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शब्द का अर्थ

निकनातीस  : पुं० [अं० मिक़्नातीस] [वि० मिकनातीसी= चुम्बकीय] चुम्बक पत्थर।
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न  : देवनागरी वर्णमाला का २॰ वाँ वर्ण जो व्याकरण और भाषा-विज्ञान की दृष्टि से घोष, अल्पप्राण, अनुनासिक तथा वर्त्स्य व्यंजन है। अव्य० एक अव्यय जिसका प्रयोग आज्ञा, विधि, हेतुहेतुमद्भाव आदि के प्रसंगों में नीचे लिखे अर्थों में होता है। १. नकारात्मक या निषेधात्मक कथनों में ‘नहीं’ की जगह। जैसे—वहाँ न जाना ही ठीक है। (ख) यदि उसे कुछ भी न दिया जाय तो भी वह अपना काम चला लेगा। २. प्रश्नवाचक वाक्यों के अंत में, कि नहीं। या नहीं। जैसे—(क) तुम कल तो यहाँ आओगे न ? (ख) वह चला जायगा न ? विशेष—ऐसे अवसरों पर इसमें किंचित् आशा, निश्चय या विश्वास का भाव भी निहित रहता है। ३. कहीं-कहीं एक ही क्रिया की पुनरावृत्ति के बीच में आने पर प्रायः उसी समय या तुरन्त। थोड़े समय में। उदा०—चौंककर सोते न सोते उठ पड़ेंगे।—मैथिलीशरण। प्रत्य० ब्रज भाषा में संज्ञाओं के अंत में लगकर उन्हें बहु व० का रूप देनेवाला प्रत्यय। जैसे—कटाछ से कटाछन। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. मणि। रत्न। ३. उपमा। ४. गौतम बुद्ध।
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नंग  : वि० [हिं० नंगा] १. नंगा। २. बदमाश। लुच्चा। पुं० १. नंगे होने की अवस्था या भाव। नंगापन। नग्नता। २. पुरुष अथवा स्त्री का गुप्त अंग। पुं० [फा०] प्रतिष्ठा। इज्जत।
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नंगटा  : वि० =नंगा।
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नंग-धड़ंग (ा)  : वि० [हिं० नंगा+धड़ंग (अनु०)] [वि० स्त्री० नंग-धड़ंगी] (व्यक्ति) जो सब वस्त्र उतारकर बिलकुल नंगा हो गया हो।
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नंग-पैरा  : वि० [हिं० नंगा+पैर+आ (प्रत्य०)] १. नंगे पैरोंवाला। २. नंगे पैर चलनेवाला। क्रि० वि० बिना जूता या पादत्राण पहने। नंगे पैरों।
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नंग-मनुंगा  : विं०=नंग-धड़ंग।
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नंगर  : पुं० =लंगर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नंगर वारी  : स्त्री० [हिं० लंगर+वाला] वह छोटी समुद्री नाव जो तूफान के समय किसी रक्षित स्थान पर लंगर डालकर ठहर जाती है। (लश०)
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नंगा  : वि० [सं० नग्न] [वि० स्त्री० नंगी] १. (व्यक्ति) जिसने गोप्य अंग वस्त्र आदि के द्वारा न ढके हुए हों। जो कोई कपड़ा न पहने हो। दिगंबर। पद—नंगा उघाड़ा=जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। विवस्त्र। अलिफ नंगा=वैसा ही नंगा जैसे उर्दू या फारसी लिपि का अलिफ वर्ण होता है। मादरजाद-नंगा=वैसा ही नंगा, जैसा शिशु अपनी माता के गर्भ से जन्म लेने के समय रहता है। बिलकुल नंगा। २. (शरीर का कोई अंग) जिस पर कोई आच्छादन या आलंकारिक वस्तु न हो। जैसे—नंगा गला या हाथ (आभूषण-रहित), नंगा सिर (टोपी या पगड़ी से रहित)। ३. (पदार्थ) जिस पर कोई आवरण न हो। आच्छादन-रहित। खुला हुआ। जैसे—दही या दूध कभी नंगा नहीं रखना चाहिए। ४. निर्लज्ज। बेहया। बेशर्म। ५. ऐसा दुष्ट, लुच्चा या पाजी जो कलंक, बदनामी आदि से कुछ भी न डरता हो। पद—नंगा लुच्चा। (देखें) ६. (बात या विषय) जिसका वास्तविक स्वरूप स्पष्ट रूप से व्यक्त हो रहा हो। पुं० १. शिव। महादेव। २. कश्मीर की सीमा पर का एक बड़ा पर्वत।
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नंगा-झोरी  : स्त्री०=नंगा-झोली।
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नंगा-झोली  : स्त्री० [हिं० नंगा+झोरना] खोई हुई चीज ढूँढने के उद्देश्य से संदेहवश किसी के कपड़े आदि उतरवाकर अथवा यों ही अच्छी तरह यह देखना कि उसने कोई चीज अंदर छिपाकर रखी तो नहीं है। जामा-तलाशी। क्रि० प्र०—देना।—लेना।
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नंगा-धड़ंगा  : वि० [हिं०] जिसके शरीर पर एक भी वस्त्र या आवरण न हो। बिलकुल नंगा।
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नंगा-नाच  : पुं० [हिं० नंगा+नाच] निर्लज्ज होकर किया जानेवाला परम दूषित और हेय आचरण।
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नंगा-बुंगा  : वि० [हिं० नंगा+बुंगा (अनु०)] १. जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। बिलकुल नंगा। २. जिस पर कोई आच्छादन या आवरण न हो।
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नंगा-बुच्चा  : वि० =नंगा-बूचा।
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नंगा-बूचा  : वि० [हिं० बूचा=खाली] जिसके पास कुछ भी न हो। परम निर्धन।
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नंगा-मुनंगा  : वि० =नंगा-धड़ंगा।
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नंगा-लुच्चा  : वि० [हिं० नंगा+लुच्चा] (व्यक्ति) जो निर्लज्ज होकर दूसरों की प्रतिष्ठा पर आघात करता हो। निर्लज्ज। दुष्ट।
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नंगियाना  : सं० [हिं० नंगा+इयाना] [भाव० नंगियावन] १. नंगा करना। शरीर पर वस्त्र न रहने देना। २. किसी का इस प्रकार सब-कुछ छीन लेना कि उसके पास कुछ भी न बच रहे। ३. वास्तविक रूप में प्रकट करना।
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नंग्याना  : सं०=नँगियाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नंचना  : अ०=नाचना।
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नंजन  : पुं० =नर्तन (नाचना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नंदंत  : वि० [सं०√नन्द्+झच्—अन्त] प्रसन्न करनेवाला। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. मित्र। ३. राजा।
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नंदन  : वि०, पुं० =नंदन।
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नंद  : वि० [सं०√नन्द्+अच्] [स्त्री० नंदा] १. आनंद या सुख देनेवाला। २. उत्तम श्रेष्ठ। ३. शुभ। पुं० [सं०] १. आनंद। हर्ष। २. सच्चिदानंद परमात्मा। ३. विष्णु। ४. वासुदेव का एक पुत्र जो मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ५. कार्तिकेय का एक अनुचर। ६. एक नाग का नाम। धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ८. नंदन। पुत्र। बेटा। ९. क्रौंच द्वीप का एक वर्ष-पर्वत। १॰. एक प्रकार का मृदंग। ११. चार प्रकार की बाँसुरियों में से एक जो ग्यारह अंगुल लंबी होती और श्रेष्ठ समझी जाती है। इसके देवता रुद्र कहे गये हैं। १२. संगीत में, एक प्रकार का राग जिसे कुछ लोग माल कोश राग का पुत्र मानते हैं। १३. पुराणानुसार नौ निधियों में से एक। १४. मेढक। १५. गोकुल में गौओं के नायक या मुखिया जिनके पास वासुदेव श्रीकृष्ण को जन्म के समय पहुँचा गये थे और जिनके यहाँ उनकी बाल्यावस्था बीती थी। १६. गौतम बुद्ध के एक भाई जो उनकी विमाता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। १७. पिंगल में ढगण के दुसरे भेद का नाम जिसमें एक गुरु और एक लघु रूप होता है और जिसे ग्वाल भी कहते हैं। जैसे—काम, नाम, लाभ। १८. मगध का एक प्रसिद्ध राजवंश। दे० ‘नंद वंश’। स्त्री०=ननद (स्त्री के पति की बहन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नंदक  : वि० [सं०] १. आनंद और सुख या संतोष देनेवाला। २. अपने कुल या परिवार का पालन करनेवाला। पुं० १. श्रीकृष्ण का खङ्ग। २. कार्तिकेय का एक अनुचर। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. एक नाग का नाम। ५. श्रीकृष्ण के पालक नंद। ६. मेढक। ७. दे० ‘नंद वंश’।
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नंदकि  : स्त्री० [सं०] पीपल।
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नंद-किशोर  : पुं० [सं०] नंद के पुत्र श्रीकृष्ण।
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नंदकी (किन्)  : पुं० [सं० नंदक+इनि] विष्णु।
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नंद-कुँवर  : पुं० =नंदकुमार।
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नंद-कुमार  : पुं० [ष० त०] नंद के पुत्र, श्रीकृष्ण।
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नंद-गाँव  : पुं० [सं० नंद+हिं० गाँव] वृंदावन के पास का एक गाँव जहाँ नंद-गोप रहते थे।
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नंद-गोपिता  : स्त्री० [च० त०] रास्ना या रायसन नामक वनस्पति।
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नंद-ग्राम  : पुं० [ष० त०] १.=नंद गाँव। २.=नंदि ग्राम।
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नंदथु  : पुं० [सं०√नन्द्+अथुच्] प्रसन्नता।
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नंदद  : वि० [सं०√नंद+दा (देना)+क] आनंद देनेवाला। पुं० पुत्र। बेटा।
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नंद-नंद (न)  : पुं० [ष० त०] नंद के पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र।
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नंद-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] नंद की कन्या। योगमाया। विशेष—श्रीकृष्ण को नंद के घर रखकर इसी को उनके बदले में अपने साथ ले गए थे।
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नंदन  : वि० [सं० नन्द+णिच्+ल्यु—अन] आनंद देने या प्रसन्न करने वाला। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. राजा। ३. दोस्त। मित्र। ४. नंदन कानन। (दे०) ५. कामाख्या देश का एक पर्वत जहाँ लोग इन्द्र की पूजा करते हैं। ६. कार्तिकेय का एक अनुचर। ७. शिव। महादेव। ८. विष्णु। ९. एक प्रकार का विष। १॰. केसर। ११. चंदन। १२. बादल। मेघ। १३. मेढक। १४. एक प्रकार का प्रचीन अस्त्र। १५. वह मकान जो षट्कोण हो, जिसका विस्तार बत्तीस हाथ हो और जिसमें सोलह श्रृँग हो। (वास्तु) १६. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से नगण, जगण, भगण, जगण और दो रगण होते हैं। १७. साठ संवत्सरों में से छब्बीसवाँ संवत्सर। कहते है कि इस संवत्सर में अन्न खूब होता है, गौएँ खूब दूध देती हैं और लोग नीरोग रहते हैं।
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नंदनक  : पुं० [सं० नंदन+कन्] पुत्र।
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नंदन-कानन  : पुं० [मध्य० स०] स्वर्ग में स्थित इन्द्र का प्रसिद्ध उपवन या बगीचा जो परम सुन्दर और सुखद माना गया है। नंदन।
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नंदनज  : पुं० [सं० नंदन√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. हरिचंदन। २. श्रीकृष्ण।
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नंदन-प्रधान  : पुं० [ष० त०] नंदन के प्रधान, इन्द्र।
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नंदन-माला  : स्त्री० [कर्म० स०] एक प्रकार की माला जो श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय थी। (पुराण)
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नंदन-वन  : पुं० [मध्य० स०] १. नंदन-कानन। २. कपास।
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नंदना  : अ० [सं०√नंद्+णिच्+युच्—अन, टाप्] आनंदित होना। प्रसन्न होना। स्त्री० [नंदन+टाप्] पुत्री। बेटी। स्त्री० [सं० नंद=बेटा] १. पुत्री। बेटी। २. लड़की।
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नंदनी  : स्त्री० [सं० नंदन+ङीष्] १.=नंदना। २.=नंदिनी।
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नंदपाल  : पुं० [सं०√पाल् (रक्षा)+णिच्+अच्] वरुण।
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नंद-पुत्री  : स्त्री० [ष० त०] नंद नंदिनी।
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नदंप्रयाग  : पुं० [?] बदरिकाश्रम के निकट का एक तीर्थ जो सात प्रयोगों में से एक है।
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नंदरानी  : स्त्री० [सं० नंद+हि० रानी] नंद की स्त्री। कृष्ण की माता। यशोदा।
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नंद रूख  : पुं० [हिं० नंद+रुख=वृक्ष] अश्वत्थ की जाति का एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ रेशम के कीड़े खाते हैं।
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नंदलाल  : पुं० [सं० नंद+हिं० लाल] नंद के पुत्र, श्रीकृष्ण।
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नंद-वंश  : पुं० [ष० त०] मगध का एक प्राचीन राजवंश जिसका नाश कौटिल्य ने किया था।
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नंदा  : वि० स्त्री० [सं०√नन्द्+अच्—टाप्] १. आनंद देनेवाली। २. शुभ। स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. गौरी। ३. धन-संपत्ति। ४. एक प्रकार की कामधेनु। ५. एक प्रकार की संक्राति। ६. आनंद या प्रसन्नता की अधिष्ठात्री देवी जो हर्ष की पत्नी कही गई है। ७. संगीत में, एक मूर्च्छना। ८. स्वर्ग की एक अप्सरा। ९. विभीषण की कन्या। १॰. पानी रखने का मिट्टी का घड़ा। ११. पुराणानुसार शाकद्वीप की एक नदी। १२. स्त्री० के पति की बहन। ननद। १३. चांद्र मास के किसी पक्ष की प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियों की संज्ञा। १४. पुराणानुसार कुबेर की पुरी के पास बहनेवाली एक नदी। १५. जैन पुराणों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के दसवें अर्हत् की माता का नाम। १६. पिंगल में बरवै छंद का एक नाम १७. एक मातृका या बालग्रह जिसके विषय में यह माना जाता है कि इसके कारण बालक अपने जीवन के पहले दिन, पहले मास और पहले वर्ष में ज्वर से पीड़ित होकर बहुत रोता और अचेत हो जाता है। १८. दे० ‘नंदा-तीर्थ’।
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नंदातीर्थ  : पुं० [सं०] हेमकूट पर्वत पर स्थित एक तीर्थ। (महभारत)
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नंदात्मज  : पुं० [नंद-आत्मज, ष० त०] नंद के पुत्र, श्रीकृष्ण।
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नंदात्मजा  : स्त्री० [नंद-आत्मजा, ष० त०] नंद की पुत्री। योगमाया।
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नंदा-देवी  : [सं०] यमुनोत्ततरी के पूर्व दक्षिणी हिमालय की एक चोटी जो समुद्र तल से २५॰॰॰ फुट ऊँची है।
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नंदा-पुराण  : पुं० [सं०] एक उपपुराण जिसमें नंदा का माहात्म्य वर्णित है और जिसके वक्ता कार्तिक कहे गये हैं। मत्स्य और शिवपुराण के मत से यह तीसरा उपपुराण है।
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नंदार्थ  : पुं० [सं०] शाकद्वीप ब्राह्मणों की एक जाति।
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नंदाश्रम  : पुं० [नंद-आश्रम, ष० त०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ। (महाभारत)
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नंदि  : पुं० [सं०√नन्द्+इन्] १. आनंद। २. वह जो पूर्णतः आनंदमय हो। ३. सच्चिदान्द परमात्मा। ४. शिव। ५. दे० ‘नंदिकेशर’।
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नंदिक  : पुं० [सं० नंद+ठन्—इक] १. नंदी वृक्ष। तुन का पेड़। २. धव का पेड़। धौ। आनंद।
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नंदिकर  : पुं० [सं०] शिव।
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नंदिका  : स्त्री० [सं० नंदिका+टाप्] १. पानी रखने की मिट्टी की नाँद। २. चांद्रमास के प्रत्येक पक्ष की प्रतिपद, षष्ठी और एकादशी तिथियाँ। ३. हँसमुख स्त्री। ४. नंदनकानन।
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नंदिकावर्त्त  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रत्न। (बृहत्संहिता)
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नंदि-कुंड  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन तीर्थ। (महा०)
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नंदिकेश  : पुं० [सं०] नंदिकेश्वर।
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नंदिकेश्वर  : पुं० [सं०] १. शिव के द्वारपाल बैल का नाम। नंदि। २. नंदि द्वारा उक्त एक पुराण। ३. नंदि के स्वामी, शिव।
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नंदिग्राम  : पुं० [सं०] अयोध्या के निकट का एक प्रचीन गाँव जहाँ राम-वनवास के समय भरत १४ वर्षों तक रहे थे।
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नंदि-घोष  : पुं० [सं० ब० स०] अर्जुन का एक रथ जो उन्हें अग्निदेव से मिला था।
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नंदित  : वि० [सं०√नन्द्+क्त] आनंदित। सुखी। आनंदयुक्त। प्रसन्न। वि० [हिं० नाद] नाद करता या बजाता हुआ।
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नंदि-तरु  : पुं० [सं० कर्म० स०] धव। धौ।
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नंदि-तूर्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक पुराना बाजा।
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नंदिनी  : स्त्री० [सं०√नन्द्+णिनि—ङीष्] १. पुत्री। बेटी। २. उमा। ३. गंगा। ४. दुर्गा। ५. कार्तिकेय की मातृका। ६. व्याड़ि मुनि की माता। ७. जोरू। पत्नी। ८. स्त्री के पति की बहिन। ९. जटामासी। बाल—छड़। १॰. रेणुका नामक गन्ध द्रव्य। ११. वसिष्ठ की कामधेनु जो सुरभि के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। १२. तेरह अक्षरों का एक वर्ण-वृत जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण, एक जगण, फिर दो सगण और अंत में एक गुरु होता है। इसे कलहंस और सिंहनाद भी कहते हैं।
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नंदि-मुख  : पुं० [ब० सं०] १. शिव। महादेव। २. एक प्रकार का चावल। ३. एक प्रकार का पक्षी। पुं० नांदी मुख (श्राद्ध)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नंदिमुखी  : पुं० [?] ऐसा पक्षी जिसकी चोंच का ऊपरी भाग बहुत कड़ा और गोल हो। ऐसे पक्षी का मांस पित्तनाशक, चिकना, भारी मीठा और वायु, कफ, बल तथा शुक्रवर्धक कहा गया है। (भाव प्रकाश) स्त्री० तंद्रा।
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नंदिरुद्र  : पुं० [सं०] शिव का एक नाम।
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नंदि-वर्द्धन  : पुं० [सं० नंदि√वृध् (बढ़ना)+णिच्+ल्यु—अन] नंदिवर्धन।
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नंदि-वर्धन  : वि० [सं०] आनंद बढ़ानेवाला। पुं० १. शिव। २. पुत्र। बेटा। ३. दोस्त। मित्र। ४. एक तरह का प्रचीन विमान। ५. प्रचीन वास्तु शास्त्र के अनुसार कुछ विशिष्ट विस्तारवाला मंदिर। ६. बिंबसार का पुत्र।
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नंदिवारलक  : पुं० [सं०] एक तरह की समुद्री मछली। (सुश्रुत)
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नंदिषेण  : पुं० [सं०] कुमार के अनुचर का नाम।
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नंदी (दिन्)  : वि० [सं०√नंद्+णिनि] आनंदित रहनेवाला। प्रसन्न। पुं० १. शिव के एक प्रकार के गण, जिनके ये तीन भेद कहे गये हैं—कनक नंदी, गिरनंदी, और शिवनंदी। २. शिव के द्वारपाल बैल का नाम ३. शिव के नाम उत्सर्ग किया हुआ साँड़। ४. वह बैल जिसके शरीर पर बहुत-सी गाँठे हों। ऐसा बैल खेती के काम का नहीं होता। इसे फकीर लोग लेकर घुमाते और लोगों को उसके दर्शन कराके पैसे माँगते हैं। ५. विष्णु। ६. जैनों के एक श्रुत पारग। ७. उड़द। ८. धौ का पेड़। धव। ९. गर्दभांड या पाखर नाम का पेड़। १॰. बरगद। वट। ११. तुन नाम का पेड़। १२. बंगाल के कायस्थों, तेलियों आदि की कुछ जातियों की उपाधि।
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नंदीगण  : पुं० [सं० नंदिगण] १. शिव के द्वारपाल बैल। २. शिव के नाम पर दागकर खुला छोड़ा हुआ बैल। साँड़।
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नंदीघंटा  : पुं० [सं० नंदी+हिं० घंटा] बैलों के गले में बाँधने का बिना डाँड़ी का घंटा।
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नंदीपति  : पुं० [सं० नंदिपति] नंदि के स्वामी, शिव। महादेव।
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नंदीमुख  : पुं० [सं०] १. नंदी-मुख। २.=नांदी-मुख।
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नंदीवृक्ष  : पुं० [सं०] १. मेढा-सिंगी। २. तुन नाम का पेड़।
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नंदीश  : पुं० [सं० नंदिन्-ईश ष० त०]=नंदीश्वर।
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नंदीश्वर  : पुं० [सं० नंदिन-ईश्वर, ष० त०] १. शिव। २. संगीत में ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। ३. वृंदावन का एक तीर्थ। ४. शिव का एक प्रसिद्ध गण जो पुराणानुसार काले रंग का, बौना, बंदर के-से मुँह और मुँडे हुए सिरवाला माना गया है।
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नंदेऊ  : पुं० =नंदोई।
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नंदोई  : पुं० [हिं० ननद+ओई (प्रत्य०)] संबंध के विचार से ननद का पति।
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नँदोला  : पुं० [हिं० नाँद का अल्पा०] मिट्टी की छोटी नाँद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नंदोसी  : पुं० नंदोई।
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नंद्द  : पुं० १.=नाद। २.=नद।
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नंद्यावर्त्त  : पुं० [सं० नंदि-आवर्त्त, ब० स०] १. ऐसा भवन जिसमें पश्चिम ओर द्वार न हो। २. तगर नाम का पेड़।
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नंबर  : वि० पुं० [अं०] [वि० नंबरी] १. संख्या-सूचक अंक। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। २. अदद। संख्या। ३. गणना। गिनती। ४. कपड़े आदि नापने का गज जो ३६ इंच लंबा होता है। ५. सामयिक पत्र या पत्रिका का कोई स्वतंत्र अंक।
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नंबरदार  : पुं० [अं०+फा०] ब्रिटिश शासन में गाँव का वह जमींदार जो अपनी पट्टी के दूसरे हिस्सेदारों से मालगुजारी आदि वसूल करने में सहायता देता था।
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नंबरदारी  : स्त्री० [अं० फा०] नंबरदारी होने की अवस्था, पद या भाव।
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नंबरवार  : क्रि० वि० [अं० नंबर+हिं० वार] १. अंक या संख्या के क्रम से। २. सिलसिलेवार।
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नंबरी  : वि० [अं० नंबर] १. जिस पर नंबर या अंक लगा हो। २. नंबर संबंधी। जैसे—नंबरी गज। ३. बहुत बड़ा और मशहूर। जैसे—नंबरी चोर, नंबरी गुंड़ा।
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नंबरी गज  : पुं० [अं०+हिं०] कपड़े आदि नापने का अंगरेजी गज जो ३६ इंच लंबा होता है।
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नंबरी चोर  : पुं० [हिं०] वह कुख्यात चोर जिसका उल्लेख पुलिस के अभिलेखों में विशेष रूप से हो।
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नंबरी तह  : स्त्री० [हिं०] कपड़े के थान की इस प्रकार लगी हुई तह कि उसकी प्रत्येक परत एक एक गज लंबी हो और क्रमात् एक दूसरी के ऊपर पड़ती हो। विशेष—ऐसी तह उस तह से भीन्न होती है जो पहले दोहरी, तब चौहरी आदि करके लगाई जाती है।
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नंबरी नोट  : पुं० [हिं०] १. ब्रिटिश भारत में, सौ या इससे अधिक रुपयोंवाला कोई बड़ा नोट जिसका नंबर लेन-देन के समय बही खातों में लिख लेने की प्रथा थी। २. आज-कल सौ रुपयों का नोट।
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नंबरी सेर  : पुं० [हिं०] तौलने का वह सेर जो ब्रिटिश शासन में ८॰ अँगरेजी रुपयों के बराबर अर्थात् ८॰ भर होता था। अभी तक (अर्थात दशमलव पद्धति प्रचलित होने के पहले तक) यही सेर मानक माना जाता था।
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नंबूरी  : पुं० [?] मालावार प्रान्त के ब्राह्मणों की एक जाति।
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नंशुक  : वि० [सं०√नश् (नाश)+णुकन्, नुमागम] १. नाश करने-वाला। २. हानिकारक। ३. भटकनेवाला। ४. बहुत छोटा। ५. सूक्ष्म।
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नंस  : पुं० =नाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० नष्ट।
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नंसना  : सं० [सं० नाश] नष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० नष्ट होना।
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नइया  : स्त्री० नाव (नौका)।
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नइहर  : पुं० [सं० मातृगृह, पुं० हिं० मैहर] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता पिता का घर। पीहर। मैका।
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नई  : वि० [सं० नयी=नयवान्] नीतिमान। नीतिज्ञ। स्त्री०=नदी। वि० हिं० ‘नया’ का स्त्री०।
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नउँजी  : स्त्री०=लीची (फल)।
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नउ  : वि० १.=नव (नया)। २.=नौ (संख्या)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नउआ  : पुं० [स्त्री० नउनिया]=नाऊ (नापित या हज्जाम)।
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नउका  : स्त्री०=नौका (नाव)।
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नउज  : अव्य०=नौज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नउन  : वि० =नत (झुका हुआ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नउनियाँ  : स्त्री० [हिं० नाऊ] नाई जाति की स्त्री। नाउन।
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नउरंग  : पुं० १.=नारंग। २.=नौरंग। स्त्री०=नारंगी।
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नउर  : पुं० =नकुल (नेवला)।
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नउरा  : [स्त्री० नेउरी] नौकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =नेवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नउलि  : वि० नवल (नया या विलक्षण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नएपंज  : पुं० [हिं० नया+पाँच] पाँच पर्ष की अवस्था का घोड़ा। जवान घोड़ा।
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नओढ़  : वि० , पुं० =नवोढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० स्त्री०=नवोढ़ा।
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नओढा  : वि० स्त्री०=नवोढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नक  : पुं० [?] १. आकाश। नभ। २. स्वर्ग। स्त्री० हिं० ‘नाक’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—नक-कटा, नक चढ़ा, नक-छिकनी, नक-बेसर आदि। स्त्री०=नख (नाखून)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नक-कटा  : वि० [हिं० नाक+कटना] [स्त्री० नक-कटी] १. जिसकी नाक कटी हुई हो। २. दूसरों द्वारा विदित होने पर भी जो लज्जा का अनुभव न करे। बहुत बड़ा निर्लज्ज।
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नक-कटी  : स्त्री० [हिं० नाक+कटना] १. नाक कटने की अवस्था या भाव। २. दुर्दशापूर्ण अपमान।
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नक घिसनी  : स्त्री० [हि० नाक+घिसना] १. जमीन पर नाक घिसने अर्थात् रगड़ने की क्रिया या भाव। २. बहुत अधिक दीनतापूर्वक की जानेवाली क्षमायाचना, प्रतिज्ञा अथवा प्रार्थना।
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नक-चढ़ा  : वि० [हिं० नाक+चढ़ना] १. जिसकी नाक हर समय चढ़ी रहती हो या बात-बात में चढ़ जाती हो। २. जो जल्दी अप्रसन्न या रुष्ट हो जाता हो। चिड़चिड़ा। बद-मिजाज।
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नक-चोटी  : स्त्री०=नख-चोटी।
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नक-छिकनी  : स्त्री० [हि० नाक+छींकना] एक पौधा जिसके घुंडी के आकार के फूलों के सूँघने से छींके आती हैं।
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नकटा  : वि० [हिं० नाक+कटना] [स्त्री० नकटी] १. जिसकी नाक कट गई हो। २. निर्लज्ज। बेशरम। ३. अपमानित और दुर्दशाग्रस्त। उदा०—नकटा जीया, बुरे हवाल। कहा०—। पुं० [हिं० नकटा से व० वि० ] १. मंगल तथा शुभ अवसरों पर गाये जानेवाले एक तरह के गीत। २. बत्तख की जाति का एक तरह का पक्षी जिसके नर की चोंच पर काला दाना या मांस-खंड उभरा रहता है।
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नकटेसर  : पुं० [?] एक प्रकार का पौधा जिसमें सुगंधित सुन्दर फूल लगते हैं।
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नकड़ा  : पुं० [हिं० नाक] बैलों का एक रोग जिसमें उनकी नाक में सूजन आने के फल-स्वरूप उन्हें साँस लेने में कष्ट होता है।
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नक-तोड़ा  : पुं० [हिं० नाक+तोड़ना] ऐसा अभिमान या नखरा जो दूसरों का नाक तोड़नेवाला अर्थात् बहुत ही कष्टप्रद अथवा असह्य जान पड़े। मुहा०—(किसी के) नक-तोड़े उठाना बहुत ही अनुचित और अप्रिय जान पड़नेवाले नखरे भी बरदाश्त करना या सहना।
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नकद  : पुं० [?]एक प्रकार का बढ़िया चावल जो काँगड़े में होता है।
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नकद  : वि० , पुं० =नगद।
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नकदावा  : पुं० [?] ऐसी पकी हुई दाल जिसमें बड़ियाँ भी पड़ी हों।
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नकदी  : वि० , स्त्री०=नगदी।
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नकना  : सं० [सं० लंघन, हिं० नाकना] १. उल्लंघन करना। डाकना। लाँघना। २. छोड़ना। त्यागना। अ० गमन करना। चलना। अ० [हिं० नाक] इतना दुःखी और परेशान होना कि मानों नाक में दम आ गया या हो रहा हो।
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नकन्याना  : अं० [हिं० नाक] नाक में दम होना। तंग या परेशान होना। उदा०—हाय बुढ़ापा तुम्हरे मारे हम तो अब नकन्याय गयन।—प्रतापनारायण मिश्र। सं० नाक में दम करना। तंग या परेशान करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नकपोड़ा  : पुं० [हिं० नाक+पकौड़ा] बहुत बड़ी तथा फूली हुई नाक। (परिहास या व्यंग्य)
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नकफूल  : पुं० [हिं० नाक+फूल] नाक में पहनने का एक प्रकार का फूल। लौंग।
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नकब  : स्त्री० [अ० नक्ब] चोरी करने के उद्देश्य से दीवार में किया हुआ बड़ा छेद जिसमें से होकर मकान में घुसा जाता है। सेंध। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।
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नकबजनी  : स्त्री० [अ० नक्ब+फा० जनी] चोरी करने के लिए किसी के घर में नकब या सेंध लगाने की क्रिया।
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नकबेसर  : स्त्री० [हिं० नाक+बेसर] नाक में पहनने की छोटी नथ। बेसर।
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नकमोती  : पुं० [हिं० नाक+मोती] नाक में पहनने का मोती जिसे लटकन भी कहते हैं।
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नकल  : स्त्री० [अ० नक्ल] १. किसी को कुछ करते हुए देखकर उसी के अनुसार कुछ करने की क्रिया या भाव। अनुकरण। जैसे—अब तुम भी उनकी नकल करने लगे। क्रि० प्र०—उतारना। २. परीक्षा में, एक परिक्षार्थी का दूसरे परीक्षार्थी द्वारा लिखी हुई बात छल से देखकर अपनी पुस्तिका में लिखना। क्रि० प्र०—मारना। ३. ऐसी कृति जो किसी दूसरी कृति को देखकर उसी के ढंग पर या उसी की तरह बनाई गई हो। अनुकृति। जैसे—यह खिलौना उसी विलायती खिलौने की नकल है। क्रि० प्र०—उतारना।—बनाना। ४. किसी की रहन-सहन, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि का ज्यों का त्यों किया जानेवाला अभिनयात्मक अनुकरण जो उसे उपहासास्पद सिद्ध करने अथवा लोगों का मनोरंजन करने के लिए किया जाय। स्वाँग। जैसे—अफीमची की नकल, गुंडे-बदमाशों की नकल। क्रि० प्र०—उतारना। ५. किसी प्रकार की विलक्षण और हास्यास्पद कृति, रूप—रंग, व्यवहार आदि। जैसे—जब देखो तब आप एक नई नकल बनाकर आ पहुंचते हैं। ६. हास्यरस का कोई छोटा अभिनय, कथा कहानी, चुटकुला आदि। ७. किसी प्रकार के अंकन, चित्र, लेख, लेख्य, साहित्यिक कृति आदि की ज्यों की त्यों की हुई प्रतिलिपि। जैसे—इस पत्र की एक नकल अपने पास रख लो। विशेष—नकल में मुख्य भाव यही होता है कि इसमें नवीतना, मौलिकता, वास्तविकता, सजीवता आदि का अभाव है। केवल बाहरी रुप-रंग किसी के अनुकरण पर या उसे देखकर बनाया गया होता है।
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नकलची  : वि० [हिं० नकल+ची (प्रत्य०)] १. जो तुच्छतापुर्वक दूसरों का अनुकरण करता हो। नकल करनेवाला। २. (वह विद्यार्थी) जो अपने सहपाठी की पुस्तिका में लिखे हुए लेख आदि की नकल करता हो।
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नकल-नवीस  : पुं० [अ० नक्ल+फा० नवीस] [भाव० नकलनवीसी] कार्यालय आदि का वह लिपिक जो दस्तावेजों आदि की नकल तैयार करता हो।
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नकलनोर  : पुं० [?] मुनिया। (चिड़िया)।
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नकलपरवाना  : पुं० [अ०+फा०] पत्नी का भाई। साला। विशेष—इस पद का प्रयोग केवल परिहास और व्यंग्य के रूप में यह सूचित करने के लिए होता है, कि अमुक की पत्नी का जो रूप-रंग है, उसी की अनुकृति का परिचायक या सूचक उसका भाई है।
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नकल बही  : स्त्री० [हिं०] १. वह बही जिसमें भेजे जानेवाले पत्रों की नकल या प्रतिलिपि रखी जाती थी। २. वह पंजिका या फाइल जिसमें पत्रों की प्रतियाँ रखी जाती हैं।
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नकली  : वि० [अ० नक्ली] १. जो किसी की नकल भर हो। किसी के अनुकरण पर बना हुआ। २. उक्त के आधार पर जो मौलिक न हो। कृत्रिम। ३. (पदार्थ) जो महत्त्व, मान, मूल्य आदि के विचार से घटकर हो और प्रायः दूसरों को धोखा देने के उद्देश्य से बनाया गया हो। ४. काल्पनिक। ५. झूठ। मिथ्या।
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नकलोल  : वि० [हिं० नाक+लोल (प्रत्य०)] १. (ऐसा व्यक्ति) जिसकी जिधर चाहे नाक घुमाई जा सके। २. निर्बुद्धि। मूर्ख। पु०=नकलनोर।
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नकवा  : पुं० [हिं० नाक ?] नया निकला हुआ अंकुर। कल्ला। पुं० १.=नाक। २. नाका (तराजू, सूई आदि का छेद)।
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नकश  : पुं० १. दे० ‘नक्श’। २. दे० ‘नकश-मार’।
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नकश-मार  : स्त्री० [अ० नक्शः+हिं० मारना] ताश के पत्तों का एक प्रकार का खेल जिसकी गिनती जूए में होती है।
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नकशा  : पुं [अ० नक्शः] १. रेखाओं आदि के द्वारा किसी वस्तु की अंकित की हुई वह आकृति या प्रतिकृति जो उस वस्तु के स्वरूप का सामान्य परिचय कराती हो। क्रि० प्र०—उतारना।—खींचना।—बनाना। मुहा०—(किसी चीज या बात का) नकशा खींचना=ऐसा यथातथ्य और सविस्तार वर्णन करना कि सारा रूप या स्थिति स्पष्ट हो जाय। २. किसी आकृति, वस्तु आदि का परिचय या बोध करानेवाले चिह्न, रेखाएँ आदि जो उसके उतार-चढ़ाव, स्वरूप आदि का ज्ञान कराती हों। आकृति या ढाँचा। रूप-रेखा। जैसे—तोड़-फोड़ और नई बस्तियों से तो सारे शहर का नकशा ही बदल गया है। पद—नाक-नकशा—किसी व्यक्ति के चेहरे की गठन। जैसे—भले ही उनका रूप साँवला हो, पर नाक-नकशा बहुत अच्छा है, अर्थात् रूप देखने में सुन्दर है। ३. पृथ्वी अथवा उसके किसी विशिष्ट अंश और उस पर स्थित मुख्य-मुख्य वस्तुओं आदि का परचायक चित्र। मानचित्र। (मैप)। क्रि० प्र०—खींचना।—बनाना। विशेष—ऐसे नकशों में जलाशय, नगर, नदियाँ, पहाड़, अनेक प्रकार के विभाजन (जैसे—खेती, जमीन, बाग, सड़कें आदि) सभी मुख्य बातें अंकित होती हैं। (ख) नकशे किसी जिले, तहसील, नगर, बस्ती, भवन आदि के भी बनते हैं। (ग) किसी देश के भिन्न-भिन्न भागों की आबादी, पैदावार, वर्ष-मान आदि के भी सूचक नकशे बनते हैं। (घ) पृथ्वी के सिवा समूचे आकाश या उसके किसी अंश के भी ऐसे नकशे बनते हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न ग्रहों, तारों, नक्षत्रों आदि की स्थितियाँ दिखायी जाती हैं। ४. कोई ऐसा अंकन जो किसी प्रकार की स्थिति बतलाने या स्पष्ट करने में सहायक होता हो। जैसे—शतरंज के अच्छे खिलाड़ी शतरंज के ऐसे नये-नये नकशे बनाकर लोगों के सामने रखते हैं कि उनकी शर्तों के अनुसार चलकर विपक्षी को मात करना बहुत ही कठिन होता है। विशेष—ऐसे नकशों में दोनों पक्षों के भिन्न-भिन्न मोहरे कुछ विशिष्ट घरों में रखे हुए दिखाए जाते हैं। ५. किसी चीज का आकार-प्रकार, रूप-रेखा आदि बतलानेवाला वह रेखा-चित्र जो वह चीज बनाने से पहले यह सूचित करने के लिए बनाया जाता है कि बनकर तैयार होने पर वह चीज कैसी होगी अथवा उसका रूप क्या होगा। जैसे—(क) जब तक कारखाने (या मकान) का नकशा अधिकारी मंजूर न कर लें, तब तक कारखाना (या मकान) बनाने का काम शुरू नहीं हो सकता। (ख) अच्छे कारीगर कोई चीज बनाने से पहले उसका नक्शा तैयार करते हैं। ६. कोई ऐसी आकृति या क्रिया, घटना या स्थिति जिसका स्वरूप प्रत्यक्ष और स्पष्ट दिखाई देता हो। जैसे—उस दिन जलसे का नकशा अभी तक हमारी आँखों के सामने है। मुहा०—नकश जमाना=ऐसे अच्छे ढंग से कोई काम कर दिखाना कि सब लोग उससे प्रभावित और मुग्ध होकर उसकी प्रशंसा करने लगें। जैसे—उस संगीत सम्मेलन में कई गवैयों ने अच्छा नकशा जमाया था। ७. किसी व्यक्ति के आचार-व्यवहार, चाल-चलन, रहन-सहन आदि का बाह्य रूप जो उसकी प्रवृत्ति, मनोवृत्ति, स्थिति आदि के सिवा उसके भविष्य का भी परिचायक होता है। जैसे—(क) आज-कल इस लड़के का नकशा अच्छा नहीं दिखाई देता। (ख) अब तो धीरे-धीरे आपके भाई साहब का नक्शा भी बदलने लगा है। 8. दे० ‘सारिणी’।
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नकशानवीस  : पुं० [अ० नक्शः+नवीस] वह व्यक्ति जो चीजों (देशों, घरों, कारखानों) आदि के नकशे बनाता हो।
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नकशी  : वि० [अ० नक्शी] जिस पर नक्श अर्थात् बेल-बूटे अंकित हों अथवा खुदे या बने हों।
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नकशीदार  : वि० =नकशी।
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नकशीमैना  : स्त्री० [अ०+हिं०] तेलिया नामक मैना।
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नकस  : पु०=नकशा।
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नकसमार  : स्त्री०=नकश-मार।
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नकसा  : पुं० =नकशा।
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नकसीर  : स्त्री० [हिं० नाक+सं० क्षीर=जल] १. एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें गरमी आदि के कारण नाक में से खून बहता है। २. उक्त रोग के कारण नाक में से बहनेवाला खून। क्रि० प्र०—फूटना।—बहना।
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नका  : पुं० =निकाह (विवाह)। उदा०—घण पड़ियाँ साँकड़िया घड़ियाँ ना धीहड़ियाँ पढ़ी नका।—दुरसाज़ी।
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नकाना  : अ० [हिं० नाक] नाक में दम होना। बहुत परेशान होना। सं० नाक में दम करना। तंग या परेशान करना। सं०=नकियाना।
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नकाब  : स्त्री० [अ० निक़ाब] १. अपने को छिपाये रखने के लिए चेहरे पर डाला जानेवाला जालीदार रंगीन कपड़ा। मुखावरण। क्रि० प्र०—उठाना।—डालना। विशेष—इसका प्रयोग प्रायः स्त्रियाँ अपना रूप दूसरों की दृष्टि में पड़ने से बचाने के लिए और चोर, डाकू आदि अपनी आकृति छिपाये रखने के लिए करते हैं। २. स्त्रियों की साड़ी या चादर का वह भाग जिससे उनका मुख ढका रहता है। घूँघट। मुहा०—नकाब उलटना=नकाब ऊपर उठाकर इस प्रकार पीछे उलटना या हटाना कि लोग आकृति देख सकें। ३. लोहे की वह जाली जो झिलम में नाक की रक्षा के लिए लगी रहती है।
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नकाबपोश  : वि० [अ० निक़ाब+फा. पोश] (व्यक्ति) जिसने अपने चेहरे पर नकाब अर्थात् जालीदार कपडा़ डाल रखा हो।
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नकार  : पुं० [सं० न+कार] १. ‘न’ अक्षर या वर्ण। २. न या नहीं का बोधक शब्द या वाक्य। स्त्री० [हिं० नकारना] किसी काम या बात के लिए नहीं करने या कहने की क्रिया या भाव। इन्कार।
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नकारची  : पुं० =नक्कारची।
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नकारना  : अ० [हिं० न+कारना (प्रत्य०)] १. असहमति प्रकट करते हुए ‘न’ या ‘नहीं’ कहना। २. न मानना। अस्वीकृत करना।
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नकारा  : वि० [फा० नाकारः] [स्त्री० नकारी] १. जिसे कोई काम न हो। निष्कर्म। २. जो किसी काम का न हो। निकम्मा। ३. खराब। निष्प्रयोजन। व्यर्थ। ४. खराब। बुरा। पुं० =नक्कारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नकारात्मक  : वि० [सं० नकार-आत्मन्, ब० स०, कप्] १. (उत्तर या कथन) जिसमें कोई बात न मानी गई हो या कुछ करने से इन्कार किया गया हो। ‘सकारात्मक’ का विपर्याय। २. दे० ‘नहिक’।
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नकाश  : पुं० =नक्काश।
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नकाशना  : सं० [अ० नक्श] किसी चीज पर नक्श करना या बनाना अर्थात् उस पर बेल-बूटे आदि खोदकर अंकित करना या उकेरना। नक्काशी करना।
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नकाशी  : स्त्री०=नक्काशी।
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नकाशीदार  : वि० =नकशी।
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नकास  : पुं० १.=नक्काश। २.=नखास।
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नकासना  : स०=नकाशना। स०=निकासना (निकालना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नकासी  : स्त्री०=नक्काशी। स्त्री०=निकासी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नकासीदार  : वि० दे० ‘नकशी’।
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न-किंचन  : वि० [सं० सहसुपा समास]=अकिंचन।
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नकियाना  : अ० [हिं० नाक] १. नाक से कुछ श्वास निकालते हुए शब्दों का इस प्रकार उच्चारण करना या बोलना कि मात्राएँ, वर्ण, आदि अनुनासिक से जान पड़ें। २. नाक में दम होना। बहुत ही तंग या परेशान होना। सं० किसी की नाक में दम करना। बहुत ही तंग या परेशान करना।
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नकीब  : पुं० [अ० नक्कीब] १. प्राचीन काल में राजा-महाराजा की सवारी के आगे-आगे चलनेवाला। और उनके आगमन की उच्चर स्वर में घोषणा करनेवाला चोबदार। २. भाट। चारण। ३. कड़खा गानेवाला व्यक्ति। कड़खैत।
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नकुच  : पुं० [?] मदार (पेड़)। पुं० =लकुच (वृक्ष और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नकुट  : पुं० [सं० न√कुट् (कुटिल होना)+क]=नाक।
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नकुड़ा  : पुं० [सं० नकुल] नेवला (जन्तु)। पुं० [हिं० नाक] १. नाक विशेषतः उसका अग्र भाग। २. नथना।
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नकुल  : पुं [सं० ब० स०] १. नेवला। २. माद्री के गर्भ से उत्पन्न युधिष्ठिर, अर्जुन, और भीम के सौतेले भाई। ३. पुत्र। बेटा। ४. शिव। ५. एक प्रकार का पुराना बाजा। पुं० =दे० ‘नुकल।’(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नकुल-कंद  : पुं० [मध्य० स०] गंधनाकुली या रास्ता (कंद)।
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नकुलक  : पुं० [सं० नकुल-कन्] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का गहना। २. रुपए आदि रखने की एक प्रकार की थैली।
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नकुल-तैल  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का तैल जो नेवले के मांस में बहुत सी दूसरी औषधियाँ मिलाकर बनाया जाता है। इसका उपयोग आमवात, अंगों का कंप और कमर, पीठ, जाँघ आदि के दर्द में होता है।
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नकुलांध  : पुं० [नकुल-अंध, उपमित स०] सुश्रुत के अनुसार आँख का एक रोग जिसमें आँखें नेवले की आँखों की तरह चमकने लगती हैं और चीजें रंग-बिरंगी दिखाई देने लगती हैं। वि० जिसे उक्त प्रकार का रोग हो।
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नकुलांधता  : स्त्री० [सं० नकुलांध+तल्—टाप्] नकुलांध रोग होने की अवस्था या भाव।
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नकुला  : स्त्री० [सं० नकुल+टाप्] पार्वती। वि० स० ‘नकुल’ का स्त्री०। पुं० =नाक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नकुलाढ्या  : स्त्री० [सं० नकुल-आढ्या, तृ० त०] गंधनाकुली। नकुलकंद।
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नकुली  : स्त्री० [सं० नकुल+ङीष्] १. जटामासी। २. केसर। ३. शंखिनी। ४. नेवले की मादा।
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नकुलीश  : पुं० [सं०] नकुलेश।
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नकुलेश  : पुं० [सं०] तांत्रिकों के एक भैरव का नाम।
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नकुलेष्टा  : स्त्री० [सं० नकुल-इष्टा, ष० त०] रास्ना। रायसन।
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नकुलौष्ठी  : स्त्री० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा, जिसमें बजाने के लिए तार लगे हुए होते थे।
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नकुवा  : पुं० १.=नाक। २.=नाका।
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नकेल  : स्त्री० [हिं० नाक+एल (प्रत्य०)] १. ऊँट, बैल आदि के नथने में से आर-पार निकाली हुई वह रस्सी जो लगाम का काम देती है, और जिसके सहारे वह चलाया जाता है। मुहार। २. किसी को अपने अधिकार या वश में रखने की युक्ति या शक्ति। मुहा०—(किसी की) नकेल हाथ में होना=किसी पर सब प्रकार का अधिकार होना। किसी से बलपूर्वक मनमाना काम करा लेना की शक्ति होना। जैसे—उनकी नकेल तो हमारे हाथ में है।
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नक्कना  : सं० [सं० लंघन] लाँघना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नक्कल  : पुं० [अ० नुक्ल=गजक] जल-पान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नक्का  : पुं० [हिं० नाक] १. सूई का वह छेद जिसमें डोरा डाला जाता है। २. कौड़ी। ३. दे० ‘नाका’। ४. दे० ‘नक्कीमूठ’।
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नक्कादूआ  : पुं० =नकारा।
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नक्कारखाना  : पुं० [अ० नक्कार+फा० खानः] वह स्थान जहाँ नक्कारा या नौबत बजती है। नौबतखाना। पद—नक्कारखाने में तूती की आवाज= (क) बहुत भीड़-भाड़ या शोर-गुल में कही गई कोई सामान्य-सी बात जो सुनाई नहीं पड़ती। (ख) बड़े-बड़े लोगों के सामने छोटे आदमियों की बात।
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नक्कारची  : पुं० [अ० नक्कारः+फा० ची (प्रत्य०)] नगाड़ा बजानेवाला। वह जो नक्कारा बजाता हो।
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नक्कारा  : पुं० [अ० नक्कारः] नगाड़ा नाम का बाजा। (दे० ‘नगाड़ा’)
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नक्काल  : पुं० [अ०] १. वह जो केवल नकल या अनुकरण करता हो। अथवा जिसने किसी की नकल या अनुकरण मात्र किया हो। २. वह जो केवल दूसरों का मनोरंजन करने अथवा दूसरों को उपहासास्पद सिद्ध करने के लिए तरह-तरह की नकलें करता हो। जैसे—बहुरुपिये, भाँड़ आदि।
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नक्काली  : स्त्री० [अ०] १. नकल या अनुकरण करने की क्रिया या भाव। २. दूसरों की नकल उतारने की कला या विद्या। ३. भाँड़पन।
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नक्काश  : पुं० [अ०] नक्काशी का काम करनेवाला कारीगर। वह जो धातुओं आदि पर खोदकर बेल-बूटे बनाता हो।
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नक्काशी  : स्त्री० [अ०] १. धातु, पत्थर, लकड़ी आदि पर खोदकर बेल-बूटे आदि बनाने का काम या कला। २. उक्त प्रकार से बनाये हुए बेल-बूटे आदि।
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नक्की  : स्त्री० [हिं० नक्का=कौड़ी या एक ?] १. जूए के खेल में वह दाँव जिसके लिए ‘एक’ का चिह्न नियत हो अथवा जिसकी जीत किसी प्रकार के ‘एक’ चिह्न से संबद्ध हो। २. दे० ‘नक्की मूठ’। स्त्री० [हिं० नाक] मनुष्य के गले से होनेवाला ऐसा उच्चारण जिसमें श्वास का कुछ अंश नाक से भी निकलता हो और जिसका उच्चारण अनुनासिक-सा होता है। जैसे—यह लड़का इतना बड़ा हो गया; पर अभी तक नक्की बोलता है। क्रि० प्र०—बोलना। वि० [हिं० एक ?] १. (काम) जो हर तक से ठीक और पूरा हो चुका हो। २. (बात) जिसका दृढ़ निश्चय हो चुका हो। ३. (ऋण या देन) जो अदा या चुकता हो गया हो। जैसे—किसी का हिसाब नक्की करना।
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नक्कीपूर  : पुं० =नक्कीमूठ।
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नक्कीमूठ  : स्त्री० [हिं०] जूए का एक प्रकार का खेल जो प्रायः स्त्रियाँ और बालक कौड़ियों से खेलते हैं। इसमें एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी लकीरें खींची जाती हैं। एक खिलाड़ी अपनी मुट्ठी में कुछ कौड़ियाँ लेकर अपने दाँव पर रख देता है। तब बाकी खिलाड़ी अपने अपने दाँव पर कौड़ियाँ लगाकर हार-जीत करते हैं।
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नक्कू  : वि० [हिं० नाक] १. बड़ी नाकवाला। जिसकी नाक बड़ी हो। २. अपने आपको बहुत प्रतिष्ठित या औरों से बढ़कर समझनेवाला। ३. जिसका कोई आचरण या कृत्य औरों से बिलकुल भिन्न और असाधारण हो; और इसीलिए जिसकी ओर लगो उपेक्षापूर्वक उँगलियाँ उठाते हों। जैसे—हम तुम्हारी सलाह मानकर नक्कू नहीं बनना चाहते।
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नक्ख़य  : पुं० =नक्षत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नक्तंदिन, नक्तंदिव  : अव्य० [सं० नक्तम्-दिन, द्व० स०, नक्तम्दिवा, द्व० स०] रात-दिन।
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नक्त  : वि० [सं०√नज् (लजाना)+क्त] जो शरमा गया हो। लज्जित। पुं० [सं०] १. वह समय जब दिन का केवल एक मुहूर्त बाकी रह गया हो। बिलकुल संध्या का समय। २. रात। रात्रि। ३. शिव। ४. राजा पृथु के एक पुत्र का नाम। ५. दे० ‘नक्त व्रत’। स्त्री० रात।
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नक्तक  : पुं० [सं० नक्त+कन्] फटा-पुराना और मैला कपड़ा।
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नक्तचर  : वि० [सं० नक्त√चर् (गति)+ट] १. रात को घूमने, चलने या विचरण करनेवाला। पुं० १. शिव। २. राक्षस। ३. उल्लू। ४. बिल्ली।
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नक्तचारी (रिन्)  : वि० , पुं० [सं० नक्त√चर्+णिनि]=नक्तचर।
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नक्तमाल  : पुं० [सं० नक्तम्-आ√अल् (पर्याप्ति)+अच्] करज वृक्ष। कंजे का पेड़।
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नक्त-मुखा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] रात।
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नक्त-व्रत  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का व्रत जो अगहन के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को किया जाता है। इसमें दिन के समय बिलकुल भोजन नहीं करते केवल रात को तारे देखकर और विष्णु की पूजा करके भोजन करते हैं।
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नक्तांध  : वि० [सं० नक्त-अंध, स० त०] जिसे रात को न दिखाई देता हो। जिसे रतौंधी हो। पुं० नक्तांध्य।
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नक्तांधता  : स्त्री० [सं० नक्तांध+तल—टाप्]=नक्तांध्य।
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नक्तांध्य  : पुं० [सं० नक्त-अंध्य, स० त०] आँख का रतौंधी नामक रोग।
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नक्ता  : स्त्री० [सं० नक्त+टाप्] १. कलियारी नामक विषैला पौधा। २. हलदी। ३. रात। रात्रि।
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नक्ताह  : पुं० [सं०] करंज वृक्ष। कंजा।
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नक्ति  : स्त्री० [सं०√नज्+क्तिन्] रात।
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नक्द  : वि० , पुं० =नगद।
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नक्दी  : स्त्री० दे० ‘नगदी’।
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नक्र  : पुं० [सं० न√क्रम् (गति)+ड] १. नाक नामक जल-जन्तु। मगर। २. कुंभीर या घड़ियाल नामक जल-जंतु।
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नक्र-राज  : पुं० [ष० त०] १. घड़ियाल। २. मगर (जलजंतु)।
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नक्रा  : स्त्री० [सं० नक्र+टाप्] नाक।
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नक्ल  : स्त्री०=नकल। विशेष—‘नक्ल’ के यौं पदों के लिए दे० ‘नकल’ के यौ० पद।
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नक्श  : वि० [अ० नक्श] जिस पर नक्काशी का काम हुआ हो। पुं० १. वे चिह्न बेल-बूटे आदि जो पत्थर लकड़ी आदि पर खोदकर बनाये गये हों। २. छाप या मोहर जिस पर कोई अंक, चित्र नाम आदि खुदा रहता है। ३. विभिन्न शारीरिक अंगों मुख्यतः चेहरे की सामूहिक गठन और उनसे अभिव्यक्त होनेवाला सौन्दर्य। जैसे—लड़की का रंग तो साँवला है परन्तु नक्श ठीक है। ४. कागज भोज-पत्र आदि पर सारिणी या कोष्ठक के रूप में लिखा हुआ एक तरह का यंत्र। विशेष—यह अनेक रोगों का नाशक माना जाता है और इसे बाँह पर या गले में पहना जाता है। ५. जादू। टोना ६. एक तरह के गीत। ७. ‘ताश’ से खेला जानेवाला एक तरह का खेल। नकश-मार।
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नक्श-निगार  : पुं० [अ० नक्श+फा० निगार] खोदकर बनाया हुआ चित्र या बेल-बूटा।
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नक्शमार  : पुं० =नकशमार।
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नक्शा  : पुं० =नकशा।
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नक्शानवीस  : पुं० =नकशानवीस।
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नक्शानवीसी  : स्त्री०=नकशानवीसी।
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नक्शी  : वि० =नकशी।
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नक्षत्र  : वि० [सं०√नक्ष् (गति)+अत्रन्] जो क्षत न हो। पुं० १. रात के समय आकाश में दिखाई पड़नेवाले सभी चमकते हुए पिंड या तारे अथवा उनमें से प्रत्येक तारा या सितारा। २. विशिष्ट रूप से, वे २७ तारक पुंज जो पृथ्वी की परिक्रमा करते समय चंद्रमा के भ्रमण-मार्ग में पड़ते हैं; और जिनके रूप-रेखाओं के आधार पर कुछ विशिष्ट आकृतियाँ मानकर ये सत्ताइस नाम रखे गये हैं।—अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा-फाल्गुनी, उत्तरा-फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाषा अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्रपद, उत्तर भाद्रपद और रेवती। विशेष—आधुनिक ज्योतिषयों का मत है कि इन २७ तारकपुंजों में सब मिलाकर लगभग सवा दौ सौ तारे हैं जो वास्तव में हैं तो बहुत बड़े-बड़े, परन्तु वे हमारे सौर जगत् से बहुत दूर पर स्थिति होने के कारण हमें बहुत ही छोटे तारों के रूप में और बिलकुल स्थिर दिखाई देते हैं। इन्हीं नक्षत्रों में से कुछ नक्षत्रों के नाम पर हमारे यहाँ के १२ महीनों के नाम रखे गए हैं। पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर रहता है, उसी नक्षत्र के नाम पर उस महीने का नाम रखा गया है। यथा—महीने का चैत्र नाम इसलिए पड़ा है कि उसकी पूर्णिमा को चंद्रमा प्रायः चित्रा नक्षत्र पर रहता है। इसी प्रकार पूर्णिमा के दिन उसके विशाखा, ज्येष्ठा आदि नक्षत्रों पर रहने के कारण वैशाख, ज्येष्ठ आदि नाम पड़े हैं। नक्षत्रों के संबंध में ध्यान रखने की एक और बात है। जिन उक्त तारों के बीच से होकर चलता हुआ सूर्य भी दिखाई देता है। सूर्य का भ्रमणमार्ग जिन १२ राशियों में विभक्त है, वे भी वस्तुतः उक्त तारों के ही वर्गीकरण हैं। अन्तर यही है कि नक्षत्र उन तारों के अपेक्षया छोटे वर्ग है; और राशियाँ उनके बड़े वर्गों के रूप में हैं, इसी-लिए राशियों में दो-दो, तीन-तीन नक्षत्र आ जाते हैं। ३. सत्ताइस मोतियों की माला। ४. मोती।
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नक्षत्र-कल्प  : पुं० [ष० त०] अर्थर्ववेद का एक परिशिष्ट जिसमें चंद्रमा की स्थिति आदि का वर्णन है।
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नक्षत्र-कांति-विस्तार  : पुं० [सं० नक्षत्र-कांति, ष० त० नक्षत्रकांति, विस्तार, ब० स०] सफेद ज्वार।
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नक्षत्र-गण  : पुं० [ष० त०] कुछ विशिष्ट नक्षत्रों के अलग-अलग समूह या गण। (फलित ज्योतिष)
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नक्षत्र-चक्र  : पुं० [ष० त०] १. सत्ताइस नक्षत्रों का वह चक्र जिसमें से होकर चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी की परिक्रमा करता है। २. राशिचक्र। ३. तांत्रिकों का एक प्रकार का चक्र जिसके अनुसार दीक्षा के समय नक्षत्रों आदि के विचार से गुरु यह निश्चय करता है कि शिष्य को कौन सा मंत्र दिया जाय।
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नक्षत्र-चिंतामणि  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार का कल्पित रत्न जिसके संबंध में यह प्रसिद्ध है कि उससे माँगी हुई चीजें प्राप्त हो जाती हैं।
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नक्षत्र-दर्श  : पुं० [सं० नक्षत्र√दृश् (देखना)+अण्] १. वह जो नक्षत्र देखता हो। २. ज्योतिषी।
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नक्षत्र-दान  : पुं० [सं० त०] पुराणानुसार भिन्न-भिन्न नक्षत्रों के उद्देश्य से किया जानेवाला भिन्न-भिन्न पदार्थों का दान।
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नक्षत्र-नाथ  : पुं० [ष० त०] चन्द्रमा।
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नक्षत्र-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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नक्षत्र-पत्र  : पुं० [सं० नक्षत्र√पा (रक्षा)+क] चंद्रमा।
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नक्षत्र-पथ  : पुं० [ष० त०] नक्षत्रों के चलने का मार्ग।
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नक्षत्र-पद-योग  : पुं० [ष० त०] जन्मकुंडली का वह योग जब सूर्य जन्म राशि से छठे स्थान पर या मेष राशि में होता है और चंद्रमा वृष राशि में।
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नक्षत्र-पुरुष  : पुं० [सुप्सुपा० स०] विभिन्न नक्षत्रों को विभिन्न शारीरिक अंगों के रूप में मानकर उनके आधार पर बननेवाला कल्पित पुरुष।
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नक्षत्र-माला  : स्त्री० [मध्य० स०] वह हार जिसमें सत्ताइस मोती हों।
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नक्षत्र-याजक  : पुं० [ष० त०] ग्रहों और नक्षत्रों आदि के दोषों की मंत्र-जाप आदि की सहायता से शांति करानेवाला ब्राह्मण।
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नक्षत्र-योग  : पुं० [ष० त०] नक्षत्र के साथ ग्रहों का योग।
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नक्षत्र-योनि  : स्त्री० [ष० त०] वह नक्षत्र जो विवाह के लिए निषिद्ध हो।
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नक्षत्र-राज  : पुं० [ष० त०] नक्षत्रों के स्वामी, चंद्रमा।
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नक्षत्र-लोक  : पुं० [ष० त०] १. सितारों की दुनिया। २. पुराणानुसार एक लोक जो चंद्रलोक के ऊपर स्थित माना गया है।
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नक्षत्र-वीथि  : स्त्री० [ष० त०] नक्षत्रों में गति के अनुसार तीन-तीन नक्षत्रों के बीच का कल्पित मार्ग।
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नक्षत्र-वृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] तारे का टूटना। उल्कापात।
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नक्षत्र-व्यूह  : पुं० [ष० त०] फलित ज्योतिष में वह चक्र जिसमें यह दिखलाया जाता है कि किन-किन पदार्थों, जातियों आदि का कौन-कौन नक्षत्र स्वामी है।
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नक्षत्र-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार किसी विशिष्ट नक्षत्र के उद्देश्य से किया जानेवाला ऐसा व्रत जिसमें उसके स्वामी की आराधना की जाती है।
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नक्षत्र-शूल  : पुं० [उपमि० स०] कुछ विशिष्ट नक्षत्रों का किसी विशिष्ट दिशा में रहने का ऐसा काल या समय जिसमें यात्रा आदि निषिद्ध हो।
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नक्षत्र-संधि  : स्त्री० [ष० त०] ग्रहों का नक्षत्र के पूर्व से उत्तर पक्ष में प्रविष्ट होने की संधि या समय।
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नक्षत्र-सत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह यज्ञ जो नक्षत्रों के उद्देश्य से विशेषतः दुष्ट ग्रहों की शांति के लिए किया जाय।
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नक्षत्र-साधन  : पुं० [ष० त०] किसी नक्षत्र में किसी ग्रह के रहने का समय जानने के लिए की जानेवाली गणना।
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नक्षत्र-सूचक  : पुं० [ष० त०] ऐसा व्यक्ति जो बिना शास्त्रों का अध्ययन किये ही ज्योतिषी बन बैठा हो।
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नक्षत्र-सूची (चिन्)  : पुं० [सं० नक्षत्र√सूच् (बताना)+णिनि] =नक्षत्र-सूचक।
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नक्षत्रामृत  : पुं० [नक्षत्र-अमृत, स० त०] किसी विशिष्ट दिन में किसी विशिष्ट नक्षत्र का होनेवाला उत्तम योग जो यात्रा आदि के लिए शुभ माना जाता है।
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नक्षत्रिय  : वि० [सं० नक्षत्र+घ+इय] १. नक्षत्र-संबंधी। २. सत्ताइस (नक्षत्रों की संख्या के आधार पर)।
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नक्षत्री  : वि० [सं० नक्षत्र+हिं० ई (प्रत्य०)] १. जिसकी जन्मकुंडली में अच्छे नक्षत्र हों। अच्छे नक्षत्रों में जन्म लेनेवाला। २. बहुत बड़ा भाग्यवान्। पुं० [सं० नक्षत्रिन्] १. चंद्रमा। २. विष्णु।
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नक्षत्रेश  : पुं० [नक्षत्र-ईश, ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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नक्षत्रेश्वर  : पुं० [नक्षत्र-ईश्वर, ष० त०] नक्षत्रों का स्वामी, चंद्रमा।
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नक्षत्रेष्टि  : पुं० [नक्षत्र-इष्टि, मध्य० स०] नक्षत्रों की तुष्टि के निमित किया जानेवाला यज्ञ।
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नख  : पुं० [सं०√नह् (बंन)+ख, हलोप] १. हाथों तथा पैरों की उँगलियों के ऊपर तल का वह सफेद अंश जो अधिक कड़ा तथा तेज धार या तेज नोकवाला होता है। २. उक्त का वह चंद्राकार भाग जो कैंची आदि से काटकर अलग किया जाता है। ४. घोंघे या सीप की जाति के कीड़ों का वह मुखावरण जो नाखून के समान चन्द्राकार होता है। ४. खंड। टुकड़ा। स्त्री० [फा०] १. एक प्रकार का बटा हुआ महीन रेशमी तागा जिसमें गुड्डी उड़ाते और कपड़ा सीते हैं। २. गुड्डी उड़ाने का डोरा या तागा जिस पर माँझा दिया होता है। डोर।
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नख-कर्तनि  : स्त्री० [ष० त०] नहरनी। (दे०)
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नख-कुट्ट  : वि० [सं० नख√कुट्ट (काटना)+अण्] नाखून काटनेवाला। पुं० नाई। हज्जाम।
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नख-क्षत  : पुं० [तृ० त०] १. वह क्षत या चिह्र जो शरीर में नाखून गड़ने या उसकी खरोंच लगने के कारण बना हो। २. श्रृंगारिक क्षेत्र में स्त्री के शरीर पर का विशषेतः स्तन आदि पर का वह चिह्र जो पुरुष के मर्दन आदि के कारण उसके नाखूनों से बन जाता है। और जो यह सूचित करता है कि पुरुष के साथ असका संभोग हुआ है।
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नखखादी (दिन्)  : पुं० [सं० नख√खाद् (खाना)+णिनि] दाँतों से अपने नाखून काटनेवाला व्यक्ति। (जो अभागा समझा जाता है)।
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नखचारी (रिन्)  : वि० [सं० नख√चर् (गति)+णिनि] पंजों के बल चलनेवाला (जीव या प्राणी)।
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नखचीर  : पुं० [फा० नख्चरि] १. आखेट। शिकार। २. वह जंगली जानवर जिसका शिकार किया गया हो। मारा हुआ शिकार।
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नख-चोटी  : स्त्री० [सं० नख=नाखून+चोटना=तोड़ना] हज्जामों का मोचना, जिससे बाल नोचे या उखाड़े जाते हैं।
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नखच्छत  : पुं० =नख-क्षत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नख-छोलिया  : पुं० =नख-क्षत।
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नखजाह  : पुं० [सं० नख+जाहच्] नाखून का सिरा।
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नखत  : पुं० =नक्षत्र।
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नखतर  : पुं० -नक्षत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नखतराज  : पुं० =नक्षत्रराज (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नखतराय  : पुं० =नक्षत्रराज (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नखता  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया जो विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न स्थानों पर रहती है।
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नखतेस  : पुं० =नक्षत्रेश (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नख-दारण  : पुं० [ष० त०] नहरनी। (दे०)
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नखना  : स० [सं० लंघन] १. उल्लंघन करना। लाँघना। २. पार उतरना या जाना। पारण। अ० उल्लंगन होना। लाँघा जाना। स० [सं० नाशन] नष्ट करना।
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नखनिष्पाव  : पुं० [सं० नख-निर्√पू (अनुकरण)+अण्] एक तरह की सेम का पौधा।
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नख-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] बिच्छू नामक घास।
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नख-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] पृक्का नामक गन्ध-द्रव्य।
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नखपूर्विका  : स्त्री० [सं०] हरी सेम।
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नखबान  : पुं० [सं० नख+वाण] नख। नाखून।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नखमुच  : पुं० [सं० नख√मुच् (छोड़ना)+क] चिरौंजी (वृक्ष)।
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नख-रंजनी  : स्त्री० [ष० त०] नहरनी। (दे०)
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नखर  : पुं० [सं० नख√रा (देना)+क] १. नख। नाखून। २. एक प्रकार का पुराना अस्त्र जिसका अगला भाग नाखूनों की तरह नुकीला होता था। ३. उक्त प्रकार की कोई पकड़नेवाली चीज। जैसे—चिमटी, सँड़सी आदि। ४. चीता, भालू, शेर आदि जन्तु।
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नखरा  : पुं० [फा० नखरः] १. खुशामद कराने की भावना। २. लाड़-प्यार आदि के कारण की जानेवाली ऐसी हठपूर्ण परन्तु सुकुमारतापूर्ण चेष्टा जिसमें किसी के आग्रह को न मानने या टालने का भाव निहित होता है। विशेष—नखरा प्रायः स्त्रियाँ दूसरों को रिझाने अथवा उन्हें अपना अभिमान दिखाने के लिए करती हैं। क्रि० प्र०—करना।—दिखाना।—निकालना।—बघारना। ३. किसी का आग्रह टालने के लिए झूठ-मूठ की बनाकर कही जानेवाली बात।
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नखरा-तिल्ला  : पुं० [फा०+हिं० (अनु०)] नखरा और इसी तरह की दूसरी चेष्टाएँ जो झूठा बड़प्पन दिखाने, रिझाने आदि की जाती हैं।
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नखरायुध  : पुं० [नखर-आयुध, ब० स०] १. शेर। २. चीता। ३. कुत्ता।
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नखराह्व  : पुं० [नखराह्वा, ब० स०] कनेर।
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नखरी  : स्त्री० [सं० नखर+अच्—ङीष्] नख नामक गंध-द्रव्य।
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नखरीला  : वि० [फा० नखरा+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० नखरीली ] बहुत अधिक या हर काम में नखरा दिखानेवाला।
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नख-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] १. शरीर में लगा हुआ नाखूनों का चिह्न जो साहित्य में संभोग का चिह्न माना जाता है। नखरौट। २. कश्यप ऋषि की एक पत्नी जो बादलों की माता थी।
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नखरेबाज  : वि० [फा०] [भाव० नखरेबाजी] प्रायः नखरे दिखानेवाला। नखरीला।
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नखरेबाजी  : स्त्री० [फा०] नखरा करने या दिखाने की क्रिया या भाव।
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नखरौट  : स्त्री० [सं० नख+हिं० खरोंट] शरीर पर होनेवाला वह घाव जो नाखून गड़ने से बना हो। नख-क्षत।
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नख-विंदु  : पुं० [मध्य० स०] नाखून पर महावर, मेंहदी आदि का बनाया हुआ चिह्न।
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नख-विष  : वि० [ब० स०] (जीव) जिसके नाखूनों में विष हो। जैसे—कुत्ता, छिपकली, बंदर आदि।
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नख-विष्कि  : पुं० [सं० नख-वि√कृ+क, सुट्] ऐसे पशु-पक्षी जो अपना शिकार नाखून से फाड़कर खाते हैं। जैसे—शेर, बाज आदि।
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नख-वृक्ष  : पुं० [उपमि० स०] नील का पेड़।
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नख-संख  : पुं० [उपमि० स०] छोटा शंख।
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नख-शस्त्र  : पुं० [मध्य० स०] नहरनी
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नख-शिख  : पुं० [सं०] पैर के नाखून से लेकर सिर के बालों तक के सब अंग। पद—नख शिख से=सिर से पैर तक। ऊपर से नीचे तक। जैसे—वह नख-शिख से दुरुस्त है नख-शिख से ठीक या दुरुस्त=आदि से अंत तक सब अंगों या बातों में ठीक और दुरुस्त। २. साहित्य में वह कवित्वमय वर्णन जिसमें किसी के नख से शिख तक या नीचे से ऊपर तक के सब अंगों का सौंदर्य बतलाया गया हो। जैसे—किसी देवता या नायिका का नख-शिख।
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नख-शूल  : पुं० [ष० त०] एक रोग जिसके फलस्वरूप नाखूनों में विकार होने के कारण कष्ट होता है।
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नख-हरणी  : स्त्री० [ष० त०]=नहरनी।
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नखांक  : पुं० [नक-अंक, ब० स०] १. व्याघ्र का नख। २. नख-क्षत।
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नखांग  : पुं० [नख-अंग, ब० स०] १. नख नामक गंध- द्रव्य २. नलिका या नली नामक गन्ध-द्रव्य।
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नखाघात  : पुं० [नख-आघात, तृ० त०] नख-क्षत।
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नखानखि  : स्त्री० [नख-नख, ब० सा०] ऐसा द्वन्द्व जिसमें विपक्षी पर नखों से प्रहार किया जाय।
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नखायुध  : पुं० [नख-आयुध, ब० स०] १. शेर। २. चीता। ३. कुत्ता।
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नखारि  : पुं० [नख-अरि, ष० त०] शिव का एक अनुचर।
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नखालि  : पुं० [सं०] छोटा शंख।
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नखालु  : पुं० [सं० नख+आलुच्] नील (वृक्ष)।
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नखाशी (शिन्)  : वि० [सं० नख√अश् (खाना)+णिनि] जो नाखूनों की सहायता से खाता हो। पुं० उल्लू।
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नखास  : पुं० [अ० नख़्ख़ास] १. वह बाजार जिसमें दासों, पशुओं आदि का क्रय-विक्रय होता हो। जैसे—घर घोड़ा नखास मोल। (कहा०) २. बाजार। मुहा०—कोई चीज नखास पर चढ़ाना या भेजना=बेचने के लिए कोई चीज बाजार भेजना। पद—नखास की घोड़ी या नखासवाली-बाजार में बैठनेवाली स्त्री, अर्थात् कसबी।
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नखित्र  : पुं० =नक्षत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नखिद्द  : वि० [सं० निषिद्ध] १. निषेध किया हुआ। २. तुच्छ कोटि या प्रकार का। निकृष्ट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नखियाना  : स० [हिं० नख०] नख चुभाकर घाव करना।
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नखी (खिन्)  : पुं० [सं० नख+इनि] १. वह जानवर जो नाखूनों से किसी पदार्थ को चीर या फाड़ सकता हो। २. शेर। ३. चीता। ४. नख नामक गन्ध-द्रव्य।
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नखेद  : पुं० =निषेध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नखोटना  : स० [हिं० नख] नाखून से खरोंचना या नोचना।
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नखोरा  : पुं० =निमोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नख्खास  : पुं० =नखास।
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नग  : वि० [सं० न√गम् (जाना)+ड] १. न गमन करनेवाला। न चलने-फिरनेवाला। २. अचल। स्थिर। पुं० १. पर्वत। पहाड़। २. पेड़। वृक्ष। ३. साँप। ४. सूर्य। पुं० १. अ० नगीना का संक्षिप्त रूप। २. अदद या संख्या का सूचक एक शब्द। जैसे—चार नग गाँठे आई हैं।
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नग-चाना  : अ०, स०=नगिचाना।
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नगज  : वि० [सं० नग√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो पहाड़ से उत्पन्न हो। जैसे—गेरू, शिलाजीत आदि। पुं० हाथी।
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नगजा  : स्त्री० [सं० नगज+टाप्] १.पार्वती। २.पाषाणभेदी लता। पखानभेद।
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नगण  : पुं० [सं० ष० त०] तीन लघु अक्षरों का एक गण। (पिंगल) जैसे—कमर,परम,मदन। विशेष—इस गण से छन्द का आरम्भ करना अशुभ माना गया है।
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नगणा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] मालकँगनी।
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नगण्य  : वि० [सं० अगण्य] १.जो गिनने या गिने जाने के योग्य न हो। जो किसी गिनती में न हो। २.बहुत ही तुच्छ या हीन
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नगदंती  : स्त्री० [सं०] विभीषण की स्त्री का नाम।
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नगद  : पुं० [अ० नक्द] १.सोने-चाँदी का सिक्का। २.रुपया-पैसा। ३.सिक्कों आदि के रूप में होने वाला खड़ा धन जो देन आदि के बदले में तुरंत चुकाया जाता हो। ‘उधार’ का विपर्याय। वि० १. (रुपया) जो तैयार या सामने हो। २.जिसका मूल्य रुपए-पैसे आदि के रूप में तुरन्त दिया या चुकाया जाय। ३.बढ़िया। क्रि० वि० तुरंत दिये हुए रुपए के बदले में।
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नगद-नारायण  : पुं० [हिं०+सं०] नगद रुपए।
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नगदी  : क्रि० वि० [हिं०नगद+ई (प्रत्य०)] नगद या सिक्के के रूप में। (इन्कैश) पुं० , वि० =नगद।
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नगधर  : पुं० [सं०] पर्वत धारण करनेवाले श्रीकृष्ण गिरिधर।
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नगधरन  : पुं० =नगधर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नग-नंदिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] हिमालय पर्वत की पुत्री,पार्वती।
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नगन  : वि० =नग्न। (नंगा)। पुं० =नगण।
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नग-नदी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] पहाड़ी नदी (बरसाती नदी से भिन्न)।
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नगना  : स्त्री०-नग्ना।
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नगनिका  : स्त्री० [सं०] १.संकीर्ण राग का एक भेद। २.क्रीड़ा नामक वृत्त का दूसरा नाम जिसके प्रत्येक चरण में एक यगण और एक गुरु होता है।
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नगनी  : स्त्री० [सं० नग्न] १.ऐसी छोटी लड़की जिसमें अभी यौवन का कोई लक्षण न दिखाई देता हो और इसी लिए जो अपने शरीर का ऊपरी अंग नंगा रखकर घूम सकती हो। कन्या। लड़की। २.पुत्री। बेटी। ३.नंगी स्त्री।
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नगन्निका  : स्त्री०-नगनिका।
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नग-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १.पर्वतों का राजा, हिमालय। २.शिव। ३.सुमेरु पर्वत। ४.चन्द्रमा।
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नगपुंग  : पुं० [सं० नागपाश] असमंजस की या विकट स्थिति। अंडस। उदाहरण-हाँ भले नगपुंग परे गढ़ीबै अब ए गढ़न महरि मुख जोए।—तुलसी।
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नगफनी  : स्त्री०-नागफनी।
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नगभिद्  : पुं० [सं० नग√भिद् (विदारण)+क्विप्] १.पखानभेदलता। २.इन्द्र। वि० [सं०] पत्थर तोड़नेवाला।
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नग-भू  : वि० [सं० ब० स०] जो पहाड़ से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १.पहाड़ी जमीन। २.पाषाण भेदी लता। पखान भेद।
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नगमा  : पुं० [अ० नरमः.] १.सुरीली आवाज। २.गाया जानेवाला किसी प्रकार का मनोहर और सुरीला गीत या राग-रागिनी।
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नगर  : पुं० [सं० नग+र] १.मनुष्यों की वह बस्ती जो गाँवों,कस्बों आदि की तुलना में बहुत बड़ी हो। शहर। २.उक्त बस्ती का कोई मुहल्ला जो एक स्वतंत्र बस्ती के रूप में हो। जैसे—कमलानगर, नेहरूनगर, राजेन्द्रनगर।
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नगर-कीर्तन  : पुं० [सं० त०] नगर की गलियों,सड़कों आदि में घूम-घूमकर किया जानेवाला सामूहिक कीर्तन।
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नगर-कोट  : पुं० दे० ‘परकोटा’।
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नगरघात  : पुं० [सं० नगर√हन् (नष्ट करना)+अण्] हाथी।
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नगरतीर्थ  : पुं० [सं०] गुजरात प्रदेश में स्थित एक प्राचीन तीर्थ जहाँ किसी समय शिव का निवास माना जाता था।
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नगर-नायिका  : स्त्री० [मध्य० स०] वेश्या। रंडी।
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नगर-नारी  : स्त्री० [मध्य० स०] रंडी। वेश्या।
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नगर-निगम  : पुं० [ष० त०] दे० ‘नगर महापालिका।’
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नगरपाल  : पुं० [सं० नगर√पाल् (रक्षा)+णिनि+अण्] १.प्राचीन भारत में वह अधिकारी जिसका कर्त्तव्य नगर की शांति और सुरक्षा की देख-रेख करना होता था। २.आधुनिक भारत में किसी नगर की नगरपालिका का चुना हुआ सदस्य।
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नगर-पालिका  : स्त्री० [सं०] आधुनिक नगर व्यवस्था में नगर निवासियों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की वह संस्था जो सारे नगर के यातायात, स्वास्थ्य जल, नल रोशनी आदि का प्रबन्ध करने के लिए बनाई जाती है। (म्यूनिस्पैलिटी)
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नगर-पिता (तृ)  : पुं० =नगर-प्रमुख।
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नगर-प्रमुख  : पुं० [ष० त०] नगरपालिका या नगर-महापालिका का प्रधान प्रशासनिक अधिकारी। (मेयर)
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नगरमर्दी (र्दिन्)  : पुं० [सं० नगर√मृद् (कुचलना)+णिच्+णिनि] मतवाला हाथी।
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नगर-महापालिका  : स्त्री० [सं०] किसी बड़े नगर की स्वायत्त संस्था जिसे नगरापलिका को अपेक्षा कुछ अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। (कारपोरेशन)।
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नगर-मार्ग  : पुं० [ष० त०] नगर का सबसे बड़ा तथा चौड़ा बाजार।
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नगर-मुस्ता  : स्त्री० [सं०] नागरमोथा।
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नगरवा  : पुं० [?] ईख की एक प्रकार की बोआई जो मध्यप्रदेश के उन प्रान्तों में होती है जहाँ की मिट्टी काली या करैली होती है। इसमें खेतों को सींचने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि बरसात के बाद उन ईख के अंकुर फूटते हैं तब जमीन पर इसलिए पत्तियाँ बिछा देते हैं कि उसका पानी सूख न जाय। पलवार।
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नगरवासी (सिन्)  : पुं० [सं० नगर√वस् (बसना)+णिनि] १.नगर या शहर में रहनेवाला। पुरवासी। २.नागरिक।
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नगर-विवाद  : पुं० [सं० त०] घर-गृहस्थी और संसार के झगड़े-बखेड़े।
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नगर-वृद्ध  : पुं० [सं० त] आधुनिक भारत में किसी नगरमहापालिका या नगरनिगम का वह अधिकारी जिसका दरजा नगर प्रमुख से कुछ छोटा और उसके चुने हुए सदस्यों से कुछ बड़ा होता है। (एल्डरमैन)
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नगर-सन्निवेश  : पुं० [ष० त०] नये नगर बनाने और उसके मार्ग भवन विभाग आदि निरूपित करने की कला या विद्या। (सिटी प्लैनिंग)
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नगर-सेठ  : पुं० [सं० +हिं०] नगर का सबसे बड़ा महाजन,सेठ या संपन्न व्यक्ति।
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नगरहा  : वि० [हिं० नगर+हा (प्रत्य०)] शहर में रहने या होनेवाला। पुं० नगर का निवासी। नागरिक। शहरी।
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नगरहार  : पुं० [सं०] उत्तर-पश्चिमी भारत के एक प्राचीन कपिश राज्य के अंतर्गत की एक नगरी जिसका वर्णन ह्वेन-सांग ने किया है।
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नगराई  : स्त्री० [हिं० नगर+आई (प्रत्य०)१.नागरिकता। शहरातीपन। २.चतुराई। चालाकी।
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नगराधिप  : पुं० [नगर-अधिप,ष० त०] नगर का प्रधान शासक। प्रशासक।
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नगराध्यक्ष  : पुं० [नगर-अध्यक्ष,ष० त०] नगर का प्रधान शासक। प्रशासक।
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नगरी  : स्त्री० [सं० नगर+ङीष्] छोटा नगर या शहर। पुं० [सं० नगरिन्] नगर में होने या रहनेवाला व्यक्ति। नागरिक।
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नगरी-काक  : पुं० [ष० त०] बक।
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नगरीय  : वि० [सं० नगर+छ-ईय] १.नगर संबंधी। २.नगर में बनने या होनेवाला।
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नगरोत्था  : स्त्री० [नगर-उत्थान, ब० स०] नागरमोथा।
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नगरोपांत  : पुं० [नगर-उपांत, ष० त०] नगर के आसपास का क्षेत्र या स्थान। उप-नगर। (सबर्ब)
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नगरौका (कस्)  : पुं० [नगर-ओकस,ब० स०] नागरिक। नगरवासी।
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नगरौषधि  : स्त्री० [नगर-ओषधि,मध्य० स०] केला।
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नगवास  : पुं० =नाग-पाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नगवासी  : स्त्री०=नागपाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नग-वाहन  : पुं० [ब० स०] शिव का एक नाम।
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नग-स्वरूणी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक जगण एक रगण एक लघु और एक गुरु होता है। इसे प्रमाणी और प्रमाणिका भी कहते हैं।
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नगाटन  : वि० [सं० नग√अट् (गति)+ल्युट्-अन] पहाड़ पर विचरण करनेवाला। पुं० बंदर।
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नगाड़ा  : पुं० [अ० नक्कारः] डुगडुगी की तरह का चमड़ा मढ़ा हुआ एक प्रकार का बहुत बड़ा प्रसिद्ध बाजा जो कभी तो अकेला और कभी ठीक उसी तरह के दूसरे बाजे के साथ प्रायः चोब (लकड़ी का छोटा डंडा) का आघात करके बजाया जाता है। डंका। धौंसा।
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नगाधिप  : पुं० [सं० नग-अधिप,ष० त०] १.पर्वतराज। हिमालय। २.सुमेरु पर्वत।
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नगारा  : पुं० =नगाड़ा।
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नगारि  : पुं० [सं० नग-अरि,ष० त०] इन्द्र।
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नगावास  : पुं० [सं० नग-आवास,ब० स०] मोर।
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नगाश्रय  : वि० [सं० नग-आश्रय,.ब० स०] पहाड़ पर रहनेवाला। पुं० हस्तिकंद।
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नगी  : स्त्री० [सं०] १.पर्वतराज हिमालय की कन्या पार्वती। २.पहाड़ पर रहनेवाली स्त्री। स्त्री० [हिं० नग] छोटा नग या रत्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नगीच  : क्रि० वि० =नजदीक।
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नगीना  : पुं० [सं० नग से फा० नगीनः] १. बहुमूल्य पत्थर आदि का वह रंगीन चमकीला टुकड़ा जो शोभा के लिए गहनों में जड़ा जाता है। मणि। रत्न। पद-नगीना सा=बहुत छोटा और सुन्दर। अँगूठी का नगीना=किसी बड़ी चीज के साथ अथवा उसमें रहनेवाली कोई छोटी सुन्दर, बहुमूल्य और आदरणीय वस्तु (प्रायः व्यक्तियों के लिए भी प्रयुक्त)। २. पुरानी चाल का एक प्रकार का चारखानेदार कपड़ा।
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नगीनागर  : पुं० दे० ‘नगीनासाज’।
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नगीनासाज  : पुं० [फा०] [भाव० नगीनासाजी] आभूषणों आदि में नगीने जड़नेवाला कारीगर।
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नगेंद्र  : पुं० [सं० नग-इन्द्र,ष० त०] पर्वतराज, हिमालय।
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नगेश  : पुं० [सं० नग-ईश,ष० त०] =नगेंद्र।
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नगेशर  : पुं० १.=नागेश्वर। २.=नाग केसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नगोड़ा  : वि० =निगोड़ा।
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नगौक (स्)  : पुं० [सं० नग-ओकस्,ब० स०] १.पक्षी। चिड़िया। २.शेर। सिंह। ३.कौआ।
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नग्न  : वि० [सं०√नज् (लजाना)+क्त] [भाव० नग्नता] नगा (सभी अर्थों मे देखें) पुं० १.एक प्रकार के दिगम्बर जैन साधु जो कौपीन पहनते हैं। २. ऐसी साहित्यिक रचना जिसमें कोई अलंकार और चमत्कार न हो।
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नग्नक  : पुं० [सं० नग्न+कन्]=नग्न।
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नग्नकरण  : पुं० [सं० नग्न+च्वि√कृ+ल्युट्-अन,मुम्] किसी को नंगा करने की क्रिया या भाव।
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नग्न-क्षपणक  : पुं० [कर्म० स०] बौद्ध भिक्षुओं का एक भेद या संप्रदाय।
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नग्नजित्  : पुं० [सं०] १.वैदिककाल में गान्धार के एक राजा। २.पुराणानुसार कोशल के एक राजा जिसकी सत्या नाम की कन्या श्रीकृष्ण को ब्याही थी।
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नग्नता  : स्त्री० [सं० नग्न+तल्-टाप्०] १.नंगे होने की अवस्था या भाव। नंगापन। २.सब कुछ प्रकट कर देने की अवस्था या स्थिति।
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नग्नपर्ण  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन देश का नाम।
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नग्न-वाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धान्त या दृष्टिकोण जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्य को नीरोग रहने के लिए कुछ समय तक अवश्य नंगे रहना चाहिए। (न्यूडिज्म)
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नग्न-वादी (दिन्)  : पुं० [सं० नग्नवाद+इनि] जो नग्नवाद का अनुयायी या समर्थक हो। (न्यूडिस्ट)
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नग्नाट  : पुं० [सं० नग्न√अट् (गति)+अच्] ऐसा जीव या प्राणी जो सदा नंगा रहता हो।
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नग्निका  : स्त्री० [सं० नग्न+कन्-टाप्,इत्व] १. निर्लज्ज स्त्री। २. वह लड़की जो रजस्वला न हुई हो।
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नग्मा  : पुं० दे० ‘नगमा’।
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नग्र  : पुं० =नगर।
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नग्रोध  : पुं० [सं० न्यग्रोध] बरगद का पेड़। वट वृक्ष।
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नघना  : स०=लाँघना। अ०=लाँघना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नघाना  : स०=लघाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नचना  : अ०=नचाना। वि० [हिं०नाचना] [स्त्री० नचनी] १. नाचनेवाला। २. जो बराबर इधर-उधर घूमता रहे। (व्यंग्य) ३. बराबर हिलता-डुलता रहनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नचनि  : स्त्री० [हिं० नाचना] नाच। नृत्य।
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नचनिया  : पुं [हिं० नाचना] [स्त्री० नचनी] वह जो नाच दिखलाकर जीविका उपार्जित करता हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नचनी  : स्त्री० [हिं० नाचना] करघे की वह दोनों लकड़ियाँ जिनके नीचे राँछे बँधी रहती हैं। इन्हें चक भी कहते हैं। वि० हिं० ‘नचना’ का स्त्री।
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नचवैया  : पुं० [हिं० नाचना] १. वह जो नाचने की कला का पंडित हो,अथवा दूसरों को नाचना सिखाता हो। नर्तक। २. दूसरों को नचाने वाला अथवा नाचने में प्रवृत्त करनेवाला।
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नचाना  : स० [हिं० नाचना का प्रेर०] १. किसी को नाचने में प्रवृत्त करना। जैसे—बंदर या रीछ नचाना। २. किसी को इस प्रकार हिलाना-डुलाना कि वह नाचता हुआ-सा जान पड़े। जैसे—आँखें या आँखों की पुतलियाँ नचाना। ३. किसी को बार-बार कहीं भेजना, बुलाना या उठाना-बैठाना कि वह परेशान हो जायँ। जैसे—हमारे ये अतिथि महोदय नौकर को नचा मारते हैं। क्रि० प्र०—डालना।—मारना। ४.किसी को कार्य-रत होने या अच्छी तरह चलने में प्रवृत्त करना। उदाहरण-कपि उर अजिर नचावहिं बानी।—दीनदयालगिरि।
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नचार  : क्रि० वि०, वि० =लाचार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नचारी  : स्त्री०=लाचारी। स्त्री० [हिं० नाचना] मिथिला प्रदेश में गाये जानेवाले एक तरह के गीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नचिंत  : वि० =निश्चित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नचिकेता (तस्)  : पुं० [?] वाजश्रवा ऋषि का पुत्र जिसने मृत्यु ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था। विशेष—इसने अपने पिता से पूछा था कि मुझे किसको प्रदान करते हैं। पिता ने खिजलाकर कह दिया कि मैं तुम्हें मृत्यु को अर्पित करता हूँ। इस पर वह मृत्यु के पास चला गया और तीन दिन तक निराहार रहकर उससे उसने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था। २. अग्नि। आग।
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नचिर  : वि० [सं० सहसुपा स०] जो अधिक समय तक स्थिर न रहे। अस्थायी।
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नचीला  : वि० =नचौहाँ।
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नचौहाँ  : वि० [हिं० नाचना+औहाँ (प्रत्य०) [स्त्री० नचौहीं] १. जो प्रायः नाचता रहता हो। २. जो दूसरे के कहे अनुसार चलता हो। ३. अस्थिर।
