। ४. तृप्ति। तुष्टि। ५. अभ्युदय। ६. पानी आदि की बूँद।
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दानेदार  : वि० [फा०] जिसके अंश दानों अर्थात् कणों के रूप में हों। जैसे—दानेदार घी, दानेदार चीनी।
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दानो  : पुं०=दानव।
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