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दिशा  : स्त्री० [सं० दिश्+टाप्] १. क्षितिज वृत्त के चार मुख्य कल्पित विभागों में से प्रत्येक विभाग। विशेष—ये चार कल्पित विभाग उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम कहलाते हैं। इनके निरूपण का मूल आधार वह है, जिधर से नित्य सूर्य निकलता है। इन चारों दिशाओं के बीच के चार कोंणों और ऊपर तथा नीचे की कुल छः दिशाएं और भी मानी जाती हैं। २. किसी नियत स्थान से उक्त चारों विभागों में से किसी ओर के विभाग का सारा विस्तार। जैसे—काशी के पूर्व की अथवा हिमालय के उत्तर की दिशा। ३. दिसाओं की उक्त संख्या के आधार पर १॰ की संख्या। ४. रुद्र की एक पत्नी का नाम। ५. पाखाने या शौच जाने की क्रिया जो पहले घर से निकलकर और किसी ओर अथवा दिशा में जाकर की जाती थी (दे० ‘दिसा’)।
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दिशा-गज  : पुं० [मध्य० स०] दिग्गज।
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दिशा-चक्षु (स्)  : पुं० [ब० स०] गरुड़ के एक पुत्र का नाम। (पुराण)
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दिशाजय  : पुं० [ष० त०] दिग्विजय।
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दिशापाल  : पुं० [सं० दिशा√पाल् (पालना)+णिच्√अण् उप० स०] दिकपाल।
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दिशा-भ्रम  : पुं० [ष० त०] दिशाओं की ठीक-ठीक ज्ञान न होना। दिक्-भ्रम।
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दिशावकाश  : पुं० [दिशा-अवकाश, ष० त०] दो दिशाओं के बीच का अवकाश या विस्तार।
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दिशावकाशक व्रत  : पुं० [सं० दिशावकाश+क (स्वार्थ) दिशावकाशक-व्रत मध्य० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें यह निश्चित किया जाता है कि आज अमुक दिशा में इतनी दूर से अधिक नहीं जायँगें। (जैन)
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दिशा-शूल  : पुं० [स० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार वह घड़ी, पहर या दिन जिसमें किसी विशिष्ट दिशा की ओर जाना बहुत अनिष्टकार माना जाता हो और इसी लिए उस दिशा में जाना वर्जित हो।
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दिशासूल  : पुं०=दिशा-शूल।
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