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नछत्र  : पुं० =नक्षत्र।
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नछत्री  : वि० =नक्षत्री।
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नजदीक  : क्रि० वि० [फा०] वक्ता अथवा किसी विशिष्ट प्रदेश, बिन्दु स्थान आदि से थोड़ी ही दूरी पर। कम फासले पर। निकट। पास।
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नजदीकी  : वि० [फा० नज्दीक] १. निकट या पास का। जिसके साथ निकट या पास का संबंध हो। स्त्री० सामीप्य।
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नजर  : स्त्री० [अ० नज़र] १. दृष्टि। निगाह। मुहा०—नजर आना या पड़ना=दिखाई देना या पड़ना। दृष्टि गोचर होना। (किसी ओर या किसी पर) नजर करना, डालना या फेरना=किसी की ओर आँखें करते हुए देखना। नजर फेंकना=देखने के लिए दूर तक निगाह दौड़ाना या डालना। विशेष—‘नजर’ के शेष मुहा० के लिए दे० ‘आँख’ और ‘निगाह’ के मुहा०। २. अनुग्रह या कृपा से युक्त दृष्टि। मेहरबानी की निगाह। जैसे—इस लड़के पर भी कुछ नजर हो जाती तो अच्छा था। ३. किसी की देख-रेख करने या उसका हाल-चाल लेने के लिए उसकी ओर रखा जानेवाला सतर्कतापूर्ण ध्यान। जैसे—आज-कल उस पर भी पुलिस की नजर है। क्रि० प्र०—रखना। ४. ख्याल। ध्यान। विचार। जैसे—अभी इस बात पर मेरी नजर नहीं गई थी। ५. गुण, दोष भले-बुरे आदि की परख या पहचान। जैसे—इस चीज की नजर तो किसी जौहरी की हो ही सकती है। ६. देखने की वह कल्पित शक्ति जो अच्छे, दृष्ट अथवा सुंदर पदार्थों व्यक्तियों व्यवहारों आदि पर पड़ते ही उन पर अपना दूषित प्रभाव डालकर उन्हें खराब रोगी या विकृत करने में समर्थ मानी जाती है। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। विशेष—कहते हैं कि खाने-पीने की अच्छी चीजों पर यदि ऐसी नजर लग जाय तो या तो वे बिगड़ जाती हैं या खानेवाले को पचती नहीं। सुंदर बालकों को नजर लगने से वे बीमार हो जाते हैं और अच्छे कामों या बातों में नजर लगने पर वे बिगड़ जाती हैं। कहते हैं कि कुछ विशिष्ट व्यक्ति ऐसे होते हैं कि जिनकी नजर या निगाह में ऐसा दूषित प्रभाव डालने की विशेष शक्ति होती है। परंतु कुछ अवसरों पर साधारण व्यक्तियों की नजर में भी ऐसा कुप्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति आ जाती या आ सकती है। मुहा०—नजर उतारना या झाड़ना=जादू-मंतर या टोने-टोटके के द्वारा नजर का प्रभाव दूर करना। नजर खाना=नजर के बुरे प्रभाव में पड़कर उसका परिणाम भोगना। नजर जलाना=नजर का बुरा प्रभाव दूर करने के लिए टोटके के रूप में नमक,मिर्च राई आदि चीजें आग में डालना। स्त्री० [अ० नज्र] १. वह चीज जो किसी बड़े को प्रसन्न करने अथवा उसके प्रति आदर-सम्मान का भाव प्रकट करने के लिए उसे उपहार या भेंट के रूप में दी जाय। उपहार। भेंट। २. अधीनता,नम्रता श्रद्धा आदि प्रकट करने के लिए उक्त प्रकार से भेंट आदि देन की क्रिया या भाव। विशेष—पुराने राज-दरबारों में राजाओं आदि को अपनी हथेली पर रुपया, अशरफी तलवार आदि रखकर उनके आगे उपस्थित करने की प्रथा थी, जिसे कभी तो वे ले लेते थे और कभी केवल छूकर छोड़ देते थे। मुहा०—नजर-गुजारना या देना=उक्त प्रकार से हथेली पर कोई चीज रखकर किसी बड़े के सामने उपस्थित करना। पद—नजर-गुजर= नजर या इसी प्रकार की और कोई बात। जिसके संबंध में लोगों का यह विश्वास हो कि इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।
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नजरना  : अ० [हिं० नजर+ना (प्रत्य०) दृष्टिपात करना। देखना। स० १. नजर अर्थात् भेंट के रूप में कोई पदार्थ किसी को देना। २. बुरा प्रभाव उत्पन्न करनेवाली दृष्टि से देखना। नजर लगाना।
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नजरबंद  : वि० [अ० नजर+फा० बंद] [भाव० नजरबंदी] किसी को इस प्रकार बंदी के रूप में कहीं रखना कि उसकी चेष्टाओं पर नजर रखी जा सके। विशेष—ऐसी अवस्था में न तो नजरबंद व्यक्ति को घर या किसी नियत स्थान से बाहर जाने दिया जाता है और न लोगों को उससे स्वतंत्रतापूर्वक मिलने-जुलने दिया जाता है। पुं० जादू या इन्द्रजाल का ऐसा खेल जिसके विषय में लोगो का यह विश्वास है कि वह लोगों की दृष्टि में ऐसा भ्रम उत्पन्न कर देता है कि उन्हें कुछ का कुछ दिखाई देने लगता है।
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नज़रबंदी  : स्त्री० [अ० नजर+फा० बंदी] १. नजरबंद होने की अवस्था या भाव। २. किसी को नजरबंद करने का आदेश। ३. इंद्रजाल आदि के द्वारा लोगों की दृष्टि में भ्रम उत्पन्न करने की क्रिया या भाव।
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नज़रबाग  : पुं० [अ०] प्रासाद या महल के आगे या चारों ओर का बाग।
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नजरबाज  : वि० [अ० नजर+फा० बाज (प्रत्य०) [भाव० नजरबाजी] १. श्रृंगारिक क्षेत्र में अनुराग प्रकट करने तथा अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए आँखें लड़ानेवाला। २. ताँक-झाँक करनेवाला। ३. पारखी।
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नजरबाजी  : स्त्री० [अ० नज़र+फा० बाज़ी] १. आँखे लड़ाने का व्यापार। २. ताकना-झांकना। ३. परख।
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नजर-सानी  : स्त्री० [अ० नज़रेसानी] १. कोई किया हुआ काम इस दृष्टि से दोबारा देखा जाना कि उसमें कहीं कोई त्रुटि या दोष तो नहीं रह गई है। २. विधिक क्षेत्र में किसी मुकदमे का उसी अदालत में होनेवाला पुनर्विचार। (रिवीजन)
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नजरहाया  : वि० [हिं० नजर+हाया (प्रत्य०) १. जिसकी कुदृष्टि से दुष्परिणाम होता हो। २. जिसे किसी की बुरी नजर लग गई हो। जो नजर के प्रभाव से पीड़ित हुआ हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नजरा  : वि० [अ० नज़र] जिसमें अच्छाई,बुराई गुण-दोष आदि पहचानने की शक्ति हो। पारखी। पुं० [देश०] एक तरह का देशी आम जो आकार-प्रकार में बम्बई के आम जैसा परन्तु स्वाद में उससे घटकर होता है।
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नजरानना  : अ० [अ० नज़र] नजर करना। भेंट स्वरूप देना। अ०=नजराना।
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नजराना  : अ० [अ० नज़र] किसी की कुदृष्टि लगना जिसके फलस्वरूप कोई क्षति या हानि होती है। स० १. नजर करना। भेंट स्वरूप देना। २. नजर लगाना। पुं० १. वह चीज जो किसी की नजर की जाय अर्थात् भेंट-स्वरूप दी जाय। २. आज-कल वह धन जो कोई सुभीता प्राप्त करने के लिए उसे उचित के अतिरिक्त और काम होने से पहले दिया जाय। पगड़ी। जैसे—यह दुकान पर लेने के लिए दस हजार नजराना देना पड़ा।
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नजरि  : स्त्री०=नजर।
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नजला  : पुं० [अ० नज़्लः] यूनानी हिकमत के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें गरमी के कारण सिर का विकारयुक्त पानी ढलकर भिन्न-भिन्न अंगों की ओर प्रवृत्त होता और जिस अंग की ओर ढलता है उसे खराब कर देता है। जैसे—अगर बालों पर नजला गिरे तो वे समय से बहुत पहले सफेद हो जाते हैं। और अगर आँखों पर गिरे तो दृष्टि मन्द पड़ जाती है। क्रि० प्र०—उतरना।—गिरना। मुहा०—(किसी पर किसी का) नजला गिरना=किसीके क्रोध, भर्त्सना आदि का पात्र होना। २. जुकाम या प्रतिश्याय नामक रोग। सरदी।
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नजलाबंद  : पुं० [अ० नज़्लः+फा० बंद] अफीम और चूने आदि का वह फाहा जो नजले को गिरने से रोकने के लिए कनपटी पर लगाया जाता है।
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नजाकत  : स्त्री० [अ० नज़ाकत] १. शारीरिक कोमलता या सुकुमारता। २. सुकुमार अंगों की कोई मृदु चेष्टा।
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नजात  : स्त्री० [अ०] १. दृढ़ बंधनों कठोर यातनाओं या कठिन दायित्वों से होनेवाली मुक्ति। २. ऐसी स्थिति जिसमें कोई अपने को हर प्रकार के कष्टों, झंझटों आदि से अलग या दूर समझे। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।
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नज़ामत  : स्त्री० [अ० निज़ामत] १. शासन संबंधी प्रबंध या व्यवस्था। २. नाजिम का कार्य पद या भाव। ३. नाजिम का कार्यालय या विभाग।
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नजारत  : स्त्री० [अ० नज़ारत] १. नाजिर अर्थात् दर्शक या निरीक्षक होने की अवस्था,पद या भाव। २.नाजिर का कार्यालय या विभाग।
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नजारा  : पुं० [अ० नज्जारः] १. वह जो दिखाई दे। २. अद्भुत और सुन्दर दृश्य। ३. दृष्टि। नजर। ४. किसी (पराये पुरुष या स्त्री) को बार-बार दूर से अनुरागपूर्ण दृष्टि से अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए देखने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—मारना।—लड़ना।—लड़ाना। ५.तमाशा।
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नजारेबाज  : वि० [अ० फा० नज़्ज़ारः बाज] जो पर पुरुष या पर-स्त्री से आँखें लड़ाता हो।
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नजारेबाजी  : स्त्री० [अ० फा० नज़्ज़ारः बाजी] स्त्री या पुरुष का पराये पुरुष या स्त्री को लालसा या प्रेम की दृष्टि से बार-बार देखना। आँखें लड़ाना।
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नजासत  : स्त्री० [अ०] १. नजिस होने की अवस्था या भाव। २. गंदगी। मैलापन। ३. अपवित्रता।
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नजिकाना  : स० [हिं० नजीक=नजदीक] नजदीक अर्थात् निकट या पास पहुँचना। स० नज़दीक अर्थात् निकट या पास पहुँचाना।
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नजिस  : वि० [अ०] १. अपवित्र। अशुद्ध। २. गंदा। मैला।
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नजीक  : क्रि० वि०=नजदीक (निकट या पास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नजीब  : वि० [अ०] श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न। कुलीन। पुं० सिपाही। सैनिक।
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नजीर  : स्त्री० [अ० न जीर] १. उदाहरण। दृष्टांत। मिसाल। २. विधिक क्षेत्र में, किसी पुराने मुकदमे के संबंध में किसी उच्च न्यायालय का वह निर्णय जो अपना पक्ष पुष्ट करने के उद्देश्य से न्यायालय के सम्मुख उपस्थित किया जाय। क्रि० प्र०—दिखलाना।—देना। ३. कोई बारीक काम करने के समय देर तक उसकी ओर लगी रहनेवाली दृष्टि जो आँखों को जल्दी थका देती है। क्रि० प्र०—लगाना।
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नजूमी  : पुं० [अ० नुजूम] ज्योतिष। विद्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नजूमी  : पुं० [अ० नुजूमी] ज्योतिषी।
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नजूल  : पुं० [अ० नुज़ूल] १. ऊपर से नीचे आने, उतरने या गिरने की क्रिया या भाव। अवतरण। २. सामने आकर उपस्थित होना। उपस्थिति। ३. वह भूमि जिसका कोई स्वामी न रह गया हो। और इसी लिए जो नगर-पालिका या सरकार के हाथ में आ गई हो। ४. नजला नामक रोग। ५. उक्त रोग के फलस्वरूप होनेवाला मोतियाबिंद।
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नज्म  : पुं० [अ०] आकाश का तारा या नक्षत्र। स्त्री० [अ० नज्म] १. कविता। २. पद्य।
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नट  : पुं० [सं०√नट् (नृत्य)+अच्०] [स्त्री० नटी] १. अभिनय में वह व्यक्ति जो किसी का रूप धारण करके उसकी चेष्टाओं का अभिनय करता हो। २. सूत्रधार। ३. मनु के अनुसार क्षत्रियों की एक जाति जिसकी उत्पत्ति ब्रात्य क्षत्रियों से कही गई है। ४. पुराणानुसार एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति मालाकार पिता और शूद्रा माता से कही गई है। ५. प्राचीन भारत की एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति शौचिकी स्त्री और शांडिक पुरुष से कही गई है और जिसका पेशा गाना-बजाना था। ६. [स्त्री० नटिन्, नटिनी] एक आधुनिक जाति जो गाने-बजाने और तरह-तरह के शारीरिक कौशल और बाजीगरी के खेल दिखाने का पेशा करती है। ७. एक नाग जिसे गौतम बुद्ध ने बौद्धधर्म की दीक्षा दी थी। ८. संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं तथा जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है। ९. अशोक वृक्ष। १॰. श्योनाक वृक्ष। सोनापाढ़ा।
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नटई  : स्त्री० [?] १. गला। गरदन। २. गले के अंदर की श्वासनली। ३. गले के अंदर की घंटी। कौआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नटक  : पुं० [सं० नट+कन्] नट।
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नटका  : पुं० [सं० नट] [स्त्री० नटकी] नट जाति का पुरुष (तुच्छतासूचक) उदा०—मोती मानिक परत न पहरूँ मैं कब की नटकी।—मीराँ।
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नट-कुंडल  : पुं० [सं० नट+कुंडल] [स्त्री० अल्पा० नट-कुंडली] बेंत, धातु आदि का वह गोल चक्कर जिसमें से होकर नट एक ओर से दूसरी ओर जाते हैं।
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नट-खट  : वि० [हिं० नट+खट (अनु०)] [भाव० नट-खटी] १. जो स्वभावतः या जान-बूझकर कुछ न कुछ शरारत करता रहता हो। २. जो दूसरों को तंग करने की नियत से कुछ ऊल-जलूल काम करता हो।
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नट-खटी  : स्त्री० [हिं० नट-खट] १. नटखट होने की अवस्था या भाव। २. बदमाशी शरारत। पाजीपन।
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नट-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] अभिनय।
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नटता  : स्त्री० [सं० नट+तल्—टाप्०] १. नट होने की अवस्था या भाव। २. नट का काम।
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नटन  : पुं० [सं०√नट्+ल्युट्—अन] १. नाचना। २. अभिनय करना।
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नटना  : अ० [सं० नटन] १. नाट्य करना। अभिनय करना। २. कही हुई बात या की हुई प्रतिज्ञा निभाने से पीछे हटना या आना-कानी करना। प्रतिज्ञा, वचन आदि से मुकरना। अ० [सं० नर्तन] नृत्य करना। नाचना। अ० [सं० नष्ट] नष्ट या बरबाद होना। स० नष्ट या बरबाद करना। पुं० १. बाँस की बनी छलनी जिससे रस छाना जाता है। २. मछली पकड़ने का वह झाबा या टोकरा जिसका पेंदा कटा हुआ होता है। टाप।
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नट-नागर  : पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
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नट-नारायण  : पुं० [ष० त०] संगीत में, एक प्रकार का राग जो हनुमत् के मत से मेघराग का तीसरा पुत्र और भरत के मत से दीपक राग का पुत्र है।
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नटनि  : स्त्री० [सं० नटन] १. नृत्य। नाच। २. अपनी प्रतिज्ञा या बात में नटने अर्थात् पीछे हटने की क्रिया या भाव। मुकरना। स्त्री० [हिं० नट] नट जाति की स्त्री। नटिन।
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नटनी  : स्त्री० [हिं० नट] १. अभिनेत्री। २. नट जाति की स्त्री।
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नट-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्—टाप्, इत्व] बैंगन। भाँटा।
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नट बंदिनी  : स्त्री० दे० ‘नटनी’।
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नट-भूषण  : पुं० [ब० स०] हरताल।
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नट-मंडक  : पुं०=नटमंडन।
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नट-मंडन  : पुं० [ष० त०] हरताल।
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नटमल  : पुं० [सं०] एक प्रकार का राग।
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नट-मल्लार  : पुं० [सं०] नट और मल्लार के योग से बना हुआ संपूर्ण जाति का एक संकर राग जिसमे सब स्वर शुद्ध लगते हैं।
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नट-राज  : पुं० [ष० त०] १. नटों में प्रधान या श्रेष्ठ नट। कुश्ल और निपुण नट। २. शिव। महादेव। ३. शिव की एक विशिष्ट प्रकार की मूर्ति या रूप जिसमें वे तांडव नृत्य करते हुए दिखाई देते हैं। ४. श्रीकृष्ण।
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नटवना  : अ० [हिं० नट] १. नाचना। २. अभिनय करना। स० १. नचाना। २. अभिनय कराना।
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नट-वर  : पुं० [सं० त०] १. नाट्य कला में बहुत कुशल और प्रवीण व्यक्ति। २. श्रीकृष्ण का एक नाम। वि० बहुत अधिक चतुर या चालाक।
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नटवा  : पुं० [हिं० नाटा] छोटे कद या कम उमर का बैल। पुं० [हिं० न०] एक प्रकार का गीत जिसे नट जाति के लोग ढोलक आदि के साथ नाचते हुए गाते हैं। वि०=नाटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=नट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नटवा सरसों  : पुं० [हिं० नाटा+सरसों] साधारण सरसों।
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नट-संज्ञक  : पुं० [ब० स०, कप्] १. गोदंती। हरताल। २. नट।
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नटसार  : स्त्री०=नाट्य शाला।
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नटसाल  : स्त्री० [हि० नट+सालना] १. काँटे का वह अंश जो धँसने पर टूटकर शरीर के अंदर रह जाता है और सालता या कसकता रहता है। २. तीर या बाण की गाँसी का वह अंश जो शरीर के अंदर टूटकर रह गया हो। ३. ऐसी मानसिक पीड़ा या व्यथा जो अन्दर ही रह-रहकर बहुत दुःखी करती हो। कसक।
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नटांतिका  : स्त्री० [नट-अंतिका, ष० त०] १. लज्जा। शरम। २. नम्रता। विनय।
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नटाई  : स्त्री० [हिं० नट] जुलाहों का एक उपकरण जिससे वे किनारे का ताना तानते हैं।
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नटि  : स्त्री० [हिं० नटना] नटने की क्रिया या भाव। नटनि। स्त्री०=नटी।
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नटित  : पुं० [सं०√नट्+क्त] अभिनय।
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नटिन  : स्त्री० [हिं० नट] नट जाति की स्त्री।
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नटी  : स्त्री० [सं० नट+ङीष्] १. नाटक में अभिनेत्री। २. सूत्रधार की स्त्री। ३. नर्तकी। ४. नट जाति की स्त्री। ५. रंडी। वेश्या। ६. नखी नामक गन्ध द्रव्य।
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नटुआ  : पुं० १.=नट। २.=नटई (गला)।
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नटेश  : पुं० [नट-ईस, ष० त०] १. नटो में सर्वश्रेष्ठ। २. महादेव। शिव।
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नटेश्वर  : पुं० [नट-ईश्वर, ष० त०]=नटेश।
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नटैया  : स्त्री०=नटई (गरदन या गला)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नटट्  : पुं०=नट।
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नठना  : अ० [सं० नष्ट] नष्ट होना। स० नष्ट करना। अ० [?] भागना। (पश्चिम) २. किसी बात या व्यक्ति से घबराना या दूर भागना।
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नड  : पुं० [सं०√नल् (महँकना)+अच्, ल की ड] १. एक गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि का नाम। २. नरकट। नरसल। ३. एक आधुनिक जाति जो चूड़ियाँ आदि बनाने का पेशा करती है। पुं०=नद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नडक  : पुं० [सं०नड+कन्] १. हड्डी के अंदर के छेद। २. कंधों के बीच की हड्डी।
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नड-मीन  : पुं० [मध्य० स०] झींगा नाम की मछली।
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नडिनी  : स्त्री० [सं० नड+इनि—ङीष्] ऐसी नदी जिसमें रसपत (घास) बहुत अधिक उगी हुई हो।
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नडी  : स्त्री० [सं० नड़] नरकट के छोटे-छोटे टुकड़ों में मसाला भरकर बनाई जानेवाली आतिशबाजी जो आग लगाकर छोड़ने पर हवा में उड़ती है।
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नड्वल  : पुं० [सं० नड+ड्वलच्] १. सरपत की बनी हुई चटाई। २. ऐसा प्रदेश जहाँ सरपत अधिकता से होता है। ३. एक वैदिक देवता का नाम। स्त्री० राणानुसार वैराज मनु के पत्नी का नाम।
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नड्वला  : स्त्री० [सं०] १. वैराजु मनु की पत्नी। २. नरकट का ढेर।
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नढ़ना  : स० [हिं० नाधना का स्था० रूप] १. गूँथना। पिरोना। २. कसकर बाँधना।
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नत  : वि० [सं०√नम् (झुकना)+क्त] [भाव० नति] १. झुका हुआ। २. जो किसी के सामने नम्र होकर झुक गया हो। ३. नम्र। विनीत। ४. कुटिल। टेढ़ा। पुं० १. तगर-मूल। २. गणित ज्योतिष में मध्यंदिन रेखा से किसी ग्रह की दूरी। अव्य०=नतु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नतइत  : पुं०=नतैत।
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नतकुर  : पुं० दे० ‘नाती’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नत-गुल्ला  : पुं० [?] घोंघा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नत-नाड़ी  : स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष में, मध्याह्न और मध्यरात्रि के बीच का जन्म-काल।
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नतनी  : स्त्री० [हिं० नाती का स्त्री०] बेटी की बेटी।
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नतपाल  : पुं० [सं० नत√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] वह जो अपने सामने आकर नत या विनीत होनेवाले अर्थात् शरण में आये हुए व्यक्ति का पालन या रक्षा करे।
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नतम  : वि० [सं० नत] टेढ़ा। बाँका।
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नत-मस्तक  : वि० [ब० स०] जिसने किसी के आगे सिर झुका दिया हो। नम्र या विनीत होनेवाला।
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नतमी  : स्त्री० [?] एक तरह का वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत चिकनी होती है।
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नतर  : क्रि० वि०=नतरु।
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नतरक  : क्रि० वि०=नतरु।
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नतरकु  : क्रि० वि०=नतरू। उदा०—नतरकु इन विय लगत कत उपजत विरह-कृसानु।—बिहारी
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नतरु  : क्रि० वि० [सं० न+तु] नहीं तो। अन्यथा। उदा०—नतरु लखन सिय राम वियोगा।—तुलसी।
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नतांग  : वि०[नत-अंग, ब० स०] जिसका बदन झुका हुआ हो।
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नतांगी  : स्त्री० [सं० नतांग+ङीष्] स्त्री। औरत।
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नतांश  : पुं० [नत-अंश] ग्रहों आदि की स्थिति निश्चित करने में काम आनेवाला एक प्रकार का वृत्त जिसका केन्द्र भूकेंद्र पर होता है और जो विषुवत् रेखा पर लंब होता है।
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नताउल  : पुं० [?] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी मुलायम तथा चिकनी होती है। २. उक्त पेड़ की राल जो विषैली होती है और इसीलिए जिसे तीरों के फलों पर लगाया जाता था।
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नति  : स्त्री० [सं०√नम्र+क्तिन्] १. नत होने अर्थात् झुकने की क्रिया या भाव। २. झुके हुए होने की अवस्था या भाव। ३. किसी ओर होनेवाली मन की प्रवृत्ति। (इन्क्लिनेशन) ४. ढालुएँ होने की अवस्था या भाव। उतार। ढाल। ५. नमस्कार। प्रणाम। ६. नम्रता। विनयशीलता। ७. ज्योतिष मे एक विशिष्ट प्रकार की गणना।
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नतीजा  : पुं० [अ० नजीतः] १. परिणाम। फल। क्रि० प्र०—निकलना।—पाना।—मिलना। २. परीक्षाफल। ३. जाँच का फल। ४. अंत। आखीर।
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नतु  : क्रि० वि० [सं० न-तु, द्व० स०] नहीं तो। अन्यथा।
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नतैत  : पुं० [हिं० नाता+ऐत (प्रत्य०)] वह जिसके साथ कोई नाता (अर्थात् रिश्ता या पारिवारिक संबंध) हो। नातेदार। रिश्तेदार। संबंधी।
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नतोदर  : वि० [सं० नत-उदर] जिसका ऊपरी भाग या तल कुछ नीचे या अंदर की ओर हो। अवतल। (कॉनकेव)
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नत्थ  : स्त्री०=नथ।
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नत्थी  : स्त्री० [हिं० नाथना] १. नाथने की क्रिया या भाव। २. छोटे मोटे बहुत से कागजों आदि को एक साथ (आलपीन, डोरे आदि) नाथने की क्रिया। ३. उक्त प्रकार से नाथकर एक साथ किये हुए कागज आदि।
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नत्यूह  : पुं० [सं०] कठफोड़वा।
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नत्वर्थक  : वि० [सं० नतु-अर्थ ब० स०, कप्] १. जिसमें किसी वस्तु या बात का अस्तित्व न माना गया हो। २. जिसमें कोई प्रस्ताव या सुझाव न मान्य किया गया हो। नकारात्मक। नहिक। (नेगेटिव)
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नथ  : स्त्री० [हिं० नाथना] १. सोने के तार आदि का बना हुआ एक प्रकार का गोलाकार गहना स्त्रियाँ नाँक में पहनती हैं। इसमें प्रायः गूँज के साथ चंदक, बुलाक या मोतियों की जोड़ी पहनाई रहती है। इसकी गिनती हिन्दुओं में सौभाग्य-चिह्रों में होती है। २. तलवार की मूठ पर लगा हुआ धातु का छल्ला। ३. दे० ‘नथनी।
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नथना  : पुं० [सं० नस्त+हिं० ना (प्रत्य०)] नाक का अगला भाग जिसमें दोनों ओर दो छेद होते हैं। मुहा०—(किसी से) नथना फुलाना=आकृति से असंतोष, रोष आदि के लक्षण प्रकट करना। अ० [हिं० नाथना का अ० ] १. नाथा जाना। २. नत्थी होना। ३. किसी के साथ जोडा़, बाँधा या लगाया जाना। ४. छेदा या भेदा जाना। छिदना। भिदना। जैसे—पैर में काँटा नथना।
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नथनी  : स्त्री० [हिं० नथ] १. नाक में पहनने की छोटी नथ। मुहा०—नथनी उतरना=वेश्याओं की परिभाषा में वेश्या बननेवाली लडकी का पहले-पहल किसी वेश्यागामी से संम्पर्क या संबंध होना। नथनी उतारना=वेश्या बननेवाली स्त्री के साथ पहले-पहल संभोग करना। २. बुलाक। बेसर। ३. नथ के आकार का वह छल्ला जो तलवार की मूठ पर लगा रहता है। ४. नथ के आकार की कोई गोलाकार छोटी चीज। ५. वह रस्सी जिससे बैल नाथे जाते हैं। नाथ।
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नथि  : स्त्री०=नथ।
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नथिया  : स्त्री०=नथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नथी  : अव्य०=नहीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नथुना  : पुं० [स्त्री० नथुनी]=नथना।
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नत्थ  : स्त्री०=नथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=अनर्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नद  : पुं० [सं०√नद् (शब्द करना)+अच्] १. बहुत बड़ी नदी जिसका नाम प्रायः पुं० होता है। जैसे—दामोदर, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सोन आदि। २. एक प्राचीन ऋषि। पुं०=नाद।
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नदन  : पुं० [सं०√नद्+ल्युट्—अन] १. नाद या शब्द करना अथवा होना। २. नाद। शब्द।
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नदना  : अ० [सं० नाद] १. नाद अर्थात् आवाज या शब्द होना। २. बाजों आदि का बजना। ३. पशुओं आदि का नाद या शब्द करना। बोलना। ४. गरजना।
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नदनु  : वि० [सं०√नद्+अनुङ्] १. नाद या जोर का शब्द करने अर्थात् गरजनेवाला। पुं० १. नाद। शब्द। २. शेर। सिहं। ३. बादल। मेघ।
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नदम  : स्त्री० [?] कपास की एक किस्म।
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नदर  : पुं० [सं० नद+र] नद या नदी का निकटवर्ती प्रदेश। वि०=निडर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नद-राज  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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नदान  : वि०=नादान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नदारत  : वि०=नदारद।
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नदारद  : वि० [फा० न+दारद=नदारद] १. जो न रह गया हो। २. गायब। लुप्त। ३. खाली।
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नदि  : स्त्री० [सं०√नद्+इ] स्तुति। स्त्री०=नदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नदिया  : पुं० [सं० नवद्वीप] बंगाल का एक प्रसिद्ध नगर जो न्यायशास्त्र का विद्यापीठ माना जाता है। स्त्री०=नदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नदी  : स्त्री० [सं० नद+ङीष्] १. जल का वह लंबा प्राकृतिक प्रवाह जो चौड़ाई में नाले, नहर आदि से अधिक बड़ा होता है और दूर तक चला जाता है। पद—नदी नाव संयोग=संयोगवश होनेवाली मुलाकात। २. वह भूमि जिसमें उक्त जल प्रवाहित होता है। ३. किसी तरल पदार्थ का बहाव। जैसे—रक्त की नदी। ४. रहस्य संप्रदाय में, आराधन के समय ध्यान और जप के समय नाम का होनेवाला प्रवाह।
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नदी-कदंब  : पुं० [ब० स०] बड़ी गोरखमुंडी।
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नदी-कांत  : पुं० [ष० त०] १. समुद्र। २. [ब० स०] समुद्र-फल। ३. सिंदुवार नामक वृक्ष।
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नदी-कांता  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] १. जामुन का पेड़। २. काक-जंघा।
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नदीकृकंठ  : पुं० [सं० ?] नैपाल का एक तीर्थस्थल। (बौद्ध)
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नदी-गर्भ  : पुं० [ष० त०] नदी के दोनों किनारों के बीच का अवकाश।
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नदी-गूलर  : पुं० [?] लिसोड़ा।
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नदीज  : वि० [सं० नदी√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो नदी से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. समुद्र-फल। २. अर्जुन वृक्ष। ३. सेंधा नमक। ४. सुरमा। ५. महाभारत के अनुसार गंगा के गर्भ से उत्पन्न एक राजा।
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नदीजा  : स्त्री० [सं० नदीज+टाप्] अरणी का वृक्ष।
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नदी-जामुन  : स्त्री० [सं०+हिं०] छोटा जामुन।
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नदी-तर  : पुं० [सं० नदी√तृ (तैरना)+अच्] १. वह स्थान जहाँ से नदी पार की जाय। २. घाट।
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नदी-तल  : पुं० [ष० त०] पृथ्वी का वह गहरा भाग जिस पर होकर नदी बहती है। (बेसिन)
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नदी-दत्त  : पुं० [सं०] बुद्धदेव का एक नाम।
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नदी-दुर्ग  : पुं० [मध्य० स०] नदी के बीच में या द्वीप में बना हुआ दुर्ग। (कौ०)
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नदी-दोह  : पुं० [मध्य० स०] वह कर या महसूल जो नदी पार करने के समय देना पड़ता है।
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नदी-धर  : पुं० [ष० त०] गंगा नदी को मस्तक पर धारण करनेवाले, शिव। महादेव।
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नदीन  : पुं० [नदी-ईन० ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण देवता। ३. वरुण या बन्ना नामक जंगली वृक्ष जो प्रायः पलाश की तरह का होता है।
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नदी-निष्पाव  : पुं० [मध्य० स०] बोरो नाम का धान जिसका चावल कड़वा होता है।
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नदी-पति  : पुं० [ष० त०] १. समुद्र। २. वरुण।
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नदीपत्र  : पुं०=नदीतल।
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नदी-भल्लातक  : पुं० [मध्य० स०] भिलावें की जाति का एक वृक्ष और उसका फल।
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नदीभव  : वि० [सं० नदी√पू (होना)+अच्०] जो नदी में उत्पन्न हुआ हो। पुं० सेंधा नमक।
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नदी-मातृक  : वि० [ब० स०, कप्] ऐसा प्रदेश जिसमें नदियों के जल से खेतों कि सिंचाई होती हो। ‘देवमातृक’ से भिन्न।
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नदीमाषक  : पुं० [सं०] मानदंड या मानकच्चू नामक कंद।
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नदी-मुख  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ नदी समुद्र में गिरे। नदी का मुँहाना।
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नदी-वट  : पुं० [मध्य० स०] वट वृक्ष।
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नदीश  : पुं० [नदी-ईश, ष० त०] समुद्र।
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नदीश-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] लक्ष्मी।
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नदीश्वर  : पुं० [नदी-ईश्वर, ष० त०]=नदीश।
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नदीसर  : पुं०=नदीश्वर (समुद्र)।
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नदी-सर्ज  : पुं० [ष० त०] अर्जुन वृक्ष।
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नदेया  : स्त्री० [सं० नदी+ढक्—एय, ङीष्] छोटा जामुन।
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नदेयी  : स्त्री० [सं० नदी+ढक्—एय, ङीष्] छोटा जामुन।
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नदोला  : पुं० [हिं० नाँद] मिट्टी की छोटी नाँद।
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नद्द  : पुं० १.=नदी। २.=नाद।
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नद्दी  : स्त्री०=नदी।
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नद्ध  : वि० [सं०√नह (बंधन)+क्त] १. नथा या नाथा हुआ। १. बँधा या बाँधा हुआ।
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नद्धना  : अ०=नदना।
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नद्धी  : स्त्री० [हिं० नांधना] १.चमड़े की डोरी। ताँत। २. दे० ‘नत्थी’।
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नद्य  : वि० [सं० नदी+यत्] नदी-संबंधी। नदी का।
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नद्याम्र  : पुं० [नदी-आम्र, ष० त०] एक तरह का पौधा। कोकुआ। समष्ठिला।
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नद्यावर्त्तक  : पुं० [नदी-आवर्त्तक, ष० त०] एक योग जो यात्रा के लिए शुभ माना जाता है। (फलित ज्यो०)
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नद्युत्सृष्ट  : पुं० [नदी-उत्सृष्ट, तृ० त०] गंग बरार (दे०)
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नधना  : अ० [हिं० नथना] १. नाथा जाना। २. नाक में रस्सी डाल कर बाँधा जाना। जैसे—बैल नथना। ३. किसी के साथ जबरदस्ती जोड़ा बाँधा या लगाया जाना। ४. तत्परतापूर्वक किसी काम में लगना या लगाया जाना। ५. किसी कार्य का अनुष्ठित या आरब्ध होना। काम का ठनना। जैसे—जब वह काम नथ गया है तब उसे पूरा ही कर डालना चाहिए।
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नधाव  : पुं० [हिं० नधना] नाधे जाने की क्रिया या भाव। पुं० [?] वह गड्ढा जिसमें से पानी उलीचकर सिंचाई के लिए ऊँचाई पर स्थित गड्ढे में फेंका जाता है।
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ननंद  : स्त्री०=ननद।
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ननंदा  : स्त्री० [सं० न√नन्द (संतुष्ट होना)+ऋन्] ननद।
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ननका  : वि० [हिं० नन्हा] [स्त्री० ननकी] अवस्था, आकार आदि में सबसे छोटा या बहुत छोटा। जैसे—ननका बबुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ननकारना  : अ०=नकारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ननकिरवा  : वि० =ननका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० छोटा लड़का।
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ननद  : स्त्री० [सं० ननंदा] किसी विवाहिता स्त्री के संबंध के विचार से उसके पति की बहन। पद—ननद के बीर या भैया= (क) पति। (ख) रहस्य संप्रदाय में, परमात्मा।
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ननदी  : स्त्री०=ननद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ननदोई  : पुं० [हिं० ननद+ओई (प्रत्य०)] विवाहिता स्त्री के संबंध के विचार से वह व्यक्ति जिससे उसके पति की बहन ब्याही हुई हो। ननद का पति।
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ननसार  : स्त्री०=ननिहाल। (नाना का घर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नना  : स्त्री० [सं० न√नम् (झुकना)+ड—टाप्] १. माता। २. पुत्री। बेटी। ३. कन्या। लड़की।
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ननिअउरा (आउर)  : पुं०=ननिहाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ननिया  : वि० [हिं० नाना] संबंध के विचार से नाना या नानी के स्थान पर पड़नेवाला। जैसे—ननिया ससुर, ननिया सास।
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ननिया ससुर  : पुं० [हिं०] [स्त्री० ननिया सास] १. पति की दृष्टि में, उसकी पत्नी का नाना। २. स्त्री की दृष्टि में, उसके पति का नाना।
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ननिया सास  : स्त्री० [हिं०] १. पति की दृष्टि में, उसकी पत्नी की नानी। २. स्त्री की दृष्टि में, उसके पति की नानी।
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ननिहारी  : स्त्री० [हिं० नन्हा] पुरानी चाल की एक प्रकार की छोटी ईंट।
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ननिहाल  : पुं० [हिं० नाना+सं० आलय] १. नाना का घर या घराना। ननसार। २. वह गाँव, नगर या प्रदेश जिसमें किसी के नाना का घर या मूल-निवास स्थान हो।
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ननु  : अव्य० [सं० न√नुद् (प्रेरणा)+डु] एक अव्यय जिसका व्यवहार कुछ पूछने, कोई संदेह प्रकट करने अथवा वाक्य के आरंभ में यों ही किया जाता है। (क्व०)
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ननु-नच  : पुं० [द्व० स०] किसी बात में की जानेवाली छोटी-मोटी आपत्ति।
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ननोई  : स्त्री०=तिन्नी (धान और उसका चावल)।
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नन्ना  : वि० =नन्हा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=नाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नन्यौरा  : पुं०=ननिअउरा (ननिहाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नन्हा  : वि० [प्रा० लाण्हा] [स्त्री० नन्ही] १. अवस्था, आकार आदि में बहुत या सब से छोटा। जैसे—नन्हा बच्चा, नन्हें महाराज। २. पतला। महीन। मुहा०—नन्हा कातना= (क) महीन सूत कातना। (ख) बहुत ही बारीक या कठिन काम करना। पद—नन्हा मुन्ना=बहुत छोटा बच्चा।
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नन्हाई  : स्त्री० [हिं० नन्हा+ई (प्रत्य०)]१. ‘नन्हा’ अर्थात् ‘छोटा’ होने की अवस्था या भाव। नन्हापन। २. तुच्छ या हीन होने की अवस्था या भाव। अप्रतिष्ठा। हेठी।
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नन्हिया  : स्त्री०=तिन्नी (धान और उसका चावल)।
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नन्हैया  : वि०=नन्हा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नपत  : स्त्री० [हिं० नापना] नापे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव। नपाई।
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नपता  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसके डैनों पर काली या लाल चित्तियाँ होती हैं। पुं० [सं० नप्तृ] लड़की का लड़का। नाती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नपना  : अ० [हिं० ‘नापना’ का अ०] नापा जाना। पद—नपा-तुला। (दे०) पुं० वह पात्र जिसमें डाल कर कोई चीज विशेषतः कोई तरल पदार्थ नापा जाय। जैसे—दूध या तेल का नपना।
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नपरका  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी जिसकी गरदन तथा पेट लाल रंग का और पैर तथा चोंच पीले रंग की होती है।
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न-पराजित  : पुं० [सं० सहसुपा स०] शंकर। शिव।
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नपाई  : स्त्री० [हिं० नाप+अई (प्रत्य०)] १. नापने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २.=नाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नपाक  : वि०=नापाक (अपवित्र)।
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नपात्  : पुं० [सं० न√पा (रक्षा)+शत्] देवयान।
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नपुंसक  : वि० [सं० न स्त्री० न पुमान्, नि० नपुंसक आदेश] [भाव० नपुंसकता] १. वह (व्यक्ति) जिसमें काम-वासना या स्त्री-संभोग की शक्ति बिलकुल न हो अथवा बहुत ही कम हो। क्लीव। विशेष—वैद्यक में, नपुंसक पाँच प्रकार के माने जाते हैं।—आसेव्य, सुगंधी, कुंभीक, ईर्ष्यक और षंड। २. कायर। पुं० १. वह पुरुष जिसमें स्त्री-संभोग की शक्ति न हो। नार्मदा। २. ऐसा मनुष्य जिसमें न तो पूर्ण पुरुषों के चिह्न हों या न स्त्रियों के ही। हिजड़ा। विशेष—वैद्यक के अनुसार जब पुरुष का वीर्य और माता का रज समान होता है तब नपुंसक संतान उत्पन्न होती है। ३. दे० ‘नपुंसक लिंग’।
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नपुंसकता  : स्त्री० [सं० नपुंसक+तल्—टाप्] १. नपुंसक होने की अवस्था या भाव। हिजड़ापन। २. वैद्यक में एक प्रकार का रोग जिसमें मनुष्य का वीर्य इस प्रकार नष्ट हो जाता है कि वह स्त्री के साथ संभोग करने के योग्य नहीं रह जाता। नामर्दी।
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नपुंसकत्व  : पुं० [सं० नपुंसक+त्व]=नपुंसकता।
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नपुंसक-मंत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] जैनों के अनुसार वह मंत्र जिसके अंत में ‘नमः’ हो।
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नपुंसक लिंग  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. संस्कृत व्याकरण में तीन प्रकार के लिंगों में से एक जिसमें ऐसे पदार्थों का अंतर्भाव होता है जो न तो पुल्लिंग हो और न स्त्री लिंग। विशेष—संस्कृत के सिवा अंग्रेजी, मराठी आदि भाषाओं में भी यह तीसरा लिंग होता है, परन्तु हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं में नहीं होता।
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नपुंसक-वेद  : पुं० [सं० मध्य० स०] जैनियों के अनुसार एक प्रकार का मोहनीय कर्म जिसके उदय होने पर स्त्री के सिवा बालक या पुरुष के साथ संभोग करने की इच्छा उत्पन्न होती है।
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नपुआ  : पुं० =नपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नपुत्रा  : वि० [स्त्री० नपुत्री]=निपूता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नप्ता (प्तृ)  : स्त्री० [सं० न√पत् (गिरना)+तृच्] लड़के या लड़की की संतान।
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नप्तृका  : स्त्री० [सं० नप्तृ+कन्—टाप्] वैद्यक में ऐसा पक्षी जिसका मांस दोष नाशक माना जाता है।
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नभी  : स्त्री० [सं० नप्तृ+ङीप] १. पौत्री। २. नतनी।
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नफर  : पुं० [फा० नफ़र] १. आदमी। व्यक्ति। (विशेषतः संख्या सूचित करने के समय) जैसे—चार नफर मजदूर और बढ़ाओ। २. तुच्छ सेवाएँ करनेवाला सेवक। खिदमतगार। दास। ३. श्रमिक। मजदूर।
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नफरत  : स्त्री० [अ० नफ्रत] १. किसी के प्रति होनेवाली अरुचिपूर्ण भावना या विरक्ति। २. घृणा।
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नफरी  : स्त्री० [फा० नफ़र=आदमी] १. नफर अर्थात् मजदूर का दिन भर का काम। २. काम या मजदूरी के दिनों की वाचक संज्ञा। जैसे—चार नफरी में यह दरवाजा बनेगा। ३. एक दिन काम करने का पारिश्रमिक। जैसे—इस राज की नफरी ३) है।
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नफस  : पुं० [अ० नफ़स] १. श्वास। साँस। २. क्षण। पल। पुं० [अ० नफ़्स] १. अस्तित्व। २. सत्यता। ३. काम-वासना। ४. लिगेंद्रिय। ५. आत्मा के दो भेदों में से एक जो निम्नकोटि का माना जाता है। (सूफी-सम्प्रदाय)
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नफसा-नफसी  : वि० [अ० नफ़्सी नफ़्सी] १. आपा-धापी। २. वैमनस्य।
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नफसानी  : वि० [अ० नफ्सानी] १. भौतिक और शारीरिक। २. काम-वासना या भोगेच्छा संबंधी।
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नफा  : पुं० [अ० नफ़्अ] १. लाभ। हित। २. आर्थिक लाभ। ३. किसी प्रकार की प्राप्ति। ४. ब्याज। सूद।
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नफासत  : स्त्री० [अ० नफ़ासत] १. नफीस (अर्थात् उत्तम कोटि का) और सुन्दर होने की अवस्था या भाव। २. कोमलता। ३. निर्मलता।
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नफीरी  : स्त्री० [फा० नफ़ीरी] १. बाँसुरी की तरह का एक प्रकार का बाजा जो शहनाई के सात बजाया जाता है। २. शहनाई।
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नफीस  : वि० [फा० नफ़ीस] [भाव० नफासत] १. जो उत्तम होने के सिवा देखने में भी बहुत प्रिय या मनोहर हो। २. निर्मल। स्वच्छ।
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नफ़्फेरी  : स्त्री०=नफीरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नफ़्स  : पुं०=नफश।
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नफ्सा-नफ्सी  : स्त्री० [अ०] आपा-धापी।
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नफ्सानियत  : स्त्री० [अ०] १. स्वार्थपरता। २. अभिमान।
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नबी  : पुं० [अ०] पैगंबरी धर्मों में ईश्वर का दूत। पैगंबर।
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नबेड़ना  : स०=निबेड़ना।
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नबेड़ा  : पुं० =निबेड़ा।
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नबेरना  : स० दे० ‘निबेड़ना’।
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नबेरा  : पुं० =निबेड़ा।
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नब्ज  : स्त्री० [अ० नब्ज] हाथ की वह रक्तवाहिनी नलिका जिसके कलाई पर पड़नेवाले अंश की गति से शारीरिक आरोग्य, बल आदि की स्थिति जानी जाती है। नाड़ी। क्रि० प्र०—चलना।—देखना।—दिखाना।
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नब्दीगर  : पुं० [फा० नमद+गर] शामियाना बनानेवाला कारीगर।
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नब्बे  : वि० [सं० नवति] जो गिनती में अस्सी से दस अधिक हो। सौ से दस कम। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—९०।
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नभःकेतन  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य।
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नभः क्रांती (तिन्)  : पुं० [सं० नभः क्रांत+इनि] सिंह।
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नभः पांथ  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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नभः प्रमेद  : पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि जो विरूप के वंशज थे।
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नभः प्राण  : पुं० [सं० ष० त०] वायु। हवा।
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नभः श्वास  : पुं० [सं० ष० त०] वायु।
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नभः सद्  : वि० [सं० नभस्√सद् (नगति)+क्विप्] आकाश में विचरनेवाला। पुं० १. देवता। २. पक्षी।
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नभः सरित्  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाश गंगा।
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नभः सुत  : पुं० [सं० ष० त०] पवन। हवा।
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नभः स्थित  : वि० [सं० ष० त०] आकाश में स्थित। पुं० एक नरक।
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नभ (स्)  : पुं० [सं०√नह् (बंधन)+असुन्, भ आदेश] १. आकाश। आसमान। २. बिलकुल खाली या शून्य स्थान। ३. शून्य का सूचक चिह्न। बिन्दु। सुन्ना। सिफर। ४. सावन और भादों के महीने जिनमें आकाश से पानी बरसता है। ५. बादल। मेघ। ६. जल की वर्षा। ७. जल। पानी। ८. आधार। आश्रय। ९. पुराणानुसार चाक्षुष मनु के एक पुत्र का नाम। १॰. शिव। ११. अबरक। १२. जन्मकुंडली में लग्न स्थान से दसवाँ स्थान। १३. कमल नाल। १४. राजा नल का एक पुत्र। वि० हिंसक। अव्य० निकट। पास।
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नभग  : वि० [सं० नभ√गम् (गति)+ड] १. आकाश में चलनेवाला। आकाशचारी। २. अभागा। बद-किस्मत। पुं० १. चिड़िया। पक्षी। २. वायु। हवा। ३. बादल। मेघ। ४. भागवत के अनुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र का नाम।
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नभग-नाथ  : पुं० [सं०] पक्षियों के राजा, गरुड़।
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नभगामी (मिन्)  : वि० [सं० नभ√गम्+णिनि] आकाश में चलनेवाला। नभचर। पुं० १. सूर्य। २. चन्द्रमा। ३. देवता। ४. चिड़िया। पक्षी।
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नभगेश  : पुं० [सं० नभग-ईश, ष० त०] गरुड़।
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नभचर  : वि० [सं० नभश्चर] आकाश में चलनेवाला।
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नभ-ध्वज  : पुं० [सं० नभोध्वज] बादल। मेघ।
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नभनीरप  : पुं० [सं० नभोनीरप] चातक। पपीहा।
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नभयान  : पुं० [सं० नभोयान] आकाश में उड़नेवाला यान। वायुयान।
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नभश्चक्षु (स्)  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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नभश्चमस  : पुं० [सं० ष० त०] १. चंद्रमा। २. इंद्रजाल।
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नभश्चर  : वि० [सं० नभस्√चर् (गति)+ट] आकाश में चलनेवाला। आकाशचारी। पुं० १. देवता। २. पक्षी। ३. बादल। मेघ। ४. वायु। हवा। ५. ग्रह, नक्षत्र आदि।
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नभसंगम  : पुं० [सं० नभस्√गम् (जाना) खश्, मुम्] पक्षी।
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नभस  : पुं० [सं०√नभ् (शब्द)+असच्] दसवें मन्वंतर के एक सप्तर्षि। (हरिवंश)
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नभस्थल  : पुं० [सं० नभःस्थल] १. आकाश। २. शिव।
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नभस्थित  : वि० [सं० नभःस्थित] आकाश में स्थित। पुं० पुराणानुसार एक नरक का नाम।
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नभस्य  : पुं० [सं० नभस्+यत्] १. हरिवंश के अनुसार स्वारोचिष मनु के एक पुत्र का नाम। २. भाद्रपद। भादों।
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नभस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० नभस्+मतुप्] कुहरे या बादलों से भरा हुआ। पुं० वायु।
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नभा  : स्त्री० [सं०] पीकदान।
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नभाक  : पुं० [सं०√नभ+आक] १. अँधेरा। अँधकार। २. राहु। ३. एक प्राचीन ऋषि।
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नभि  : स्त्री० [सं०] चक्र। पहिया।
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नभोग  : पुं० [सं० नभस्√गम् (जाना)+ड] १. आकाश में चलनेवाले देवता, पक्षी, ग्रह आदि। २. जन्म-कुंडली में लग्न से दसवाँ स्थान। ३. दसवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक।
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नभोगज  : पुं० [सं० नभोग√जन् (उत्पत्ति)+ड] बादल।
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नभोगति  : वि० [सं० नभस्-गति ब० स०] जिसकी गति या पहुँच आकाश में हो। पुं० देवता, पक्षी, ग्रह आदि जो आकाश में चलते हैं।
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नभोगामी (मिन्)  : वि० [सं० नभस्√गम् (जाना)+णिनि] नभ में चलनेवाला।
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नभोद  : पुं० [सं०] एक विश्वदेव। (हरिवंश)
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नभोदुह  : पुं० [नभस्√दुह् (भरना)+क] बादल। मेघ।
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नभोदृष्टि  : वि० [सं० नभस्-दृष्टि, ब० स०] १. जिसकी दृष्टि आकाश की ओर हो। २. अंधा।
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नभोद्वीप  : पुं० [सं० नभस्-द्वीप, स० त०] बादल।
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नभोधूम  : पुं० [सं० स० त०] बादल।
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नभोध्वज  : पुं० [सं० नभोध्वज, स० त०] बादल।
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नभो नदी  : स्त्री० [सं० नभस्-नदी, ष० त०] आकाश-गंगा।
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नभोमंडल  : पुं० [सं० नभस्-मंडल, ष० त०] मंडलाकार आकाश।
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नभोमणि  : पुं० [सं० नभस्-मणि, ष० त०] सूर्य।
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नभोयोनि  : पुं० [सं० नभस्-योनि, ब० स०] महादेव। शिव।
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नभोरज (स्)  : पुं० [सं० नभस्-रजस्, ष० त०] अंधकार।
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नभोरूप  : वि० [सं० नभस्-रूप, ब० स०] नभ अर्थात् आकाश के रंग का। आसमानी या हल्का नीला।
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नभोरेणु  : पुं० [सं० नभस्-रेणु, स० त०] कुहासा। कोहरा।
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नभोलय  : वि० [सं० नभस्-लय, ब० स०] जो आकाश में लीन हो जाय। पुं० धूआँ।
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नभोलिह  : वि० [सं० नभस्√लिह् (चाटना)+क] गगनचुंबी।
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नभोवट  : पुं० [सं०] आकाश-मंडल।
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नभोवीथी  : स्त्री० [सं० नभस्-वीथी, स० त०] छायापथ। (दे०)
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नभौका (कस्)  : पुं० [सं० नभ-ओकस, ब० स०] १. पक्षी। २. देवता। ३. ग्रह आदि जो आकाश में चलते हैं।
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नभ्य  : पुं० [सं० नाभि+यत् नभ्रादेश] १. पहिये के नीचे का भाग। २. पहियों में दी जानेवाली चिकनाई या तेल। ३. अक्ष। धुरी। वि० मेघाच्छन्न।
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नभ्यसी  : पुं० [सं० नभस] १. आकाश। २. सावन का महीना।
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नभ्राट (ज्)  : पुं० [सं० न√भ्राज् (दीप्ति)+क्विद्, नि० सिद्धि] बादल। मेघ।
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नम (स्)  : पुं० [सं०√नम (झुकना)+असुन्] १. नमस्कार। २. त्याग। ३. अन्न। ४. वज्र। ५. यश। ६. स्तोत्र। वि० [फा०] भींगा हुआ। आर्द्र। गीला।
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नमक  : पुं० [फा०] एक प्रसिद्ध क्षार पदार्थ जो मुख्यतः खारे जल से तैयार किया जाता है और कहीं-कहीं चट्टानों के रूप में भी मिलता है। लवण। पद—नमक-हराम, नमक- हलाल। (देखें) मुहा०—(किसी का) नमक अदा करना= किसी के किये हुए उपकारों का कृतज्ञतापूर्वक पूरा पूरा प्रतिफल देना। (किसी का) नमक खाना=किसी का दिया हुआ अन्न खाना। किसी के आश्रय में रहकर पलना। (किसी का) नमक फूटकर निकलना=स्वामी या आश्रयदाता के प्रति कृतघ्न होने या उसकी बुराई करने का दंड मिलना। कृतघ्नता का बुरा फल मिलना। (किसी बात में) नमक- मिर्च मिलाना या लगाना=कोई बात बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर और अतिरिक्त तथा आकर्षक बनाकर कहना। कटे पर नमक छिड़कना=ऐसा काम करना या ऐसी बात कहना जिससे दुःखी व्यक्ति और अधिक दुःखी हो। २. लावण्य। सलोनापन।
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नमक-ख्वार  : वि० [फा०] (व्यक्ति) जिसने किसी का नमक खाया हो। किसी के द्वारा पालित होनेवाला।
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नमकदान  : पुं० [फा०] [स्त्री० अल्पा० नमकदानी] पिसा हुआ नमक रखने का पात्र।
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नमकसार  : पुं० [फा०] १. वह स्थान जहाँ से नमक निकलता हो। २. वह खेत जिसमें समुद्र-जल से नमक तैयार किया जाता है।
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नमक-हराम  : वि० [फा०+अ०] [भाव० नमक-हरामी] जो अपने आश्रयदाता,उपकारक या स्वामी के प्रति कृतज्ञ न रहकर उसका अहित करता हो या चाहता हो। कृतघ्न।
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नमक-हरामी  : स्त्री० [फा० नमक+अ० हराम+ई (प्रत्य०)] १. नमक हराम होने की अवस्था या भाव। २. नमक हराम का अन्नदाता या आश्रयदाता के प्रति किया जानेवाला कोई द्रोहपूर्ण कार्य। वि०=नमक-हराम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नमक-हलाल  : वि० [फा०+अ०] [भाव० नमक-हलाली] जो अपने आश्रयदाता, उपकारक या स्वामी की कृपा के लिए उसका उपकार मानने और उसकी भलाई करने के लिए सदा तत्पर रहे।
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नमक-हलाली  : स्त्री० [फा० नमक+हलाल+ई (प्रत्य०)] १. नमक हलाल होने का भाव। स्वामिनिष्ठा। स्वामिभक्त। २. ऐसा कार्य जिससे उपकारक या स्वामी के प्रति कृतज्ञता और भक्ति प्रकट होती हो।
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नमगीरा  : पुं० [फा० नमगीरः] १. एक तरह का छोटा शामियाना जो ओस से बचने के लिए ताना जाता है। २. तिरपाल या पाल जो धूप, वर्षा आदि में रक्षित रहने के लिए किसी स्थान के ऊपर टांगते या फैलाते हैं।
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नमत  : वि० [सं०√नम+अतच्] १. झुका हुआ। २. नम। पुं० १. नट। २. स्वामी। ३. बादल। ४. धूआँ।
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नमदा  : पुं० [फा० नमद] एक प्रकार का ऊनी कंबल जो गद्दे की तरह बिछाया जाता है।
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नमन  : पुं० [सं०√नम्+ल्युट्—अन] [वि० नमनीय, नमित] १. झुकने की क्रिया या भाव। २. नमस्कार। प्रणाम।
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नमना  : अ० [सं० नमन] १. नत होना। झुकना। २. नमस्कार या प्रणाम करना। ३. नम्र होना।
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नमनि  : स्त्री० [हिं० नमना] १. नमन। २. नम्रता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नमनीय  : वि० [सं०√नम्+अनीयर्] [भाव० नमनीयता] १. जो झुक सके या झुकाया जा सके। २.जिसके आगे झुकना उचित हो, अर्थात् पूज्य या मान्य।
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नमश  : स्त्री० [फा०] दूद का वह फेन जो ठंडक के कारण जम-सा गया हो। निमस।
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नमसित  : भू० कृ० [सं० नमस्+क्यङ+क्त, यलोप] १. जिसे नमस्कार किया गया हो। २. पूजित।
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नमस्कार  : पुं० [सं० नमस्√कृ (करना)+घभ्] १. किसी पूज्य व्यक्ति के आगे झुककर उसका अभिवादन करना। २. [नमस्-कार, ब० स०] एक प्रकार का विष।
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नमस्कारी  : स्त्री० [सं० नमस्कार+अच्—ङीष्] १. लज्जावंती। २. वराह-क्रान्ता। ३. खदरी या खदरिका नामक क्षुप।
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नमस्कार्य  : वि० [सं० नमस्√कृ+ण्यत्] १. जिसके सामने नमस्कार करना उचित हो। नमस्कार किये जाने के योग्य। २. पूज्य। वंदनीय।
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नमस्क्रिया  : स्त्री० [सं० नमस्√कृ+श—इयङ्, टाप्] नमस्कार।
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नमस्ते  : [सं० नमस् ते व्यस्त पद] एक पद जो अव्यय की तरह प्रयुक्त होता है और जिसका अर्थ है—मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
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नमस्य  : वि० [सं० नमस्+क्यङ्+यत्, अ और य् का लोप] नमस्कार करने के योग्य। पूज्य। वंदित।
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नमस्या  : स्त्री० [सं०√नमस्य+अ—टाप्] १. पूजा। २. नम्रता।
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नमाज  : स्त्री० [अ० नमाज़] मुसलमानों की एक विशिष्ट प्रकार और रूप की ईश्वर-प्रार्थना जो दिन में पाँच बार करने का विधान है। क्रि० प्र०—अदा करना।-गुजारना।—पढ़ना।
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नमाजगाह  : स्त्री० [अ०+फा०] १. नमाज पढ़ने का स्थान। २. मसजिद।
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नमाजबंद  : पुं० [अ० नमाज+ फा० बंद] कुश्ती का एक पेंच।
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नमाजी  : पुं० [अ० नमाजी] मुसलमानी धर्म के अनुसार समय पर नमाज पढ़नेवाला व्यक्ति। धर्मनिष्ठ मुसलमान। पुं० वह वस्त्र जिस पर बैठकर नमाज पढ़ी जाय।
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नमाना  : स० [सं० नमन] १. झुकाना। २. अपने अधीन या वश में करना।
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नमित  : वि० [सं०√नम्र+णिच्+क्त] १. झुका हुआ। २. झुकाया हुआ।
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नमिस  : स्त्री० [फा० नमश या नमिश्क] एक विशेष प्रकार से तैयार किया हुआ दूध का फेन जो प्रायः जाड़े में बनता और बहुत स्वादिष्ट होता है।
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नमी  : स्त्री० [फा०] १. आर्द्रता। तरी। २. सीड़। वि० [सं० नमिन्] १. झुकनेवाला। २. जो झुक सकता हो।
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नमुचि  : पुं० [सं० न√मुच् (छोड़ना)+इन्] १. एक ऋषि का नाम। २. एक दानव जिसे इन्द्र ने मारा था। ३. एक दैत्य जो शुंभ और निशुंभ का छोटा भाई था। ४. कामदेव।
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नमुचि-रिपु  : पुं० [ष० त०] इंद्र जिन्होंने नमुचि का वध किया था।
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नमुचिसूदन  : पुं० [सं० नमुचि√सूद् (मारना)+ल्यु—अन] इंद्र।
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नमूद  : स्त्री० [फा० नमूद] १. आविर्भाव। प्रकट होना। २. अस्तित्व। ३. धूम-धाम। तड़क-भड़क।
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नमूदार  : वि० [फा० नुमूदार] [भाव० नमूदारी] आविर्भूत। प्रकट।
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नमूना  : पुं० [फा० नमूनः] १. किसी वस्तु की बहुत-सी इकाइयों में से कोई इकाई जो उस वस्तु का स्वरूप बतलाने के लिए दिखाई जाती है। जैसे—पुस्तक की नमूने की प्रति आपकों भेजी गयी थी। २. किसी पदार्थ का कोई ऐसा अंश जो उसके गुण और स्वरूप का परिचय कराने के लिए निकाला गया हो। बानगी। जैसे—चावल का नमूना। ३. वह जिसे देखकर उसके अनुसार वैसा ही कुछ और बनाया जाय। प्रतिमान। जैसे—इस बेल का नमूना कागज पर उतार लो। ढाँचा। पुं० दे० ‘निमोना’ (सालन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नमेरू  : पुं० [√नम्+एरु] १. रुद्राक्ष का पेड़। २. एक तरह का पुन्नाग (वृक्ष)।
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नम्र  : वि० [सं०√नम्+र] १. (पदार्थ) जो झुका हो। २. (व्यक्ति) जिसमें नम्रता और विनय हो।
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नम्रक  : पुं० [सं० नम्र√कै (प्रतीत होना)+क] बेंत।
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नम्रता  : स्त्री० [सं० नम्र+तल्—टाप्] नम्र होने की अवस्था, गुण या भाव।
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नम्रांग  : वि० [सं० नम्र-अंग, ब० स०] १. झुका हुआ। २. झुके हुए अंगोंवाला।
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नम्रित  : वि०=नमित।
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नय  : वि० [सं०√नी (ले जाना)+अच् ?] १. किसी को किसी ओर ले जानेवाला। २. मार्ग-दर्शक। ३. उचित। ठीक। वाजिब। पुं० [√नी+अप्] १. बरताव। व्यवहार। २. जीवन बिताने का ढंग। आचरण। ३. अच्छा और श्रेष्ठ आचरण। सदाचार। ४. दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता। ५. नम्रता। विनय। ६. न्यायपूर्वक और समझदारी से उचित या ठीक काम करने का ढंग या योग्यता। नीति। ७. प्रबंध, व्यवस्था और शासन करने का कोई व्यक्तिगत और कौशलपूर्ण ढंग या नीति। राजनीति। ८. अच्छी तरह काम करने के लिए बनाई गयी योजना। ९. दार्शनिक मत या सिद्धांत। १॰. एक प्रकार का खेल या जूआ। ११. विष्णु का एक नाम। १२. जैन दर्शन में प्रमाणों द्वारा निश्चित अर्थ या तत्व ग्रहण करने की वृत्ति जो सात प्रकार की कही गई है। यथा—नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समाभिरूढ़ और एवंभूत। स्त्री० [सं० नद या नदी] नदी। उदा०—केते औगुन जग करत नय वय चढ़ती बार।—बिहारी।
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नय-ऋति  : पुं०=नैर्ऋत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नयक  : वि० [सं० नय+तुन्—अक] कुशल। चतुर। पुं० १. कुशल कार्यकर्ता। २. राजनीति में निपुण व्यक्ति। कुशल राजनीतिज्ञ। ३. नेता।
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नयकारी  : पुं० [?] १. नर्तकों के दल का नायक। नाचनेवालों का मुखिया। २. नाचनेवाला। नर्तक।
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नयज्ञ  : वि०=नीतिज्ञ।
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नयण  : पुं०=नयन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नयन  : पुं० [सं०√नी+ल्युट्—अन] १.किसी को कहीं या किसी ओर ले जाना की क्रिया या भाव। २. प्रबन्ध, व्यवस्था या शासन करने की क्रिया या भाव। ३. समय बिताने या व्यतीत करने की क्रिया या भाव। ४. आँखें या नेत्र जो हमें कहीं या किसी ओर ले जाने में सहायक होते हैं।
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नयन-गोचर  : वि० [ष० त०] १. जो आँखों में दिखाई देता हो। दिखाई देनेवाला। २. जो आँखों के सामने हो। समक्ष।
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नयनच्छद  : पुं० [ष० त०] आँख को ढकनेवाली पलक।
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नयन-जल  : पुं० [ष० त०] आँखों से बहनेवाला पानी अर्थात् आँसू। अश्रु।
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नयनता  : स्त्री० [हिं०] ‘नयन’ का भाव। उदा०—कुछ कुछ खुली नयनता से, कुछ रुकी मुस्कान से छीनते किस भाँति हो तुम धैर्य को।—पंत
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नयन-पट  : पुं० [ष० त०]=पलक।
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नयन-पथ  : पुं० [ष० त०] १. दृष्टि का मार्ग। २. वह सारा विस्तार जो किसी ओर देखने पर आँखों के सामने आता या होता है।
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नयन-पुट  : पुं० [ष० त०] वह कोटर या गड्ढा जिसमें आँख स्थित रहती हैं।
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नयन-वारि  : पुं० [ष० त०] नयन-जल। आँसू।
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नयन-सलिल  : पुं० [ष० त०] नयन-जल। आँसू।
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नयनांबु  : पुं० [नयन-अंबु, ष० त०] आँसू।
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नयना  : अ० [सं० नमन] १. झुकना। २. किसी के आगे नम्र या विनीत होना। स० १. झुकना। २. लाक्षणिक अर्थ में न रहने या देना या कम करना। उदा०—अंबर हरत द्रौपदी राखी ब्रह्म इन्द्र कौ मान नयौ।—सूर। पुं०=नयन। (आँख)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नय-नागर  : वि० [सं० च० त०] १. नय अर्था्त नीतिशास्त्र में निपुण। नीतिज्ञ। २. चतुर। चालाक।
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नयनाभिराम  : वि० [सं० नयन-अभिराम, ब० स०] जो देखने में प्रिय तथा सुन्दर हो।
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नयनिमा  : स्त्री० [सं० नयन से] १. आँख का भाव। आँख पन। नेत्रता। २. चितवन। उदा०—कहाँ नयनिमा ने पाये ये फूलों के मादक शर।—पन्त।
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नयनी  : स्त्री० [सं० नयन] आँख की पुतली। वि० स्त्री० नयनों या आँखोंवाली। (यौ० के अन्त में) जैसे—मृग नयनी।
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नयनू  : पुं० [नवनीत] १. मक्खन। २. पुरानी चाल की एक प्रकार की बूटीदार मलमल।
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नयनोत्सव  : पुं० [सं० नयन-उत्सव, ब० स०] १. ऐसी सुन्दर वस्तु जिसे देखने से नेत्रों को बहुत सुख मिले। २. दीपक। दीया।
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नयनौषध  : पुं० [सं० नयन-औषध, ष० त०] पुष्पकसीस। पीला। कसीस।
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नयर  : पुं०=नगर।
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नय-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] एक दार्शनिक वाद या सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि आत्मा एक भी है और अनेक भी।
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नयवादी (दिन्)  : पुं० [सं० नयवाद+इनि] १. नयवाद का अनुयायी या ज्ञाता। २. नीतिज्ञ। ३. राजनीतिज्ञ।
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नयशाली (लिन्)  : वि० [सं० नय√शाल् (शोभित होना)+ णिनि]=नय-शील।
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नय-शास्त्र  : पुं० [ष० त०]=राजनीति शास्त्र।
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नय-शील  : वि० [सं० ब० स०] १. जो झुक सकता या झुकाया जा सकता हो। २. बुद्धिमान। विचारशील ३. नीतिज्ञ। ४. नम्र। विनीत। ५. विजयी।
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नया  : वि० [सं० नव] [स्त्री० नयी, नई] १. जिसका असित्व पहले न रहा हो, बल्कि जो अभी हाल में निकला, बना या हुआ हो। जो कुछ ही समय पहले प्रस्तुत हुआ हो। नवीन। जैसे—शहर में बहुत से नये मकान बने हैं। मुहा०—(कोई पदार्थ) नया कर देना=खराब या नष्ट कर डालना। निकम्मा या रद्दी बना देना। (मंगल भाषित रूप में प्रायः स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त) जैसे—इस लड़के को जो कपड़ा दो वह दो दिन में नया करके रख देता है, अर्थात् जला देता, फाड़ डालता या मैला कर देता है। २. जिसकी उत्पत्ति या उपज अभी हाल में हुई हो। नई पैदावार में का। जैसे—नया आलू, नया चावल, नया पान। मुहा०—(अनाज या फल) नया करना=प्रस्तुत ऋतु में होने वाला अनाज, या पहले पहल खाना। जैसे—इस साल हमने आज ही गोभी नई की है; अर्थात पहले-पहल खाई है। ३. जिसका आविर्भाव, रचना या सृजन हुए अधिक समय न बीता हो। थोड़े दिनों का। हाल का। ताजा। जैसे—नई जवानी, नया नियम, नई सभ्यता। ४. जिसका अस्तित्व या सत्ता तो पहले से रही हो, परंतु जिसका अधिकार, ज्ञान या परिचय हाल में प्राप्त हुआ हो। जैसे—(क) वे मकान छोड़कर किसी नये मकान में चले गये हैं। (ख) ज्योतिषी नित्य नये तारों का पता लगाते रहते हैं। (ग) हमारे लिए तो यह अनुभव (या विचार) नया ही है। ५. जो पहले किसी के उपयोग या व्यवहार में न आया हो। जिससे पहले किसी ने काम न लिया हो। जैसे—यह लड़का रोज नये कपड़े पहनना चाहता है। ६. जो पहले था, उससे भिन्न और उसके स्थान पर आनेवाला दूसरा। जैसे—(क) अब नये अधिकारी आकर इस विषय का निर्णय करेंगे। (ख) विद्यालय में कई नये अध्यापक आये हैं। मुहा०—(कोई पुराना पदार्थ) नया करना या कर देना=टूट-फूट जाने अथवा निकम्मे या रद्दी हो जाने पर उसके स्थान पर दूसरा नया लाकर रखना। जैसे—आपका जो शीशा हमसे टूट गया है, वह हम नया कर देंगे। ७. परिवर्तन, मरम्मत, सुधार आदि करके ऐसे रूप में लाया हुआ जो पहले से बिलकुल भिन्न जान पड़े। नये अथवा हाल के बने हुए के समान। जैसे—(क) दो हजार रुपये खरच करो तो यह मकान बिलकुल नया हो जायगा। (ख) दस रुपए में घड़ी-साज ने घड़ी बिलकुल नई कर दी है। (ग) इस बार की धुलाई में यह कोट बिलकुल नया हो गया है। ८. जो किसी काम में अथवा किसी पद या स्थान पर पहले-पहल आकर लगा हो। जैसे—(क) नये आदमी को काम सँभालने और समझने में कुछ समय लगता ही है। (ख) इस यंत्र का नया पुरजा कुछ खड़खड़ करता है। ९. जो एक बार बहुत कुछ नष्ट या समाप्त होने की दशा में पहुँचकर भी फिर से बना या काम में आने के योग्य हुआ हो। जैसे—इस बीमारी में लड़के की नई जिंदगी हुई है या नया जीवन मिला है। १॰. जिसका क्रम या चक्र फिर से चलने लगा हो। जैसे—नया चंद्रमा, नया वर्ष। ११. जो अपने वर्ग के दूसरों की तुलना में अभी हाल का या औरों के बाद का हो और जिसका नामकरण किसी पूर्ववर्ती के अनुकरण पर हुआ हो। (प्रायः बस्तियों, मुहल्लों आदि के नामों के संबंध में) जैसे—नई दिल्ली, नई बस्ती, नया बाजार। १२. ऐसा अजनबी या पराया जो पहले कभी न देखा गया हो। जैसे—नये आदमी को देखकर कुत्ते भूँकने लगते हैं (या लड़के घबरा जाते हैं)। विशेष—यह शब्द सभी अर्थों में ‘पुराना’ का विपर्याय है।
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नयापन  : पुं० [हिं० नया+पन (प्रत्य०)] १. नये होने की अवस्था या भाव। नवीनता। नूतनत्व। २. कोई ऐसा नवीन गुण या विशेषता, जिसके फलस्वरूप किसी चीज में कोई चमत्कार य सौन्दर्य उत्पन्न हो जाय।
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नयाम  : पुं० [फा० नियाम] तलवार की म्यान। कोष।
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नरंग  : पुं० [सं० नारंग] नारंगी का पेड़।
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नरंधि  : पुं० [सं० नर√धा (धारण)+कि, पृषो० मुम्] लौकिक या सांसारिक जीवन।
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नरंधिप  : पुं० [सं०] विष्णु।
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नर  : वि० [सं०√नृ (नय)+अच्] १. जिसमें वे सब शारीरिक अवयव हों जो किसी विशिष्ट वर्ग के वीर्यवान् जीवों में होते हैं। (रज युक्त जीवों को मादा कहते हैं) जैसे—नर व्यक्ति, नर हाथी। २. बहादुर। वीर। ३. जो अपने वर्ग में सबसे बढ़कर, बड़ा या श्रेष्ठ हो। जैसे—नर हीरा। पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव। ३. अर्जुन। ४. एक प्रकार की देव-योनि। ५. पुराणानुसार एक ऋषि जिनके भाई का नाम नारायण था, और जो धर्मराज के पुत्र थे। ६. गय राक्षस का एक नाम। ७. पुरुष। मर्द। ८. नौकर। सेवक। ९. वह खूँटी जो छाया की दिशा, गति आदि जानने के लिए गाड़ी जाती है। लंब। शंकु। १॰. दोहे का एक भेद जिसमें १५ गुरु और १८ लघु होते हैं। ११. छप्पय का एक भेद जिसमें १॰ गुरु और १३ लघु होते हैं। १२. एक प्रकार का क्षुप जिसे गंधैल, राय-कपूर, रोहिस और सेंधिया भी कहते हैं। पुं० १.=नरकट। २.=नल।
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नरई  : स्त्री० [?] १. वनस्पति का कोई ऐसी डंठल जो अंदर से खोखला या पोला हो। २. जलाशयों के पास होनेवाली एक प्रकार की घास।
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नरकंत  : पुं०=नरकांत (राजा)।
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नरक  : पुं० [सं०√नृ (कलेश लेना)+अच्] [वि० नारकीय] वह स्थान जहाँ मृत्यु के उपरांत दुष्ट जीवों की आत्माओं को रहना तथा यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। (पुराण) क्रि० प्र०—भोगना। २. बहुत गंदा और दुर्गंधपूर्ण स्थान। ३. ऐसा स्थान जहाँ अनेक प्रकार के कष्ट होते हों। ४. किसी चीज का बहुत ही गंदा और मैला अंश। ५. पुराणानुसार कलि के पौत्र का नाम जो कलि के पुत्र भय और पुत्री मृत्यु के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और जिसने अपनी बहन यातना के साथ विवाह किया था। ६. विप्रचित दानव के एक पुत्र का नाम। ७. ‘नरकासुर’। पुं० [सं०] राजा।
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नरक-गति  : स्त्री० [स० त०] वह दूषित कर्म जिसके फलस्वरूप नरक में वास होता है। (जैन)
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नरकगामी (मिन्)  : वि० [सं० नरक√गम् (जाना)+णिनि] जिसे अपने पापों का फल भोगने के लिए नरक जाना पड़े।
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नरक-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी जिस दिन घर का सारा कूड़ा-कतवार निकालकर बाहर फेंका जाता है। विशेष—नरकासुर इसी दिन मारा गया था।
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नर-कूचर  : पुं०=कूचर।
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नरक-चौदस  : स्त्री०=नरक-चतुर्दशी।
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नरकट  : पुं० [हिं०] बेत की जाति का एक प्रसिद्ध पौधा जिसके डंठल मजबूत किंतु खोखले होते हैं और अनेक प्रकार के कामों में लाये जाते हैं।
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नर-कटिया  : वि० स्त्री० [हिं० नार+काटना] नवजात शिशु को नाल काटनेवाली (स्त्री)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री चमारिन।
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नरक-भूमिका  : स्त्री० [ष० त०] नरक। (जैन)
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नरकल  : पुं०=नरकट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नरकस  : पुं०=नरकट।
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नरकस्था  : स्त्री० [सं० नरक√स्था (स्थित होना)+क—टाप्] वैतरणी नदी।
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नरकांतक  : पुं० [सं० नरक-अंतक ष० त०] विष्णु।
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नरका  : पुं० [सं० नरकट] हल के पीछे की वह नली जिसमें बोने के लिए बीज डाले जाते हैं।
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नरकामय  : पुं० [सं० नरक-आमय, ब० स०] प्रेत।
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नरकारि  : पुं० [सं० नरक-आमय, ष० त०] श्रीकृष्ण।
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नरकावास  : वि० [सं० नरक-आवास, ब० स०] नरक में रहनेवाला। पुं० नरक में होनेवाला वास या निवास।
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नरकासुर  : पुं० [सं० नरक-असुर मध्य स०] एक प्रसिद्ध राक्षस जो पृथ्वी का एक पुत्र था तथा जिसे विष्णु ने प्रागज्योतिषपुर का राज्य दिया था। इसके अत्याचारों से क्षुब्ध होकर भगवान कृष्ण ने इसका सिर सुदर्शन से काटा था।
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नरकी  : वि०=नारकी। वि० [सं० नारकिन्] बहुत बड़ा पापी जो नरक में जाने योग्य कर्म करता हो।
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नरकुल  : पुं०=नरकट।
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नर-केशरी  : पुं० [सं० मयू० स०] १. वह जो पुरुषों में सिंह के समान वीर और साहसी हो। २. विष्णु का नृसिंह अवतार।
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नर-केसरी  : पुं०=नरकेशरी।
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नर-केहरि  : पुं० [सं० नर+हिं केहरि] नर केशरी (नृसिंह)।
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नर-कौतुक  : पुं० [सं० ब० स०] कोई चमत्कारपूर्ण या जादू-भरा खेल।
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नरखड़ा  : पुं० [?] गला।
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नर-गण  : पुं० [सं० ब० स०] उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, पूर्वभाद्रपद, रोहिणी, भरणी और आर्द्रा नक्षत्रों का एक गण जिसमें जन्म लेनेवाला बुद्धिमान तथा सुशील होता है। (फलित ज्यो०)
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नरगा  : पुं० [यू० नर्ग] १. शिकारी पशुओं को घेरने के लिए बनाया जानेवाला मनुष्यों का घेरा। २. जन-समूह। ३. विपत्ति।
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नरगिस  : स्त्री० [फा० नर्गिस] १. एक प्रकार का पौधा जो ठीक प्याज के पेड़ का-सा होता है। २. उक्त पौधे का फूल जो कटोरी के आकार का गोल तथा काला धब्बा लिये सफेद रंग का होता है। ३. आँख जिसका उक्त फूल उपमान माना जाता है।
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नरगिसी  : वि० [फा० नर्गिस] १. नरगिस-संबंधी। २. नरगिस के आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि का। पुं० १. पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा जिस पर नरगिस के फूलों के आकार की बूटियाँ होती थीं। २. एक तरह का कवाब जो अंडों पर कीमा चढ़ाकर बनाया जाता है।
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नरचा  : पुं० [सं०] पटसन की एक जाति।
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नरजना  : [फा० नाराज़] नाराज होना। स० [अ० नज़र से वि०] कोई चीज नापना या तौलना।
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नरजा  : पुं० [हिं० नरजना] पलड़ा (तराजू का)।
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नरजी  : पुं० [हिं० नरजना] वह जो अनाज तौलने का काम करता हो। बया।
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नरतक  : पुं०=नर्तक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नर-तात  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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नर-त्राण  : पुं० [सं० ष० त०] १. मनुष्यों का रक्षक, राजा। २. श्रीकृष्ण।
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नरत्व  : पुं० [सं० नर+त्व] नर होने की अवस्था, गुण या भाव। नरता।
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नरदँवा  : पुं०=नरदमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नरद  : स्त्री० [फा० नर्द] १. चौसर का खेल। २. चौसर खेलने की गोटी। पुं० [सं० नर्द्द] नाद। शब्द।
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नरदन  : पुं० [सं० नर्द्दन] शब्द करने की क्रिया या भाव।
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नरदमा  : पुं० [?] नाबदान। पनाला।
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नरदा  : पुं०=नाबदान (पनाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नर-दारा  : पुं० [सं० नर और दारा] १. जनखा। हिजड़ा। २. वह जो पुरुष हो जाने पर भी स्त्रियों के से हाव-भाव दिखाता या रूप-रंग रखता हो। जनाना। ३. डरपोक व्यक्ति। स्त्री०=नर-नारि (द्रौपदी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नर-देव  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. राजा। २. ब्राह्मण।
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नर-नाथ  : पुं० [सं० उपमि० स०] नरदेव। (दे०)
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नर-नायक  : पुं० [सं० उपमि० स०] राजा।
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नर-नारायण  : पुं० [सं० द्व० स०] नर और नारायण नामक दो भाई जो प्रसिद्ध ऋषि हुए हैं और विष्णु के अवतार माने जाते हैं। (महाभारत)
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नर-नारि  : स्त्री० [सं०] नर (अर्जुन) की स्त्री, द्रौपदी।
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नरनाह  : पुं० [सं० नरनाथ] राजा।
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नर-नाहर  : वि० [सं० नर+हिं० नाहर (सिंह)] जो पुरुषों में शेर के समान वीर और साहसी हो। पुं० नृसिंह नामक अवतार।
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नरनी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा।
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नर-पति  : पुं० [सं० ष० त०] राजा। नृपति।
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नर-पद  : पुं० [सं० ष० त०] १. जनपद। २. देश।
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नर-पशु  : वि० [सं० उपमि० स०] जो मनुष्य होने पर भी पशुओं का-सा आचरण करता हो। पुं० १. आचार-विहीन हीन व्यक्ति। २. नृसिंह नामक अवतार।
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नरपाल  : पुं० [सं० नर√पाल् (बचाना)+णिच्+अण्] राजा। भूपति।
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नरपालि  : पुं० [सं० नर√पाल्+णिच्+इन्] छोटा शंख।
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नर-पिशाच  : पुं० [सं० उपमि० स०] मनुष्य होने पर भी जो पिशाचों के से निकृष्ट कर्म करता हो। परम क्रूरतापूर्ण और हेय कर्म करनेवाला। व्यक्ति।
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नर-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] मनुष्य-लोक। पृथ्वी।
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नर-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] नील का पेड़।
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नरबदा  : स्त्री०=नर्मदा।
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नरभक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० नर√भक्ष् (खाना)+इनि] मनुष्यों को खानेवाला। पुं० दैत्य। राक्षस।
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नर-भू, नर-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] भारतवर्ष।
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नरम  : वि० [फा० नर्म] १. (पदार्थ) जिसमें कड़ापन न हो। जो दबाये जाने पर सहज में न दब सके। मुलायम। २. जिसमें उग्रता या कठोरता न हो। जैसे—नरम स्वभाव। कोमल। मृदुल। ३. पिलपिला या लचीला। ४. मंद। धीमा। ५. जल्द पचनेवाला। ६. जिसमें पौरुष या पुंसत्व न हो। पुं० [सं० नर्मन्] १. हँसी-दिल्लगी। २. साहित्य में, सखाओं का एक प्रकार का भेद। दे० ‘नर्म-सचिव।’
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नरमट  : स्त्री० [हिं० नरम+मिट्टी] ऐसी जमीन जिसकी मिट्टी नरम हो।
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नरमदा  : स्त्री०=नर्मदा।
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नरम-रोआँ  : पुं० [हिं० नरम+रोआँ] बुनाई के लिए भेंड़-बकरियों का लाल या सफेद रंग का रोआँ जो प्रायः बहुत मुलायम होता है।
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नरम-लोहा  : पुं० [हिं० नरम+लोहा] आग में तपाया हुआ लोहा, जिसे पीटकर सहज में दूसरा रूप दिया जा सकता है।
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नरमा  : स्त्री० [हिं० नरम] १. एक प्रकार का विदेशी पौधा जिसमें कपास होती है। २. उक्त पौधे की रूई। ३. सेमल का रूई। पुं० कान के नीचे का कोमल अंश।
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नरमाई  : स्त्री०=नरमी।
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नरमाना  : स० [हिं० नरम+आना (प्रत्य०)] १. नरम अर्थात् कोमल या मुलायम करना। २.धीमा, मद्धिम या शांत करना। अ० १. नरम अर्थात कोमल या मुलायम होना। २. धीमा, मद्धिम या शांत होना।
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नरमानिका  : स्त्री०=नरमानिनी।
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नरमानिनी  : स्त्री० [सं० नर√मन् (मनना)+णिनि—ङीष्] ऐसी स्त्री जिसके चेहरे पर मूँछ और दाड़ी के कुछ बाल हों।
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नरमावड़ी  : स्त्री० [हिं० नरमा] बन-कपास।
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नरमाहट  : स्त्री०=नरमी।
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नरमी  : स्त्री० [फा० नर्मी] १. नरम या नर्म होने की अवस्था, गुण या भाव। २. कठोरतापूर्ण व्यवहार न करने का गुण। पद—नरमी से=शांति तथा ठंढे स्वभाव से।
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नर-मेध  : पुं० [सं० ब० स०] १. प्राचीन काल में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ जिसमें मनुष्य के मांस की आहुति दी जाती है। २. बहुत अधिक मनुष्यों का प्रायः एक साथ होनेवाला संहार या हत्या।
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नर-यंत्र  : पुं० [सं०] ज्योतिष में एक प्रकार का शंकु-यंत्र जिसकी सहायता से धूप की छाया देखकर समय का बोध होता था।
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नरर्षभ  : पुं० [सं० नर-ऋषभ, स० त०] राजा।
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नर-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] मनुष्य लोक। मृत्यु-लोक। संसार।
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नर-वध  : पुं० [सं० ष० त०] मनुष्य को मार डालना। नर-हत्या।
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नरवरी  : स्त्री० [?] क्षत्रियों की एक जाति।
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नरवा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।
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नरवाई  : स्त्री० [?] घास-फूस।
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नर-वाहन  : पुं० [सं० मयू० स०] १. ऐसी सवारी जिसे मनुष्य खींचता या ढोता हो। जैसे—डोली, पालकी आदि। २. [ब० स०] कुबेर। ३. किन्नर।
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नरवै  : पुं० =नरपति (राजा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नर-व्याघ्र  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. वह जो मनुष्यों में व्याघ्र की तरह वीर और साहसी हो। २. वह जो मनुष्यों में परम श्रेष्ठ हो। ३. राजा। नृपति। ४. एक समुद्री जंतु जिसका निचला भाग मनुष्य के आकार का और ऊपरी भाग सिंह के आकार का होता है।
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नर-शक्र  : पुं० [सं० उपमि० स०] राजा।
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नरसल  : पुं०=नरकट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नर-सार  : पुं० [सं० ब० स०] नौसादार।
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नरसिंग  : पुं० [?] एक प्रकार का विलायती फूल।
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नरसिंगा  : पुं०=नरसिंहा।
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नरसिंघ  : पुं०=नृसिंह।
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नरसिंघा  : पुं० [हिं० नर=बड़ा+सिंघा] तुरही के आकार का फूँककर बजाया जानेवाला ताँबे का एक बाजा।
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नर-सिंह  : पुं० [सं० उपमि० स०]=नृसिंह।
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नरसिंह-ज्वर  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का ज्वर जो एक-एक दिन का नागा कर लगातार तीन-तीन दिन तक चढ़ा रहता है। (वैद्यक)
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नरसिंह-पुराण  : पुं० [सं० मध्य० स०]=नृसिंह पुराण।
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नरसी मेहता  : पुं० [?] गुजरात के एक प्रसिद्ध भक्त (संवत् १४७२-१५३८ वि०) जो दिन-रात भगवान का कीर्तन किया करते थे।
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नरसेज  : पुं० दे० ‘तिधारा’ (वृक्ष)।
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नरसों  : अव्य० [हिं० परसों का अनु०] १. परसों के बाद आनेवाले दिन में। २. (बीते हुए) परसों के पहले वाले दिन में। दे० ‘अतरसों’।
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नर-हत्या  : स्त्री० [ष० त०] १. मनुष्य की हत्या। २. विधिक क्षेत्र में, किसी के द्वारा अनजाने में होनेवाली मनुष्य की ऐसी हत्या जो कानून की दृष्टि में विशेष अपराधपूर्ण नहीं होती। (होमीसाइड)
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नरहर  : स्त्री० [हिं० नल] पैर की वह हड्डी जो पिंडली के ऊपर होती है।
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नर-हरि  : पुं० [सं० उपमि० स०] नृसिंह भगवान जो दस अवतारों में से चौथे अवतार हैं। नृसिंह (अवतार)।
