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दीदा  : पुं० [फा० दीदः] १. आंख का डेला। २. आँख। नेत्र। क्रि० प्र०—फूटना।—मटकाना। मुहावरा—दीदे का पानी ढल जाना=बुरा काम करने में लज्जा का अनुभव न होना। निर्लज्ज हो जाना। दीदे-गोड़ों के आगे आना=किसी किये हुए बुरे काम का बुरा फल मिलना। (स्त्रियों का शाप) जैसे—तू मेरे साथ जो-जो कर रही है, वह सब तेरे दीदे-गोड़ों के आगे आवेगी अर्थात् इसका बुरा फल तुझे इस रूप में मिलेगा कि तू अंधी लूली-लँगड़ी हो जायगी या बहुत कष्ट भोगेगी। (किसी की तरफ) दीदे निकालना=क्रोध की दृष्टि से देखना। आँखें नीली-पीली करना। दीदे पट्टम होना=आँखों का फूट जाना। अँधा हो जाना। (स्त्रियाँ) दीदे फाड़कर देखना=अच्छी तरह आँखें खोलकर अर्थात् ध्यानपूर्वक देखना। २. दृष्टि। नजर। ३. कोई काम करने के समय ध्यानपूर्वक उसकी ओर जमनेवाली दृष्टि या लगनेवाली नजर। मुहावरा=(किसी काम में) दीदा फोडना=दृष्टि जमाकर ऐसा बारीक काम करना जिससे आँखों को बहुत कष्ट हो। (किसी काम में) दीद लगना=काम में जी या ध्यान लगना। जैसे—तुम्हारा दीदा तो किसी काम में लगता ही नहीं। ४. ऐसा अनुचित साहस जिसमें भय, लज्जा, संकोच आदि का कुछ भी ध्यान न रहे। ढिठाई। धृष्टता जैसे—इस लकड़ी का दीदा तो देखों किस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करती है। (स्त्रियाँ)
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दीदा-धोई  : स्त्री० [हिं०] ऐसी स्त्री जिसकी आँखों में शर्म न हो। वेशर्म। निर्लज्ज।
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दीदाफटी  : स्त्री०=दीदा-धोई।
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दीदार  : पुं० [फा०] १. दर्शन। देखा-देखी। साक्षात्कार। (प्रिय या बड़े के संबंध में प्रयुक्त) २. छवि। सौंदर्य।
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दीदारबाजी  : स्त्री० [फा०] किसी प्रिय व्यक्ति से आँखें लड़ाना।
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दीदारू  : वि० [फा० दीदार] दर्शनीय। देखने योग्य।
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दीदा व दानिस्ता  : अव्य० [फा० दीद व दानिस्तः] अच्छी तरह देखते हुए और जान-बूझकर या सोच-समझकर।
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