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नरहरी  : पुं० [सं०] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १४ और ५ के विराम से १९ मात्राएँ और अंत में एक नगण और एक गुरु होता है।
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नरहा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली वृक्ष जिसे चिल्ला (देखें) भी कहते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नर हीरा  : पुं० [हिं० नर=बड़ा+हिं० हीरा] वह बड़ा हीरा जिसके छः या आठ पहल हों।
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नरांतक  : पुं० [सं० नर-अंतक, ष० त०] रावण का एक पुत्र जो युद्ध में अंगद के हाथों मारा गया था।
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नरा  : पुं० [हिं० नल या नरकट] १. नरकट की वह छोटी नली जिसके ऊपर सूत लपेटा जाता है। २. खेत का वह गड्ढा जिसमें पानी भरा हो।
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नराच  : पुं० [सं० नाराच] १. तीर। बाण। २. चार चरणों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण, जगण, रगण, जगण और अंत में एक गुरु होता है। इसे पंचचामर और नागराज भी कहते हैं।
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नाराचिका  : स्त्री० [सं०] छन्द शास्त्र में वितान वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में नगण, रगण, लघु और गुरु होता है।
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नराज  : वि०=नाराज।
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नराजगी  : स्त्री०=नाराजगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नराजना  : स० [हिं० नराज] अप्रसन्न या नाराज करना। अ० अप्रसन्न या नाराज होना।
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नराट  : पुं० [सं० नरराट्] राजा।
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नराधम  : पुं० [सं० नर-अधम, स० त०] मनुष्यों में अधम या नीच व्यक्ति। बहुत बड़ा अधम या नीच।
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नराधार  : पुं० [सं० नर-आधार, ष० त०] महादेव। शिव।
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नराधिप  : पुं० [सं० नर-अधिप, ष० त०] राजा।
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नरायन  : पुं०=नारायण (विष्णु)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नराश, नराशन  : वि० [सं० नर√अश् (खाना)+अण्, नर-अशन, ब० स०] मनुष्यों को खानेवाला। पुं० राक्षस।
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नरिंद  : पुं०=नरेंद्र (राजा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नरि  : स्त्री०=नदी उदा०—दुसह जमुना नरि एलहुं भाँगि।—विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नरियर  : पुं०=नारियल।
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नरियरि  : स्त्री०=नरेली।
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नरियल  : पुं० =नारियल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नरिया  : पुं० [हिं० नाली] मिट्टी का एक प्रकार का बड़ा खपड़ा जो मकान की छाजन पर रखने के काम में आता है। यह अर्द्धवृत्ताकार और नली की तरह लंबा होता है और इसे ‘‘थपुआ’’ खपड़े की संधियों पर औंधाकर इसलिए रखते हैं कि उन संधियों में से पानी नीचे न चूने पावे।
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नरियाना  : अ०=नर्राना।
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नरी  : स्त्री० [?] १. बकरी या बकरे का रँगा हुआ चमड़ा। २. लाल रंग का चमड़ा। ३.सिझाया हुआ मुल्याम चमड़ा। स्त्री० [हिं० नल] १. नली। २. जुलाहों की ढरकी में की वह नली जिस पर सूत लपेटा जाता है। नार। ३. जलाशयों के किनारे होनेवाली एक प्रकार का घास। स्त्री० [फा०]=नरपन। स्त्री० [सं० नर=पुरुष] औरत। स्त्री। पुं० [?] एक प्रकार का बगला।
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नरु  : पुं०=नर (मनुष्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नरुआ  : पुं० [हिं० नल] [स्त्री० अल्पा० नरुई ] अनाज के पौधों का पतला डंठल जो अंदर से पोला होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नरेंद्र  : पुं० [सं० नर-इंद्र, ष० त०] १. राजा। नरेश। २. वह जो बिच्छू, साँप आदि का विष दूर करने की कला या विद्या जानता हो। विष-वैद्य। ३. श्योनाक। सोना-पाढ़ा। ४. सार नामक छंद का दूसरा नाम।
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नरेंद्र-मंडल  : पुं० [ष० त०] अंग्रेजी शासन-काल में देशी रियासतों के राजाओं की एक संस्था जो देशी रियासतों की हितरक्षा के उद्देश्य से बनी थी। (चैम्बर ऑफ प्रिंसेज)।
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नरेतर  : पुं० [सं० नर-इतर, पं० त०] मनुष्य से भिन्न श्रेणी का प्राणी अर्थात् जानवर या पशु।
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नरेबी  : स्त्री० [?] शिवसागर और सिलहट प्रदेशों में होनेवाला एक तरह का पेड़ जिसकी छाल से खाकी रंग निकलता है।
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नरेली  : स्त्री० [हिं० नारियल] १. छोटा नारियल। २. नारियल की खोपड़ी या उसका ऊपरी कड़ा आवरण। ३. नारियल की खोपड़ी का बना हुआ हुक्का।
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नरेश  : पुं० [सं० नर-ईश, ष० त०] मनुष्यों का स्वामी, राजा।
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नरेश्वर  : पुं० [सं० नर-ईश्वर, ष० त०] राजा।
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नरेस  : पुं०=नरेश।
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नरों  : अ० य०=नरसों (अतरसों)।
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नरोत्तम  : वि० [सं० नर-उत्तम, स० त०] नरों या मनुष्यों में उत्तम अर्थात् श्रेष्ठ। पुं० ईश्वर।
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नर्क  : पुं० दे० ‘नरक’।
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नर्कुट  : पुं०=नरकट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नर्कुटक  : पुं० [सं०] नासिका। नाक।
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नर्गिस  : स्त्री० [फा०] नरगिस।
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नर्गिसी  : वि० [फा०]=नरगिसी।
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नर्त  : पुं० [सं०√नृत् (नाचना)+अच्] नर्तक।
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नर्तक  : पुं० [सं०√नृत्त+ण्वुन्—अक] [स्त्री० नर्तकी] १. वह जो नाचता या नृत्य करता हो। नाचनेवाला व्यक्ति। नचनियाँ। २. नट। ३. चारण। ४. खड्ग की धार पर नाचनेवाला व्यक्ति। केलक। ५. राजा। ६. महादेव। शिव। ७. पुराणानुसार एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति धोबी पिता और वेश्या माता के कही गई है। ८. हाथी। ९. महुआ। १॰. नरकट।
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नर्तकी  : स्त्री० [सं० नर्तक+ङीष्] १. नाचने का पेशा करनेवाली स्त्री। २. नटी। ३. रंडी। वेश्या। ४. नली नामक गंध द्रव्य।
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नर्तन  : पुं० [सं√नृत्+ल्युट्—अन] १. नाचने की क्रिया या भाव। २. नाच। नृत्य।
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नर्तन-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] नृत्यशाला। नाचघर।
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नर्तना  : अ० [सं० नर्तन] नाचना। उदा०—लरत कहूँ पायक सुभट कहुँ नर्तत नटराज।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नर्तयिता (तृ)  : पुं० [सं०√नृत्+णिच्+तृच्] १. नाचनेवाला। २. नाच सिखलानेवाला।
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नतित  : वि० [सं०√नृत्+णिच्+क्त] १. नचाया हुआ। २. नाचता हुआ। ३. जो नाच चुका हो या नचाया जा चुका हो।
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नर्तु  : पुं० [सं०√नृतु+तुन् ] वह जो तलवार की धार पर नाचता हो।
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नर्तू  : स्त्री० [सं० नर्तु+ऊङ्] १. नर्तकी। २. अभिनेत्री।
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नर्द  : स्त्री० [फा०] १. चौसर का खेल। २. चौसर की गोटी।
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नर्दकी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की कपास। इसे कटील-निभरी और बगई भी कहते हैं।
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नर्दन  : पुं० [सं०√नर्द् (शब्द)+ल्युट्—अन] भीषण ध्वनि या नाद। गरज।
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नर्दबाज  : पुं० [फा० नर्दबाज] चौसर का खिलाड़ी।
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नर्दबाजी  : स्त्री० [फा०] १. चौसर खेलने का व्यसन।
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नर्दबान  : पुं० [फा०] १. सीढ़ी, विशेषतः काठ की सीढ़ी। २. मार्ग। रास्ता।
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नर्दमा  : पुं० [हिं० नल] वह नल जिसमें से कीचड़ और मैला पानी बहता हो। गंदा नाला।
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नर्दा  : पुं०=नर्मदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नर्दित  : वि० [सं०√नर्द+क्त] १. गरजा हुआ। २. गरजता हुआ। पुं० १. एक तरह का पासा। २. पासा फेंकने का एक ढंग।
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नर्बदा  : स्त्री०=नर्मदा।
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नर्म (न्)  : पुं० [सं०√नृ (ले जाना)+मनिन्] १. परिहास। हँसी-ठट्ठा। मजाक। २. साहित्य, में नायक का ऐसा सखा जो हँसी-ठट्ठा करके उसे प्रसन्न रखता हो। वि० दे० ‘नरम’।
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नर्मट  : पुं० [सं० नर्मन+अटन्, पृषो० सिद्धि] सूर्य।
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नर्मठ  : पुं० [सं० नर्मन्+अठन्, पृषो० सिद्धि] १. वह जो परिहास आदि में कुशल हो। दिल्लगीबाज। ठठोल। २. स्त्री का उपपति या यार। ३. ठोढ़ी। ४. स्तन।
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नर्मद  : वि० [सं० नर्मन्√दा (देना)+क] १. आनंद देनेवाला। २. सुख देनेवाला। पुं० १. परिहास-प्रिय। दिल्लगीबाज। ठठोल। मसखरा। २. भाँड़।
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नर्मदा  : स्त्री० [सं० नर्मद+टाप्] १. अमर-कंटक से निकलनेवाली एक प्रसिद्ध नदी जो भड़ौच के पास खंभात की खाड़ी में गिरती है। २. पुराणानुसार एक गन्धर्व स्त्री जो केतुमती, वसुदा और सुन्दरी की माता थी। ३. असवर्ग या पृक्का नामक गंध द्रव्य।
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नर्मदेश्वर  : पुं० [सं० नर्मद-ईश्वर, मध्य० स०] एक प्रकार का अंडाकार शिवलिंग जो नर्मदा नदी में से निकलते हैं।
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नर्म-द्युति  : स्त्री० [सं०] नाट्यशास्त्र के अनुसार प्रतिमुख संधि के तेरह अंगों में से एक।
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नर्म-सचिव, नर्म-सुहृद्  : पुं० [सं० स० त०] राजा का वह सखा जो उसका मन बहलाने और उसे हँसाने के लिए उसके साथ-साथ रहता हो। विदूषक।
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नर्मी  : स्त्री०=नरमी।
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नर्राना  : अ० [हिं० नला (गले का)] गला फाड़कर चिल्लाना।
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नर्री  : स्त्री० [?] १. एक प्रकार का बारहमासी घास जो ऊसर जमीन में भी होती है। २. हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का बाँस।
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नल  : पुं० [सं० नाल][स्त्री० अल्पा० नली]१. ऐसा वर्तुलाकार लंबा खंड या रचना जिसका भीतरी भाग खोखला या पोला हो और जिसके अंदर एक सिरे से दूसरे सिरे तक चीजें आती-जाती हों। जैसे—घरों में पानी पहुँचाने का (धातु का) नल। २. जल-कल का वह सिरा जिसमें टोंटी लगी होती है और जिसका पेंच दबाने या घुमाने से पानी निकलता है। जैस—नल के पानी से कुएँ का पानी अच्छा होता है। पद—नल-कूप। (देखें) ३. आधुनिक नगरों आदि में उक्त आकार प्रकार की वह वस्तु रचना जिसमें से होकर घरों का मल-मूत्र और गंदा पानी नगर के बाहर कहीं दूर ले जाकर गिराया या पहुँचाया जाता है। नाला। ४. पेडू के अंदर की वह नली जिसमें होकर पेशाब नीचे उतरता है। नला। मुहा०—नल टलना= किसी प्रकार के आघात आदि के कारण पेशाब की उक्त नाली में किसी प्रकार का व्यतिक्रम होना जिससे पेट में बहुत पीड़ा होती है। पुं० [सं०√नल् (महँकना, बाँधना)+अच्] १. नरकट २. कमल ३. निषध देश के चंद्रवंशी राजा वीरसेन के एक पुत्र जिनका विवाह विदर्भ देश के राजा भीमसेन की पुत्री दमयंती से हुआ था। (साहित्य में इन पति-पत्नी के संबंध में अनेक आख्यान और कथाएँ प्रसिद्ध हैं) ५. राम की सेना का एक बंदर जो विश्वकर्मा का पुत्र था तथा जिसने पत्थरों को तैराकर रामचंद्र की सेना के लिए समुद्र का पुल बाँधा था। ६. दानव का एक नाम दो विप्रचित्ति का चौथा पुत्र था और सिंहिका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ७. यदु के एक पुत्र का नाम। ८. प्राचीनकाल का (धौंसे की तरह का) एक प्रकार का बाजा जो युद्ध के समय घोड़े की पीठ पर रखकर बजाया जाता था। पुं० [सं० नर] आदमी। उदा०—कहहिं कबीर नल अजहुँ न जागा।—कबीर।
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नलक  : पुं० [सं० नल√कै (मालूम पड़ना)+क ] शरीर की कोई लंबी हड्डी।
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नलका  : पुं० [हिं० नल] १. एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से जमीन में से पानी ऊपर खींचा जाता है। (पश्चिम) २. वह नल जिसमें से नहाने पीने आदि का पानी घरों में पहुँचता है। ३. बड़ी नली। नल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नलकिनी  : स्त्री० [सं० नलक+इनि–ङीप्] १. जाँघ। रान। २. घुटना। जानु।
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नलकी  : स्त्री० [हिं० नलका] १. छोटा नल। नली। २. हुक्के के पेचवान,सटक आदि का वह अगला भाग जिसे मुँह में लगाकर धूआँ खींचा जाता है। (ट्यूबवेल)
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नल-कूप  : पुं० [हिं० नल+सं० कूप] एक विशेष प्रकार का आधुनिक यंत्र जिसके द्वारा सिंचाई के लिए जमीन के अंदर से पानी निकाला जाता है। (टयूबवेल)
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नल-कूबर  : पुं० [सं०] १. कुबेर का एक पुत्र। (महाभारत) २. ताल का एक भेद जिसमें चार गुरु और चार लघु मात्राएँ होती हैं।
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नलकोल  : पुं० [देश०] एक तरह का बैल।
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नल-दंबु  : पुं० [सं०] नीम (पेड़)।
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नलद  : पुं० [सं० नल√दो (टुकड़ा करना)+क] १. पुष्प रस। मकरंद। २. जटामासी। बालछड़। ३. उशीर। खस।
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नलदा  : स्त्री० [सं०] जटामासी। बालछड़।
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नलनी  : स्त्री०=नलिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नलनीरुह  : पुं० =नलनीरुह।
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नलपुर  : पुं० [सं०] बौद्ध ग्रंथों में उल्लिखित एक प्राचीन नगर।
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नलबाँस  : पुं० [हिं० नल+बाँस] हिमालय में होनेवाला एक प्रकार का बाँस जिसे बिधुली और देवबाँस (देखें) भी कहते हैं।
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नलमीन  : पुं० [सं०] झींगा मछली।
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नलवा  : पुं० [हिं० नल] १.बाँस की टोटी जिससे बैलों को घी पिलाया जाता है। चोंगा। २.बाँस आदि की कोई बड़ी और मोटी नली।
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नलवाही  : वि० [सं० नाल+वाहिन्] बंदूक धारण करनेवाला। पुं० सिपाही।
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नल-सेतु  : पुं० [सं० मध्य० स०] नल नामक बंदर का बनाया हुआ वह पुल जिस पर से रामचंद्र की सेना ने लंका में प्रेवश के समय समुद्र पार किया था।
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नला  : पुं० [हिं० नल] १. बहुत बड़ा नल। नाली। २. पेडू के अंदर की वह नाली जिससे से होकर पेशाब नीचे उतरता है। मुहा०—नला टलना=आघात आदि के कारण पेशाब की उक्त नाली का अपने स्थान से खिसक जाना जिसके फलस्वरूप पीड़ा होती है। ३. हाथ और पैर की वे लंबी हड्डियाँ जो बड़ी नली के आकार की होती है।
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नलाना  : स०=निराना।
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नलाई  : स्त्री०=निराई (खेत की)।
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नलिका  : स्त्री० [सं० नल+ठन्–इक, टाप् ] १. नल के आकार की कोई वर्तुलाकार, पोली, लंबी चीज। चोंगी। नली। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिसके विषय में कुछ लोगों का अनुमान है कि यह आजकल की बंदूक की तरह का होता था और इसके द्वारा लोहे की बहुत छोटी-छोटी गोलियाँ या तीर छोड़े जाते थे। ३.तीर रखने का तरकश। तूणीर। ४. करेमू नामक साग। ५. पुदीना। ६. प्राचीन भारतीय वैद्यक में एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से जलोदर के रोगी के पेट में का पानी बाहर निकाला जाता था। ७. मूँगे की तरह का एक प्रकार का गंध-द्रव्य जो वैद्यक में कृमि, अर्श और शूल रोग का नाशक तथा मलशोधक माना जाता है।
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नलित  : पुं० [सं०√नल् (बाँधना)+क्त] एक तरह का साग जो वैद्यक में पित्तनाशक और शुक्रवर्धक माना गया है।
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नलिन  : पुं० [सं०√नल+इनच्] [स्त्री० अल्पा० नलिनी] १. पद्य। कमल। २. नीलिका। नील। ३. जल। पानी। ४. नीम। ५. करौंदा। ६. सारस पक्षी। ७. नाड़िका नामक साग।
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नलिनी  : स्त्री० [सं० नल+इनि–ङीप्] १. कमलिनी। कमल। २. वह देश या स्थान जहाँ कमल अधिकता से होते हों। ३. नदी। ४. पुराणानुसार गंगा नदी की एक धारा या शाखा। ५. एक प्रकार का गंध द्रव्य। ६. नाक का बायाँ नथना। ७. नारियल की शराब। ८. सेमल की फली जो लाल रंग की और रूई से भरी हुई होती है। ९. एक तरह का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में पाँच-पाँच सगण होते हैं।
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नलिनीनंदन  : पुं० [सं० नलिनी√नन्द् (प्रसन्न होना)+ णिच्+ल्यु–अन] कुबेर का उपवन।
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नलिनीरूह  : पुं० [सं० नलिनी√रूह (उत्पत्ति)+क] १. कमल का नाल। मृणाल २. ब्रह्मा, जो कमल की नाल से निकले हुए माने जाते हैं।
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नलिनेशय  : पुं० [सं० नलिने√शी (सोना)+अच्] ब्रह्मा।
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नलिया  : पुं० [हिं० नल] बहेलिया जो नली की सहायता से तोते आदि पक्षी पकड़ता है।
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नली  : स्त्री० [सं०√नल्+अच्–ङीष्] १. मैनसिल। २. नलिका नाम का गन्ध द्रव्य। स्त्री० [हिं० नल का स्त्री० अल्पा] १. छोटा नल। २. शरीर में की वह मोटी गोल हड्डी जिसमें मज्जा होती है। ३. पिंडली में की बड़ी लंबी हड्डी। ४. धातु आदि का बना हुआ पोला भाग जो बंदूक के आगे लगा होता है और जिसमें से होकर गोली बाहर निकलती है। ५. जुलाहों की नाल।
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नली-मोज  : पुं० [?] एक तरह का कबूतर जिसके लंबे पर पंजों तक लटके होते हैं।
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नलुआ  : पुं० [हिं० नल] १. पशुओं का एक रोग। २. छोटा नल। ३. बाँस की पोर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नलोत्तम  : पुं० [सं० नल-उत्तम, स० त०] बड़ा नरसल। देव नरसल।
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नलोपाख्यान  : पुं० [सं० नल-उपाख्यान, ष० त०] १. राजा नल की कथा। २. महाभारत के वनपर्व का एक अवांतर पर्व।
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नल्ला  : पुं० [स्त्री० अल्पा० नल्ली ] १.=नल। २.=नाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नल्ली  : स्त्री० [देश०] एक तरह की घास जिसे पलवान भी कहते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नल्व  : पुं० [सं०√नल्+व] चार सौ हाथ की एक पुरानी नाप।
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नवंबर  : पुं० [अं० नवेम्बर] अँगरेजी वर्ष का ग्यारहवाँ महीना जो ३॰ दिनों का होता है।
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नव  : वि० [सं०√नु (स्तुति)+अप्] १. नया। नवीन। २. आधुनिक। वि० [सं० नवन] १. जो गिनती में आठ से एक अधिक हो। नौ। २. नौ तरह या प्रकार का। जैसे–नवरत्न। पुं० १. आठ और एक के योग की सूचक संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है–९। पुं० स्तोत्र। २. लाल गदहपूरना। ३. पुराणानुसार उशीनर का एक पुत्र।
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नवक  : वि० [सं० नव+कन्] जिसमें नौ हों। पुं० नौ वस्तुओं का कुलक या समूह। वि० [सं०] नया। स्त्री०=नौका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नव-कलेवर  : पुं० [सं० कर्म० स०] जगन्नाथपुरी में अधिमास के बाद पड़नेवाली रथ-यात्रा के समय होनेवाला वह उत्सव जिसमें जगन्नाथ की पुरानी मूर्ति के स्थान पर नई मूर्ति स्थापित की जाती है।
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नव-कल्प  : पुं० [सं० कर्म० स०] भू-तत्त्व विज्ञान के अनुसार पृथ्वी-रचना के इतिहास में मध्य कल्प के बाद का वह पाँचवाँ और आधुनिक कल्प जिसका आरंभ लगभग छः करोड़ वर्ष पहले हुआ था तथा जिसमें स्तनपायी जीवों और मनुष्यों की सृष्टि आरंभ होने लगी थी। (सेनोजोइक एरा)। विशेष–इसके पहले के चार कल्प ये हैं–आदि कल्प, उत्तर कल्प, पुरा कल्प और मध्य कल्प।
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नवका  : वि०=नया (नवीन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवकार  : पुं० [सं०] जैनों का एक प्रकार का मंत्र।
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नव-कारिका  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. नई विवाहिता स्त्री। २. बालिका, जो पहली बार रजस्वला हुई हो।
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नवकालिका  : स्त्री०=नवकारिका।
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नव-कुमारी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कुमारिका, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, काली, चंडिका, शांभवी, दुर्गा और सुभद्रा ये नौ कुमारियाँ जिनकी पूजा नौरात्र में की जाती है।
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नव-खंड  : पुं० [सं० द्विगु० स०] पुराणानुसार पृथ्वी के ये नौ खंड या ये विभाग, भारत, इलावृत्त, किंपुरुष, भद्र, केतुमाल, हरि, हिरण्य, रम्य और कुश।
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नव-ग्रह  : पुं० [सं० द्विगु० स०] सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ये नौ ग्रह (फ० ज्यो०)। विशेष–कर्मकांड के अनुसार इन्हीं नौ ग्रहों का पूजन होता है।
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नवग्रही  : वि० [सं० नव ग्रह+हिं० ई (प्रत्य०)] नवग्रह संबंधी। स्त्री० नौ ग्रहों के प्रतीक नौ रत्नों से जड़ा हुआ कोई गहना। जैसे–नवग्रही पहुँची, नवग्रही माला आदि। उदा०–गजरा नवग्रही प्रोंचिया प्रोंचे।–प्रिथीराज।
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नवछावरि  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नव-जात  : वि० [सं० कर्म० स०] (जीव) जिसका जन्म कुछ ही समय पहले हुआ हो।
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नव-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह बुखार जिसका अभी आरंभ हुआ हो। कुछ ही दिनों से आनेवाला ज्वर।
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नवड़ा  : पुं० [?] मरसा नामक साग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवतंतु  : पुं० [सं०] विश्वामित्र का एक पुत्र। (महा०)
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नवत  : पुं० [सं० √नु+अतच्] १. कंबल। २. हाथी की झूल। ३. आवरण।
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नवतन  : वि०=नूतन (नया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवता  : स्त्री० [सं० नव+तल्–टाप्] नवीनता। नयापन। पुं० [हिं० नवना] ढालुई जमीन। उतार। (कहार)
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नवति  : वि० [सं० नवन्+डति] जो संख्या में अस्सी से दस अधिक हों। नब्बे। स्त्री० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–९०।
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नवतिका  : स्त्री० [सं० नव√तिक् (गति)+क–टाप्] तूलिका।
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नव-दंडक  : पुं० [सं० ब० स०] पुरानी चाल का एक तरह का राज छत्र।
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नव-दल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. नया दल। (पत्ता) कल्ला। २. कमल की वह पंखुड़ी जो उसके केसर के पास होती है।
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नव-दीधिति  : पुं० [सं० ब० स०] मंगल ग्रह।
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नव-दुर्गा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चित्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदा जो दुर्गा के नौ रूप या विग्रह हैं।
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नव-द्वार  : पुं० [सं० द्विगु० स०] शरीर में के ये नौ द्वार, दो आँख, दो कान, दो नाक, दो गुप्तेंद्रियाँ, और एक मुख लोगों का विश्वास है कि जब मनुष्य मरने लगता है तब उसके प्राण इन्हीं नौ द्वारों में से किसी एक द्वार से होकर निकलते हैं।
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नवद्वीप  : पुं० [सं०] बंगाल प्रदेश में गंगा तट पर बसी हुई एक प्रसिद्ध प्राचीन नगरी जो राजा लक्षमण सेन की राजधानी थी। विशेष–पहले यहाँ छोटे-छोटे नौ गाँव थे, जिनके समूह को नवद्वीप कहते थे।
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नवधा  : अव्य० [सं० नवन्+धाच्] १. नौ प्रकार से। २. नौ भागों में। नौ टुकड़ों या खंडों में।
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नवधा-अंग  : पुं० [सं० सहसुपा स०] शरीर के ये नौ अंग, दो आँखें, दो कान, दो हाथ, दौ पैर और एक नाक।
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नवधा-भक्ति  : स्त्री० [सं० सहसुपा स०] १. भक्ति के ये नौ प्रकार–श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, बंदन, सख्य, दास्य और आत्मनिवेदन। २. उक्त नवों प्रकारों से की जानेवाली भक्ति।
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नवन  : पुं०=नमन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवना  : अ० [सं० नमन] १. नत होना। झुकना। २.किसी के सामने नम्र या विनीत होना।
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नवनि  : स्त्री० [सं० नमन] १. झुकने की क्रिया या भाव। २. नम्रता। विनय।
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नव-निधि  : स्त्री० [सं० द्विगु० स०] कुबेर की ये नौ निधियाँ–पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और खर्व।
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नवनी  : स्त्री० [सं० नव√नी (ले जाना)+ड–ङीष्] नवनीत।
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नवनीत  : पुं० [सं० √नी+क्त, नव-नीत, ष० त०] १. मक्खन। २. श्रीकृष्ण।
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नवनीतक  : पुं० [सं० नवनीत+कन्] १. घृत। घी। २. मक्खन।
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नवनीत-गणप  : पुं० [सं० उपमि० स०] एक गणपति। (पुराण०)
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नवनीत-धेनु  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] मक्खन की वह ढेरी जो धेनु के रूप में मान कर दान दी जाती है।
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नव-पत्रिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] केले, अनार, धान, हलदी, मानकच्ची, कच्चू, बेल, अशोक, और जयंती इन नौ वृक्षों की पत्तियाँ।
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नव-पद  : पुं० [सं० ब० स०] जैनों की एक उपास्य मूर्ति।
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नवपदी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] चौपाई या जनकरी छंद का एक नाम।
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नव-प्रसूत  : वि० [सं० कर्म० स०] नव-जात।
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नव-प्राशन  : पुं० [सं० ष० त०] नई फसल का अन्न या फल पहली बार खाना।
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नवफलिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] नवकलिका।
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नव-भक्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] दे० ‘नवधा-भक्ति’।
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नवम  : वि० [सं० नवन्+डट्–मट्] नौ के स्थान पर पड़नेवाला। नवाँ।
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नव-मल्लिका  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. चमेली (पौधा और उसका फूल) २. नेवारी (पौधा और फूल)।
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नवमांश  : पुं० [सं० नवम-अंश, कर्म० स०] १. किसी पदार्थ का नवाँ अंश या भाग। २. दे० ‘नवांश’।
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नव-मालिका  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक एक नगण, जगण, भगण, और यगण होता है। इसे ‘वन-मालिनी’ भी कहते हैं। २. नेवारी (पौधा और फूल)।
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नव-मालिनी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०]=नवमल्लिका।
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नव-युवक  : पुं० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० नवयुवती] जो अभी हाल में युवक हुआ हो। नौजवान। तरुण।
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नव-युवती  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नौजवान स्त्री। तरुणी।
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नव-युवा (वन्)  : पुं०=नवयुवक।
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नव-योनिन्यास  : पुं० [सं०] तंत्र में एक प्रकार का न्यास।
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नव-यौवन  : पुं० [सं० कर्म० स०] नई जवानी।
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नव-यौवना  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] वह स्त्री, जिसमें युवावस्था के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे हों। नौजवान स्त्री।
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नव-रंग  : वि० [सं० नव और रंग] १. नवीन अथवा निराली शोभावाला। सुंदर। २. नये ढंग का। नवेला। पुं०=नारंगी।
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नवरंगी  : वि० [हिं० नवरंग] १. सुंदर। २. रंगीला। स्त्री०=नारंगी।
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नव-रत्न  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. मोती, पन्ना, मानिक, गोमेद, हीरा, मूँगा, लहसुनियाँ, पद्मराग और नीलम ये नौ रत्न। २. गले में पहनने का एक प्रकार का हार जिसमें उक्त नौ प्रकार के अथवा अनेक प्रकार के रत्न जड़े होते हैं। २. धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेताल, भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि इन नौ महान् व्यक्तियों की सामूहिक संज्ञा। विशेष–किवदंती के अनुसार ये महाराज विक्रमादित्य की सभा के सदस्य माने जाते हैं। परंतु ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार यह बात अप्रामाणिक सिद्ध होती है। ४. एक प्रकार की मीठी चटनी जो कई तरह के मसालों के योग से बनती है।
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नव-रस  : पुं० [सं०] हिन्दी साहित्य में, श्रृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शांत ये नौ प्रकार के रस।
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नवरा  : वि०=नेवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=नवल।
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नवराता  : पुं०=नौराता (नवरात्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवरात्र  : पुं० [सं० नवन्-रात्रि, द्विगु स०,+अच्] १. नौ दिनों का समय। २. नौ दिनों में समाप्त होनेवाला एक तरह का यज्ञ। ३. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन। वसंती नवरात्र। ४. आश्विन् शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन। शारदीय नवरात्र। विशेष–उक्त वसंती और शारदीय नवरात्रों में दुर्गा का व्रत तथा पूजन किया जाता है।
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नवल  : वि० [सं०] १. नया। नवीन। २. ऐसा नया या नवीन जिसमें कोई नया आकर्षक या नई विशेषता हो। अनोखा और बढ़िया। ३. नव-युवक। जवान। ४. उज्जवल। स्वच्छ। पुं० [अं० नैवेल] वह भाड़ा जो सामान ढोने के बदले में जहाज के अधिकारी लेते हैं।
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नवल-अनंगा  : स्त्री० [सं०] मुग्धा नायिका का एक भेद। (केशव)।
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नवल-किशोर  : पुं० [सं०] श्रीकृष्णचंद्र।
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नवल-वधू  : स्त्री० [सं०] दे० ‘नवल अनंगा’।
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नवला  : स्त्री० [सं०] जवान स्त्री। तरुणी। युवती।
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नवलेवा  : पुं० [सं० नव+हिं० लेवा=कीचड़ का लेप] वह कीचड़ जो बढ़ी हुई नदी के उतरने पर बच रहता है नदी के किनारे की दलदल।
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नववरि (री)  : स्त्री० दे० ‘निछावर’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नव-वर्ष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. नया वर्ष। २. नये वर्ष के आरंभिक दिन।
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नव-वल्लभ  : पुं० [सं०] अगर नामक गन्ध द्रव्य का एक भेद।
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नव-वासुदेव  : पुं० [सं० मध्य० स०] त्रिपृष्ठ, द्विपष्ट, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, सिंहपुरुष, पुंडरीक, दत्त, लक्ष्मण, और श्रीकृष्ण ये नौ वासुदेव। (जैन)
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नव-वास्तु  : पुं० [सं० ब० स०] वैदिक काल के एक राजर्षि।
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नव-विंश  : वि० [सं० नवविंशति+डट्] उन्तीसवाँ।
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नव-विंशति  : वि० [सं० मध्य० स०] बीस और नौ। तीस से एक कम। पुं० उक्त के सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–२९।
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नव-विष  : पुं० [सं० द्विगु स०] वत्सनाभ, हारिद्रक, सक्तुक, प्रदीपन, सौराष्टिक, श्रृंगक, कालकूट, हलाहल, और ब्रह्मपुत्र ये नौ प्रकार के विष।
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नव-शक्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] प्रभा, माया, जया, सूक्ष्मा, विशुद्धा, नंदिनी, सुप्रभा, विजया, और सर्वसिद्धिदा ये नौ शक्तियाँ। (पुराण)
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नव-शायक  : पुं० [सं० मध्य० स०] ग्वाला, माली, तेली, जुलाहा, हलवाई, बरई, कुम्हार, लोहार, और हज्जाम ये नौ जातियाँ। (पारशर संहिता)
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नव-शिक्षित  : वि० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० नव-शिक्षिता] १. जिसने अभी हाल में कुछ पढ़ना-लिखना सीखा हो। २. नवीन शिक्षा पद्धति के अनुसार जिसे शिक्षा मिली हो।
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नव-शोभ  : वि० [सं० ब० स०] नई शोभावाला।
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नव-संगम  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. नया मिलन। २. पति और पत्नी की प्रथम भेंट या समागम।
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नवसत  : वि० [हिं० नव=नौ+सात] जो गिनती में नौ और सात अर्थात् १६ हो। पुं० स्त्रियों के होनेवाले सोलहों श्रृंगार।
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नव-सप्त (न्)  : पुं० [सं० द्व० स०]=नवसत।
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नवसर  : पुं० [हिं० नौ+सर=लड़ी] एक प्रकार का हार जिसमें नौ लड़ियाँ होती हैं। वि० [सं० नव-वत्सर] नई उमर का। नव वयस्क। पुं०=नौसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवससि  : पुं० [सं० नव-शशि] नया अर्थात् दूज का चंद्रमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नवसिखा  : वि०, पुं०=नौसिखुआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नवाँ  : वि० [सं० नव] नौ के स्थान पर पड़नेवाला।
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नवांग  : पुं० [सं० नवन-अंग, मध्य० स०] सोंठ, पीपल, मिर्च, हड़, बहेड़ा, आंवला, चाब, चीता और बायबिडंग ये नौ पदार्थ।
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नवांगा  : स्त्री० [ब० स०] काकड़ासिंगी।
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नवंश  : पुं० [सं० नव-अंश, कर्म० स०] १. किसी पदार्थ का नवाँ भाग। नवमांश। २. फलित ज्योतिष, में एकराशि का नवाँ भाग जिसका विचार नवजात बालक के चरित्र, आकार और चिह्र आदि निश्चित करने में होता है।
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नवा  : वि० [स्त्री० नवी]=नया। पुं० [फा०] १. आवाज। शब्द। २. गाना-बजाना। संगीत।
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नवाई  : स्त्री० [हिं० नवना] १. नवने अर्थात झुकने की क्रिया या भाव। नमन। २. किसी के आगे नम्र या विनीत होना। स्त्री० [सं० नव=नया] नयापन। नवीनता। वि०=नवा (नया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवागत  : वि० [सं० नव-आगत, कर्म० स०] १. नया आया हुआ। २. जो अभी आया हो। जैसे–नवागत अतिथि। ३. जिसका आविर्भाव अभी हाल में हुआ हो। जो कुछ ही पहले अस्तित्व में आया हो। जैसे–नवागत सेना अर्थात् नई भरती की हुई सेना।
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नवाजना  : स० [फा० नवाजिश] अनुग्रह या कृपा करना।
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नवाजिश  : स्त्री० [फा० नवाजि़श] अनुग्रह। कृपा। मेहरबानी।
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नवाड़ा  : पुं० [हिं० नाव] १. एक प्रकार की छोटी नाव। २. बीच धारा में नाव को इस प्रकार खेना कि वह चक्कर खाने लगे।
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नवान  : पुं०=नवान्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवाना  : स० [सं० नवन्] १. झुकाना। जैसे–किसी के आगे सिर नवाना। २. किसी को नम्र या विनीत होने में प्रवृत्त करना।
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नवान्न  : पुं० [सं० नव-अन्न, कर्म० स०] १. फसल का नया आया हुआ अनाज। २. ताजा पका या बना हुआ अन्न। ३. एक प्रकार का श्राद्ध जिसमें नया उपजा हुआ अन्न पितरों के नाम पर दिया या बाँटा जाता था। ४. पहले-पहल नई फसल का अन्न मुँह लगाने अर्थात् खाने की क्रिया या भाव।
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नवाब  : पुं० [अ० नव्वाब] १. बादशाह की ओर से नियुक्त किसी प्रदेश का प्रधान शासक। २. किसी प्रदेश का मुसलमान शासक। जैसे–रामपुर के नवाब। ३. मुसलमान रईसों को अँगरेजी शासन की ओर से मिलनेवाली एक उपाधि। ४. आवश्यकता से अधिक अपना अधिकार, ठाठ-बाट या प्रभुत्व दिखलानेवाला व्यक्ति। (व्यंग्य)
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नवाबजादा  : पुं० [अ० नव्वाब+फा० जादः] १. नवाह का पुत्र। नवाब का बेटा। २. वह जो बहुत बड़ा शौकीन हो तथा रईसों की तरह रहता हो।
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नवाबपसंद  : पुं० [फा०] १. भादों के अंतिम और क्वार के आरंभिक दिनों में होनेवाला एक प्रकार का धान। २. उक्त धान का चावल जो बढ़िया होता है।
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नवाबी  : वि० [हिं० नवाब+ई] १. नवाबों का। जैसे–नवाबी शासन। २. नवाबों के रंग-ढंग जैसा। नवाबों के अनुकरण पर किया हुआ। जैसे–नवाबी शान। स्त्री० १. नवाब होने की अवस्था या भाव। २. नवाब का कार्य या पद। ३. नवाबों का शासन-काल। ४. नवाबों की तरह ठाठ-बाट से रहने और खूब खरच करने की अवस्था या भाव। ५. नवाबों का सा मनामाना आचरण और ठसक या हुकूमत। पुं० पुरानी चाल का एक प्रकार का बढ़िया कपड़ा।
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नवाभ्युत्थान  : पुं० [सं० नव-अभ्युत्थान, कर्म० स०] नया अर्थात् दोबारा होनेवाला उत्थान।
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नवार  : वि०=नया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवारना  : अ० [?] १. चलना। टहलना। २. यात्रा या सफर करना। स०=निवारना (निवारण करना)।
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नवारा  : पुं०=नवाड़ा।
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नवारी  : स्त्री०=नेवारी (पौधा और उसका फूल)।
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नवार्चि (स्)  : पुं० [सं०] मंगल ग्रह।
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नवासा  : पुं० [फा० नवासः] बेटी का बेटा। नाती।
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नवासी  : वि० [सं० नवा शीति] जो संख्या में अस्सी से नौ अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या, जो इस प्रकार लिखी जाती है–८९। स्त्री० हिं० ‘नवासा’ का स्त्री०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवाह  : पुं० [सं०] चांद्र मास के किसी पक्ष का नया दिन। पुं० [सं० नवाह्न] नौ दिनों का समूह। वि० नौ दिनों तक चलता रहने या नौ दिनों में पूरा होनेवाला। जैसे–भागवत या रामायण का नवाह पाठ। पुं० [अ०] आस-पास या चारों ओर का क्षेत्र, प्रदेश या स्थान।
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नवि  : अव्य०=नहीं। उदा०–मारूँ नवि काढ़ूँ मगर, यही भाव मन आणिया।–जटमल।
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नविश्ता  : वि० [फा० नविश्तः] लिखा हुआ। लिखित।
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नवी  : स्त्री०=नोई (बछड़े के गले में बाँधने की रस्सी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [फा०] १. नवीन। २. आधुनिक। ३. पाश्चात्य।
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नवीन  : वि० [सं० नव+ख–ईन] [भाव० नवीनता] १.जो अभी का या थोड़े समय का हो। नया। नूतन। नया। ‘प्राचीन’ का विपर्याय। २. जो पहले-पहल या मूल रूप मे बना हो। जैसे–नवीन आदर्श। ३. अपूर्व और विचित्र या विलक्षण। अनोखा। ४. तरुण। नवयुवक।
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नवीनता  : स्त्री० [सं० नवीन+तल्–टाप्] नया होने की अवस्था या भाव। नूतनता।
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नवीनीकरण  : पुं० [सं० नवीन+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्–अन] १. नवीन रूप देने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज या बात की अवधि समाप्त होने पर उसे फिर से नियमित तथा वैध नया रूप देना या उसकी अवधि बढ़ाना। (रिन्यूअल)।
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नवीस  : वि० [फा०] समस्त पदों के अंत में, लिखनेवाला। लिपिक। जैसे–अर्जी नवीस।
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नवीसी  : स्त्री० [फा०] लिखने की क्रिया या भाव। लिखाई।
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नवेद  : पुं० [सं० निवेदन से फा०] १. शुभ सूचना। २. निमंत्रण। ३. निमंत्रण पत्र।
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नवेरड़ा  : वि० [स्त्री० नवेरड़ी] नवेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नवेला  : वि० [सं० नव] [स्त्री० नवेली] १. नवीन और सुन्दर। २. जिसमें औरों से अधिक कोई विशेषता हो और इसीलिए जो दूसरों से अच्छा या बढ़ा-चढ़ा समझा जाता हो।
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नवैयत  : स्त्री० [अ०] किसी वस्तु की विशिष्टता सूचित करनेवाला प्रकार या भेद। जैसे–इस बैनामे में खेत (या जमीन) की नवैयत तो लिखी ही नहीं है; अर्थात् यह नहीं लिखा है कि वह किस प्रकार या वर्ग की है।
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नवोढ़  : वि० [सं० नव-ऊढ, कर्म० स०] [स्त्री० नवोढ़ा] जिसका विवाह हाल में हुआ हो। पुं० १. विवाहिता पुरुष। २. नौजवान आदमी। नवयुवक।
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नवोढ़ा  : स्त्री० [सं० नव-ऊढा, कर्म० स०] १. नव-विवाहिता स्त्री। वधू। २. नौ जवान स्त्री। नव-युवती। ३. साहित्य में नव-विवाहिता लज्जाशीला नायिका, जिसे आचार्यों ने मुग्धा का और कुछ ने ज्ञातयौवना का एक स्वतंत्र भेद माना है।
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नवोदक  : पुं० [सं० नव-उदक, कर्म० स०] १. नया जल अर्थात् पहली वर्षा का जल अथवा नया कूआँ खोदने पर उससे से पहले-पहल निकाला जानेवाला जल।
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नवोद्धृत  : वि० [सं० नव-उद्धृत, कर्म० स०] नया उद्दृत किया हुआ। पुं० मक्खन।
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नव्य  : वि० [सं० नव+यत् ] १. नया। नवीन। २. आधुनिक। ३. जिसके आगे नमन करना उचित हो। पुं० लाल गदहपूरना।
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नव्वाब  : पुं०=नवाब।
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नव्वाबी  : वि०, स्त्री०=नवाबी।
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नशन  : पुं० [सं०√नश् (नाशहोना)+ल्युट्–अन] नष्ट होना। नाश। विनाश।
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नशना  : अ०[सं० नशन] नष्ट होना। स०=नाशना (नष्ट करना)।
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नसाखोर  : पुं० [फा० नश्शः+खोर] [भाव० नशाखोरी] वह जो किसी मादक पदार्थ का सेवन करता हो।
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नशाना  : स० [सं० नाशन] नष्ट करना। बरबाद करना। अ० १. नष्ट होना २. खो जाना। गुम होना। पुं०=निशाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नशावन  : वि० [सं० नाश] नष्ट या नाश करनेवाला।
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नशीन  : वि० [फा० नशी] [भाव० नशीनी] १. समस्त पदों के अंत में, बैठनेवाला। जैसे–तख्तनशीन (तख्त पर बैठनेवाला)। २. स्थित।
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नशीनी  : स्त्री० [फा०] नशीन अर्थात् बैठे हुए या स्थित होने की अवस्था, क्रिया या भाव। जैसे–तख्तनशीनी।
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नशीला  : वि० [फा० नश्शः+हिं० ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० नशीली] १. (पदार्थ) जिसके सेवन से नशा चढ़ता हो। मादक। २. (व्यक्ति) जो किसी मादक पदार्थ के प्रभाव के बेसुध या मस्त हो। ३. (शारीरिक अंग) जिसमें मादक वस्तु के सेवन के फलस्वरूप कोई विकार दृष्टि गोचर हो रहा हो। जैसे–नशीली आँखें।
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नशेड़ी  : वि० [हिं० नशा, भँगेड़ी का अनु०] नशेबाज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नशेब  : पुं० [फा० निशेब] १. नीची भूमि। २. निचाई।
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नशेबाज  : पुं० [अ० नश्शः+फा० बाज] [भाव० नशेबाजी] जो अभ्यासवश कोई नशा किया करता हो। जिसे कोई मादक पदार्थ सेवन करने की आदत पड़ी हो।
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नशोहर  : वि० [सं० नाश+हिं० ओहर] नाश करनेवाला। नाशक।
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नश्तर  : पुं० [फा० निश्तर] १. वह उपकरण जिससे शारीरिक अंगों की चीर-फाड़ की जाती है। क्रि० प्र०–देना।–लगाना। २. लोहे की वह बड़ी धारदार पट्टी जिसकी सहायता से दफ्तरी लोग कागज काटते हैं।
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नश्यत्प्रसूतिका  : स्त्री० [सं० नश्यन्ती-प्रसूति, ब० स० कप्, टाप्, इत्व] वह प्रसूता या जच्चा जिसका बच्चा मर गया हो।
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नश्र  : पुं० [अ०] १. मृतक का पुनः जीवित होना। २. किसी बात का चारों ओर फैलाया जाना। प्रसार।
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नश्वर  : वि० [सं०√नश्+क्वरप्] [भाव० नश्वरता] जिसका किसी दिन नाश होने को हो। जो सदा बना न रह सकता हो। नाश वान्।
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नश्वरता  : स्त्री० [सं० नश्वर+तल्–टाप्] नश्वर होने की अवस्था या भाव।
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नष  : पुं०=नख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नषत  : पुं०=नक्षत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नषना  : स० [सं० नक्ष ] १. फेंकना। २. डालना। ३. रोकना।
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नष-शिष  : पुं०=नख-सिख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नष्ट  : वि० [सं०√नश्+क्त] १. जो आँखों से ओझल हो गया हो। २. जो दिखाई न देता हो। अदृश्य। ३. जो इस तरह टूट-फूट या बिगड़ गया हो कि फिर काम में न आ सके। चौपट। बरबाद। जैसे–बाढ़ में बहुत से गाँव नष्ट हो गये। ४. जो मर या मिट चुका हो। जैसे–हमारी कई पीढ़ियां गुलामी में नष्ट हो चुकी हैं। ५. जो पूरी तरह से निष्फल या व्यर्थ हो गया हो। जैसे–तुमने हमारा सारा परिश्रम नष्ट कर दिया। ६. (व्यक्ति) जिसका चरित्र बहुत अधिक भ्रष्ट हो चुका हो। पतित और हीन। ७. धन-हीन। दरिद्र। पुं० १. नाश। विनाश। २. अदृश्य या तिरोहित होना।
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नष्ट-चंद्र  : पुं० [कर्म० स०] भादों के दोनों पक्षों की चतुर्थी तिथियों के चंद्रमा जिनके दर्शन का निषेध है। कहते हैं कि उक्त तिथियों में चन्द्रमा का दर्शन करने पर कलंक लगता है।
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नष्ट-चित्त  : वि० [ब० स०] १. जिसका विवेक नष्ट हो चुका हो। २. मद से उत्पन्न या बेसुध।
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नष्ट-चेत (स्)  : वि० [ब० स०] बे-सुध। बे-होश।
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नष्ट-चेष्ट  : वि० [ब० स०] जिसकी चेष्टाएँ करने की शक्ति नष्ट हो चुकी हो। जो कोई चेष्टा न कर सकता हो। चेष्टाहीन। निश्चेष्ट।
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नष्टचेष्टता  : स्त्री० [सं० नष्टचेष्ट+तल्–टाप्] १. नष्ट चेष्ट होने की अवस्था या भाव। २. बेहोशी। मूर्च्छा। ३. साहित्य में, एक प्रकार का सात्त्विक भाव जिसमें व्यक्ति ध्यान या प्रेम में लीन होकर निश्चेष्ट हो जाता है।
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नष्ट-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [ब० स०] जारज। दोगला।
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नष्ट-जातक  : पुं० [सं० कर्म० स०]=नष्ट-जन्मा।
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नष्टता  : स्त्री० [सं० नष्ट+तल्–टाप्] १. नष्ट होने की अवस्था या भाव। नाश। २. चरित्र आदि की भ्रष्टता।
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नष्ट-दृष्टि  : वि० [ब० स०] जिसमें देखने की शक्ति न रह गई हो।
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नष्ट-निधि  : वि० [ब० स०] १. जो अपनी संपत्ति गँवा चुका हो। २. जो अपने जीवन की सबसे प्रिय वस्तु खो चुका हो। पुं० दिवालिया।
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नष्ट-प्रभ  : वि० [ब० स०] जिसकी प्रभा नष्ट हो चुकी हो। जो कांति या तेज से रहित हो चुका हो।
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नष्ट-प्राय  : वि० [सुप्सुपा स०] जो बहुत-कुछ नष्ट हो चुका हो। जो पूरी तरह से नष्ट होने के पास पहुंच चुका हो।
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नष्ट-बुद्धि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी बुद्धि नष्ट हो चुकी हो। २. जिसकी बुद्धि बहुत बुरी हो।
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नष्ट-भ्रष्ट  : वि० [कर्म० स०] १. जो कट-फट या टूट-फूटकर किसी काम के लायक न रह गया हो। २. सब तरह से खराब और बरबाद।
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नष्ट-राज्य  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन देश।
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नष्ट-रूपा  : स्त्री० [ब० स० टाप् ] अनुष्टुप छन्द का एक भेद।
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नष्ट-विष  : वि० [ब० स०] (जीव) जिसमें विष न रह गया हो। जिसका विष नष्ट हो चुका हो।
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नष्ट-शुक्र  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसका शुक्र (वीर्य) नष्ट हो चुका हो।
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नष्टा  : स्त्री० [सं० नष्ट+टाप्] (स्त्री) जिसका चरित्र या सतीत्व नष्ट हो चुका हो। स्त्री० १. कुलटा। दुराचारिणी। २. रंडी। वेश्या।
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नष्टाग्नि  : पुं० [नष्ट-अग्नि, ब० स०] वह साग्निक ब्राह्मण या द्विज जिसके यहाँ की अग्नि आलस्य,प्रमाद आदि के कारण बुझ चुकी हो।
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नष्टात्मा (त्मन्)  : वि० [नष्ट-आत्मन्, ब० स०] १. जिसकी आत्मा नष्ट हो चुकी हो। २. बहुत बड़ा दुष्ट तथा नीच।
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नष्टाप्तिसूत्र  : पुं० [नष्ट-आप्ति, ष० त०, नष्टाप्ति-सूत्र, ष० त०] वह सूत्र या सुराग जिससे खोई या चोरी गई हुई चीज की खोज की जाती है।
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नष्टार्तव  : पुं० [सं० नष्ट-आर्तव, ब० स०] एक रोग जिसमें स्त्री का मासिक धर्म-बन्द हो जाता है। वि० [स्त्री०] जिसे मासिक धर्म न होता हो या जिसका मासिक धर्म होना बंद हो चुका हो।
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नष्टार्थ  : वि० [नष्ट-अर्थ, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसका धन नष्ट हो चुका हो। २. (शब्द) जिसका कोई अर्थ उससे बिलकुल छूट चुका हो।
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नष्टाश्वदग्धरथन्याय  : पुं० [नष्ट-अश्व, ब० स० दग्ध, रथ, ब० स० नष्टाश्व-दग्धरथ, द्व० स०, रथ-न्याय, ष० त०] घोड़ों के खोने और रथ के जलने की एक कथा पर आधारित एक न्याय जिसका आशय यह है कि दो व्यक्ति आपसी सहयोग से किसी काम में सफल हो सकते हैं। विशेष–दो व्यक्ति अपने-अपने रथों पर कहीं जा रहे थे। किसी पड़ाव पर एक व्यक्ति के घोड़े खो गये और दूसरे का रथ जल गया। तब एक के रथ में दूसरे के घोड़े जोतकर वे दोनों गंतव्य स्थान पर पहुँचने में समर्थ हुए थे।
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नष्टि  : स्त्री० [सं० नश्+क्तिन्] नष्ट होने की अवस्था या भाव। नाश।
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नष्टेन्द्रिय  : वि० [नष्ट-इंद्रिय, ब० स०] जिसकी इंद्रियाँ नष्ट अर्थात् अचेष्ट हो चुकी हों।
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नष्टेदुकला  : स्त्री० [नष्टा-इन्दुकला, ब० स०] १. प्रतिपदा। २. अमावस्या की रात।
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नसंक  : वि०=निःशंक।
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नस  : स्त्री० [सं० स्नायु] १. शरीर-शास्त्र की परिभाषा में, शरीर के अंदर का वह तंतु-जाल जिसकी सहायता से मांसपेशियाँ आपस में भी और हड्डियों के साथ भी बँधी या सटी रहती हैं। २. साधारण बोलचाल में, शरीर के अंदर की कोई रक्त-वाहिनी नली या नाड़ी। मुहा०–नस चढ़ना=खिंचाव, तनाव, दबाव आदि के कारण किसी नस का अपने स्थान से कुछ इधर-उधर हो जाना, जिससे कुछ पीड़ा और कभी-कभी कुछ सूजन भी होती है। (किसी की) नस ढीली होना=(क) अधिक परिश्रम करने के कारण शरीर इस प्रकार शिथिल होना कि मन में कुछ उत्साह या उमंग बाकी न रह जाय। (ख) किसी के द्वारा दंडित या पीड़ित होने पर अथवा संकट की स्थिति में पड़ने पर ओज, तेज आदि का ऐसा ह्रास होना कि मनुष्य निराश और हतोत्साह हो जाय। जैसे–इस मुकदमे में उनकी नस ढीली हो गई है। नस नस फड़क उठना=कोई अच्छी चीज या बात देख या सुनकर सारे शरीर में प्रसन्नता की लहर दौड़ जाना। नस पर नस चढ़ना=दे० ऊपर ‘नस-चढ़ना’। नस भड़कना=(क) दे० ऊपर ‘नस-चढ़ना’। (ख) उन्मत्त या पागल हो जाना (जो मस्तिष्क की किसी नस के विकृत होने का परिणाम माना जाता है)। पद–घोड़ा नस-(दे० स्वतन्त्र पद) नस नस में=सारे शरीर और उसके सब अंगों तथा उपांगों में। जैसे–पाजीपन तो उसकी नस नस में भरा है। ३. पुरुष या स्त्री की जननेंद्रिय। लिंग या भग। मुहा०–नस ढीली पड़ना या होना=काम-वासना, संभोग-शक्ति आदि का अभाव या ह्रास होना। ४. पत्तों आदि में चारों ओर फैले हुए वे मोटे तन्तु या रेशे जो उसके तल पर उभरे हुए दिखाई देते हैं। पुं०=नसवार या नस्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [अ०] १. कुरान की वह सूक्ति जिसका आशय स्पष्ट हो। २. ऐसी बात जिससे किसी प्रकार का भ्रम या संदेह न होता हो।
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नस-कट  : वि० [हिं० नस+काटना] १. नस या नसें काटनेवाला। २. जिससे नस कटती हो। पद–नस-कट खाट=ऐसी छोटी खाट जिससे एड़ी के ऊपर की नस में रगड़ लगे।
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नस-कटा  : पुं० [हिं० नस+काटना] १. जिसकी नस अर्थात् लिंगेंद्रिय काट ली गई हो। बखोजा। २. नपुंसक। हीजड़ा।
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नस-तरंग  : पुं० [हिं० नस+तरंग] पुरानी चाल का शहनाई की तरह का एक बाजा।
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नसतालीक  : वि०, पुं०=नस्तालीक।
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नसना  : अ० [सं० नशन] १. नष्ट होना। बरबाद होना। २. खराब होना। बिगड़ना। अ० [हिं० नटना] भागना। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नस-फाड़  : पुं० [हिं० नस+फाड़ना] हाथियों के पैर सूजने का एक रोग।
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नसब  : पुं० [अ०] १. कुल। खानदान। वंश। २. वंशावली।
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नसर  : स्त्री० [अ० नस्र] गद्य।
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नसरी  : स्त्री० [?] १. एक तरह की मधुमक्खी। २. उक्त मक्खी के छत्ते का मोम।
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नसल  : स्त्री० [अ० नस्ल] १. वंश। २. संतति।
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नसवार  : स्त्री० [हिं० नास+वार (प्रत्य०)] तमाकू के पत्तों की बुकनी जो प्रायः सूँघी जाती है। सूँघनी।
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नसहा  : वि० [हिं० नस+हा (प्रत्य०)] जिसमें नसें हों। नसोंवाला।
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नसा  : स्त्री० [सं०] नासिका। नाक। पुं०=नशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नसाना  : स० [सं० नाशन] १. नष्ट करना। २. खराब करना। बिगाड़ना। अ० १. नष्ट होना। २. खराब होना। बिगड़ना। स० [हिं० नासना] १. दूर करना या हटाना। २. भागना।
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नसावन  : स०, अ०=नसाना।
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नसी  : स्त्री० [?] १. हल की कुसी या फार की नोक। २. हल। पद–नसी-पूजा (दे०)।
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नसीठ  : पुं० [देश०] बुरा शकुन। असगुन।
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नसीत  : स्त्री०=नसीहत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नसीनी  : स्त्री०=निसेनी (सीढ़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नसी-पूजा  : स्त्री० [हिं० नसी+सं० पूजा] हल की वह पूजा जो खेत में बीज बोने के उपरांत की जाती है।
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नसीब  : पुं० [अ०] १. भाग्य। प्रारब्ध। किस्मत। तकदीर। २. हिस्सा। मुहा०—नसीब आजमाना=भाग्य की परीक्षा के भरोसे कोई काम करना। नसीब खुलना, चमकना, या सीधा होना=भाग्य का उदय होना। किस्मत चमकना। नसीब टेढ़ा होना=बुरे दिन आना। नसीब पलटना=भाग्य की स्थिति बदलना। वि० अच्छे भाग्य के कारण मिला हुआ। सौभाग्य से प्राप्त। (प्रायः नहिक वाक्यों में प्रयुक्त) जैसे–भला ऐसा मकान हमें कहाँ नसीब होगा।
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नसीब-जला  : वि० [अ० नसीब+हिं० जलना] [स्त्री० नसीब-जली] अभागा।
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नसीबवर  : वि० [अ०] भाग्यवान्। खुशकिस्मत।
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नसीबा  : पुं० [अ० नसीबः] नसीब। भाग्य।
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नसीम  : स्त्री० [अ०] १. वह जो दूसरों की सहायता करता हो। २. ईश्वर।
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नसीला  : वि० [स्त्री० नसीली] १.=नशीला। २.=नसहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नसीहत  : स्त्री० [अ०] १. अच्छी सम्मति। सत्परामर्श। २. सदुपदेश। ३. ऐसा दंड जिससे आगे के लिए कोई अच्छी शिक्षा मिलती हो ४. उक्त दंड के फलस्वरूप होनेवाला ज्ञान या मिलनेवाली शिक्षा। क्रि० प्र०–देना।–पाना।–मिलना।
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नसीहा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का हलका हल जिससे नरम जमीन जोती जाती है।
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नसूड़िया  : वि० [हिं० नासूर+इया (प्रत्य०)] १. नासूर संबंधी। २. बहुत ही उग्र और भीषण। ३. अमांगलिक। ४. जिसकी उपस्थिति या संपर्क से काम बिगड़ जाता हो। जैसे–नसूड़िया हाथ मत लगाओ।
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नसूर  : पुं०=नासूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नसेनी  : स्त्री०=निसेनी (सीढ़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नस्त  : पुं० [सं०√नस् (टेढ़ा होना)+क्त] १. नाक। २. नसवार। सुँघनी।
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नस्तक  : पुं० [सं० नस्त+कन्] १. पशुओं की नाक में किया हुआ छेद जिसमें रस्सी डाली जाती है। २. नाक में का छेद।
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नस्त-करण  : पुं० [ष० त०] नाक में दवा डालने का एक प्राचीन उपकरण।
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नस्तन  : पुं० [फा०] १. सेवती (सफेद गुलाब) का पौधा और उसका फूल। २. पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा।
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नस्ता  : पुं० [सं० नस्त+टाप्] नस्तक (दे०)।
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नस्तालीक  : वि० [अ० नस्तऽलीक ] जिसकी चाल-ढाल या रूप-रंग बहुत आकर्षक तथा सुन्दर हो। पुं० अरबी और फारसी लिपि लिखने का वह ढंग या प्रकार जिसमें अक्षर बहुत ही साफ सुडौल और सुपाठ्य रूप में लिखे जाते हैं। (उर्दू पुस्तकों की छपाई इसी लिपि में होती है)।
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नस्तित  : वि० [सं० नस्त+इतच्] १. (पशु) जिसे नाथ पहनाया गया हो। २. नत्थी में लगाया हुआ। (फाइल्ड) पुं० एक तरह का बैल।
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नस्य  : पुं० [सं० नासिका+यत्, नस् आदेश ] १. सुँघनी। नसवार। नास। २. वह औषधि जिसे नाक के रास्ते दिमाग मे चढ़ाया जाता है। ३.बैलों की नाक में बाँधी जानेवाली रस्सी। नाथ।
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नस्या  : स्त्री० [सं० नस्य+टाप्] १. नाक। २. नाक का छेद। नथना।
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नस्याधार  : पुं० [सं० नस्य-आधार, ष० त०] सुँघनी रखे का पात्र। नासदानी।
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नस्ल  : स्त्री० दे० ‘नसल’।
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नस्वर  : वि०=नश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नहँ  : पुं० [देश०] उत्तर प्रदेश में होनेवाला एक प्रकार का बढ़िया चावल। पुं०=नख (नाखून)। अव्य०=नहीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नह  : पुं०=नख (नाखून)।
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नहछू  : पुं० [सं० खक्षौर] १.एक प्रथा जिसमें विवाह से पहले वर के बाल, नाखून आदि काटे जाते हैं और उसे मेंहदी आदि लगाई जाती है। २. द्वार-पूजा के बाद की एक रीति जिसमें कन्या के नाखून काटे जाते हैं और उसे नहलाया जाता है।
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नहट्टा  : पुं० [हिं० नहँ=नाखून] नख-क्षत।
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नहन  : पुं० [हिं० नाँधना] मोट या पुरवट खींचने की मोटी रस्सी। नार।
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नहना  : स० [हिं० नाँधना] १. नाधना। २. बैलों आदि को हल में जोतना। ३. किसी को काम में लगाना।
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नहन्नी  : स्त्री०=नहरनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नहर  : स्त्री० [फा०] [वि० नहरी] १. सिंचाई और यातायात के निमित्त बनाया हुआ कृत्रिम जल-मार्ग। २. कोई ऐसी नाली जिसमें से द्रव पदार्थ चलता या बहता हो।
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नहरनी  : स्त्री० [हिं० नँह=नख] १. नाखून काटने का धारदार एक छोटा उपकरण। २. उक्त के आकार जैसा एक उपकरण जिससे पोस्ते की ढोंढी चीरते हैं।
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नहरम  : स्त्री० [देश०] एक तरह की मछली।
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नहरी  : वि० [फा० नहर+हिं० ई (प्रत्य०) नहर संबंधी। नहर का। जैसे–नहरी पानी। स्त्री० वह जमीन जिसकी सिंचाई नहर के पानी से होती हो।
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नहरुआ  : पुं०=नारू (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नहरू  : पुं०=नारू (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नहला  : पुं० [हिं० नौ] ताश का वह पत्ता जिसमें नौ बूटियाँ होती हैं। पुं० [?] धातु, लकड़ी आदि का करनी की तरह का एक औजार जिससे राज मिस्तरी, दीवारों पर बेल-बूटे का काम बनाने में सहायता लेते हैं।
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नहलाई  : स्त्री० [हिं० नहलाना+ई] १. नहलाने की क्रिया या भाव। २. नहलाने के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक या पुरस्कार। ३. नहलानेवाली दाई या दासी। जैसे–खिलाई, दाई, और नहलाई अलग अलग नियुक्त थीं।
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नहलाना  : स० [हिं० नहाना का स० रूप] [भाव० नहलाई] किसी को नहाने में प्रवृत्त करना।
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नहवाना  : स०=नहलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नहस  : वि० [अ० नह्स] अमांगलिक। अशुभ।
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नहसुत  : पुं० [सं० नख+सूत्र] नख की रेखा। नखक्षत। पुं० [सं० नख (वृक्ष)] पलास की तरह का एक पेड़। फरहद।
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नहाँ  : पुं० [सं० नख, हिं० नँह] १. पहिए के ठीक बीच का वह गोल छेद जिसमें धुरी पहनाई जाती है। २. घर के आगे का आंगन। ३. नख। नाखून। वि० नहँ अर्थात् नाखूनोंवला या नाखूनों की तरह का। जैसे–बघनहाँ।
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नहान  : पुं० [हिं० नहाना] १. नहाने की क्रिया या भाव। २. नहाने का शुभ अवसर या पर्व। जैसे–छठी का नहान, संक्रांति का नहान। ३. किसी शुभ अवसर पर बहुत से लोगों का एक साथ नहाना।
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नहाना  : अ० [सं० स्नान, प्रा० हारण, बुँदे० हनाना] १. खुले जल से पूरे शरीर को तर करना और धोना। स्नान करना। विशेष–(क) शरीर को स्वच्छ रखने के निमित्त नहाया जाता है। (ख) नहाने से आलस्य और थकान दूर होती है। पद–दूधों नहाओ पूतों फलो=धन और परिवार से समृद्ध होओ। (आर्शीवाद)। २. रजोधर्म से निवृत्त होने पर स्त्री का स्नान करना। ३. किसी तरल पदार्थ से शरीर का लथ-पथ होना। जैसे–पसीने या लहू से नहाना।
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नहानी  : स्त्री० [हिं० नहाना] १. रजस्वला स्त्री, जिसे चौथे दिन नहाकर शुद्ध होना पड़ता है। २6. स्त्री के रजस्वला होने की स्थिति।
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नहार  : वि० [सं० निराहार से फा० नाहार] १. निराहार। २. बासी मुँह। मुहा०—नहार तोड़ना=सबेरे के समय जलपान या हल्का भोजन करना। नहार रहना=निराहार या भूखे रहना। पद–नहार मुँह=सबेरे के समय बिना कुछ खाये या जलपान किये। जैसे–नहार मुँह उठकर चल पड़े थे।
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नहारी  : स्त्री० [हिं० नहार] १. वह हल्का भोजन जो एक दिन निराहार रहने पर दूसरे दिन बासी मुँह किया जाता है। २. जलपान। नाश्ता। ३. वह धन जो नौकरों-मजदूरों आदि को जलपान कराने के बदले में दिया जाता है। ४. घोड़ों को खिलाया जाने वाला गुड़ मिला हुआ आटा। ५. एक प्रकार का शोरबेदार गोश्त।
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नहिं  : अव्य०=नहीं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नहिअन  : पुं० [हिं० नहँ=नख] पैर की छोटी उँगली में पहनने का बिछिया के आकार का एक गहना।
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नहिक  : वि० [सं० नहि=नहीं+हिं० क (प्रत्य०)] १. अस्वीकृत करने या न माननेवाला। नहीं कहने या करनेवाला। नकारात्मक। २. जिसमें किसी विशेष वस्तु का अभाव हो। किसी विशिष्ट वस्तु, तत्त्व या बात से रहित। ३. जो किसी तत्त्व या बात का अवरोधक,बाधक या मारक हो। ४. (प्रतिकृति या मूर्ति) जिसमें मूल की छाया के स्थान पर प्रकाश और प्रकाश के स्थान पर छाया हो। सहिक का विपर्याय। (अपोजिट; उक्त सभी अर्थों के लिए) पुं० १. वह कथन या बात जिसमें कोई दूसरी बात न मानी गई हो या किसी बात से इनकार किया गया हो। असम्मति सूचक बात। २. किसी विषय, निश्चय आदि का वह अंश, अंग या पक्ष जिसमें उसके सहिक या सकारात्मक पक्ष का खंडन या विरोध हो। ३. किसी की वह प्रतिकृति या मूर्ति जिसमें मूल की छाया के स्थान पर प्रकाश और प्रकाश के स्थान पर छाया हो। ४. छाया-चित्र में वह शीशा जिस पर किसी वस्तु का उलटा प्रतिबिंब या आकृति अंकित होती है और जिससे कागज पर उसकी सही प्रतियाँ छापी जाती हैं। ‘सहिक’ का विपर्याय। (नेगिटिव, उक्त सभी अर्थों के लिए)
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नहियाँ  : स्त्री० दे० ‘नहिअन।’
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नहिरनी  : स्त्री०=नहरनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नहीं  : अव्य० [सं० नहि] एक अव्यय जिसका प्रयोग असहमति अस्वीकृति, विरोध आदि प्रकट करने के लिए होता है। मुहा०—नहीं तो=अमुक काम या बात न होने पर। अन्य या विपरीत अवस्था में।
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नहुष  : पुं० [सं०√नह् (बन्धन)+उषच्] १. अयोध्या के एक इक्ष्वाकु वंशी राजा जो अंबरीष का पुत्र और ययाति का पिता था। महाभारत में इसे चंद्रवंशी आयु राजा के पुत्र कहा गया है। २. एक प्राचीन ऋषि जो मनु के पुत्र कहे गये हैं और जो ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के द्रष्टा हैं। ३. एक नाग का नाम। ४. कुशिक वंशी एक ब्राह्मण राजा का नाम। ५. वैदिक काल के एक राजर्षि। ६. पुराणानुसार एक मरुत का नाम। ७. विष्णु का एक नाम।
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नहुषाख्य  : पुं० [सं० नहुष-आख्या, ब० स०] तगर पुष्प।
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नहुषात्मज  : पुं० [सं० नहुष-आत्मज्, ष० त०] ययाति।
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नहूर  : स्त्री० [देश०] एक तरह की तिब्बती भेंड़।
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नहूसत  : स्त्री० [अ०] नहस या मनहूस होने की अवस्था या भाव। मनहूसियत।
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नाँउँ  : पुं०=नाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नाँखना  : सं० [सं० नक्ष्] १. फेंकना। २. नष्ट करना। स० [सं० रक्षण ?] १. रखना। २. डालना (डिं०)। उदा०–रजतिणि सिर नाँखे गज-राज।–प्रिथीराज।
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नाँगा  : वि० [स्त्री० नाँगी]=नंगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० नंगा] वह साधु जो नंगा रहता हो। दे० ‘नागा’।
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नाँघना  : स०=लाँघना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाँठना  : अ० [सं० नष्ट] नष्ट होना।
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नाँद  : स्त्री० [सं० नंदक] चौडे़ मुँह तथा गोल पेंदेवाला मिट्टी का एक प्रकार का पात्र जिसमें गाय, भैंस आदि को चारा खिलाया जाता है।
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नाँदना  : अ० [सं० नंदन] १. आनंदित या प्रसन्न होना। २. दीपक का बुझने के पहले कुछ भभककर जलना। ३. दीपक की लौ का रह-रहकर नाचना या हिलना। अ० [सं० नाद] १. नाद या शब्द करना। २. शोर मचाना। चिल्लाना। ३. छींकना।
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नांदिकर  : पुं० [सं० नांदी√कृ+ट, ह्रस्व] सूत्रधार जो नांदी का पाठ करता है।
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नांदी  : स्त्री० [सं०√नन्द् (समृद्धि)+घञ्, पृषो० सिद्धि] १. अभ्युदय। समृद्धि। २. नाटक में वह आशीर्वादात्मक पद्य जो सूत्रधार अभिनय आरंभ करने से पहले मंगलाचरण के रूप में उच्च स्वर में गाता या पढ़ता है। मंगलाचरण।
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नांदीक  : पुं० [सं० नांदी√कै (प्रकाशित होना)+क] १. तोरण स्तंभ। २. दे० ‘नांदीमुखश्राद्ध’।
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नांदी-पट  : पुं० [ष० त०] लकड़ी की वह रचना जिससे कूएँ का ऊपरी भाग ढका जाता है।
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नांदी-मुख  : पुं० [ब० स०] १. कूएँ के ऊपर का ढकना। २.परिवार में किसी प्रकार की वृद्धि होने के शुभ अवसर पर पितरों का आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए किया जानेवाला श्राद्ध। वृद्धि श्राद्ध। वि० (पितर) जिनके उद्देश्य से नांदी-मुख श्राद्ध किया जाता है।
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नांदीमुखी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः दो नगण, दो तगण और दो गुरु होते हैं।
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नाँघना  : सं०=लाँघना।
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नाँब  : पुं० [सं०] अपने आप उगनेवाला धान।
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नाँयँ  : पुं०=नाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=नहीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाँवँ  : पुं०=नाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाँवगर  : पुं० [सं० नौका+घर] मल्लाह।
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नाँवाँ  : पुं० [हिं० नाम] १. नाम। २. बही-खाते में किसी के नाम पड़ी हुई चीज या रकम। ३. नगद रुपए-पैसे जो दिये या लिये जाने को हों। ४. दाम। मूल्य।
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नाँह  : पुं० [सं० नाथ] पति। स्वामी। अव्य०=नहीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ना  : अव्य० [सं० न] एक प्रत्यय जिसका प्रयोग किसी को कोई काम करने से या निषेध करने के लिए ‘न’ या नहीं की तरह होता है। जैसे–ना, ऐसा मत करो। विशेष–कुछ अवस्थाओं में लोग इसका प्रयोग भी न की तरह केवल आग्रह करने या जोर देने के लिए करते हैं। जैसे–अभी बैठो ना,अर्थात् बैठो न। पुं० [सं० नाभि] नाभि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=नर (मनुष्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) उप० [सं० न से फा०] एक उपसर्ग जिसका प्रयोग विशेषणों, और संज्ञाओं से पहले अभाव, नहिकता, अथवा विरोधी भाव प्रकट करने के लिए होता है। जैसे–ना-लायक, ना-समझी आदि।
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ना-इत्तिफाकी  : स्त्री० [फा०] १. इत्तिफाक अर्थात् मैत्रीपूर्ण एकता का अभाव होना। २. मतभेद।
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नाइन  : स्त्री० [हिं० नाई] १. नाई जाति की स्त्री। २. नाई की पत्नी।
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नाइब  : पुं०=नायब।
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नाईं  : स्त्री० [सं० न्याय] समान दशा। अव्य० १. तुल्य। समान। २. की तरह। जैसे। उदा०–कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई।–तुलसी। ३. लिए। वास्ते। उदा०—अल्लह राम जिवउं तेरे नाईं।–कबीर।
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नाई  : पुं० [सं० नापित] वह जो लोगों के बाल काटता और हजामत बनाता हो। नापित। हज्जाम। स्त्री० [?] नाकुलीकंद। स्त्री० [हिं० नखना=डालना]=नरका। (हल के पीछे की नली)।
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नाउ  : स्त्री०=नाव पुं०=नाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाउत  : पुं० [देश०] ओझा। सयाना।
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नाउन  : स्त्री०=नाइन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ना-उमेंद  : वि०=ना-उम्मीद।
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ना-उम्मीद  : वि० [फा०] [भाव० ना-उम्मीदी] जिसे आशापूर्ण होने की संभावना न दिखाई पड़ती हो।
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नाऊ  : पुं०=नाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाकंद  : वि० [फा० ना+कंद] १. (बछड़ा) जिसके दूध के दाँत अभी न टूटे हों। २. मूर्ख।
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नाक  : स्त्री० [सं० नासिका] १. जीव-जंतुओं या प्राणियों के चेहरे पर का वह उभरा हुआ लंबोतरा अंग जो आँखों के नीचे और मुख-विवर के ऊपर बीचो-बीच रहता है और जिसमें दोनों ओर वे दो नथने या छिद्र रहते हैं; जिनसे वे सांस लेते और सूँघते हैं। साँस लेने और सूँघने की इंद्रिय। विशेष–(क) नाक से बोलने और स्वरों आदि का उच्चारण करने में भी सहायता मिलती है। (ख) मस्तक या मस्तिष्क के अंदर के मल का कुछ अंश प्रायः कफ आदि के रूप में दोनों नथनों के रास्ते बाहर निकलता है। (ग) लोक व्यवहार में, नाक को प्रायः प्रतिष्ठा, मर्यादा, सौंदर्य आदि के प्रतीक के रूप में भी मानते हैं, जिसके आधार पर इसके अधिकतर मुहावरे बने हैं। पद–नाक का बाँसा=नाक के दोनों नथनों के बीच का भीतरी परदा। (किसी की) नाक का बाल=ऐसा व्यक्ति जो किसी बड़े आदमी का घनिष्ठ समीपवर्ती हो और साथ ही उस बड़े आदमी पर अपना यथेष्ट प्रभाव रखता हो। जैसे–उन दिनों वह खवास राजा साहब की नाक का बाल हो रहा था। नाक की सीध में=बिना इधर-उधर घूमे या मुड़े हुए और ठीक सामने या सीधे। जैसे–नाक की सीध में चले जाओ, सामने ही उनका मकान मिलेगा। बैठी हुई नाक=चिपटी नाक। मुहा०–नाक कटना=प्रतिष्ठा या मर्यादा नष्ट करना। इज्जत बिगाड़ना। (ख) अपनी तुलना में किसी को बहुत ही तुच्छ या हीन प्रमाणित अथवा सिद्ध करना। जैसे–यह मकान मुहल्ले भर के मकानों की नाक काटता है। नाक-कान (या नाक-चोटी) काटना=बहुत अधिक अपमानित और दंडित करने के लिए शरीर के उक्त अंग काटकर अलग कर देना। (किसी के आगे या सामने) नाक घिसना या रगड़ना=बहुत ही दीन-हीन बनकर और गिड़गिड़ाते हुए किसी प्रकार की प्रार्थना प्रतिज्ञा या याचना करना। नाक (अथवा नाक भौं) चढ़ाना या सिकोड़ना=आकृति से अरुचि, उपेक्षा, क्रोध, घृणा, विरक्ति आदि के भाव प्रकट या सूचित करना। जैसे–आप तो दूसरों का काम देखकर यों ही नाक (अथवा नाक-भौ) चढ़ाते या सिकोड़ते हैं। नाक तक खाना=इतना अधिक खाना या भोजन करना कि पेट में और कुछ भी खा सकने की जगह न रह जाय। (किसी स्थान पर) नाक तक न दी जाना=इतनी अधिक दुर्गंध होना कि आदमी से वहाँ खड़ा न रहा जा सके। नाक पकड़ते दम निकलना=इतना अधिक दुर्बल होना कि छू जाने से गिर पड़ने या मर जाने का डर हो। अधिक अशक्त या क्षीण होना। नाक पर उँगली रख कर बातें करना=स्त्रियों या हिजड़ों की तरह नखरे से बातें करना। नाक पर गुस्सा रहना या होना=ऐसी चिड़चिड़ी प्रकृति होना कि बात-बात पर क्रोध प्रकट होता रहे। जैसे–तुम्हारी तो नाक पर गुस्सा रहता है; अर्थात् तुम जरा सी बात पर बिगड़े जाते हो। (कोई चीज) किसी की नाक पर रख देना=किसी की चीज उसके मांगते ही तुरंत या ठीक समय पर उसे लौटा या दे देना। तुरंत दे देना। जैसे–हम हर महीने किराया उनकी नाक पर रख देते हैं। नाक पर दीया बाल कर आना=यशस्वी, विजयी या सफल होकर आना। (अपनी) नाक पर मक्खी न बैठने देना=इतनी खरी या साफ प्रकृति का होना कि किसी को भी कुछ भी कहने-सुनने का अवसर न मिले। (किसी की) नाक पर सुपारी तोड़ना या फोड़ना=बहुत अधिक तंग या परेशान करना। नाक फटना या फटने लगना=कहीं इतनी अधिक दुर्गंध होना कि आदमी से वहाँ खड़ा न रहा जा सके। नाक-भौं चढ़ाना या सिकोड़ना=दे० ऊपर ‘नाक चढ़ाना या सिकोड़ना’। नाक में तीर करना या डालना=खूब तंग या हैरान करना। बहुत सताना। नाक रगड़ना=दे० ऊपर ‘नाक घिसना’। नाक में बोलना=इस प्रकार बोलना कि श्वास का कुछ अंश नाक से भी निकले, और उच्चारण सानुनासिक हो। नकियाना। नाक लगाकर बैठना=अपने आपको बहुत प्रतिष्ठित या बड़ा समझते हुए औरों से बहुत-कुछ अलग या दूर रहना (किसी का) नाक में दम करना या लाना=बहुत अधिक तंग या हैरान करना। बहुत सताना। जैसे–इस लड़के ने हमारी नाक में दम कर दिया है। नाक मारना=दे० ऊपर ‘नाक चढ़ाना या सिकोड़ना’। नाक सिकोड़ना=दे० ऊपर। ‘नाक चढ़ाना या सिकोड़ना’। (किसी को) नाकों चने चबवाना=किसी को इतना अधिक तंग या दुःखी करना कि मानों उसे नाक के रास्ते चने चबाकर खाने के लिए विवश किया जा रहा हो। नाकों दम करना=दे० ऊपर ‘नाक में दम करना’। २. मस्तिष्क का वह तरल मल जो नाक के नथनों से होकर बाहर निकलता है। नेटा। रेंट। मुहा०–नाक छिनकना या सिनकना=नाक के रास्ते इस प्रकार जोर से हवा बाहर निकालना कि उसके साथ अंदर का कफ दूर जा गिरे। नाक बहना=सरदी आदि के कारण नाक से पतला कफ या पानी निकलना। ३. गौरव, प्रतिष्ठा या सम्मान की चीज, बात या व्यक्ति। जैसे–वही तो इस समय हमारे मुहल्ले की नाक हैं। उदा०–नाक पिनाकहिं संग सिधाई।–तुलसी। ४. किसी चीज के अगले या ऊपरी भाग में आगे की ओर निकला हुआ कुछ मोटा, नुकीला और लंबा अंग या अंश। ५. चरखे में लगी हुई वह खूँटी या हत्था जिसकी सहायता से उसे घुमाते या चलाते हैं। ६. लकड़ी का वह डंडा जिस पर रखकर पीतल आदि के बरतन खरादे जाते हैं। पुं० [सं० न-अक=दुःख, ब० स०] १. स्वर्ण। २. अंतरिक्ष। आकाश। ३. अस्त्र चालने का एक प्रकार का ढंग। पुं० [सं० नक्र] मगर की तरह का एक प्रकार का जल-जंतु। घड़ियाल। वि० [फा०] १. भरा हुआ। पूर्ण। (प्रत्यय के रूप में यौगिक शब्दों के अंत में) जैसे–खौफनाक, दर्दनाक।
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नाक-कटैया  : स्त्री० [हिं० नाक+काटना] १. नाक कटने या काटे जाने की अवस्था या भाव। २. रामलीला का वह प्रसंग जिसमें लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी और जिसके स्वाँग प्रायः राम-लीला के समय निकलते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाक-चर  : पुं० [सं०] देवता।
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नाकड़ा  : पुं० [हिं० नाक] नाक के पकने का एक रोग।
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ना-कदर  : वि० [फा० ना+अ० कद्र] [भाव० ना-कदरी] १. जिसकी कोई कदर न हो। जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो। २. जो किसी की कदर या आदर करना न जानता हो। जो गुण-ग्राही न हो।
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ना-कदरी  : स्त्री० [फा० ना+अ० कद्र] ऐसी स्थिति जिस में किसी का पूरा-पूरा या उचित आदर या सम्मान न हुआ या न किया गया हो।
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नाक-कटी  : स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नटी। अप्सरा।
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नाकना  : स० [सं० लंघन, हिं० नाँधना] १. उल्लंगन करना। डाँकना। लाँघना। २. दौड़, प्रतियोगिता आदि में किसी से आगे बढ़ जाना। स० [हिं० नाक+ना (प्रत्य०)] १. चारों ओर से नाके या रास्ते रोकना। नाकाबंदी। करना। ३. आने-जाने के सब द्वार या रास्ते बंद करके किसी को घेरना। ३. कठिनता या वाधा दूर करना या पार करना। उदा०–मैं नहिं काहू कौ कछु घाल्यौं पुन्यनि करवर नाक्यो।–सूर।
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नाक-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०]=नाक-पति।
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नाक-पति  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग के स्वामी, इंद्र।
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नाक-पृष्ठ  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग।
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नाक-बुद्धि  : वि० [हिं० नाक+बुद्धि] १. जो नाक से सूँघकर या गंध द्वारा ही भक्ष्याभक्ष्य भले-बुरे आदि का विचार कर सके, बुद्धि द्वारा नहीं। अर्थात् क्षुद्र या तुच्छ बुद्धिवाला। स्त्री० उक्त प्रकार की क्षुद्र या तुच्छ बुद्धि।
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नाक-वनिता  : स्त्री० [सं० ष० त०] अप्सरा।
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नाक-वास  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग में होनेवाला वास।
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नाक-षेधक  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र।
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नाका  : पुं० [हिं० नाकना] १. रास्ते आदि का वह छोर जिससे होकर लोग किसी ओर जाते, बढ़ते या मुड़ते हैं। प्रवेश द्वार। मुहाना। २. वह स्थान जहाँ से दुर्ग, नगर आदि में प्रवेश किया जाता है। जैसे–नाके पर पहरेदार खड़े थे। क्रि० प्र०–छेंकना।–बाँधना। पद–नाकेबंदी। (दे०) ३. उक्त के अंतर्गत वह स्थान जहाँ चौकी, पहरे आदि के लिए रक्षक या सिपाही रहते हों, अथवा जहाँ प्रवेश कर आदि उगाहे जाते हों। ४. चौकी। थाना। ५. सूई के सिरे का वह छेद जिसमें डोरा या तागा पिरोया जाता है। ६. करघे का वह अंश जिसमें तागे के ताने बँधे रहते हैं। पुं० [सं० नक्र] घड़ियाल या मगर की तरह का एक जल-जंतु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [अ० नाक] मादा ऊँट। ऊँटनी।
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नाकादार  : वि०, पुं०=नाकेदार।
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नाका-बंदी  : स्त्री०=नाकेबंदी।
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ना-काबिल  : वि० [फा० ना+अ० काबिल] [भाव० ना-काबिलियत] जो काबिल अर्थात् योग्य न हो। अयोग्य।
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ना-काम  : वि० [फा०] [भाव० नाकामी] जिसे अपने प्रयत्न में सफलता न मिली हो। ना-कामयाब।
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ना-कामयाब  : वि० [फा०] [भाव० ना-कामयाबी]=ना-काम।
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नाकारा  : वि० [फा० नाकारः] १. निष्कर्म। २. (व्यक्ति) जो किसी काम का न हो। निकम्मा। ३. (पदार्थ) जो काम में न आ सके। निष्प्रयोजन। पुं०=नकुल (नेवला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाकिस  : वि० [अ० नाकिस] १. जिसमें कोई नुक्स या दोष हों, अर्थात् खराब या बुरा। २. जिसमें अपूर्णता या त्रुटि हो। ३. निकम्मा। रद्दी। पुं० अरबी भाषा में वह शब्द जिसका अंतिम वर्ण अलिफ, वाव या ये हो।
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नाकी (किन्)  : वि० [सं० नाक+इनि] स्वर्ग में वास करनेवाला। पुं० देवता। स्त्री०=नक्की।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाकु  : पुं० [सं०√नम् (झुकना)+उ, नाक् आदेश] १. दीमकों की मिट्टी का दूह। बिभौट। बल्मीक। २. टीला। भीटा। ३. पर्वत। पहाड़। ४. एक प्राचीन ऋषि।
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नाकुल  : वि० [सं० नकुल+अण्] १. नकुल संबंधी। नेवले का। २. नेवले की तरह का। पुं० १. नकुल के वंशज या सन्तान। २. चव्य। चाब। ३. यवतिक्ता। ४. सेमल का मूसला। ५. रास्ना।
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नाकुलक  : वि० [सं० नकुल+ठञ्–क] नेवले की पूजा करनेवाला।
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नाकुलि  : पुं० [सं० नकुल+इञ्] १. नकुल का पुत्र। २. नकुल गोत्र का मनुष्य।
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नाकुली  : वि० [सं०] नकुल संबंधी। नकुल का। नाकुल। स्त्री० [सं० नकुल+अण्-ङीष्] १.एक प्रकार का कंद जो सब प्रकार के विषों, विशेषकर सर्प के विष को दूर करनेवाला कहा गया है। नाकुली दो प्रकार की होती है। एक नाकुली, दूसरी गंध-नाकुली जो कुछ अच्छी होती है। २. यवतिक्ता। ३. रास्ना। ४. चव्य। चाब। ५. सफेद भटकटैया।
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नाकू  : पुं० [सं० नक्र] घड़ियाल। मगर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाकेदार  : वि० [हिं० नाका+फा० दार] जिसमें कोई चीज पहनाने या पिरोने के लिए नाका या छेद हो। पुं० १. वह रक्षक या सिपाही जो किसी नाके पर चौकी पहरे आदि के लिए नियुक्त हो। २. एक अफसर या कर्मचारी जो आने-जाने के मुख्य स्थानों पर किसी प्रकार का कर, महसूल आदि वसूल करने के लिए नियत रहता हो।
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नाकेबंदी  : स्त्री० [हिं० नाका+फा० बंदी] १.ऐसी व्यवस्था जो नाका अर्थात् कहीं आने-जाने का मार्ग रोकने के लिए हो। २. आधुनिक राजनीति में विपक्षी या शत्रु के किसी तट, बंदरगाह अथवा स्नान को इस प्रकार घेरना कि न तो उसके अंदर कोई प्रवेश करने पावे और न वहाँ से कोई बाहर निकलने पावे। (ब्लाकेड)।
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नाकेश  : पुं० [सं० नाक-ईश, ष० त०] इंद्र।
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नाक्षत्र  : वि० [सं० नक्षत्र+अण्] १. नक्षत्र संबंधी। २. नक्षत्रों की गति आदि के विचार से जिसका मान निश्चित हो। जैसे–नाक्षत्र दिन, नाक्षत्र मास। पुं० चांद्र मास।
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नाक्षत्र-दिन  : पुं० [कर्म० स०] उतना समय जितना चंद्रमा को एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र तक पहुँचने अथवा एक को एक बार याम्योत्तर रेखा से होकर फिर वहीं आने में लगता है। नाक्षत्र मास का पूरा एक दिन। विशेष–यह ठीक उतना ही समय है जितना पृथ्वी को एक बार अपने अक्ष पर घूमने में लगता है। यह समय कभी घटता-बढ़ता नहीं; सदा एक सा रहता है; इसलिए ज्योतिषी लोग दिन-मान का ठीक और पूरा विचार करने के समय इसी का व्यवहार करते हैं।
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नाक्षत्र-मास  : पुं० [कर्म० स०] वह समय जितने में चंद्रमा को एक नक्षत्र से चल कर क्रमशः सब नक्षत्रों पर होते हुए फिर उसी नक्षत्र पर आने में लगता है और जो प्रायः २७-२८ दिनों का होता है।
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नाक्षत्र-वर्ष  : पुं० [कर्म० स०] १२ नाक्षत्र मासों का समूह।
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नाक्षत्रिक  : वि० [सं० नक्षत्र+ठक्–इक] [स्त्री० नाक्षत्रिकी] नक्षत्र संबंधी। नाक्षत्र। पुं० १. नाक्षत्र अर्थात् चांद्रमास। २. छंद शास्त्र में २७ मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
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नाख  : स्त्री० [फा० नाख] एक प्रकार का बढ़िया नाशपाती और उसका वृक्ष।
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नाखना  : स० [सं० नाशन] १. नष्ट करना। २. बिगाड़ना। ३. गिराना, डालना, फेंकना या रखना। ४. (शस्त्र) चलाना। स०=नाकना।
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नाखुदा  : वि० [फा० नाखुदा] खुदा को न माननेवाला। नास्तिक। पुं० १. मल्लाह। नाविक। २. कर्णधार।
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नाखुन  : पुं०=नाखून।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाखुना  : पुं० [फा० नाखुनः ] १.आँख का एक रोग जिसमें उसके तल पर खून की बिंदी या दाग पड़ जाता है। २. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनकी आँखों में लाल डोरे या धारियां पड़ जाती हैं। ३. एक प्रकार का अंगुश्ताना जिसे पहनकर चीराबंद लोग चीरा लगाते या बाँधते थे। पुं०=नाखूना (कपड़ा)।
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नाखुर  : पुं०=नहछू।
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ना-खुश  : वि० [फा०] [भाव० ना-खुशी] जो खुश या प्रसन्न न हो। अप्रसन्न। नाराज।
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नाखून  : पुं० [फा० नाखुन] १. हाथों तथा पैरों की उँगलियों के ऊपरी तल का वह सफेद अंश जो अधिक कड़ा और तेज धारवाला होता है। २. उक्त का वह चंद्राकार अगला भाग जो कैंची आदि से काटकर अलग किया जाता है। ३. चौपायों के पैरों का वह अगला भाग जो मनुष्य के नखों के समान कड़ा होता है। मुहा०—नाख़ून लेना=नाखून काटकर अलग करना। (घोड़े का) नाख़ून लेना=चलने में घोड़े का ठोकर खाना।
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नाखूना  : पुं० [हिं० नाखून] एक तरह का कपड़ा जिसका ताना सफेद होता है और बाने में कई रंगों की धारियाँ होती हैं। यह आगरे में बहुत बनता था। पुं०=नाखुना।
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नाग  : पुं० [सं० नग=पर्वत+अण्] [स्त्री० नागिन] १. सर्प। साँप। २. काले रंग का, बड़ा और फनवाला साँप। करैत। मुहा०—नाग खेलाना=नागों या साँपों को खेलाने की तरह का ऐसा विकट काम करना जिससे प्राण जाने का भय हो। ३. पुराणानुसार पाताल में रहनेवाला एक उप-देवता जिसका ऊपरी आधा भाग मनुष्य का और नीचेवाला आधा भाग साँप का कहा गया है। ४. कद्रु से उत्पन्न कश्यप की संतान जिनका निवास पाताल में माना गया है। इनके वासुकि, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड़, महापद्म और धनंजय ये आठ कुल हैं। ५. एक प्राचीन देश। ६. उक्त देश में बसनेवाली एक प्राचीन जाति। विशेष–नाग जाति संभवतः भारत के उत्तर में और हिमालय के उस पार रहती थी,क्योंकि तिब्बतवाले अपने आपको नाग-वंशी कहते हैं। महाभारत काल तक ये लोग भारत में आ गये थे। और उत्तर भारतीय आर्यों से इनका बहुत वैमनस्य था। इसी लिए जनमेजय ने बहुत से नागों का नाश किया था। बाद में ये लोग मध्यभारत में आ कर फैल गए थे; जहाँ नागपुर, छोटा नागपुर आदि नगर और प्रदेश इनके नाम की स्मृति के रूप में अब तक अवशिष्ट हैं। ये लोग नागों (बड़े बड़े फनदार साँपों) की पूजा करते थे। इसी से इनका यह नाम पड़ा था। बंगाल में अब तक हिंदुओं में ‘नाग’ एक जाति का नाम मिलता है। ७. एक प्राचीन पर्वत। ८. हाथी। ९. एक प्रकार की घास। १॰. नागकेसर। ११. पुन्नाग। १२. नागर-मोथा। १३. तांबूल। पान। १४. सीसा नामक धातु। १५. ज्योतिष के करणों मे से तीसरा, करण जिसे ‘ध्रुव’ भी कहते हैं। १६. बादल। मेघ। १७. दीवार में लगी हुई खूँटी। १८. कुछ लोगों के मत से सात की और कुछ के मत से आठ की संख्या। १९. आश्लेषा नक्षत्र का एक नाम। २॰. शरीर में रहनेवाले पाँच प्राणों या वायुओं में से एक जिससे डकार आता है। वि० १. (व्यक्ति) जो बहुत अधिक क्रूर घातक और दुष्ट हो। २. यौ० के अंत में, सब में श्रेष्ठ। जैसे–पुरुष नाग।
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नाग-कंद  : पुं० [ब० स०] हस्तिकंद।
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नाग-कन्या  : स्त्री० [ष० त०] नाग जाति की बालिका या स्त्री।
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नाग-कर्ण  : पुं० [ष० त०] १. हाथी का कान। २. एरंड या रेंड जिसका पत्ता हाथी के कान के आकार का होता है।
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नाग-किंजल्क  : पुं० [ब० स०] नागकेसर।
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नाग-कुमारिका  : स्त्री० [ष० त० ] १. गुरुच। गिलोय। २. मजीठ। ३. नाग-कन्या।
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नाग-केसर  : पुं० [ब० स०] एक सदाबहार वृक्ष और उसके सुगंधित फूल। इसके बीजों की गिनती गंध द्रव्यों में होती है।
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नाग-खंड  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार जंबू द्वीप के अंतर्गत भारतवर्ष के नौ खंडों में से एक खंड।
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नाग-गंधा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] नकुलकंद।
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नाग-गति  : स्त्री० [सं०] किसी ग्रह की अश्विनी भरणी और कृतिका नक्षत्रों से होकर निकलने की अवस्था या गति।
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नाग-गर्भ  : पुं० [ब० स०] सिंदूर।
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नाग-चंपा  : पुं० [सं०] नागकेसर (पेड़ और उसका फूल)।
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नाग-चूड़  : पुं० [ब० स०] शिव।
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नागच्छत्रा  : स्त्री० [सं०] नागदंती (वृक्ष)।
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नागज  : वि० [सं० नाग√जन् (उत्पत्ति)+ड] नाग से उत्पन्न। पुं० १. सिंदूर। २. राँगा।
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नाग-जिह्वा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. अनंतमूल। २. सारिवा।
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नाग-जिह्विका  : स्त्री० [ब० स० कप्, टाप्, इत्व] मैनसिल नामक खनिज द्रव्य।
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नाग-जीवन  : पुं० [ब० स०] फूँका हुआ राँगा।
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नाग-झाग  : पुं० [सं० नाग+हिं० झाग] १. साँप की लार। अहिफेन। २. अफीम।
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नाग-दंत  : पुं० [ष० त०] १. हाथी दांत। २. [नागदन्त+अच्] दीवार पर गड़ी हुई खूँटी।
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नाग-दंतिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] वृश्चिकाली नामक पौधा।
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नाग-दंती  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] कुंभा नामक औषधि।
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नाग-दमन  : पुं० [ष० त०] नागदौना (पौधा)।
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नाग-दमनी  : स्त्री०=नागदमन (नागदौना)।
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नागदला  : पुं० [सं० नाग-दल] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत कड़ी और मजबूत होती है और पानी में भी जल्दी नहीं सड़ती। इसलिए इसकी लकड़ी से नावें बनती हैं। इसके बीजों का तेल जलाने के काम आता है।
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नागदुमा  : वि० [सं० नाग+फा० दुम] जिसकी दुम या पूँछ नाग के फन के समान हो। पुं० उक्त प्रकार की दुमवाला हाथी जो ऐबी माना जाता है।
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नागदौन  : पुं० [सं० नागदमन] १. छोटे आकार का एक पहाड़ी पेड़। २. एक प्रकार का पौधा जिसमें डालियाँ नहीं होतीं, केवल हाथ-हाथ भर लंबे-लंबे पत्ते होते हैं जो देखने में साँप के फन की तरह होते हैं। कहते हैं कि इसके पास भी साँप नहीं आता। ३.एक प्रकार का कँटीला पेड़ जिसकी सूखी पत्तियां लोग कागजों और कपड़ों की तहों में उन्हें कीड़ों से बचाने के लिए रखते हैं।
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नाग-द्रु (द्रुम)  : पुं० [मध्य० स०] १. सेंहुड़। थूहर। २. नागफनी।
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नाग-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] भारतवर्ष के नौ खंडों में से एक खंड। (विष्णु पुराण)।
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नाग-धर  : वि० [ष० त०] नाग को धारण करनेवाला। पुं० शिव।
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नाग-ध्वनि  : स्त्री० [सं०] मल्लार और केदार या सूहा अथवा कान्हड़े और सारंग के योग से बनी हुई एक संकर रागिनी।
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नाग-नक्षत्र  : पुं० [मध्य० स०] आश्लेषा नक्षत्र।
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नाग-नग  : पुं० [सं० नाग+हिं० नग]=गज मुक्ता।
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नाग-नामक  : पुं० [ब० स०, कप्] रांगा।
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नाग-नामा (मन्)  : पुं० [ब० स०] तुलसी।
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नाग-पंचमी  : स्त्री० [मध्य० स०] श्रवण शुक्ला पंचमी के जिस दिन नागों की पूजा करने का विधान है।
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नाग-पति  : पुं० [ष० त०] १. साँपों के राजा, वासुकि। २. हाथियों के राजा, ऐरावत।
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नाग-पत्रा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्]=नागदमनी (नागदौना)।
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नाग-पत्री  : स्त्री०[ब० स०, ङीष्] लक्ष्मणा (कंद)।
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नाग-पद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रतिबंध जो सोलह रतिबंधों में से दूसरा माना जाता है।
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नाग-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] पान।
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नाग-पाश  : पुं० [उपमि० स०] १. वरुण का एक अस्त्र जिससे वे शत्रुओं को लपेटकर उसी प्रकार बाँध लेते थे जिस प्रकार नाग या सांप किसी चीज को अपने शरीर से लपेटकर बाँध लेता है। २. सर्पों का फंदा जो किसी चीज के चारों ओर अपना शरीर लपेटकर बनाते हैं ३. डोरी आदि का ढाई फेर का फंदा। नाग-बंध।
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नाग-पुर  : पुं० [ष० त०] १. नागों का पुर, पाताल। २. हस्तिना नामक पुर जहाँ पर्वत के रूप में स्वलील दानव ने गंगा का मार्ग रोका था।
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नाग-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. नागकेसर। २. पुन्नाग। ३. चंपा।
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नाग-पुष्पिका  : स्त्री० [ब० स० कन्, टाप्, इत्व] १. पीली जूही। २. नागदौन।
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नाग-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] १. नागदौन। २. मेढ़ा सींगी।
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नागपूत  : पुं० [सं० नागपुत्र कचनार की जाति की एक प्रकार की लता।
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नागफनी  : स्त्री० [हिं० नाग+फन] १. थूहर की जाति का एक प्रसिद्ध पौधा जिसमें टहनियाँ नहीं होतीं, केवल सांप के फन के आकार के मोटे गूदेदार दल एक दूसरे के ऊपर निकलते जाते हैं। इन दलों में बहुत से काँटे होते हैं जिनसे किसी स्थान को घेरने के लिए इसकी बाढ़ लगाई जाती है। २. नागफनी के दल के आकार की एक प्रकार की कटार जिसकी फल आगे की ओर चौड़ा और पीछे की ओर पतला होता है। ३. नरसिंघे की तरह का एक प्रार का नेपाली बाजा। ४. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना। ५. वह कौपीन या लँगोटी जो नागा साधु पहनते या बाँधते हैं।
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नाग-फल  : पुं० [ब० स०] परवल।
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नागफाँस  : पुं० [सं० नाग+हिं० फाँस ] नाग-पाश। (दे०)
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नाग-फेन  : पुं० [ष० त०] १. सांप की लार। २. अफीम।
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नाग-बंध  : पुं० [उपमि० स०] किसी चीज को लपेटकर बाँधने का वह विशेष प्रकार जो प्रायः वैसा ही होता है जैसा नाग का किसी जीव-जंतु या वृक्ष आदि को अपने शरीर से लपेटने का होता है। उदा०–सेस नाग कौ नाग-बंध तापर कसि बाँध्यौ।–रत्ना०।
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नाग-बंधु  : पुं० [ष० त०] पीपल का पेड़।
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नाग-बल  : वि० [ब० स०] हाथी की तरह बलवान्। पुं० भीम।
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नाग-बला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] गँगेरन।
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नागबेल  : स्त्री० [सं० नागवल्ली ] १.पान की बेल। पान। २. किसी चीज पर बनाई जानेवाली वह लहरियेदार बेल जो देखने में साँप की चाल की तरह जान पड़े। ३. घोड़े आदि पशुओं की टेढ़ी-तिरछी चाल।
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नाग-भगिनी  : स्त्री० [ष० त०] जरत्कारु (वासुकि की बहन)।
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नाग-भिद्  : पुं० [नाग√भिद् (विदारण)+क्विप्] १. सर्पों की एक जाति। २. उक्त जाति का सर्प, जो बहुत ही जहरीला और भीषण होता है।
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नाग-भूषण  : पुं० [ब० स०] शिव।
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नागमंडलिक  : पुं० [सं० नाग-मंडल, ष० त०+ठन्–इक] सँपेरा।
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नागमरोड़  : पुं० [हिं० नाग+मरोड़ना] कुश्ती का एक पेंच जिसमें प्रतिद्वंद्वी को अपनी गर्दन के ऊपर या कमर से एक हाथ से घसीटते हुए गिराते हैं।
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नाग-मल्ल  : पुं० [सं० त०] ऐरावत।
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नाग-माता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०] १. नागों की माता, कद्रु। २. सुरसा नाम की राक्षसी। ३. मनसा देवी। ४. मैनसिल।
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नाग-मार  : पुं० [नाग√मृ (मरना)+णिच्+अच्] काला भँगरा।
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नाग-मुख  : पुं० [ब० स०] गणेश।
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नाग-यष्टि  : स्त्री० [मध्य० स०] तालाब के बीचोबीच गढ़ा हुआ लकड़ी या पत्थर का खंभा।
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नाग-रंग  : पुं० [ब० स०] नारंगी।
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नागर  : वि० [सं० नगर+अण्] [स्त्री० नागरी, भाव० नागरता] १. नगर-संबंधी। नगर का। (अर्बन) २. नगरवासियों में होने अथवा उनसे संबंध रखनेवाला। (सिविल)। जैसे–नागर अधिकार। (सिविल राइट) नगरपालिका, महापालिका या नगर परिषद् से संबंध रखनेवाला। (म्युनिस्पल) जैसे–नागर निधि। (म्युनिस्पल फंड) ४. नागरिकों और उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों से संबंध रखनेवाला। (सिविक) ५. चतुर। होशियार। पुं० १. नगर में रहनेवाला व्यक्ति। नागरिक। २. चतुर, शिष्ट, और सभ्य व्यक्ति। ३.विवाहिता स्त्री का देवर। ४. सोंठ। ५. नागर मोथा। ६. नारंगी। ७. गुजरात प्रदेश में रहनेवाले ब्राह्मणों की एक जाति। ८. नागरी लिपि का कोई अक्षर। पुं० [?] दीवार का टेढ़ापन।
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नागरक  : पुं० [सं० नगर+वुञ्–अक] १. नगर का प्रबंध या शासन करनेवाला अधिकारी। २. कारीगर। शिल्पी। ३. चोर। ४. कामशास्त्र में एक प्रकार का आसन या रतिबंध। ५. सोंठ। वि०=नागर।
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नाग-रक्त  : पुं० [मध्य० स०] १. सर्प का रक्त। २. हाथी का रक्त। ३. सिंदूर।
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नागर-धन  : पुं० [मयू० स०] नागर मोथा।
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नागरता  : स्त्री० [सं० नागर+तल्–टाप्] नागर होने की अवस्था, गुण या भाव। (सिटिजनशिप) २. आचार, व्यवहार आदि का वैसा सभ्यतापूर्ण और शिष्ट प्रकार जैसा साधारणतः सिक्षित और सभ्य नगरवासियों में प्रचलित हो। (सिविलिटी) ३. चतुरता। ४. दे० नागरिकता’।
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नागरनट  : पुं०=नटनागर।
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नागर-बेल  : स्त्री० [सं० नागवल्ली] पान की बेल।
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नागर-मुस्ता  : स्त्री० [उपमि० स०]=नागरमोथा।
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नागरमोथा  : पुं० [सं० नागरोत्थ] एक प्रकार का तृण जिसकी पत्तियाँ मूँज या सर की पत्तियों की तरह होती और दवा के काम आती हैं।
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नाग-राज  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा सर्प। २. शेषनाग। ३. ऐरावत। ४. नराच या पंचामर चंद का एक नाम।
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नागराह्वन  : पुं० [सं० नागर-आह्वा, ब० स०] सोंठ।
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नागरिक  : वि० [सं० नगर+ठञ्–इक] [भाव० नागरिकता] १. (व्यक्ति) जिसने नगर में जन्म लिया हो और नगर में ही जिसका पालन-पोषण हुआ हो। २. चतुर। चालाक। पुं० किसी राज्य में जन्म लेनेवाला वह व्यक्ति जिसे उस राज्य में रहने, नौकरी या व्यापार आदि करने, संपत्ति रखने तथा स्वतन्तत्रापूर्वक अपने विचार आदि प्रकट करने के अधिकार जन्म से ही स्वतः प्राप्त होते हैं। (सिटिजन) विशेष–अन्य राज्यों में जन्म लेनेवाले व्यक्ति भी कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में तथा कुछ विशिष्ट शर्तें पूरी करने पर किसी दूसरे राज्य के नागरिक बन सकते हैं।
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नागरिकता  : स्त्री० [सं० नागरिक+तल्–टाप्] १. नागरिक होने की अवस्था, पद या भाव। २. नागरिक होने पर प्राप्त होनेवाले अधिकार तथा सुविधाएँ।
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नागरिक-शास्त्र  : पुं० [ष० त० या मध्य० स०] वह शास्त्र जिसमें नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का उल्लेख और उसके देश, जाति आदि के परस्पर संबंधों पर विचार होता है। (सिविक्स)
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नाग-रिपु  : पुं० [ष० त०] शेर। सिंह।
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नाग-रिपुछाला  : स्त्री० दे० ‘बाघंबर।’
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नागरी  : स्त्री० [सं० नागर+ङीष्] १. नगर की रहनेवाली स्त्री। शहर की औरत। २. चतुर या होशियार स्त्री। ३. पशु आदि की मादा। जैसे–नाग-नागरी=हथिनी। ४. थूहर। ५. पत्थर की मोटाई नापने की एक नाप। ६. पत्थर का बहुत बड़ा और मोटा चौकोर टुकड़ा। ७. देव-नागरी नाम की लिपि। दे० ‘देवनागरी’।
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नागरीट  : पुं० [सं० नागरी√इट् (गति)+क०] १. कामुक और व्यसनी पुरुष। २. स्त्री का उपपति। जार। ३. विवाह करानेवाला व्यक्ति। घटक।
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नागरुक  : पुं० [सं० नाग√रु (गति)+क बा०] नारंगी (वृक्ष और फल)।
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नाग-रेणु  : पुं० [ष० त०] सिंदूर।
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नागरेयक  : वि० [सं० नगर+ठकञ्—एय] १. जो नगर में उत्पन्न हुआ हो। २. नागरिक संबंधी। जैसे–नागरेयक अधिकार।
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नागरोत्थ  : पुं० [सं० नागर-उद्√स्था (स्थिति)+क] नागरमोथा।
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नागर्य्थ  : पुं० [सं० नागर+ष्यञ्] १. नागरता। २. नगरवासियों की सी चतुराई या चालाकी।
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नागल  : पुं० [देश०] १. हल। २. वह रस्सी जिससे बैल जूए में जोड़े या बाँधे जाते हैं।
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नाग-लता  : स्त्री० [उपमि० स०] पान की बेल।
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नाग-लोक  : पुं० [ष० त०] नागों का देश, पाताल।
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नाग-वंश  : पुं० [ष० त०] १. नागों का वंश। २. शक जाति की एक शाखा।
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नागवंशी (शिन्)  : वि० [सं० नागवंश+इनि] १. नागवंश में उत्पन्न २. नागवंश-संबंधी।
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नाग-वल्लरी  : स्त्री० [उपमि० स०] पान।
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नाग-वल्ली  : स्त्री० [उपमि० स०] पान की लता।
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ना-गवार  : वि० [फा० ना+गवार=अच्छा लगनेवाला] [भाव० नागवारी] अच्छा न लगनेवाला। अप्रिय या अरुचिकर।
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ना-गवारा  : वि०=नागवार।
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नाग-वारिक  : पुं० [सं० नाग-वार, ष० त०+ठक्–इक] १. राज-कुंजर। २. हाथियों का झुंड। 3. महावत ४. गरुड़। ५.मोर।
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नाग-वीथी  : स्त्री० [ष० त०] १. चन्द्रमा के मार्ग का वह अंश जिसमें अश्विनी, भरणी, और कृत्तिका नक्षत्र पड़ते हैं। २. कश्यप की एक पुत्री।
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नाग-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] नागकेसर नामक पेड़।
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नाग-शत  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन पर्वत। (महाभारत)
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नाग-शुंडी  : स्त्री० [सं० नाग-शुंड, ष० त०,+अच्–ङीष्] एक प्रकार की ककड़ी।
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नाग-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] मकान की नींव रखते समय इस बात का रखा जानेवाला ध्यान कि कहीं पहला आघात सर्प के मस्तक या पीठ पर न पड़े। विशेष–फलित ज्योतिष में, विशिष्ट समयों में सर्प का मुख निश्चित दिशाओं में माना जाता है। भादों, कुआर और कार्तिक में पूरब की ओर अगहन, पूस और माघ में दक्षिण की ओर आदि आदि सर्प का मुख होता है। कहते हैं कि सर्प के मस्तक पर पहला आघात लगने से स्वामिनी की मृत्यु होती है। पेट पर होनेवाला आघात शुभ माना जाता है।
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नाग-संभव  : पुं० [ब० स०] १. सिंदूर। २. एक प्रकार का मोती।
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नाग-संभूत  : पुं० [पं० त०]=नाग-संभव।
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नाग-साह्वय  : पुं० [ब० स०] हस्तिनापुर।
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नाग-सुगंधा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] एक प्रकार की रास्ना।
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नाग-स्तोकक  : पुं० [सं०] वत्सनाभ नामक विष।
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नाग-स्फोता  : स्त्री० [उपमि० स०] १. नागदंती। २. दंतीवृक्ष।
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नाग-हनु  : पुं० [ष० त०] नख नामक गंध द्रव्य।
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ना-गहाँ  : क्रि० वि० [फा०] १. अचानक। अकस्मात्। एकाएक। २. कुसमय में।
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ना-गहानी  : वि० [फा०] अकस्मात् या अचानक आकर उपस्थित होनेवाला। जैसे–नागहानी, आफत बला या मौत।
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नागांग  : पुं० [नाग-अंग, ब० स०] हस्तिनापुर।
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नागांगना  : स्त्री० [ना-गअंगना, ष० त०] हथिनी।
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नागांचला  : स्त्री० [नाग-अंचल, ब० स०, टाप्०] नाग-यष्टि।
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नागांजना  : स्त्री० [नाग-अंजन, ब० स०, टाप्] १. नागयष्टि। २. हथिनी।
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नागांतक  : वि० [नाग-अंतक, ष० त०] नागों का अंत या नाश करनेवाला। पुं० १. गरुड़। २. मोर। ३. सिंह।
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नागा  : वि० [सं० नग्न] १. नंगा २. खाली। रहित। रीता। उदा०–नागे हाथ ते गए जिनके लाख करोड़।–कबीर। पुं० १. शैव साधुओं का एक प्रसिद्ध संप्रदाय। २. उक्त संप्रदाय के साधु जो प्रायः बिलकुल नंगे रहते हैं। पुं० [सं० नाग] १. असम देश की एक पर्वत-माला। २. एक प्रकार की अर्द्ध-सभ्य जंगली जाति जो उक्त पर्वत-माला पर रहती है। पुं० [तुं० नागः] १. वह दिन जिसमें कोई व्यक्ति अपने काम पर उपस्थित न हुआ हो। जैसे–नौकर ने इस महीने में चार नागे किये हैं। २. वह दिन जिमसें परम्परा आदि के कारण कोई काम नहीं किया जाता अथवा काम पर उपस्थित नहीं हुआ जाता। जैसे–रविवार को प्रायः नौकर नागा करते हैं। ३. वह दिन जिसमें कोई नित्य किया जानेवाला काम छूट या रह जाय। जैसे–पढ़ाई का नागा, दूकान का नागा। ४. अनवधान के कारण होनेवाली चूक या व्यतिक्रम। उदा०–नागा करमन कौ करत दुरि छिपि छिपि।–सेनापति। क्रि० प्र०–करना।–देना।–पड़ना।
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नागाख्य  : पुं० [नाग-आख्या, ब० स०] नागकेसर।
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नागानंद  : पुं० [सं०] हर्ष का एक प्रसिद्ध नाटक।
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नागानन  : पुं० [नाग-आनन, ब० स०] गणेश।
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नागाभिभू  : पुं० [सं०] महात्मा बुद्ध।
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नागाराति  : वि०, पुं० [नाग-आरति, ष० त०]=नागांतक।
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नागारि  : पुं० [नाग-अरि, ष० त०]=नागांतक।
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नागार्जुन  : पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध बौद्ध चिंतक जो माध्यमिक शाखा के प्रवर्तक और बौद्ध धर्म के प्रचारक थे और जिन्होंने बौद्ध धर्म को दार्शनिक रूप दिया था। इनका समय ईसा से लगभग १00 वर्ष अथवा ईशवी पहली शती के आस-पास माना गया है।
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नागार्जुनी  : स्त्री० [सं०] दुद्धी नाम की घास।
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नागालाबु  : पुं० [नाग-अलाबु, उपमि० स०] गोल कद्दू।
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नागाशन  : वि० [नाग-अशन, ष० त०] नागों का नाशक। पुं० १. गरुण। २. मोर। ३. सिंह। शेर।
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नागाश्रय  : पुं० [नाग-आश्रय, ष० त०] हस्तिकंद।
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नागाह्व  : पुं० [ब० स०]नागकेसर (वृक्ष और फूल)।
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नागाह्वा  : स्त्री० [सं० नाग-आह्व√हवे (स्पर्धा)+अच्–टाप्] लक्ष्मणकंद।
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नागिन  : स्त्री० [सं०] १. नाग जाति की स्त्री। २. नाग (सर्प) की मादा। ३. बोलचाल में दूसरों का अपकार, अहित आदि करनेवाली दुष्ट और निष्ठुर स्त्री। ४. मनुष्यों, पशुओं आदि की गरदन या पीठ पर होनेवाली एक प्रकार की भौंरी या लंबी रोमावली जो बहुत ही अशुभ मानी जाती है।
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नागिनी  : स्त्री०=नागिन।
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नागो (गिन्)  : पुं० [नाग+इनि] शिव। महादेव। स्त्री० सं० [‘नाग’ की स्त्री०] हथिनी।
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नागुला  : पुं० [सं० नकुल] १. नेवला। २. नाकुली नाम की वनस्पति।
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नागेंद्र  : पुं० [नाग-इंद्र, ष० त०] १. बहुत बड़ा साँप। २. वासुकि, शेष आदि नाग। ३. बहुत बड़ा हाथी। ४. ऐरावत।
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नागेश  : पुं० [नाग-ईश, ष० त०] १. नागेश। शेषनाग। २. वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध।
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नागेसर  : पुं० १.=नागकेसर। २.=नागेश्वर।
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नागेसरी  : वि० [हिं० नागेसर] नागकेसर के रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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नागोद  : पुं० [सं०] लोगे का तवे के आकार का वह उपकरण, जिसे प्राचीन काल में योद्धा छाती पर बाँधते थे। पुं०=नागौद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नागोदर  : पुं० [नाग-उदर, ब० स०, कप-टाप् इत्व] एक प्रकार का दस्ताना जो युद्ध में हाथ की रक्षा के लिए पहना जाता था। (कौ०)
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नागोद्भेद  : पुं० [नाग-उद्भेद, ब० स०] मेरु पर्वत का एक स्थान जहां सरस्वती की गुप्त धारा ऊपर देखाई पड़ती है।
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नागौद  : पुं० [हिं० नव+नगर] मारवाड़ के अंतर्गत एक नगर जहाँ की गौएँ और बैल बहुत प्रसिद्ध हैं।
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नागौर  : पुं०=नागौद। वि०=नागौरा।
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नागौरा  : वि० [हिं० नागौद] [स्त्री० नागौरी] १. नागौद या नागौर नाम नगरी से संबंध रखनेवाला। २. अच्छी या बढ़िया जाति या नसल का (चौपाया)।
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नागौरी  : वि० [हिं० नागौद] १. नागौर का। २. अच्छी जाति या नसल का (चौपाया)। जैसे नागौरी जाति का बैल। पुं० नागौर का बैल। स्त्री० १. नागौर की गाय। २. छोटी टिकिया की तरह की एक प्रकार की फूली हुई पूरी। (पकवान)
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नाच  : पुं० [सं० नृत्य, प्रा० नच्च या नाच्च] १. नाचने की क्रिया जो संगीत का एक प्रसिद्ध अंग है और जिसमें अनेक प्रकार के हावभाव कलात्मक ढंग से प्रदर्शित करने के लिए पैर थिरकाते हुए शरीर के भिन्न-भिन्न अंग आकर्षक तथा मनोहर रूप से और ताल-लय आदि से युक्त रखकर संचालित किये जाते हैं। (दे० ‘नाचना’)। विशेष–नाच का आरम्भ मुख्यतः अपने मन का उल्लास और निश्चिंतापूर्ण प्रसन्नता प्रकट करने के प्रसंग में हुआ था; और अब तक जंगली था अर्द्धसभ्य जातियों के लोग तथा अनेक पशु-पक्षी इसी प्रकार नाचते हैं; पर बाद में जब इसका कला-पक्ष विशेष विकसित हुआ, तब दूसरों के मनोरंजन के लिए भी लोग नाच दिखाने लगे और कुछ पशुओं को अपने ढंग पर नाच सिखाने लगे। मुहा०–नाच काछना=नाचने के लिए तैयार होना। २. लाक्षणिक रूप में अनेक प्रकार के कौतुकों से युक्त कुछ विलक्षण प्रकार की होनेवाली क्रियाएँ और गतियाँ। मुहा०–(किसी को) तरह-तरह के नाच नचाना=मनमाने ढंग से किसी को अनेक प्रकार के ऐसे असंगत और विलक्षण कार्य में प्रवृत्त करना, जिससे वह तंग, दुःखी या परेशान हो। ३. किसी प्रकार की कौतुकपूर्ण क्रिया या गति, जो देखने में क्रीड़ा या खेल की तरह जान पड़े। जैसे–वह बहुत तरह के नाच नाच चुका है।
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नाच-कूद  : स्त्री० [हिं० नाच+कूद] १. रह-रहकर नाचने और कूदने की क्रिया या भाव। २. ऐसा कृत्य जो दूसरों की दृष्टि में तमाशे का-सा मनोरंजक और हास्यास्पद हो। ३. ऐसा बड़ा उद्योग या प्रयत्न जो अंत में प्रायः निरर्थक सिद्ध हो।
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नाच-घर  : पुं० [सं० नाच+घर] वह स्थान जहाँ नाचना-गाना आदि होता हो। नृत्यशाला।
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नाचना  : अ० [सं० नर्तन, हिं० नाच] १. उमंग में आकर और विशुद्ध हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करने के लिए पैरों को थिरकाते हुए और अनेक प्रकार से शरीर के भिन्न-भिन्न अंग हिलाते हुए मनमाने ढंग से उछलना-कूदना। जैसे–सरदार को सकुशल लौटते देखकर सब भील नाचने लगे। मुहा०–नाच उठना=बहुत अधिक प्रसन्नता के आवेग में उछल पड़ना। जैसे–पिताजी के हाथ में खिलौने और मिठाइयाँ देखकर बच्चे नाच उठे। २. उक्त प्रकार के अंग-संचालन और शारीरिक गतियों का वह कलात्मक विकसित रूप, जो आज-कल शिक्षित और सभ्य समाजों में प्रचलित है, और जिसके साथ ताल और लय का मेल तथा गाना-बजाना भी सम्मिलित हो गया है। ३. किसी पदार्थ का बहुत-कुछ उसी प्रकार की चक्राकार गति में आना या होना, जैसे चक्राकार गति नाच के समय मनुष्य की होती है। जैसे–आतिशबाजी की चरखी या लट्टू का नाचना। ४. किसी वस्तु या व्यक्ति का रह-रहकर जल्दी-जल्दी इधर-उधर आना-जाना, हिलना-डुलना या किसी प्रकार की गति में होना। जैसे–(क) यह लड़का दिन भर इधर-उधर नाचता रहता है; कहीं स्थिर होकर नहीं बैठता। (ख) जब हवा चलती है, तब दीए की लौ नाचती रहती है। (ग) शिकारी का तीर नाचता हुआ सामने से निकल गया। मुहा०–(किसी अशुभ बात का) सिर पर नाचना=इतना पास आ पहुँचना कि तुरन्त कोई बुरा परिणाम दिखाई पड़ सकता हो। जैसे–(क) ऐसा जान पड़ता है कि उसके सिर पर मौत नाच रही है। (ख) अब तुम्हारा पाप तुम्हारे सिर पर नाचने लगा है। आँखों के सामने नाचना=उपस्थित या प्रस्तुत न होने पर भी रह-रहकर सामने आता या होता हुआ दिखाई देना। जैसे–वह भीषण दृश्य अब तक मेरी आँखों के सामने नाच रहा है। ५. किसी प्रकार के तीव्र मनोवेग के फलस्वरूप उग्र या विकट रूप से इधर-उधर होना। जैसे–क्रोध से नाच उठना। ६. अनेक प्रकार के ऐसे सांसारिक प्रपंचों और प्रयत्नों में लगे रहना जिनका कोई विशेष सुखद परिणाम न हो। उदा०–अब मैं नाच्यौं बहुत गोपाल।–सूर। ७. दूसरों के कहने पर चलना अथवा उनके इंगितों का अनुसरण करते चलना। जैसे–तुम जिस तरह नचाते हो, मैं उसी तरह नाचता हूँ।
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नाच-महल  : पुं० नाचघर।
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नाच-रंग  : पुं० [हिं० नाच+रंग] १. वह उत्सव या जलसा जिसमें नाचगाना हो। २. आमोद-प्रमोद।
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ना-चाकी  : स्त्री० [फा० ना+तु० चाकी] १. वैमनस्य। २. अनबन। ३. रोग।
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ना-चार  : वि० [फा०] [भाव० नाचारी] १. जिसका कोई चारा या प्रतिकार न हो सकता हो। ३. लाचार। विवश। ३. तुच्छ। निरर्थक। व्यर्थ। (क्व०)। क्रि० वि० लाचार या विवश होकर।
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नाचिकेत  : पुं० [सं० नचिकेतस्+अण्] १. अग्नि। २. नचिकेता (ऋषि)।
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ना-चीज  : वि० [फा० नाचीज] १. जिसकी गिनती किसी चीज में न हो अर्थात् तुच्छ और हीन। २. निकम्मा या रद्दी। विशेष–कभी-कभी वक्त इसका प्रयोग अति नम्रता प्रदर्शित करने के लिए अपने संबंध में भी करता है।
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नाचीन  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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नाज  : पं० [हिं० अनाज] १. अनाज। अन्न। २. भोजन की सामग्री। खाद्य पदार्थ। पुं० [फा० नाज] १. आकृष्ट करने या लुभाने के लिए दिखाये जानेवाले कोमल हाव-भाव। चोचला। ठसक। नखरा। मुहा०–(किसी के) नाज उठाना=किसी को प्रसन्न रखने के लिए बिना रुष्ट हुए उसके चोचले या नखरे सहना। पद–नाज-अदा, नाज-नखरा। २. किसी की वह देख-रेख जो बहुत दुलार, प्यार, लाड़ या सम्मान से की जाय। जैसे–यह लड़का बहुत नाज (या नाजों) से पाला हुआ है। ३. ऐसा अभिमान या गर्व जो साधारण होने के सिवा प्रशंसनीय या वांछनीय भी हो। जैसे–हमें अपने मुल्क पर नाज है।
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नाज-अदा  : स्त्री० [फा०] अंगभंगी। (दे०)
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नाज-नख़रा  : पुं० [फा०] किसी को आकृष्ट करने के लिए कुछ कुछ मानपूर्वक की जानेवाली मोहक चेष्टाएँ।
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नाज़नी  : वि० [फा०] सुंदर। स्त्री०=सुंदर स्त्री।
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नाज़-बरदारी  : स्त्री० [फा०] किसी के चोचले या नखरे सहन करना।
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नाजबू  : स्त्री० [फा०] मरुआ (पौधा और फूल)।
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नाज़रीन  : पुं० बहु० [अ० नाज़िर (=दर्शक) का बहु०, शुद्ध रूप नाजिरीन] उपस्थित दर्शक-गण।
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नाजाँ  : वि० [फा० नाजाँ] किसी प्रकार के गुण, विशेषता आदि का अभिमान या गर्व करनेवाला।
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ना-जायज  : वि० [फा० नाजायज़] १. जो जायज अर्थात् उचित न हो। २. जो नियम, विधि आदि के विरुद्ध हो। अवैध।
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नाजिम  : पुं० [फा० नाज़िम] १. मुसलमानी शासन में किसी प्रदेश या प्रान्त का प्रबन्ध करनेवाला अधिकारी। २. आज-कल कचहरी या न्यायालय के किसी विभाग के लिपिकों आदि का प्रधान अधिकारी। २. मंत्री। सेक्रेटरी।
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नाजिर  : वि० [अ० नाज़िर] १. देखनेवाला। दर्शक। २. देख-रेख करनेवाला। निरीक्षक। पुं० १. वह जो किसी विभाग के लिपिकों आदि का प्रधान अधिकारी हो। २. मुसलमानी शासन में अन्तःपुर, या महल की रक्षा करनेवाला अधिकारी जो हिजड़ा होता था। ३. नाचने-गानेवाली वेश्याओं का दलाल।
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नाजिरात  : स्त्री० [हिं० नाज़िर+आत (प्रत्य०)] १. नाजिर का काम, पद या भाव। २. नाजिर का कार्यालय। ३. वह दलाली जो नाजिर को नाचने-गानेवाली वेश्याओं आदि से मिलती है।
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नाजिरीन  : पुं०=नाज़रीन।
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नाज़िल  : वि० [अ० नाज़िल] १. जो ऊपर से (अर्थात् ईश्वर की ओर से) नीचे आया या उतरा हो। अवतरित। २. आया हुआ।
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नाजी  : पुं० [जर० नात्सी] १. जर्मनी का एक प्रसिद्ध राजनीतिक दल, जो अपने आप को राष्ट्रीय साम्यवादी कहता था, और जिसका पराभव दूसरे महायुद्ध में हुआ था। २. उक्त दल या सदस्य। वि० बहुत ही क्रूर।
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नाजीवाद  : पुं० [हिं०+स०] यह सिद्धान्त कि जो प्रबल या सबल हों, उन्हीं को राष्ट्र और फलतः संसार का शासन-सूत्र बलपूर्वक अपने हाथों में लेकर चलाना चाहिए। यह सिद्धांत व्यक्ति-स्वातंत्र्य और जनतंत्र का परम विरोधी है।
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नाजुक  : वि० [फा० नाजुक] [भाव० नजाकत] १. कोमल। सुकुमार। २. पतला। बारीक। महीन। गूढ़ और सूक्ष्म (भाव या विचार)। ४. इतना कोमल कि सहज में टूट-फूट जाय या बिगड़ जाय। ५. (समय) जिसमें अनिष्ट, अपकार, हानि कि विशेष संभावना हो।
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नाजुक-दिमाग  : वि० [फा०+अ०] १. जिसका दिमाग या मस्तिष्क इतना कोमल हो कि अपनी इच्छा, रुचि आदि के विपरीत होनेवाली छोटी-सी बात भी न सह सके। २. बात-बात पर चिड़चिड़ाने या बिगड़नेवाला व्यक्ति।
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नाजुक-बदन  : वि० [फा०] सुकुमार शरीरवाला। कोमलांग। पुं० १. डोरिए की तरह की एक प्रकार की (पुरानी चाल की) मलमल। २. गुल्लाला नामक पौधे और फूल का एक प्रकार।
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नाजुक-मिजाज  : वि० [फा०+अ०] १. बहुत ही कोमल और मृदु प्रकृतिवाला। २. दे० ‘नाजुक दिमाग’।
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ना-जेब  : वि० [फा० नाजेबा] १. जो देखने में उपयुक्त या ठीक न जान पड़े। अनपयुक्त। बेमेल। २. भद्दा। भोंड़ा। ३. अश्लील।
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नाजो  : स्त्री० [फा० नाज] १. चटक-मटक से रहने और नाज-नखरे दिखानेवाली स्त्री। २. कोमल और प्यारी या लाड़ली स्त्री।
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नाट  : पुं० [सं०√ नट् (नाचना)+घञ्] १. नृत्य। नाच। २. नकल। स्वाँग। ३. कर्नाटक के पास का एक प्राचीन देश। ४. उक्त देश का निवासी। ५. संगीत में, एक प्रकार का राग, जो किसी के मत से मेघराग का और किसी के मत से दीपक राग का पुत्र है। पुं० [?] काँटे, कील आदि की नोक जो चुभने पर शरीर के अंदर टूट कर रह जाती है। उदा०–चुबैक साँवरे पीय बिनु क्यों निकसहिं ते नाट।–नंददास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाटक  : पुं० [सं०√नट्+ण्वुल–अक] १. नाट्य या अभिनय करनेवाला। नट। २. नटों या अभिनेताओं के द्वारा रंगमंच पर होनेवाला ऐसा अभिनय, जिसमें दूसरे पात्रों का रूप धरकर उनके आचरणों, कार्यों, चरित्रों, हाव-भावों, आदि का प्रदर्शन करते हैं। अभिनय। (ड्रामा) ३. वह साहित्यिक रचना, जिसमें किसी कक्ष या घटना का ऐसे ढंग से निरूपण हुआ हो कि रंग-मंच पर सहज में उसका अभिनय हो सके। ४. कोई ऐसा आचरण या व्यवहार जो शुद्ध हृदय से नहीं, बल्कि केवल दूसरों को दिखलाने या धोखे में रखने के उद्देश्य से किया जाय। जैसे–यह पंचायत क्या हुई है, उसका नाटक भर हुआ है।
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नाटक-शाला  : स्त्री०=नाट्यशाला।
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नाटका-देवदारु  : पुं० [नाटक+देवदारु] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का छोटा पेड़, जिसकी लकड़ी से एक प्रकार का तेल निकलता है। इसकी फलियों का साग बनता है और फल गरीब लोग दुर्भिक्ष के समय खाते हैं।
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नाटकावतार  : पुं० [सं० नाटक-अवतार, ष० त०] किसी नाटक में अभिनय के अंतर्गत होनेवाला दूसरे नाटक का अभिनय।
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नाटकिया  : पुं० [सं० नाटक+हिं० ईया (प्रत्य०)] १. नाटक में अभिनय करनेवाला। २. बहुरूपिया।
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नाटकी  : स्त्री० [सं०] इंद्रसभा। पुं० [सं० नाटक] नाटक करके जीविका उपार्जन करनेवाला व्यक्ति। नाटकिया। वि०=नाटकीय।
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नाटकीय  : वि० [सं० नाटक+छ–ईय] १. नाटक-संबंध। नाटक का। २. बहुत ही आकस्मिक रूप से, परन्तु कुशलता और चतुरता पूर्वक किया जानेवाला।
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नाटना  : अ०=नटना (पीछे हटना या मुकरना)।
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नाट वसंत  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का संकर राग।
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नाटा  : वि० [सं० नत=नीचा] [स्त्री० नाती] १. जिसकी ऊँचाई या डील साधारण से कम हो। छोटे कद या डील का। कम ऊँचा या कम लंबा। जैसे–नाटा आदमी, नाटा पेड़। पुं० कम ऊँचा या छोटे डील का बैल।
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नाटा करंज  : पुं० [हिं० नाटा+करंज] एक प्रकार का करंज।
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नाटाभ्र  : पुं० [सं०] तरबूज।
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नाटार  : पुं० [सं० नटी+आरक्] अभिनेत्री का पुत्र।
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नाटिका  : स्त्री० [सं० नाटक+टाप्, इत्व] कल्पित कथावाला एक प्रकार का दृश्य-काव्य जिसका नायक राजा, नायिका कनिष्ठा तथा अधिकतर पात्र राज-कुल के होते हैं। इसमें स्त्री-पात्रों और नृत्य-गीत आदि की बहुलता होती है।
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नाटित  : भू० कृ० [सं०√ नट्+णिच्+क्त] (नाटक) जिसका अभिनिय हो चुका हो। अभिनीत। पुं० अभिनय।
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नाट्य  : पुं० [सं० नट+ञ्य] १. नट का काम या भाव। २. नाचने-गाने, बाजे आदि बजाने और अभिनय करने का काम। ३. अभिनय आदि के रूप में किसी की नकल करने या स्वाँग भरने की क्रिया या भाव। ४. ऐसा नक्षत्र जिसमें नाट्य या नाटक का आरंभ शुभ माना जाता हो।
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नाट्यकार  : पुं० [सं० नाट्य√ कृ (करना)+अण्] १. नाटक करनेवाला। नट। २. नाटक में अभिनय करनेवाला व्यक्ति। अभिनेता। ३. नाटककार।
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नाट्यधर्मिता  : स्त्री० [सं० नाट्य-धर्म, ष० त०+ठन्–इक] वह पुस्तिका जिसमें अभिनय-संबंधी निर्देश हों।
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नाट्य-प्रिय  : पुं० [ब० स०] महादेव।
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नाट्य-मंदिर  : पुं० [ष० त०] नाट्यशाला।
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नाट्य-रासक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का उपरूपक दृश्य-काव्य जिसमें एक ही अंक होता है। इसका नायक उदात्त, नायिका वासक-सज्जा और उपनायक पीठमर्द होता है। इसमें अनेक प्रकार की गीत और नृत्य होते हैं।
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नाट्य-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] विशिष्ट आकार-प्रकार का बना हुआ वह भवन या मकान जिसमें एक ओर अभिनय या नाटक करने का मंच और दूसरी ओर दर्शकों के बैठने के लिए स्थान होता है। रंग-शाला।
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नाट्य-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें नाचने-गाने और अभिनय आदि करने की कलाओं का विवेचन होता है।
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नाट्यागार  : पुं० [नाट्य-आगार, ष० त०] नाट्यशाला।
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नाट्यालंकार  : [पुं० नाट्य-अलंकार, ष० त०] अभिनय या नाटक का सौंदर्य बढ़ानेवाली वे विशिष्ट बातें, जिन्हें साहित्यकारों ने उनके अलंकार के रूप में माना है। विशेष–साहित्य-दर्पण में ये ३३ नाट्यालंकार कहे गए हैं–आशीर्वाद, अक्रेंद, कपट, अक्षमा, गर्व, उद्यम, आश्रय, उत्प्रासन, स्पृहा, क्षोभ, पश्चात्ताप, उपयति, आशंसा, अध्यवसाय, विसर्प, उल्लेख, उत्तेजन, परीबाद, नीति, अर्थ विशेषण, प्रोत्साहन, सहाय्य, अभिमान, अनुवृत्ति, उतकीर्तन, यांचा, परिहार, निवेदन, पवर्तन, आख्यान, युक्ति, प्रहर्ष और शिक्षा।
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नाट्योक्ति  : स्त्री० [नाट्य-उक्ति, स० त०] भारतीय नाट्यशास्त्र में विशिष्ट पात्रों के लिए बतलाई हुई कुछ विशिष्ट रूप की उक्तियाँ या कथन-प्रकार; यथा–ब्राह्मणों को ‘आर्य’ राजा को ‘देव’ पति को ‘आर्यपुत्र’ आदि कहकर संबोधित करने का विधान।
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नाट्योचित  : वि० [नाट्य-उचित, ष० त०] १. जो नाट्य या नाटक के लिए उचित या उपयुक्त हो। २. जिसका अभिनय हो सके।
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नाठ  : पुं० [सं० नष्ट, प्र० नट्ठ] १. नाश। ध्वंस। २. अभाव। कमी। ३. ऐसी संपत्ति, जिसका कोई अधिकारी या स्वामी न रह गया हो। मुहा०–नाठ पर बैठना=ऐसी संपत्ति का अधिकार पाना, जिसका कोई स्वामी न रह गया हो।
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नाठना  : स० [सं० नष्ट, प्रा० नष्ट] नष्ट करना, ध्वस्त करना। अ० नष्ट होना। अ० दे० ‘नटना’।
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नाठा  : पुं० [हिं० नाठ] वह जिसके आगे-पीछे कोई वारिस न रह गया हो। पुं० [सं० नासिका] नाक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाड़  : स्त्री० [सं० नाल, डस्म लः] १. ग्रीचा। गर्दन। २. दे० ‘नार’। ३. दे० ‘नार’।
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नाड़क  : वि० [सं०] नली या नल के आकार का और लंबा। पुं० एक प्रकार की बड़ी और बहुत लंबी मछली।
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नाडा़  : पुं० [सं० नाड़] १. सूत की वह मोटी डोरी, जिससे स्त्रियाँ घाघरा बाँधती हैं। इजारबंद। नीबी। मुहा०–नाड़ा खोलना=किसी के साथ संभोग करने के लिए उद्यत होना। (बाजारू) २. वह पीला या लाल रँगा हुआ गंडेदार सूत जिसका उपयोग देव-पूजन आदि में होता है। मौली। मुहा०–नाड़ा बाँधना=किसी को कोई कला या विद्या सिखलाने के लिए अपना शिष्य बनाना। ३. पेट की अंदर की वह नली जिससे होकर मल आँतों की ओर आता है। मुहा०–नाड़ा उखड़ना उक्त नली का अपने स्थान से कुछ खिसक जाना, जिसके फलस्वरूप दस्त आने लगते हैं। नाड़ा बैठाना=झटके आदि से उस नली को फिर से अपने स्थान पर लाना।
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नाडिंधम  : वि० [सं० नाडी√ध्या (शब्द)+खश्, मुम् धमादेश ह्रस्व] १. नली के द्वारा हवा फूँकनेवाला। २. नाड़ियों को हिला देनेवाला। ३. श्वास-प्रश्वास की क्रिया को तीव्र करनेवाला। पुं० सुनार।
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नाडिंधय  : वि० [सं० नाड़ी√धे (पीना)+खश्, मुम, ह्रस्व] नाड़ी के द्वारा पान करनेवाला।
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नाडि  : स्त्री० [सं०√नड्+णिच्+इन्] १. नाड़ी। २. नली।
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नाड़िक  : पुं० [सं० नाडि+कन्] १. एक प्रकार का साग जिसे पटुआ भी कहते हैं। २. समय का घटिका या दंड नामक मान। ३. दे० नाड़ी।
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नाड़िका  : स्त्री० [सं० नाड़ी+कन्०–टाप्, ह्रस्व] एक घड़ी का समय। घटिका।
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नाड़िकेल  : पुं० [सं०=नारिकेल+रस्य डः] नारियल।
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नाड़िपत्र  : पुं० [सं०] एक प्रकार का साग। पटुआ नामक साग।
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नाड़िया  : पुं० [हिं० नाड़ी] नाड़ी देखकर रोग का पता लगानेवाला अर्थात् वैद्य।
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नाड़ी  : स्त्री० [सं० नाड़ि+ङीष्] १. नली। २. शरीर के अंदर मास और तंतुओं से मिलकर भी हुई बहुत-सी नालियों में से कोई या हर एक जो हृदय से शुद्ध रक्त लेकर सब अंगों में पहुँचाती है। धमनी। ३. कलाई पर की वह नाड़ी, जिसकी गति आदि देखकर रोगी की शारीरिक अवस्था विशेषतः ज्वर आदि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (वैद्य) मुहा०–नाड़ी चलना=कलाई की नाड़ी में स्पंदन या गति होना, जो जीवित रहने का लक्षण है। नाड़ी छूटना=उक्त नाड़ी का स्पंदन बंद हो जाना जो मृत्यु हो जाने का सूचक होता है। नाड़ी देखने=कलाई की नाड़ी पर उंगलियाँ रखकर उनकी गति देखना और उसके आधार पर रोग का निदान करना। (वैद्यों की परिभाषा) नाड़ी धरना या पकड़ना=नाड़ी देखना। नाड़ी बोलना=नाड़ी में गति या स्पंदन होता रहना। जैसे–अभी नाड़ी बोल रही है, अर्थात् अभी शरीर में प्राण हैं। ४. बंदूक की नली। ५. काल का एक मान जो 6 क्षणों का होता है। ६. गाँडर दूब। ७. वंशपत्री। ८. कपट। छल। ९. फोड़े आदि का मुँह। १॰. फलित ज्योतिष में, वैवाहिक गणना में काम आनेवाले चक्रों में बैठाये हुए नक्षत्रों का समूह। ११. तृण या वनस्पति का पोला डंठल।
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नाड़ीक  : पुं० [सं० नाड़ी√कै (मालूम पड़ना)+क] एक प्रकार का साग। पटुआ साग।
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नाड़ी-कलापक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] सर्पाक्षी का भिड़नी नाम की घास।
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नाड़ीका  : स्त्री० [सं० नाड़ी+कन्–टाप्] श्वास-नलिका।
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नाड़ी-कूट  : पुं० [सं० ब० स०] नाड़ी-नक्षत्र।
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नाड़ी-केल  : पुं० [सं०=नारिकेल, पृषो० सिद्धि] नारियल।
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नाड़ीच  : पुं० [सं० नाड़ी√चि (चयन)+ड] पटुआ (साग)।
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नाड़ी-चक्र  : पुं० [सं०] १. हठयोग के अनुसार नाभिदेश में कल्पित एक अंडाकार गाँठ, जिससे निकलकर सब नाड़ियाँ फैली हुई मानी गई हैं। २. फलित ज्योतिष में वह चक्र जो वैवाहिक गणना के लिए बनाया जाता है और जिसके भिन्न-भिन्न कोष्ठों में भिन्न-भिन्न नक्षत्रों के नाम लिखे होते हैं।
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नाड़ी-चरण  : पुं० [सं० ब० स०] पक्षी।
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नाड़ी-जंघ  : पुं० [सं० ब० स०] १. महाभारत के अनुसार एक बगला जो कश्यप का पुत्र, ब्रह्मा का अत्यंत प्रिय-पात्र और दीर्घ-जीवी था। २. एक प्राचीन ऋषि। ३. कौआ।
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नाड़ी-तरंग  : पुं० [सं० ब० स०] १. काकोल। २. हिंडक।
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नाड़ी-तिक्त  : पुं० [तृ० त०] नेपाली नीम। नेपाल निंब।
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नाड़ी-देह  : वि० [ब० स०] अत्यंत दुबला-पतला। पुं० शिव का एक द्वारपाल।
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नाड़ी-नक्षत्र  : पुं० [मध्य० स०] फलित ज्योतिष में, वैवाहिक गणना के काम के लिए बनाए हुए कल्पित चक्रों में स्थित नक्षत्र।
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नाड़ी मंडल  : पुं० [सं०] विषुवत् रेखा। (दे०)
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नाड़ी-यंत्र  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार का प्राचीन उपकरण, जिससे नाड़ियों की चीर-फाड़ की जाती थी और उनमें घुसी हुई चीजें निकाली जाती थीं। (सुश्रुत)
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नाड़ी-वलय  : पुं० [ष० त०] समय का ज्ञान करानेवाली एक प्रकार का प्राचीन उपकरण।
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नाड़ी-व्रण  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का घाव जो नली के छेद के समान होता है तथा जिसमें से मवाद निकलता रहता है। नासूर। (साइनस)
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नाड़ी-शाक  : पुं० [मध्य० स०] पटुआ (साग)।
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नाड़ी-हिंगु  : पुं० [मध्य० स०] १. एक तरह का वृक्ष जिसके गोद में हींग की सी गंध होती है। २. उक्त वृक्ष का गोंद जो ओषधि के काम आता है।
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नाडूदाना  : पुं० [देश०] मैसूर राज्य में होनेवाले एक तरह के बैल, जो कद में छोटे होने पर भी अधिक परिश्रमी होते हैं।
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नाणाक  : पुं० [सं०√अण् (शब्द)+ण्वल्–अक, न० त०] १. धातु। २. निष्क नाम का पुराना सिक्का। ३. सिक्का।
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नात  : स्त्री० [अ० नअत] १. मुहम्मद साहब की छंदोबद्ध स्तुति। २. प्रशंसा। स्तुति। पुं० १.=नाता (संबंध)। २.=नातेदार (संबंधी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नातका  : पुं० [अ० नातिक] बोलने की शक्ति। वाक्-शक्ति। मुहा०–(किसी का) नातका बंद करना=वाद-विवाद में निरुत्तर और परास्त करना।
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ना-तमाम  : वि० [फा०] १. जो अभी पूरा न हुआ हो। अपूर्ण। २. जिसका कुछ अंश अभी पूरा होने को बाकी हो। अधूरा।
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नातरि  : अव्य०=नातरु।
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नातरु  : अव्य० [हिं० न+तो+अरु] नहीं तो। अन्यथा।
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नातवाँ  : वि० [फा० नातुवाँ] [भाव० नातवानी] शारीरिक दृष्टि से अशक्त। दुर्बल।
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नातवानी  : स्त्री० [फा० नातुवानी] शारीरिक अशक्तता। दुर्बलता।
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नाता  : पुं० [सं० ज्ञाति, प्रा०, णाति, हिं०, नात] १. मनुष्यों में होनेवाला वह पारिवारिक लगाव या संबंध जो रक्त-संबंध के कारण अथवा विवाह आदि सूत्रों के कारण स्थापित होता है। रिश्ता। जैसे–वे नाते में हमारे भतीजे होते हैं। पद–नाता-पोता, नातेदार। (दे०) २. वैवाहिक संबंध का निश्चय। जैस–अभी उनके लड़के का नाता कहीं पक्का नहीं हुआ है। ३. किसी प्रकार का लगाव या संबंध। जैसे–प्यार या मुहब्बत का नाता, दोस्ती का नाता। क्रि० प्र०–जोड़ना।–तोड़ना।–लगाना।
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ना-ताकत  : वि० [फा० ना०+अ० ताकत] [भाव० नाताकती] जिसमें ताकत न हो। अशक्त।
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ना-ताकती  : स्त्री० [फा० ना+अ० ताकत+ई (प्रत्य०)] नाताकत होने की अवस्था या भाव। कमजोरी। दुर्बलता।
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नाता-गोता  : पुं० [हिं० नाता+गोता] वंश और गोत्र के कारण होनेवाला पारस्परिक संबंध।
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नातिन  : स्त्री० हिं० ‘नाती’ का स्त्री०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नातिनी  : स्त्री०=नातिन।
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नाती  : पुं० [सं० नप्तृ] [स्त्री० नतिनी, नातिन] १. लड़की का लड़का। बेटी का बेटा। २. लड़के का लड़का। उदा०–उत्तम कुल पुलस्त्य का नाती।–तुलसी।
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नाते  : अव्य० [हिं० नाता] १. लगाव या संबंध के विचार से। २. किसी प्रकार के संबंध के विचार से। ब्याज से। जैसे–चलो इसी नाते उनका आना-जाना तो शुरू हुआ। ३. वास्ते। हेतु। पद–किस नाते=किस उद्देश्य से। किस लिए।
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नातेदार  : वि० [हिं० नाता+दार] [भाव० नातेदारी] (व्यक्ति) जिससे कोई नाता हो। रिश्तेदार। संबंध।
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नात्र  : पुं० [सं०√नम् (प्रणाम करना)+ष्ट्रन्, आत्व] शिव।
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नाथ  : पुं० [सं०√नाथ (ऐश्वर्य)+अच्] १. प्रभु। स्वामी। जैसे–दीनानाथ, विश्वनाथ। २. अधिपति। मालिक। ३. विवाहिता स्त्री का पति। ४. शिव। ५. आदिनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ के अनुयायियों या गोरखपंथियों का संप्रदाय। ६. उक्त संप्रदाय के अनुयायी साधुओं के नाम के अंत में लगनेवाली उपाधि। ७. उक्त संप्रदाय के अनुयायियों के अनुसार वह सबसे बड़ा योगीश्वर जो सब बातों से अलिप्त रहकर मोक्ष का अधिकारी हो चुका हो। ८. साँप पालनेवाले एक प्रकार के मदारी। स्त्री० [सं० नाथ या हिं० नाथना] १. नाथने की क्रिया या भाव। २. वह रस्सी जो ऊँटों, बैलों, आदि के नथनों में उन्हें वश में रखने के लिए डाली या बाँधी जाती है। स्त्री०=नथ (नाक में पहनने की)।
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नाथता  : स्त्री० [सं० नाथ+त्व]=नाथता।
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नाथ-द्वारा  : पुं० [सं० नाथद्वार] उदयपुर के अंतर्गत वल्लभ-संप्रदाय के वैष्णवों का एक प्रसिद्ध तीर्थ, जहाँ श्रीनाथजी की मूर्ति स्थापित है।
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नाथना  : स० [सं० नस्तन] १. कुछ विशिष्ट पशुओं के नथने में छेद करना। जैसे–ऊँट या बैल नाथना। २. इस प्रकार किए हुए छेद में लंबी रस्सी पहनाना जो लगाम का काम करती हो तथा जिससे पशु को वश में रखा जाता है। मुहा०–नाक पकड़कर नाथना=बलपूर्वक वश में करना ! ३. किसी चीज के सिरे में छेद करके उसे डोरे, रस्सी आदि से बाँधना। ४. कई चीजें एक साथ रखने की लिए उन में उक्त प्रकार की क्रिया करना। नत्थी करना। ५. लड़ी के रूप में गूँथना, जोड़ना या पिरोना। संयो० क्रि०–डालना।–देना।
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नाथ-पंथ  : पुं० [सं०] गुरु गोरखनाथ और उनके शिष्यों का चलाया हुआ एक संप्रदाय जिसकी ये बारह शाखाएँ हैं–सत्यनाथी, घर्मनाथी, रामपंथ, नटेश्वरी, कन्हण, कपिलानी, वैरागी, माननाथी, आईपंथ, पागलपंथ, धजपंथ और गंगानाथी। ये सभी शिव के भक्त हैं।
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नाथपंथी  : पुं० [सं०] नाथ पंथ का अनुयायी।
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नाथवान् (वत्)  : वि० [सं० नाथ+मतुप्] पराधीन।
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नाथ-हरि  : पुं० [सं० नाथ√ह् (हरण)+इन] पशु।
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नाद  : पुं० [सं०√नद् (शब्द)+घञ्] १. आवाज। शब्द। २. जोर की वह आवाज या ध्वनि, जो कुछ समय तक बराबर होती रहे। ३. वेदांत में, विश्व में उत्पन्न होनेवाला वह क्षोभ जो उपाधियुक्त चैतन्य से उपाधियुक्त शक्ति का संयोग होने के समय होता है। इसे ‘परनाद’ भी कहते हैं। ४. हठयोग में, अंतरात्मा में होती रहनेवाली एक प्रकार की सूक्ष्म ध्वनि या शब्द जो एकाग्र चित्त होकर अभ्यास करने पर सुनाई पड़ती है और जिसे सुनते रहने से चित्त अंत में नाद-रूपी ब्रह्म में लीन हो जाता है। ५. वर्णों का अव्यक्त मूल-रूप। ६. भाषा-विज्ञान और व्याकरण में वर्णों के उच्चारण में होनेवाला एक विशेष प्रकार का प्रयत्न जिसमें कंठ से वायु का स्वर निकालने के लिए न तो उसे बहुत फैलाना ही पड़ता है और न बहुत सिकोड़ना ही पड़ता है। ७. गाना-बजाना। संगीत। पद–नाद-विद्या=संगीत शास्त्र। ८. कुछ-कुछ अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण या स्वर जो अर्द्ध-चंद्र पर बिंदु देकर इस प्रकार लिखा जाता है। ९. सिंगी नामक बाजा। उदा०–सेली नाद बभूत न बटवो अजूँ मुनी मुख खोल।–मीराँ।
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नादना  : अ० [सं० नाद] १. ध्वनि या शब्द होना। २. बजना। ३. गरजना, चिल्लाना या शोर मचाना। स० १. ध्वनि या शब्द उत्पन्न करना। २. बजाना। अ० [सं० नंदन] १. दीए की लौ का हवा लगने से रह-रहकर हिलना। २. प्रसन्नतापूर्वक इधर-उधर हिलना-डोलना। उदा०–उठित दिया लौ, नादि हिर लिये तिहारो नाम।–बिहारी। ३. लहराना।
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नाद-मुद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] तंत्र में हाथ की वह मुद्रा जिसमें दाहिने हाथ का अँगूठा सीधा और खड़ा रखा जाता है और मुट्ठी बंधी रहती है।
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नादली  : स्त्री० [अ० नादे अली] संग यशब नामक पत्थर की वह चौकोर टिकिया जिसे रोग या बाधा दूर करने के लिए गले में या बाँह पर पहनते हैं। हौल-दिली। (दे०)
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नादान  : वि० [फा०] [भाव० नादानी] १. अवस्था में कम होने के कारण जिसे समझ न आई हो। ना-समझ। २. जो अकुशल या अनाड़ी हो। ३. मूर्ख।
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ना-दानिस्ता  : क्रि० वि० [फा० नादानिस्तः] १. बिना जाने या समझे हुए। २. अनजान में।
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नादानी  : स्त्री० [फा०] १. नादान होने की अवस्था या भाव। २. अकुशलता। अनाड़ीपन। ३. मूर्खता या मूर्खतापूर्ण कोई कार्य।
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नादार  : वि० [फा०] [भाव० नादारी] जिसके पास कुछ न हो। परम निर्धन। कंगाल। पुं० गंजीफे के खेल में; बिना रंग या बिना मीर की बाजी।
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नादारी  : स्त्री० [फा०] ‘नादार’ होने की अवस्था या भाव। निर्धनता। गरीबी।
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नादि  : वि० [सं० नादिन] १. शब्द करनेवाला। २. गरजनेवाला।
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नादित  : भू० कृ० [सं० नाद+इतच्] १. जो नाद से युक्त किया गया हो अथवा हुआ हो। २. शब्द करता हुआ। बजता हुआ। ३. गूँजता हूँ।
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नादिम  : वि० [अ०] [भाव० नदामत] १. लज्जित। शर्मिंदा। २. पश्चात्ताप करनेवाला।
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नादिया  : पुं० [सं० नंदी] १. नंदी। २. वह विकृत, विलक्षण, या अधिक अंग या अंगोवाला साँड़, जिसे जोगी अपने साथ लेकर भीख माँगने निकलते हैं।
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नादिर  : वि० [फा० नादिर] १. विचित्र। विलक्षण। २. उत्तम। श्रेष्ठ।
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नादिरशाह  : पुं० [अ०] पारस (फारस) देश का एक प्रसिद्ध राजा जिसने मुहम्मद शाह के समय में भारत में आक्रमण किया था। विशेष–यह अपनी क्रूरता के लिए प्रसिद्ध है। इसने एक छोटी-सी बात पर क्रुद्ध होकर दिल्ली के लाखों निवासियों की हत्या करवा डाली थी।
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नादिरशाही  : स्त्री० [हिं० नादिरशाह] १. नादिरशाह का वह बर्बरता पूर्ण व्यवहार जो उसने दिल्ली में किया था और जिसके फल-स्वरूप लाखों आदमी मारे गए थे। २. ऐसा आचरण, व्यवहार या शासन, जो बहुत ही निर्दयतापूर्ण और मनमाने ढंग से किया जाय। वि० वैसा ही उग्र, कठोर और मनमाना, जैसा दिल्ली में नादिरशाह का आचरण या व्यवहार था। नादिरी।
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नादिरी  : वि० [अ०] १. नादिरशाह-संबंधी। २. अत्याचार और क्रूरतापूर्ण। स्त्री० १. एक प्रकार की कुरती या सदरी जो मुगल बादशाहों के समय में पहनी जाती थी। पुं० गंजीफे का वह पत्ता जो खेल के समय निकालकर अलग रख दिया जाता है। मुहा०–(किसी पर) नादिरी चढ़ाना=बहुत बुरी तरह से मात करना या हराना।
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नादिहंद  : वि० [फा०] जो किसी की चीज या धन लेकर जल्दी लौटाता न हो। देन लौटाने में बराबर टाल-मटोल करता रहनेवाला।
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नादिहंदी  : स्त्री० [फा०] नादिहंद होने की अवस्था या भाव। देन लौटाने में टाल मटोल करना।
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नादी  : वि० [सं० नादिन्] [स्त्री० नादिनी] १. नाद या शब्द-संबंधी। २. नाद या शब्द करनेवाला। ३. बजानेवाला।
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नादेअली  : स्त्री० दे० ‘नादली’।
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नादेय  : वि० [सं० नदी+ढक्–एय] [स्त्री० नादेयी] १. नदी-संबंधी। २. नदी में होनेवाला। पुं० १. सेंधा नमक। २. सुरमा। ३. जलबेंत। ४. काँस नामक घास।
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नादेयी  : स्त्री० [सं० नादेय+ङीष्] १. जलबेंत। २. भुईं जामुन। ३. नारंगी। ४. वैजयन्ती। ५. जपा। अड़हुल। ६. अग्निमंथ। अँगेथू। वि० सं० ‘नादेय’ का स्त्री०।
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नादेहंद  : वि०=नादिहंद।
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नाद्य  : वि० [सं० नदी+ढ्यण्] नदी-संबंधी। कमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाधन  : स्त्री० [हिं० नाधना] १. नाधने की क्रिया या भाव। २. चरखे के तकले में लगा हुआ गत्ते, चमड़े आदि का वह गोल टुकड़ा जो तागे को इधर-उधर होने से रोकता है।
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नाधना  : स० [सं० नद्ध] १. कोई कार्य अनुष्ठित या आरंभ करना। ठानना। २. दे० ‘नाथना’ (सभी अर्थों में)।
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नाधा  : पुं० [हिं० नाधना] वह रस्सी या चमड़े की पट्टी जिससे जुए में कोल्हू, हल आदि बाँधे जाते हैं। पुं० [?] वह स्थान जहाँ जलाशय से पानी निकालकर फेंका जाता है और जहाँ से नालियों में होता हुआ वह सिंचाई के लिए खेतों में जाता है।
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नान  : स्त्री० [फा०] १. मोटी बड़ी रोटी। पद–नान-नुफका=रोटी और कपड़ा; अर्थात् खाने-पीने और पहनने आदि की सामग्री। २. तंदूर में पकाई जानेवाली एक प्रकार की मोटी खमीरी रोटी। ३. खमीरी रोटी।
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नानक  : वि० [पं० नानका=ननिहाल] [स्त्री० नानकी] जो ननिहाल में उत्पन्न हुआ हो। पुं० कबीर के समकालीन एक प्रसिद्ध निर्गुण ज्ञानी भक्त जो सिक्ख संप्रदाय के आदि गुरु माने जाते हैं। (वि० सं० १5२6-97)
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नानक-पंथ  : पुं० [हिं०] गुरु नानक का चलाया हुआ सिक्ख-संप्रदाय।
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नानक-पंथी  : वि० [हिं० नानक+पंथ] १. नानक पंथ-संबंधी। २. नानक का अनुयायी।
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नानकशाह  : पुं०=नानक (महात्मा)।
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नानकशाही  : वि०=नानकपंथी।
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नानकार  : स्त्री० [फा० नान=रोटी+कार (प्रत्य०)] वह जमीन जो सेवक को पुरस्कार रूप में जीविका-निर्वाह के लिए दी जाती थी।
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नानकीन  : पुं० [चीनी नानकिङ्] चीन के नानकिङ् नगर में बननेवाला एक तरह का बढ़िया सूती कपड़ा, जो अब सभी देशों में बनने लगा है और ‘मारकीन’ के नाम से प्रसिद्ध है।
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नान-ख़ताई  : स्त्री० [फा० नान=रोटी+खता (एक प्रदेश का नाम)] २. खता नामक प्रदेश में बननेवाली एक प्रकार की मीठी खस्ता रोटी। २. मैदे, सूजी आदि का बना हुआ एक तरह का मीठा खस्ता पकवान।
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नानबाई  : पुं० [फा० नान+बा=बेचनेवाला] वह जो नान अर्थात् रोटियाँ बेचता हो।
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नानस  : स्त्री० [?] ननिया सास का संक्षिप्त रूप।
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नाना  : वि० [सं० न०+नाञ्] [भाव० नानत्व] १. अनेक प्रकार के। बहुत तरह के। विविध। (बहु०) २. अनेक। बहुत। पुं० [देश०] [स्त्री० नानी] माता का पिता या मातामह। स० [सं० नमन] १. नवाना। झुकाना। २. प्रविष्ठ करना। घुसाना। ३. अन्दर रखना। डालना। ४. संयो० क्रि० के रूप में, पूरा करना। उदा०–अस मनमथ महेश कै नाई।–तुलसी। पुं० [अ० नऽनऽ] पुदीना। जैसे–अर्कनाना=पुदीने का अरक।
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नानाकंद  : पुं० [सं०] पिंडालु।
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नानात्मवादी (दिन्)  : वि० [सं० नाना-आत्मन्, कर्म० स०, नानात्मन्√वद् (बोलना)+ णिनि] सांख्य दर्शन का अनुयायी जो यह मानता हो कि व्यक्ति की आत्मा विश्वात्मा से अलग अस्तित्व रखती है।
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नानार्थ  : वि० [सं० नाना-अर्थ, ब० स०] १. (शब्द) जिसके अनेक अर्थ हों। २. (वस्तु) जो अनेक कामों में प्रयुक्त हो सके।
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ननिहाल  : पुं०=ननिहाल (नाना का घर)।
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नानी  : स्त्री० [हिं० नाना का स्त्री०] माँ की माँ। माता की माता। मातामही। मुहा०–नानी मरना या मर जाना=(क) इतना उदास, खिन्न या दुःखी हो जाना कि मानों नानी मर गई हो। (ख) बहुत अधिक विपत्ति या झंझट में पड़ना। नानी याद आना=ऐसी विपत्ति या संकट में पड़ना कि मानों बच्चों की तरह नानी की सहायता या संरक्षण की अपेक्षा कर रहे हो। (परिहास और व्यंग्य) पद–नानी की कहानी=पुरानी और व्यर्थ की लंबी-चौड़ी बातें।
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ना-नुकर  : पुं० [हिं० न+करना] नहीं, ‘नहीं’ कहने की क्रिया या भाव। इन्कार।
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नानुसारी  : वि० [हिं० न+अनुसारी] अनुसरण न करनेवाला।
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नान्ह  : वि० [प्रा० लान्हा] १. नन्हा। छोटा। २. तुच्छ या हीन कुल अथवा वंश का। ३. पतला। बारीक। महीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०–नान्ह कातना=ऐसा बारीक या सूक्ष्म काम करना जिसमें बहुत अधिक परिश्रम और समझदारी की आवश्यकता हो।
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नान्हक  : पुं०=दे० ‘नानक’।
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नान्हरिया  : वि०=नान्हा (नन्हा)।
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नान्हा  : वि० दे० ‘नन्हा’। २. दे० ‘नान्ह’।
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नाप  : स्त्री० [हिं० नापना] १. नापने की क्रिया या भाव। किसी पदार्थ के विस्तार का निर्धारण। जैसे–यह थान नाप में पूरा बीस गज उतरेगा। पद–नाप-जोख, नाप-तौल। (दे०) २. किसी चीज की ऊँचाई, लंबाई, चैड़ाई, गहराई-मोटाई आदि के विस्तार का वह परिणाम जो उसे नापने पर जाना जाता या निकलता है। माप। जैसे–इस जमीन की नाप १00 गज लंबी और चौड़ाई 50 गज है। ३. वह निर्दिष्ट परिमाण जिसे इकाई मानकर कोई चीज नापी जाती है। जैसे–कपड़े के गज की नाप 36 इंच की और लकड़ी के गज की नाप २4 इंच की होती है। ४. वह उपकरण जो उक्त प्रकार की इकाई का मानक प्रतीक हो और जिससे चीजें नापी जाती हों। जैसे–कपड़ा या लकड़ी नापने का गज, तेल या दूध नापने का नपना या नपुआ।
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नापत  : स्त्री० १.=नाप। २.=नपत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाप-जोख़  : स्त्री० [हिं० नापना+जोखना] १. किसी चीज की लंबाई-चौड़ाई आदि नापने अथवा किसी चीज या बात का गुरुत्व, मान, शक्ति आदि आँकने अथवा समझने की क्रिया या भाव। जैसे–(क) आज-कल देहातों में खेतों की नाप-जोख हो रही है। (ख) किसी से लड़ाई छेड़ने (या ठानने) से पहले उसके बल, साधनों आदि की नाप-जोख कर लेनी चाहिए। २. दे० ‘नाप-तौल’। विशेष–साधारण बोल-चाल में ‘नाप-जोख’ पद का प्रयोग मूर्त पदार्थों के सिवा अमूर्त तत्त्वों या बातों के संबंध में भी देखने में आता है, जैसे कि ऊपर के (ख) उदाहरण से स्पष्ट है। अतः कहा जा सकता है कि अर्थ की दृष्टि से ‘नाप-तौल’ की तुलना में ‘नाप-जोख’ पद अधिक व्यंजक तथा व्यापक है।
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नाप-तौल  : स्त्री० [हिं० नापना+तौलना] १. कोई चीज नापने या तौलने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘नाप-जोख’ और उसके अंतर्गत विशेष टिप्पणी।
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नापना  : [सं० मापन] १. नियत या निर्धारित नाप, मान या माप-दंड की सहायता से किसी चीज की लंबाई-चौड़ाई, गहराई-ऊँचाई आदि अथवा किसी प्रकार के आयत या विस्तार का ठीक ज्ञान प्राप्त करना या पता लगाना। मापने की क्रिया करना। जैसे–गज, बित्ते, हाथ आदि से कपड़ा नापना। (गरदन नापना, रास्ता नापना आदि मुहावरों के लिए देखें गरदन, रास्ता आदि के मुहा०)। संयो० क्रि०–डालना।–देना।–लेना। विशेष–चीजें नापने के लिए सुभीते के अनुसार अलग-अलग प्रकार की इकाइयाँ स्थिर कर ली जाती हैं। जैसे–अँगुल, बित्ता, हाथ, गज आदि, और तब उन्हीं इकाइयों के आधार पर चीजों की नाप की जाती है। जैसे–यह धोती नापने पर पौने पाँच गज निकली; अथवा यह रस्सी नापने पर बीस हाथ ठहरी। २. कुछ विशिष्ट तरल पदार्थों के संबंध में, किसी नियत इकाई की सहायता से उसके परिमाण, भार आदि का पता लगाना या स्थिर करना। जैसे–नपने से तेल या दूध नापना। विशेष–वास्तव में इस क्रिया का उद्देश्य किसी पदार्थ को तौलना ही होता है; परंतु इसके लिए कोई ऐसा पात्र स्थिर कर लिया जाता है, जिसमें कोई चीज तौल के हिसाब से किसी विशिष्ट इकाई के बराबर आती हो, और तब वही पात्र (जिसे नपना या नपुआ कहते हैं) बार-बार भरकर उस चीज की तौल या मान स्थिर करते हैं। इससे तौलने की झंझट से बचत होती है। आज-कल अधिकतर तरल पदार्थ इसी प्रकार नापे (वस्तुतः तौले) जाते हैं। कुछ ही दिन पहले अनाज आदि भी इसी तरह नाप (वस्तुतः तौल) कर बेचे जाते थे। ३. अंदाज करना।
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नाप-मान  : पुं०=मान-दंड।
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ना-पसन्द  : वि० [फा०] जो पसन्द न आवे। जो अच्छा न जान पड़े। जो पसन्द न हो। अप्रिय। अरुचिकर।
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नापाक  : वि० [फा०] [भाव० नापाकी] १. अपवित्र। अशुचि। २. गंदा या मैला।
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नापाकी  : स्त्री० [फा०] १. अशुचिता। २. गंदगी।
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ना-पायदार  : वि० [फा० नापाइदार] [भाव० नापायदारी] १. जो अधिक समय तक ठहरने या चलनेवाला न हो। जो टिकाऊ न हो। क्षण भंगुर। २. जो दृढ़ या मजबूत न हो। ३. जिन पर भरोसा न किया जा सके। जैसे–नापायदार जिंदगी।
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ना-पास  : वि० [हिं० ना+अ० पास] १. जो पास अर्थात् स्वीकृत न किया गया हो। २. जो परीक्षा में पास या उत्तीर्ण न हुआ हो। अनुत्तीर्ण।
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नापित  : पुं० [सं० न√आप् (व्यक्ति)+तन्, इट् आगम] नाई। हज्जाम।
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नापित्य  : पुं० [सं० नापित+ष्यञ्] १. नापित होने की अवस्था या भाव। २. नापित का लड़का। ३. नापित का काम या पेशा।
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नापैद  : वि० [फा० ना+पैदा] १. जो कभी पैदा ही न हुआ हो। २. जो अब पैदा न होता हो। ३. जो इतना अप्राप्य या दुर्लभ हो कि मानों कहीं पैदा ही न होता हो।
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नाफ  : स्त्री० [सं० नाभि से फा० नाफ़] १. नाभि। २. किसी चीज का केंद्र या मध्य-भाग।
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ना-फरमाँ  : पुं० [फा०] गुले लाला का एक भेद जो कुछ नीले रंग का होता है। वि० दे० ‘ना-फरमान’।
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ना-फरमान  : वि० [फा०] [भाव० नाफरमानी] जो बड़ों की आज्ञा न मानता हो।
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ना-फरमानी  : स्त्री० [फा०] बड़ों की आज्ञा न मानने की वृत्ति।
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नाका  : पुं० [सं० नाभि से फा० नाफः] मृगनाभि।
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नाब-दान  : पुं० [फा०] मकान की मोरी। पनाला। मुहा०–नाबदान में मुँह मारना=बहुत ही घृणित और निंदनीय काम करना।
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ना-बालिग  : वि० [अ०+फा०] [भाव० नाबालिगी] १. जो बालिग अर्थात् वयस्क न हो। २. विधिक क्षेत्र में, जो अभी उस नियत अवस्था या वय तक न पहुँचा हो, जिस अवस्था या वय तक पहुँचने पर कोई सब बातें समझने और अपना घर-बार सँभालने के योग्य समझा जाता हो। (साधारणतः २१ वर्ष से कम की अवस्था का व्यक्ति ना-बालिग माना जाता है)।
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ना-बालिगी  : स्त्री० [फा०] नाबालिग होने की अवस्था या भाव।
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नाबूद  : वि० [फा०] १. जो अस्तित्व में न रह गया हो। २. बरबाद। विध्वस्त। ३. गायब। लुप्त।
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नाभ  : पुं० [सं०] नाभि का वह संक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के अन्त में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे–पद्मनाभ। २. शिव का एक नाम। ३. भगीरथ के एक पुत्र। ४. अस्त्रों का एक संहार।
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नाभक  : पुं० [सं०√नभ् (नष्टकरना)+ण्वुल्–अक] हर्रे।
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नाभस  : वि० [सं० नभस्+अण्] [स्त्री० नाभसी] १. नभ-संबंधी। २. स्वर्गीय।
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नाभा  : पुं०=नाभादास।
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नाभाग  : पुं० [सं०] १. वाल्मीकि के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय एक राजा जो ययाति के पुत्र थे और जिनके पुत्र अज थे। परन्तु रामायण के अनुसार नाभाग के पुत्र अंबरीष थे। २. कारुषवंशीय राजा दिष्टि के एक पुत्र। ३. वैवस्वत मनु के एक पुत्र।
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नाभादास  : पुं० सत्रहवीं शताब्दी के छठे और सातवें दशक में वर्तमान एक प्रसिद्ध वैष्णव भक्त जो जाति के डोम थे। उन्होंने अपने गुरु अग्रदास की आज्ञा से ‘भक्तमाल’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा था।
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नाभारत  : स्त्री० [सं० नाभ्यावर्त] घोड़े की नाभि के नीचे की भौंरी जो अशुभ मानी जाती है।
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नाभारिष्ट  : पुं० [सं०] वैवस्वत मनु के एक पुत्र
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नाभि  : स्त्री० [सं०√नह (बंधन)+इञ्, भ आदेश] १. जरायुज जंतुओं के पेट के बीचो-बीच वह छोटा गड्ढा, जिससे गर्भावस्था में जरायु नाल जुड़ा रहता है। ढोंटी। धुन्नी। तुन्नी। तुंदी। २. कस्तूरी। ३. उक्त प्रकार का कोई छोटा गड्ढा। ४. पहिए के बीच का वह गड्ढा जिसमें धुरा पहनाया या बैठाया जाता है। नाह। विशेष–यद्यपि संस्कृत में नाभि इस अंतिम या तीसरे अर्थ में पुं० है, फिर भी हिंदी में इस अर्थ में यह स्त्री० रूप में ही प्रयुक्त होता है। पुं० १. किसी चीज का केंद्र या मध्य-भाग। ऐसा भाग जिसके चारों ओर वस्तुएँ आकर इकट्ठी होती या हुई हों। २. प्रधान या मुख्य व्यक्ति। नेता। मुखिया। ३. परम स्वतन्त्र और बहुत बड़ा राजा। ४. वह पारस्परिक संबंध जो एक ही कुल, गोत्र या परिवार में उत्पन्न होने पर होता है। ५. क्षत्रिय। ६. महादेव। शिव। ७. भागवत के अनुसार आग्नीध्र राजा के पुत्र जिनकी पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभ देव की उत्पत्ति हुई थी। ८. राजा प्रियव्रत के एक पौत्र का नाम।
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नाभि-कंटक  : पुं० [ष० त०] नाभि का उभरा हुआ या मांसल अंश। निकली हुई तुंदी।
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नाभिका  : स्त्री० [सं० नाभि√कै (मालूम पड़ना)+क–टाप्] १. नाभि के आकार का छोटा गड्ढा। २. कटभी (वृक्ष)।
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नाभिगुलक  : पुं० [सं०] नाभिकंटक।
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नाभि-गोलक  : पुं० [ष० त०] नाभिकंटक। (दे०)
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नाभि-छेदन  : पुं० [ष० त०] गर्भ से निकले हुए जरायुज जीवों का जरायु नाल काटने की क्रिया या भाव। नाल काटना।
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नाभिज  : वि० [सं० नाभि√जन् (उत्पत्ति)+ड] नाभि से उत्पन्न। पुं० ब्रह्मा।
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नाभि-नाड़ी  : स्त्री० [ष० त०] नाभि की नाड़ी जो गर्भ काल में माता की रसवहा नाड़ी से जुड़ी रहती है।
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नाभि-पाक  : पुं० [ष० त०] नाभि पकने का रोग।
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नाभिल  : वि० [सं० नाभि+लच्] १. नाभि से युक्त। जिसमें नाभि हो। २. (जीव) उभरी हुई नाभिवाला।
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नाभि-वर्द्धन  : पुं० [ष० त०] नाभि बढ़ाना अर्थात् काटना। (मंगलभाषित)
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नाभि-वर्ष  : पुं० [ष० त०] जंबूद्वीप का वह भाग (आधुनिक भारत) जो राजा नाभि को उनके पिता राजा आग्नीध्र ने दिया था। विशेष–नाभि के पौत्र भरत हुए जिसके नाम से हमारे देश का नाम भारत हुआ।
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नाभि-संबंध  : पुं० [ष० त०] व्यक्तियों का वह पारस्परिक संबंध जो उनके किसी एक गोत्र में जन्म लेने पर होता है।
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नाभी  : स्त्री० [सं० नाभि+ङीष्]=नाभि।
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नाभील  : पुं० [सं० नाभी√ला (लेना)+क] १. स्त्रियों की कमर के नीचे का भाग। उरु-संधि। २. नाभि का गड्ढा। ३. कष्ट तकलीफ।
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नाभ्य  : वि० [सं० नाभि+यत्] नाभि-संबंधी। पुं० महादेव। शिव।
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ना-मंजूर  : वि० [फा० ना+अ० मंजूर] [भाव० ना-मंजूरी] जो मंजूर या स्वीकृत न हुआ हो।
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ना-मंजूरी  : स्त्री० [फा०+अ०] ना-मंजूर या अस्वीकृत होने की अवस्था या भाव।
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नाम (न्)  : पुं० [सं०√म्ना (अभ्यास)+मनिन्] १. वह शब्द या पद जिसका प्रयोग किसी तत्त्व, प्राणी या वस्तु अथवा उसके किसी वर्ग या समूह का परिज्ञान अथवा बोध कराने के लिए उसके वाचक के रूप में किया जाता है और जिससे वह लोक में प्रसिद्ध होता है। आख्या। संज्ञा। जैसे–(क) इस रंग का नाम लाल है। (ख) इस फल का नाम आम है। (ग) इस लड़के का नाम मोहनलाल है। विशेष–हर चीज का कुछ न कुछ नाम इसीलिए रख लिया जाता है कि उसकी पहचान हो सके तथा औरों को सहज में उसका ज्ञान या बोध कराया जा सके। किसी वस्तु या व्यक्ति का नाम लेते ही उसका स्वरूप अथवा उसके संबंध की सब बातें सुननेवाले के ध्यान में आ जाती हैं। प्रयोगों तथा मुहावरों के विचार से नाम कई विशिष्ट तत्त्वों और स्थितियों का भी बोधक होता है। यथा–(क) जब कोई व्यक्ति कुछ अच्छा या बुरा काम करता है, तब लोग उसका नाम लेकर ही कहते हैं कि उसने अमुक काम किया है। इसलिए ‘नाम’ किसी की ख्याति अथवा प्रसिद्धि (अथवा कुख्याति या कुप्रसिद्धि) का भी प्रतीक या वाचक हो गया है। (ख) विशिष्ट प्रसंगों में लोग ईश्वर या उपास्य देव का नाम लेते हैं, इसलिए कभी-कभी यह ईश्वर या देवता का भी वाचक या सूचक होता है। (ग) नाम किसी तत्त्व, वस्तु या व्यक्ति का वाचक मात्र होता है; स्वयं उस तत्त्व, वस्तु या व्यक्ति से उसका कोई आधारिक या तात्त्विक संबंध नहीं होता, इसलिए कुछ अवस्थाओं में यह केवल बाह्य आकृति या रूप अथवा अस्तित्व या सत्ता का ही बोधक होता है; अथवा यह सूचित करता है कि उसे कुछ कहा या किया गया है, वह नामधारी के उद्देश्य या हेतु-मात्र से है। इसी आधार पर लेन-देन आदि व्यवहारों में उस अंश या पक्ष का भी वाचक हो गया है जिसमें किसी को दी हुई या किसी के जिम्मे लगाई हुई कोई चीज या रकम लिखी जाती है। यहाँ जो पद और मुहावरे दिए जाते हैं, वे उक्त सब आशयों के मिले-जुले रूपों से संबद्ध हैं। पद–(किसी के) नाम=किसी के उद्देश्य या हेतु से अथवा किसी के प्रति या उसे लक्ष्य करके। जैसे–(क) पितरों के नाम दान करना। (ख) विधिक क्षेत्र में, किसी के अधिकार या स्वामित्व में। जैसे–उसके कई मकान तो उसकी स्त्री के नाम हैं। नाम का (या को)=दे० ‘नाम मात्र का’ (या को)। नाम-चार का (या को)=दे० ‘नाम-मात्र का’ (या को)। नाम पर=(क) किसी का नाम लेते हुए उसके उद्देश्य या हेतु से। जैसे–बड़ों के नाम पर (या भगवान के नाम पर) कोई काम करना या किसी को कुछ देना। नाम मात्र=नाम लेने या कहने भर के लिए, अर्थात् यथेष्ट और वास्तविक रूप में नहीं, बल्कि जरा-सा या बहुत थोड़ा। जैसे–उनके कथन में नाम मात्र सत्यता है। नाम मात्र का (या को)=उचित, पूर्ण या वास्तविक रूप में नहीं, बल्कि यों ही कहने-सुनने या दिखलाने भर के लिए, और फलतः जरा-सा या थोड़ा-सा। जैसे–दाल में घी तो नाम मात्र का (या को) था। नाम मात्र के लिए=नाममात्र का (या को)। (किसी का) नाम लेकर=नाम का उच्चारण करके। जैसे–जब तुम्हारा नाम लेकर कोई पुकारे तब यहाँ आना। (ईश्वर, देवी-देवता का) नाम लेकर=श्रद्धापूर्वक नाम का उच्चारण और स्मरण करते हुए और शुद्ध हृदय से। जैसे–भगवान का नाम लेकर चल पड़ो। नाम से=(क) नामदारी को जिम्मेदार ठहराते या बतलाते हुए और उसके नाम का उपयोग करते हुए। जैसे–(क) किसी के नाम से खाता खोलना या मकान खरीदना। (ख) नाम का उच्चारण होते ही। नाम भर लेने पर। जैसे–अब तो वह तुम्हारे नाम से काँपता है। (ग) दे० ऊपर ‘नाम पर’। मुहा०–(किसी का) नाम उछलना=बहुत अपकीर्ति, निंदा या बदनामी होना। (अपना या बड़ों का) नाम उछालना=ऐसा घृणित या निंदनीय काम करना कि अपनी या पूर्वजों की बदनामी हो। नाम उठ जाना=अस्तित्व या सत्ता न रह जाना। जैसे–आज-कल संसार से भलमनसत का नाम ही उठ गया है। नाम कमाना=कीर्ति या यश संपादित करते हुए प्रसिद्ध या मशहूर होना। ऐसी उत्कृष्ट स्थिति में होना कि लोग बहुत दिनों तक याद रखे। जैसे–यह धर्मशाला बनवाकर वह भी अपना नाम कर गए। (किसी बात में किसी दूसरे का) नाम करना=दे० नीचे ‘(किसी दूसरे का) नाम लगाना।’ (किसी के) नाम का कुत्ता न पालना=किसी को इतना घृणित, तुच्छ या नीच समझना कि उसका नाम तक लेना या सुनना भी बहुत अप्रिय या बुरा लगे। जैसे–हम तो उसके नाम का कुत्ता भी ना पालें। (कोई काम अपने) नाम के लिए करनाँ=कोई काम केवल कीर्ति या प्रसिद्धि प्राप्त करने अथवा मर्यादा की रक्षा के उद्देश्य से करना। (कोई काम) नाम के लिए या नाममात्र के लिए करना=मन लगाकर या वास्तव में नहीं, बल्कि केवल कहने-सुनने या दिखलाने भर के लिए थोड़ा-सा कार्य या यों ही करना। नाम को मरना=नाम की मर्यादा या लज्जा रखने अथवा कीर्ति या यश बनाये रखने के लिए यथासाध्य प्रयत्न करते रहना। (किसी का) नाम चमकना=चारों ओर कीर्ति परंपरा, वंश आदि का अस्तित्व या क्रम चलता या बना रहना। नाम जगना=(क) ख्याति या प्रसिद्धि होना। (ख) फिर से किसी के नाम की ऐसी चर्चा या प्रचार होना कि लोगों में उसकी स्मृति जाग्रत हो। (किसी का) नाम जगाना=ऐसा काम करना जिससे किसी की याद या स्मृति बनी रहे। (किसी का) नाम जपना=प्रेम, भक्ति श्रद्धा आदि से प्रेरित होकर बराबर किसी का नाम लेते रहना या उसे याद करते रहना। (कोई चीज या रकम किसी के) नाम डालता=बही-खाते में, किसी के नाम के आगे लिखना। यह लिखना कि अमुक चीज या रकम अमुक व्यक्ति के जिम्मे है या उससे ली जाने को है। जैसे–यह रकम हमारे नाम डाल दो। नाम डुबाना=कलंक या लांछन के पात्र बनकर प्रतिष्ठा, मर्यादा आदि नष्ट करना। नाम तक मिटना या मिट जाना=कहीं कुछ भी अवशेष या चिह्न बाकी न रह जाना। (किसी के) नाम देना=खाते में किसी के नाम लिखकर कुछ देना। (किसी को कोई) नाम देना=किसी का नामकरण करना। नाम रखना। (दे० नीचे) (किसी को किसी देवता का) नाम देना=धार्मिक क्षेत्रों में, गुरु बनकर किसी को किसी देवता के नाम या मंत्र का उपदेश देना। (किसी वस्तु या व्यक्ति का) नाम धरना=(क) नाम रखना या स्थिर करना। नामकरण करना। (ख) कोई ऐब या दोष लगाकर बुरा ठहराना या बतलाना। निंदा या बदनामी करना। नाम धरना=(क) नाम स्थिर करना। (ख) लोगों में निंदा या बदनामी कराना। नाम न लेना=अरुचि, घृणा, दुःख, भय आदि के कारण चर्चा तक न करना। बिलकुल अलग या दूर रहना। मन में विचार न करना। जैसे–अब वह कभी वहाँ जाने का नाम न लेगा। नाम निकलना या निकल जाना=किसी बात के लिए नाम प्रसिद्धि हो जाना। किसी विषय में ख्याति हो जाना। (अच्छी और बुरी सभी प्रकार की बातों के लिए युक्त) नाम निकलवाना=(क) किसी प्रकार की ख्याति या प्रसिद्धि कराना। (ख) कोई चीज चोरी जाने पर टोने-टोटके, मंत्र-यंत्र आदि की सहायता से यह पता लगाना कि वह चीज किसने चुराई है। नाम निकालना=(क) किसी काम या बात के लिए नाम प्रसिद्धि करना (ख) टोने-टोटके, मंत्र-यंत्र आदि की सहायता से अपराधी या दोषी के नाम का पता लगाना। नाम पड़ना=नाम निश्चित होना या रखा जाना। नामकरण होना। (कोई चीज या रकम किसी के) नाम पड़ना=बही-खाते आदि में यह लिखा जाना कि अमुक चीज या रकम अमुक व्यक्ति को दी गई है और वह चीज या उसका मूल्य उससे लिया जाने को है। (किसी के) नाम पर बैठना=(क) किसी के भरोसे या विश्वास पर संतोष करके चुपचाप तथा धैर्य-पूर्वक पड़े रहना या बैठे रहना। जैसे–हम तो ईश्वर के नाम पर बैठे ही हैं, जो चाहेगा सो करेगा। (ख) किसी की प्रतिष्ठा की रक्षा के विचार से शांत स्थिर भाव से दिन बिताना। जैसे–उसे विधवा हुए दस वर्ष हो गए; पर आज तक वह अपने पति के नाम पर बैठी है। (किसी के) नाम पर मरना या मिटना=किसी की प्रतिष्ठा या मान-रक्षा के लिए अथवा किसी के प्रेम के आवेग में बहुत-कुछ कष्ट या हानी सहना। जैसे–जाति या देश के नाम पर मरना या मिटना। नाम-पाना=कोई अच्छा काम करके ख्यात या प्रसिद्ध होना। नाम बद या बदनाम करना=ऐब या कलंक लगाना। बदनामी करना। (किसी का) नाम बिकना=ख्याति या प्रसिद्धि हो चुकने पर आदर, प्रचार आदि होना। नाम भर बाकी रहना=और सब बातों का अंत हो जाने पर भी कीर्ति, यश आदि के रूप में केवल नाम की याद या स्मृति बच रहना। जैसे–अब तो इंद्रप्रस्थ का नाम बाकी है। (किसी का) नाम रखना=(क) नाम निश्चित करना। नामकरण करना। कीर्ति या यश सुरक्षित रखना। (ग) किसी चीज या बात में कोई कलंक या दोष निकालना या लगाना। बदनाम करना। (अपकार, अपराध आदि के संबंध में, किसा का) नाम लगना=झूठ-मूठ यह कहा जाना कि अमुक व्यक्ति ने यह अपकार या अपराध किया है। किसी के सिर झूठा कलंक मढ़ा जाना। जैसे–किताब फाड़ी तो उस लड़के ने और नाम लगा तुम्हारा। (किसी का) नाम लगाना=किसी अपराध या दोष के संबंध में किसी के सिर झूठा कलंक मढ़ना। अपराध का कलंक लगाना। जैसे–तुम्हीं ने सारा काम बिगाड़ा, और अब दूसरों का नाम लगाते हो। (कोई चीज या रकम किसी के) नाम लिखना=दे० ऊपर (कोई चीज या रकम किसी के) नाम डालना। (किसी का) नाम लेना=(क) नाम का उच्चारण करना। नाम जपना या रटना। जैसे–सबेरे-संध्या कुछ देर तक ईश्वर का नाम लिया करो। (ख) किसी के उपकार आदि के बदले में कृतज्ञतापूर्वक उसके नाम का उल्लेख या चर्चा करना। जैसे–अब तो उनका घर भर तुम्हारा ही नाम लेता है। (ग) यों ही साधारण रूप से उल्लेख या चर्चा करना। जैसे–अब अगर तुमने उनके घर जाने का नाम लिया, तो ठीक न होगा। नाम से पुजना या बिकना=केवल सुनाम प्राप्त हो चुकने अथवा कीर्ति या यश फैल जाने के कारण आदर या सम्मान का भाजन बनना। नाम होना=(क) खूब ख्याति या प्रसिद्धि होना। (ख) दे० ऊपर ‘नाम लगना’।... तो मेरा नाम नहीं=तो समझ लेना कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। तो मुझे बिलकुल अकर्मण्य, तुच्छ या हीन समझ लेना। जैसे–यदि मैं उसे हराकर न छोड़ूँ तो मेरा नाम नहीं।
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नामक  : वि० [सं०] उत्तर पद में,... नाम का या... नाम वाला। जैसे–यहाँ कोई राम नामक लड़का रहता है ?
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नाम-करण  : पुं० [सं० त०] १. किसी का नाम रखने या किसी को नाम देने की क्रिया या भाव। जैसे–इस नाटक का नाम-करण उसके नायक के नाम पर हुआ है। २. हिंदुओं में एक संस्कार, जिसमें विधिवत् पूजा-पाठ करके बच्चे का नाम रक्खा जाता है।
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नाम-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] नामकरण (संस्कार)।
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नाम-कीर्तन  : पुं० [ष० त०] कीर्तन का वह प्रकार जिसमें भगवान के किसी एक नाम का कुछ समय तक बराबर उच्च स्वर में जाप किया जाता है।
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नाम-कोश  : पुं० [ष० त०] ऐसा कोश जिसमें नामवाचक संज्ञाओं का संकलन और उनके अर्थ या व्याख्याएँ हों। (नामेक्लेचर)
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नाम-चढ़ाई  : स्त्री० [हिं नाम+चढ़ाना] वह क्रिया जिसमें सरकारी कागज-पत्रों आदि पर संपत्ति आदि के स्वामित्व पर से एक व्यक्ति का नाम हटाकर दूसरे का नाम चढ़ाया जाता है। दाखिल खारिज। (म्यूटेशन)
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नाम-जद  : वि० [फा० नामजद] [भाव० नामजदगी] १. नामांकित। २. मनोनीत। ३. प्रसिद्धि। ४. (बालिका) जिसकी मंगनी हो चुकी हो।
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नाम-जदगी  : वि० [फा० नामज़दगी] नामजद अर्थात् नामांकित या मनोनीत करने या होने की क्रिया या भाव।
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नामतः (तस्)  : अव्य० [सं० नामन्+तस्] नाम से। नाम के द्वारा।
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नामदार  : वि० [फा०] नामवर। प्रसिद्ध।
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नामदेव  : पुं० १. वामदेव के दोहित्र एक प्रसिद्ध भक्त जो भगवान कृष्ण (मूर्ति) के दूध न पीने पर आत्म-हत्या करने पर उतारू हो गए थे। कहते हैं कि अंत में भगवान ने स्वयं प्रकट होकर दूध पीया और उन्हें आत्म-हत्या करने से रोका। २. महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध वैष्णव भक्त कवि। (संवत् १3२6-१407 वि०)
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नाम-द्वादशी  : स्त्री० [सं०] देवी पुराण के अनुसार अगहन सुदी तीज को रखा जानेवाला व्रत, जिसमें गौरी, काली, उमा, भद्रा, कांति, सरस्वती, मंगला, वैष्णवी, लक्ष्मी, शिवा और नारायणी इन बारह देवियों की पूजा की जाती है।
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नामधन  : पुं० [सं०] एक प्रकार का संकर राग जो मल्लार, शंकराभरण, बिलावल, सूदे और केदारे के योग से बना है।
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नाम-धरता  : पुं० [हिं० नाम+धरना=रखना] जो किसी का कोई नाम रखे या स्थिर करे। नामकरण करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाम-धराई  : स्त्री० [हिं० नाम+धराना] १. नाम विशेषतः चिढ़ धरने की क्रिया या भाव। २. बदनामी।
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नाम-धाम  : पुं० [हिं० नाम+धाम] व्यक्ति का नाम और उसका निवास-स्थान। नाम और पता-ठिकाना।
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नाम-धारक  : वि० [सं० ष० त०] जो केवल नाम के लिए हो, पर जिससे कोई कान न निकल सकता हो। नाम मात्र का।
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नामधारी (रिन्)  : वि० [सं० नामन्√धृ (धारण)+णिनि] नाम धारक। पुं० [हिं० नाम+धारना] १. सिक्खों का एस संप्रदाय, जिसके संस्थापक थे रामसिंह। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी सिक्ख।
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नामधेय  : वि० [सं० नामन्+धेय] नामवाला। पुं० १. नाम। २. नामकरण।
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नाम-निक्षेप  : पुं० [सं० ष० त०] नाम स्मरण। (जैन)
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नाम-निर्देशन  : पुं० [सं० ष० त०]=नामांकन।
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नाम-निर्देश पत्र  : पुं० [सं० नाम-निर्देश, ष० त०, नामनिर्देश-पत्र, ष० त०]=नामांकन पत्र।
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नाम-निवेश  : पुं० [सं० ष० त०] १. खाते, रजिस्टर आदि में नाम चढ़ाया जाना। (एन्रोलमेंट) २. दे० ‘नाम-चढ़ाई’।
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नाम-निशान  : पुं० [फा०] किसी वस्तु का नाम और उसके सूचक शेष चिह्न या पता-ठिकाना। ऐसा चिह्न या लक्षण जिससे किसी चीज या बात के अस्तित्व का पता चलता या प्रमाण मिलता हो। जैसे–अब तो उस गाँव का नाम-निशान भी नहीं रह गया है।
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नाम-पट्ट  : पु. [सं० ष० त०] वह पट्ट या तख्त जिस पर व्यक्ति, संस्था, दुकान आदि का नाम लिखा होता है। (साइनबोर्ड)
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नाम-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] कागज की वह चिप्पी जो जिस पर लगाई जाती है उसका विवरण बताती है। (लेबल)
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नामपत्रित  : भू० कृ० [सं० नामपत्र+इतच्] जिस पर नामपत्र लगाया गया हो।
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नाम-बोला  : पुं० [हिं० नाम+बोलना] ऐसा व्यक्ति, जो ईश्वर या देवता के नाम का उच्चारण या जप करता हो।
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नाम-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. बहुत से नामों की अवली, माला या श्रृंखला। २. दे० ‘नाम-कोश’।
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नाम-यज्ञ  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसा यज्ञ जो नाम कमाने के लिए किया जाय।
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नाम-रासी  : वि० [हिं० नाम+सं० राशि] किसी की दृष्टि में उसी के नाम और राशिवाला। हम-नाम।
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नाम-रूप  : पुं० [सं० द्व० स०] १. किसी वस्तु या व्यक्ति का वह नाम और रूप जिससे उसका परिज्ञान होता हो। २. मन से युक्त दृश्यमान् शरीर। ३. बौद्ध दर्शन में, गर्भ में स्थित एक महीने के भ्रूण की संज्ञा।
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नामर्द  : वि० [फा०] [भाव० नामर्दी] १. जो मर्द अर्थात् पुरुष न हो। २. जिसमें पुरुष की शक्ति न हो। नपुंसक। जिसमें पुरुषों जैसा हौसला न हो। भीरु।
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नामर्दी  : स्त्री० [फा०] १. नामर्द होने की अवस्था या भाव। २. वह रोग या स्थिति जिसमें पुरुष स्त्री से संभोग करने में असमर्थ होता है। नपुंसकता। ३. कायरता। भीरुता।
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नाम-लिखाई  : स्त्री० [हिं० नाम+लिखना] १. किसी संस्था आदि के सदस्य बनने पर उसी पंजी, तालिका आदि में नाम लिखा जाना। २. वह धन या शुल्क जो उक्त अवसर पर देना पड़ता है।
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नाम-लेवा  : पुं० [हिं० नाम+लेवा=लेनेवाला] १. ऐसा व्यक्ति जो किसी का विशेषतः उसके मरने पर उसका स्मरण करे। २. औलाद। संतान।
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नामवर  : वि० [फा०] [भाव० नामवरी] जिसका नाम आदर से लिया जाता हो। अति प्रसिद्ध।
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नामवरी  : स्त्री० [फा०] प्रसिद्धि।
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नाम-शेष  : वि० [सं० ब० स०] १. जो अस्तित्व में न रह गया हो, बल्कि जिसका केवल नाम ही लोग जानते हों। २. ध्वस्त। ३. मृत।
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ना-महरम  : वि० [फा०+अ०] १. अनजान। अपरिचित। २. पराया। गैर। ३. (व्यक्ति) जिसके सामने स्त्रियाँ न हो सकती हों और जिनसे बात-चीत करना उनके लिए धर्म-शास्त्रानुसार निषिद्ध हो। जिससे परदा करना स्त्रियों के लिए उचित तथा विहित हो। (मुसल०)
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नाम-हँसाई  : स्त्री० [हिं० नाम+हँसना] लोगों में किसी के नाम की हँसी उड़ाना या उपहास होना। उपहास करानेवाली बदनामी।
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नामांक  : पुं० [सं० नामन्-अंक, ब० स०] वह संख्या जो किसी सूची में लिखित नामों पर क्रमशः लगाई गई हो। वि०=नामांकित।
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नामांकन  : पुं० [स० नामन्-अंकन, ष० त०] १. नाम अंकित करने की क्रिया या भाव। २. किसी का किसी पद, स्थान, निर्वाचन आदि के लिए अधिकारिक रूप से नाम प्रस्तावित किया जाना। ३. वह स्थिति जिसमें किसी को किसी पद, सेवा आदि के लिए आधिकारिक रूप में नियुक्त किया जाता है। (नामिनेशन, उक्त सभी अर्थों में)
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नामांकन-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें संबद्ध अधिकारी को यह सूचित किया जाता है कि अमुक पद के लिए अमुक व्यक्ति उम्मेदवार के रूप में खड़ा हो गया है, और उस अधिकारी से तत्संबंधी स्वीकृति की प्रार्थना की जाती है। (नामिनेशन पेपर)
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नामांकित  : वि० [सं० नामन्-अंकित ब०, स०] १. जिस पर नाम अंकित किया अर्थात् लिया या खुदा हो। २. जिसका किसी काम या पद के लिए नामांकन हुआ हो। नामजद। (नामिनेटेड) ३. प्रसिद्ध।
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नामांकित  : पुं० [सं० नामांकित] वह जो किसी चुनाव, पद, कार्य में नामांकित किया गया हो। (नामिनी)
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नामांतर  : पुं० [सं० नामन्-अंतर, मयू० स०] १. किसी एक ही व्यक्ति का दूसरा नाम। २. उपनाम। ३. पर्याय।
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नामांतरण  : पुं० [सं० नामान्तर+णिच्+ल्युट्–अन] १. नाम बदलने की क्रिया या भाव। २. किसी संपत्ति पर स्वामी के रूप में लिखा हुआ पुराना नाम हटाकर उसकी जगह किसी दूसरे नये व्यक्ति का स्वामी के रूप में नाम चढ़ाया जाना। दाखिल खारिज। (म्यूटेशन)
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नामांतरित  : भू० कृ० [सं० नामांतर+णिच्+क्त] १. जिसका नामांतरण हुआ हो। २. जिसका नाम किसी पुराने स्वामी के नाम की जगह नये सिरे से चढ़ा या लिखा गया हो।
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नामा  : वि० [सं० नाम] नामधारी। पुं० प्रसिद्ध भक्त नामदेव का संक्षिप्त रूप। पुं० [हिं० नाम (पड़ी हुई रकम)] १. किसी से प्राप्य धन। पावना। २. रुपया-पैसा। नाँवाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [फा० नामः] पत्र। चिट्ठी।
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ना-माकूल  : वि० [फा० ना+अ० माकूल] [भाव० नामाकलियत] १. जो माकूल अर्थात् उचित, उपयुक्त या ठीक न हो। २. अपूर्ण। अधूरा। ३. बेढंगा। बेढब। ४. अयोग्य। ५. नालायक।
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नामानुशासन  : पुं [सं० नामन्-अनुशासन, ष० त०] शब्दकोश।
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नामाभिधान  : पुं० [सं० नामन्-अभिधान, ष० त०] शब्दकोश।
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ना-मालूम  : वि० [फा० ना+अ० मालूम] जो मालूम अर्थात् ज्ञात न हो अज्ञात।
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नामावली  : स्त्री० [सं० नाम्न्-आवली, ष० त०] १. ऐसी सूची जिसमें चीजों या व्यक्तियों के नाम दिए हुए हों। २. भक्तों के ओढ़ने-पहनने का वह कपड़ा जिसपर कृष्ण, राम, शिव आदि देवताओं के नाम छपे होते हैं।
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नामि  : पुं० [सं०] विष्णु।
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नामिक  : वि० [सं०] १. नाम या संज्ञा-संबंधी। २. जो केवल नाम के लिए या संकेत रूप में हो और जिसका वास्तविक तथ्य से कोई विशेष संबंध न हो। नाम भर का। (नॉमिनल)
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नामित  : वि० [सं०√नम् (झुकना)+णिच्+क्त] झुकाया हुआ।
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नामी  : वि० [फा०] १. नामवाला। २. जिसका नाम या प्रसिद्धि हो। नामवर। प्रसिद्ध। मशहूर।
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नामी-गिरामी  : वि० [फा०] प्रसिद्ध और पूजनीय।
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ना-मुआफिक  : १. [फा० नामुआफ़िक] जो मुआफिक या अनुकूल न हो। २. प्रतिकूल। विरुद्ध। ३. जो किसी से सहमत न हो। अ-सहमत।
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ना-मुनासिब  : वि० [फा०+अ०] जो मुनासिब अर्थात् उचित न हो। अनुचित।
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ना-मुमकिन  : वि० [फा० ना+अ० मुम्किन] जो मुमकिन अर्थात् संभव न हो। असंभव।
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ना-मुराद  : वि० [फा०] [भाव० ना-मुरादी] १. जिसका मुराद अर्थात् कामना पूरी न हुई हो। विफल मनोरथ। २. अभागा। बद-नसीब।
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ना-मुवाफिक  : वि०=ना-मुआफिक।
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नामूद  : स्त्री० [फा० नामूद] १. आविर्भाव। २. धूम-धाम। तड़क-भड़क। ३. ख्याति। प्रसिद्धि। वि० प्रसिद्धि। मशहूर। (अशुद्ध प्रयोग)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नामूसी  : स्त्री० [अ० नामूस=इज्जत] १. बेज्जती। अप्रतिष्ठा। २. बदनामी। निंदा।
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ना-मेहरबान  : वि० [फा० नामेह्रबाँ] [भाव० नामेह्रबानी] जो मेहरबान अर्थात् अनुकूल या प्रसन्न न हो।
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नामोल्लेख  : पुं० [नामन्-उल्लेख, ष० त०] किसी प्रसंग या विषय में किसी के नाम का होनेवाला उल्लेख।
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ना-मौजूँ  : वि० [फा०] १. जो मौजूँ या उपयुक्त न हो। अनुपयुक्त। २. अनुचित। ना मुनासिब। ३. (शेर का पद अर्थात् चरण) जो वजन से खारिज हो अर्थात् जिसमें मात्राएँ या वर्ण कम-बैशी हों।
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नाम्ना  : वि० [सं० नामन् शब्द के तृतीया विभक्ति का एक वचन रूप ?] [स्त्री० नाम्नी] नामवाला। नायक।
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नाम्य  : वि० [सं०√नम्+णिच्+यत्] १. झुकाये जाने के योग्य। २. जो झुकाया जा सके। लचीला।
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नायँ  : पुं०=नाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० नहीं।
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नाय  : पुं० [सं०√नी (ले जाना)+घञ्] १. नय। नीति। २. उपाय। युक्ति। ४. अगुआ। नेता। ४. नेतृत्व। स्त्री०=नाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नायक  : पुं० [सं०√णी+ण्वुल–अक] १. लोगों को अपनी आज्ञा के अनुसार चलानेवाला व्यक्ति। जैसे–सामाजिक या राजनैतिक नेता। जैसे–सेनानायक। ४. साहित्य-शास्त्र के अनुसार किसी साहित्यिक रचना का प्रधान पुरुष पात्र। धीरललित, धीरशांत, धीरोदात्त और धीरोद्धत इसके ये चार प्रमुख भेद हैं। ५. श्रृंगार रस की कविताओं या पद्यों में आलंबन विभाव। इसके पति, अनुकूल पति, दक्षिणानायक शठनायक, धृष्टनायक, उपपत्ति, वैशिक, मानी, वचन-चतुर, क्रियाचतुर, प्रेषित आदि अनेक भेद हैं। ६. बंजारा। ७. हार के मध्य की मणि या रत्न। ८. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त। ९. एक राग जो दीपक राग का पुत्र माना जाता है। १॰. संगीत-कला में निपुण व्यक्ति। ११. एक जाति जिसके पुरुष नाचने-गाने आदि की शिक्षा देते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति भी करती हैं।
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नायका  : स्त्री० [सं० नायिका] १. वह वयस्क या वृद्धा स्त्री, जो युवती स्त्रियों को अपने पास रखकर उनसे गाने-बजाने का पेशा और व्याभिचार कराती हों। २. कुटनी। ३. दे० ‘नायिका’।
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नायकी  : वि० [सं० नायक] नायक संबंधी। नायक या नायकों का। जैसे–नायकी कान्हड़ा। स्त्री० नायक होने की अवस्था, पद या भाव। नायकत्व।
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नायकी कान्हड़ा  : पुं० [हिं० नायकी+कान्हड़ा] एक प्रकार का कान्हड़ा (राग) जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
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नायकी मल्लार  : पुं० [सं० नायक+मल्लार] संपूर्ण जाति का एक प्रकार का मल्लार (राग) जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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नायत  : पुं० [?] वैद्य। (डिं०)
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नायन  : स्त्री० [हिं० नाई का स्त्री० रूप] १. नाई जाति की स्त्री। २. नाई की पत्नी।
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नायब  : वि० [अ० नाइब] १. (अधिकारी) जो किसी प्रधान अधिकारी का सहायक हो। जैसे–नायब तहसीलदार। २. स्थानापन्न। ३. किसी का प्रतिनिधि बनकर काम करनेवाला।
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नायबी  : स्त्री० [हिं० नायब+ई (प्रत्य०)] नायब होने की अवस्था, पद या भाव।
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नायाब  : वि० [फा०] [भाव० नायाबी] १. जो न मिलता हो। अप्राप्य। २. जो सहज में न मिलता हो। दुष्प्राप्य। ३. बहुत बढ़िया या श्रेष्ठ।
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नायिका  : स्त्री० [सं० नायक+टाप्, इत्व] १. स्वामिनी। २. पत्नी। ३. साहित्य शस्त्र में, किसी नाटक की प्रधान पात्री। ४. श्रृंगार रस में पुरुष से संबंध रखनेवाली पात्री जिसके धर्म के विचार से स्वकीया, परकीया और सामान्या से तीन प्रमुख भेद। स्वभाव के अनुसार उत्तमा, मध्यमा और अधमा तथा अन्य अनेक दृष्टियों से दूसरे बहुत-से भेद माने गए हैं। ४. कहानी उपन्यास आदि की मुख्य पात्री।
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नायिकाधिप  : पुं० [सं० नायिका-अधिप, ष० त०] राजा।
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नारंग  : पुं० [सं०√नृ (ले जाना)+अंगच्, वृद्धि] १. नारंगी। २. गाजर। ३. पिप्पलिरस। ४. यमज प्राणी।
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नारंगी  : स्त्री० [सं० नागरंग, अ० नारंज] १. नीबू की जाति का एक प्रकार की मझोला पेड़, जिसमें मीठे सुगंधित और रसीले फल लगते हैं। २. उक्त पेड़ का फल। वि० नारंगी (फल) के छिलके की तरह के पीले रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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नार  : वि० [सं० नर+अण्] १. नर या मनुष्य-संबंधी। नर का। २. आध्यात्मिक। पुं० १. गौ का बछड़ा। २. जल। पानी। ३. मनुष्यों का झुंड, दल या समूह। ४. सोंठ। स्त्री० [सं० नाल] १. गला। २. गरदन। ग्रीवा। मुहा०–नार नवाना या नीची करना=लज्जा संकोच आदि से अथवा आदर-सम्मान प्रकट करने के लिए किसी के आगे गरदन या सिर झुकाना। ३. वह नाड़ी या नली जिससे नव-जात शिशु माता के गर्भ से बँधा रहता है। नाल। (दे०) पद–नार-बेवार। (दे०) ४. छोटा रस्सा। ५. वह डोरी जो घाघरे, पाजामे आदि के नेफे में पिरोई रहती है और जिसकी सहायता से वे कमर में बाँधे जाते हैं। नाड़ा। नाला। ६. पौधों के वे डंठल जो बालें काट लेने के बाद बच रहते हैं। ७. मैदानों में चरनेवाले चौपायों का झुंड। स्त्री०=नारि (स्त्री)। उदा०–नीके है छींके हुए ऐसे ही रह नार।–बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारक  : पुं० [सं० नरक+अण्] १. नरक। २. नरक में रहनेवाला प्राणी।
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नारकिक  : वि०=नारकी।
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नारकी  : वि० [सं० नारकिन्] १. नरक में पड़ा हुआ। जो नरक भोग रहा हो। २. जिसका नरक में जाना निश्चित हो; अर्थात् परम दुराचारी या पापी।
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नारकीट  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कीड़ा। अश्मकीट। २. वह जो किसी को आशा में रखकर निराश करे; फलतः अधम या नीच।
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नारकीय  : वि० [सं० नरक+छण्–ईय] १. नरक-संबंधी। २. नरक में रहने या होनेवाला। ३. बहुत ही अधम या पापी (व्यक्ति)।
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नारद  : पुं० [सं० नार=आत्मज्ञान√दा (देना)+क] १. एक प्रसिद्ध देवर्षि और भगवान के परम भक्त जो ब्रह्मा के पुत्र कहे गए हैं, और जिनका नाम अनेको आख्यानों, कथाओं आदि में आता है। २. उक्त के आधार पर ऐसा व्यक्ति जो प्रायः लोगों में लड़ाई-झगड़े कराता रहता हो। ३. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। ४. एक प्रजापति। ५. चौबीस बुद्धों में से एक बुद्ध। ६. कश्यप ऋषि की संतान, एक गन्धर्व। ७. शाक द्वीप का एक पर्वत।
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नारद-पुराण  : पुं० [सं० मध्य स०] १. अठारह पुराणों में से एक जिसमें सनकादिक ने नारद को संबोधन करके अनेक कथाएँ कही हैं और उपदेश दिए हैं। इसमें तीर्थों और व्रतों के माहात्मय बहुत अधिक हैं। २. एक-उपपुराण, जिसे बृहन्नारदीय भी कहते हैं।
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नारदी (दिन्)  : पुं० [सं० नारद+इनि] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
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नारदीय  : वि० [सं० नारद+छ–ईय] नारद का। नारद-संबंधी। जैसे–नारदीय पुराण।
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नारन  : पुं० [सं० नार+हिं० न (प्रत्य०)] नर-समूह। मनुष्यों का समुदाय। उदा०–मनौं तज्यो तारन बिरद, बारक नारन तारि।–बिहारी।
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नारना  : वि० [सं० ज्ञान, प्रा० णाण+हिं० न] थाह लगाना। पता लगाना। भाँपना। नाड़ना।
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नारफ़िक  : पुं० [अं० नारफ़िक] इंग्लैण्ड के नारफॉक प्रदेश में होनेवाले घोड़ों की एक जाति।
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नार-बेबार  : पुं० [हिं० नार+सं० विवार=फैलाव] तुरंत के जनमे हुए बच्चे की नाल, खेड़ी आदि।
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नारमन  : पुं० [अं०] १. फ्रांस के नारमंडी प्रदेश का निवासी, व्यक्ति या इन व्यक्तियों की जाति। २. जहाज पर का वह खूँटा जिसमें रस्सा बाँधा जाता है। स्त्री० फ्रांस के नारमंडी प्रदेश की बोली या भाषा !
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ना-रसा  : वि० [फा०] [भाव० ना-रसाई] १. जो पहुँच न सके। २. जिसकी पहुँच न हो।
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ना-रसाई  : स्त्री० [फा०] पहुँच न होने की अवस्था या भाव।
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नारसिंह  : पुं० [सं० नरसिंह+अण्] १. नरसिंह रूपधारी विष्णु। २. एक उप-पुराण जिसमें नृ-सिंह अवतार की कथा है। ३. एक तांत्रिक ग्रंथ।
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नारसिंही  : वि० [सं० नारसिंह] १. नारसिंह-संबंधी। नारसिंहका। २. बहुत उग्र, प्रबल या विकट। जैसे–नरसिंही टोना-टोटका।
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नारांतक  : पुं० [सं०] रावण का एक पुत्र।
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नारा  : पुं० [सं० नाल, हिं० नार] १. घाघरे, पाजामे आदि के नेफे में की वह मोटी डोरी जो पहनावे पहनते समय कमर में बाँधी जाती है। २. रँगा हुआ लाल रंग का वह सूत जो प्रायः पूजन के अवसर पर देवताओं को चढ़ाया जाता है। ३. हल के जूए में बँधी हुई रस्सी। पुं० [स्त्री० नारी] बड़ी नाली। नारा। पुं० [अ० नडारः] १. जोर का शब्द। २. किसी दल, समुदाय आदि की तीव्र अनुभूति और इच्छा का सूचक कोई पद या गठा हुआ वाक्य जो लोगों को आकृष्ट करने के लिए उच्च स्वर से बोला और सब को सुनाया जाता है। जैसे–भारत माता की जय।
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नाराइन  : पुं०=नारायण।
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नाराच  : पुं० [सं० नार-आ√चम् (खाना)+ड] १. ऊपर से नीचे तक लोहे का बना हुआ तीर या बाण। २. ऐसा दिन जिसमें बादल घिरे रहें। मेघों से आच्छादिन दिन। दुर्दिन। ३. एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २4 मात्राएँ होती हैं। ४. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और चार रगण होते हैं। इसे महामालिनी और नारका भी कहते हैं।
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नाराच घृत  : पुं० [सं०] चीते की जड़, त्रिफला, भटकटैया, बायविडंग आदि एक साथ मिलाकर तथा घी में पकाकर तैयार किया हुआ एक औषध जो मालिश, लेप आदि के काम आता है।
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नाराचिका  : स्त्री० [सं० नाराच+ठन्–इक, टाप्] सुनारों आदि का छोटा काँटा या तराजू।
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नाराची  : स्त्री० [सं० नाराच+अच्–ङीष्] सुनारों आदि का छोटा काँटा।
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नाराज  : वि० [फा० नाराज] [भाव० नाराजगी] अप्रसन्न। रुष्ट। नाखुश। खफा।
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नाराजगी  : स्त्री० [फा०] नाराज होने की अवस्था या भाव।
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नाराजी  : स्त्री०=नाराजगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारायण  : पुं० [सं० नार-अयन, ब० स०] १. ईश्वर। परमात्मा। भगवान। २. विष्णु। ३. कृष्ण यजुर्वेद के अंतर्गत एक उपनिषद्। ४. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ५. ‘अ’ अक्षर की संज्ञा। ६. पूस का महीना। पौष मास।
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नारायण-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] गंगा के प्रवाह से चार हाथ तक की भूमि।
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नारायण तैल  : पुं० [सं०] आयुर्वेद में एक तरह का तेल जो मालिश करने के काम आता है।
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नारायण-प्रिय  : पुं० [ष० त० या ब० स०] १. महादेव। शिव। २. पाँचों पांडवों में के सहदेव। ३. पीला चंदन।
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नारायण-बलि  : स्त्री० [मध्य० स० या च० त०] आत्म-हत्या आदि करके मरे हुए व्यक्ति की आत्मा की शांति तथा शुद्धि के लिए उसके दाह-संस्कार से पहले प्रायश्चित्त के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, यम और प्रेत के उद्देश्य से दी जानेवाली बलि।
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नारायणी  : स्त्री० [सं० नारायण+अण्–ङीप्] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. गंगा। ४. मुद्ल ऋषि की पत्नी का नाम। ५. श्रीकृष्ण की वह प्रसिद्ध सेना जो उन्होंने महाभारत के युद्ध में दुर्योधन को उसकी सहायता के लिए दी थी। ६. शतावर। ७. संगीत में, खम्माच ठाठ की एक रागिनी। वि०=नारायणी। जैसे–नारायणी माया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारायणीय  : वि० [सं० नारायण+छ–ईय] नारायण-संबंधी। नारायण का। पुं० महाभारत के शांति-पर्व का एक उपाख्यान जिसमें नारद और नारायण ऋषि की कथाएँ हैं।
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नाराशंस  : वि० [सं० नर-आ√शंस् (स्तुति)+घञ् नाराशंस=पितर+अण्] मनुष्यों की प्रशंसा या स्मृति से संबंध रखनेवाला। पुं० १. वेद में के रुद्र दैवत्य मंत्र, जिनमें मनुष्यों की प्रशंसा की गई है। २. ऊम, और्व और काव्य, ये तीन पितृगण। ३. उक्त पितृगणों के निमित्त यज्ञ आदि में छोड़ा जानेवाला सोमरस। ४. एक तरह का पात्र जिससे यज्ञ में उक्त उद्देश्य से सोमरस छोड़ा जाता था। ५. पितर।
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नाराशंसी  : स्त्री० [सं० नार-आशंसी, ष० त०] १. मनुष्यों की प्रशंसा या स्तुति। २. वेदों का वह मंत्र-भाग जिसमें अनेक राजाओं के दानों आदि का प्रशंसात्मक उल्लेख है।
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नारि  : स्त्री० [हिं० नाल] १. बड़ी तोप, विशेषतः हाथी पर रखकर चलाई जानेवाली तोप। २. दे० ‘नाड़’। ३. गरदन। उदा०–अति अधीन सुजान कनौड़े गिरिधर नारि बनावति।–सूर स्त्री० [सं० नार] १. समूह। झुंड। २. आगार। भंडार। स्त्री०=नारी (स्त्री)।
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नारिक  : वि० [सं० नार+ठक्–इक] १. जल का। जल-संबंधी। २. जल से युक्त। अध्यात्म-संबंधी। आध्यात्मिक। पुं० [?] पीतल, फूल आदि के वे पुराने बरतन जो दूकानदार लोग मरम्मत करके फिरसे नये के रूप में बेचते हैं। (कसेरे)
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नारिकेर  : पुं०=नारिकेल (नारियल)।
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नारिकेरी  : स्त्री०=नारिकेली।
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नारिकेल  : पुं० [सं०√किल् (क्रीड़ा)+घञ्, नारी-केल, ष० त०, पृषो० ह्रस्व] नारियल नामक वृक्ष और उसका फल।
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नारिकेल-क्षीरी  : स्त्री० [सं०] दूध में गरी डालकर बनाई जानेवाली खीर।
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नारिकेल  : खंड
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नारिकेली  : स्त्री० [सं० नारिकेल+अण्–ङीष्] नारियल के पानी से बनाई जानेवाली एक तरह की मदिरा।
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नारिदान  : पुं०=नाबदान (पनाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारि-माला  : स्त्री० [हिं० नली+माला] हल के पीछे लगी हुई वह नली और उसके ऊपर बना हुआ कटोरी के आकार का पात्र जिसमें बीज बोने के लिए छोड़े जाते हैं। नली को नारि और उसके मुँह पर के पात्र को माला कहते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारियल  : पुं० [सं० नारिकेल] १. समुद्र के किनारे और उसके आस-पास की भूमि में होनेवाला खजूर की जाति का एक तरह का ऊँचा बड़ा पेड़ जिसके फल की ऊपरी खोपड़ी को तोड़ने पर अंदर से गरी निकलती है। २. उक्त पेड़ का फल। पद–नारियल की जटा=नारियल के फल के ऊपर के कड़े और मोटे रेशे जिनसे रस्से आदि बनाये जाते और गद्दे भरे जाते हैं। मुहा०–नारियल तोड़ना=मुसलमानों की एक रीति जो गर्भ रहने पर की जाती है। नारियल तोड़कर उससे लड़का या लड़की होने का शकुन निकालते हैं। ३. नारियल की खोपड़ी से बनाया हुआ हुक्का।
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नारियल पूर्णिमा  : स्त्री० [हिं० +सं०] बम्बई प्रदेश में मनाया जानेवाला एक उत्सव जिसमें समुद्र में नारियल फेंकते हैं।
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नारियली  : स्त्री० [हिं० नारियल+ई (प्रत्य०)] १. नारियल की खोपड़ी। २. उक्त खोपड़ी का बना हुआ हुक्का। ३. नारियल की ताड़ी।
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नारी  : स्त्री० [सं० नृ.+अञ्–ङीन्] [भाव० नारीत्व] १. सं० ‘नर’ का स्त्री० रूप। मनुष्य जति का लिंग के विचार से वह वर्ग जो गर्भाधारण करके प्राणियों को जन्म देता है। २. विशेषतः वह स्त्री जिसमें लज्जा, सेवा, श्रद्धा आदि गुणों की प्रधानता हो। ३. युवती तथा वयस्क स्त्रियों की सामूहिक संज्ञा। ४. धार्मिक क्षेत्र में तथा साधकों की परिभाषा में (क) प्रकृति और (ख) माया। ५. तीन गुरु वर्णों की एक वृत्ति। स्त्री० [हिं० नार] वह रस्सी जिससे जुए में हल बाँधा जाता है। स्त्री० [सं० नारीष्टा] चमेली। मल्लिका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [?] जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक तरह की भूरे रंग की चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० १.=नाड़ी। २.=थाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नारी-कवच  : पुं० [ब० स०] एक सूर्यवंशी राजा जिसे स्त्रियों ने अपने बीच में घेर कर परशुराम से वध किये जाने से बचा लिया था। क्षत्रियों का वंश विस्तार इन्हीं से माना जाता है।
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नारीकेल  : पुं०=नारिकेल (नारियल)।
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नारीच  : पुं० [सं० नाडीच, ड=र] नालिता नाम का शाक।
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नारी-तरंगक  : पुं० [ष० त०] १. वह व्यक्ति जो नारी का हृदय तरंगित करे। २. प्रेमी। ३. व्यभिचारी व्यक्ति।
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नारी-तीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] एक तीर्थ जहाँ अर्जुन ने ब्राह्मण के शाप से ग्राह बनी हुई पाँच अप्सराओं का उद्धार किया था।
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नारी-मुख  : पुं० [ब० स०] पुराणानुसार कूर्म विभाग से नैर्ऋत् की ओर का एक देश।
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नारीष्टा  : स्त्री० [नारी-इष्टा, ष० त०] चमेली। मल्लिका।
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नारुंतुद  : वि० [सं० न-अरुन्तुद] जिसके शरीर पर कोई आघात न लगता हो।
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नारू  : पुं० [देश०] १. जूँ। ढील। २. एक प्रसिद्ध रोग जिसमें शरीर में होनेवाली फुंसियों में से सफेद रंग के सत के सूत के समान लंबे-लंबे कीड़े निकलते हैं। ये कीड़े त्वचा के तंतु-जाल में से निकलते हैं, रक्त में से नहीं। पुं० [हिं० नाली, पु० हिं० नारी] क्यारियों में की जाने या होनेवाली बोआई।
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नार्दल  : पुं० [देश०] पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नार्पत्य  : वि० [सं० नृपति+ष्यञ्] नृपति अर्थात् राजा से संबंध रखनेवाला।
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नार्मद  : वि० [सं० नर्मदा+अण्] नर्मदा-संबंधी। नर्मदा नदी का। पुं० नर्मदा में से निकलनेवाले एक प्रकार के शिव लिंग।
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नार्मर  : पुं० [सं०] ऋग्वेद में वर्णित एक असुर जिसका वध इन्द्र ने किया था।
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नार्य्यग  : पुं० [सं० नारी-अंग, ब० स०] नारंगी।
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नार्य्यतिक्त  : पुं० [सं०] चिरायता।
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नालंदा  : पुं० [सं०] मगध में स्थित एक जगत्-विख्यात् प्राचीन विश्व-विद्यालय जो पाटिलपुत्र से 30 कोस दक्षिण में था।
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नालंब  : वि० [स्त्री० नालंबा] निरवलंब। उदा०–पर हाय आज वह हुई निपट नालंबा।–मैथिलीशरण गुप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नालंबी  : स्त्री० [सं०] शिव की वीणा।
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नाल  : स्त्री० [सं०√नल् (बंधन)+ण] १. कमल, कुमुद आदि फूलों की पोली डंडी। डाँडी। २. पौधों में डंठल। कांड। ३. गेहूँ, जौ आदि की वह डंडी जिसमें बालें निकलती हैं। ४. नल या नली। २. बंदूक के आगे निकला हुआ पोला लंबा अंश जिसमें से गोली निकलती है। ७. जुलाहों की नली जिसमें वे सूत लपेटकर रखते हैं। छूँछा। कैंडा। छुज्जा। ८. वह रेशा जो कलम बनाते समय छीलने पर निकलता है। ९. रस्सी के आकार की वह नली जो एक ओर गर्भ के बच्चे की नाभि और दूसरी ओर गर्भाशय से मिली होती है। आँवला। मुहा०–नाल काटना=बच्चे का जन्म होने पर नाल काटकर उसे माता के शरीर से अलग करना। (किसी की कहीं) नाल गड़ी होना=(क) किसी स्थान से अति घनिष्ठ प्रेम या संबंध होना। (ख) किसी स्थान पर कोई स्वत्व होना। १॰. बाँस या मोटे कागज की वह नली जो आतिशबाजी की चरखियों में लगी रहती है और जिसमें विस्फोटक मसाले भरे रहते हैं। ११. छोटा नाला या पनाला। स्त्री० [अ० नअल] १. लोहे का वह अर्द्ध-चंद्राकार टुकड़ा जो घोड़ों की टाप में नीचे की ओर जड़ा जाता है। क्रि० प्र०–जड़ना। २. उक्त आकार का लोहे का पतला टुकड़ा जो जूतों के नीचे उनकी एड़ी घिसने से बचाने के लिए लगाया जाता है। ३. पत्थर का वह भारी कुंडलाकार टुकड़ा जिसे कसरत करनेवाले अभ्यास के लिए उठाते हैं। ४. लकड़ी का वह कुंडलाकार घेरा या चक्कर जिसके ऊपर कूएँ की जोड़ाई की जाती है। ५. वह धन जो जूआ खेलनेवाला व्यक्ति हर बार जीतनेवाले व्यक्ति से वसूल करता है। क्रि० वि० [?] संग या साथ में। (पश्चिम)
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नालक  : पुं० [देश०] १. पीतल की एक किस्म। २. उक्त किस्म के पीतल का बना हुआ पात्र। ३. एक प्रकार का बाँस।
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नाल-कटाई  : स्त्री० [हिं०] तुरन्त के जन्मे हुए बच्चे की नाक काटने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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नालकी  : स्त्री० [सं० नाल=डंडा] एक तरह की लंबी पालकी जिसमें वर की बैठाकर बरात निकाली जाती है। विशेष–कुछ नालकियाँ खुली होती हैं और कुछ पर मेहराबदार छाजन होती है।
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नालकेर  : पुं० [सं० नारिकेल] नारियल।
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नालबंद  : पुं० [अ०+फा०] [भाव० नालबंदी] १. वह व्यक्ति जो घोड़ों के खुर में नाल जड़ता हो। २. ऐसे मोची जो जूतों में नाल लगाता हो।
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नालबंदी  : स्त्री० [अ० नाल+फा० बंदी] जूतों की एड़ी अथवा घोड़ों के खुर में नाल जड़ने का काम। पुं० मुसलिम शासन-काल में एक प्रकार का कर जो जमींदार और छोटे राजा अपनी प्रजा से, उनकी रक्षा के लिए घुड़सवार रखने के बदले में लिया करते थे।
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नाल-बाँस  : पुं० [सं० नल+हिं० बाँस] एक तरह का बढ़िया और मजबूत बाँस।
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नालबंश  : पुं० [सं० उपमि० स०] नरसल। नरकट।
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नाल-शतीरी  : पुं० [अ० नाल+फा० शहतीर] लकड़ी की एक तरह की मेहराब जिसमें अनेक छोटी-छोटी मेहराबें कटी होती हैं।
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नाल-शाक  : पुं० [सं०] सूरन की नाल जिसकी तरकारी बनाई जाती है।
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नाला  : पुं० [सं० नाल] [स्त्री० अल्प० नाली] १. वह गहरा तथा लंबा कृत्रिम जल-मार्ग जो नहर आदि की अपेक्षा कम चौड़ा होता है तथा जिसमें बरसाती, गंदा या फालतू पानी बहकर किसी नदी आदि में जा गिरता है। २. रंगीन गंडेदार सूत। ३. दे० ‘नाड़ा’। स्त्री० [सं० नाल+टाप्] १. कमलदंड। २. पौधे का कोमल तना। पुं० [अ० नालः] आर्तनाद। चीत्कार।
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नालायक  : वि० [फा० ना+अ० लाइक] १. जिसमें योग्यता का अभाव हो। २. जो मूर्खतापूर्ण दुष्ट आचरण या व्यवहार करता हो।
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नालायकी  : स्त्री० [हिं० नालायक+ई (प्रत्य०)] १. नालायक होने की अवस्था या भाव। अयोग्यता। २. मूर्खतापूर्वक किया हुआ कोई दुष्ट आचरण।
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नालि  : स्त्री० [सं०√नल्+णिच्+इन्] १. नालिका। नली। उदा०–जुआलि नालि तसु गरम चेहवी।–पृथ्वीराज। २. बंदूक।
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नालिक  : पुं० [सं० नाल+ठन्–इक] १. कमल। २. बाँसुरी। ३. भैंसा। ४. प्राचीन काल का एक अस्त्र जिसकी नली में कुछ चीजें भरकर चलाई या फेंकी जाती थीं।
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नालिका  : स्त्री० [सं० नाला+कन्–टाप्, इत्व] १. छोटी नाल या डंठल। २. नली। ३. पानी आदि बहने की नाली। ४. करघे में की वह नली जिसके अंदर लपेटा हुआ सूत रहता है। ५. पटुआ नाम का साग। ६. एक प्रकार का गन्ध-द्रव्य।
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नालिकेर  : पुं०=नारिकेल (नारियल)।
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नालि-केरी  : स्त्री० [सं० नालिकेर+ङीष्] एक तरह का शाक।
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नालि-जंघ  : पुं० [सं० ब० स०] डोम कौआ।
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नालिता  : स्त्री० [सं०] १. पटसन। पटुआ। २. उक्त के कोमल पत्तों का बनाया जानेवाला शाक।
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नालिनी  : स्त्री० [सं०] तंत्र में नाक का छेद।
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नालिश  : स्त्री० [फा०] १. किसी के संबंध में की जानेवाली फरियाद। २. किसी के विरुद्ध दायर किया जानेवाला मुकदमा।
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नाली  : स्त्री० [हिं० नाला का स्त्री० अल्पा० रूप] १. गंदा पानी बहने का घर, गली आदि में का पतला और छिछला मार्ग। छोटा नाला। मोरी। २. जल-मार्ग जो प्रायः कम चौड़ा और छिछला होता है। जैसे–खेत में की नाली। ३. वह गहरी लकीर तो तलवार की बीचो बीच पूरी लंबाई तक गई होती है। ४. पतला। नल। नली। ५. पुरानी चाल की बंदूक। उदा०–बान नालि हथनाल, तुपक तीरह सब सज्जिय।–चंदबरदाई। ६. कुम्हार के आँवे का वह नीचे की ओर गया हुआ छेद जिससे आग डालते हैं। घोड़े की पीठ पर का गड्ढा। ८. चोंगा। ढरका। स्त्री० [सं० नालि+ङीष्] १. नाड़ी। २. करेमू का साग। ३. कमल का डंठल। ४. एक उपकरण जिससे हाथी का कान छेदा जाता है। ५. एक तरह का बाघ। ६. घड़ी।
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नालीक  : पुं० [सं० नाली√कै (शब्द)+क] १. पुरानी चाल का एक तरह का तीर जो बाँस की नली में रखकर चलाया जाता था। तुफंग। २. भाला। ३. कमलों का जाल या समूह। ४. कमल-नाल। ५. कमंडलु।
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नालीकिनी  : स्त्री० [सं० नालीक+इनि–ङीप्] १. पद्म समूह। २. कमलों से पूर्ण जलाशय।
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नालीदार  : वि० [हिं० नाली+फा० दार] जिसमें नाली या नालियाँ बनी या लगी हों।
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नालीप  : पुं० [सं०] कदंब।
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नाली-व्रण  : पुं० [सं० मध्य० स०] नासूर।
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नालूक  : वि० [सं०] कृश। दुबला। पुं० एक प्रकार का गन्ध-द्रव्य।
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नालौट  : वि० [हिं० ना+लौटना] बात कहकर पलट जानेवाला। मुकरनेवाला।
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नालौर  : वि०=नालौट।
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नावँ  : पुं०=नाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाव  : स्त्री० [सं० नौ से फा०] १. नदी से पार उतरने की एक प्रसिद्ध सवारी जिसे मल्लाह डाँडों या पतवारों से खेते हैं। किश्ती। नौका। २. तलवार आदि में रेखाकार बना हुआ चिह्न। खाँचा। नाली। जैसे–दुनावी तलवार या चौनावा खाँचा।
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नावक  : पुं० [फा०] १. पुरानी चाल का एक तरह का तीर जो बहुत गहरी चोट करता था। २. मधुमक्खी का डंक। पुं०=नाविक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाव का पुल  : पुं० [हिं०] नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक लगा हुआ आपस में बँधी हुई नावों का क्रम या श्रृंखला, जो पुल का काम देती है। (बोट ब्रिज)
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ना-वक्त  : अव्य० [फा०+अ०] १. अनुपयुक्त समय में। २. देर करके।
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नाव-घाट  : पुं० [हिं०] नदी, झील आदि का वह स्थान जहाँ नावें रहती हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नावण  : पुं०=नहान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नावना  : स० [सं० नामन] १. किसी के अंदर कुछ गिराना, डालना या रखना। २. प्रविष्ट करना। घुसाना। स०=नवाना (झुकाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नावनीत  : वि० [सं० नवनीत+अण्] १. नवनीत-संबंधी। २. मुलायम।
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नावर  : स्त्री० [हिं० नाव] १. नाव। नौका। २. नाव को नदी के बीच में जाकर चक्कर खेलाने की क्रीड़ा।
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नावरा  : पुं० [देश०] दक्षिण भारत में होनेवाला एक तरह का पेड़ जिसकी लकड़ी चिकनी तथा मजबूत होती है।
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नावरि  : स्त्री० नावर।
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नावाँ  : पुं०=नावाँ।
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ना-वाकिफ  : वि० [फा़ ना+अ० वाक़िफ़] [भाव० नावाकिफीयत] १. जिसे किसी से वाकिफीयत अर्थात् जान-पहचान न हो। २. अनजान। ३. अज्ञात।
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ना-वाजिब  : वि० [फा० ना+अ० वाजिब] जो वाजिब अर्थात् उचित न हो। अनुचित।
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नावाषिकरण  : पुं० [सं० नौ-अधिकरण, ष० त०=नावधिकरण] १. राज्य या राष्ट्र का वह विभाग जो जहाड़ी बेड़ों से संबंधित हो और नौ-सेना आदि का संचालन करता हो। २. उक्त विभाग के अधिकारियों का वर्ग। ३. राज्य के जहाजी बेड़े। (एडमिरलटी; उक्त सभी अर्थों में)
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नाविक  : पुं० [सं० नौ+ठन्–इक] वह जो नौका खेता हो। मल्लाह। माँझी।
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नावी (विन्)  : पुं० [सं० नौ+इनि] नाविक। मल्लाह।
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नावेल  : पुं० [अं० नावेल] उपन्यास। (देखें)
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नाव्य  : वि० [सं० नौ+यत्] १. जिसे नाव से पार किया जा सके। २. नाव से पार करने योग्य। ३. प्रशंसनीय।
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नाव्य-नलमार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह जल मार्ग जिसमें नावें चलती या चल सकती हों। नावों के यातायात के लिए उपयुक्त जल-मार्ग। (नैविगेबुल)
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नाश  : पुं० [सं०√नश् (नष्ट होना)+घञ्] [कर्ता० नाशक, भू० कृ० नष्ट] १. ऐसी स्थिति जिसमें किसी वस्तु की सत्ता मिल चुकी होती है। २. सत्ता से च्युत या रहित करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। ३. रचनाओं का टूट-फूटकर ध्वस्त होना। ४. चौपट होने की अवस्था या भाव।
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नाशक  : वि० [सं०√नश्+णिच्+ण्वुल्–अक] १. ध्वंस या नाश करनेवाला। मिटाने या दूर करनेवाला। २. मारने या बध करनेवाला।
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नाशकारी (रिन्)  : वि० [सं० नाश√कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० नाश कारिणी] नाश करनेवाला। नाशक।
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नाशन  : पुं० [सं०√नश्+णिच्+ल्युट्–अन] नाश करना। वि० [स्त्री० नाशिनी] नाश करनेवाला।
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नाशना  : सं० [सं० नाश] नाश करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाशपाती  : स्त्री० [फा० नाशपाती] सेब की जाति का एक प्रसिद्ध पेड़ और उसका फल जो काश्मीर में बहुत होता है।
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नाश-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. यह वाद या सिद्धान्त कि संसार में जो कुछ है, उसका नाश अवश्य होगा। २. एक आधुनिक पाश्चात्य सिद्धांत जिसके अनुसार सभी धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक मान्यताएँ तथा व्यवस्थाएँ बुरी समझी जाती हैं। (निहलिज्म)
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ना-शाइस्ता  : वि० [फा० नाशाइस्तः] १. अनुचित। नामुनासिब। २. अशिष्ट। ३. असभ्य। ४. अश्लील।
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ना-शाद  : वि० [फा०] १. जो शाद अर्थात् खुश या प्रसन्न न हो। दुःखी। २. अभागा। बदनसीब।
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नाशित  : भू० कृ० [सं०√नश्+णिच्+क्त] जिसका नाश हो चुका हो। नष्ट।
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नाशी (शिन्)  : वि० [सं० नाश+इनि] [स्त्री० नाशिनी] १. नाश करनेवाला। नाशक। २. नष्ट होनेवाला। नश्वर।
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नाशुक  : वि० [सं०√नश्+उकञ्] नष्ट होनेवाला। नश्वर।
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ना-शुदनी  : वि० [फा०] १. (घटना या बात) जो कभी न हो सके। असंभव। २. (व्यक्ति) जो बहुत ही अभागा या बुरा हो। स्त्री० ऐसी अनिष्टकारी या अप्रिय घटना जो असंभाव्य होने पर भी अचानक घटित हो जाय।
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नाश्ता  : पुं० [फा़ नाश्तः] सबेरे अथवा दोपहर के भोजन के कुछ समय पहले बासी मुँह किया जानेवाला जल-पान। कलेवा।
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नाश्य  : वि० [सं०√नश्+णिच्+यत्] १. जिसका नाश हो सके या होने को हो। २. जिसका नाश किया जाना उचित हो।
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नाष्टिक  : वि० [सं० नष्ट+ठज्+इक] १. जो नष्ट हो चुका हो। पुं० वह व्यक्ति इसकी कोई चीज नष्ट हो चुकी हो।
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नाष्टिक  : वि० [सं० नष्ट+ठञ्–इक] जो नष्ट हो चुका हो। पुं० वह व्यक्ति जिसकी कोई चीज नष्ट हो चुकी हो।
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नाष्टिक-धन  : पुं० [सं० कर्म० स०] खोया हुआ धन। (स्मृति)
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नास  : स्त्री० [सं० नासा] १. वह चूर्ण जो नाक में डाला जाय। वह औषध जो नाक से सूँघी जाय। नस्य। क्रि० प्र०–लेना।–सूँघना। २. नसवार। सुँघनी। पुं०=नाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नासत्य  : पुं० [सं० नअसत्य, नञ्समास, प्रकृतिवद्भाव] अश्विनीकुमार।
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नासत्या  : स्त्री० [सं० नासत्य+टाप्] अश्वनी नक्षत्र।
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नासदान  : पुं० [हिं० नास+फा० दान] सुँघनी रखने की डिबिया।
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नासना  : स० [सं० नाशन्] १. नष्ट या बरबाद करना। २. न रहने देना। अन्त कर देना। ३. मार डालना।
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नासपाली  : पुं० [?] अनारी रंग। (टार्टन गोल्ड) वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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नास-पीटा  : वि० [सं० नाश+हिं० पीटना] [स्त्री० नास-पीटी] ऐसा परम नीच और हीन, जिसका कष्ट हो जाना ही अभीष्ट हो। (ब्रज में, स्त्रियों की गाली या शाप)
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ना-समझ  : वि० [हिं० ना+समझ] [भाव० ना-समझी] १. (व्यक्ति) जिसे समझ न हो। मूर्ख। २. कम समझवाला। नादान।
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ना-समझी  : स्त्री० [हिं० ना-समझ] ना-समझ होने की अवस्था या भाव।
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नासा  : स्त्री० [सं०√नास्+अ–टाप्] [वि० नास्य] १. नासिका। नाक। २. नाक के दोनों छेद। नथना। ३. दरवाजे में चौखट के ऊपर की लकड़ी। ३. अजूसा। वासक।
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नासाख़त  : पुं० दे० ‘नक-घिसनी’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नासाग्र  : पुं० [सं० नासा+अग्र ष० त०] नाक का अगला नुकीला अंश या भाग।
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ना-साज  : वि० [फा० नासाज] [भाव० नासाजी] (शारीरिक स्थिति) जिसमें किसी प्रकार की बेचैनी, रोग या शिथिलता न हो।
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नासा-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] नाक में एक प्रकार की गाँठ होने के फल-स्वरूप चढ़नेवाला बुखार।
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नासानाह  : पुं० [सं०] एक तरह का रोग जिसमें कफ से नथने रुँधे रहते हैं।
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नासा-परितोष  : पुं० [ष० त०] नासाशोष रोग।
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नासा-पाक  : पुं० [ष० त०] नाक का वह चमड़ा जो छेदों के किनारे परदे का काम देता है। नथना।
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नासा-योनि  : पुं० [ब० स०] वह नपुंसक जिसे घ्राण करने पर उद्दीपन हो। सौगंधिक नपुंसक।
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नासालु  : पुं० [सं०] कायफल।
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नासा-वंश  : पुं० [उपमि० स०] नाक की हड्डी।
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नासा-वेष  : पुं० [ष० त०] १. नथ आदि पहनने के लिए नाक में छेद करने की रसम। २. उक्त काम के लिए नाक के अगले भाग में किया हुआ छेद।
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नासामणि  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाट की पद्धति का एक राग।
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नासा-शोष  : पुं० [ष० त०] एक रोग जिसमें नाक में कफ जम तथा सूख जाता है।
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नासा-स्राव  : पुं० [ष० त०] नाक में से कफ या पानी निकलना।
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नासिकंधम  : वि० [सं० नासिका√ध्मा (शब्द)+खश्, मुम्, ह्रस्व] बोलते समय जिसके नाक से भी ध्वनि निकलती हो।
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नासिक  : स्त्री० [सं० नासिक्य] बम्बई राज्य में गोदावरी के तट पर की एक प्रसिद्ध नगरी जो तीर्थ मानी जाती है।
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नासिका  : स्त्री० [सं०√नास्+ण्वुल्–अक, टाप्, इत्व] १. नाक। नासा। २. नाक की तरह आगे निकली हुई कोई लंबी चीज। ३. हाथी की सूँड़। ४. दरवाजे में, चौखट के ऊपर की लकड़ी।
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नासिका-भूषणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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नासिक्य  : वि० [सं० नासिका+ण्यञ्] नासिका में उत्पन्न। पुं० १. नासिका। नाक। २. अश्विनीकुमार। ३. दक्षिण भारत का नासिक नामक तीर्थ। ४. अनुनासिक स्वर।
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नासिर  : पुं० [अ०] नस्र अर्थात् गद्य लिखनेवाला लेखक। गद्य-लेखक।
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नासी  : वि०=नाशी।
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नासीर  : वि० [सं०नास्+क्विप्, नास√ईर् (गति)+क] आगे आगे चलनेवाला। पुं० सेना का अगला भाग।
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नासूत  : पुं० [अ०] इहलोक। मर्त्यलोक। (सूफी संप्रदाय)
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नासूर  : पुं० [?] एक प्रकार का घाव जिसका मुँह नली के आकार का होता है और जिसमें से बराबर मवाद निकलता रहता है। नाड़ी व्रण। (साइनस) क्रि० प्र०–पड़ना। मुहा०–(किसी के) कलेजे या छाती में नासूर डालना=किसी को बहुत अधिक दुःखी करना।
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नास्तिक  : पुं० [सं० नास्ति+ठक्–क] [भाव० नास्तिकता] ईश्वर, परलोक, मत-मतांतरों आदि को न माननेवाला। ‘आस्तिक’ का विपर्याय।
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नास्तिकता  : स्त्री० [सं० नास्तिक+तल्–टाप्] नास्तिक होने की अवस्था या भाव।
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नास्तिक्य  : पुं० [सं० नास्तिक+ष्यज्] नास्तिकता।
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नास्तिद  : पुं० [सं०] आम का पेड़।
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नास्तिवाद  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. नास्तिकों का तर्क। २. नास्तिकता।
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नास्य  : वि० [सं० नासा+यत्] १. नासिका-संबंधी। नाक का। २. नासिका से उत्पन्न। पुं० बैल के नथनों में नाथी या बाँधी जानेवाली रस्सी। नाथ।
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नाह  : पुं० [सं० नाथ] १. नाथ। स्वामी। मालिक। २. स्त्री० का पति। ३. बन्धन। ४. हिरन आदि फँसाने का जाल या फंदा। पुं० [सं० नाभि] पहिए के बीच का छेद। नाभि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=नहीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाहक  : क्रि० वि० [फा० ना+अ० हक़] अनुचित रूप से और अकारण। व्यर्थ।
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नाहट  : वि० [देश०] १. बुरा। २. नटखट।
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नाह-नूँह  : स्त्री० [हिं० नाहीं] १. कई बार किया जानेवाला ‘ना’ ‘ना’ या ‘नहीं’ ‘नहीं’ शब्द। २. कुछ-कुछ दबी जबान से किया जानेवाला इन्कार।
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नाहर  : पुं० [सं० नरहरि] १. सिंह। शेर। २. बाघ। ३. बहुत बड़ावीर और साहसी पुरुष। पुं० [?] टेसू का पौधा और फूल।
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नाहर-मुखी  : पु. दे० ‘शेर-मुखी’।
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नाहर-साँस  : पुं० [हिं० नाहर+साँस] घोड़ों के साँस फूलने का एक रोग।
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नाहरू  : पुं० १. नाहर। २. नारू (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाहिन  : अव्य० [हिं० नाही] नहीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाहीं  : अव्य० दे० ‘नहीं’। स्त्री० [हिं० नहीं] नहीं करने या कहने की क्रिया या भाव।
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नाही  : पुं० [सं० नाथ] स्वामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नाहुष  : वि० [सं० नहुष+अण्] नहुष-संबंधी। नहुष का। पुं० नहुष के पुत्र ययाति।
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नाहुषि  : पुं० नाहुष।
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निंत  : क्रि० वि० नित्य।
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निंद  : वि० निद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निंदक  : वि० [सं०√निंद (कलंक लगाना)+ण्वुल्–अक] निंदा करनेवाला।
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निंदना  : स० [सं० निंदन] निंदा करना। बुरा कहना।
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निंदनीय  : वि० [सं०√निंद्+अनीयर] (व्यक्ति अथवा उसका आचरण) जिसकी निंदा की जानी चाहिए। निंदा किये जाने के योग्य।
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निंदरना  : स० [सं० निंदा] १. निंदा करना। बुरा कहना। २. बदनाम करना।
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निंदरा  : स्त्री०=निद्रा।
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निंदरिया  : स्त्री०=निद्रा।
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निंदा  : स्त्री० [सं०√निंद+अ–टाप्] [भू० कृ० निंदित, बि० निंदनीय] १. किसी के दोषों, बुराइयों आदि का दूसरों के समक्ष किया जानेवाला वह बखान जो उसे दूसरों की नजरों में गिराने या हेय सिद्ध करने के लिए किया जाय। २. व्यक्ति अथवा उसके किसी कार्य की इस उद्देश्य से की जानेवाली कटु आलोचना कि लोभ उसे बुरा समझने लगें। ३. अपकीर्ति। बदनामी।
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निँदाई  : स्त्री०=निराई (खेतों की)।
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निँदाना  : स०=निराना।
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निंदा-प्रस्ताव  : पुं० [सं० ष० त०] किसी सभा में उपस्थित किया जानेवाला वह प्रस्ताव जिसमें किसी अधिकारी, कार्यकर्ता या सदस्य के किसी काम के संबंध में अपना असंतोष प्रकट करते हुए उसकी निंदा का उल्लेख किया जाता है। (सेन्सर मोशन)
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निंदारा  : वि०=निंदासा।
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निंदासा  : वि० [हिं० नींद] १. (जीव) जिसे नींद आ रही हो। २. (आँखें) जिनमें नींद भरी हुई हो।
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निंदा-स्तुति  : स्त्री०=ब्याज स्तुति।
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निंदित  : भू० कृ० [सं०√निंद्+क्त] १. जिसकी निंदा हुई हो या की गई हो। २. दे० ‘निंदनीय’।
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निँदिया  : स्त्री०=नींद।
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निंदु  : स्त्री० [सं०√निंद्+उ] वह स्त्री० जिसे मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ हो।
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निंद्य  : वि० [सं०√निंद्+ण्यत्] निंदा किया जाने के योग्य। निंदनीय।
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निंब  : स्त्री० [सं० निन्व् (सींचना)+अच्, बवयोरभेदात् नस्य मः] नीम का पेड़।
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निँबकौरी  : स्त्री०=निमकौड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निँबरिया  : स्त्री० [हिं० नीम+बरी] वह उपवन जिसमें नीम के बहुत से पेड़ हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निँबादित्य  : पुं० [सं०] दे० ‘निंबार्काचार्य’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निंबार्क  : पुं० [सं०] १. निंबादित्य का चलाया हुआ वैष्णव संप्रदाय। २. निंबार्काचार्य।
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निंबार्काचार्य  : पुं० [सं०] भक्तमाल में उल्लिखित एक प्रसिद्ध कृष्णभक्त जो निंबार्क संप्रदाय के संस्थापक थे। कुछ लोग इन्हें श्री राधिका जी के कंकण का अवतार और कुछ लोग इन्हें सूर्य के अंश से उत्पन्न मानते हैं। [सं० ११7१-१२१9 वि०]
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निंबू  : पुं०=नींबू (पौधा और उसका फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निः  : उप. [सं० निस्] एक उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर उन्हें नहिक भाव या राहित्य का सूचक बनाता है। जैसे–निःशुल्क, निःशेष आदि।
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निःकपट  : वि०=निष्कपट।
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निःकास  : वि०=निष्काम।
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निःकारण  : वि०=निष्कारण।
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निःकासन  : पुं० [वि० निः कासित]=निष्कासन।
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निःक्रामित  : वि० [सं०] निष्क्रासित। (दे०)
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निःक्षत्र  : वि० [सं० निर्-क्षत्र, ब० स०] (स्थान) जिसमें क्षत्रिय न रहते हों। क्षत्रिय रहित। क्षत्रिय शून्य।
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निःक्षेप  : पुं० [सं० निर्√क्षिप् (प्रेरणा)+घञ्] निक्षेप। (दे०)
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निःक्षोभ  : वि० [सं०] जिसमें क्षोभ अर्थात् खलबली या घबराहट न हो।
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निःछल  : वि० [सं० निर्-क्षोभ, ब० स०] निश्छल। (दे०)
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निःपक्ष  : वि० [सं०] निष्पक्ष। (दे०)
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निःपाप  : वि० [सं०] निष्पाप।
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निःप्रभ  : वि० [सं०] निष्प्रभ। (दे०)
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निःप्रयोजन  : वि० [सं०] निष्प्रयोजन। (दे०)
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निःफल  : वि० [सं०] निष्फल। (दे०)
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निःशंक  : वि० [सं० निर्-शंका, ब० स०] १. जिसे किसी प्रकार की शंका न हो। २. निधड़क। क्रि० वि० बिना किसी प्रकार की शंका या डर के।
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निःशत्रु  : वि० [सं० निर्-शत्रु, ब० स०] जिसका कोई शत्रु न हो।
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निःशब्द  : वि० [सं० निर्-शब्द, ब० स०] १. (स्थान) जिससे शब्द न हो रहा हो। २. जो शब्द न करता हो।
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निःशब्दक  : पुं० [सं० निःशब्द+णिच्+ण्वुल्–अक] यंत्रों में रहनेवाला एक उपकरण जो यंत्रों के कुछ पुरजों को अधिक जोर का शब्द या शोर नहीं करने देता। (साइलेन्सर)
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निःशम  : पुं० [सं० निर्-शम, प्रा० स०] १. असुविधा। २. चिंता।
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निःशरण  : वि० [सं० निर्-शरण, ब० स०] जिसे कोई शरण देनेवाला न हो। असहाय।
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निःशलाक  : वि० [सं० निर्-शलाका, ब० स०] एकांत। निर्जन।
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निःशल्य  : वि० [सं० निर्-शल्य, ब० स०] [स्त्री० निःशल्या] १. जिसके पास शल्य अर्थात् तीन न हों। २. जिसमें शल्य न हो। कंटक रहित। ३. जिसमें कोई खटकनेवाली बात न हो। ४. जिसमें कोई बाधा या रुकावट न हो। निष्कंटक।
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निःशाख  : वि० [सं० निर्-शाखा, ब० स०] जिसमें शाखाएँ न हों। बिना शाखाओं का।
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निःशुक्र  : वि० [सं० निर्-शुक्र, ब० स०] १. शक्तिहीन। २. निरुत्साह।
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निःशुल्क  : वि० [सं० निर्-शुल्क, ब० स०] १. जिस पर कोई शुल्क न लगता हो या न लगा हो। २. (व्यक्ति) जो नियत शुल्क न देता हो या जिसका शुल्क क्षमा कर दिया गया हो।
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निःशूक  : पुं० [सं० निर्-शूक, ब० स०] एक तरह का धान।
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निःशून्य  : वि० [सं० निर्-शून्य, प्रा० स०] बिलकुल खाली।
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निःशेष  : वि० [सं० निर्-शेष, ब० स०] १. जिसका कुछ भी अंश बाकी न बचा हो। जिसका कुछ भी न रह गया हो। २. पूरा। समूचा। ३. पूरी तरह से समाप्त या सम्पन्न किया हुआ (काम)।
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निःशोक  : वि० [सं० निर्-शोक, ब० स०] शोक रहित।
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निःशोध्य  : वि० [सं० निर्-शोध्य, ब० स०] जिसका शोधन न किया जा सके।
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निःश्रयणी (यिणी)  : स्त्री० [सं० निर्√श्रि+ल्युट्–अन, ङीप्; निर्√श्रि+णिनि–ङीप्] निःश्रेणी।
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निःश्रीक  : वि० [सं० निर्-श्री, ब० स०, कप्] श्री से रहित। कांतिहीन।
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निःश्रेणी  : स्त्री० [सं० निर्–श्रेणी, ब० स०] सीढ़ी विशेषतः काठ या बाँस की बनी हुई सीढ़ी।
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निःश्रेयस  : पुं० [सं० निर्-श्रेयस्, प्रा० स०, अच्] १. मोक्ष। मुक्ति। २. कल्याण। मंगल। ३. विज्ञान। ४. भक्ति।
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निःश्वसन  : पुं० [सं० निर्√श्वस् (साँस लेना)+ल्युट्–अन] साँस बाहर निकालने की क्रिया। वि० [स्त्री० निःश्वसना] साँस बाहर निकालने या फेंकनेवाला। उदा०–जीवन-समीर शुचि निःश्वसना।–निराला।
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निःश्वास  : पुं० [सं० निर्√श्वस्+घञ्] वह हवा जो साँस वेने पर नाक के रास्ते बाहर निकाली जाती है। पद–दीर्घ निःश्वास=गहरा और ठंडा साँस।
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निःशील  : वि० [सं०]=निश्शील।
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निःसंकोच  : अव्य० [सं० निर्-संकोच, ब० स०] संकोच बिना। बे-धड़क।
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निःसंख्य  : वि० [सं० निर्-संख्या, ब० स०] जो गिना न जा सके। अनगिनत। बे-शुमार।
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निःसंग  : वि० [सं० निर्-संग, ब० स०] १. जिसका किसी से संब न हो। किसी से संबंध न रखनेवाला। निर्लिप्त। २. जिसके साथ और कोई न हो। अकेला।
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निःसंचार  : वि० [सं० निर्-संचार, ब० स०] १. संचरण न करनेवाला। २. घर के अन्दर ही पड़ा रहनेवाला।
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निःसंज्ञ  : वि० [सं० निर्-संज्ञा, ब० स०] जिसमें संज्ञा न हो या न रह गई हो। संज्ञा-रहित।
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निःसंतान  : वि० =निस्संतान।
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निःसंदेह  : वि० [सं० निर्-संदेह, ब० स०] जिसमें कुछ भी संदेह न हो। संदेह-रहित। क्रि० वि० बिना किसी के सन्देह के। २. निश्चित रूप से। अवश्य। बेशक।
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निःसंधि  : वि० [सं० निर्-संधि, ब० स०] १. संधि से रहित। २. जिसमें कहीं छेद दरज या ऐसा ही कोई अवकाश न हो। ३. जिसमें कहीं जोड़ न हो या न लगा हो। ४. दृढ़। पक्का। मजबूत। ५. अच्छी तरह कसा या गठा हुआ।
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निःसंपात  : वि० [सं० निर्-संपात, ब० स०] जिसमें आना-जाना न हो सके। पुं० रात का अंधकार।
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निःसंबल  : वि० [सं० निर्-संबल, ब० स०] १. जिसके पास संबल न हो। जिसे कोई संबल या सहायता देनेवाला न हो। अव्य० बिना किसी संबल या सहारे के।
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निःसंबाध  : वि० [सं० निर्-संबाधा, ब० स०] १. विस्तृत। २. बड़ा।
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निःसंशय  : वि० [सं० निर्–संशय, ब० स०] जिसमें या जिसे कुछ भी संशय न हो। अव्य० किसी प्रकार के संशय के बिना।
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निःसत्व  : वि० [सं० निर्-सत्व, ब० स०] १. जिसमें सत्व या सार न हो। थोथा। २. निःसपत्न
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निःसरण  : पुं [सं० निर्√सृ (गति)+ल्युट्–अन] १. बाहर आना या निकलना। २. बाहर निकलने का मार्ग या रास्ता। निकास। ३. कठिनाई से निकलने का मार्ग या युक्ति। ४. मोक्ष। निर्वाण। ५. मरण। मृत्यु। मौत।
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निःसार  : वि० [सं० निर्–सार, ब० स०] १. (पदार्थ) जिसमें कुछ भी सार न हो। थोथा। २. जिसका कुछ भी महत्त्व न हो। महत्त्हीन। ३. जिससे कोई प्रयोजन सिद्ध न हो सके। निर्रथक। व्यर्थ। पुं० १. शाखोट या सिहोर नामक वृक्ष। २. सोनपाढ़ा।
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निःसारण  : पुं० [सं० निर्√सृ+णिच्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निःसरित] १. कोई चीज निकालने, विशेषतः बाहर निकालने की क्रिया या भाव। २. निकालने का मार्ग। निकास। ३. वनस्पतियों की गाँठों या शरीर की गिल्टियों का अपने अंदर से कोई तत्त्व या तरल अंश बाहर निकालना जो अंगों को विशुद्ध और ठीक दशा में रखने या ठीक तरह से चलाने के लिए आवश्यक होता है। ४. इस प्रकार निकलनेवाला कोई पदार्थ। (सीक्रेशन)
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निःसारा  : स्त्री० [सं० निर्–सार, ब० स०, टाप्] कदली। केला।
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निःसारित  : भू० कृ० [सं० निर्√स्+णिच्+क्त] १. निकला हुआ। २. बाहर किया हुआ।
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निःसारु  : पुं० [सं० निर्–सीमन्, ब० स०] ताल के साठ भेदों में से एक।
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निःसीम (न्)  : वि० [सं० निर्–सीमन्, ब० स०] १. जिसकी कोई सीमा न हो। २. बहुत अधिक।
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निःसुकि  : पुं० [सं०] १. एक तरह का गेहूँ का पौधा, जिसकी बालों में टूँड़ (बाल का ऊपरी नुकीला भाग) नहीं लगता। २. उक्त पौधे में से निकलनेवाला गेहूँ।
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निःसृत  : भू० कृ० [सं० निर्√सृ (गति)+क्त] जिसका निःसरण हुआ हो। बाहर निकला हुआ।
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निःस्नेह  : वि० [सं० निर्–स्नेह, ब० स०] जिसमें स्नेह (क) तेल या (ख) प्रेम न हो।
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निःस्नेहा  : स्त्री० [सं० निःस्नेह+टाप्] अलसी। तीसी।
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निःस्पंद  : वि० [सं० निर्-स्पंद, ब० स०] स्पंदनहीन। निश्चल।
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निःस्पृह  : वि० [सं० निर्-स्पृहा, ब० स०] १. जिसे किसी बात की स्पृहा अर्थात् आकांक्षा न हो। कामनाओं, वासनाओं आदि से रहित। २. स्वार्थ आदि की दृष्टि से जो किसी के प्रति उदासीन हो। निःस्वार्थ भाववाला। जैसे–निःस्पृह सेवक।
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निःस्रव  : पुं० [सं० निर्√स्रु (गति)+अप्] १. निकलने का मार्ग। निकास। २. बचा हुआ अंश। अवशेष। ३. बचत।
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निःस्राव  : पुं० [सं० निर्√सु+अण्] १. बहकर निकला हुआ। अंश। २. मांड़।
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निःस्व  : पुं० [सं० निर्-स्व, ब० स०] १. जो स्व अर्थात् आपा या अपनापन छोड़ या भूल चुका हो। २. जिसे सुध-बुध न रह गई हो। ३. दरिद्र। धनहीन।
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निःस्वादु  : वि० [सं० निर्–स्वाद, ब० स०] बिना स्वाद का। जिसमें कुछ भी स्वाद न हो।
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निःस्वार्थ  : वि० [सं० निर्-स्वार्थ, ब० स०] १. जिसमें स्वार्थ-साधन की भावना न हो। २. जो बिना किसी स्वार्थ के कोई काम विशेषतः परोपकार करता हो। ३. (काम) जो बिना किसी स्वार्थ से किया जाय। अव्य० बिना किसी प्रकार के स्वार्थ के।
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नि  : उप. [सं०√नी (ले जाना)+डि] एक उपसर्ग जो कुछ शब्दों के आरंभ में लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है–(क) नीचे की ओर। जैसे–निपात। (ख) संग्रह या समूह। जैसे–निकर, निकाय। (ग) आदेश। जैसे–निदेश। (घ) नित्यता। जैसे–निवेश। (ड़) कौशल। जैसे–निपुण। (च) बंधन। जैसे–निबंधन। (छ) अंतर्भाव। जैसे–निपीत। (ज) सामीप्य। जैसे–निकट। (झ) अपमान। जैसे–निकार। (ञ) दर्शन। जैसे–निदर्शन। (ट) आश्रम। जैसे–निकुंज, निलय, निकेतन। (ठ) अलग होने का भाव। जैसे–निधन, निवृत्ति। (ड) संपूर्ण। जैसे–निखिल। (ढ) अच्छी तरह से। जैसे–निगूढ़, निग्रह। (त) बहुत अधिक। जैसे–नितांत, निपीड़ना। पुं० संगीत में, निषाद स्वर का सूचक संक्षिप्त रूप। उप० [हिं०] रहित। हीन। जैसे–निकम्मा, निछोह,
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निअर  : अव्य० [सं० निकट, प्रा० निअउ] निकट। पास। समीप। वि० तुल्य। बराबर। समान।
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निअराना  : स० [हिं० निअर] निकट या समीप पहुँचाना या ले जाना। अ० निकट या पास जाना अथवा पहुँचना।
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निअरे  : अव्य०=निकट (पास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआउ  : पुं०=न्याय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआथि  : स्त्री० [सं० नि+अर्थता] निर्धनता। गरीबी। उदा०–साथी आथि निअथि भै, सकेसि न साथ निबाहि।–जायसी। वि० निर्धन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआन  : पुं० [सं० निदान] निदान अन्त। उदा०–देखेन्हि बूझि निअनन साथां।–जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० अन्त में। आखिर।
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निआना  : वि०=१. निआरा (न्यारा)। उदा०–अनुराजा सो जरै निआना।–जायसी। २. अनजान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निआमत  : स्त्री० [अ० नेअमत] १. ईश्वर द्वारा प्रदत्त अथवा उसकी कृपा से प्राप्त होनेवाली धन-संपत्ति या कोई बहुमूल्य गुण अथवा पदार्थ। २. किसी के द्वारा प्रदत्त बहुत ही बहुमूल्य पदार्थ।
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निआरा  : वि० [स्त्री० निअरी]=न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निआर्थी  : स्त्री० [सं० निः+अर्थाता] १. अर्थहीनता। २. दरिद्रता। गरीबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० धन-हीन। दरिद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निउँजी  : स्त्री०=न्यौंजी (लीची का वृक्ष और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निऋति  : स्त्री० [सं० निर्-ऋत,] दक्षिण-पश्चिम कोण की अधिष्ठात्री देवी। २. अधर्म की पत्नी। ३. अधर्म की कन्या। ४. लक्ष्मी की बहन अलक्ष्मी। दरिद्रा देवी। ५. भारी विपत्ति। ६. मृत्यु।
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निकंटक  : वि० [सं० निष्कंटक] १. कंटक रहित। २. अबाध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकंदन  : पुं० [सं० नि√कंद् (विकलता)+णिच्+ल्युट्–अन] १. नाश। २. संहार।
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निकंदना  : स० [सं० निकंदन] १. नष्ट करना। न रहने देना। २. संहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अ० १. नष्ट होना। २. संहार होना।
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निकंद रोग  : पुं० दे० ‘योनि कंद’।
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निकट  : अव्य० [नि√कट् (जाना)+अच्] १. कुछ या थोड़ी दूरी पर। पास ही में। २. किसी की दृष्टि या विचार में। ३. किसी के लेखे या हिसाब से। जैसे–तुम्हारे निकट भले ही यह काम बहुत बड़ा न हो, पर सब लोग ऐसा नहीं कर सकते। वि० लगाव या संबंध के विचार से समीप-स्थित। पास का। जैसे–निकट-संबंधी।
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निकटता  : स्त्री० [सं० निकट+तल्–टाप्] १. ‘निकट’ होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी से निकट संबंध हो।
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निकटपना  : पुं०=निकता।
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निकट-पूर्व  : पुं० [सं० कर्म० स०] योरपवालों की दृष्टि से, एशिया महाद्वीप का पश्चिमी भाग, जो भारत की दृष्टि से ‘निकट पश्चिम’ होगा।
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निकटवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० निकट√वृत् (रहना)+णिनि]=निकटस्थ।
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निकटस्थ  : वि० [सं० निकट√स्था (ठहरना)+क] १. (वह) जो किसी के निकट रहता या होता हो। २. संबंध आदि के विचार से पास का।
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निकती  : स्त्री० [सं० निष्क+मिति ?] छोटा तराजू। काँटा।
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निकम्मा  : वि० [सं० निष्कर्ष, प्रा० निकम्मा] १. जिसके हाथ में कोई काम न हो। काम-धन्धे से खाली या रहति। जैसे–आज-कल वे निकम्मे बैठे हैं। २. जो कोई काम-धंधा करने के योग्य न हो। अयोग्य। जैसे–ऐसा निकम्मा आदमी लेकर हम क्या करेंगे। ३. (पदार्थ) जो किसी काम में आने के योग्य न हो। रद्दी। जैसे–निकम्मी बातें।
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निकर  : पुं० [सं० नि√कृ (व्याप्ति)+अच्] १. झुंड। समूह। जैसे–रवि-कर-निकर। २. ढेर। राशि। ३. निधि। खजाना। क्रि० वि० निकट। पुं० [अ०] कमर में पहनने का एक प्रकार का चौड़ी मोहरीवाला अँगरेजी पहनावा जो घुटनों तक लंबा होता है।
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निकरना  : अ०=निकलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकर्तन  : पुं० [सं० नि√कृत् (छेदन)+ल्युट्–अन] काटना।
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निकर्मा  : वि० [सं० निष्कर्मा] १. जो कोई कर्म या काम न करे। जो कुछ उद्योग-धंधा न करे। २. आलसी। ३. दे० ‘निकम्मा’।
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नि-कर्षण  : पुं० [सं० ब० स० ?] १. खेल का मैदान। २. परती जमीन। ३. आँगन। ४. पड़ोस।
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निकलंक  : वि० [सं० निष्कलंक] जिसे या जिसमें कोई कलंक न हो।
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निकलंकी  : वि०=निष्कलंक। पुं०=कल्कि (अवतार)।
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निकल  : स्त्री० [अं.] एक तरह की सफेद मिश्रित धातु, जिसके सिक्के आदि ढाले जाते हैं।
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निकलना  : अ० [हिं० ‘निकालना’ का अ०] १. अंदर या भीतर से बाहर आना या होना। निर्गत होना। जैसे–आज हम सबेरे से ही घर से निकले हैं। संयो० क्रि०–आना।–जाना।–पड़ना। मुहा०–(किसी व्यक्ति का घर से) निकल जाना=इस प्रकार कहीं दूर चले जाना कि लोगों को पता न चले। जैसे–कई बरस हुए, उनका लड़का घर से निकल गया था। (किसी स्त्री का घर से) निकल जाना=पर-पुरुष के साथ अनुचित संबंध होने पर उसके साथ चले या भाग जाना। (कोई चीज कहीं से) निकल जाना=इस प्रकार दूर या बाहर हो जाना कि फिर से आने या लौटने की संभावना न रहे। जैसे–गली, मुहल्ले या शहर की गंदगी निकल जाना। २. कहीं छिपी, दबी या रुकी हुई चीज प्राप्त होना या सामने आना। पायजाना। मिलना। जैसे–(क) उसके घर चोरी का माल निकला था। (ख) जंगलों और पहाड़ों में से बहुत-सी चीजें निकलती हैं। (ग) इस प्रणाली में बहुत से दोष निकले, इसलिए इसका परित्याग कर दिया गया। संयो० क्रि०–आना। ३. किसी प्रकार की परिधि, मर्यादा, सीमा आदि में से छूटकर या और किसी प्रकार बाहर आना या होना। जैसे–(क) जेल में से कैदी निकलना। (ख) कुएँ में से पानी निकलना। (ग) किसी प्रकार के दोष आदि के कारण दल, बिरादरी, संस्था आदि से निकलना। मुहा०–(कोई चीज हाथ से) निकल जाना=खोने, चोरी जाने आदि के कारण अधिकार, स्वामित्व आदि से इस प्रकार बाहर हो जाना कि फिर से प्राप्त होने की संभावना न रहे। जैसे–अँगूठी या कलम हाथ से निकल जाना। (कोई अवसर, कार्य या बात हाथ से) निकल जाना=असावधानता, प्रमाद, भूल आदि के कारण अधिकार, कृतित्व आदि से इस प्रकार बाहर हो जाना कि फिर उसके संबंध से कुछ किया न जा सके। जैसे–अब तो वह बात हमारे हाथ से निकल गई; हम उसके लिए कुछ नहीं कर सकते। ४. किसी प्रकार के अधिकार, नियंत्रण, बंधन आदि से रहित होने पर किसी ओर प्रवृत्त होने के लिए बाहर आना। जैसे–(क) कमान में से तीर या बंदूक में से गोली निकलना। (ख) फंदे से गला निकलना। ५. किसी चीज में पड़ी, मिली या लगी हुई अथवा व्याप्त वस्तु का उससे छूटकर या और किसी प्रकार अलग, दूर या बाहर होना। जैसे–(क) कपड़े में से मैल या रंग निकलना। (ख) पत्तियों या फलों में से रस अथवा बीजों में से तेल निकलना। (ग) दूध या मलाई में से घी या मक्खन निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। ६. उत्पत्ति या निर्माण के स्थान अथवा उद्गम के स्थान से बाहर होकर प्रकट या प्रत्यक्ष होना। सामने आना। जैसे–(क) अंडे या गर्भ में से बच्चा निकलना। (ख) पेड़ में से डालियाँ या डालियों में से पत्तियाँ अथवा मसूड़ों में से दाँत निकलना। (ग) विश्वविद्यालय में से योग्य स्नातक निकलना। संयो० क्रि०–आना।–पड़ना। ७. किसी अज्ञात स्थान, स्थिति आदि से बाहर होकर सामने आना। आगे आकर उपस्थित होना या दिखाई देना। जैसे–आज न जाने कहाँ से इतनी च्यूँटियाँ (या मक्खियाँ) निकल आईं (या निकल पड़ी) हैं। संयो० क्रि०–आना।–पड़ना। ८. किसी पदार्थ या स्थान में से कोई नई रचना, वस्तु या स्थिति उत्पन्न अथवा प्राप्त होना। जैसे–(क) इस कपड़े में से दो कुर्तों के सिवा एक टोपी भी निकलेगी। (ख) यह दालान तोड़ दिया जाय तो इसमें तीन दुकानें निकलेंगी। (ग) जंगल कट जाने पर खेती-बारी और बस्ती के लिए जगह निकल आती है। संयो० क्रि०–आना।–जाना। ९. शरीर में छिपे या दबे हुए विकार या विष का रोग के रूप में प्रकट या प्रत्यक्ष होना। जैसे–गरमी, चेचक, या मुहाँसा निकलना। विशेष–इस अर्थ में इस क्रिया का प्रयोग कुछ विशिष्ट प्रकार के ऐसे ही रोगों या विकारों के संबंध में ही होता है जो किसी प्रकार के विस्फोट के रूप में होते हैं। १॰. शरीर अथवा उसके किसी अंग से कोई तरल पदार्थ बाहर आना। जैसे–(क) शरीर से पसीना निकलना। (ख) फोड़े में से पीब या मवाद निकलना। (ग) नाक या मुँह से खून निकलना। ११. किसी बड़ी राशि में से कोई छोटी राशि कम होना या घटना। जैसे–(क) इस रकम में से तो सौ रुपए ब्याज के निकल गए। (ख) सेर भर घी तो टीन में से चूकर निकल गया। संयो० क्रि०–जाना। १२. किसी गूढ़ तत्त्व, बात या विषय के आशय, उद्देश्य, रहस्य या रूप का स्पष्टीकरण होना। कोई बात खुलना या प्रकट होना। जैसे–(क) किसी पद, वाक्य या श्लोक का अर्थ निकलना। (ख) किसी काम के लिए मुहूर्त निकलना। संयो० क्रि०–आना। १३. किसी ऐसी चीज या बात का नये सिरे से आविर्भूत, प्रगट या प्रत्यक्ष होना जो पहले न रही हो या सामने न आई हो। जैसे–(क) किसी प्रदेश में ताँबे या सोने की खान निकलना। (ख) नया कानून, कायदा, प्रथा या हुकुम निकलना। (ग) उपाय तरकीब या युक्ति निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। १४. किसी नई वस्तु-रचना का प्रस्तुत होकर उपयोग में आने के योग्य होना। जैसे–(क) कहीं से कोई नहर या सड़क निकलना। (ख) दीवार में नई खिड़की निकलना। (ग) यातायात के सुभीते के लिए किसी प्रदेश या प्रांत में रेल निकलना। १५. किसी चीज के किसी अंग या अंश का असाधारण रूप से आगे या बाहर की ओर बढ़ा हुआ होना अथवा सब की दृष्टि के सामने होना। जैसे–(क) उस मकान में दाहिनी तरफ एक बरामदा निकला है। (ख) उनकी दीवार में एक नई खिड़की निकली है। संयो० क्रि०–आना। १६. अपने कर्तव्य, निश्चय, वचन आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर हो जाना। लगाव या संपर्क बाकी न रहने देना। जैसे–तुम तो यों ही दूसरों का गला फँसाकर (या वादा करके) निकल जाते हो। संयो० क्रि०–जाना।–भागना। १७. पुस्तकों, विज्ञापनों, समाचार-पत्रों आदि के संबंध में छपकर प्रकाशित होना या सर्वसाधारण के सामने आना। जैसे–(क) किसी विषय की कोई नई पुस्तक निकलना। (ख) समाचार-पत्रों में विज्ञापन या सूचना निकलना। (ग) कहीं से कोई नया मासिक-पत्र निकलना। १८. बिकनेवाली चीजों के संबंध में, खपत या बिक्री होना। जैसे–उनकी दूकान पर जितना माल आता है, सब निकल जाता है। १९. किसी स्थान पर स्थित किसी तत्त्व या बात का अपने पूर्व में बना न रहना। अलग, दूर या नष्ट हो जाना। जैसे–इस एक दवा से ही हमारे कई रोग निकल गए। संयो० क्रि०–जाना। २0. कुछ पशुओं के संबंध में सधाये या सिखाये जाने पर इस योग्य होना कि जुताई, ढुलाई, सवारी आदि के काम में ठीक तरह से आ सके। जैसे–यह घोड़ा अच्छी तरह निकल गया है; अर्थात् गाड़ी में जोते जाने या सवारी के काम में आने के योग्य हो गया है। २१. हिसाब-किताब होने पर कोई रकम किसी के जिम्मे बाकी ठहरना। जैसे–अभी सौ रुपए और तुम्हारे नाम निकलते हैं। २२. कोई अभिप्राय या उद्देस्य सफल या सिद्ध होना। मनोरथ पूर्ण होना। जैसे–किसी से कोई काम या मतलब निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। २३. किसी जटिल प्रश्न या समस्या की ठीक मीमांसा होना। हल होना। जैसे–गणित के ऐसे प्रश्न सब लोगों से नहीं निकल सकते। संयो० क्रि०–आना।–जाना।–सकना। २४. कंठ से उच्चारित होना। जैसे–गले से स्वर निकलना, मुँह से आवाज या बात निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। विशेष–उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में इस क्रिया का प्रयोग बाजों आदि के संबंध में भी होता है। जैसे–मृदंग में से शब्द या सारंगी में से राग अथवा स्वर निकलना। मुहा०–(कोई बात मुँह से) निकल जाना=असावधानी के कारण या आकस्मिक रूप से उच्चारित होना। जैसे–मुँह से कोई अनुचित बात निकल जाना। २५. चर्चा, प्रसंग या बात के संबंध में, आरंभ होना। छिड़ना। जैसे–(क) बात-चीत या व्याख्यान में वहाँ और भी कई प्रसंग निकले। (ख) बात निकलने पर मुझे भी कुछ कहना ही पड़ा। संयो० क्रि०–आना।–जाना। २६. ग्रह, नक्षत्र का आकाश में उदित होकर क्षितिज से ऊपर और आँखों के सामने आना। जैसे–चंद्रमा, तारे या सूर्य निकलना। संयो० क्रि०–आना।–जाना। २७. किसी व्यक्ति या कुछ लोगों का किसी मार्ग से होते हुए किसी ओर चलना, जाना या बढ़ना। जैसे–जुलूस, बरात या यात्रियों का दल (किसी ओर से) निकलना। २८. समय के संबंध में, व्यतीत होना। गुजरना। बीतना। जैसे–(क) हमारे दिन भी जैसे-तैसे निकल रहे हैं। (ख) अब बरसात निकल जायगी। संयो० क्रि०–जाना। २९. निर्विवाद और स्पष्ट रूप से ठीक ठहरना। प्रमाणित या सिद्ध होना। जैसे–(क) उनका यह लड़का तो बहुत लायक निकला। (ख) आपकी भविष्यद्वाणी ठीक निकली।
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निकलवाना  : स० [हिं० निकालना का प्रे०] १. किसी को कुछ निकालने में प्रवृत्त करना। २. जोर या जबरदस्ती से किसी को छिपाकर रखी हुई कोई चीज उपस्थित करने के लिए बाध्य करना।
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निकलाना  : स०=निकलवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकष  : पुं० [सं० नि√कष् (पीसना)+घ] १. कसने, घिसने, रगड़ने आदि की क्रिया या भाव। २. सान, जिस पर रगड़ हथियारों की धार तेज की जाती है। ३. कसौटी, जिस पर परखने के लिए सोना कसा या रगड़ा जाता है।
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निकषण  : पुं० [सं० नि√कष्+ल्युट्–अन] १. कसने, घिसने, रगड़ने आदि की क्रिया या भाव। २. हथियारों की धार तेज करने के लिए उन्हें सान पर चढ़ाना। ३. परखने के लिए कसौटी पर सोना कसना या रगड़ना। ४. गुण, योग्यता, शक्ति आदि परखने की क्रिया या भाव।
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निकषा  : स्त्री० [सं० नि√कष् (हिंसा)+अच्–टाप्] रावण की माता।
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निकषात्मज  : पुं० [सं० निकषा+आत्मज, ष० त०] १. राक्षस। २. रावण अथवा उसका कोई भाई।
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निकषोपल  : पुं० [सं० निकष-उपल. मध्य० स०] १. कसौटी (पत्थर)। २. कोई ऐसा साधन जिससे कोई चीज परखी जाय।
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निकस  : पुं० [सं०]=निकष।
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निकसना  : अ०=निकलना।
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निका  : पुं०=निकाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकाई  : स्त्री० [हिं० नीका=अच्छा] १. अच्छापन। २. अच्छाई। ३. खूबसूरती। सुन्दरता। स्त्री० [हिं० निकाना] खेत में से घास-पात काटकर अलग करने की क्रिया, भाव या मजदूरी। निराई। पुं०=निकाय।
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निकाज  : वि० [हिं० नि+काज]=निकम्मा।
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निकाना  : स० [?] नाखून गड़ाना या चुभाना। स०=निराना (खेत)।
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निकाम  : वि० [हिं० नि+काम] १. जिसे कोई काम न हो। २. निकम्मा। वि०=निष्काम। क्रि० वि० व्यर्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] प्रचुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निकाय  : पुं० [सं० नि√चि (चयन)+घञ्, कुत्व] १. झुंड। समूह। २. प्राचीन भारत में कुछ विशिष्ट संप्रदाय, विशेषतः बौद्ध धर्म के वे संप्रदाय जिनकी संख्या अशोक के समय में १8 तक पहुँच चुकी थी। ३. दे० ‘समुदाय’। ४. एक ही प्रकार की वस्तुओं का ढेर या राशि। ५. रहने का स्थान। निवास स्थान। निलय। ६. परमात्मा।
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निकाय्य  : पुं० [सं० नि√चि+ण्यत् नि० सिद्धि्] घर। गृह।
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निकार  : पुं० [सं० नि√कृ (करना)+घञ्] १. पराभव। हार। २. अपकार। ३. अपमान। ४. तिरस्कार। ५. ईख या गन्ने का रस पकाने का कड़ाहा। ६. दे० ‘निकासी’।
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निकारण  : पुं० [सं० नि√कृ (मारना)+णिच्+ल्युट्–अन] मारण। वध।
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निकारना  : स०=निकालना।
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निकारा  : वि० [फा० नाकार] [स्त्री० निकारी] १. तुच्छ। निकम्मा। २. खराब। बुरा। उदा०–हरी चंद काहु नहिं जान्यो मन की रीति निकारी।–भारतेन्दु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकाल  : पुं० [हिं० निकालना] १. निकलने की क्रिया, ढंग या भाव। २. निकलने का मार्ग। निकास। ३. कठिनाई, संकट आदि से निकलने का ढंग या युक्ति। जैसे–कुश्ती में किसी दाँव या पेंच का निकाल। ४. विचार, विवेचन आदि के फलस्वरूप निकलनेवाला परिणाम या सिद्धान्त।
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निकालना  : स० [सं० निष्कासन, पुं० हिं० निकासना] १. जो अंदर हो, उसे बाहर करना या लाना। निर्गत या बहिर्गत करना। जैसे–अलमारी में से किताबें, बरतन में से घी या संदूक में से कपड़े निकालना। संयो० क्रि०–देना।–लेना। २. किसी को किसी क्षेत्र, परिधि, मर्यादा, सीमा आदि में से किसी प्रकार या रूप में अलग, दूर या बाहर करना। जैसे–किसी को दल, बिरादरी, संस्था समाज आदि से निकालना। संयो० क्रि०–देना। मुहा०–(किसी को कहीं से) निकाल ले जाना=किसी प्रकार के घेरे, बंधन सीमा आदि में से छल या बल-पूर्वक अपने अधिकार में करके अपने साथ ले जाना। जैसे–(क) किसी स्त्री को उसके घर से निकाल ले जाना। (ख) कैदी को जेल से निकाल ले जाना। (ग) किसी के यहाँ से कुछ माल निकाल ले जाना। ३. कहीं छिपी, ठहरी या रुकी हुई चीज किसी प्रकार वहाँ से हटाकर अपने हाथ में लाना या लेना। बाहर करना या लाना। जैसे–(क) कूएँ में से पानी, खान में से सोना, फोड़े में से मवाद या म्यान में से तलवार निकालना। (ख) किसी के यहाँ से चोरी का माल निकालना। ४. किसी चीज में पड़ी या मिली हुई अथवा उसके साथ जुड़ी, बंधी या लगी हुई कोई दूसरी चीज अलग या दूर करना अथवा हटाना। जैसे–(क) चावल या दाल में से कंकड़ियाँ निकालना। (ख) कान में से बाली या नाक में से नथ निकालना। ५. किसी वस्तु में से कोई ऐसी दूसरी वस्तु किसी युक्ति से अलग या दूर करना, जो उसमें ओत-प्रोत रूप में मिली हुई या व्याप्त हो। जैसे–(क) कपड़ों में की मैल, बीजों में से तेल या पत्तियों में से रस निकालना। ६. किसी को किसी कठिन, विकट या संकटपूर्ण स्थिति आदि से बाहर करके उसका उद्धार करना। जैसे–आपने ही मुझे इस विपत्ति से निकाला है। मुहा०–(किसी को या कोई चीज कहीं से) निकाल ले जाना=चुरा-छिपाकर या युक्ति-पूर्वक संकटों आदि से बचते हुए सुरक्षित रूप में कहीं ले जाना। जैसे–शिवाजी के साथी उन्हें औरंगजेब की कैद से निकाल ले गये। ७. किसी चीज, तत्त्व या बात को उसके स्थान से इस प्रकार हटाकर अलग या दूर करना कि उसका अंत, नाश या समाप्ति हो जाय। न रहने देना। अस्तित्व मिटाना। जैसे–(क) दवा से शरीर का रोग या विकार निकालना। (ख) शहर से गंदगी निकालना। (ग) किसी वस्तु या व्यक्ति के दुर्गुण या दोष निकालना। (घ) किसी की चालाकी या शेखी निकालना। ८. किसी कार्य या पद पर नियुक्त व्यक्ति को वहाँ से हटाकर अलग या दूर करना। पद, नौकरी, सेवा आदि से हटाना। जैसे–छँटनी में दस आदमी इस विभाग से भी निकाले गये हैं। ९. एक में मिली हुई बहुत-सी चीजों में से कोई चीज या कुछ चीजें किसी विशिष्ट उद्देश्य से बाहर करना या सामने लाना। जैसे–दूकानदार अपने यहाँ की तरह-तरह की चीजें निकाल कर ग्राहकों को दिखाते हैं। संयो० क्रि०–देना।–लाना।–लेना। १॰. किसी बड़ी राशि में से कोई छोटी राशि अलग, कम या प्रथक् करना। जैसे–इसमें से से भर दूध (या गज भर कपड़ा) निकाल दो। संयो० क्रि०–डालना।–देना।–लेना। ११. कहीं रखी हुई अपनी कोई चीज या उसका कुछ अंश वहाँ से उठा या लेकर अपने अधिकार या हाथ में करना। जैसे–(क) किसी के यहाँ से अपनी धरोहर निकालना। (ख) बैंक से रुपये निकालना। १२. देन, प्राप्य आदि के रूप में किसी के जिम्मे कोई रकम ठहरना। बाकी लगाना। जैसे–वे तो अभी और सौ रुपए तुम्हारी तरफ निकालते हैं। १३. कोई चीज बेचकर या और किसी रूप में अपने अधिकार, नियंत्रण, वश आदि से अलग या बाहर करना। जैसे–(क) वे यह मकान भी निकालना चाहते हैं। (ख) यह दूकानदार अपने यहाँ की पुरानी और रद्दी चीजें निकालने में बहुत होशियार है। १४. कोई ऐसी चीज या बात नये सिरे से आरंभ करके प्रचलित या प्रत्यक्ष करना, जो पहले न रही हो। नवीन रूप में जारी या प्रचलित करना। जैसे–नया कानून, कायदा या रीति निकालना। १५. अविष्कार, उपज्ञा, सूझ आदि के फलस्वरूप कोई नई चीज या बात बनाकर या और किसी प्रकार करना या सबके सामने लाना। जैसे–(क) आज-कल के वैज्ञानिक नित्य नये यंत्र (या सिद्धांत) निकालते रहते हैं। (ख) आपके तर्क (या मत) में उसने बहुत-से दोष निकाले हैं। १६. उपाय, युक्ति आदि के संबंध में, सोच-विचारकर नये सिरे से और ऐसे रूप में कोई बात सामने रखना या लाना जो पहले अपने आपको या औरों को न सूझी हो। जैसे–उद्देश्य पूरा करने की कोई नई तरकीब या नया रास्ता निकालना। १७. किसी गूढ़ तत्त्व, बात या विषय का आशय, रहस्य या रूप स्पष्ट करना, सामने रखना या लाना। खोलकर प्रकट करना। जैसे–(क) किसी वाक्य या शब्द का अर्थ निकालना। (ख) कहीं जाने के लिए मुहूर्त निकालना। संयो० क्रि०–देना।–लेना। १८. किसी प्रश्न या समस्या का ठीक उत्तर या समाधान प्रस्तुत करना। मीमांसा या हल करना। जैसे–(क) गणित के प्रश्नों के उत्तर निकालना। (ख) किसी मामले का कोई हल निकालना। १९. अपना उद्देश्य, कार्य या मनोरथ सफल या सिद्ध करना। जैसे–अभी तो किसी तरह उनसे अपना काम निकालो, फिर देखा जायगा। संयो० क्रि०–लेना। २0. कोई ऐसी नई वास्तु-रचना प्रस्तुत करना, जो किसी दिशा में दूर तक चली गई हो। जैसे–कहीं से कोई नई नहर रेल की लाइन या सड़क निकालना। २१. किसी प्रकार की रचना करने के समय उसका कोई अंग इस प्रकार प्रस्तुत करना कि वह अपने प्रथम या साधारण रूप अथवा नियत रेखा से कुछ आगे बढ़ा हुआ हो। जैसे–मिस्तरी ने इस दीवार का एक कोना कुछ आगे निकाल दिया है। २२. किसी पदार्थ को छेदते या भेदते हुए कोई चीज एक दिशा या पार्श्व से उसकी विपरीत दिशा या पार्श्व में पहुँचाना या ले जाना।किसी के आर-पार करना। जैसे–पेड़ के तने पर तीर (या गोली) चलाकर उसे दूसरी ओर निकालना। २३. पुस्तकों, समाचार-पत्रों, सूचनाओं आदि के संबंध में छापकर अथवा और किसी प्रकार प्रचारित करना या सब के सामने लाना। जैसे–अखबार या विज्ञापन निकालना। २४. शब्द या स्वर कंठ या मुँह (अथवा वाद्य-यंत्रों आदि) से उत्पन्न या बाहर करना। जैसे–(क) गले से आवाज या मुँह से बात निकालना। (ख) तबले, सारंगी या सितार से बोल निकालना। २५. किसी प्रकार की चर्चा, प्रसंग या विषय आरंभ करना। छेड़ना। जैसे–अपने भाषण में उन्होंने यह प्रसंग निकाला था। २६. सलाई, सूई आदि से बनाये जानेवाले कामों के संबंध में, कढ़ाई, बुनाई आदि के रूप में बनाकर तैयार या प्रस्तुत करना। जैसे–(क) दिन भर में एक गुलूबंद या मोजा निकालना। (ख) कसीदे के काम में बेल-बूटे निकालना। २७. दल आदि के रूप में कुछ लोगों को साथ करके किसी ओर से या कहीं ले जाना। जैसे–जुलूस या बारात निकालना। २८. जुताई, सवारी आदि के कामों में आनेवाले पशुओं के सम्बन्ध में उन्हें सधा या सिखाकर इस योग्य बनाना कि वे जुताई, ढुलाई, सवारी आदि के काम में ठीक तरह आ सकें। जैसे–यह घोड़ा (या बैल) अभी निकाला नहीं गया है, अर्थात् अभी सवारी (या हल में जोते जाने) के योग्य नहीं हुआ है। २९. समय, स्थिति आदि के सम्बन्ध में किसी प्रकार निर्वाह करते हुए उसे पार या व्यतीत करना। जैसे–यह जाड़ा तो हम इस कोट से निकाल ले जायँगे। संयो० क्रि०–देना।–ले जाना।–लेना।
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निकाला  : पुं० [हिं० निकालना] १. निकलने या निकालने की क्रिया, ढंग या भाव। जैसे–अब घर से जल्दी निकाला नहीं होता। २. किसी स्थान से बाहर निकाले जाने का दंड या सजा। जैसे–देश-निकाला। क्रि० प्र०–देना।–मिलना।
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निकाश  : पुं० [सं० नि√काश् (चमकना)+घञ्] १. दृश्य। २. क्षितिज। ३. समीपता। ४. अनुरूपता।
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निकाष  : पुं० [सं० नि√कष् (खरोंचना)+घञ्] १. खुरचना। २. रगड़ना।
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निकास  : पुं० [सं० निष्कास, हिं० निकसना] १. निकसने अर्थात् निकलने की क्रिया या भाव। २. वह उद्गम स्थान जहां से कोई चीज निकल या बनकर पूर्णतया प्रकट रूप में सामने आती हो। ३. वह मार्ग या विस्तार जिसमें से होकर कोई चीज जाती हो। ४. घर आदि से निकलने का द्वार, विशेषतः मुख्य द्वार। ५. खुला हुआ स्थान। मैदान। ६. आमदनी या आय का रास्ता। ७. आमदनी। ८. विपत्ति, संकट आदि से बचने की युक्ति। ९. दे० ‘निकासी’। पुं० [सं० निकाश] समानता। उदा०–सनीर जीमूत-निकास सोभहिं।–केशव।
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निकासना  : स०=निकालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निकास-पत्र  : पुं० [हिं० निकास+सं० पत्र] वह पत्र जिसमें किसी दुकान, संस्था आदि के जमा खरच, बचत आदि का विवरण दिया हो। रवन्ना।
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निकासी  : स्त्री० [हिं० निकास] १. निकलने या निकालने की क्रिया, ढंग या भाव। २. व्यक्ति का घर से बाहर निकलने विशेषतः काम-काज या यात्रा के लिए बाहर निकलने का भाव। ३. दुकान में रखे हुए अथवा कारखानों आदि में तैयार होनेवाले माल का बिकना और बाहर आना। ४. वह माल जितना उक्त रूप में निकलकर बाहर जाय। खपता। बिक्री। ५. आय। आमदनी। ६. ब्रिटिश शासन में, वह धन जो सरकारी मालगुजारी देने के उपरांत जमींदार के पास बच रहता था। बचत। ७. चुंगी। ८. दे० ‘निकासी-पत्र’।
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निकासी-पत्र  : पुं० [हिं० निकासी+सं० पत्र] वह अधिकार-पत्र जिसके अनुसार कोई व्यक्ति या वस्तु कहीं से निकल कर बाहर जा सके। (ट्रानजिट पास)
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निकाह  : पुं० [अ०] इस्लाम की धार्मिक पद्धित से होनेवाला विवाह।
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निकाही  : वि० [अ० निकाह] (स्त्री०) जो निकाह अर्थात् धार्मिक पद्धति से विवाह करके घर में लाई गई हो। मुसलमान की विवाहित (पत्नी)।
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निकियाई  : स्त्री० [हिं० निकियाना] निकियाने की क्रिया, भाव और मजदूरी।
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निकियाना  : स० [देश०] किसी चीज को इस प्रकार से नोचना कि उसका अंश या अवयव अलग हो जाय। जैसे–पक्षी के पर या पशु के बाल निकियाना।
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निकिष्ट  : वि०=निकृष्ट।
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निकुंच  : पुं० [सं० नि√कुंच् (कुटिलता)+अच्] १. कुंजी। ताली।
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निकुंचक  : पुं० [सं० नि√कुंच्+ण्वुल्–अक] १. एक तरह का पुराना माप जो कुड़व के चौथाई अंश के बराबर होता था। २. जल-बेंत।
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निकुंचन  : पुं० [सं० नि√कुंच्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निकुंचित] संकुचन।
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निकुंज  : पुं० [सं० नि-कु√जन् (उत्पत्ति)+ड, पृषो० सिद्धि] उपवन, वन, वाटिका आदि में का वह प्राकृतिक स्थल जो वृक्षों तथा लताओं द्वारा आच्छादित तथा कुछ पार्श्वो से घिरा होता है। कुंज।
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निकुंभ  : पुं० [सं० नि√कुंभ (ढाँकना)+अच्] १. कुंभकरण का एक पुत्र जो रावण का मंत्री था। २. भक्त प्रह्लाद के एक पुत्र का नाम। ३. शतपुर का एक असुर राजा जिसने कृष्ण के मित्र ब्रह्मदत्त की कन्याओं का हरण किया था इसी लिए कृष्ण ने इसे मार डाला था। ४. हरिवंश के अनुसार, हर्यश्व राजा का एक पुत्र। ५. एक विश्वेदेव। ६. कौरवों की सेना का एक सेनापति। ७. कुमार का एक गण। ८. महादेव का एक गण। ९. दंती (वृक्ष)। १॰. जमालगोटा।
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निकुंभित  : पुं० [सं० नि√कुम्भ+क्त] नृत्य का एक विशेष प्रकार या मुद्रा।
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निकुंभिला  : स्त्री० [सं०] १. लंका के पश्चिम भाग में की एक गुफा। २. उस गुफा की अधिष्ठात्री देवी (कहते हैं कि युद्ध करने से पहले मेघनाद इसी देवी का पूजन किया करता था)।
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निकुंभी  : स्त्री० [सं० निकुंभ+ङीष्] १. कुंभकरण की कन्या का नाम। २. दंती वृक्ष।
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निकुटना  : अ० [हिं० निकोटना का अ०] निकोटा जाना। स०=निकोटना।
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निकुही  : स्त्री० [देश०] एक तरह की चिड़िया।
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निकुरंब  : पुं० [सं० नि√कुर् (शब्द)+अम्बच् (बा०)] समूह।
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निकुलीनिका  : स्त्री० [सं०] १. वह कला जो किसी ने अपने पूर्वजों से सीखी हो। २. वह कला जिसमें किसी जाति विशेष के लोग निपुण तथा सिद्धहस्त समझे जाते हैं।
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निकूल  : पुं० [सं०] वह देवता जिसके निमित्त नरमेध और अश्वमेध यज्ञों में छठे यूप में बलि चढ़ाया जाता है।
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निकृंतन  : पुं० [सं० नि√कृत+ल्युट्–अन] १. काटना। २. नष्ट करना।
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निकृत  : भू० कृ० [सं० नि√कृ+क्त] १. अपमानित या तिरस्कृत किया हुआ। २. जो दूसरों द्वारा ठगा गया हो। प्रतारित। ३. अधम। नीच। ४. दुष्ट।
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निकृति  : स्त्री० [सं० नि√कृ+क्तिन्] १. अपमान। तिरस्कार। २. दूसरों को ठगने की क्रिया या भाव। ३. दुष्टता। ४. दीनता। ५. पृथ्वी। ६. धर्म का पुत्र एक वसु जो सीध्या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
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निकृत्त  : वि० [सं० नि√कृत्+क्त] १. जड़ या मूल से कटा हुआ। २. छिन्न। विदीर्ण।
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निकृष्ट  : वि० [सं० नि√कृष् (खींचना)+क्त] [भाव० निकृष्टता] जो महत्त्व, मान आदि की दृष्टि से निम्न कोटि का और फलतः तिरस्कृत हो। जैसे–निकृष्ट विचार, निकृष्ट व्यक्ति।
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निकृष्टता  : स्त्री० [सं० निकृष्ट+तल्–टाप्] निकृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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निकेत  : पुं० [सं० नि√कित् (बसना)+घञ्] रहने का स्थान। घर।
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निकेतन  : पुं० [सं० नि√कित्+ल्युट्–अन]=निकेत।
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निकोचक  : पुं० [सं० नि√कुच् (शब्द)+वुन्–अक] अंकोल (वृक्ष)।
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निकोचन  : पुं० [सं० नि √कुच्+ल्युट्–अन्] सिकुड़ने की क्रिया या भाव।
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निकोटना  : स० [हिं० बकोटना का अ०] १. नाखूनों की सहायता से तोड़ना। २. नोचना। ३. दे० ‘बकोटना’। स० [हिं० नि+कृत] कोई चीज गढ़ने या बनाने के लिए खोदना, तराशना आदि। (राज०)
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निकोठक  : पुं० [सं० निकोचक, पृषो० सिद्धि] अंकोल (वृक्ष)।
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निकोसना  : सं० १. दाँत निकालना। २. दाँत किटकिटाना या पीसना।
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निकौड़िया  : पुं० [हिं० नि+कौड़ी] [स्त्री० निकौड़ी] १. व्यक्ति, जिसके पास कौड़ी भी न हो। २. परम निर्धन या दरिद्र व्यक्ति।
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निकौनी  : स्त्री० [हिं० निकाना=निराना] निराई (खेत की)।
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निक्का  : वि० [सं० न्यक्क=नत, नीचा] [स्त्री० निक्की] १. (व्यक्ति) जो वय में अपने सभी भाइयों में छोटा हो। २. अवस्था में बहुत छोटा। जैसे–निक्का काका। (पश्चिम)
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निक्रीड़  : पुं० [सं० नि√क्रीड़ (खेलना)+घञ्] क्रीड़ा। खेल।
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निक्वण  : पुं० [सं० नि√क्वण् (शब्द)+अप्] १. वीणा की झंकार या शब्द। २. किन्नरों का शब्द या स्वर।
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निक्षण  : पुं० [सं० निक्ष् (चूमना)+ल्युट्–अन] चुंबन। चुम्मा।
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निक्षा  : स्त्री० [सं०√निक्ष्+अच्–टाप्] जूँ का अंडा। लीख।
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निक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० नि√क्षिप् (प्रेरणा)+क्त] १. फेंका हुआ। २. डाला या रखा हुआ। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। त्यक्त। ४. अमानत या धरोहर के रूप में किसी के पास जमा किया या रखा हुआ। (डिपाजिटेड) ५. भेजा हुआ। (कन्साइंड) ६. बंधनों आदि से छूटा हुआ।
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निक्षिप्तक  : पुं० [सं० निक्षिप्त+कन्] १. वह वस्तु जो कहीं भेजी जाय। (कन्साइनमेंट) २. वह धन जो किसी कोश, खाते या मद में इकट्ठा किया जाय।
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निक्षिप्ति  : स्त्री० [सं० नि√क्षिप्+क्तिन्] निक्षेप। (दे०)
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निक्षिप्ती  : पुं० [सं० निक्षिप्त] वह व्यक्ति जिसके नाम कोई वस्तु, विशेषतः पारसल के रूप में भेजी गई हो। (कनसाइनी)
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निक्षुभा  : स्त्री० [सं० निक्षुभ (हलचल)+क–टाप्] १. ब्राह्मणी। २. सूर्य की एक पत्नी।
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निक्षेप  : पुं० [सं० नि√क्षिप् (प्रेरणा)+घञ्] [भू० कृ० निक्षिप्त] १. फेंकने, डालने, चलाने, छोड़ने आदि की क्रिया या भाव। २. किसी के पास कोई चीज भेजने की क्रिया या भाव। ३. इस प्रकार भेजी जानेवाली वस्तु। ४. वह धन या वस्तु जो किसी के यहाँ अमानत या धरोहर के रूप में रखी गई हो। ५. वह धन जो कहीं जमा किया गया हो। (डिपाजिट) ६. कोई चीज कहीं जमा करने अथवा किसी के पास अमानत या धरोहर के रूप में रखने की क्रिया या भाव।
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निक्षेपक  : वि० [सं० नि√क्षिप्+ण्वुल–अक] फेंकने, चलाने या छोड़नेवाला। पुं० १. वह जो किसी को कोई वस्तु विशेषतः पारसल करके भेजता हो। (कन्साइनर) २. वह जो किसी के पास धन जमा करे। ३. धरोहर के रूप में रखा हुआ पदार्थ। (कौ०)
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निक्षेपण  : पुं० [सं० नि√क्षिप्+ल्युट्–अन] [वि० निक्षिप्त, निक्षेप्य] १. कोई चीज चलाना, छोड़ना, डालना या फेंकना। २. धन आदि किसी के पास जमा करना। ३. अमानत या धरोहर के रूप में कोई चीज किसी के पास रखना।
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निक्षेप-निर्णय  : पुं० [सं० तृ० त०] सिक्का आदि उछालकर उसके चित या पट गिरने के आधार पर किया जानेवाला किसी प्रकार का निर्णय। (टॉस)
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निक्षेपित  : भू० कृ० [सं० निक्षिप्त] जिसका निक्षेपण हुआ हो। निक्षिप्त।
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निक्षेपी (पिन्)  : वि० [सं० नि√क्षिप्+णिनि] १. चलाने, छोड़ने, डालने या फेंकनेवाला। २. अमानत या धरोहर के रूप में किसी के पास कोई चीज रखनेवाला।
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निक्षेप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं० नि√क्षिप्+तृच]=निक्षेपी।
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निक्षेप्य  : वि० [सं० नि√क्षिप्+णिनि] १. चलाये, छोड़े, डाले या फेंके जाने के योग्य। २. अमानत या धरोहर के रूप में रख जाने के योग्य। ३. जमा किये जाने के योग्य।
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निखंग  : पुं०=निषंग (तरकश)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निखंगी  : वि०=निषंगी (तरकश धारण करनेवाला)।
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निखंड  : वि० दो बिन्दुओं या कालों के ठीक बीच में होनेवाला। जैसे–निखंड बेला।
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निखटक  : क्रि० वि०=बेखटके।
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निखट्टर  : वि० [हिं० नि+कट्टर=कड़ा] कठोर हृदयवाला। निर्दय और निष्ठुर।
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निखट्टू  : वि० [हिं० नि+खटना=कमाना] १. (व्यक्ति) जो कुछ भी कमाता न हो। २. बेकार।
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निखनन  : पुं० [सं० नि√खन् (खोदना)+ल्युट्–अन] १. खनना। खोदना। २. खोदने पर निकलनेवाली मिट्टी। ३. गाड़ना।
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निखरक  : क्रि० वि०=निखटक (बेखटके)।
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निखरचे  : क्रि० वि० [हिं० नि+खरच] बिना किसी प्रकार का खरच विशेषतः माल आदि की दलाली, ढुलाई, रेल-भाड़ा, डाक-व्यय आदि जोड़े या मिलाये हुए। जैसे–आपको यह माल ५0) मन निखरचे मिलेगा। अर्थात् ऊपरी खरच विक्रेता के जिम्मे होंगे।
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निखरना  : अ० [सं० निरक्षण=छँटना] १. ऊपर की मैल आदि हट जाने के कारण खरा या साफ होना। २. स्वच्छ करनेवाली किसी क्रिया के फल-स्वरूप वास्तविक तथा अधिक सुन्दर रूप प्रकट होना। ३. रंगत, रूप आदि का खिलना या साफ होना। ४. कला-पूर्ण ढंग से संपादित होने के कारण किसी कार्य या वस्तु का ऐसे उत्कृष्ट या निर्दोष स्थिति या रूप में सामने आना कि वह यथेष्ट सजीव तथा सौंदर्यपूर्ण जान पड़े। जैसे–दूसरे संस्करण में भी जो संशोधन तथा सुधार हुए हैं उनके कारण यह ग्रंथ और भी निखर गया है। (दे० ‘निखार’ और ‘निखारना’)। संयो० क्रि०–आना।–उठना।–जाना।
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निखरवाना  : स० [हिं० निखारना] किसी को कुछ निखारने में प्रवृत्त, करना। निखारने का काम दूसरे से कराना।
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निखरी  : स्त्री० [हिं० निखरना] घी की पकी हुई रसोई। पक्की रसोई। ‘सखरी’ का विपर्याय।
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निखर्व  : वि० [सं०] १. जो गिनती में दस हजार करोड़ हो। ‘खर्व’ का सौ-गुना। २ बौना। वामन। पुं० दस हजार करोड़ या सौ खर्व की सूचक संख्या या अंक।
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निखवख  : वि०, क्रि० वि० [सं० न्यक्ष=सारा, सब] बिलकुल। निरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निखात  : भू० कृ० [सं० नि√खन्+क्त] १. (जमीन या गड्ढा) खोदा हुआ। २. खोदकर निकाला हुआ। ३. गाड़ा हुआ।
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निखाद  : पुं०=निषाद।
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निखार  : पुं० [हिं० निखरना] १. निखरने की क्रिया या भाव। २. निर्मलता। स्वच्छता। ३. सजावट।
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निखारना  : स० [हिं० खारना] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज निखर उठे। २. निर्मल, पवित्र या शुद्ध करना। विशेष–प्रायः कई विशिष्ट प्रकार के कारीगर चीज तैयार कर लेने पर उसे कई तरह के खारों (झारों) आदि के घोल में डालकर उसे सुन्दर और स्वच्छ बनाते हैं। यही क्रिया कहीं (खारना) और कहीं ‘निखारना’ कहलाती है।
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निखारा  : पुं० [हिं० निखारना] वह बड़ा कड़ाहा जिसमें ऊख का रस उबाल कर निखारा जाता है।
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निखालिस  : वि०=खालिस। (असिद्ध रूप)
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निखिउ  : वि०=निक्षिप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निखिद्ध  : वि०=निषिद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निखिल  : वि० [सं० नि-खिल=शेष, ब० स०] १. अखिल। संपूर्ण। २. समस्त। सारा।
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निखुटना  : अ० [सं० निक्षित ?] १. उपयोग में लाई जानेवाली वस्तु का कोई काम पूरा होने से पहले ही समाप्त हो जाना। बीच में ही समाप्त हो जाना। जैसे–पत्र भी न लिखा गया और स्याही निखुट गई। २. बाकी न बचना।
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निखेद  : पुं०=निषेध।
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निखेधना  : स० [सं० निषेध] निषेध या वर्जन करना। मना करना।
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निखोट  : वि० [हिं० नि०+खोटा] १. (वस्तु) जो बिलकुल शुद्ध, खरी या खालिस हो। जिसमें कोई खोट न हो। खरा। साफ। २. (व्यक्ति) जो खोटा अर्थात् दुष्ट-प्रकृति का न हो। खरा। साफ। ३. (बात) छल-कपट से रहित और स्पष्ट। क्रि० वि० खुलकर और स्पष्ट रूप से।
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निखोड़ना  : स० [हिं० नि+खोदना] १. खोदना, विशेषतः नाखून से खोदना। २. नोचकर अलग करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निखोड़ा  : वि० [हिं० नि+खोड़=आवेश] [स्त्री० निखोड़ी] १. बहुत जल्दी या अधिक आवेश में आनेवाला। २. आवेशयुक्त होकर काम करनेवाला। ३. क्रूर। निर्दय।
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निखोरना  : स०=निखोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगंद  : पुं० [सं० निर्गंध] औषधि के काम आनेवाली एक रक्त-शोधक बूटी।
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निगंदना  : स० [हिं० निगंदा] रूई से भरे हुए कपड़े के दोनों परतों में सूई-धागे से इसलिए बड़े-बड़े टाँके लगाना कि उसके अंदर रुई इधर उधर न होने पाये।
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निगंदा  : पुं० [फा० निगंदः] उक्त प्रकार के कपड़ों में लगा हुआ बड़ा टाँका। बखिया।
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निगंध  : वि०=निर्गंध (गंध हीन)।
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निगड़  : स्त्री० [सं० नि√गल् (बंधन)+अच्, लस्य डः] १. जंजीर, जिससे हाथी के पैर बाँधे जाते हैं। आँदू। २. अपराधियों के पैरों में पहनाई जानेवाली बेड़ी।
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निगड़न  : पुं० [सं० नि√गल्+ल्युट्–अन, लस्य डः] निगड़ पहनाने या बाँधने की क्रिया या भाव।
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निगड़ित  : वि० [सं० निगड़+इतच्] निगड़ से बाँधा हुआ।
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निगण  : पुं० [सं० निगरण, पृषो० सिद्धि] यज्ञाग्नि या आहुति के जलने से उत्पन्न होनेवाला धूआँ।
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निगति  : वि० [हिं० नि+सं० गति] १. जिसकी गति अर्थात् मुक्ति न हुई हो। २. जिसकी गति या मुक्ति न हो सकती हो; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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निगद  : पुं० [सं० नि√गद् (कहना)+अप्] १. कहना या बोलना। भाषण। २. उक्ति। कथन। ३. ऐसा जप जिसका उच्चारण जोर-जोर से किया जाय। ४. पढ़ने का वह ढंग जिसमें कोई पाठ बिना अर्थ समझे हुए पढ़ा या रटा जाता है।
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निगदन  : पुं० [सं० नि√गद्+ल्युट्–अन] १. कहना। २. रटा, सीखा या स्मरण किया हुआ पाठ दोहराना।
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निगदित  : भू० कृ० [सं० नि√गद्+क्त] जिसका निरादर किया गया हो।
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निगना  : अ० [सं० निगमन्] चलना। (राज०)
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निगम  : पुं० [सं० नि√गम् (जाना)+अप्] १. पथ। मार्ग। रास्ता। २. प्राचीन भारत में, वह पथ या रास्ता जिस पर होकर व्यापारी लोग अपना माल लाते और ले जाते थे। ३. उक्त के आधार पर रोजगार या व्यापार। ४. वेद जिसकी, शिक्षाएँ सब के चलने के लिए सुगम मार्ग के रूप में हैं। ५. वेद का कोई शब्द, पद या वाक्य अथवा इनमें से किसी की टीका या व्याख्या। ६. ऐसा ग्रंथ जिसमें वैदिक मतों का निरूपण या प्रतिपादन हो। ७. विधि या विधान के अनुसार अस्तित्व में आई हुई ऐसी संस्था जो शरीरधारी व्यक्ति की तरह काम करती है और जिसके कुछ निश्चित अधिकार, कृत्य तथा कर्तव्य होते हैं। ८. दे० ‘नगर महापालिका’। ९. मेला। १॰. कायस्थों की एक शाखा।
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निगमन  : संज्ञा [सं० नि√गम्+ल्युट्–अन] १. किसी संस्था या को निगम का रूप देने की क्रिया या भाव। २. न्याय में, वह कथन प्रतिज्ञा, जो हेतु, उदाहरण और उपनय तीनों से सिद्ध हुई या होती हो। (डिडक्शन)
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निगमनिवासी (सिन्)  : पुं० [सं० निगम नि√वस् (बसना)+णिनि] विष्णु।
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निगमपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. निगम का प्रधान अधिकारी। २. दे० ‘नगर-प्रमुख’।
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निगम-बोध  : पुं० [सं० ब० स०] पृथ्वीराज रासो में उल्लिखित एक पवित्र स्थान जो यमुना नदी के तट पर तथा दिल्ली के पास था।
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निगम-संचारी  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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निगमागम  : पुं० [सं० निगम-आगम, द्व० स०] वेद और शास्त्र।
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निगमित  : वि० [सं०] जिसे निगम का रूप दिया गया हो। (इन्कारपोरेटेड)
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निगमी (मिन्)  : वि० [सं० निगम+इनि] वेदज्ञ।
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निगमीकरण  : पुं० [सं० निगम+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट–अन] किसी संस्था को निगम का रूप देना। (इन्कारपोरेशन)
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निगमीकृत  : भू० कृ० [सं० निगम+च्वि, ईत्व√कृ+क्त]=निगमित।
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निगर  : पुं० [सं० नि√गृ (निगलना)+अप्] १. निगलने की क्रिया या भाव। २. भोजन। ३. गला। ४. एक प्रकार की पुरानी तौल जो 55 मोतियों के बराबर होती थी। वि० [सं० निकर] कुल। सब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० समूह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगरण  : पुं० [सं० नि√गृ+ल्युट्–अन] १. खाना या निगलना। २. गला। ३. यज्ञाग्नि का धूआँ।
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निगरना  : स०=निगलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगरभर  : वि० [सं० नि+गह्वर] बहुत ही घना। क्रि० वि० घने रूप में।
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निगराँ  : वि० [फा०] १. निगरानी करनेवाला। जो चौकस होकर किसी की देखभाल करे। निरीक्षक।
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निगरा  : स्त्री० [सं० निगर] 55 मोतियों की वह लड़ी जो तौल में 3२ रत्ती हो। वि० [हिं० नि+गरण] (ऊख का रस) जिसमें पानी न मिलाया गया हो।
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निगराना  : स० [सं० नय+करण] १. निर्णय करना। २. छाँट कर अलग या पृथक् करना। स्पष्ट करना। अ० १. अलग होना। २. स्पष्ट होना।
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निगरानी  : स्त्री० [फा०] १. व्यक्ति के संबंध में उसके कार्य, गति-विधि आदि पर इस प्रकार ध्यान रखना कि कोई अनौचित्य या सीमा का उल्लंघन न होने पाये। २. वस्तु के संबंध में, इस प्रकार ध्यान रखना कि उसे किसी प्रकार की क्षति या व्यतिक्रम न होने पाये।
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निगरू  : वि० [हिं० नि+सं० गुरु] जो गुरु अर्थात् भारी न हो। हलका। वि०=निगुरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगलन  : पुं० [सं०]=निगरण।
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निगलना  : स० [सं० निगरण, निगलन] कोई कड़ी या ठोस चीज बिना चबाये ही गले के अंदर उतार लेना। संयो० क्रि०–जाना।
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निगह  : स्त्री०=निगाह।
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निगहबान  : वि० [फा०] १. निगाह रखने अर्थात् देख-रेख करनेवाला। २. रक्षक।
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निगहबानी  : स्त्री० [फा०] निगहबान होने की अवस्था या भाव। देख-रेख। रक्षण।
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निगाद  : पुं [सं० नि√गद्+घञ्] निगध। (दे०)। वि० वक्ता।
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निगार  : पुं० [सं० नि√गृ+घञ्] १. निगलने की क्रिया या भाव। २. भक्षण। पुं० [फा०] १. प्रतिमा। मूर्ति। २. ऐसा चित्रण जिसमें बेल-बूटे भी हों। ३. फारस देश का एक राग। वि० १. अंकित करनेवाला। २. लिखनेवाला।
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निगाल  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पहाड़ी बाँस जिसे रिँगाल भी कहते हैं। २. [सं० निगार, रस्य लः] घोड़े की गरदन। स्त्री०=निगाली।
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निगालवान (वत्)  : पुं० [सं० निगाल+मतुप्] घोड़ा।
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निगालिका  : स्त्री० [सं०] आठ अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, रगण और लघु-गुरु होते हैं। इसे ‘प्रामाणिक’ और ‘नाग स्वरूपिणी’ भी कहते हैं।
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निगाली  : स्त्री० [हिं० निगार] १. बाँस की पतली नली। २. हुक्के की वह नली जिसे मुँह में लगाकर धूआँ खींचा जाता है।
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निगाह  : स्त्री० [फा०] १. दृष्टि। नजर। २. कृपा-दृष्टि। ३. किसी बात की देख-रेख के लिए उस पर रखा जानेवाला ध्यान। ४. किसी काम, चीज या बात के संबंध में होनेवाली परख। सूक्ष्म दृष्टि।
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निगिभ  : वि० [सं० निगुह्य] अत्यंत गोपनीय।
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निगीर्ण  : भू० कृ० [सं० नि√गृ+क्त] १. निगला हुआ। २. अंतर्भूत। समाविष्ट।
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निगुंफ  : पुं० [सं० नि√गुम्फ (गूँथना)+घञ्] १. समूह। २. गुच्छा।
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निगुण  : वि०=निर्गुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगुना  : वि० १.=निर्गुण। २.=निगुनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निगुनी  : वि० [हिं० नि+गुनी] जिसमें कोई गुण न हो।
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निगुरा  : वि० [हिं० नि+गुरु] जिसने धार्मिक दृष्टि से किसी को अपना गुरु न बनाया हो, जिसने किसी से दीक्षा न ली हो। फलतः गुण-रहित और हीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) विशेष–संतों के समाज में, और उसके आधार पर लोक में भी ऐसा व्यक्ति अपटु, अयोग्य और निकृष्ट माना जाता है।
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निगूढ़  : वि० [सं० नि√गुह् (छिपाना)+क्त] १. जिसका अर्थ छिपा हो। २. अत्यंत गुप्त।
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निगूढ़ार्थ  : वि० [सं० निगूढ़-अर्थ, ब० स०] जिसका अर्थ छिपा हो। पुं० [कर्म० स०] छिपा हुआ अर्थ।
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निगूहन  : पुं० [सं० नि√गुह्+ल्युट्–अन] गुप्त रखने या छिपाने की क्रिया या भाव।
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निगृहीत  : भू० कृ० [सं० नि√ग्रह् (पकड़ना)+क्त] [भाव० निगृहीति] १. धरा, पकड़ा या रोका हुआ। २. जिस पर आक्रमण हुआ हो। आक्रमित। ३. तर्क-वितर्क या वाद-विवाद में हारा हुआ। ४. जिसे दंड मिला हो। दंडित। ५. जिसे कष्ट पहुँचा हो। पीड़ित।
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निगृहीति  : स्त्री० [सं० नि√ग्रह+क्तिन्] १. धरने, पकड़ने या रोकने का भाव। २. आक्रमण। ३. तर्क-वितर्क या वाद-विवाद में होनेवाली हार। ४. दंड। ५. कष्ट।
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निगोड़ा  : वि० [हिं० नि+गोड़=पैर] [स्त्री० निगोड़ी] जिसके गोड़ अर्थात् पैर न हों अथवा टूटे हुए हों। फलतः अकर्मण्य। (स्त्रियों की एक प्रकार की गाली) वि० दे० ‘निगुरा’।
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निगोल  : स्त्री० [?] किसी मकान के ऊपर भाग में सीढ़ियों के ऊपर की वह छायादार रचना जो आस-पास की छतों और रचनाओं में सबसे ऊँची हो।
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निग्रह  : पुं० [सं० नि√ग्रह+अप] १. नियंत्रण, बंधन, रोक आदि के द्वारा किसी आवेग, क्रिया, वस्तु या व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक आचरण न करने देना। २. उक्त का इतना अधिक उग्र या कठोर रूप कि किसी बात या वृत्ति का दमन हो जाय। ३. रोककर या वश में रखनेवाली चीज या बात। अवरोध। रोक। ४. चिकित्सा, जिससे रोग आदि दबाये या रोके जाते हैं। ५. दंड। सजा। ६. पीड़ित करना। सताना। ७. बाँधनेवाली चीज या बात। बंधन। ८. डाँट-डपट। ९. भर्त्सना। १॰. सीमा हद। १॰. शिव। ११. विष्णु।
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निग्रहण  : पुं० [सं० नि√ग्रह्+ल्युट्–अन] १. निग्रह करने की क्रिया या भाव। (दे० ‘निग्रह’) २. पराजय। ३. युद्ध। लड़ाई।
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निग्रहना  : स० [सं० निग्रहण] १. निग्रह करना। २. नियंत्रण, बंधन या रोक में रखना। ३. दमन करना। ४. दंडित करना।
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निग्रह-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] तर्क में वह स्थल या स्थान जहाँ वादी के अतर्क-संगत बातें कहने पर वाद-विवाद बंद कर देना पड़े।
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निग्रही (हिन्)  : वि० [सं० निग्रह+इनि] १. निग्रह करनेवाला। २. नियंत्रण, बंधन या रोक में रखनेवाला। दमन करनेवाला। ३. दंड देनेवाला।
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निग्राह  : पुं० [सं० नि√ग्रह+घञ्] १. आक्रोश। शाप। २. दंड, सजा।
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निग्राहक  : वि० [सं० नि√ग्रह+ण्वुल्–अक] निग्रह करनेवाला। पुं० यह प्राचीन शासनिक अधिकारी जो अपराधियों, आततायियों आदि को दंड देता था।
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निग्रोध  : पुं० [सं० न्यग्रोध] राजा अशोक के भाई का पुत्र।
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निघंटिका  : स्त्री० [सं० नि√घंट् (शोभित होना)+ण्वुल्–अक, टाप्, इत्व] गुलंचा नाम का कंद।
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निघंटु  : पुं० [सं० नि√घंट्+कु] १. शब्दों की सूची, विशेषतः यास्क द्वारा उल्लिखित वैदिक शब्दों की सूची। २. कोई ऐसा कोश, जिसमें किसी प्राचीन भाषा के अथवा बहुत पुराने और अप्रचलित शब्दों के अर्थ और विवेचन हों (लेक्सिकन)। ३. शब्द-संग्रह अथवा शब्द-कोश।
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निघ  : वि० [सं० नि√हन् (जानना)+क नि० सिद्धि] जो लंबाई और चौड़ाई में बराबर हो। पुं० १. गेंद। २. पाप।
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निघटना  : स० [हिं० नि०+घटना] न घटे हुए के समान करना। अ० १. उत्पन्न होना। २. घटित होना। ३. युक्त या संपन्न होना।
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निघर-घट  : वि० [हिं० नि+भर घाट] १. जिसका कहीं घर-घाट या ठौर-ठिकाना न हो। २. निर्लज्ज। बेहया। मुहा०–(किसी को) निघर-घट देना=बुरी तरह से झिड़कते या फटकारते हुए लज्जित करना। उदा०–दुरै न निघर-घटौ दियें, यह रावरी कुचाल।–बिहारी।
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निघरा  : वि० [हिं० नि+घर] १. जिसका घर-द्वार न हो। २. जिसकी घर-गृहस्थी न हो अर्थात् तुच्छ और हीन।
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निघर्ष  : पुं० [सं० नि√घृष् (घिसना)+घञ्] १. घर्षण। रगड़। २. पीसने का भाव।
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निघस  : पुं० [सं० नि√अद् (खाना)+अप्, घस् आदेश] आहार। भोजन।
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निघात  : पुं० [सं० नि√हन्+घञ्] १. आघात। प्रहार। २. संगीत में, अनुदात्त स्वर।
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निघाति  : स्त्री० [सं० नि√हन्+इञ्, कुत्व] १. लोहे का डंडा। २. हथौड़ा। ३. निहाई जिस पर धातु के टुकड़े रखकर पीटते हैं।
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निघाती (तिन्)  : वि० [सं० निघात+इनि] [स्त्री० निघातिनी] १. आघात या प्रहार करनेवाला। २. वध या हत्या करनेवाला।
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निघृष्ट  : भू० कृ० [सं० नि√घृष्+क्त] १. रगड़ खाया हुआ। २. पराजित।
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निघोर  : वि० [सं० नि-घोर, प्रा० स०] अत्यंत या परम। घोर।
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निघ्न  : वि० [सं० नि√हन्+क] १. अधीन। २. अवलंबित। ३. आश्रित। ४. गुणा किया हुआ। गुणित।
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निचंत  : वि०=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचंद्र  : पुं० [सं०] एक दानव का नाम।
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निचक्र  : पुं० [सं०] हस्तिनापुर के एक राजा जिन्होंने बाद में कौशांबी में राजधानी बनाई थी।
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निचय  : पुं० [सं० नि√चि (चयन)+अच्] १. ढेर। राशि। २. समूह। ३. संचय। ४. निश्चय। ५. किसी विशेष कार्य के लिए इकट्ठा किया जानेवाला धन। निधि। (फंड)
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निचयन  : पुं० [सं० नि√चि+ल्युट्–अन] १. निचय अर्थात् किसी काम के लिए धन जमा या इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। २. किसी के हिसाब या खाते में उसकी ओर से या उसके लिए कुछ धन जमा करना। (फंडिंग)
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निचर  : वि०=निश्चल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचल  : वि०=निश्चल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचला  : वि० [हिं० नीचा] [स्त्री० निचली] अवस्था, पद, स्थिति आदि के विचार से निम्न स्तर पर या नीचे होनेवाला। नीचेवाला। जैसे–(क) मकान का निचला (अर्थात् नीचेवाला) खंड। (ख) निचला अधिकारी। वि० [सं० निश्चल] जो निश्चल या शांत भाव से एक जगह बैठ न सके। चंचल और चिलबिल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि० निश्चल और शांत भाव से। जैसे–बहुत हो चुका, अब निचले बैठो।
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निचाई  : स्त्री० [हिं० नीचा] १. निम्न स्थल पर होने की अवस्था या भाव। २. निम्न स्थल की ओर का विस्तार। स्त्री० नीचता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निचान  : स्त्री० [हिं० नीचा+आन (प्रत्य०)] १. नीचेवाले स्तर पर होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. ऐसी भूमि जो अपेक्षया नीचे की ओर हो। ३. भूमि आदि की नीचे की ओर होनेवाली प्रवृत्ति। ढाल।
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निचाय  : पुं० [सं० नि√चि+घञ्] ढेर। राशि।
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निचिंत  : वि० [स्त्री० निचिंतता]=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचिकी  : स्त्री० [सं० नि√चि+डि=निचि=शिरोभाग, निचि√कै (शोभा)+क–ङीष्] अच्छी गाय।
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निचित  : भू० कृ० [सं० नि√चि+क्त] १. ढका या छाया हुआ। २. इकट्ठा किया हुआ। संचित। ३. पूरित। व्याप्त। ४. बनाया हुआ। निर्मित। ५. संकीर्ण।
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निचुड़ना  : अ० [हिं० निचोड़ना का अ० रूप] आर्द्र या रस से भरी वस्तु में से तरल अंश का दबाकर निकाला जाना। निचोड़ा जाना।
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निचुल  : पुं० [सं० नि√चुल् (ऊँचा होना)+क] १. बेंत। २. हिज्जल नामक वृक्ष। ३. ओढ़ने या ढकने का वस्त्र। आच्छादन।
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निचुलक  : पुं० [सं निचुल+कन्] १. युद्ध के समय छाती पर बाँधा जानेवाला लोहे का तवा। २. छाती ढकने का कपड़ा।
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निचेत  : वि०=अचेत।
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निचै  : पुं०=निचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोड़  : पुं० [हिं० निचोड़ना] १. निचोड़ने की क्रिया या भाव। २. वह अंश जो निचोड़ने पर निकले। ३. किसी लंबी-चौड़ी बात का संक्षिप्त और सार अंश। सारांश।
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निचोड़ना  : स० [हिं० नि+सं० च्यवन] १. आर्द्र वस्तु का जल अथवा रस से भरी हुई वस्तु में से उसका तरल अंश या रस निकालने के लिए उसे ऐंठना, घुमाना, दबाना या मरोड़ना। जैसे–गीली धोती निचोड़ना, आम का रस निचोड़ना। २. उक्त प्रकार से पीड़ित करते हुए किसी चीज का सार भाग निकालना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी की जमा-पूँजी या सार-भाग पूरी तरह से लेकर उसे खोखला या निःसार करना। संयो० क्रि०–डालना।–देना।
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निचोना  : स०=निचोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोर  : पुं० १.=निचोड़। २.=निचोल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोरना  : स०=निचोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचोल  : पुं० [सं० नि√चुल्+घञ्] १. शरीर ढाँकने का कपड़ा। आच्छादन। २. स्त्रियों की ओढ़नी या चादर। ३. उत्तरीय वस्त्र। ४. स्त्रियों का घाघरा या लहँगा। ५. कपड़ा। वस्त्र।
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निचोलक  : पुं० [सं० निचोल√कै (मालूम पड़ना)+क] १. प्राचीन भारत का कंचुकी या चोली नाम का पहनने का कपड़ा जो अंगे की तरह का होता था। २. बख्तर। सन्नाह।
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निचोवना  : स०=निचोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निचौहाँ  : वि० [हिं० नीचा+औहाँ (प्रत्य०)] १. नीचे की ओर झुका हुआ या प्रवृत्त। नत। नमित। २. जिसकी नीचे की ओर जाने की प्रवृत्ति हो।
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निचौहैं  : अव्य [हिं० निचौहाँ] नीचे की ओर।
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निच्छंद  : वि० [सं० निश्च्छंद] स्वच्छंद।
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निच्छवि  : स्त्री० [सं० निश्च्छंद, ब० स०] तिरहुत। पुं० एक प्रकार के व्रात्य क्षत्रिय।
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निच्छह  : अव्य० [?] १. पूरी तरह से। २. एक-दम से। बिलकुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निच्छिवि  : पुं० [सं०] एक वर्ण-संकर जाति।
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निछक्का  : पुं० [सं० निस्+चक्=मंडली] १. ऐसी स्थिति जिसमें परम आत्मीय के सिवा और कोई पास न हो। २. एकांत या निर्जन स्थान।
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निछत्र  : वि० [सं० निश्छत्र] १. जिसके सिर पर छत्र न हो। छत्र-हीन। बिना छत्र का। २. जिसके पास राज्य अथवा उसका कोई चिह्न न हो या न रह गया हो। वि० [सं० निः क्षत्र] जिसमें या जहाँ क्षत्रिय न रह गये हों। क्षत्रियों से रहित।
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निछद्दम  : पुं० दे० ‘निछक्का’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निछनियाँ  : क्रि० वि०= निच्छत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निछल  : वि०=निश्छल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निछला  : वि०=निछल (निश्छल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] निरा। खालिस।
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निछावर  : स्त्री० [सं० न्यास+अवर्त्त=न्यासावर्त, मि० अ० निसार] १. किसी के गुण, रूप, सुख-समृद्धि आदि को सुरक्षित रखने की कामना से तथा उसे नजर आदि के दूषित प्रभावों से बचाने के लिए उसके ऊपर से कोई चीज घुमाकर उत्सर्ग करना। २. इस प्रकार उत्सर्ग की हुई वस्तु। विशेष–वस्तु के सिवा ऐसे प्रसंगों में स्वयं अपने आप को अथवा अपने प्राण को निछावर करने के भी प्रयोग होते हैं।
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निछावरि  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निछोह  : वि०=निछोही।
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निछोही  : वि० [हिं० नि+छोह] १. जिसे किसी के प्रति छोह या प्रेम न हो। निर्मम। २. निर्दय। निष्ठुर।
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निज  : वि० [सं० नि√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. किसी की दृष्टि से स्वयं उसका। पद–निज की=निजी। २. प्रधान। मुख्य। ३. ठीक। यथार्थ। अव्य० १. निश्चित रूप से। २. पूरी तरह से। ३. विशेष रूप से। ४. अंत में। उदा०–आई उघरि कनक कलई सी, दे निज गए दगाई।–सूर।
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निजकाना  : अ० [फा० निजदीक] नजदीक या निकट पहुँचना।
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निजकारी  : स्त्री० [हिं० निज+कर] १. ऐसी फसल जिसका कुछ अंश दूसरों को बाँटना भी पड़ता हो। २. वह जमीन जिसमें उत्पन्न वस्तु का कुछ अंश लगान के रूप में लिया या दिया जाता था।
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निजता  : स्त्री० [सं० निज+तल–टाप्] ‘निज’ का भाव। निजत्व।
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निजन  : वि०=निर्जन (जन-रहित)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निजरि  : स्त्री०=नजर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निजा  : पुं० [अ० निजाअ] झगड़ा। विवाद।
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निजाई  : वि० [अ०] जिसके विषय में दो पक्षों में कोई झगड़ा या विवाद चल रहा हो। जैसे–निजाई-जमीन, निजाई-जायदाद।
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निजात  : स्त्री०=नजात (छुटकारा या मोक्ष)।
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निजाम  : पुं० [अ० निज़ाम] १. प्रबंध। व्यवस्था। २. प्रबंध या व्यवस्था का क्रम। ३. किसी प्रकार का चक्र या मंडल। ४. ब्रिटिश तथा मराठा शासन-काल में हैदराबाद (दक्षिण) के शासकों की उपाधि।
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निजामशाही  : पुं० [अ+फा०] १. निजाम का शासन। २. मध्ययुग में, निजामाबाद आंध्र में बननेवाला एक प्रकार का बढ़िया कागज।
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निजी  : वि० [सं० निज] १. किसी की दृष्टि से स्वयं उससे संबंध रखनेवाला। निज का। जैसे–निजी बात। २. किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों से ही संबंधित। जिससे औरों का कोई संबंध न हो। जैसे–वह दोनों भाइयों का निजी झगड़ा है। ३. अपने अधिकार में होनेवाला। व्यक्तिगत (सार्वजनिक से भिन्न)।
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निजी सहायक  : पुं० [सं०] वह सहायक जो किसी उच्च अधिकारी या बड़े आदमी के वयक्तिगत कार्यों में हाथ बँटाता हो। (पर्सनल असिस्टेन्ट)
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निजु  : अव्य० [?] निश्चित रूप से। निश्चयपूर्वक। उदा०–निजु ये अविकारी, सब सुखकारी।–केशव।
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निजू  : वि०=निजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निजूठा  : वि० [हिं० नि+जूठा] [स्त्री० निजूठी] १. (खाद्य पदार्थ) जिसे किसी ने जूठा न किया हो। २. (उक्ति, भावना या विचार) जो पहले किसी को न सूझा हो या जो पहले किसी के मुख से न निकला हो। उदा०–कवि की निजूठी कल्पना सी कोमल।
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निजोर  : वि० [हिं० नि+फा० जोर] जिसमें जोर या शक्ति न हो। अशक्त। दुर्बल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निज्ज  : वि०=निज (निजी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निझरना  : अ० [हिं० नि+झरना] १. अच्छी तरह झड़ जाना। जैसे–पेड़ से फलों का निझरना। २. (किसी अवलंब या आश्रय का) अंगों के झड़ जाने के कारण रहित और शोभा रहित होना। जैसे–फलों के झड़ जाने के कारण पेड़ निझरना। ३. सार-भाग से वंचित या रहित होना। ४. अच्छी और सुखद बातों या वस्तुओं के निकल जाने के कारण उनसे रहित हो जाना। ५. पल्ला या हाथ झाड़कर इस प्रकार अलग हो जाना कि मानो कोई अपराध या दोष किया ही न हो। संयो० क्रि०–जाना।
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निझाटना  : स० [हिं० नि+झपटना ?] झपटकर कोई चीज किसी से ले लेना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निझोटना  : स०=निझाटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निझोल  : पुं० [हिं० नि+झोल] हाथी का एक नाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० नि+झूल] वह जिस पर फूल पड़ी हो अर्थात् हाथी।
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निटर  : वि० [देश०] १. (भूमि) जो उपजाऊ न हो। २. अशक्त। बेदम। ३. मृत।
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निटल  : पुं० [सं० नि√टल् (बेचैन होना)+अच्] मस्तक। माथा।
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निटलाक्ष  : पुं० [सं० निटल-अक्षि, ब० स०] महादेव। शंकर।
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निटिया  : पुं० [हिं० नाटा ?] एक तरह का छोटे कद का बैल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निटिलाक्ष  : पुं०=निटलाक्ष।
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निटोल  : वि० [हिं० नि+टोल] जो अपने टोल (जत्थे या झुंड) से अलग हो गया हो। पुं०=टोला (महल्ला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निट्ठ, निट्ठि  : अव्य० [हिं० नीठि] ज्यों-त्यों करके। कठिनाई से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निठ, निठि  : अव्य०=निट्ठ।
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निठल्ला  : वि० [हिं० उप० नि=नहीं+टहल=काम या हिं० ठाला ?] १. (व्यक्ति) जिसके हाथ में कोई काम-धंधा या रोजगार न हो। प्रायः खाली बैठा रहनेवाला। २. समय बिताने के लिए जिसके पास कोई काम या साधन न हो। क्रि० प्र०–बैठना।
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निठल्लू  : वि०=निठल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठाला  : पुं०=ठाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठुर  : वि० [सं० निष्ठुर] [भाव० निठुरई, निठुरता] जिसके हृदय में दया, प्रेम, सहानुभूति आदि कोमल या मधुर भाव बिलकुल न हों। जिसे दूसरों के कष्ट, पीड़ा आदि की अनुभूति न होती हो। कठोर-हृदय। निष्ठुर।
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निठुरई  : स्त्री०=निठुरता (निष्ठुरता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठुरता  : स्त्री० [हिं० निठुर+सं० ता (प्रत्य०), असिद्ध रूप] निठुर अर्थात् कठोर हृदय होने की अवस्था या भाव। निष्ठुरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठुराई  : स्त्री०=निठुरई (निष्टुरता)।
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निठुराव  : पुं०=निठुरई (निष्ठुरता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निठौर  : वि० [हिं० नि+ठौर] जिसका कोई ठौर या ठिकाना न हो। पुं० १. अनुचित या बुरा स्थान। २ जोखिम या संकट का स्थान।
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निडर  : वि० [हिं० नि+डर] [भाव० निडरपन] १. जो डरता या भयभीत न होता हो। जिसे किसी आदमी या बात से कुछ भी डर न लगता हो। निर्भय। २. साहसी। ३. जो बड़ों के समक्ष धृष्टतापूर्ण आचरण करता हो। ढीठ। पुं० निर्भयता।
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निडरपन (ा)  : पुं० [हिं० निडर+पन (प्रत्य०)] निडर होने की अवस्था या भाव।
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निडीन  : पुं० [सं० नि√डी (उड़ना)+क्त] ऊपर से नीचे की ओर आना।
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निडै  : अव्य० [हिं० नियर] निकट। समीप।
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निढाल  : वि० [हिं० नि+ढाल=गिरा हुआ] १. अधिक चलने या परिश्रम करने के फलस्वरूप जिसके अंग चूर-चूर हो गये हों। बहुत अधिक थका हुआ। २. जो विफल मनोरथ होने पर उत्साह-हीन हो गया हो।
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निढिल  : वि० [हिं० नि+ढीला] १. चुस्त। जो ढीला न हो। कसा या तना हुआ। २. जो ढिलाई न करता हो। चुस्त। ३. कड़ा। कठोर।
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नितंत  : वि० [सं० निद्रित] १. सोया हुआ। २. बसा हुआ। ३. उपस्थित। वर्तमान। उदा०–सबकर करम गोसाई जानइ जो घट घट महँ नितंत।–जायसी। अव्य०=नितांत।
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नितंब  : पुं० [सं० नि√तम्ब् (पीड़ित करना)+अच्] १. कूल्हे (टाँग और कमर का जोड़) के ऊपर का वह उभरा हुआ पिछला मांसल और प्रायः गोलाकार भाग जिसे टेककर जमीन आदि पर आदमी बैठते हैं। चूतड़। २. कंधा। ३. तट। तीर। ४. पर्वत का ढालुवाँ किनारा।
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नितंबिनी  : स्त्री० [सं० नितम्ब+इनि–ङीप्] सुन्दर नितंबोंवाली स्त्री। सुन्दरी।
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नितंबी (बिन्)  : वि० [सं० नितम्ब+इनि] [स्त्री० नितंबिनी] बड़े तथा भारी नितंबोवाला।
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नित  : अव्य०=निमित्त। उदा०–नित सेवा नित धावैं, कै परनाम।–नूर मोहम्मद। अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नितराम्  : अव्य० [सं० नि+तरप्, अमु] १. सदा। हमेशा। निरंतर। २. अवश्य।
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नितल  : पुं० [सं० नि+तल, ब० स०] पुराणानुसार पृथ्वी के नीचे स्थित सात लोकों में पहला लोक।
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नितांत  : वि० [सं० नि√तम् (चाहना)+क्त, दीर्घ] १. बहुत अधिक। २. हद दर्जे का। असाधारण। ३. बिलकुल।
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निति  : अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नित्तह  : अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नित्य  : वि० [सं० नि+त्यप्] [भाव० नित्यता] जो निरंतर या सदा बना रहे। अविनाशी। शाश्वत। अव्य० १. प्रतिदिन। हर रोज। २. हर समय। सदा। हमेशा।
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नित्य-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] १. वह काम जो प्रतिदिन करना पड़ता हो। रोज का काम। २. वे धार्मिक कृत्य जो प्रतिदिन आवश्यक रूप से किया जाते हों। जैसे–तर्पण, पूजन, संध्या, वंदन आदि।
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नित्य-क्रिया  : स्त्री० दे० ‘नित्य-कर्म’।
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नित्य-गति  : वि० [ब० स०] जो सदा गतिशील रहता हो। पुं० वायु। हवा।
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नित्यता  : स्त्री० [सं० नित्य+तल्–टाप्] नित्य अर्थात् शाश्वत होने या सदा वर्तमान रहने की अवस्था या भाव।
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नित्यमत्व  : पुं० [सं० नित्य+त्व] दे० ‘नित्यता’।
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नित्यदा  : अव्य० [सं० नित्य+दाच्] सदा से।
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नित्य-नर्त  : पुं० [ब० स०] महादेव। शंकर।
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नित्य-नियम  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा निश्चित या नियत नियम जिसका पालन प्रतिदिन करना पड़ता हो या किया जाता हो।
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नित्य-नैमित्तिक-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] नित्य अर्थात् नियमित रूप से तथा किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के निमित्त किये जानेवाले सब कर्म।
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नित्य-प्रति  : अव्य० [सं० अव्य० सं०] प्रतिदिन। हररोज।
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नित्य-प्रलय  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत के अनुसार जीवों की नित्य होती रहनेवाली मृत्यु।
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नित्य-बुद्धि  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो यह समझता हो कि हर चीज नित्य या शाश्वत है।
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नित्य-भाव  : पुं० [ष० त०] दे० ‘नित्यता’।
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नित्य-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] निःस्वार्थ-भाव से सदा मित्र बना रहनेवाला व्यक्ति। शाश्वत मित्र।
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नित्य-मुक्त  : पुं० [कर्म० स०] परमात्मा।
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नित्य-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] प्रतिदिन का कर्तव्य यज्ञ। जैसे–अग्निहोत्र।
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नित्य-यौवना  : वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जिसका यौवन सदा बना रहे। चिरयौवना। स्त्री० द्रौपदी।
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नित्यर्तु  : वि० [नित्य-ऋतु, ब० स०] १. जो सब मौसमों में और सदा बना रहे। २. निरंतर अपनी ऋतु में होनेवाला।
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नित्यशः (शस्)  : अव्य० [सं० नित्य+शस्] १. प्रतिदिन। रोज। नित्य। २. सदा। सर्वदा।
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नित्य-संबंध  : पुं० [कर्म० स०] १. दो वस्तुओं में परस्पर होनेवाला नित्य या स्थायी संबंध। २. व्याकरण में, दो शब्दों का वह पारस्परिक संबंध जिससे वाक्यांशों में दोनों शब्दों का आगे-पीछे आना अनिवार्य तथा आवश्यक होता है। जैसे–‘जब मैं कहूँ तब तुम वहाँ जाना। मैं ‘जब’ और ‘तब’ में नित्य-संबंध है।
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नित्य-संबंधी (धिन्)  : वि० [सं० नित्यसंबंध+इनि] (व्याकरण में ऐसे शब्द) जिनमें परस्पर नित्य-संबंध हो।
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नित्यसम  : पुं० [तृ० त०] तर्क या न्याय में, यह दूषित सिद्धांत कि सभी चीजें वैसी ही या वही बनी रहती हैं। (इसकी गणना २4 जातियों अर्थात् दूषित तर्कों में की गई है।)
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नित्या  : स्त्री० [सं० नित्य+टाप्] १. पार्वती। २. भनसादेवी। ३. एक शक्ति का नाम।
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नित्याचार  : पुं० [नित्य-आचार, कर्म० स०] ऐसा आचार या सदाचार जिसके निर्वाह या पालन में कभी त्रुटि न हुई हो।
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नित्यानंद  : पुं० [सं० नित्य-आनन्द, कर्म० स०] मन में निरन्तर या सदा बना रहनेवाला आनंद, जो सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
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नित्यानध्याय  : पुं० [नित्य-अनध्याय, कर्म० स०] धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसी स्थिति जिसके उपस्थित होने पर सदा अनध्याय रखना आवश्यक है। मनु के अनुसार–पानी बरसते समय, बादल के गरजने के समय अथवा ऐसे ही अन्य अवसरों पर सदा अनध्याय रखना चाहिए।
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नित्यानित्य  : वि० [नित्य-अनित्य, द्व० स०] नित्य और अनित्य। नश्वर और अनश्वर।
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नित्यानित्य वस्तु-विवेक  : पुं० [सं०] ऐसा विवेक जिसके फल-स्वरूप ब्रह्म, सत्य और जगत् मिथ्या भासित होता है।
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नित्याभियुक्त  : वि० [नित्य-अभियुक्त, कर्म० स०] (योगी) जो देह की रक्षा के निमित्त हल्का और थोड़ा भोजन करता हो।
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नित्योद्युत  : पुं० [सं०] एक बोधिसत्व।
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निथंब (थंभ)  : पुं०=स्तंभ (खंभा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निथरना  : अ० [सं० निस्तरण] तरल पदार्थ का ऐसी स्थिति में रहना या होना कि उसमें घुली या मिली हुई चीज अपने भारीपन के कारण उसके नीचे या तल में बैठ जाय।
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निथरवाना  : स० [हिं० निथारना का प्रे०] किसी को कुछ निथारने में प्रवृत्त करना।
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निथार  : पुं० [हिं० निथारना] २. निथरने की क्रिया या भाव। तरल पदार्थ में घुली या मिली हुई वस्तु का नीचे बैठना। २. इस प्रकार नीचे या तल में बैठी हुई कोई वस्तु। ३. वह तरल पदार्थ जिसमें घुली या मिली हुई चीज नीचे तल में बैठ गई हो।
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निथारना  : स० [हिं० निस्तारण] कोई तरल पदार्थ इस प्रकार स्थिर करना कि उसमें घुली या मिली हुई कोई वस्तु उसके तल में बैठ जाय। (डिकैन्टेशन)
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निथालना  : स०=निथारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निद  : वि० [सं०√निंद (निंदा करना)+क, नलोप] निंदा करनेवाला। पुं० [सं०] विष।
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निदई  : वि०=निर्दय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निदद्रु  : वि० [सं० नि-दद्रु, ब० स०] जिसे दाद रोग न हुआ हो।
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निदय  : वि० [सं० निर्दय] १. जिसमें दया न हो। दयाहीन। २. निष्ठुर। निर्दय। उदा०–निर्दय हृदय में हूक उठी क्या।–प्रसाद।
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निदरना  : स० [हिं० निरादर] १. अनादर या तिरस्कार करना। २. तुच्छ या हेय ठहराना या सिद्ध करना। स० [हिं० नि+दलन] १. दलन करना। २. पराजित करना।
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निदरसना  : अ० [हिं० नि+दरसना] अच्छी तरह दिखलाई देना या पड़ना। स० अच्छी तरह देखना।
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निदर्शक  : वि० [सं० नि√दृश् (देखना)+णिच्+ण्वुल्–अक] निदर्शन करके अर्थात् दिखाने या प्रदर्शित करनेवाला।
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निदर्शन  : पुं० [सं० नि√दृश+ल्युट्–अन्] १. दिखाने या प्रदर्शित करने की क्रिया या भाव। २. किसी कथन या सिद्धान्त की पुष्टि के लिए उदाहरण-स्वरूप कही जानेवाली ऐसी बात जो बहुधा कल्पित या स्वरचित परन्तु सादृश्य के तत्त्व या भाव से युक्त होती है। ३. भौतिक विज्ञान, रेखागणित आदि में किसी मूल कथन को सिद्ध करने के लिए खींची या बनाई जानेवाली आकृतियाँ। (इलस्ट्रेशन, उक्त दोनों अर्थों में)
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निदर्शना  : स्त्री० [सं० नि√दृश्+णिच्+ल्यु–अन, टाप्] साहित्य में, एक अलंकार जिसमें उपमान और उपमेय में सादृश्य का आरोप करके इस प्रकार संबंध स्थापित किया जाता है कि दोनों में बिंब-प्रतिबिंब का भाव प्रकट होता है। जैसे–यह मुख चंद्रमा की शोभा धारण कर रहा है।
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निदलन  : पुं०=निर्दलन।
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निदहना  : स० [निदहन] जलाना। अ० जलना।
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निदाध  : पुं० [सं० नि√दह् (जलाना)+घञ्] १. गरमी। ताप। २. धूप। ३. रोग का निदान।
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निदान  : पुं० [सं० नि√दा देनावा√दो (छेदन)+ल्युट्–अन] १. किसी क्रिया का कारण विशेषतः कोई मूल और प्रमुख कारण। २. चिकित्सा-शास्त्रों में, यह निश्चय करना कि (क) रोगी को कौन रोग है। और (ख) इस रोग का मूल और प्रमुख कारण क्या है। (डायग्नोसिस) ३. उक्त विषय की विद्या या शास्त्र। निदानशास्त्र। (इटियॉलाजी) ४. अंत। अवसान। ५. घर। ६. स्थान। जगह। अव्य० १. अंत में। २. इसलिए।
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निदान-गृह  : पुं० [ष० त०] वह चिकित्सालय, जहाँ रोगियों के रोगों का निदान होता या पहचान की जाती है। (क्लीनिक)
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निदानज्ञ  : पुं० [सं० निदान√ज्ञा (जानना)+क] वह चिकित्सक जो निदान-शास्त्र का ज्ञाता हो; और फलतः रोगों का ठीक निदान करता हो। (पैथालोजिस्ट)
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निदान-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें रोगों के निदान या पहचान का विवेचन होता है। (इटियॉलोजी)
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निदारा  : वि० [सं० निर्दार] जिसकी दारा अर्थात् पत्नी न हो। बिनब्याहा हुआ या रँडुवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निदारुण  : वि० [सं० नि-दारुण, प्रा० स०] १. घोर और भयानक या भीषण। २. दुःसह। ३. निर्दय। निष्ठुर।
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निदाह  : पुं०=निदाघ।
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निदिग्ध  : वि० [सं० नि√दिह् (उपचय)+क्त] छोपा या लीपा हुआ।
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निदिग्धा  : स्त्री० [सं० निदिग्ध+टाप्] इलायची।
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निदिग्धिका  : स्त्री० [सं० निदिग्ध+कन्, इत्व]=निदिग्धा।
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निदिध्यास  : पुं० [सं० नि√ध्यै (चिन्तन)+सन्+घञ्]=निदिध्यासन।
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निदिध्यासन  : पुं० [सं० नि√ध्यै+सन+ल्युट्–अन्] १. अनवरत चिंतन। २. निरंतर या सदा किसी का स्मरण करना।
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निदिया  : स्त्री०=निंदिया (नींद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निदिष्ट  : वि०=निर्दिष्ट।
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निदेश  : पुं० [सं० नि√दिश् (बताना)+घञ्] १. दे० ‘निर्देश’। २. शासन। ३. किसी आज्ञा, नियम, निश्चय आदि के संबंध में लगाई हुई कोई शर्त या बंधन। (प्रॉविजन) ४. उक्ति। कथन। ५. बातचीत। ६. पड़ोस। ७. सान्निध्य।
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निदेशक  : पुं० [सं०] वह जो दूसरों को कोई काम कैसे, कहाँ और कब करने के संबंध में सूचनाएँ या आदेश देता हो। (डाइरेक्टर)
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निदेशालय  : पुं० [सं०] निदेशक का कार्यालय।
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निदेशिनी  : स्त्री० [सं० नि√दिश्+ल्युट्–अन, ङीप्] दिशा।
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निदेशी (शिन्)  : वि० [सं० नि√दिश्+णिनि] निर्देशक। (दे०)
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निदेष्टा (ष्ट्ट)  : पुं० [सं० नि√दिश्+तृच] निर्देशक। (दे०)
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निदेस  : वि०=निर्देश।
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निदोष  : वि०=निर्दोष।
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निद्धि  : स्त्री०=निधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निद्र  : पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिसे चलाने पर शत्रुओं को नींद आ जाती थी।
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निद्रा  : स्त्री० [सं० √निंद+रक्, नलोप टाप्] प्राणियों की वह स्थिति जिसमें वे सुस्ताने तथा आरोग्य लाभ करने के निमित्त प्रकृतिशः कुछ समय तक चुपचाप निश्चेष्ट होकर पड़े रहते हैं। नींद। (साहित्य में यह एक संचारी भाव माना गया है।)
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निद्रा-गति  : स्त्री० [स० त०] एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी निद्रा की अवस्था में ही उठकर चलने-फिरने या कोई काम करने लगता है। (स्लीप वाकिंग) २. वनस्पतियाँ आदि का निद्रित अवस्था में भी बराबर बढ़ते या इधर-उधर होते रहना। (स्लीपिंग मूवमेन्ट)
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निद्राण  : वि० [सं० नि√द्रा (सोना)+क्त, तस्य, न, णत्व] १. जो सो रहा हो। २. मुदा हुआ। मीलित।
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निद्रायमान  : वि० [सं० नि√द्रा+यक्+शानच्, मुक्] जो निद्रित अवस्था में हो। सोया हुआ।
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निद्रालस  : वि० [निद्रा-अलस, तृ० त०] १. जो नींद आने के कारण शिथिल हो रहा हो। २. गहरी नींद में सोया हुआ।
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निद्रालु  : वि० [सं० नि√द्रा+आलुच्] १. जो निद्रा में हो या सो रहा हो। २. जिसे बहुत नींद आ रही हो। ३. जिससे नींद आने का परिचय मिल रहा हो। जैसे–निद्रालु आँखें। स्त्री० १. बन-तुलसी। २. बैंगन। ३. नली नामक गंध-द्रव्य।
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निद्रासेजन  : पुं० [सं० निद्रा-सम्जन् (उत्पत्ति)+णिच्+ल्युट्–अन्] कफ निकलने का रोग (जिसके कारण बहुत नींद आती है)।
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निद्रित  : भू० कृ० [सं० निद्र+क्त] जो सोया या निद्रा से भरा हो।
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निधड़क  : क्रि० वि० [हिं० नि+धड़क]=बेधड़क।
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निधन  : पुं० [सं० नि√धा (धारण)+क्यू–अन] १. नाश। २. मरण। मृत्यु। (प्रायः बड़े आदमियों के संबंध में प्रयुक्त) जैसे–महामना मालवीय जी का निधन। ३. जन्म-कुण्डली में लग्न से आठवाँ स्थान। (फलित ज्यो०) ४. जन्म-नक्षत्र से सातवाँ, सोलहवाँ और तेइसवाँ नक्षत्र। ५. कुल। वंश। ६. कुल का अधिपति। ७. विष्णु। वि० [सं०] निर्धन। (दे०)
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निधनक्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. शवदाह। २. अन्त्येष्टि।
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निधनपति  : पुं० [ष० त०] प्रलय करनेवाले, शिव।
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निधनी  : वि० [ष० त०] प्रलय करनेवाले, शिव।
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निधनी  : वि० [हिं० नि+धनी] जिसके पास धन न हो। निर्धन। उदा०–धन मुझ निधनी का लोचनों का उजाला।–हरिऔध।
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निधरक  : क्रि० वि०=निधड़क (बेधड़क)। उदा०–निधरक तूने ठुकराया तब, मेरी टूटी मृदु प्याली।–प्रसाद।
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निधातव्य  : वि० [सं० नि√धा+तव्यत्] जिसका निधान किया जा सके।
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निधान  : पुं० [सं० नि√धा+ल्युट्–अन] १. रखने या स्थापित करने की क्रिया या भाव। स्थापन। २. सुरक्षित रखना। ३. वह पात्र या स्थान जिसमें कुछ स्थापित या स्थित हो। आधार। आश्रय। जैसे–दया-निधान। ४. भंडार। ५. निधि। ६. वह स्थान, जहाँ कोई पहुँचकर नष्ट या समाप्त होता हो।
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निधि  : स्त्री० [सं० नि√धा+कि] १. वह आधार, पात्र या स्थान जिसमें कोई गुण या पदार्थ व्याप्त अथवा स्थित हो। आश्रय-स्थान। जैसे–दयानिधि, गुणनिधि, क्षीरनिधि, जलनिधि। २. जमीन में गड़ी हुई धनराशि। ३. किसी विशेष कार्य के लिए अलग रखा या जमा किया हुआ धन। जैसे–नागर-विधि। ४. कुबेर के नौ रत्न, यथा–पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और बर्च्च। ५. उक्त के आधार पर नौ की संख्या। ६. विष्णु। ७. शिव। ८. जीवक नामक ओषधि। ९. नली नामक गंधद्रव्य।
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निधिनाथ  : पुं० [ष० त०] १. निधियों (जो गिनती में नौ हैं) के स्वामी, कुबेर, २. वह व्यक्ति जिसकी देख-रेख में कोई निधि, संपत्ति या कुछ वस्तुएँ रखी गई हों।
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निधिप  : पुं० [सं० निधि√पा (रक्षा)+क] निधिनाथ। (दे०)
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निधि-पति  : पुं० [ष० त०] निधिनाथ। (दे०)
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निधिपाल  : पुं० [निधि√पाल् (रक्षा)+णिच्+अच्] निधिनाथ (दे०)
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निधिबन  : पुं० [सं०] वृन्दावन के पास का एक कुंज। उदा०–निधिबन करि दंडौत, बिहारी कौ मुख जोवै।–भगवत रसिक।
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निधीश, निधीश्वर  : पुं० [सं० निधि-ईश, ष० त०, निधि-ईश्वर, ष० त०] निधिनाथ। (दे०)
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निधुवन  : पुं० [सं० नि-धुवन, ब० स०] १. मैथुन। २. केलि-कर्म। ३. हंसी-ठट्ठा। परिहास। ४. कंप।
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निधेय  : वि० [सं० नि√धा+यत्] १. निधान अर्थात् रखे या स्थापित किये जाने के योग्य। २. (धन या पदार्थ) जो निधान (या धरोहर) रूप में कहीं रखा जा सके या रखा जाने के योग्य हो। ३. स्थापित किये जाने के योग्य।
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निध्यात  : भू० कृ० [सं० नि√ध्या (चिन्तन)+क्त] जिस पर मनन या विचार किया गया हो।
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निध्यान  : पुं० [सं० नि√ध्या+ल्युट्–अन] १. ध्यान करना। २. देखना। ३. दृश्य। ४. निदर्शन।
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निध्रुव  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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निध्वान  : पुं० [सं० नि√ध्वन् (शब्द)+घञ्] ध्वनि। शब्द।
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निनद  : पुं० [सं० नि√नद् (शब्द)+अप]=निनाद (शब्द)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निनदी  : वि०=निनादी।
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निनयन  : पुं० [सं० नि√नी (ले जाना)+ल्युट्–अन] १. संपादित करना। २. जल छिड़कना। ३. अभिषेक करना।
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निनरा  : वि० [स्त्री० निनरी]=न्यारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निनर्द  : पुं० [सं० नि√नर्द् (शब्द)+घञ्] वेद के मंत्रों का विशेष प्रकार का उच्चारण।
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निनाद  : पुं० [सं० नि√नद्+घञ्] शब्द, विशेषतः उच्च या घोर शब्द।
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निनादना  : स० [सं० निनाद्] उच्च या घोर शब्द करना।
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निनादित  : वि० [सं० निनाद+इतच्] १. शब्द से भरा हुआ। गुंजायमान। २. शब्द करता हुआ। शब्दित। पुं० शब्द।
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निनादी (दिन्)  : वि० [सं० निनाद+इनि] [स्त्री० निनादिनी] १. जिसमें से शब्द निकल रहा हो। २. जो शब्द उत्पन्न कर रहा हो।
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निनान  : पुं०, अव्य०=निदान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निनानवे  : वि०, पुं०=निन्यानबे।
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निनाया  : पुं० [?] खटमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनार  : वि०=निनारा (न्यारा)।
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निनारना  : स०=निकालना (अलग करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनारा  : वि० [हिं० निनारना=निकालना] [स्त्री० निनारी] १. अलग किया या निकाला हुआ। २. न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनावाँ  : पुं० [?] एक रोग जिसमें जीभ, तालू आदि में छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं तथा जिनमें फरफराहट और पीड़ा होती है। वि० [हिं० नि+नाँव (नाम)] १. जिसका कोई नाम न हो। बेनाम। २. जिसका नाम अमांगलिक या अशुभ होने के कारण न लिया जाता हो या न लिया जाय। (स्त्रियों में प्रचलित भूत-प्रेत, साँप आदि के लिए सांकेतिक शब्द।)
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निनौना  : स०=नवाना (झुकाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निनौरा  : पुं०=ननिहाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निन्यानबे  : वि० [सं० नवनवतिः] जो गिनती में नब्बे से नौ अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है–99। मुहा०–निन्यानबे के फेर में आना या पड़ना=धन या रुपया कमाने, जमा करने या बुढ़ाने की धुन में होना। धन बढ़ाने की चिंता में पड़ना। विशेष–एक कहानी है कि किसी अपव्ययी को मितव्ययी बनाने के उद्देश्य से किसी ने निन्यानवे रुपए दे दिये थे। उसने सोचा कि इसमें एक और रुपया मिलाकर इसे पूरा सौ रुपया कर लेना चाहिए। तब से उसे धन एकत्र करने का चस्का लग गया और वह धनी हो गया। इसी कहानी के आधार पर यह मुहा० बना है।
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निन्यारा  : वि०=न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निन्हियाना  : अ० [अनु० ना ना] बहुत अधिक दीनता प्रकट करना। गिड़गिड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपंग  : वि० [सं० नि-पंगु] १. पंगु। २. निकम्मा।
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निव  : पुं० [सं० नि√पा (पीना)+क] १. कलस। २. [नीप पृषो० सिद्धि] कदम (वृक्ष)।
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निपज  : स्त्री० [हिं० उपज का अनु०] वह सारा माल जो किसी कारखाने के कुछ निश्चित समय के अंदर बनकर बिक्री के लिए तैयार होता है। (आउट-पुट)
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निपजना  : अ० [सं० निष्पद्यते, प्रा० निपज्जइ] १. उत्पन्न होना। उपजना। २. पुष्ट होते हुए बढ़ना। ३. बनकर तैयार होना।
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निपजी  : स्त्री० [हिं० निपजना] १. लाभ। मुनाफा। २. दे० ‘उपज’।
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निपट  : स्त्री० [हिं० निपटना] निपटने की अवस्था, क्रिया या भाव। अव्य० [हिं० नि+पट] १. जिसमें किसी एक साधारण तत्त्व या अस्तित्व के सिवा और कुछ भी गुण या विशेषता न हो। निरा। जैसे–निपट गँवार या देहाती। २. एकदम से। सरासर। बिलकुल। जैसे–निपट झूठ बोलना। ३. बहुत। अधिक नितांत।
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निपटना  : अ० [सं० निवर्त्तन, प्रा० निबट्टना, पुं० हिं० निबटना] १. कार्य आदि के संबंध में, पूर्ण और संपन्न होना। २. (व्यक्ति का) कोई काम पूर्ण या संपन्न करने के उपरांत निवृत्त होना। (बाजारू) ४. झगड़े, विवाद आदि का निपटारा होना। ५. निपटारा करने के लिए किसी से भिड़ना या लड़ना। जैसे–तुम रहने दो, हम उनसे निपट लेंगे। ६. किसी चीज का खतम या समाप्त होना। जैसे–दीए का तेल निपटना। पद–निपटी रकम=ऐसा व्यक्ति जो विशेष समर्थ या काम का न रह गया हो। ७. ऋण, देन आदि का चुकता होना।
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निपटाना  : स० [हिं० निपटना का स०] १. कार्य आदि पूर्ण या संपादित करना। २. दो व्यक्तियों का अथवा परस्पर का झगड़ा तै या खतम करना। ३. ऋण, देन आदि चुकाना।
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निपटारा  : पुं० [हिं० निपटना] १. निपटने या निपटाने की अवस्था, क्रिया भाव। २. झगड़े, विवाद आदि का ऐसा अंत जिससे दोनों पक्ष संतुष्ट रहें। ३. अंत। समाप्ति। ४. निर्णय। फैसला।
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निपटावा  : पुं०=निपटारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपटेरा  : पुं०=निपटाना।
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निपठ  : पुं० [सं० नि√पठ् (पढ़ना)+अप्] पाठ। अध्ययन।
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निपठन  : पुं० [सं० नि√पठ्+ल्युट्–अन] १. पढ़ना। २. किसी की कविता या पद कंठस्थ करके सुंदर रूप में पढ़कर लोगों को, उनके मनोविनोद के लिए सुनाना। (रेसिटेशन)
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निपतन  : पुं० [सं० नि√पत् (गिरना)+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निपतित] नीचे की ओर गिरना। निपात। पतन।
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निपतित  : भू० कृ० [सं० नि√पत्+क्त] जिसका निपतन हुआ हो। गिरा हुआ।
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निपत्र  : वि० [सं० निष्पत्र] (पौधा या वृक्ष) जिसमें पत्ते न हों। पत्रहीन।
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निपना  : अ० [सं० निष्पन्न] पूरा या संपन्न होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=निपजना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० निपुण] १. चतुर। चालाक। होशियार। २. भोला-भाला। सीधा-सादा।
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निपत्ता  : वि० [सं० नि+हिं० पता] जिसका पता-ठिकाना न हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० निष्पत्र] पत्र-हीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपत्या  : नि√पत्+क्यप्–टाप्] १. रण-क्षेत्र। युद्ध की भूमि। २. गीली, चिकनी जमीन। ३. फिसलन।
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निपाँगुर  : वि० [हिं० नि+पंगु] १. लँगड़ा। २. अपाहिज। पंगु।
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निपाक  : पुं० [सं० नि√पच् (पकना)+घञ्] १. परिपक्व होना। २. पकना या पकाया जाना। ३. पसीना। ४. किसी बुरे काम का परिणाम।
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निपात  : पुं० [सं० नि√पत्+घञ्] [वि० नैपातिक] १. नीचे गिरने की अवस्था, क्रिया या भाव। पतन। २. अधःपतन। ३. विनाश। ४. मरण, मृत्यु। ५. नहाने का स्थान। स्नानागार। (कौ०) ६. भाषा-विज्ञान और व्याकरण में; ऐसा शब्द जो व्याकरण के नियमों के अनुसार न बने होने पर भी प्रायः शुद्ध माना जाता हो। ७. अव्यय (शब्द)। वि०=निपत्र (पत्र-हीन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपातक  : पुं० [सं०-पातक प्रा० स०] दूषित या बुरा कर्म। पाप।
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निपातन  : पुं० [सं० नि√पत्+णिच्+ल्युट्–अन] १. गिराने की क्रिया या भाव। २. ध्वंस। विनाश। ३. मार डालने या वध करने की क्रिया या भाव। हत्या।
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निपातना  : स० [सं० निपातन] १. काट या मारकर अथवा और किसी प्रकार नीचे गिराना। २. ध्वस्त या नष्ट करना।
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निपातित  : भू० कृ० [सं० नि√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. नष्ट या वध किया हुआ। ३. अनियमित रूप से बना हुआ।
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निपाती (तिन्)  : वि० [सं० निपात+इनि] १. गिराने या फेंकनेवाला। २. ध्वस्त या नष्ट करनेवाला। ३. मार गिरानेवाला। पुं० महादेव। शिव। वि०=निपत्र (बिना पत्रों का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपान  : पुं० [सं० नि√पा+ल्युट्–अन] १. जल पीना। २. ऐसा गड्ढा जिसमें पानी जमा हो या जमा होता हो। ३. कूआँ। ४. दोहनी। ५. आश्रय-स्थान।
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निपीड़क  : वि० [सं० नि√पीड् (दुःख देना)+ण्वुल्–अक] १. पीड़ा देनेवाला। दुःखदायक। २. दबाने या मलने-दलनेवाला। ३. निचोड़ने वाला। ४. पेरनेवाला।
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निपीड़न  : पुं० [सं० नि√पीड्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निपीड़ित] १. कष्ट पहुँचाने या पीड़ित करने की क्रिया या भाव। पीड़ित करना। कष्ट या तकलीफ देना। २. खूब मलना-दलना। ३. निचोड़ना। ४. पसेव निकालना। पसाना। ५. पेरना।
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निपीड़ना  : स० [सं० निपीड़न] १. खूब अच्छी तरह दबाना या मलना-दलना। २. बहुत कष्ट या तकलीफ देना। ३. निचोड़ना। ४. पेरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपीड़ित  : भू० कृ० [सं० नि√पीड्+क्त] १. जिसका निपीड़न हुआ हो। २. जिसे कष्ट पहुँचाया गया हो। पीड़ित। ३. जिस पर आक्रमण हुआ हो। आक्रांत। ४. कुचल या दबाकर, जिसका रस निकाला गया हो। पेरा हुआ। निचोड़ा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपीत  : भू० कृ० [सं० नि√पा (पीना)+क्त] १. पीया हुआ। २. सोखा हुआ। शोषित।
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निपीति  : स्त्री० [सं० नि√पा+क्तिन्] पीने की क्रिया या भाव। पान।
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निपुड़ना  : अ० [सं० निष्पुट, प्रा० निप्युड] १. खुलना। २. उघरा होना। सं० १. खोलना। २. उघरा करना।
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निपुण  : वि० [सं० नि√पुण् (अच्छा कार्य करना)+क] [भाव० निपुणता] (कला, विद्या आदि में) अनुभव, अभ्यास आदि के कारण जो कोई काम विशेष अच्छी तरह से करता हो। दक्ष। प्रवीण।
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निपुणता  : स्त्री० [सं० निपुण+तल्–टाप्] निपुण होने की अवस्था, गुण या भाव।
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निपुणाई  : स्त्री०=निपुणता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुत्र  : वि० [स्त्री० निपुत्री] दे० ‘निपूता’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुन  : वि०=निपुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुनई  : स्त्री०=निपुणाई (निपुणता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुनता  : स्त्री०=निपुणता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निपुनाई  : स्त्री०=निपुणता।
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निपूत  : वि० [स्त्री० निपूती]=निपूता।
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निपूता  : वि० [हिं नि+पूत] [स्त्री० निपूती] जिसके आगे पुत्र न हो या न हुआ हो। निःसंतान। (प्रायः गाली के रूप में प्रयुक्त)
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निपेटा  : वि० [हिं० नि+पेट] [स्त्री० निपेटी] १. जिसका पेट खाली हो अर्थात् जिसने कुछ खाया न हो। २. भुक्खड़।
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निपोड़ना  : स०=निपोरना।
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निपोरना  : स० [सं०] खोलना।
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निफन  : वि० [सं० निष्पन्न, प्रा० निष्फन्न] १. पूरा या समाप्त किया हुआ। २. पूरा। सब। सारा। क्रि० वि० पूरी तरह से। पूर्ण रूप से।
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निफरना  : अ० [हिं०=निफारना का अ०] चुभकर या धँसकर इस पार से उस पार होना। छिद कर आरपार होना। अ० [सं० नि+स्फुट] १. खुलना। २. खुल कर उधारा या स्पष्ट होना।
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निफल  : वि०=निष्फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निफला  : स्त्री० [सं० नि-फल, ब० स०, टाप्] ज्योतिषमयी लता।
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निफाक  : पुं० [अ० निफ़ाक़] १. एकता का अभाव। २. द्वेषपूर्ण या विरोधजन्य स्थिति। वैमनस्य। फूट। क्रि० प्र०–डालना।–पड़ना।–होना।
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निफारना  : स० [हिं० न+फारना] १. इस पार से उस पार तक छेद करना। आरपार करना। बेधना। २. इस पार से उस पार निकालना या ले जाना। ३. उद्घाटित या प्रकट करना। खोलना। ४. स्पष्ट या साफ करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निफालन  : पुं० [सं०] देखने की क्रिया या भाव। देखना।
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निफोट  : वि० [सं० नि+स्फट] व्यक्ति। स्पष्ट।
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निबंध  : पुं० [सं० नि√बन्ध (बाँधना)+घञ्] १. कोई चीज किसी के साथ जोड़ने, बाँधने या लगाने की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह गठा या बँधा हुआ पदार्थ। ३. वह जिससे कोई चीज किसी के साथ जोड़ी, बाँधी लगाई जाय। बंधन। ४. प्राचीन भारत में, राज्य या शासन की ओर से निकलनेवाली आज्ञा या आदेश। (कौ०) ५. किसी के साथ बाँधकर रखनेवाला अनुराग या संपर्क। ६. ग्रंथ लेख आदि लिखने की क्रिया या भाव। ७. आज-कल साहित्यिक क्षेत्र में, वह विचारपूर्ण विवरणात्मक और विस्तृत लेख जिसमें किसी विषय के सब अंगों का मौलिक और स्वतंत्र रूप से विवेचन किया गया हो। (एसे) विशेष–हमारे यहाँ के प्राचीन साहित्यिक ऐसी व्यवस्था को निबंध कहते थे, जिसमें सब प्रकार के मतों का उल्लेख और गुण-दोष आदि की आलोचना या विवेचन होता था। आज-कल पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के आधार पर उसकी व्याख्या और स्वरूप का कुछ परिमार्जन हुआ है। ८. गीत। ९. ऐसी चीज जिसे किसी दूसरे को देने का वचन दिया जा चुका हो। १॰. आनाह नामक रोग जिसमें पेशाब बंद हो जाता है। ११. नीम का पेड़।
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निबंधक  : पुं० [सं० नि√बंध्+ण्लुल्–अक] १. निबंधन करनेवाला व्यक्ति। २. वह अधिकारी जो लेख आदि की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए उन्हें राजकीय पंजी में प्रतिलिपि के रूप में निबंधित करता या लिखता है। (रजिस्ट्रार, न्याय और शासन विभाग का) ३. इसी से मिलता-जुलता वह अधिकारी जो किसी विभाग या संस्था के सब प्रकार के लेख रखता या निबंधित करता है। जैसे–विश्वविद्यालय या सहयोग-समितियों का निबंधक।
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निबंधन  : पुं० [सं० नि√बंध्+ल्युट्–अन्] [वि० निबद्ध] १. निबंध के रूप में लाने की क्रिया या भाव। २. बाँधने की क्रिया या भाव। ३. वह जिसमें कोई चीज बाँधी जाय। बंधन। ४. नियमों आदि में बाँध कर रखना। व्यवस्था। ५. कर्तव्य आदि के रूप में होनेवाला बंधन। ६. कारण। हेतु। ७. लेखों आदि के प्रामाणिक होने के लिए किसी राजकीय पंजी में लिखा या चढ़ाया जाना। (रजिस्ट्रेशन) ८. वीणा, सारंगी, सितार आदि की खूटियाँ जिनमें तार बँधे होते हैं। उपनाह। कान।
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निबंधनी  : स्त्री० [सं० निबंधन+ङीप्] १ बाँधनेव की वस्तु २. बेड़ी।
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निबंधी (धिन)  : स्त्री० [सं० निबंधन+इनि] १. बाँधनेवाला। २. किसी के साथ जुड़ा हुआ। संबद्ध। ३. कारण के रूप में रहकर कुछ करने या बनानेवाला। पुं०=निबंधक।
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निब  : स्त्री० [अं०] लोहे आदि का वह छोटा तथा चोंच के आकार का उपकरण जो कलम के अगले भाग में लगा रहता है और जिसे स्याही में डुबोकर लोग लिखते हैं।
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निबकौरी  : स्त्री०=निमकौड़ी।
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निबटना  : अ०=निपटना।
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निबटाना  : स०=निपटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबटारा  : पुं०=निपटारा।
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निबटाव  : पुं०=निपटारा।
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निबटेरा  : पुं०=निपटारा।
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निबड़ना  : अ०=निपटना।
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निबड़ा  : पुं० [?] एक तरह का घड़ा।
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निबद्ध  : भू० कृ० [सं० नि√बंध्+क्त] १. बँधा हुआ। २. रुका हुआ। निरुद्ध। ३. गुथा हुआ। गुंफित। ४. कहीं जड़ा, बैठाया या किसी में लगाया हुआ। ५. किसी पर अच्छी तरह ठहरा या लगा हुआ। जैसे–भगवान पर दृष्टि निबद्ध होना। ६. (आज-कल लेख या लेख्य) जो प्रामाणिक या यथार्थ सिद्ध करने के लिए सरकारी पंजी में विधिवत् चढ़वा या लिखवा दिया गया हो। जिसका निबंधन हो चुका हो। (रजिस्टर्ड) पुं० ऐसा गीत जो संगीत-शास्त्र के नियमों के अनुसार हर तरह से ठीक हो और जिसमें ताल, पद, रस, समय आदि के विधानों का पूरा पालन हुआ हो।
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निबर  : वि०=निर्बल।
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निबरना  : अ० [सं० निवृन्, प्रा० निबिड्ड] १. बँधी, फँसी या लगी हुई वस्तु का अलग होना। छूटना। २. एक में मिली हुई वस्तुओं का अलग होना। ३. कष्ट, बंधन आदि से मुक्त होना। उबरना। ४. समाप्त होना। ५. दूर होना। न रह जाना। ६. दे० ‘निपटना’। संयो० क्रि०–जाना।
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निर्बहण  : पुं० [सं० नि√बर्ह् (हिंसा)] १. नष्ट करने की क्रिया या भाव। २. मारना। वध।
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निबल  : वि० [सं० निर्बल] [भाव निबलाई] १. निर्बल। दुर्बल। २. दूसरों की तुलना में घटिया और कम मूल्य या योग्यता का।
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निबह  : पुं० [?] समूह। झुंड। उदा०–मनहु उड़गन निबह आए मिलत तम तजि द्वेषु।–तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १.=निर्वह। २.=निबाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबहना  : अ०=निभना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबहुर  : पुं० [हिं० नि+बहुरना=लौटना] ऐसा स्थान जहाँ से कोई लौटकर न आता हो। यम-द्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबहुरा  : वि० [हिं० नि+बहुरना] १. जो जाकर लौटा न हो। २. ऐसा, जिसका लौटकर आना अभीष्ट न हो। (गाली)
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निबारना  : स० [सं० निवारण] निवारण करना। छोड़ना।
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निबाह  : पुं० [सं० निर्वाह] १. निभने या निभाने की अवस्था, क्रिया या भाव। निर्वाह। २. ऐसी स्थिति में काम चलाना या दिन बिताना जिसमें साधारणतः निश्चिंतता से और सुख-पूर्वक काम न चलता हो या दिन न बीतते हों। कठिनता से, परंतु सहनशीलता-पूर्वक किया जानेवाला निर्वाह। ३. किसी चले आए हुए क्रम या परंपरा का अथवा अपनी प्रतित्रा, वचन आदि का जैसे-तैसे परंतु बराबर किया जानेवाला। पालन। जैसे–प्रीति या बड़ों की चलाई हुई रीति का निबाह। विशेष–यद्यपि आज-कल ‘निबहना’ और ‘निबाहना’ की जगह ‘निभना’ और ‘निभाना’ रूप ही अधिक प्रशस्त तथा शिष्ट-सम्मत माने जाते हैं फिर भी इन क्रियाओं का भाव-वाचक रूप ‘निबह’ ही अधिक प्रचलित है, ‘निभाव’ नहीं।
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निबाहक  : वि० [सं० निर्वाहक] निबाहने या निभानेवाला। निबाह करनेवाला।
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निबाहना  : स० [सं० निर्वहण] १. निर्वाह या निबाह करना। २. निस्तार करना। छुड़ाना। उदा०–आजु स्वामि साँकरे निबाहौं।–जायसी। ३. दे० ‘निभाना’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निबिड़  : वि०=निविड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबुआ  : पुं०=नीबू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबुकना  : अ०=निपटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबेड़ना  : स० [सं० निवृत्त, प्रा० निविड्ड] १. बँधी, फँसी या लगी हुई वस्तु को अलग करना। मुक्त करना। छुड़ाना। २. आपस में मिली हुई चीजें अलग-अलग करना। छाँटना। ३. अलग या दूर करना। हटाना। ४. छोड़ना। त्यागना। ५. (काम या झगड़ा) निपटाना। ६. उलझन दूर करना। सुलझाना। ७. निर्णय या फैसला करना। झगडा निपटाना।
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निबेड़ा  : पुं० [हिं० निबेड़ना] १. निबेड़ने की क्रिया या भाव। २. कष्ट, विपत्ति आदि से होनेवाला उद्धार। ३. एक में मिली हुई चीजें चुन या छाँटकर अलग-अलग करना। ४. छोड़ देना। त्याग। ५. झगड़े का निर्णय या फैसला। ६. दे० ‘निपटारा’।
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निबेरना  : स० १.=निबेड़ना। २.=निपटाना।
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निबेरा  : पुं०=निबेड़ा (निपटारा)।
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निबेहना  : स० १.=निबेड़ना (निपटारा करना)। २.=निबाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निबेही  : वि० [सं० निर्वेध] १. जिसका वेधन न किया जा सके। वेधरहित। २. छल-कपट आदि से रहित। उदा०–कोउ न मान मद तजेउ निबेही।–तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निबोधन  : पुं० [सं० नि√बुध् (जानना)+ल्युट्–अन] १. कोई काम समझने और सीखने की अवस्था या भाव। २. [नि√बुध्+णिच्+ल्युट्–अन] कोई काम सिखलाने और समझाने की क्रिया या भाव।
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निबौरी (बौली)  : स्त्री०=निमकोड़ी (नीम का फल)।
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निभ  : वि० [सं० नि√भा (दीप्ति)+क] अनुरूप, तुल्य या समान प्रतीत होनेवाला। (समस्त पदों के अंत में) पुं० १. प्रकाश। २. अभिव्यक्ति। ३. धूर्ततापूर्ण चाल।
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निभना  : अ० [हिं० निबहना का पश्चिमी रूप] १. कार्य के संबंध में, किसी तरह पूरा या संपादित होना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि के संबंध में, चरितार्थ और फलित होना। ३. व्यक्ति के संबंध में, पारस्परिक संबंध न बिगड़ते हुए बरताव, व्यवहार या सौहार्द बना रहना। जैसे–दोनों भाइयों में नहीं निभेगी। ४. स्थिति के संबंध में, उसके अनुरूप अपने को बनाते हुए रहना या समय बिताना। क्रि० प्र०–जाना। ५. व्यक्ति का अपने कार्य, व्यवहार आदि में खरा और पूरा उतरना। उदा०–निभें युधिष्ठिर से नर-रत्न, एक साथ हैं तीन प्रयत्न।–मैथिलीशरण गुप्त। ६. छुट्टी या छुटकारा पाना। विशेष–यद्यपि यह शब्द मूलतः ‘निर्वाहण’ से ही व्युत्पन्न है, अतः इसका रूप ‘निबहना’ ही अधिक संगत है, फिर भी पश्चिमी हिन्दी में इसका ‘निभाना’ रूप ही प्रचलित है और वही प्रशस्त तथा शिष्ट-सम्मत है।
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निभरम  : वि० [सं० निर्भ्रम] जिसे या जिसमें किसी प्रकार का भ्रम या शंका न हो। क्रि० वि० बिना किसी खटके, डर या शंका के। बेधड़क।
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निभरमा  : वि० [सं० निर्भ्रम] १. जिसका रहस्य खुल या प्रकट हो गया हो। २. जिसका विश्वास उठ गया हो।
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निभरोस (सी)  : वि० [हिं० नि+भरोसा] [भाव० निभरोसा] १. जिसे किसी का भरोसा न हो। असहाय। निराश्रय। २. जिस पर भरोसा या विश्वास न किया जा सके।
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निभाउ  : वि० [हिं० नि+भाव] १. जिसमें कोई भाव न हो। भावरहित। २. अच्छे कामों या गुणों से रहित। उदा०–असरन सरन नाम तुम्हारौं हौं कामी कुटिल निभाउ।–सूर। पुं०=निबाह।
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निभागा  : वि०=अभागा।
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निभाना  : स० [हिं० निभाना का स० रूप] १. उत्तरदायित्व, कार्य आदि का निर्वाह करना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि चरितार्थ या पालित करना। ३. थोड़ा-बहुत कष्ट सहते या त्याग करते हुए भी इस प्रकार आचरण, बरताव या व्यवहार करते चलना जिससे परस्पर संबंध बना रहे और कटुता न उत्पन्न होने पावे। ४. किसी दशा या स्थिति के अनुरूप अपने आपको ढाल या बनाकर समय बिताना।
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निभालन  : पुं० [सं० नि√भल (देखना)+णिच्+ल्युट्–अन] १. देखना। दर्शन। २. ज्ञान प्राप्त करना। परिचित होना। मालूम करना।
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निभाव  : पुं० [हिं० निभना] निभने या निभाने की क्रिया या भाव। निर्वाह। निबाह। (देखें)
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निभूत  : वि० [सं० नि-भूत प्रा० स०] बीता हुआ। गत।
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निभूत  : वि० [सं० नि√भृ (धारण)+क्त] १. धरा या रखा हुआ। २. छिपा हुआ। गुप्त। ३. अटल। निश्चित। ४. निश्चित। स्थिर। ५. बंद किया हुआ। ६. विनीत। नत। ७. धीर। शांत। ८. एकांत। निर्जन। सूना। ९. भरा हुआ। पूर्ण। १॰. अस्त होने के समय या स्थिति के पास पहुँचा हुआ। ११. विश्वसनीय और सच्चा।
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निभृतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० निभृत-आत्मन्, ब० स०] १. धीर। २. दृढ़।
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निभ्रांत  : वि०=निर्भ्रान्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमंत्रण  : पुं० [सं०√मंत्र (बुलाना)+ल्युट्–अन्] [वि० निमंत्रित] १. किसी को किसी काम के लिए आदरपूर्वक बुलाने की क्रिया या भाव। आग्रहपूर्वक यह कहना कि आप अमुक कार्य के लिए अमुक समय पर हमारे यहाँ पधारें। २. ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए अपने यहाँ बुलाने की क्रिया या भाव। ३. विवाह आदि शुभ अवसरों पर लोगों को आदरपूर्वक अपने यहाँ बुलाने की क्रिया या भाव। न्योता। क्रि० प्र०–देना।–भेजना।–मानना।
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निमंत्रण-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें यह लिखा रहता है कि आप अमुक समय पर हमारे यहाँ आने की कृपा करें।
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निमंत्रना  : स० [सं० निमंत्रण] निमंत्रण देना। समादर बुलाना।
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निमंत्रित  : भू० कृ० [सं० नि√मंत्र+क्त] जिसे किसी काम या बात के लिए निमंत्रण दिया गया हो या मिला हो। बुलाया हुआ। आहूत।
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निम  : पुं० [सं०] शलाका। शंकु। स्त्री०=नीम (पेड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमक  : पुं०=नमक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमकी  : स्त्री० [फा० नमक] १. नीबू का अचार। २. छोटी टिकिया के आकार का एक प्रकार का नमकीन मोयनदार पकवान। वि=नमकीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमकौड़ी  : स्त्री० [हिं० नीम+कौड़ी] नीम का फल जिसमें उसका बीज रहता है और जो देखने में प्रायः कौड़ी की तरह का होता है.
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निमग्न  : वि० [सं० नि√मग्न् (डूबना)+क्त] [स्त्री० निमग्ना] १. डूबा हुआ। मग्न। २. कार्य, विचार आदि में पूर्ण रूप से तन्मय। लीन।
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निमछड़ा  : पुं० [हिं० छाँड़ना] १. ऐसा समय जिसमें कोई काम न हो। २. छुट्टी।
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निमज्जक  : वि० [सं० नि√मज्ज+ण्वुल्–अक] गोता या डुबकी लगाकर स्नान करनेवाला।
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निमज्जन  : पुं० [सं० नि√मज्ज्+ल्युट्–अक] १. गोता लगाकर किया जाने वाला स्नान। २. किसी वस्तु को किसी तरल पदार्थ में डुबोने की क्रिया या भाव। (इम्मर्शन) ३. किसी बात या विषय में अच्छी तरह मग्न या लीन होना।
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निमज्जना  : अ० [सं० निमज्जन] गोता लगाकर स्नान करना।
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निमज्जित  : भू० कृ० [सं० नि√मज्ज्+क्त] १. जो नहा चुका हो; विशेषतः गोता लगाकर नाहाया हुआ। २. डूबा हुआ। ३. डुबाया हुआ।
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निमटना  : अ०=निपटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमटाना  : स०=निबटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमटेरा  : पुं०=निपटारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमत  : वि० [हिं० नि+सं० मत्त] १. जो मत्त न हो। २. जिसका होश ठिकाने हो।
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निमता  : वि० [हिं० नि+सं० मत्त] १. जो मत्त न हो। २. जो उन्मत्त न हो। फलतः धीर और शांत।
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निमद  : पुं० [सं० नि√मद् (हर्ष)+अप्] स्पष्ट किन्तु मंद उच्चारण।
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नियम  : पुं० [सं० नि√मि (फेंकना)+अच्] १. अदला-बदली। २. विनिमय।
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निमरी  : स्त्री० [देश०] मध्यभारत में होनेवाली एक तरह की कपास।
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निमाज  : स्त्री०=नमाज। (देखें)। पुं०=नवाज।
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निमाज़ी  : वि०=नमाजी। (देखें)
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निमान  : वि० [सं० निम्न=गड्ढा] १. नीचा। २. ढालुआँ। पुं० १. नीचा या ढालुआँ स्थान। २. जलाशय। वि० [सं०] निमग्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमाना  : वि० [सं० निम्न] [स्त्री० निमानी] १. जो नीचे की ओर हो। नीचा। २. जिसकी नति या प्रवृत्ति नीचे की ओर हो। ३. ढालुआँ। ४. नम और विनीत स्वभाववाला। ५. सबसे डर और दबकर रहनेवाला। दब्बू। स०=नवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० निर्माण] निर्माण करना। बनाना। रचना। उदा०–माझ खीनिम निमाइ।–विद्यापति।
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निमानिया  : वि० [हिं० न मानना] [भाव० निमानी] १. न माननेवाला। २. जो नियम, मर्यादा, विनय आदि का पालन न करता हो। मनमानी करनेवाला। निरंकुश।
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निमानी  : वि० [हिं० नि+मानना] निमानिया। (दे०)। स्त्री० मनमाना आचरण या व्यवहार। स्वेच्छाचार।
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निमाल  : वि०, पुं०=निर्माल्य।
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निमि  : पुं० [सं०] १. आँखों की पलकें झपकाने की क्रिया या भाव। निमेष। २. महाभारत के अनुसार एक ऋषि जो दत्तात्रेय के पुत्र थे। ३. राजा इक्ष्वाकु के एक पुत्र जिनसे मिथिला का विदेह-वंश चला था।
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निमिख  : पुं०=निमिष।
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निमित्त  : पुं० [सं० नि√मिद् (स्नेह)+क्त] [वि० नैमित्तिक] १. वह कार्य या बात जिससे किसी दूसरे कार्य या बात का साधन हो। २. व्यक्ति, जो नाम-मात्र के लिए कोई काम कर रहा हो, जब कि वह कार्य करवाने या प्रेरणाशक्ति देनेवाला और कोई होता है। ३. हेतु। ४. चिह्न। लक्षण। ५. शकुन। ६. उद्देश्य। लक्ष्य। ७. बहाना। मिस। अव्य० किसी काम या बात के उद्देश्य या विचार से। लिए। वास्ते। जैसे–पितरों के निमित्त दान देना।
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निमित्तक  : वि० [सं० निमित्त+कन्] जो निमित्त मात्र हो। पुं०=चुंबन।
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निमित्त-कारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] न्याय में, वह चीज, बात या व्यक्ति जो किसी के घटित होने, बनने आदि का आधार या मूल कारण हो।
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निमि-राज  : पुं० [सं० ष० त०] निमिवंशीय राजा जनक।
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निमिष  : पुं० [सं० नि√मिष् (आँख खोलना)+क] १. पलकों का गिरना या बंद होना। आँखें मिचना। निमेष। २. काल या समय का उतना मान जितना एक बार पलक गिरने या झपकने में लगता है। ३. सुश्रुत के अनुसार पलकों में होनेवाला एक प्रकार का रोग। ४. खिले हुए फूलों का मुँह बन्द होना। ५. विष्णु।
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निमिष-क्षेत्र  : पुं० [सं० मध्य० स० या ष० त०] नैमिषारण्य।
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निमिषांतर  : पुं० [सं० निमिष-अंतर, ष० त०] पलक गिरने या मारने का समय।
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निमिषित  : भू० कृ० [सं० नि√मिष्+क्त] निमीलित। भिचा या मुँदा हुआ।
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निमीलन  : पुं० [सं० नि√मील् (बन्द करना)+ल्युट्–अन] १. पलक गिराना या झपकाना। २. उतना समय जितना एक बार पलक गिरने में लगता है। निमिष। ३. मनुष्य की आँखें सदा के लिए बंद होना। अर्थात् मरना। मौत।
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निमीला  : स्त्री० [सं० नि√मील्+अ–टाप्] निमीलिका। (दे०)
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निमीलिका  : स्त्री० [सं० निमीला+कन्, टाप्, ह्रस्व, इत्व] १. आँख झपकने या बंद करने की क्रिया या भाव। २. [नि√मील्+णिच्+वुल् अक, टाप्, इत्व।] छल। व्याज।
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निमीलित  : भू० कृ० [सं० नि√मील्+क्त] १. झपका, झपकाया या बंद किया हुआ। २. छिपा या छिपाया हुआ। ३. मरा हुआ। मृत।
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निमुँहा  : वि० [हिं० नि+मुँह] [स्त्री० निमुँही] १. जिसका या जिसे मुँह न हो। बिना मुँह का। २. जो कुछ कहने या बोलने के समय भी चुप रहता हो। ३. लज्जा आदि के कारण जिसे कुछ कहने का साहस न होता हो। ४. जो बिना कुछ कहे-सुने अत्याचार, कष्ट आदि सह लेता हो। उदा०–निमुँही जानके वो मुझको मार लेते हैं।–जान साहब।
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निमूँद  : वि० [हिं० नि+मुँदना] १. जो मुँदा या बंद किया हुआ न हो। २. मुदित। बंद। उदा०–कौड़ा आँसू मूँदि कसि, साँकर बरुनी सजल। कीने बदन निमूँद, दृग-मलिंग डारे रहत।–बिहारी।
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निमूल  : वि०=निर्मूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमूहा  : वि० [स्त्री० निमुँही]=निमुँहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निमेख  : पुं०=निमेष।
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निमेखना  : स० [सं० निमेष] पलकें गिराना, झपकाना या मूँदना।
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निमेट  : वि० [हिं० नि+मिटना] जिसे मिटाया न जा सके। न मिटनेवाला। अमिट। उदा०–काह कहौं हौं ओहि सों जेई दुख कीन्ह निमेट।–जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निमेष  : पुं० [सं० नि√मिष+घञ्] १. आँख की पलक का गिरना या झपकना। २. उतना समय जितना एक बार पलक गिराने या झपकाने में लगता है। ३. आँख की पलकें फड़कने का रोग। ४. एक बार का चना।
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निमेषक  : पुं० [सं० निमेष+कन्] १. पलक। २. जुगनूँ।
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निमेषकृत  : स्त्री० [सं० निमेष√कृ (करना)+क्विप्, तुक्] बिजली। विद्युत्।
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निमेषण  : पुं० [सं० नि√मिष्+ल्युट्–अन] पलकें गिरना या गिराना।
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निमोना  : पुं० [सं० नवान्न] हरे चने या मटर को पीसकर बनाया जानेवाला एक प्रकार का सालन या रसेदार तरकारी।
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निमोनिया  : पुं० [अ०] अत्यधिक सरदी लगने के कारण होनेवाला एक प्रसिद्ध रोग, जिसमें फेफड़े में सूजन आ जाती है।
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निमौनी  : स्त्री० [सं० नवान्न] ऊख की फसल की कटाई आरंभ करने का दिन।
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निम्न  : वि० [सं० नि√म्ना (अभ्यास)+क] १. जो प्रसम, धरातल या स्तर से नीचा हो। २. जो अपेक्षाकृत कम ऊँचे स्तर पर हो। ३. जिसमें तीव्रता, वेग आदि साधारण से कम हो। जैसे–निम्न रक्त-चाप। पुं० चित्र-कला में दिखाया जानेवाला ऐसा स्थान, जो आसपास के स्थानों से नीचा या गहरा हो।
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निम्नग  : वि० [सं० निम्न√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० निम्नगा] जो नीचे की ओर जाता हो। जिसका प्रवृत्ति नीचे की ओर हो।
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निम्नगा  : स्त्री० [सं० निम्नगा+टाप्] १. नदी। २. रहस्य संप्रदाय में, नाड़ी।
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निम्नयोधी (धिन्)  : वि० [सं० निम्न√युद्ध (लड़ना)+णिनि] किले के नीचे से या नीची जमीन पर ले लड़नेवाला। वि० दे० ‘स्थल योधी’।
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निम्नांकित  : वि० [सं० निम्न-अंकित, स० त०] १. जिसका अंकन नीचे हुआ हो। २. निम्नलिखित।
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निम्नारण्य  : पुं० [सं० निम्न-अरण्य, कर्म० स०] पहाड़ की घाटी। (कौ०)
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निम्नोन्नत  : वि० [सं० निम्न-उन्नत, द्व० स०] (स्थल आदि) जो कहीं से नीचा और कहीं से ऊँचा हो। ऊबड़-खाबड़। पुं० चित्र-कला में आवश्यकतानुसार दिखाई जानेवाली ऊँचाई और निचाई। नतोन्नत। उच्चित्र (रिलीफ)
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निम्मन  : वि० [देश०] बढ़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निम्लुक्ति  : स्त्री० [सं० नि√म्लुच् (गति)+क्तिन्] सूर्यास्त।
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निम्लोच  : पुं० [सं० नि√म्लुच्+घञ्] सूर्य का अस्त होना।
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निम्लोचनी  : स्त्री० [सं०] मानसरोवर के पश्चिम में स्थित वरुण की नगरी।
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निम्लोचा  : स्त्री० [सं०] एक अप्सरा का नाम।
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नियंतव्य  : वि० [सं० नि√यम् (नियंत्रण)+व्यत्] जिसे नियंत्रित या नियमित किया जा सके अथवा करना हो।
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नियंता (तृ)  : वि० [सं० नि√यम्+तृच्] [स्त्री० नियंत्री] १. नियंत्रण करने या रखनेवाला। दूसरों को दबाकर और वश में रखनेवाला। २. किसी कार्य या उचित रूप से प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। प्रबंधक और शासक। पुं० १. विष्णु। २. वह जो घोड़े फेरने या निकालने अर्थात् उन्हें चलना आदि सिखाने का काम करता हो। चाबुक-सवार।
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नियंत्रक  : पुं० [सं० नि√यंत्र (निग्रह)+ण्वुल्–अक]=नियंता।
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नियंत्रण  : पुं० [सं० नि√यंत्र्+ल्युट्–अन] १. किसी प्रकार के नियम या बंधन में बाँधना। २. किसी को मनमाने क्रिया-कलाप आदि करने से रोकने के लिए उस पर कड़े बंधन लगाना। ३. व्यापारिक क्षेत्र में, शासन की किसी वस्तु का मूल्य स्वयं निश्चित करना और वह वस्तु समान मान या मात्रा में सब को अथवा किसी की आवश्यकता के अनुसार उसे देने का प्रबंध करना। (कंट्रोल, उक्त सभी अर्थों में)
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नियंत्रित  : भू० कृ० [सं० नि√यंत्र्+क्त] १. जिस पर नियंत्रण किया गया हो या हुआ हो। २. जिसे नियम आदि से बाँधकर ठीक रास्ते पर चलायी या लाया गया हो। ३. अधिकार या वश में किया या लाया हुआ। वश और शासन में रखा हुआ।
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निय  : वि० [सं० निज] अपना। निजी। उदा०–तिय निय हिय जु लगी चलत…।–बिहारी।
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नियत  : वि० [सं० नि√यम्+क्त] १. जो बाँध या रोककर रखा गया हो। बँधा हुआ। पाबंद। २. जो नियंत्रण या वश में किया या रखा गया हो। ३. ठीक किया या ठहराया हुआ। निश्चित। जैसे–किसी काम के लिए समय नियत करना। ४. आज्ञा, विधान आदि के द्वारा स्थित किया हुआ। (प्रेस्क्राइव्ड) ५. (व्यक्ति) जिसे किसी कार्य या पद पर नियुक्त या मुकर्रर किया गया हो। काम पर लगाया हुआ। (पोस्टेड) जैसे–किसी काम की देख-रेख के लिए अधिकारी नियत करना। पुं० महादेव। शिव।
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नियत-श्रावा  : पुं० [तृ० त०] नाटक में किसी पात्रा का ऐसा कथन, जो सब लोगों को सुनाने के लिए न हो, बल्कि कुछ विशिष्ट पात्रों को सुनाने के लिए ही हो।
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नियतांश  : पुं० [नियत-अंश, कर्म० स०] किसी बड़ी राशि में से कुछ लोगों के लिए अलग-अलग नियत या निश्चित किया हुआ अंश। (कोटा) जैसे–सब लोगों के लिए कपड़े या खाद्य पदार्थों का नियतांश स्थिर करना।
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नियतात्मा (त्मन्)  : वि० [नियत-आत्मन्, ब० स०] अपने आपको वश में रखनेवाला। जितेंद्रिय। संयमी।
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नियताप्ति  : स्त्री० [नियता-आप्ति, कर्म० स०] नाटक में वह स्थिति जिसमें अन्य उपायों को छोड़कर एक ही उपाय से कार्य सिद्ध होने पर विश्वास प्रकट किया या रखा जाता है। जैसे–अब तो ईश्वर ही हमारा उद्धार कर सकता है।
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नियति  : स्त्री० [सं० नि√यम्+क्तिन्] १. नियत होने की अवस्था या भाव २. बद्ध होने की अवस्था या भाव। ३. कोई ऐसा बँधा हुआ नियम जिसमें कुछ या कोई भी परिवर्तन न होता या न हो सकता हो। ४. ईश्वर या प्रकृति का विधान जो पहले से नियत होता है और जिसके अनुसार सब कार्य अपने समय पर बिना किसी व्यतिक्रम के और अवश्यम्भावी रूप से आप से आप होते चलते हैं। दैव। (डेस्टिनी) ५. प्रारब्ध या भाग्य जो उक्त का अथवा पूर्वकाल में अपने किये हुए कर्मों का परिणाम या फल माना जाता है और जिस पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता। अदृष्ट। ६. निश्चित या स्थिर होने की अवस्था या भाव। मुदर्ररी। ७. दुर्गा या भगवती का एक नाम।
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नियतिवाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धांत जिससे यह माना जाता है कि (क) संसार में जो कुछ होता है, वह सब परंपरागत कारणों से अवश्यंभावी परिणाम या फल के रूप में होता है, और (ख) लौकिक कार्यों में मनुष्य का पुरुषार्थ गौण तथा ईश्वर की इच्छा या प्रकृति की प्रेरणा और विधान ही सबसे अधिक प्रबल होता है। (डिटरमिनिज्म) विशेष–प्राचीन काल में इसकी गणना नास्तिक मतों में की जाती थी।
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नियतिवादी (दिन्)  : वि० [सं० नियति√वद् (बोलना)+णिनि] नियतिवाद-संबंधी। पुं० वह जो नियतिवाद का सिद्धांत मानता हो अथवा उसका अनुयायी हो। (डिटकमिनिस्ट)
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नियतेंद्रिय  : वि० [सं० नियत-इंद्रिय, ब० स०] जितेंद्रिय।
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नियम  : पुं० [सं० नि√यम्+अप्] १. ठीक तरह से चलाने के लिए बाँध या रोक कर रखना। २. प्रतिबंध। रुकावट। रोक। ३. आचार-व्यवहार, रीति-नीति आदि के संबंध में प्रणाली या प्रथा के रूप में निश्चित की हुई वे बातें, जिनका पालन आवश्यक कर्तव्य के रूप में होता है। कायदा। (रूल) जैसे–संस्था या समाज का नियम; राज्यशासन के नियम। ४. ऐसा निश्चित सिद्धान्त जो परम्परा से चला आ रहा हो जिसका पालन किसी काम या बात में सदा एक-सा होता रहता हो। दस्तूर। परंपरा। जैसे–जैसे प्रकृति का नियम। ५. अनुशासन। नियंत्रण। ६. कोई काम या बात नियमित रूप से अथवा किसी विशेष ढंग से करने या करते रहने का क्रम। जैसे–उनका नियम है कि वे रोज सबेरे उठकर टहलने जाते हैं। ७. योग के आठ अंगों में से एक जिसके अन्तर्गत तपस्या, दान, शुचिता, संतोष, स्वाध्याय आदि बातें आती हैं। (योग के यम नामक अंग की तुलना में नियम नामक अंग का पालन उतनी कठोरता या दृढ़ता से करना आवश्यक नहीं होता।) ८. मीमांसा में वह विधि जिससे अप्राप्त अंश की पूर्ति होती है। ९. साहित्य में, एक प्रकार का अर्थालंकार, जिसमें किसी काम या बात के एक ही व्यक्ति में या स्थान पर स्थित होने का उल्लेख होता है। जैसे–अब तो इस विषय के आप ही एक-मात्र ज्ञाता (या पंडित) हैं। १॰. किसी प्रकार की लगाई हुई शर्त। ११. विष्णु। १२. शिव।
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नियम-तंत्र  : वि० [ष० त०] जो किसी नियम के द्वारा चलता या चलाया जाता हो।
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नियमतः (तस्)  : अव्य [सं० नियम+तस्] नियम के अनुसार।
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नियमन  : पुं० [सं० नि√यम्+ल्युट्–अन] [वि० नियमित, नियम्य] १. कोई काम ठीक तरह से चलाने अथवा लोगों को ठीक तरह से रखने के लिए नियम आदि बनाने और उनकी व्यवस्था करने की क्रिया या भाव। ठीक तरह से काम चलाने के लिए कायदे-कानून बनाना। (रेगुलेटिंग) २. नियम, बंधन आदि के द्वारा रोकना। निरोध। (रेजिस्ट्रेक्शन)। ३. नियंत्रण। ४. शासन। ५. दमन। निग्रह।
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नियम-पत्र  : पुं० [ष० त०] प्रतिज्ञा-पत्र। शर्त-नामा।
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नियम-पर  : वि० [स० त०] नियम के अनुसार चलने, चलाया जाने या होनेवाला।
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नियम-बद्ध  : वि० [तृ. त०] १. नियम या नियमों से बँधा हुआ। २. दे० ‘नियमित’।
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नियम-स्थिति  : स्त्री० [ब० स०] तपस्या।
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नियमापत्ति  : स्त्री० [नियम-आपत्ति, स० त०] आधुनिक राजनीति में किसी सभा-समिति में बने हुए नियमों या विधानों अथवा परंपराओं या रूढ़ियों के विरुद्ध कोई आचरण, कार्य या व्यवहार होने पर उसके संबंध में की जानेवाली आपत्ति जिसके संबंध में अंतिम निर्णय करने का अधिकार सभापति को होता है। (प्वाइंट ऑफ आर्डर)
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नियमावली  : स्त्री० [नियम-आवली, ष० त०] १. किसी संस्था आदि से संबंध रखनेवाले नियमों की विवरण पुस्तिका। २. किसी कार्य-क्षेत्र या विभाग के कार्य-संचालन अथवा कार्यकर्ताओं का पथ-प्रदर्शन करनेवाले नियमों आदि की पुस्तिका। (मैनुअल)
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नियमित  : भू० कृ० [सं० नियम+णिच्+क्त] १. नियमों के अनुसार बँधा या स्थिर किया हुआ। नियम-बद्ध। २. जो नियम, विधान आदि के अनुकूल हो। ३. जो बराबर या सदा किसी नियम के रूप में होता आ रहा हो। (रेगुलर) जैसे–नियमित रूप से अपने समय पर कार्यलय में उपस्थित होना।
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नियमी (मिन्)  : वि० [सं० नियम+इनि] १. नियम के अनुसार होनेवाला। २. नियम-संबंधी। ३. (व्यक्ति) जो नियम या नियमों का पालन करता हो।
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नियम्य  : वि० [सं० नि√यम्+यत्] १. जिसके संबंध में नियम बनाया जा सकता हो। जो नियम बनाकर बाँधा जा सकता हो या बाँधा जाने को हो। नियमों के क्षेत्र में आने या लाये जाने के योग्य। २. जो नियंत्रण या शासन में रखा जा सकता हो या रखा जाने को हो।
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नियर  : अव्य० [सं० निकट, प्रा० निअडु] समीप। पास। नजदीक।
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नियराई  : स्त्री० [हिं० नियर=निकट+आई (प्रत्य०)] निकटता। सामीप्य।
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नियराना  : अ० [हिं० नियर+आना] पास या समीप आना या पहुँचना। स० पास या समीप पहुँचाना।
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नियरे  : अव्य०=नियर (नजदीक)।
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नियाज  : स्त्री० [फा० नियाज] १. प्रार्थना। २. इच्छा। ३. जान-पहचान। परिचय। ४. आज्ञा। ५. मृक के उद्देश्य से दरिद्रों को दिया जानेवाला भोजन। (मुसल०)
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नियाजमंद  : वि० [फा०] [भाव० नियाज़मंदी] १. प्रार्थना करनेवाला। २. इच्छुक। ३. परिचित। ४. आज्ञाकारी।
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नियान  : अव्य०, पुं०=निदान।
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नियाम  : पुं० [सं० नि√यम्+घञ्] नियम। पुं० [फा०] तलवार का कोश। मियान।
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नियामक  : वि० [सं० नि√यम्+णिच्+ण्वुल्–अक] [स्त्री० नियामिका] १. नियम या विधान बनानेवाला। २. नियमों के क्षेत्र या बंधन में रखने या लानेवाला। ३. प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। पुं० मल्लाह। माँझी।
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नियामक-गण  : पुं० [ष० त०] पारे को मारनेवाली औषधियों का समूह। (रसायन)
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नियामत  : स्त्री० [अ०] १. ईश्वर का दिया हुआ धन या वैभव। २. धन। संपत्ति। ३. अलभ्य या दुर्लभ पदार्थ। ऐसी बहुत बढ़िया चीज जो जल्दी न मिलती हो।
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नियार  : पुं० [हिं० न्यारा ?] जौहरियों, सुनारों आदि की दुकान का वह कूड़ा-करकट जो न्यारिये लोग ले जाकर साफ करते हैं और जिसमें से कभी-कभी बहुमूल्य धातुओं, रत्नों आदि के कण निकालते हैं।
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नियारना  : स० [हिं० नियार] जौहरियों, सुनारों आदि का कूड़ा-करकट साफ करके उसमें से बहुमूल्य धातुओं, रत्नों आदि के कण अलग करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नियारा  : वि०=न्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=नियार।
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नियारिया  : पुं०=न्यारिया।
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नियारे  : अव्य०=न्यारे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नियाव  : पुं०=न्याय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नियुक्त  : भू० कृ० [सं० नि√युज् (जोड़ना)+क्त] १. जिसका नियोग या नियोजन किया गया हो अथवा हुआ हो। २. जो किसी काम या पद पर नियत किया या लगाया गया हो। तैनात या मुकर्रर किया हुआ। ३. जो किसी काम के लिए उद्यत, तत्पर या प्रेरित किया गया हो। ४. ठहराया या निश्चित किया हुआ। स्थिर। जैसे–समय नियुक्त करना।
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नियुक्ति  : स्त्री० [सं० नि√युज्+क्तिन्] १. नियुक्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. किसी व्यक्ति को किसी काम या पद पर लगाने की क्रिया या भाव। तैनाती। मुकर्ररी। (एप्वाइंटमेंट)
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नियुत  : वि० [सं० नि√यु (मिलाना)+क्त] दस लाख। पुं० १. दस लाख की संख्या। २. पुराणानुसार वायु को घोड़े का नाम।
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नियुत्वत्  : पुं० [सं० नियुत+मतुप्, मस्य वः] वायु। हवा।
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नियुद्ध  : पुं० [सं० नि√युद्ध (लड़ना)+क्त] १. हाथा-बाँही। २. कुश्ती।
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नियोक्तव्य  : वि० [सं० नि√युज्+तव्यत्] जिसका नियोजन किया जाने को हो या किया जा सकता हो।
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नियोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० नि√युज+तृच्] १. नियुक्त या नियोजित करनेवाला। २. लोगों को अपने यहाँ काम पर नियुक्त करनेवाला। (एम्पलायर)
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नियोग  : पुं० [सं० नि√युज्+घञ्] १. नियुक्त या नियोजित करने की अवस्था, क्रिया या भाव। नियत या मुकर्रर करना। २. किसी पदार्थ का उपयोग या व्यवहार। काम में लाना। ३. आज्ञा। आदेश। ४. निश्चय। ५. प्रेरणा। ६. अवधारण। ७. आयास। प्रयत्न। ८. प्राचीन भारतीय राजनीति में, कोई आपत्ति टालने या दूर करने का कोई विशिष्ट उपाय। ९. प्राचीन भारतीय आर्यों में प्रचलित एक प्रथा जिसके अनुसार किसी निःसंतान विधवा से संतान उत्पन्न कराने के लिए उसके देवर या पति के किसी उपयुक्त संगोत्री को उस विधवा के साथ संभोग करने के लिए नियत या नियुक्त किया जाता था। (धर्मशास्त्रों ने बाद में यह प्रथा वर्जित कर दी थी)
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नियोगस्थ  : वि० [सं० नियोग√स्था (ठहरना)+क] जिसका नियोग हुआ हो।
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नियोगी (गिन्)  : वि० [सं० नियोग+इनि़] १. नियुक्त। २. (किसी स्त्री० के साथ) नियोग करनेवाला।
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नियोग्य  : वि० [सं० नि√युज्+ण्यत्] (पुरुष या स्त्री) जिसका या जिससे नियोग हो सकता हो। पुं० प्रभु। मालिक। स्वामी।
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नियोजक  : पुं० [सं० नि√युज्+णिच्+ण्वुल–अक] वह जो दूसरों को किसी काम पर लगाता हो।
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नियोजन  : पुं० [सं० नि√युज्+णिच्+ल्युट्–अन] [वि० नियोजित, नियोज्य, नियुक्त] १. दूसरों को किसी काम में लगाने या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘आयोग’।
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नियोजना  : स० [सं० नियोजन] किसी को काम पर नियुक्त करना या लगाना। नियोजन करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नियोजनालय  : पुं० [सं० नियोजन-आलय, ष० त०] वह कार्यालय जो बेकारों को नौकरी आदि पर लगाने की व्यवस्था करता है। (एम्प्लायमेंट एक्सचेंज)
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नियोजित  : भू० कृ० [सं० नि√युज्+णिच्+क्त] जिसका कहीं नियोजन हुआ हो। काम पर लगाया हुआ।
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नियोज्य  : वि० [सं० नि√युज्+णिच्+यत्] जिसका नियोजन होने को हो या किया जाने को हो।
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नियोद्धा (द्धृ)  : पुं० [सं० नि√युध+तृच्] कुश्ती लड़नेवाला, पहलवान।
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निर्  : अव्य० [सं०√नृ (ले जाना)+क्विप्, इत्व] एक अव्य जो स्वरों या कोमल व्यंजनों से आरम्भ होनेवाले शब्दों से पहले (निस् के स्थान पर) लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है–अलग, दूर, बाहर, रहित, हीन आदि। जैसे–निरंकुश, निरंतर, निरक्ष, निरर्थक, निराहार, निरुत्तर, निरुपाय आदि।
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निरंक  : वि० [सं० निर्–अंक, ब० स०] (कागज) जिस पर कोई अंक (अक्षर या चिह्न) न हो। कोरा। (ब्लैक)
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निरंकार  : वि०, पुं०=निराकर।
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निरंकुश  : वि० [सं० निर्–अंकुश, ब० स०] [भाव० निरंकुशता] १. जिस पर किसी प्रकार का अंकुश या नियंत्रण न हो। २. (व्यक्ति) जो स्वेच्छापूर्वक मनमाना आचरण या व्यवहार करता हो। ३. (शासक) जो मनमाना और अत्याचारपूर्ण शासन करता हो। (ड़ेस्पॉट)
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निरंकुशता  : स्त्री० [सं० निरंकुश+तल्–टाप्] १. निरंकुश होने की अवस्था या भाव। २. मनमाना और अत्याचारपूर्ण आचरण या व्यवहार।
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निरंकुश-शासन  : पुं० [सं० ष० त०] वह राज्य जिसका सारा अधिकार किसी एक व्यक्ति (राजा) के हाथ में हो और जिस पर प्रजा के प्रतिनिधियों का कोई नियंत्रण न हो। (एब्सोल्यूट मॉनर्की)
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निरंग  : वि० [सं० निर्–अंग, ब० स०] जिसका या जिसमें कोई अंग न हो। अंग-हीन। पुं० रूपक अलंकार का एक भेद। (साहित्य) वि० [हिं० नि+रंग] १. जिसका कोई एक रंग न हो। २. बेमेल। ३. खालिख। विशुद्ध। अव्य० निपट। निरा।
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निरंजन  : वि० [सं० निर्–अंजन ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसने अंजन न लगाया हो। २. (नेत्र) जिसमें अंजन न लगा हो। ३. सब प्रकार के दुर्गुणों और दोषों से रहित। ३. माया, मोह आदि से निर्लिप्त या रहित। पुं० १. निर्गुण ब्रह्म। परमात्मा। २. महादेव। शिव। ३. वह परम शक्ति जो सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती हैं। (कबीर पंथी)
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निरंजना  : स्त्री० [सं० निरंजन+टाप्] १. पूर्णिमा। २. दुर्गा।
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निरंजनी  : वि० [सं० निरंजन] १. निरंजन संबंधी। २. निरंजनी संप्रदायवालों का अनुयायी साधु।
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निरंतर  : वि० [सं० निर्–अंतर, ब० स०] १. अंतर रहित। जिसमें या जिसके बीच अंतर या दूरी न हो। २. जिसका क्रम बराबर चला गया हो। जिसकी परंपरा बीच में कहीं टूटी न हो। घना। निविड़। ४. सदा एक-सा बना रहनेवाला। स्थायी। जैसे–निरंतर नियम। ५. जिसमें कोई अंतर या भेद न हो। तुल्य। समान। ६. जो अंतर्धान या आँखों से ओझल न हो। क्रि० वि० १. बराबर। लगातार। २. सदा। हमेशा।
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निरंतराभ्यास  : पुं० [सं० निरंतर-अभ्यास, कर्म० स०] १. किसी काम या बात का निरंतर (नित्य या बराबर) किया जानेवाला अभ्यास। २. स्वाध्याय। (देखें)
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निरंतराल  : वि० [सं० निर्-अंतराल, ब० स०] जिसमें अंतराल (अवकाश) न हो।
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निरंध  : वि० [सं० निर्–अंध, प्रा० स०] १. बहुत अधिक या पूरा अन्धा। निरा अंधा। २. ज्ञान, बुद्धि आदि से बिलकुल रहित। ३. बहुत अधिक या घोर अंधकार से युक्त। उदा०–जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंधा।–कबीर। वि० [सं० निरंधस्] बिना अन्न का। निरन्न।
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निरंबर  : वि० [सं० निर्-अंबर, ब० स०]=दिगंबर (नंगा)।
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निरंबु  : वि० [सं० निर्-अंबु, ब० स०] १. जिसमें जल या उसका कोई अंश न हो। निर्जल। २. जो बिना जल पीये रहता हो। ३. जिसमें जल का उपयोग या संपर्क न हो सकता हो। निर्जल। जैसे–निरंबु व्रत।
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निरंभ  : वि० [सं० निरंभस्] १. निर्जल। २. जो बिना पानी पीये रहता या रह सकता हो।
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निरंश  : वि० [सं० निर्–अंश, ब० स०] (व्यक्ति) जिसे अपना प्राप्य अंश न मिला हो या न मिल सकता हो।
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निरकार  : वि०, पुं०=निराकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरकेवल  : वि० [सं० निस्+और केवल] १. जिसमें किसी तरह का मेल न हो। खालिस। विशुद्ध। २. साफ। स्वच्छ। अव्य०=केवल।
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निरक्ष  : वि० [सं० निर्–अक्ष, ब० स०] १. बिना पासे का। २. जो पृथ्वी के मध्य भाग में हो। पुं० पृथ्वी की भूमध्य रेखा। (ईक्वेटर)
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निरक्ष-देश  : पं० [ष० त०] भूमध्य रेखा के आसपास के प्रदेश जिनमें रात-दिन का मान प्रायः बराबर रहता है।
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निरक्षन  : पुं०=निरीक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरक्षर  : वि० [सं० निर्-अक्षर ब० स०] १. जिसमें अक्षर का प्रयोग न हो। २. जिसका अक्षर से कोई संबंध न हो, अर्थात् जो कुछ भी पढ़ा-लिखा न हो। ३. जो एक अक्षर भी न बोल रहा हो। अर्थात् बिलकुल चुप।
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निरक्ष-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] नाड़ी-मंडल।
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निरखना  : स० [सं० निरीक्षण] १. ध्यानपूर्वक देखना। २. निरीक्षण करने के लिए देखना।
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निरग  : पुं०=नृग।
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निरगुन  : वि०=निर्गुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरगुनिया  : वि०=निरगुनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरगुनी  : वि० [सं० निर्गुण] १. जिसमें कोई गुण या विशेषता न हो। २. दे० ‘निर्गुण’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरग्नि  : वि० [सं० निर्-अग्नि, ब० स०] अग्निहोत्र न करनेवाला।
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निरघ  : वि० [सं० निर्-अघ, ब० स०] जिसने अध या पाप न किया हो निष्पाप।
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निरचू  : वि० [सं० निश्चित] १. जिसे अपने काम से अवकाश या छुट्टी मिल गई हो। २. जो हाथ में काम न होने के कारण खाली हो। ३. निश्चित।
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निरच्छ  : वि० [सं० निरक्षि] १. जिसे आँखें न हों। २. जिसे दिखाई न दे। अंधा।
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निरजर  : वि०, पुं०=निर्जर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरजल  : वि०=निर्जल।
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निरजी  : स्त्री० [देश०] संगमर्मर तराशने की संगतराशों की एक तरह की टाँकी।
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निरजोस  : पुं० [सं० निर्यास] १. निचोड़। २. निर्णय। ३. दे० ‘निर्यास’।
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निरजोसी  : वि० [हिं० निरजोश] १. निचोड़ निकालनेवाला। २. निर्णय करनेवाला।
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निरझर  : पुं०=निर्झर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरझरनी  : स्त्री०=निर्झरणी।
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निरझरी  : स्त्री०=निर्झरी।
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निरणै  : पुं०=निर्णय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरत  : वि० [सं० नि√रम् (रमना)+क्त] किसी काम में लगा हुआ रत। लीन। पुं० [सं० नृत्य] नाच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरतना  : स० [सं० नर्तन] नाचना।
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निरति  : स्त्री० [सं० नि√रम्+क्तिन्] १. अच्छी तरह किसी काम या बात में रत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। अत्यंत रति। २. किसी काम में लिप्त या लीन होने की अवस्था या भाव। स्त्री० [?] सुध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरतिशय  : वि० [सं० निर्–अतिशय, प्रा० स०] जिससे बढ़कर या अतिशय और कुछ न हो सके। हद दरजे का। पुं० परमात्मा।
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निरत्यय  : वि० [सं० निर्–अत्यय, ब० स०] १. जो खतरे, भय आदि से अलग, दूर या परे हो। २. दोषरहित।
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निरदई  : वि०=निर्दय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरदोषी  : वि०=निर्दोष।
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निरधण  : वि० [सं० निः+धन्या] स्त्री-रहित। उदा०–नैरंति प्रसरि निरधण गिरि नीझर।–प्रिथीराज। वि०=निर्धन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरधातु  : वि० [सं० निर्धातु] १. जो या जिसमें धातु न हो। २. जिसके शरीर में धातु (वीर्य या शक्ति) न हो। बहुत ही कमजोर या दुर्बल।
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निरधार  : क्रि० वि० [सं० निर्धारण] निश्चित रूप से। उदा०–पाती पीछे-पीछे हम आवत हूँ निरधार।–सेनापति। वि०=निराधार। पुं०=निर्धारण।
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निरधारना  : स० [सं० निर्धारण] १. निश्चित या स्थिर करना। ठहराना। २. मन में धारण करना या समझना।
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निरधिष्ठान  : वि० [सं० निर्–अधिष्ठान, ब० स०] १. जिसका अधिष्ठान न हुआ हो। २. जिसका कोई आधार या आश्रय न हो। निराधार।
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निरध्व (न्)  : वि० [सं० निर्–अध्वन्, ब० स०] १. जो रास्ता भूल गया हो। २. भटकनेवाला।
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निरनउ (य)  : पुं०=निर्णय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरना  : वि०=निरन्ना।
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निरनुग  : वि० [सं० निर्-अनुग, ब० स०] जिसका कोई अनुग या अनुयायी न हो।
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निरनुनासिक  : वि० [सं० निर्–अनुनासिक, ब० स०] (वर्ग) जिसका उच्चारण करते समय नाक से ध्वनि निकलती हो। अनुनासिक का विपर्याय।
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निरनुबंध  : पुं० [सं० निर्–अनुबंध, ब० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में, ऐसी कार्रवाई जिसके द्वारा निःस्वार्थ भाव से किसी दूसरे राजा या राष्ट्र का कोई उद्देश्य या कार्य सिद्ध कराया जाय। यह अर्थनीति का एक भेद कहा गया है।
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निरनुरोध  : वि० [सं० निर्–अनुरोध, ब० स०] १. अनुरोध से रहित। २. सद्भावनाशून्य। अमैत्रीपूर्ण।
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निरनै  : पुं०=निर्णय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरन्न  : वि० [सं० निर्–अन्न, ब० स०] १. अन्न-रहित। बिना अन्न का। २. जिसने अभी तक अन्न न खाया हो। निराहार।
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निरन्ना  : वि० [सं० निरन्न] जिसने अभी तक अन्न न खाया हो। निराहार। पद–निरन्ने मुँह=बिना कुछ खाये हुए। जैसे–यह दवा निरन्ने मुँह खाइयेगा।
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निरन्वय  : वि० [सं० निर्–अन्वय, ब० स०] १. जिसके आगे संतान न हो। २. जिसका किसी से लगाव या संबंध न हो। ३. जिसका ठीक या पूरा पता न चला हो।
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निरपमय  : वि० [सं० निर्–अपमय, ब० स०] १. निर्लज्ज। २. धृष्ट।
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निरपना  : वि० [हिं० निर+अपना] जो अपना न हो अर्थात् पराया या बेगाना।
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निरपराध  : वि० [सं० निर्–अपराध, ब० स०] जिसने कोई अपराध न किया हो। निर्दोष। क्रि० वि० बिना किसी अपराध के। बिना अपराध किये।
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निरपराधी  : वि०=निरपराध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरपवर्त्त  : पुं० [सं० निर्-अपवर्त्त ब० स०] पीछे न मुड़नेवाला।
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निरपवाद  : वि० [सं० निर्–अपवाद, ब० स०] १. जिसमें कोई अपवाद न हो। बिना अपवाद का। २. जिसमें अपवाद, अर्थात् निंदा या बुराई की कोई बात न हो। अच्छा। भला। ३. निरपराध। निर्दोष।
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निरपाय  : वि० [सं० निर्–अपाय, ब० स०] १. जिसमें दोष या बुराई न हो। अच्छा। भला। २. जो नश्वर न हो। अविनश्वर।
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निरपेक्ष  : वि० [सं० निर्–अपेक्षा, ब० स०] [भाव० निरपेक्षी] १. जिसे किसी चीज की अपेक्षा न हो। २. जिसे किसी की चिंता या परवाह न हो। बे-परवाह। ३. जो किसी के अवलंब, आधार या आश्रय पर न हो। ४. जो किसी से कुछ लगाव या संपर्क न रखता हो। तटस्थ। ५. किसी से बचकर या अलग रहनेवाला। जैसे–भागवतनिरपेक्ष=वैष्णव भागवतों से दूर या बचकर रहनेवाला। ६. दे० ‘निष्पक्ष’। पुं० १. अनादर। २. अवज्ञा। अवहेलना।
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निरपेक्षा  : स्त्री० [सं० निर्–अपेक्षा, प्रा० स०] १. वह स्थिति जिसमें किसी चीज या बात की अपेक्षा न हो। २. लगाव या संपर्क या अभाव। ३. अवज्ञा। ४. ला-परवाही। ५. निराशा।
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निरपेक्षित  : वि० [सं० निर्–अपेक्षित, प्रा० स०] १. जिसको किसी की अपेक्षा न हो। २. जिससे कोई लगाव असंपर्क न रखा गया हो।
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निरपेक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० निर्–अप√ईक्ष् (देखना)+णिनि] निरपेक्ष। (दे०)
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निरफल  : वि०=निष्फल।
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निरबंध  : वि०=निर्बंध।
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निरबंसिया  : वि०=निरबंसी।
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निरबंसी  : वि० [सं० निर्वंश] जिसके आगे वंश चलानेवाली संतान न हो। (गाली या शाप)
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निरबर्ती  : पुं० [सं० निवृत्ति] १. त्यागी। २. विरक्त।
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निरबल  : वि०=निर्बल।
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निरबहना  : अ०=निबहना (निभना)।
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निरबान  : पुं०=निर्वाण।
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निरबाहना  : सं०=निबाहना (निभाना)।
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निरबिसी  : स्त्री०=निर्विषी (ओषधि)।
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निरबेरा  : पुं०=निबेड़ा (निपटारा)।
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निरभय  : वि०=निर्भय।
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निरभर  : वि०=निर्भर।
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निरभिमान  : वि० [सं० निर्–अभिमान, ब० स०] जिसमें या जिसे अभिमान या घमंड न हो। अहंकार-रहित।
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निरभिलाष  : वि० [सं० निर्–अभिलाष, ब० स०] जिसे किसी काम या बात की अभिलाषा या इच्छा न हो।
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निरभेद  : वि० [सं० निर्+भेद] जो किसी प्रकार का भेद-भाव न रखता हो। भेद-भावशून्य।
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निरभ्र  : वि० [सं० निर्–अभ्र, ब० स०] (आकाश) जिसमें अभ्र या बादल न हों।
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निरमना  : स० [सं० निर्माण] निर्मित करना। बनाना।
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निरमर  : वि० [हिं० निर+मर्ना] १. जो कभी मरे नहीं। अमर। २. जो जल्दी नष्ट न हो। वि०=निर्मल।
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निरमल  : वि०=निर्मल।
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निरमली  : स्त्री०=निर्मली। (देखें)
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निरम सोर  : पुं० [निरम ?+सोर=जड़] एक प्रकार की जड़ी जिससे अफीम का मादक प्रभाव दूर हो जाता है। (पंजाब)
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निरमान  : पुं०=निर्माण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरमाना  : स० [सं० निर्माण] निर्मित करना। बनाना। रचना।
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निरमायल  : पुं०=निर्माल्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरमित्र  : वि० [सं० निर्–अमित्र, ब० स०] जिसका कोई अमित्र अर्थात् शत्रु न हो। पुं० १. त्रिगर्तराज का एक पुत्र जिसने कुरुक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की थी। २. नकुल (पांडव) का एक पुत्र।
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निरमूल  : वि०=निर्मूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरमूलना  : स० [सं० निर्मूलन] १. निर्मूल करना। जड़ से उखाड़ना। २. इस प्रकार पूरी तरह से नष्ट करना कि फिर से पनपने या बढने की संभावना न रह जाय। समूल नष्ट करना।
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निरमोल  : वि०=अनमोल।
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निरमोलिक  : वि०=निरमोल (अनमोल)।
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निरमोही  : वि०=निर्मोही।
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निरय  : पुं० [सं० निर्√इ (गति)+अच्] नरक।
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निरयण  : वि० [सं० निर्–अयन, ब० स०] १. अयन-रहित। २. (ज्योतिष में काल-गणना) जो अयन अर्थात् राशि-चक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित न हो। पुं० भारतीय ज्योतिष में काल-गणना और पंचांग बनाने की वह विधि (सायन से भिन्न) जो अयन अर्थात् राशि-चक्र की गति पर अवलंबित या आश्रित नहीं होती, बल्कि जिसमें किसी स्थिर तारे या बिंदु से सूर्य के भ्रमण का आरंभ स्थान माना जाता है। विशेष–सूर्य राशि-चक्र में बराबर घूमता या चक्कर लगाता रहता है। प्राचीन ज्योतिषी रेवती राशि नक्षत्र को सूर्य के चक्कर का आरंभ स्थान मानकर काल-गणना करते थे, और वहीं से वर्ष का आरंभ मानते थे। पर आगे चलकर पता चला कि इस प्रकार की गणना में एक दूसरी दृष्टि से त्रुटि है। वसंत संपात और शारद संपात के समय दिन और रात दोनों बराबर होते हैं, इसलिए वसंत-संपात के दिन गणना करने पर जो वर्ष-मान स्थिर होता था, वह उक्त पुरानी विधि के वर्ष-मान से ८.६ पल बड़ा होता था। यह नई गणना-विधि अयन अर्थात् राशि-चक्र की गति पर आश्रित थी; इसलिए इसे सायन गणना कहने लगे, और इसके विपरीत पुरानी गणना-विधि निरयण कही जाने लगी। फिर भी बहुत दिनों से प्रायः सारे भारत में ग्रहलाघव आदि ग्रंथों के आधार पर पंचांगों में काल-गणना उसी पुरानी निरयण विधि से होती आई है; परंतु और आगे चलने पर पता चला कि सायन गणना-विधि में भी कुछ वैसी ही त्रुटि है, जैसी निरयण गणनाविधि में है, क्योंकि दोनों में दृश्य या प्रत्यक्ष गणित से कुछ न कुछ अंतर पड़ता है; इसलिए अनेक आधुनिक विचारशील ज्योतिषियों का आग्रह है कि किसी प्रकार दोनों विधियों की त्रुटियाँ दूर करके पंचांग दृश्य अर्थात् नक्षत्रों, राशियों आदि की ठीक और वास्तविक स्थिति के आधार पर और उसी प्रकार बनने चाहिएँ, जिस प्रकार उन्नत पाश्चात्य देशों में नॉटिकएक, मेनक आदि बनते हैं।
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निरर्गल  : वि० [सं० निर्-अर्गल, ब० स०] १. जिसमें अर्गल न हो। २. जिसमें या जिसके मार्ग में कोई बाधा या रुकावट न हो।
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निरर्थ  : वि० [सं० निर्–अर्थ, ब० स०]=निरर्थक।
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निरर्थक  : वि० [सं० निर्–अर्थ, ब० स०, कप्] १. (पद या शब्द) जिसका कोई अर्थ न हो। अर्थरहित। २. (कार्य या प्रयत्न) जिससे प्रयोजन सिद्ध न होता हो। ३. व्यर्थ। निष्फल। पुं० न्याय के २२ निग्रह-स्थानों में से एक जो उस दशा में माना जाता है, जब वादी के कथन का उत्तर इतना उलटा-पुलटा होता है कि उसका कुछ अर्थ ही न निकले।
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निरबुद्धि  : पुं० [सं०] एक नरक का नाम।
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निरलस  : वि० [सं० निरालस्य] जिसमें आलस्य न हो। आलस्य से रहित। उदा०–निरलसरेवे स्वयं, अहर्निशि रहते जाग्रत।–पन्त।
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निरवकाश  : वि० [सं० निर्–अवकाश ब० स०] १. (स्थान) जिसमें अवकाश या खाली जगह न हो। २. (व्यक्ति) जिसे अवकाश या फुरसत न हो।
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निरवग्रह  : वि० [सं० निर्–अनग्रह, ब० स०] १. प्रतिबंध से रहित। स्वतंत्र। स्वच्छंद। २. जो किसी दूसरे की इच्छा पर अवलंबित या आश्रित न हो। ३. जिसमें कोई बाधा या विघ्न न हो। निर्विघ्न।
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निरवच्छिन्न  : वि० [सं० निर्–अवच्छिन्न, प्रा० स०] १. जिसका क्रम या सिलसिला न टूटा हो। अनवच्छिन्न। २. निर्मल। विशुद्ध। क्रि० वि० १. निरंतर। लगातार। २. निपट। निरा।
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निरवद्य  : वि० [सं० निर्–अवद्य, प्रा० स०] [स्त्री० निरवद्या] जिसमें कोई ऐब या दोष न हो और इसीलिए जिसे कोई बुरा न कह सके। अनिंद्य।
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निरवधि  : वि० [सं० निर्–अवधि, ब० स०] १. जिसकी अवधि नियत न हो। २. सीमा-रहित। क्रि० वि० निरंतर। लगातार।
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निरवलंब  : वि० [सं० निर्–अवलंब, ब० स०] १. जिसका कोई अवलंब, आश्रय या सहारा न हो। २. जिसका कोई ठौर-ठिकाना या रहने का स्थान न हो।
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निरवशेष  : वि० [सं० निर्–अवशेष, ब० स०] संपूर्ण। समग्र।
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निरवसाद  : वि० [सं० निर्–अवसाद, ब० स०] अवसाद से रहित।
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निरवसित  : वि० [सं० निर्–अवसित, प्रा० स०] १. (व्यक्ति) जिसके स्पर्श से खाने-पीने की चीजें और उनके पात्र अपवित्र या अशुद्ध हो जायँ अर्थात् छोटी जाति का। २. जाति से निकला हुआ। जैसे–चांडाल।
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निरवस्कृत  : वि० [सं० निर्–अवस्कृत, प्रा० स०] साफ किया हुआ। परिष्कृत।
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निरवहलिका  : स्त्री० [सं० निर्–अव√हल् (जोतना)+ण्वुल्–अक, टाप्, इत्व] १. चहारदीवारी। प्राचीर। २. चहारदीवारी से घिरा हुआ स्थान। बाड़ा।
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निरवाना  : स० [हिं० निराना का प्रे०] निराने का काम दूसरे से कराना। पुं०=निवारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरवार  : पुं० [हिं० निरवारना] १. निरवारने की क्रिया या भाव। २. छुटकारा। निस्तार।
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निरवारना  : स० [सं० निवारण] १. निवारण करना। २. झंझट, बखेड़ा अथवा बाधक तत्त्व या बात दूर करना या हटाना। ३. बंधन आदि से मुक्त या रहित करना। ४. कष्ट या संकट दूर करना। ५. छोड़ना। त्यागना। ६. सुलझाना। ७. झगड़ा या विवाद निपटाना।
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निरवाह  : पुं०=निर्वाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरवाहना  : स० [सं० निर्वाह] निर्वाह करना।
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निरवेद  : पुं०=निर्वेद।
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निरव्यय  : वि० [सं० निर्-अव्यय, प्रा० स०] नित्य। शाश्वत।
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निरशन  : वि० [सं० निर्–अशन, ब० स०] १. जिसने खाया न हो या जो न खाय। २. जिसमें भोजन करना मना हो। पुं० भोजन न करने अर्थात् निराहार रहने की अवस्था या भाव। उपवास।
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निरसंक  : वि०=निःशंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरस  : वि० [हिं० नि+रस] १. जिसमें रस न हो। रस से रहित। २. जिसमें कोई स्वाद न हो। फीका। ३. किसी की तुलना में घटकर या हीन। ४. रूखा। सूखा। ५. विरक्त। पुं०=निरसन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरसन  : पुं० [सं० निर्√अस् (फेंकना)+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निरसित, निरस्त, वि० निरस्य] १. दूर करना। हटाना। २. साधिकार पहले का निश्चय या आज्ञा आदि रद करना। (कैन्सिलेशन, रिपील, रिसाइडिंग)। ३. रद करने का अधिकार या शक्ति। ४. निराकरण। परिहार। ५. नाश। ६. वध। ७. बाहर करना। निकालना। (डिसचार्ज)
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निरसा  : स्त्री० [सं० नि-रस, ब० स०, टाप्] एक प्रकार की घास जो कोंकण देश में होती है। वि०=निरस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरसित  : भू० कृ०=निरस्त।
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निरस्त  : भू० कृ० [सं० निर्√अस्+क्त] जिसका निरसन हुआ हो। (सभी अर्थों में)
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निरस्त्र  : वि० [सं० निर्–अस्त्र, ब० स०] १. जिसके पास अस्त्र न हो। अस्त्ररहित। उदा०–प्रेम शक्ति से चिर निरस्त्र हो जावेगी पाशवता।–पंत। २. जिससे अस्त्र छीन या ले लिया गया हो। (अन-आर्मड)
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निरस्त्रीकरण  : पुं० [सं० निरस्त्र+च्चि, इत्व, दीर्घ√कृ+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निरस्त्रीकृत] १. अस्त्रों से रहित करना। २. आधुनिक राजनीति में, परस्पर युद्ध की संभावना कम करने के लिए आविष्कृत एक उपाय जिसके अनुसार देश की सेना या सैनिक बल कम किया जाता है जिससे उसमें युद्ध करने की समर्थता घट जाय। (डिस–आर्मामेंट)
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निरस्त्रीकृत  : भू० कृ० [सं० निरस्त्र+च्वि, √कृ+क्त] (देश या सैनिक) जो अस्त्रहीन कर दिया गया हो।
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निरस्थि  : वि० [सं० निर्-अस्थि, ब० स०] जिसमें हड्डी न हो अथवा जिसमें से हड्डी निकाल दी गई हो।
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निरस्य  : वि० [सं० निर्√अस्+यत्] जिसका निरसन होने को हो या किया जा सके।
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निरहंकार  : वि० [सं० निर्–अहंकार, ब० स०] जिसमें या जिसे अहंकार न हो।
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निरहंकृत  : वि० [सं० निर्–अहंकृत, प्रा० स०] अहंकार-शून्य।
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निरहम्  : वि० [सं० निर्-अहम्, ब० स०] जिसमें अहं, भाव न हो।
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निरहेतु  : वि०=निर्हेतु।
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निरहेल  : वि० [सं० हेय] अधम। तुच्छ।
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निरा  : वि० [सं० निरालय, पुं० हिं० निराल] [स्त्री० निरी] १. (व्यक्ति) जिसमें कोई एक ही (उल्लिखित) गुण या अवगुण हो। जैसे–निरा पाजी, निरा मूर्ख। २. (पदार्थ) जिसमें कोई ऐसा तत्त्व न मिलाया गया हो, जिससे उसकी उपयोगिता या महत्त्व घटता हो। विशुद्ध। ३. केवल। सिर्फ। जैसे–निरी दाल के साथ रोटी खाना।
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निराई  : स्त्री० [हिं० निराना] निराने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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निराक  : पुं० [सं० निर्√अक् (वक्र गति)+घञ्] १. पाचन क्रिया। २. पसीना। ३. बुरे कर्म का विपाक।
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निराकरण  : पुं० [सं० निर्–आ√कृ+ल्युट्–अन] [वि० निराकरणीय, निराकृत] १. अलग या पृथक् करना। २. निकालना, दूर करना या हटाना। ३. निर्वासन। ४. अस्वीकृत या निरस्त करना। ५. उठाये या किए हुए प्रश्न, आपत्ति आदि का तर्कपूर्वक खंडन, निवारण या परिहार करना। ६. दे० ‘निरसन’।
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निराकांक्ष  : वि० [सं० निर्–आकांक्षा, ब० स०] जिसे कोई आकांक्षा या इच्छा न हो।
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निराकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० निर्-आ√कांक्ष् (चाहना)+णिनि] [स्त्री० निराकांक्षिणी]=निराकांक्ष।
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निराकार  : वि० [सं० निर्–आकार, ब० स०] १. जिसका कोई आकार न हो। आकार-रहित। २. कुरूप। बेडौल। भद्दा। पुं० १. ब्रह्म। २. विष्णु। ३. शिव। ४. आकाश।
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निराकाश  : वि० [सं० निर–आकाश, ब० स०] जिसमें आकाश अर्थात् कुछ भी खाली स्थान न हो या गुंजाइश न हो।
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निराकुल  : वि० [सं० निर्–आकुल, प्रा० स०] १. जो आकुल या विकल न हो। २. किसी के अंदर भरा हुआ या व्याप्त। ३. बहुत अधिक आकुल या विकल।
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निराकृत  : वि० [स० निर्-आ√कृ+क्त] [भाव० निराकृति] १. जिसका निराकरण हो चुका हो। २. रद्द या व्यर्थ किया हुआ। ३. जिसका खंडन हो चुका हो। ४. जो घबराया न हो।
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निराकृति  : वि० [सं० निर्-आकृति, ब० स०] १. आकृति-रहित। निराकार। २. जो वेद-पाठ या स्वाध्याय न करात हो। ३. जो पंच महायज्ञ न करता हो। पुं० १. रोहित मनु के एक पुत्र का नाम। २. [निर-आ√कृ+क्तिन्] निराकरण।
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निराकृती (तिन्)  : वि० [सं० निराकृत+इनि] निराकरण करनेवाला।
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निराक्रंद  : वि० [सं० निर्-आक्रंद, ब० स०] १. जो चिल्लाता या शिकायत न करता हो। २. (ऐसा स्थान) जहाँ किसी प्रकार का शब्द न सुनाई पड़ता हो।
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निराखरा  : वि०=निरक्षर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निराग  : वि० [सं० नि-राग, ब० स०] १. रागहीन। २. विरक्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरागस्  : वि० [सं० निर्-आगस्, ब० स०] पाप-रहित। निष्पाप।
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निराचार  : वि० [सं० निर्-आचार, ब० स०] १. (व्यक्ति) जो आचारहीन हो। २. (चाल या रीति) जिसे समाज से मान्यता या स्वीकृति न मिली हो।
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निराजी  : स्त्री० [?] करघे में, हत्थे और तरौंछी के सिरों को मिलानेवाली लकड़ी। (जुलाहे)
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निराट  : वि० [हिं० निराल] १. दे० ‘निराला’। २. दे० ‘निरा’।
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निराटा  : वि० [स्त्री० निराटी]=निराला। उदा०–सोच है यहै कै संग ताके रंग भौन मांहिँ कौन धौं अनोखो ढंग रचत निटारी है।–रत्नाकर।
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निराडंबर  : वि० [सं० निर्-आडंबर, ब० स०] आडंबरहीन।
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निरातंक  : वि० [सं० निर्-आंतक, ब० स०] १. जो आतंकित न हो। २. जो आतंक न उत्पन्न करे। २. रोग-रहित। नीरोग।
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निरातप  : वि० [सं० निर्-आतप, ब० स०] १. जो तपता न हो। २. छायादार। ३. जो ताप से सुरक्षित हो।
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निरातपा  : वि० स्त्री० [सं० निरातप+टाप्] जो तपती न हो। स्त्री० रात।
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निरात्म  : वि० [सं० निर्-आत्मन्, ब० स०] [भाव० नैरात्य] आत्मा से रहित या हीन।
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निरादर  : पुं० [सं० निर्-आदर, प्रा० स०] १. आदर का अभाव। २. अपमान।
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निरादान  : वि० [सं० निर्-आदान, ब० स०] जो कुछ भी प्राप्त न कर रहा हो। पुं० [प्रा० स०] १. आदान या लेने का अभाव। २. (ब० स०) एक बुद्ध का नाम।
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निरादेश  : पुं० [सं० निर्-आ√दिश्+घञ्] चुकता करना। भुगताना।।
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निराधार  : वि० [सं० निर्-आधार, ब० स०] १. जिसका कोई आधार (आवलंब या आश्रय) न हो। २. जिसकी कोई जड़ या बुनियाद न हो। निर्मूल। ३. (कथन) जिसका कोई प्रमाण न हो और इसीलिए जो ठीक या वास्तविक न हो; फलतः अमान्य। ४. जिसे अभी तक कुछ या कोई सहारा न मिला हो।
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निराधि  : वि० [सं० निर्–आधि, ब० स०] आधि अर्थात् रोग, चिंताओं आदि से मुक्त या रहित।
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निरानंद  : वि० [सं० निर्-आनंद, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसके मन में या जिसे आनंद अथवा प्रसन्नता न हो। २. (काम या बात) जिसमें कुछ भी आनंद न मिल सकता हो। पुं० १. आनंद का अभाव। २. दुःख।
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निराना  : स० [सं० निराकरण] [भाव० निराई] खेत में फसल के साथ आप से आप उगे हुए और फसल को हानि पहुँचानेवाले निरर्थक पौधों तथा वनस्पतियों को उखाड़ना या खोदकर निकालना।
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निरापद  : वि० [सं० निर्-आपदा, ब० स०] १. जिसके लिए कोई आपदा या संकट न हो। २. जिसमें कोई आपका या संकट न हो। ३. जिससे किसी प्रकार की आपदा या संकट की संभावना न हो। क्रि० वि० बिना किसी प्रकार की आपत्ति या संकट के।
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निरापन  : वि० [हिं० निर+मरा० आपन] १. जो अपना न हो। २. पराया। बेगाना।
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निरापुन  : वि०=निरापन।
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निराबाध  : वि० [सं० नि्–आबाधा, ब० स०] जिसके साथ छेड़-छाड़ न हो। बाधा-रहित।
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निरामय  : वि० [सं० निर्-आमय, ब० स०] १. जिसे रोग न हो, फलतः नीरोग और स्वस्थ। २. कुशल। पुं० १. जंगली बकरा। २. सूअर।
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निरामिष  : वि० [सं० निर्–अमिष, ब० स०] १. (खाद्य पदार्थ या भोजन) जिसमें आमिष अर्थात् मांस या उसका कोई अंश अथवा रूप (अंडा या मछली) न मिला हो। २. (व्यक्ति) जो मांस (अंडा, मछली आदि) न खाता हो।
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निरामिष भोजी (जिन्)  : वि० [सं० निरामिष√भुज् (खाना)+णिनि] जो मांस न खाता हो; फलतः शाकाहारी। (वेजिटेरियन)
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निराय  : वि० [सं० निर्-आय, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसे आय न हो रही हो। २. (व्यापार) जिससे आय न हो रही हो।
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निरायत  : वि० [सं० निर्-आयत, प्रा० स०] जो फैलाया या बढ़ाया हुआ न हो, फलतः सिकोड़ा हुआ।
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निरायास  : वि० [सं० निर्–आयास, ब० स०] बिना आयास या परिश्रम के होनेवाला। क्रि० वि० बिना आयास या परिश्रम किये।
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निरायुध  : वि० [सं० निर्–आयुध, ब० स०] निरस्त्र।
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निरार (ा)  : वि० [स्त्री० निरारी] १.=निराला। २.=न्यारा।
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निरालंब  : वि० [सं० निर्-आलंब, ब० स०] १. जिसका कोई आलंब या सहारा न हो। २. जिसे कोई आश्रय या सहायता देनेवाला न हो। ३. आधार-हीन।
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निरालंबा  : स्त्री० [सं० निरालंब+टाप्] छोटी जटामासी
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निराल  : वि० [हि. निराला] १. निराला। २. निपट। निरा। ३. विशुद्ध।
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निरालक  : पुं० [सं०] एक तरह की समुद्री मछली।
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निरालभ  : वि०=निरालंब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरालय  : वि० [?] अपवित्र। उदा०–ऐसन देह निरालय बौरे मुए छुवे नहिं कोई हो।–कबीर।
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निरालस  : वि०, पुं०=निरालस्य।
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निरालस्य  : वि० [सं० निर्-आलस्य, ब० स०] जिसे आलस्य न हो, फलतः फुर्तीला। पुं० आलस्य का अभाव।
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निराला  : वि० [सं० निरालय] [स्त्री० निराली] १. (स्थान) जहाँ कोई आदमी या बस्ती न हो। २. एकांत और निर्जन। ३. (बात, वस्तु या व्यक्ति) जो अपनी बनावट, रूप, विशिष्टताओं आदि के कारण सबसे अलग तरह का और अनोखा हो। अनूठा। पुं० ऐसा स्थान जहाँ लोगों की भीड़-भाड़ या आना-जाना न हो। एकांत और निर्जन स्थान।
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निरालोक  : वि० [सं० निर्-आलोक, ब० स०] १. आलोक अर्थात् प्रकाश से रहित। २. अंधकारपूर्ण। अँधेरा। पुं० शिव।
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निरावना  : स०=निराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरावरण  : वि० [सं० निर्-आवरण, ब० स०] जिसके आगे या सामने कोई परदा न पड़ा हो। आवरण-रहित। खुला हुआ। पुं० [भू० कृ० निरावृत] १. आगे या सामने का परदा हटाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘अनावरण’।
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निरावलंब  : वि० [सं० निरवलंब] जिसका कोई अवलंब या सहारा न हो। अवलंब-रहित।
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निरावृत  : भू० कृ० [सं० निर्–आवृत, प्रा० स०] जिस पर से आवरण हटाया गया हो।
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निराश  : वि० [सं० निर्-आशा, ब० स०] [भाव० निराशा] जिसे आशा न रह गई हो, अथवा जिसकी आशा नष्ट हो चुकी हो। हताश।
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निराशक  : वि० दे० ‘निराश’।
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निराशा  : स्त्री० [स्त्री० निर्-आशा, प्रा० स०] १. आशा का अभाव। २. निराश होने की अवस्था या भाव।
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निराशावाद  : पुं० [ष० त०] वह लौकिक सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि संसार दुःखों से भरा है और इसलिए अच्छी बातों की ओर से मनुष्य को निराश रहना चाहिए, उनकी आशा नहीं करनी चाहिए। (पेसिमिज़्म)
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निराशावादी (दिन्)  : वि० [सं० निराशावादी+इनि] निराशावाद-संबंधी। पुं० वह जो निराशावाद के सिद्धांत को ठीक मानता हो। (पेसिमिस्ट)
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निराशिष्  : वि० [सं० निर्–आशिष्, ब० स०] १. आशीर्वाद शून्य। २. तृष्णा, वासना आदि से रहित।
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निराशी  : वि०=निराश।
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निराश्रय  : वि० [सं० निर्-आश्रय, ब० स०] १. जिसे कहीं कोई आश्रय या सहारा न मिल रहा हो। आश्रय-रहित। आधारहीन। बिना सहारे का। २. जिसका कोई संगी-साथी न हो।
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निरास  : पुं० [सं०] निरसन। (देखें) वि०=निराश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरासन  : वि० [सं० निर्-आसन, ब० स०] आसन-रहित। पुं०=निरसन।
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निरासा  : स्त्री०=निराशा।
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निरासी  : वि०=निराश।
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निरास्वाद  : वि० [सं० निर्-आस्वाद, ब० स०] जिसका या जिसमें स्वाद न हो। स्वाद-रहित।
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निराहार  : वि० [निर्-आहार, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसने भोजन का समय बीत जाने पर भी अभी तक खाया न हो। जिसने अभी तक भोजन न किया हो। २. (कर्म या व्रत) जिसके अनुष्ठान में भोजन न करने का विधान हो। क्रि० वि० बिना भोजन किये। भूखे रह कर। पुं० कुछ न खाने-पीने अर्थात् भूखे रहने की अवस्था या भाव।
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निरिंग  : वि० [सं० निर्-इंग, ब० स०] निश्चल। अचल।
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निरिंगिणी  : स्त्री० [सं० निर्√इंग (गति)+इनि–ङीष्] चिक। झिलमिली। परदा।
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निरिंद्रिय  : वि० [सं० निर्-इंद्रिय, ब० स०] १. जिसे कोई इंद्रिय न हो। इन्द्रियों से रहित। २. जिसकी इंद्रियाँ ठीक तरह से काम न देती हों।
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निरिच्छ  : [सं० निर्-इच्छा, ब० स०] जिसे कोई इच्छा न हो। इच्छा रहित।
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निरिच्छन  : पुं० निरीक्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरिच्छना  : स० [सं० निरीक्षण] निरीक्षण करना।
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निरीक्षक  : वि० [सं० निर्√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्–अक] १. देखनेवाला। २. निरीक्षण करनेवाला। पुं० वह अधिकारी जो किसी काम का निरीक्षण या देख-भाल करने के लिए नियुक्त हो। (इन्सपेक्टर)
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निरीक्षण  : पुं० [सं० निर्√ईक्ष्+ल्युट्–अन] [वि० निरीक्षित, निरीक्ष्य] १. देखना। दर्शन। २. यह देखना कि सब काम ठीक तरह से हुए हैं या नहीं अथवा सब बातें ठीक हैं या नहीं। (इन्सपेक्शन)। ३. देखने की मुद्रा। ४. नेत्र। आँख।
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निरीक्षा  : स्त्री० [सं० निर्√ईक्ष्+आ–टाप्] १. देखना। दर्शन। २. निरीक्षण।
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निरीक्षित  : भू० कृ० [सं० निर्√ईक्ष्+क्त] १. देखा हुआ। २. जिसका निरीक्षण हुआ हो।
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निरीक्ष्य  : वि० [सं० निर√ईक्ष्+ण्यत्] १. जो देखा जा सके। जो दिखाई दे सके। २. जिसका निरीक्षण करना उचित हो। ३. जिसका निरीक्षण होने को हो।
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निरीक्ष्यमाण  : वि० [सं० निर्√ईक्ष्+यक्+शानच्] जो देखा जाता हो।
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निरीति  : वि० [सं० निर्-ईति, ब० स०] ईति अर्थात् अति-वृष्टि से रहित।
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निरीश  : वि० [वि निर्-ईश, ब० स०] १. जिसका कोई ईश या स्वामी न हो। बिना मालिक का। २. जो ईश्वर को न मानता हो। निरीश्वरवादी। नास्तिक। पुं० हल का फल।
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निरीश्वर  : वि० [सं० निर्-ईश्वर, ब० स०] १. (मत या सिद्धांत) जिसमें ईश्वर का अस्तित्व न माना जाता हो। २. (व्यक्ति) जो ईश्वर का अस्तित्व न मानता हो। नास्तिक।
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निरीश्वरवाद  : पुं० [ष० त०] यह विचारधारा या सिद्धांत कि विश्व का नियाँमंक या स्रष्टा कोई ईश्वर नहीं है। ईश्वर को न माननेवाला मत या सिद्धांत।
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निरीश्वरवादी (दिन्)  : वि० [सं० निरीश्वरवाद+इनि] निरीश्वरवाद-संबंधी। पुं० निरीश्वरवाद का अनुयायी।
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निरीष  : पुं० [सं० निर्-ईषा, ब० स०] हल का फाल।
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निरीह  : वि० [सं० निर्-ईहा, ब० स०] [भाव० निरीहता, निरीहत्व] १. जिसे किसी काम या बात की ईहा (अर्थात् इच्छा या कामना) न हो। जिसे किसी तरह की चाह या वासना न हो। २. जो कुछ भी करना न चाहता हो और इसीलिए कुछ भी न करता हो। ३. उदासीन। विरक्त। ४. जो इतना नम्र और शांत हो कि किसी का अपकार या अहित न करता हो या न कर सकता हो। ५. सुकुमार। सुकोमल। जैसे–निरीह रूप।
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निरीहा  : स्त्री० [सं० निर्-ईहा, प्रा० स०] १. ईहा या चाह का अभाव। २. ईहा के अभाव के कारण होनेवाली निश्चेष्टता।
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निरुआर  : पुं०=निरुवार (छुटकारा)।
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निरुआरना  : स०=निरवारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निरुक्त  : भू० कृ० [सं० निर्√वच् (कहना)+क्त] [भाव० निरुक्ति] १. ठीक, निश्चित और स्पष्ट रूप से कहा, बतलाया, या समझाया हुआ। जिसका उच्चारण, कथन या निरूपण उचित और यथेष्ट रूप में हुआ हो। सन्देह-रहित और स्पष्ट। २. जिसका निर्देश या विधान स्पष्ट रूप से हुआ हो। ३. चिल्लाकर या जोर से कहा हुआ। उद्घोषित। पुं० १. शब्द का ऐसा अर्थ या विश्लेषण जिससे उसके मूल या व्युत्पत्ति का भी पता चलता हो। २. वह ग्रन्थ या शास्त्र जिसमें शब्दों के अर्थ, पर्याय और व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हों। शब्दों की व्युत्पत्ति और विकारी रूपों के तत्त्व या सिद्धांत बतलानेवाला ग्रंथ या शास्त्र। शब्द-शास्त्र। (एटिमॉलोजी) विशेष–हमारे यहाँ इस शास्त्र का आरंभ ऐसे वैदिक शब्दों के विवेचन से हुआ था, जो पुराने पढ़ चुके थे और जिनके अर्थों के संबंध में मत-भेद या संदेह होता था। शब्दों के ठीक अर्थ और आशय समझने-समझाने के लिए उनके व्युत्पत्तिक आधार का निरूपण या विवेचन करना आवश्यक होता था। यह काम वैदिक साहित्य के ही सम्बन्ध में हुआ था; अतः इसे छः वेदांगों में चौथा स्थान मिला था। ३. उक्त विषय का यास्काचार्य कृत वह ग्रंथ जो वैदिक निघुंट की व्याख्या के रूप में है और जिसमें यह बतलाया गया है कि शब्दों में वर्ण-लोप, वर्ण-विपर्यय, वर्णागम आदि किस प्रकार के और कैसे होते हैं। विशेष–यास्काचार्य का स्थान उस समय के निरुक्तकारों में चौदहवाँ था। इसी से पता चल जाता है कि हमारे यहाँ इस विषय का विवेचन कितने प्राचीन काल में आरंभ हुआ था।
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निरुक्ति  : स्त्री० [सं० निर्√वच्+क्तिन्] १. निरुक्त होने की अवस्था या भाव। २. शब्दों का ऐसा निरूपण या विवेचन जो यह बतलाता हो कि शब्द किस प्रकार और किन मूलों से बने हैं और उनके रूपों में किस प्रकार परिवर्तन या विकार होते हैं। शब्दों की व्युत्पत्ति और विकारी रूपों के तत्त्व या सिद्धान्त बतलानेवाली विद्या या शास्त्र। शब्द-शास्त्र। (एटिमॉलाजी) ३. किसी शब्द का मूल रूप। व्युत्पत्ति। (डेरिवेशन) ४. साहित्य में, एक प्रकार का गौण अर्थालंकार जिसमें किसी शब्द के व्युत्पत्तिक विश्लेषण के आधार पर कोई अनूठी और कौशलपूर्ण बात कही जाती है; अथवा किसी नाम या संज्ञा का साधारण से भिन्न कोई विलक्षण व्युत्पत्तिक अर्थ निकालकर उक्ति में चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। यथा–(क) ताप करत अबलान को, दया न चित कछु आतु। तुम इन चरितन साँच ही दोषाकर विख्यातु। यहाँ ‘दोषाकर’ शब्द के कारण निरुक्ति अलंकार हुआ है। चंद्रमा को दोषाकर इसलिए कहते हैं कि वह दोषा (रात) करता है। पर यहाँ दोषाकर का प्रयोग दोषों का आकार या भंडार के अर्थ में किया गया है। (ख) रूप आदि गुण सों भरी तजिकै व्रज-बनितान। उद्धव कुब्जा बय भये निर्गुण वहै निदान। यहाँ ‘निर्गुण’ शब्द की दो प्रकार की निरुक्तियों या व्युत्पत्तियों का आधार लेकर चमत्कार उत्पन्न किया गया है। आशय यह झलकाया गया है कि जो कृष्ण निर्गुण (अर्थात् सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे या रहित) कहे जाते हैं, वे कुब्जा जैसी निर्गुण (अर्थात् सब प्रकार के अच्छे गुणों या बातों से रहित या हीन) स्त्री के फेर में पड़कर अपना ‘निर्गुण’ वाला विश्लेषण चरितार्थ या सार्थक कर रहे हैं। इसी प्रकार के कथनों की गिनती निरुक्ति अलंकार में होती है।
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निरुच्छ्वास  : वि० [सं० निर्-उच्छ्वास, ब० स०] १. (स्थान) जहाँ बहुत से लोग इस प्रकार भरे हों कि उन्हें साँस तक लेने में बहुत कठिनता हो। २. (स्थान) जहाँ बैठने से दम घुटता हो।
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निरुज  : वि०=नीरुज (नीरोग)।
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निरुत्तर  : वि० [सं० निर्-उत्तर, ब० स०] १. (व्यक्ति) जो किसी प्रश्न का उत्तर न दे सकने के कारण मौन हो गया हो। २. (प्रश्न) जिसका उत्तर न दिया गया हो या न दिया जा सके।
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निरुत्साह  : वि० [सं० निर्-उत्साह, ब० स०] १. जिसमें उत्साह न हो। २. जिसका उत्साह न रह गया हो। पुं० [प्रा० स०] उत्साह का न होना।
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निरुत्साहित  : भू० कृ० [सं० निरुत्साह+इतच्] जिसका उत्साह नष्ट हो गया हो या नष्ट कर दिया गया हो।
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निरुत्सुक  : वि० [सं० निर्-उत्सुक, प्रा० स०] [भाव० निरुत्सुकता] जो (किसी काम या बात के लिए) उत्सुक न हो।
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निरुदक  : वि० [सं० निर्-उदक, ब० स०] १. बिना जल का। २. (स्थान) जिसमें या जहाँ जल न हो।
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निरुदन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० निरुदित]=निर्जलीकरण।
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निरुद्देश्य  : वि० [सं० निर्-उद्देश्य, ब० स०] जिसका कोई उद्देश्य न हो। अव्य० बिना किसी उद्देश्य के। यों ही।
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निरुद्ध  : वि० [सं० नि√रुद्ध (रोकना)+क्त] [भाव० निरोध] १. जिसका निरोध किया गया हो। २. रुका या रोका हुआ। ३. बन्धन में डाला या पड़ा हुआ। पुं० योग में वर्णित पाँच प्रकार की मनोवृत्तियों में से एक, जिसमें चित्त अपनी कारणीभूत प्रकृति में मिलकर निश्चेष्ट हो जाता है।
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निरुद्धकंठ  : वि० [ब० स०] १. जिसका दम घुट गया हो। २. जिसका गला (आवेश, मनोवेग आदि के कारण) रुँध गया हो और इसी लिए जिससे स्पष्ट उच्चारण न निकलता हो।
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निरुद्धगुद  : पुं० [ब० स०] पेट में मल जमा होने या रुकने का एक रोग।
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निरुद्ध-प्रकाश  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का रोग, जिसमें मूत्रद्वार बंद-सा हो जाता है और पेशाब बहुत रुक-रुककर होता है।
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निरुद्यम  : वि० [सं० निर्-उद्यम, ब० स०] [भाव० निरुद्यमता] १. जो उद्यम या उद्योग न करता हो। २. जिसके पास कोई उद्यम या उद्योग न हो।
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निरुद्यमा (मिन्)  : वि० [सं० निरुद्यम+इनि] (व्यक्ति) जो उद्यम न करता हो, फलतः आलसी और कामचोर।
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निरुद्योग  : वि० [सं० निर्-उद्योग, ब० स०] १. जो उद्योग या प्रयत्न न करता हो। २. जिसके हाथ में कोई उद्योग या काम न हो।
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निरुद्योगी  : वि०=निरुद्योग।
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निरुद्वेग  : वि० [निर्-उद्वेग, ब० स०] जिसमें उद्वेग न हो। उत्तेजना और क्षोभ से रहित, फलतः धीर और शांत।
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निरुपकार-आधि  : स्त्री० [सं०] वह पूँजी, जो किसी आमदनी वाले काम में न लगी हो, बल्कि यों ही व्यर्थ पड़ी हो।
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निरुपजीव्य भूमि  : स्त्री० [सं० निर्-उपजीव्या, प्रा० स०] ऐसी भूमि जिस पर किसी का गुजर या निर्वाह न हो सकता हो। (कौ०)
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निरुपद्रव  : वि० [सं० निर्-उपद्रव, ब० स०] [भाव० निरुपद्रवता] १. (स्थान) जहाँ उपद्रव न होता हो। २. (व्यक्ति) जो उपद्रवी न हो।
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निरुपद्रवता  : स्त्री० [सं० निरुपद्रव+तल्–टाप्] निरुपद्रव होने की अवस्था का भाव।
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निरुपद्रवी (विन्)  : वि० [सं० निर्-उपद्रविन्, प्रा० स०] जो कुछ भी उपद्रव न करे; फलतः धीर और शांत।
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निरुपपत्ति  : वि० [सं० निर्-उपपत्ति, ब० स०] १. जिसकी कोई उपपत्ति न हो। २. जो उपयुक्त या युक्त न हो।
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निरुपभोग  : वि० [सं० निर् उपभोग, ब० स०] १. (पदार्थ) जिसका किसी ने उपभोग न किया हो। २. (व्यक्ति) जिसने किसी विशिष्ट वस्तु का भोग या उपभोग कर आनंद प्राप्त न किया हो। पुं० [प्रा० स०] उपभोग का अभाव।
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निरुपम  : वि० [सं० निर्-उपमा, ब० स०] जिसकी कोई उपमा न हो; अर्थात् बहुत बढ़िया और बेजोड़। पुं० राष्ट्रकूट-वंश के एक राजा का नाम।
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निरुपमा  : स्त्री० [सं० निरुपम+टाप्] गायत्री का एक नाम।
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निरुपमित  : वि० [सं० निर्-उपमित, प्रा० स०] [स्त्री० निरुपमिता] जिसकी उपमा किसी से न दी जा सकती हो। निरुपम। उदा०–वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।–निराला।
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निरुपयोग  : वि० [सं० निर्-उपयोग, ब० स०] (पदार्थ) जिसका कोई उपयोग न हो अथवा जो अभी तक उपयोग में न लाया गया हो।
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निरुपयोगी (गिन्)  : वि० [सं० निर्-उपयोगिन्, प्रा० स०] जो उपयोग में आने के योग्य न हो। निकम्मा।
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निरुपस्कृत  : वि० [सं० निर्-उपस्कृत, प्रा० स०] १. जो उपस्कृत न हो। अलांछित। २. जो बदला न गया हो। ३. जिसमें मिलावट न हुई हो। बेमेल। विशुद्ध।
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निरुपहत  : वि० [सं० निर्+उपहत, प्रा० स०] १. जो उपहत या आहत न हुआ हो। २. शुभ।
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निरुपाख्य  : वि० [सं० निर्-उपाख्या, ब० स०] १. जिसकी व्याख्या न हो सके। २. जो कभी हीन हो सकता। असंभव और मिथ्या। पुं० ब्रह्मा।
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निरुपाधि  : वि० [सं० निर्-उपाधि, ब० स०] १. जिसमें किसी प्रकार की उपाधि न हो। २. जो कुछ बी उपद्रव न करता हो। धीर और शांत। ३. जिसमें बंधन, बाधा, रुकावट या विघ्न न हो। ३. माया, मोह आदि से रहित। पुं० ब्रह्म की एक संज्ञा।
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निरुपाधिक  : वि०=निरुपाधि।
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निरुपाय  : वि० [सं० निर्-उपाय, ब० स०] १. (व्यक्ति) जो कोई उपाय न कर रहा हो या न कर सकता हो। २. (कार्य या विषय) जिसका या जिसके लिए कोई उपाय न हो सके। अव्य० उपाय न रहने की दशा में। लाचारी की हालत में।
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निरुपेक्ष  : वि० [सं० निर्-उपेक्षा, ब० स०] जिसकी उपेक्षा न की जा सकती हो।
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निरुवरना  : अ० [सं० निवारण] निवारण या निवारित होना। दूर होना। स०=निरुवारना।
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निरुवार  : पुं० [सं० निवारण] १. निवारण करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. छुटकारा। बचाव। ३. निपटारा। निराकरण। ४. निर्णय। फैसला। ५. निश्चय।
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निरुवारना  : स० [हिं० निरुवार] १. निवारण करना। २. बंधन आदि से मुक्त करना। छुड़ाना। ३. उलझी हुई चीज को सुलझाना। ४. निपटारा करना। ५. निर्णय या निश्चय करना।
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निरूढ़  : वि० [सं० निर्√रुह् (उत्पत्ति)+क्त] [स्त्री० निरूढ़ा] १. उत्पन्न। २. प्रसिद्ध। विख्यात। ३. अविवाहित। कुआँरा। ४. (शब्द का अर्थ) जो उसके व्युत्पत्तिक अर्थ से भिन्न होता है और परम्परा से स्वीकृत होता है। पुं० एक प्रकार का पशु यज्ञ।
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निरूढ़-लक्षणा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] लक्षणा का एक भेद, जो उस अवस्था में माना जाता है, जब किसी शब्द का गृहीत अर्थ (व्युत्पत्तिक अर्थ से भिन्न) प्रचलित और रूढ़ हो जाता है।
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निरूढ़वस्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] पिचकारी के आकार का एक प्रकार का उपकरण जिसके द्वारा रोगी के गुदा-मार्ग से ओषधि पहुँचाई जाती है। (वैद्यक)
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निरूढ़ा  : स्त्री० [सं० निरूढ़+टाप्] निरूढ़-लक्षणा। (दे०)
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निरूढ़ि  : स्त्री० [सं० नि√रूह्+क्तिन्] १. ख्याति। प्रसिद्धि। २. दे० ‘निरूढ़-लक्षणा’।
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निरूप  : वि० [हिं० नि+सं० रूप] १. जिसका कोई रूप न हो। २. कुरूप। बद-शकल। भद्दा। पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. देवता। ३. आकाश।
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निरूपक  : मनं वि० [सं० नि√रूप् (विचार करना)+णिच्+ण्वुल्–अक] किसी बात या विषय का निरूपण करनेवाला।
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निरूपण  : पुं० [सं० नि√रूप्+णिच्+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निरूपित, वि० निरूप्य] १. छान-बीन तथा सोच-विचार कर किसी बात या विषय का विवेचन करना। २. अपना मत दूसरों को समझाते हुए उनके सम्मुख रखना। ३. निर्णय। ४. निदर्शन।
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निरूपना  : अ० [सं० निरूपण] १. निरूपण करना। २. निर्णय या निश्चय करना।
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निरूपम  : वि०=निरुपम।
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निरूपित  : भू० कृ० [सं० नि√रूप्+णिच्+क्त] (बात या विषय) जिसका निरूपण हो चुका हो।
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निरूपिति  : स्त्री० [सं० नि√रूप्+णिच+क्तिन्] निरूपण।
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निरूप्य  : वि० [सं० नि√रूप्+णिच्+यत्] जिसका निरूपण होने को हो या किया जाना चाहिए।
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निरूह  : पुं० [सं० निर्√ऊह (वितर्क)+घञ्] १. वस्ति का एक भेद। २. तर्क। ३. निश्चय ४. पूर्ण वाक्य।
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निरूहण  : पुं० [सं० निर् ऊह+ल्युट्–अन] १. वस्ति का प्रयोग। २. तर्क करना। ३. निश्चय करना।
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निरूह-वस्ति  : स्त्री० [सं० मयू० स०] निरूढ़वस्ति। (दे०)
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निरेखना  : स०=निरखना।
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नि-रेभ  : वि० [सं० ब० स०] शब्द-हीन। निःशब्द।
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निरै  : पुं० [सं० निरय] नरक।
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निरैठा  : पुं० [सं० निर्+ईहा या इष्ट] [स्त्री० निरैठी] मनमौजी। मस्त। उदा०–रूप गुन ऐंठी सु अमैठी, उर पैठी बैठी ताड़नि निरैठी मति बोलनि हरै हरि।–घनानंद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निरोग (गी)  : वि०=नीरोग।
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निरोठा  : वि० [?] कुरूप। बद-सूरत।
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निरोद्धव्य  : वि० [सं० नि√रुध् (रोकना)+त्व्यत्] जिसका निरोध किया जा सकता हो या किया जाने को हो।
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निरोध  : पुं० [सं० नि√रुध्+घञ्] [भू० कृ० निरुद्ध] १. रोकने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. अवरोध। रुकावट। रोक। ३. किसी के चारों ओर डाला जानेवाला घेरा। ४. आज-कल, किसी उपद्रवी या संदिग्ध व्यक्ति को (उसे उपद्रव करने से रोकने के लिए) किसी घिरे हुए स्थान में शासन द्वारा रोक रखने की क्रिया या भाव। (डिटेंशन) ५. योग में, चित्त की वृत्तियों को रोकना। ६. नाश।
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निरोधक  : वि० [सं० नि√रुध्+ण्वुल्–अक] निरोध करने या रोकनेवाला।
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निरोधन  : पुं० [सं० नि√रुद्ध+ल्युट्–अन] १. निरोध करने की क्रिया या भाव। बंधन या रोक में रखना। २. रुकावट। रोक। ३. वैद्यक में पारे का एक संस्कार, जो उसका शोधन करने के समय किया जाता है।
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निरोधना  : स० [सं०] १. निरोध या निरोधन करना। २. अपने अधिकार या वश में करना।
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निरोध-परिणाम  : पुं० [सं० मयू० स०] योग में, चित्तवृत्ति की एक विशेष अवस्था जो व्युत्थान और निरोध के मध्य में होती है।
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निरोधा  : स्त्री० [सं०] किसी ऐसे स्थान से जहाँ संक्रामक रोग फैला हो, आये हुए व्यक्तियों आदि के नये प्रदेश के लोगों में मिश्रित होने से रोकना जिससे रोग उस प्रदेश में फैलने और बढ़ने न पाये। २. वह स्थान जहाँ उक्त उद्देश्य से रोके हुए व्यक्तियों को स्थायी रूप से रोक रखा जाता है। (क्वारैनटीन)
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निरोधाचार  : पुं० [सं० निरोध-आचार, ष० त०] सब कामों में होने या डाली जानेवाली रुकावट।
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निरोधाज्ञा  : स्त्री० [सं० निरोध-आज्ञा, ष० त०] ऐसी आज्ञा जिसे किसी कोई कार्य करने से रोका जाता है।
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निरोधी (धिन्)  : वि० [सं० नि√रुध्+णिनि] निरोधक। (दे०)
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निर्ऋत  : भू० कृ० [सं० निर्√ऋ (क्षयकरना)+क्त] जिसका क्षय हुआ हो।
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निर्ऋति  : स्त्री० [स० निर् (निर्गत) ऋति=अशुभ, ब० स०] १. नैऋत्य कोण की देवी। २. पृथ्वी के नीचे का तल। ३. [निर्√ऋ+क्तिन्] क्षय। नाश। ४. मृत्यु। मौत। ५. दरिद्रता। निर्धनता। ६. विपत्ति। संकट।
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निर्ख  : पुं० [फा०] वह भाव जिस पर कोई चीज बिकती हो। दर। भाव।
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निर्ख-दरोगा  : पुं० [फा०] मध्ययुग में वह अधिकारी, जो चीजों के भावो पर निगरानी रखता था।
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निर्ख-नामा  : पुं० [फा०] मध्ययुग में वह सूची, जिसमें वस्तुओं के बाजार भाव लिखे होते थे।
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निर्ख-बंदी  : स्त्री० [फा०] वस्तुओं के बाजार भाव निश्चित करने या बाँधने की क्रिया या भाव।
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निर्गंध  : वि० [सं० निर्-गंध, ब० स०] [भाव० निर्गंधता] गंधहीन।
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निर्गंध-पुष्पी  : पुं० [सं० ब० स०, ङीष्] सेमर का पेड़।
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नर्ग  : पुं० [सं० निर्√गम् (जाना)+ड] १. बाहर निकला या आया हुआ। २. दूर गया हुआ। ३. हटाया हुआ।
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निर्गम  : पुं० [सं० निर्√गम्+अप्] [वि० निर्गमित] १. बाहर निकलने की अवस्था, क्रिया या भाव। निकासी। २. वह मार्ग जिससे बाहर कोई चीज निकलती हो। निकाल। ३. आज्ञा, आदेश आदि का निकलना या प्रकाशित होना। ४. किसी वस्तु विशेषतः धन आदि का किसी स्थान या देश से बहुत अधिक मात्रा में बाहर जाना। (ड्रेन) ५. विधिक क्षेत्र में, किसी व्यवहार या दीवानी मुकदमे की वह विचारणीय बात जिसका एक पक्ष स्थापन करता हो और जिसे दूसरा पक्ष न मानता हो और फलतः जिसके आधार पर उस व्यवहार या मुदकमे का निर्णय होने को हो। वादपद। साध्या। (इश्यू) विशेष–यह दो प्रकार का होता है–(क) विधिक या कानूनी प्रश्नों से संबंध रखनेवाला निर्गम (इश्यु ऑफ़ ला) और (ख) वास्तविक घटनाओं या तथ्यों से संबंध रखनेवाला अर्थात् तथ्यक निर्गम (इश्यू ऑफ फैक्ट्स)।
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निर्गमन  : पुं० [सं० निर्√गम्+ल्युट्–अन] १. बाहर आने या निकलने की क्रिया या भाव। निकासी। २. वह द्वार जिससे होकर कुछ या कोई बाहर निकले। ३. प्रतिहार।
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निर्गमना  : अ० [सं० निर्गमन] बाहर निकलना।
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निर्गम-मूल्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] (वास्तविक मूल्य से भिन्न) वह मूल्य जो कुछ विशेष अवसरों पर किसी चीज की निकासी के समय कुछ घटाकर निश्चित किया जाता है। (इश्यू प्राइस)
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निर्गमित पूँजी  : स्त्री० [सं० निर्गमित+हिं० पूँजी] वह पूँजी या रकम जो कारखाने, व्यापार आदि की दैनिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए बाहर निकाली गई हो। (इश्यू कैपिटल)
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निर्गर्व  : वि० [सं० निर्-गर्व, ब० स०] जिसे गर्व न हो। निरभिमान।
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निर्गवाक्ष  : वि० [सं० निर्-गवाक्ष, ब० स०] (कमरा या घर) जिसमें खिड़की न हो।
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निर्गुंठी  : स्त्री०=निर्गुडी।
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निर्गुडी  : स्त्री० [सं० निर्-गुंड=वेष्टन, ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का क्षुप जिसके प्रत्येक सींके में अरहर की पत्तियों के समान पाँच-पाँच पत्तियाँ होती हैं। इसका उपयोग औषधों आदि में होता है।
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निर्गुण  : वि० [सं० निर्-गुण, ब० स०] [भाव० निर्गुणता] १. जिसमें कोई गुण न हो। सत्त्व, रज और तम इन तीनों प्रकार के गुणों से रहित। २. जिसमें कोई अच्छा गुण या खूबी न हो। गुणरहित। पुं० परमात्मा का वह रूप जो सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे तथा रहित माना जाता है।
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निर्गुणता  : स्त्री० [सं० निर्गुण+तल्–टाप्] निर्गुण होने की अवस्था या भाव।
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निर्गुण-धारा  : स्त्री० [सं० ष० त०] हिन्दी साहित्य की वह ज्ञानाश्रयी धारा या शाखा जिसमें मुख्यतः निर्गुण ब्रह्म की उपासना आदि के काव्य और पद हैं।
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निर्गुण-भूमि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह भूमि जिसमें कुछ भी पैदा न होता हो। ऊसर या बंजर जमीन। (कौ०)
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निर्गुण-संप्रदाय  : पुं० [सं० ष० त०] भारतीय धार्मिक क्षेत्र में, ऐसे एकेश्वरवादी संतों और साधुओं का संप्रदाय, जो निर्गुण ब्रह्म में विश्वास रखते और उसकी उपासना करते हैं। (कहते हैं कि मूलतः इस्लाम धर्म की देखा-देखी जाति-पाँति का भेद मिटाने और लोगों को सगुणोपासना से हटाकर एकेश्वरवाद की ओर लाने के लिए स्वामी रामानंद, कबीर आदि ने इसका समर्थन किया था।)
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निर्गुणिया  : वि०=निर्गुणी।
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निर्गुणी  : वि० [सं० निर्गुण] (व्यक्ति) जिसमें कोई गुण या खूबी न हो।
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निर्गुन  : पुं० [सं० निर्गुण] पूर्वी हिन्दी के एक प्रकार के लोक-गीत, जिनमें मुख्यतः निर्गुण ब्रह्म की भक्ति और रहस्यवादी भावनाओं की चर्चा रहती है। वि०=निर्गुण।
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निर्गूढ़  : वि० [सं० निर्√गुह् (छिपना)+क्त] जो बहुत ही गूढ़ हो। पुं० वृक्ष का कोटर।
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निर्ग्रंथ  : वि० [सं० निर्-ग्रंथ, प्रा० स०] १. निर्धन। गरीब। २. मूर्ख। बेवकूफ। ३. असहाय। ४. दिगंबर। नंगा। पुं० १. वह जो किसी धार्मिक ग्रंथ का अनुयायी न हो; अथवा जिसके पंथ में कोई सर्वमान्य धार्मिक ग्रंथ न हो। २. बौद्ध क्षपणक या भिक्षु। ३. एक प्राचीन मुनि।
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निर्ग्रंथक  : वि० [सं० निर्ग्रथ+कन्] १. चतुर। २. एकाकी। ३. परित्यक्त। ४. फलहीन। पुं० [स्त्री० निर्ग्रंथिका] १. बौद्ध क्षपणक या संन्यासी। २. जुआरी।
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निर्ग्रंथिन  : पुं० [सं० निर्√ग्रंथ (कौटिल्य)+ल्युट्–अन] वध करना। मारना।
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निर्ग्रंथिक  : वि० [सं० निर्-ग्रंथि, ब० स०, कप्] क्षपणक। वि०, पुं० [सं०] निर्ग्रंथक।
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निर्ग्राह्य  : वि० [सं० निर्-√ग्रह् (ग्रहण)+ण्यत्] १. देखने योग्य। २. ग्रहण करने योग्य।
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निर्घंट  : पुं० [सं० निर्√घंट् (दीप्ति)+घञ् १. शब्द-संग्रह। शब्द-संपद। २. दे० ‘निघंटु’।
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निर्घट  : पुं० [सं० निर्-घट, ब० स०] वह हाट या बाजार जहाँ कोई राज-कर न लगता हो।
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निर्घात  : पुं० [सं० निर्√हन् (हिंसा)+घञ्] १. तेज हवा के चलने से होनेवाला शब्द। २. बिजली की कड़क। ३. बहुत जोर का शब्द। ४. आघात। प्रहार। ५. उत्पात। उपद्रव। ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र।
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निर्धातन  : पुं० [स० निर्√हन्+णिच्+ल्युट्–अन] शल्य-चिकित्सा में, अस्त्रों से किया जानेवाला एक प्रकार का उपचार। (सुश्रुत)
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निर्घृण  : वि० [सं० निर्-घृणा, ब० स०] १. जिसे घृणा न हो। घृणा से रहित। २. जिसे गंदी चीजों से घृणा न होती हो। २. जिसे बुरे काम करने से घृणा न हो; अर्थात् बहुत ही नीच। ४. जिसमें करुणा या दया न हो। निर्दय। ५. बेहया।
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निर्घृणा  : स्त्री० [सं० निर्-घृणा, प्रा० स०] १. निष्ठुरता। २. धृष्टता।
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निर्घोष  : वि० [सं० निर्√घुष् (शब्द)+घञ्] जिसमें घोष या शब्द न हो अथवा न होता हो। घोष-रहित। पुं० १. शब्द। आवाज। २. घोर शब्द।
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निर्चा  : पुं० [सं०] चंचु (साग)।
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निर्छल  : वि०=निश्छल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्जन  : वि० [सं० निर्-जन, ब० स०] (स्थान) जहाँ जन या मनुष्य न हों। एकांत।
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निर्जय  : स्त्री० [सं० निर्-जय, प्रा० स०] पूर्ण विजय।
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निर्जर  : वि० [सं० निर्-जरा, ब० स०] [स्त्री० निर्जरा] जरा अर्थात् वृद्धावस्था से रहित। जो कभी बुड्ढा न हो। पुं० १. देवता। २. अमृत।
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निर्जरा  : स्त्री० [सं० निर्जर+टाप्] १. तपस्या करके संचित कर्मों का क्षय या नाश करने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. तालपर्णी। ३. गिलोय। गुडूची।
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निर्जल  : वि० [सं० निर-जल, ब० स०] [स्त्री० निर्जला] १. (आधान या पात्र) जिसमें जल न हो। २. (व्यक्ति) जिसने जल न पीया हो। ३. (नियम या व्रत) जिसमें जल तक पीने का निषध हो। ४. (क्रिया या प्रयोग) जिसमें जल की अपेक्षा न होती तो, बल्कि उसका काम रासायनिक पदार्थों से किया जाता हो। (ड्राई) जैसे–निर्जल खेती, निर्जल धुलाई। पुं० १. वह स्थान, जहाँ जल बिलकुल न हो। २. ऐसा उपवास या व्रत जिसमें जल न पीया जाता हो।
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निर्जल खेती  : स्त्री० [सं०+हिं०] ऐसी खेती जिसमें वर्षा के जल की अपेक्षा न हो, बल्कि वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से फसल तैयार कर ली जाय। (ड्राई फारमिंग)
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निर्जल धुलाई  : स्त्री० [सं०+हिं०] कपड़ों आदि की ऐसी धुलाई, जिसमें बिना जल का उपयोग किये वे वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से साफ किये जाते हैं। (ड्राई वाशिंग)
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निर्जल प्रतिसारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] घावों आदि के धोने की वह प्रक्रिया जिसमें उन्हें साफ करके उनमें केवल रूई भरी जाती है, तरल औषधों का प्रयोग नहीं होता। (ड्राई ड्रेसिंग)
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निर्जला एकादशी  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] जेठ सुदी एकादशी, जिस दिन निर्जल व्रत रखने का विधान है।
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निर्जलित  : भू० कृ० [सं० निर्√जल् (ढकना)+क्त] जिसके अंदर का जल निकाल या सुखा दिया गया हो। (डिहाइड्रे टेड)
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निर्जलीकरण  : पुं० [सं० निर्जल+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट्–अन] रासायनिक प्रक्रिया द्वारा किसी वस्तु में से उसका जलीय अंश निकाल लेना या उसे सुखा देना। (डिहाइड्रेशन) जैसे–तरकारियों या फलों का निर्जलीकरण।
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निर्जात  : वि० [सं० निर्√जन (उत्पत्ति)+क्त] जो आविर्भूत या प्रकट हुआ हो।
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निर्जित  : भू० कृ० [सं० निर्√जि (जीतना)+क्त] [भाव० निर्जिति] १. पूरी तरह से जीता हुआ। २. वश में किया हुआ।
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निर्जिति  : स्त्री० [सं० निर्√जि+क्तिन्] पूर्ण विजय।
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निर्जीव  : वि० [सं० निर्-जीव, ब० स०] १. जिसमें जीवन या प्राण न हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. जिसमें जीवन-शक्ति का अभाव या कमी हो। ४. जिसमें ओज, दम या सजीवता न हो। जैसे–निर्जीव कहानी। ५. उत्साहहीन।
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निर्झर  : पुं० [सं० निर्√ऋ (झरना)+अप्] झरना।
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निर्झरिणी, निर्झरी  : स्त्री० [सं० निर्झर+इनि–ङीप्, निर्झर+ङीष्] झरने से निकलनेवाली नदी।
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निर्णय  : पुं० [सं० निर्√नी (ले जाना)+अच्] १. कहीं से कुछ ले जाना या हटाना। २. किसी बात या विषय की ठीक और पूरी जानकारी प्राप्त करके अथवा किसी सिद्धान्त पर विचार करके कोई मत स्थिर करना। निष्कर्ष या परिणाम निकालना। ३. उक्त प्रकार से स्थिर किया हुआ मत या निकाला हुआ निष्कर्ष। ४. किसी प्रकार के मतभेद, विवाद आदि के संबंध में दोनों पक्षों की सब बातों पर विचार करके या निश्चय करना कि कौन-सा पक्ष या मत ठीक है। ५. विधिक क्षेत्र में, वादी और प्रतिवादी के सब आरोपों, उत्तरों, प्रमाणों आदि पर अच्छी तरह विचार करते हुए न्यायाधिकारी या न्यायालय का यह निश्चित या स्थिर करना कि किस पक्ष की बातें ठीक हैं, अथवा इस विषय का उचित रूप क्या होना चाहिए। ६. न्यायाधिकारी का लिखा हुआ वह लेख्य जिसमें उक्त विषय की सब बातों का विवेचन करते हुए अपना अंतिम निष्कर्ष या मत प्रकट करता है। फैसला। (डिसीजन)
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निर्णयन  : पुं० [सं० निर्√नी+ल्युट्–अन] निर्णय करने की क्रिया या भाव।
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निर्णयात्मक  : वि० [सं० निर्णय-आत्मन्, ब० स०, कप्] १. निर्णय-संबंधी। २. निर्णय के रूप में होनेवाला। ३. (तत्त्व या बात) जिससे किसी विवादास्पद बात का निर्णय होता है। (दे० ‘निर्णायक’)
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निर्णयोपमा  : स्त्री० [सं० निर्णय-उपमा, मध्य० स०] एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान के गुणों और दोषों का विवेचन करते हुए कुछ निष्कर्ष निकाला या निर्णय किया जाता है।
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निर्णर  : पुं० [सं०] सूर्य का एक घोड़ा।
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निर्णायक  : वि० [सं० निर्√नी+ण्वुल्–अक] १. निर्णय करनेवाला। २. (घटना या बात) जिससे किसी झगड़े या विषय का निर्णय होता हो। (डिसाइसिव) पुं० १. वह व्यक्ति जो किसी प्रकार के विवाद का निर्णय करता हो। २. खेल में, वह व्यक्ति जो खेलाड़ियों को खेल के नियमों के अनुसार खिलाता है और जिसका निर्णय अंतिम होता है। (अम्पायर)
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निर्णायक-मत  : पुं० [सं० ष० त०] सभा-समितियों आदि में किसी विवादात्मक प्रश्न के संबंध में होनेवाले मत-दान के समय उस प्रश्न के पक्ष और विपक्ष में बराबर-बराबर मत आने पर सभापति का वह अंतिम मत जिसके आधार पर उस प्रश्न का निर्णय होता है। (कास्टिंग वोट)
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निर्णिक्त  : वि० [सं० निर्√निज् (शुद्धि)+क्त] [भाव० निर्णिक्ति] १. धुला हुआ। २. शोभित। ३. जिसके लिए प्रायश्चित्त किया गया हो।
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निर्णिक्ति  : स्त्री० [सं० निर्√निज्+क्तिन्] १. धोना। २. शोधन। ३. प्रायश्चित्त।
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निर्णीति  : भू० कृ० [सं० निर्√नी+क्त] १. जिसका निर्णय हो चुका हो या किया जा चुका हो। २. (विवाद) जिसके संबंध में निर्णय हो चुका हो। ३. (खेल) जिसमें जीत-हार का फैसला हुआ हो।
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निर्णेक  : पुं० [सं० निर्√निज्+घञ्] १. धोना। साफ करना। २. स्नान। ३. प्रायश्चित्त।
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निर्णेजक  : वि० [सं० निर्√निज्+ण्वुल्–अक] १. धोने या साफ करनेवाला। २. प्रायश्चित्त करनेवाला। पुं० धोबी। रजक।
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निर्णेजन  : पुं० [सं० निर्√निज्+ल्युट्–अन]=निर्णेक।
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निर्णेता (तृ)  : वि०, पुं० [सं० निर्√नी+तृच्] निर्णायक।
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निर्त  : पुं०=नृत्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्त्तक  : पुं०=नर्तक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्तना  : अ०=नाचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्तास  : पुं०=निर्यास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्दंड  : वि० [सं० निर्-दंड, ब० स०] जिसे सब प्रकार के दण्ड दिए जा सकें। पुं० शूद्र, जिसे सब प्रकार के दंड दिये जाते थे या दिये जा सकते थे।
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निर्दत  : वि० [सं० निर्-दंत, ब० स०] (मुँह या व्यक्ति) जिसमें या जिसे दाँत न हो।
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निर्दंर्भ  : वि० [सं० निर्-दंभ, ब० स०] दंभ-हीन।
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निर्दई  : वि०=निर्दय।
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निर्दग्ध  : वि० [सं० निर्√दह् (जलाना)+क्त] जो जला हुआ न हो।
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निर्दय  : वि० [सं० निर्-दया, ब० स०] [भाव० निर्दयता] १. दया-हीन। २. (व्यक्ति) जो बहुत ही कठोर होकर अत्याचारपूर्ण काम करता हो और इस प्रकार दूसरों को सताता हो।
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निर्दयता  : स्त्री० [सं० निर्दय+तल्–टाप्] निर्दय होने की अवस्था या भाव।
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निर्दयी  : वि०=निर्दय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्दर  : वि० [सं० निर्-दर=छिद्र, ब० स०] १. कठिन। कठोर। २. निर्दय। पुं० [सं० निर्√दृ (विदारण)+अप्] १. निर्झर। २. गुफा। ३. सार।
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निर्दल  : वि० [सं० निर्-दल, ब० स०] १. जिसमें दल न हों। दल-रहित। २. जो किसी दल (पक्ष या वर्ग) में न हो। सब दलों से अलग।
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निर्दलन  : पुं० [सं० निर्√दल् (फाड़ना)+णिच्+ल्युट्–अन] १. नाश करना। २. भंग करना। वि० दलन करनेवाला।
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निर्दहन  : पुं० [सं० निर्√दह्+ल्युट्–अन] १. अच्छी तरह जलाना। २. भिलावाँ।
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निर्दहना  : स० [सं० दहन] दहन करना। जलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्दहनी  : स्त्री० [सं० निर्दहन+ङीप्] मरोड़फली। मूर्वा लता।
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निर्दाता (तृ)  : पुं० [सं० निर्√दा (देना)+तृच्] १. खेत निराने या निराई का काम करनेवाला व्यक्ति। २. कृषक। किसान। ३. दाता।
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निर्दारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० निर्दारित]=विदारण।
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निर्दिष्ट  : भू० कृ० [सं० निर्√दिश (बताना)+क्त] १. जिसके प्रति या जिसकी ओर निर्देश हुआ हो। २. कहा, बतलाया या समझाया हुआ। वर्णित। ३. नियत या निश्चित किया हुआ। ठहराया हुआ। जैसे–निर्दिष्ट समय पर काम करना। ४. निर्णीत। ५. (बात या नियम) जिसके लिए कोई व्यवस्था की गुंजाइश निकाली गई या शर्त लगाई गई हो। (प्रोवाइडेड)
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निर्दूषण  : वि०=निर्दोष।
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निर्देश  : पुं० [सं० निर्√दिश्+घञ्] १. स्पष्ट रूप से कहकर कुछ बतलाना या समझाना। (इन्स्ट्रक्शन) २. किसी चीज या बात की ओर ध्यान दिलाते या संकेत करते हुए यह बतलाना कि यही अभीष्ट अथवा अमुक है। इस प्रकार का उल्लेख या कथन कि यही वह है अथवा वही यह है। (रेफरेन्स) पद–निर्देश-ग्रंथ। (देखें)। ३. यह कहना, बतलाना या समझाना कि अमुक काम या बात इस प्रकार अथवा इस रूप में होनी चाहिए। (डाइरेक्शन) ४. निश्चित करना। ठहराना। ५. आज्ञा। आदेश। ६. उल्लेख। चर्चा। जिक्र। ७. नाम। संज्ञा। ८. आस-पास का स्थान। पड़ोस।
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निर्देशक  : वि० [सं० निर्√दिश्+ण्वुल्–अक] निर्देश या निर्देशन करनेवाला। पुं० वह व्यक्ति जिसका काम किसी प्रकार का निर्देश करना हो। (डाइरेक्टर)
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निर्देश-ग्रंथ  : पुं० [ष० त०] वह ग्रंथ या पुस्तक जो सामान्यतः अध्ययन के लिए न लिखी गई हो; वरन् जिसका उपयोग विशेष अवसरों पर कुछ बातों की जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता हो। (रेफरेन्सबुक)
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निर्देशन  : पुं० [सं० निर्√दिश्+ल्युट्–अन] १. निर्देश करने की क्रिया या भाव। २. यह कहना या बतलाना कि अमुक कार्य इस प्रकार या इस रूप में होना चाहिए। ३. वह स्थिति जिसमें कोई कार्य किसी की पूर्ण देख-रेख में और उसके निर्देशानुसार हुआ हो। (डाइरेक्शन) ४. कोई ग्रंथ लिखने के समय उसमें आये हुए उद्धरणों, प्रसंगों आदि के संबंध में यह बतलाना कि इनकी विशेष जानकारी अमुक ग्रंथ में अमुक स्थान पर मिलेगी। (रेफरेंस)
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निर्देष्टा  : वि० पुं०, [सं० निर्-√दिश्+तृच्]=निर्देशक।
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निर्दैन्य  : वि० [सं० निर्-दैन्य, ब० स०] दैन्य या दीनता से रहित अर्थात् निश्चिंत और सुखी रहने की अवस्था या भाव।
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निर्दोष  : वि० [सं० निर्-दोष, ब० स०] [भाव० निर्दोषता] १. जिसने कोई अवगुण या अपराध न किया हो। निरपराध। ३. (कार्य) जो दोष से युक्त न हो।
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निर्दोषता  : स्त्री० [सं० निर्दोष+तल्–टाप्] निर्दोष होने की अवस्था या भाव।
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निर्दोषी  : वि०=निर्दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्द्रव्य  : वि० [सं०]=निर्धन।
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निर्द्वंद्व  : वि० [सं० निर्+द्वंद्व, ब० स०] १. जो सब प्रकार के द्वंद्वों से परे या रहित हो। द्वन्द्व-हीन। २. जो सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि से रहित हो। ३. जिसका कोई प्रतिद्वंद्वी या विरोधी न हो। ४. सब प्रकार से स्वच्छंद। क्रि० वि० १. बिना किसी प्रकार के द्वंद्व या विघ्न-बाधा के। २. बिलकुल मनमाने ढंग से और स्वच्छंदतापूर्वक।
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निर्धन  : वि० [सं० निर्-धन] १. (व्यक्ति) जिसके पास धन न हो। धन-हीन। २. जिसने कोई अमूल्य वस्तु खो दी हो।
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निर्धनता  : स्त्री० [सं० निर्धन+दल्–टाप्] धनहीनता। गरीबी।
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निर्धर्म्य  : वि० [सं० निर्-धर्म्य, ब० स०] १. जो धर्म से रहित हो। २. (व्यक्ति) जिसका कोई धर्म न हो।
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निर्धातु  : वि० [सं० निर्-धातु, ब० स०] १. (पदार्थ) जो धातु के योग से न बना हो। २. (व्यक्ति) जिसकी धातु या वीर्य क्षीण हो गया हो।
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निर्धार  : पुं०=निर्धारण।
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निर्धारण  : पुं० [सं० निर्√धृ (धारण)+णिच्+ल्युट्–अन] १. किसी विचार को कार्य का रूप देने से पहले मन में उसे करने की दृढ़ धारणा बनाना। तै या निश्चित करना। २. निश्चय के रूप में सभा, समितियों आदि का कोई प्रस्ताव पारित करना। ३. अर्थ-शास्त्र में, निर्मित वस्तुओं के विक्रय-मूल्य निश्चित करना अथवा माँग और पूर्ति के आधार पर स्वयं मूल्य निश्चित करना अथवा माँग और पूर्ति के आधार पर स्वयं मूल्य निश्चित होना। ४. यह निश्चय करना कि अमुक काम से कितना आय या कितना व्यय होना चाहिए। (एसेस्मेंट) ५. न्याय में, किसी एक जाति के पदार्थों में से गुण, कर्म आदि के विचार से कुछ को अलग करना। जैसे–यदि कहा जाय कि ‘अमुक जाति के आम बहुत अच्छे होते हैं’ तो यह उस जाति के आमों का निर्धारण होगा।
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निर्धारना  : स० [सं० निर्धारण] निर्धारित या निश्चित करना। ठहरना।
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निर्धारित  : भू० कृ० [सं० निर्√धृ+णिच्+क्त] १ .(बात) जिसे कार्य का रूप देने के लिए निश्चय कर लिया गया हो। २. (वस्तु) जिसका मूल्य निश्चित हो चुका हो। ३. (व्यापार या संपत्ति) जिसकी आय तथा व्यय आँका जा चुका हो।
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निर्धारिती  : पुं० [सं०] वह जिसके संबंध में यह निर्धारित किया जाय कि इसे इतना कर आदि देना चाहिए। (एसेसी)
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निर्धार्य  : वि० [सं० निर्√घृ+ण्यत्] १. जिसके संबंध में निर्धारण होने को हो अथवा हो सकता हो। २. दृढ़। पक्का। ३. उत्साही। ४. निर्भीक।
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निर्धूत  : भू० कृ० [सं० निर्√धू (काँपना)+क्त] १. निकाला या हटाया हुआ। २. त्यक्त। ३. नष्ट किया हुआ। ४. टूटा हुआ। वि०=धौत (धोया हुआ)।
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निर्धूम  : वि० [सं० निर्-धूम, ब० स०] १. (स्थान) जिसमें धूआँ न हो। २. (उपकरण) जो धूआँ न छोड़ता हो। जैसे–निर्धूम गाड़ी।
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निर्धोत  : वि० [सं० निर्√घाव (शुद्धि)+क्त] १. जो धुल चुका हो। २. चमकाया हुआ।
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निर्नर  : वि० [सं० निर्-नर, ब० स०] १. जिसमें नर या मनुष्य न हों। मनुष्यों से रहित। २. मनुष्यों द्वारा छोड़ा या त्यागा हुआ।
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निर्नाथ  : वि० [सं० निर्-नाथ, ब० स०] [भाव० निर्नाथता] जिसका कोई नाथ अर्थात् स्वामी न हो। अनाथ।
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निर्निमित्त  : वि० [सं० निर्-निमित्त, ब० स०] जिसका कोई निमित्त या कारण न हो। अव्य० बिना किसी निमित्त या कारण के।
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निर्निमित्तक  : वि०=निर्निमित्त।
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निर्निमेष  : अव्य० [सं० निर्-निमेष, ब० स०] बिना पलक झपकाये। टक लगाकर। एकटक। वि० १. जिसकी पलक न गिरे। २. जिसमें पलक न गिरे। जैसे–निर्निमेष दृष्टि।
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निर्पक्ष  : वि०=निष्पक्ष।
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निर्फल  : वि०=निष्फल।
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निर्बंध  : वि० [सं० निर्-बंध, ब० स०] जो बंधन या बंधनों से रहित हो। पुं० १. अड़चन। बाधा। २. रुकावट। रोक। ३. जिद। हठ ४. आग्रह। ५. काव्य का वह प्रकार या भेद, जिसमें कोई क्रमबद्ध कथा न हो, बल्कि स्वच्छंद रूप से किसी तथ्य, या रस का विवेचन हो।
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निर्बंधन  : पुं० १.=निर्बंध। २.=निबंधन।
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निर्बंद्ध  : भू० कृ० [सं० निर्√बंध् (बाँधना)+क्त] जिसके संबंध में किसी प्रकार का निबंध लगा या हुआ हो। (रेस्ट्रिक्टेड)
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निर्बल  : वि० [सं० निर्-बल, ब० स०] [भाव० निर्बलता] १. (व्यक्ति) जिसमें बल न हो। २. जिसमें सहनशक्ति का अभाव हो। जैसे–निर्बल हृदय। ३. जिसमें यथेष्ट ओज या सजीवता न हो। जैसे–निर्बल विचारधारा।
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निर्बलता  : स्त्री० [सं० निर्बल+तल्–टाप्] निर्बल होने की अवस्था या भाव। कमजोरी।
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निर्बर्हण  : पुं० =निर्बहण।
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निर्बहना  : अ० [सं० निर्वहन] १. निर्वाह होना। निभना। २. अलग या दूर होना। स० १. निर्वाह करना। निभाना। अलग या दूर करना।
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निर्बाध  : वि० [सं० निर्-बाधा, ब० स०] जिसमें कोई बाधा न हो या न लगाई गई हो। अव्य० १. बिना किसी बाधा के। २. निरंतर। लगातार।
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निर्बाधित  : वि०=निर्बाध।
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निर्बान  : पुं०=निर्वाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्बीज  : वि० [सं० निर्-बीज, ब० स०] जिसका बीज या जनन-शक्ति बिलकुल नष्ट हो गई हो या नष्ट कर दी गई हो।
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निर्बीजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० निर्बीजित] १. निर्बीज करना। २. ऐसी प्रक्रिया करना जिससे कोई वस्तु या प्राणी अपनी वंश-वृद्धि करने में असमर्थ हो जाय।
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निर्बीर  : वि०=निर्वीर्य।
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निर्बुद्धि  : वि० [सं० निर्-बुद्धि, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसे बुद्धि न हो। २. मूर्ख।
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निर्बोध  : वि० [सं० निर्ब-बोध, ब० स०] जिसे बोध या ज्ञान न हो। अज्ञान। अनजान।
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निर्भग्न  : वि० [सं० निर्-भग्न, प्रा० स०] १. अच्छी तरह टूटा या तोड़ा हुआ। २. झुकाया हुआ।
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निर्भट  : [सं० निर्√भट् (पोषण)+अच्] दृढ़। पक्का।
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निर्भय  : वि० [सं० निर्-भय, ब० स०] [भाव० निर्भयता] जिसे भय न हो। पुं० १. बढ़िया घोड़ा, जो जल्दी डरता न हो। २. रौच्य मनु का एक पुत्र।
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निर्भयता  : स्त्री० [सं० निर्भय+तल्–टाप्] निर्भय होने की अवस्था या भाव। निर्भीकता।
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निर्भर  : वि० [सं० निर्-भर, ब० स०] १. अच्छी या पूरी तरह से भरा हुआ। २. किसी के साथ मिला या लगा हुआ। युक्त। ३. आजकल बँगला के आधार पर (कार्य, बात या व्यक्ति) जो किसी दूसरे पर अवलंबित या आश्रित हो। किसी पर ठहरा हुआ। पुं० ऐसा सेवक जिसे वेतन न दिया जाता हो।
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निर्भर्त्सन  : पुं० [सं० निर्√भर्त्स् (दुतकारना)++ल्युट्–अन] १. भर्त्सन। डाँट-डपट। २. निंदा।
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निर्भर्त्सना  : पुं० [सं० निर्√भर्त्स्+णिच्+युच्–अन, टाप्]=भर्त्सना।
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निर्भाग्य्  : वि० [सं० निर्-भाग्य, ब० स०] अभागा। पुं०=दुर्भाग्य।
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निर्भास  : पुं० [सं०] प्रकट या भासित होना।
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निर्भिन्न  : वि० [सं० निर्√भिद् (विदारण)+क्त] १. छिदा हुआ। २. फाड़ा हुआ।
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निर्भीक  : वि० [सं० निर्-भी, ब० स०, कप्] [भाव० निर्भीकता] (व्यक्ति) जो बिना डरे या बिना किसी के दबाव में आये और बहादुरी से कोई काम करता हो।
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निर्भीकता  : स्त्री० [सं० निर्भीक+तल्–टाप्] निर्भीक होने की अवस्था। या भाव।
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निर्भीत  : वि०=निर्भीक।
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निर्भूति  : स्त्री० [सं० निर्√भू (होना)+क्तिन्] ओझल या लुप्त होना। अंतर्धान होना।
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निर्भृति  : वि० [सं० निर्-भृति, ब० स०] जो बेगार में या अपेक्षया बहुत कम पारिश्रमिक पर किसी की सेवा करता हो।
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निर्भेद  : पुं० [सं० निर्√भिद् (विदारण)+घञ्] १. छेदना। २. फाड़ना। ३. भेद या रहस्य खोलना। वि० [निर्-भेद, ब० स०] भेद-रहित।
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निर्भ्रम  : वि० [सं० निर्-भ्रम, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसे भ्रम न हो। २. (बात या विषय) जिसमें भ्रम के लिए अवकाश न हो। क्रि० वि० १. बिना किसी प्रकार के भ्रम के। २. बेखटके। बेधड़क।
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निर्भ्रंत  : वि० [सं० निर्√भ्रम (घूमना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे भ्रांति न हो। २. (बात या विषय) जिसमें किसी प्रकार की भ्रांति के लिए अवकाश न हो।
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निर्मक्षिक  : वि० [सं० निर्-मक्षिका, अव्य० स०] १. (स्थान) जहाँ मक्खियाँ न हों। मक्खियों से रहित। २. जिसमें कोई विघ्न-बाधा न हो। निर्विघ्न।
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निर्मत्सर  : वि० [सं० निर्-मत्सर, ब० स०] दूसरों से द्वेष न करनेवाला। मत्सर-रहित।
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निर्मय  : पुं० [सं० निर्√मथ् (रगड़ना)+घञ्] १. रगड़ना। २. वह लकड़ी जिसे रगड़ने पर आग निकले।
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निर्मथ्या  : स्त्री० [सं० निर√मथ+ण्यत्, टाप्] नालिका या नली नामक गंध्य-द्रव्य।
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निर्मद  : वि० [सं० निर्-मद, ब० स०] १. मद से रहित। २. अभिमानरहित। पुं० संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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निर्मना  : स० [सं० निर्माण] निर्माण करना। बनाना। रचना।
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निर्मनुज  : वि० [सं० निर्-मम, ब० स०] [भाव० निर्ममता] १. जिसमें ममत्व की भावना न हो। २. जो अपने मन की कोमल भावनाओं को नष्ट कर कोई कठोर आचरण करता हो। ३. (काम) जो निर्दयतापूर्वक किया जाय। जैसे–निर्मम हत्या।
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निर्मल  : वि० [सं० निर्-मल, ब० स०] [भाव० निर्मलता] १. (वस्तु) जिसमें मल या मलिनता न हो। साफ। स्वच्छ। २. (व्यक्ति) जिसके चरित्र पर कोई धब्बा न लगा हो। ३. (हृदय) जिसमें दूषित या बुरी भावनाएँ न हों। शुद्ध। पुं० १. अभ्रक। अबरक। २. दे० ‘निर्मली’।
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निर्मलता  : स्त्री० [सं० निर्मल+तल्–टाप्] निर्मल होने की अवस्था या भाव।
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निर्मलांगी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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निर्मला  : पुं० [सं० निर्मल] १. एक नानकपंथी त्यागी संप्रदाय, जिसके प्रवर्त्तक गुरु रामदास थे। इस संप्रदाय के लोग गेरुए वस्त्र पहनते और साधु-संन्यासियों की तरह रहते हैं। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी साधु।
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निर्मली  : स्त्री० [सं० निर्मल] १. एक प्रकार का मझोला सदाबहार पेड़ जिसकी लकड़ी इमारत और खेती और औजार बनाने के काम में आती है। २. रीठे का वृक्ष और उसका फल।
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निर्मलोत्पल  : पुं० [सं० निर्मल-उपल, कर्म० स०] स्फटिक।
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निर्मलोपल  : पुं० [सं० निर्मल-उपल, कर्म० स०] स्फटिक।
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निर्मल्या  : स्त्री० [सं० निर्मल+यत्–टाप्] असबरग। स्पृक्का।
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निर्मास  : वि० [सं० निर्-मांस, ब० स०] १. जिसमें मांस न हो। मांसरहित। २. (व्यक्ति) जो भोजन आदि के अभाव या रोग आदि के कारण बहुत दुबला हो गया हो और जिसके शरीर का अधिकतर मांस गल-पच गया हो।
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निर्माण  : पुं० [सं० निर्म√मा (मापना)+ल्युट्–अन] १. गढ़ या ढालकर अथवा किसी चीज के सब अंगों, उपांगों, उपादानों आदि के योग से कोई नई चीज तैयार करना या बनाना। रचना। जैसे–भवन या सेतु का निर्माण; कपड़े, कागज आदि का निर्माण; ग्रंथ या पुस्तक का निर्माण। २. उक्त प्रकार से बनकर तैयार होनेवाली चीज। ३. किसी चीज को उच्चतम या उत्कृष्टतम रूप देना। जैसे–चरित्र का निर्माण करना। ४. नापना। मापन। ५. रूप। शकल। ६. अंश। हिस्सा। ७. सार-भाग। ८. मज्जा।
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निर्माण-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] इमारत, नहर, पुल आदि बनाने की विद्या। वास्तु-विद्या। वास्तु-कला।
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निर्माता (तृ)  : वि० [सं० निर्√मा+तृच्] जो किसी चीज का निर्माण करता हो। बनाने या रचनेवाला।
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निर्मात्रिक  : वि० [सं० निर्-मात्रिक, प्रा० स०] बिना मात्रा का। जिसमें मात्रा न हो। जैस–निर्मात्रिक पद्य-रचना।
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निर्मान  : वि० [सं० निर्+मान] १. जिसका मान या परिमाण न हो। बेहद। अपार। उदा०–नित्य निर्मय नित्य युक्त निर्मान हरि ज्ञान घन सच्चिदानंद मूल।–तुलसी। २. जिसका मान या प्रतिष्ठा न हो। पुं०=निर्माण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्माना  : स० [सं० निर्माण] निर्माण करना। बनाना। रचना।
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निर्मायक  : वि० [सं० निर्√मा+ण्वुल्–अक] निर्माण करनेवाला। निर्माता।
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निर्मार्जन  : पुं० [सं० निर्√मार्ज् (शुद्धि)+ल्युट्–अन] १. साफ करना। २. धोना।
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निर्माल्य  : वि० [सुं० निर्√मल् (ग्रहण)+ण्यत्] निर्मल। शुद्ध। पुं० १. निर्मलता। २. देवता पर चढ़े या चढ़ाये हुए पदार्थ।
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निर्माल्या  : स्त्री०=निर्माल्य।
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निर्मित  : भू० कृ० [सं० निर्+मा+क्त] [भाव० निर्मिति] जिसका निर्माण हुआ हो या किया गया हो। बनाया या रचा हुआ।
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निर्मित  : स्त्री० [सं० निर्√मा+क्तन्] १. निर्माण करने की क्रिया या भाव। २. निर्माण करके तैयार की हुई चीज।
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निर्मुक्त  : वि० [सं० निर्+मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० निर्मुक्ति] १. जो मुक्त हुआ हो या जिसे निर्मुक्ति मिली हो। २. जो सब प्रकार के बंधनों से रहित हो। ३. (साँप) जो अभी निर्मोक या केंचुली छोड़कर अलग हुआ हो।
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निर्मुक्ति  : स्त्री० [सं० निर्+मुच्+क्तिन्] १. मुक्ति। छुटकारा। २. मोक्ष। ३. बंदियों विशेषतः राजनैतिक बंदियों को एक साथ क्षमा करके छुड़ा देना। (एन्मेस्टी)
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निर्मूल  : वि० [सं० निर्-मूल, ब० स०] १. जिसमें जड़ न हो। बिना जड़ का। २. जड़ के रूप से नष्ट हो जाने के कारण जो न बच रहा हो। पूरी तरह से विनष्ट। जैसे–रोग निर्मूल करना। ३. जिसका कोई मूल अर्थात् आधार या बुनियाद न हो। बेसिर-पैर का। जैसे–निर्मूल दोषारोपण।
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निर्मूलक  : वि० [सं० ब० स०, कप्] निर्मूल।
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निर्मूलन  : पुं० [सं० निर्मूल+णिच्=ल्युट्–अन] १. जड़ से उखाड़ना। निर्मूल करना। २. पूर्ण रूप से नष्ट करने की क्रिया या भाव। पूर्ण विनाश। ३. निराधार या बेबुनियाद सिद्ध करना।
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निर्मृष्ट  : भू० कृ० [स० नर्√मृज् (शुद्धि)+क्त] १. धुला या साफ किया हुआ। २. मिटाया हुआ।
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निर्मेघ  : वि० [सं० निर्-मेघ, ब० स०] मेघ या बादलों से रहित। निरभ्र।
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निर्मेध  : वि० [सं० निर्-मेधा, ब० स०] मेधाशक्ति से रहित। मूर्ख।
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निर्मोक  : पुं० [सं० निर्+मुच्+(छोड़ना) घञ्] १. स्वतंत्र या स्वाधीन करना। २. साँप की केंचुली। ३. शरीर के ऊपर की पतली खाल या झिल्ली। ४. आकाश। ५. सावर्णि मनु के एक पुत्र। ६. तेरहवेंल मनु के सप्तर्षियों में से एक।
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निर्मोक्ष  : पुं० [सं० निर्-मोक्ष, प्रा० स०] १. त्याग। २. धर्मशास्त्रों के अनुसार ऐसा मोक्ष या मुक्ति जिसमें आत्मा के साथ कोई संस्कार लगा न रह जाय। पूर्ण मोक्ष।
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निर्मोचन  : पुं० [सं० निर्√मुच्+ल्युट्–अन] छुटकारा। मुक्ति।
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निर्मोल  : वि०=अमूल्य।
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निर्मोह  : वि० [सं० निर्-मोह, ब० स०] १. जिसे या जिसमें मोह न हो। मोह-रहित। २. दे० ‘निर्मोही’। ३. रैवत मनु के एक पुत्र का नाम। ४. सावर्णि मनु के एक पुत्र का नाम।
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निर्मोही  : वि० [सं० निर्मोह] [स्त्री० निर्मोहिनी] जिसे या जिसमें मोह या ममत्व न हो। किसी के प्रति अनुराग स्नेह न रखनेवाला।
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निर्यत्रण  : पुं० [सं० निर्√यंत्र् (निग्रह)+ल्युट्–अन] यंत्रण से रहित करने की क्रिया या भाव।
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निर्याण  : पुं० [सं० निर्√या (जाना)+ल्युट्–अन] १. बाहर निकलना या जाना। प्रयाण। प्रस्थान। २. सेना का युद्ध-क्षेत्र की ओर होनेवाला प्रस्थान। ३. नगर या बस्ती से बाहर की ओर जानेवाला मार्ग या सड़क। ४. अदृश्य या गायब होना। अंतर्धान। ५. शरीर का आत्मा से बाहर निकलना। ६. मुक्ति। मोक्ष। ७. गति में लाना। ८. जहाज आदि का ठीक ढंग से संचालन करना। (पाइलॉटिंग) ९. पशुओं के पैरों में बाँधी जानेवाली रस्सी। १॰. हाथी की आँख का बाहरी कोना।
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निर्यात  : पं० [सं० निर्√या+क्त] १. माल बाहर भेजने की क्रिया या भाव। २. किसी देश की दृष्टि में उसका वह माल जो विदेशों में बिक्री के लिए भेजा जाय। (एक्सपोर्ट)
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निर्यातक  : वि० [सं० निर्यात+णिच्+ण्वुल्–अक] जो वस्तुओं का निर्यात करता हो। बिक्री के लिए माल विदेश भेजनेवाला। (एक्सपोर्टर)
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निर्यात-कर  : पुं० [ष० त०] निर्यात शुल्क। (दे०)
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निर्यातन  : पुं० [सं० निर्√यत (प्रयत्न)+णिच्+ल्युट्–अन] १. निर्यात करने की क्रिया या भाव। २. प्रतिकार करना। बदला चुकाना। ३. ऋण चुकाना। ४. मार डालना। वध।
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निर्यात-शुल्क  : पुं० [सं० ष० त०] वह शुल्क जो देश से वस्तुओं का निर्यात करने के समय चुकाना पड़ता हो। (एक्सपोर्ट ड्यूटी)
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निर्याति  : स्त्री० [सं० निर्√या+क्तिन्] १. बाहर जाने या निकलने की क्रिया या भाव। २. मृत्यु।
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निर्यामक  : पुं० [सं० निर√यम् (नियंत्रण)+णिच्√ण्वुल्–अक] १. नाविक। मल्लाह। २. हवाई जहाज आदि चलानेवाला। (पाइलॉट)
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निर्यास  : पुं० [सं० निर्√यस् (प्रयत्न)+घञ्] १. निकलना या बहना। २. वह तरल पदार्थ जो पौधे, वृक्ष आदि के तने, शाखा, पत्ते आदि में से निकले। ३. गोंद। ४. जड़ी-बूटियों, वनस्पतियों को उबालकर निकाला हुआ रस। काढ़ा। क्वाथ।
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निर्युक्तिक  : वि० [सं० निर्-युक्ति, ब० स०, कप्] जिसमें कोई युक्ति न हो। युक्ति-रहित।
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निर्यूथ  : वि० [सं० निर्-यूथ, ब० स०] जो अपने यूथ या दल से अलग हो गया हो।
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निर्यूष  : पुं० [सं० निर्-यूष, प्रा० स०] निर्यास। (दे०)
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निर्यूह  : पुं० [सं० निर्√ऊह् (तर्क)+क, पृषो० सिद्धि] १. ओषधियों का काढा। क्वाथ। २. दरवाजा। द्वार। ३. सिर पर पहनने की कोई चीज। जैसे–टोपी, पगड़ी, मुकुट आदि। ४. दीवार में लगा हुआ वह तख्ता जिस पर चीजें रखी जाती हैं।
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निर्लज्ज  : वि० [सं० निर्-लज्जा, ब० स०] [भाव० निर्लज्जता] १. (व्यक्ति) जिसे किसी बात में लज्जा न आती हो। बेशरम। २. (कार्य) जो निर्लज्ज होकर किया गया हो।
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निर्लज्जता  : स्त्री० [सं० निर्लज्ज+तल्–टाप्] निर्लज्ज होने की अवस्था या भाव। बेशरमी। बेहयाई।
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निर्लिंग  : वि० [सं० निर्-लिंग, ब० स०] जिसमें कोई लिंग अर्थात् परिचायक चिह्न न हो।
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निर्लिप्त  : वि० [सं० निर्√लिप् (लीपना)√क्त] [भाव निर्लिप्ता] १. जो किसी के साथ या किसी में लिप्त न हो। जो किसी से लगाव या संबंध न रखता हो। २. सांसारिक माया-मोह, राग-द्वेष आदि से परे और रहित।
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निर्लंचन  : पुं० [सं० निर्-√लुंच् (फाड़ना)√ल्युट्–अन] १. फाड़ना। २. छिलके या भूसी अलग करना।
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निर्लुंठन  : पुं० [सं० निर्√लुंठ् (स्तेय)+ल्युट्–अन] १. लूटना। २. फाड़कर अलग करना।
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निर्लेखन  : पुं० [सं० निर्√लिख् (लिखना)+ल्युट्–अन] १. किसी चीज पर जमी हुई मैल आदि खुरचना। २. वह चीज जिससे मैल खुलची जाय। खुरचने का उपकरण।
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निर्लेप  : वि० [सं० निर्-लेप, ब० स०] १. जिस पर किसी प्रकार का लेप न हो। २. दोष आदि से रहित। ३. दे० ‘निर्लिप्त’।
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निर्लोभ  : वि० [सं० निर्-लोभ, ब० स०] [भाव० निर्लोभता] जिसे किसी प्रकार का लोभ न हो। लोभ-रहित।
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निर्लोभी  : वि०=निर्लोभ।
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निर्वंश  : वि० [सं० निर्-वंश, ब० स०] [भाव० निर्वंशता] १. जिसके वंश में और कोई न बच रहा हो। २. (व्यक्ति) जिसे संतान न हो और इसी लिए जिसके वंश की वृद्धि न हो सके।
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निर्वक्तव्य  : वि० [सं० निर्√वच् (कहना)+तव्यत्] जो कहा न जा सके।
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निर्वचन  : वि० [सं० निर्-वचन, ब० स०] जो कुछ बोल न रहा हो। चुप। मौन। पुं० [निर्-√वच्+ल्युट्–अन] १. उच्चारण करना। कहना। बोलना। २. समझाकर और निश्चित रूप से कोई बात कहना या बतलाना। ३. अपने दृष्टि-कोण से किसी शब्द, पद या वाक्य की विवेचना या व्याख्या करना। (इंटरप्रेटेशन)
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निर्वचनीय  : वि० [सं० निर्√वच्+अनीयर] (शब्द, पद या वाक्य) जिसका निर्वचन किया जाने या होने को हो।
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निर्वपण  : पुं० [सं० निर्√वप्-(बोना)√ल्युट्–अन] १. पितृ-तर्पण। २. दान।
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निर्वपणी  : स्त्री० [सं० निर्√वे (बुनना)+ल्यट्–अन, ङीप्] साँप की केंचुली।
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निर्वर  : वि० [सं० निर्-वर, ब० स०] १. निर्लज्ज। बेशरम। २. निडर। निर्भीक।
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निर्वर्णन  : पुं० [सं० निर्√वर्ण (वर्णन)+ल्युट्–अन] अच्छी तरह या ध्यान से देखना।
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निर्वर्तन  : पुं० [सं० निर्√वृत् (बरतना)+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निर्वत्तित] निष्पत्ति। (दे०)
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निर्वर्तित  : वि० [सं० निर्वृत्त] निष्पन्न। (दे०)
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निर्वसन  : वि० [सं० निर्-वसन, ब० स०] [स्त्री० निर्वसना] जिसने वस्त्र धारण न किये हों। नंगा।
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निर्वसु  : वि० [सं० निर्-वसु, ब० स०] दरिद्र। गरीब।
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निर्वहण  : पुं० [निर्√वह (ढोना)+ल्युट्–अन] १. निबाह। निर्वाह। गुजर। २. अन्त। समाप्ति।
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निर्वहण-संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] नाटक में पाँच संधियों में से एक जो उस स्थिति की सूचक होती है जहाँ प्रमुख प्रयोजन में कार्य और फलागम के साथ अन्यान्य अर्थों का भी पर्यवसान होता है।
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निर्वहना  : अ० [सं० निर्वहन] निभना। स० निभाना।
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निर्वाक (च्)  : वि० [सं० निर्-वाच्, ब० स०] १. जिसकी वाक्शक्ति अवरुद्ध हो। २. जो बोल न रहा हो। चुप। मौन।
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निर्वाक्य  : वि० [सं० निर्-वाक्य, ब० स०] निर्वाक्।
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निर्वाचक  : पुं० [सं० निर्√वच्+णिच्+ण्वुल्–अक] निर्वाचन करनेवाला। पुं० निर्वाचन में खड़े हुए उम्मीदवारों को मत देनेवाला व्यक्ति। (एलेक्टरेट)
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निर्वाचक-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] जो अप्रत्यक्ष रूप से जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए विशिष्ट अधिकारी या अधिकारियों का चुनाव करता है। (एलेक्टोरल कालेज)
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निर्वाचक-सूची  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह सूची जिसमें किसी क्षेत्र के मतदाताओं के नाम, उम्र, पेशे आदि लिखे होते हैं।
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निर्वाचन  : पुं० [सं० निर्√वच्+णिच्+ल्युट्–अन] १. बहुत-सी चीजों में से अपने काम की या अपने पसन्द से कुछ चीजें चुनना या छाँटना। २. आज-कल लोकतंत्र प्रणाली में, विशिष्ट अधिकारप्राप्त मतदाताओं का कुछ लोगों को इसलिए अपना प्रतिनिधि चुनना कि वे उस संस्था के सदस्य बनकर उसका सारा प्रबंध, व्यवस्था या शासन करें। चुनाव। (इलेक्शन)
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निर्वाचन-अधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] वह अधिकारी जिसकी देख-रेख में किसी संस्था के लिए सदस्यों का निर्वाचन होता है। (रिटर्निंग आर्फिसर)
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निर्वाचन-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह क्षेत्र या भू-भाग जिसके निवासी या नागरिक किसी विशिष्ट चुनाव में मत देने के अधिकारी होते हैं। (कान्स्टीच्यूएन्सी)
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निर्वाचित  : भू० कृ० [सं० निर्√वच्+षिच्+क्त] १. जिसका निर्वाचन हुआ हो। २. (उम्मीदवार) जो निर्वाचन में सबसे अधिक मत प्राप्त करने के कारण सफल घोषित हो। (इलेक्टेड)
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निर्वाच्य  : वि० [सं० निर्√वच्+ण्यत्] १. (कथन या शब्द) जो कहा न जा सके; अथवा जिसका उच्चारण करना ठीक न हो। २. जिसमें कोई दोष न निकाला जा सके। ३. (व्यक्ति) जिसका निर्वाचन होने को हो अथवा हो सकता हो।
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निर्वाण  : भू० कृ० [सं० निर्√वा (गति)+क्त] १. (आग या दीया) बुझा हुआ। २. (ग्रह या नक्षत्र) डूबा हुआ। अस्त। ३. धीमा या मंद पड़ा हुआ। ४. मरा हुआ। मृत। ५. निश्चल। शांत। ६. शून्य स्थिति में पहुँचा हुआ। वि० बिना वाण का। जिसमें वाण न हो। पुं०√[निर् वा+ल्युट्–अन] १. आग या दीए का बुझना। २. नष्ट या समाप्त होना। न रह जाना। ३. अंत। समाप्ति। ४. अस्त होना। डूबना। ५. शांति। ६. मुक्ति। मोक्ष। ७. शरीर से जीवन या प्राण निकल जाना। मृत्यु। ८. धार्मिक क्षेत्रों में, वह अवस्था जिसमें जीव परमपद तक पहुँचता या उसे प्राप्त करता है। विशेष–यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य में ‘निर्वाण’ का प्रयोग मुक्ति या मोक्ष के अर्थ में ही हुआ है; परन्तु बौद्ध-दर्शन में यह एक स्वतंत्र पारिभाषिक शब्द हो गया था; और उस परमपद की प्राप्ति का वाचक हो गया था; जिसके लिए साधक लोग साधना करते थे, परवर्ती संत सम्प्रदायों में भी इसकी यही अथवा बहुत कुछ इसी प्रकार की व्याख्या गृहीत हुई है। यह वही अवस्था है जिसमें जीव सब प्रकार से संस्कारों से रहित या शून्य हो जाता है और जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता है।
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निर्वाणी  : वि० [सं० निर्वाण] निर्वाण-संबंधी। निर्वाण का। जैसे–निर्वाणी अखाड़ा। पुं० जैनों के एक देवता।
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निर्वात  : वि० [सं० निर्-वात, ब० स०] १. (अवकाश या स्थान) जिसमें बात या वायु न रह गई हो। (वक्यूम) वातरहित। २. शांत। स्थिर।
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निर्वाद  : पुं० [सं० निर्√वद् (बोलना)+घञ्] १. अपवाद। निंदा। २. अवज्ञा। ला-परवाही।
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निर्वाप  : पुं० [सं० निर्√वप्+घञ्] १. दान। २. पितरों के उद्देश्य से किया हुआ दान।
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निर्वापण  : पुं० [सं० निर्√वा+णिच्, पुक्+ल्युट–अन] १. बुझाना। २. मारना। वध करना। ३. (अधिकार या स्वत्व) अन्त या समाप्त करना। (एक्स्टेंशन)
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निर्वापित  : भू० कृ० [सं० निर्√वा+णिच्, पुक+क्त] १. बुझाया हुआ। २. हत। ३. अन्त या समाप्त किया हुआ। ४. विनष्ट। बरबाद।
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निर्वार  : पुं०=निवारण। उदा०–प्रभु, उसका निर्वार करो हे।–निराला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निर्वार्य  : वि० [सं० निर्√व (वारण)+ण्यत] १. जो निःशंक होकर परिश्रमपूर्वक कर्म करे। २. जिसका वारण या निवारण न हो सके। जो रोका न जा सके।
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निर्वास  : वि० [सं० निर्-वास, ब० स०] १. वास अर्थात् गंध से रहित। २. वास-स्थान से रहित। जिसके रहने के लिए कोई जगह न हो। पुं० १. निर्वासन। २. विदेश-यात्रा। प्रवास।
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निर्वासक  : वि० [सं० निर्√वस (बासना)+णिच+ण्वुल्–अक] निर्वासन या देश-निकाले का दंड देनेवाला।
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निर्वासन  : पुं० [सं० निर्√वस्+णिच+ल्युट्–अन] [भू० कृ० निर्वासित] १. बलपूर्वक किसी को किसी राज्य या भू-भाग से निकालना। २. देश-निकाले का दंड। ३. मार डालना।
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निर्वासित  : भू० कृ० [सं० निर्√वस्+णिच्+क्त] १. जो किसी राज्य या भू-भाग से निकाल दिया गया हो। २. जिसे देश-निकाले का दंड मिला हो।
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निर्वास्य  : वि० [सं० निर्√वस्+णिच्+यत्] जो निर्वासित किये जाने के योग्य हो या किया जाने को हो।
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निर्वाह  : पुं० [सं० निर्√वह (वहन)+धञ] १. अच्छी तरह वहन करना। २. इस प्रकार आचरण या प्रयत्न करना जिससे कोई क्रम, परम्परा या संबंध बराबर बना रहे। ३. अधिकारों, कर्त्तव्यों आदि का किया जानेवाला पालन। ४. अन्त। समाप्ति।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निर्वाहक  : वि० [सं० निर्√वह्+णिच्+ण्वुल्–अक] १. निर्वाह करनेवाला। निभानेवाला। २. आज्ञा, निश्चय आदि का निर्वाहण या पालन करनेवाला। (एक्जिक्यूटर)
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निर्वाहण  : पुं० [सं० निर्√वह्+णिच्+ल्युट्–अन] [वि० निर्वाहणिक, निर्वाहणीय] १. निर्वाह करना। निभाना। २. किसी की आज्ञा या निश्चय के अनुसार ठीक तरह से काम करना। ३. कुछ समय के लिए किसी का काम या भार अपने ऊपर लेना।
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निर्वाहणिक  : वि० [सं० नैर्वाहणिक] १. निर्वाह-संबंधी। २. निर्वाह करनेवाला। ३. किसी के पद पर अस्थायी रूप से रहकर उसके कार्य का निर्वाहण करनेवाला। स्थानापन्न। (आफिशिएटिंग)
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निर्वाहना  : अ० [सं० निर्वाह] निर्वाह करना। निभाना।
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निर्वाह-निधि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] दे० ‘संभरण-निधि’।
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निर्वाह-भृति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] उतना वेतन जितने में किसी परिवार का भरण-पोषण अच्छी तरह हो सके। (लिविंग वेज)
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निर्विकल्प  : वि० [सं० निर्-विकल्प, ब० स०] १. जिसमें विकल्प, परिवर्तन या भेद न हो। सदा एक-रस और एक-रूप रहनेवाला। २. निश्छल। स्थिर। पुं०=निर्विकल्प समाधि।
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निर्विकल्पक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] १. वेदांत के अनुसार वह अवस्था, जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रह जाता। दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। २. न्याय में, वह अलौकिक और प्राकृतिक ज्ञान जो इंद्रियजन्य ज्ञान से भिन्न होता और वास्तविक माना जाता है। (बौद्ध-दर्शन में इसी प्रकार का ज्ञान प्रमाण माना जाता है।)
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निर्विकल्प-समाधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] समाधि का वह भेद या रूप जिसमें ज्ञेय और ज्ञाता आदि का कोई भेद नहीं रह जाता।
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निर्विकार  : वि० [सं० निर्-विकार, ब० स०] जिसमें विकार न हो या न होता हो। अविकारी।
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निर्विकास  : वि० [सं० निर्-विकास, ब० स०] १. विकास से रहित। २. अविकसित।
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निर्विघ्न  : वि० [सं० निर्-विघ्न, ब० स०] जिसमें कोई विघ्न न हो। विघ्न या बाधा से रहित। अव्य० बिना किसी प्रकार के विघ्न या बाधा के।
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निर्विचार  : वि० [सं० निर्-विचार, ब० स०] विचार-शून्य। पुं० योग में, समाधि का एक भेद।
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निर्विण्ण  : वि० [सं० निर्√विद् (ज्ञान)+क्त] १. जिसके मन में निर्वेद उत्पन्न हुआ हो। विरक्त। २. खिन्न या दुःखी। ३. नम्र। ४. शांत। ५. निश्चित। स्थिर।
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निर्वितर्क  : वि० [सं० निर्-वितर्क, ब० स०] जिसके संबंध में तर्क-वितर्क न किया जा सके या न किया जाता हो।
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निर्वितर्क समाधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] योग में, समाधि की वह स्थिति जिसमें योगी स्थूल आलंबन में तन्मय हो जाता है।
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निर्विद्य  : वि० [सं० निर्-विद्या, ब० स०] विद्याहीन। अपढ़।
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निर्विधायन  : पुं० [?] यह निश्चय करना कि जो अमुक बात हुई है वह वस्तुतः निर्विध या विधान-विरुद्ध है। (नलिफिकेशन) जैसे–विवाह या संविदा का निर्विधायन।
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निर्विधायित  : भू० कृ० [सं०] जिसका निर्विधायन हुआ हो। निर्विध। हटाया हुआ। (नलिफाइड)
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निर्विधि  : वि० [सं० निर्-विधि, ब० स०] [भाव० निर्विधता] जिसे विधि या कानून का आधार या बल प्राप्त न हो। विधिक दृष्टि से अमान्य। (नल)
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निर्विधिता  : स्त्री० [सं० निर्विधि+तल्–टाप्] निर्विधि होने की अवस्था या भाव। (नलिटी)
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निर्विरोध  : वि० [सं० निर्-विरोध, ब० स०] १. जिसका कोई विरोध न करे; अथवा कोई विरोध न हो। २. जिसमें किसी प्रकार की बाधा या रुकावट न हो। अव्य० बिना किसी प्रकार के विरोध के।
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निर्विवाद  : वि० [सं० निर्-विवाद, ब० स०] (बात या सिद्धान्त) जिसके सही होने के संबंध में कोई विवाद न हो। अव्य० बिना किसी प्रकार का विवाद किये।
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निविवेक  : वि० [सं० निर्-विवेक, ब० स०] [भाव० निर्विवेकता] विवेक-रहित।
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निर्विशेष  : वि० [सं० निर्-विशेष, ब० स०] १. तुल्य। समान। २. सदा एक रूप रहनेवाला। पुं० परब्रह्म।
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निर्विष  : वि० [सं० निर्-विष, ब० स०] विष-हीन।
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निर्विषा  : स्त्री० [सं० निर्विष+टाप्] निर्विषी। (दे०)
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निर्विषी  : स्त्री० [सं० निर्विष+ङीष्] एक तरह की घास या बूटी जो विष का प्रभाव नष्ट करनेवाली मानी गई है।
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निर्विष्ट  : वि० [सं० निर्√विश् (प्रवेश)+क्त] १. जो भोग कर चुका हो। २. जो विवाह कर चुका हो। विवाहित। ३. जो अग्निहोत्र कर चुका हो। ४. जो मुक्त हो चुका हो।
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निर्वीज  : वि० [सं० निर्-वीज, ब० स०] १. जिसमें बीज न हो। बीज-रहित। २. जिसका बीज या मूल न रह गया हो; अर्थात् पूर्णरूप से विनष्ट। ३. जिसका कोई मूल या कारण न हो। कारणरहित।
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निर्वीज-समाधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] योग में, समाधि की वह अवस्था, जिसमें चित्त का निरोध करते-करते उसका अवलंबन या बीज विलीन हो जाता है।
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निर्वीजा  : स्त्री० [सं० निर्वीज+टाप्] किशमिश।
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निर्वीर  : वि० [सं० निर-वीर, ब० स०] वीर-विहीन।
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निर्वीरा  : वि० स्त्री० [सं० निर्वीर+टाप] पति और पुत्र से विहीन (स्त्री)।
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निर्वीर्य्य  : वि० [सं० निर्-वीर्य, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसमें वीर्य न हो; फलतः नपुंसक। २. बल, तेज आदि से रहित; फलतः अशक्त। ३. (भूमि) जिसमें उर्वरा-शक्ति न हो।
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निवृत्त  : वि० [सं० निर्√क्त (बरतना)+क्त] [भाव० निर्वत्ति] १. वापस आया या लौटा हुआ। २. निष्पन्न।
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निर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० निर्√वृत्त+क्तिन] वापस आना। लौटना।
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निर्वेक्ष  : पुं० [सं०] भृत्ति। वेतन।
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निर्वेग  : वि० [सं० निर्-वेग, ब० स०] वेग-हीन।
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निर्वेद  : पुं० [सं० निर्√विद्+घञ्] १. ग्लानि। घृणा। २. मन में स्वयं अपने संबंध में होनेवाली खेदपूर्ण ग्लानि और निराशा। ३. उक्त के फलस्वरूप सांसारिक बातों से होनेवाली विरक्ति। वैराग्य। ४. उक्त के आधार पर साहित्य में, तैंतीस संचारी भावों में से पहला भाव जिसकी गणना कुछ आचार्यों ने स्थायी भावों में भी की है। विशेष–कहा गया है कि कष्ट, दरिद्रता, प्रियजनों के विरोध, रोग आदि के कारण मन में जो खेद या ग्लानि होती है, वही साहित्य का निर्वेद है। प्रायः इसके मूल में आध्यात्मिक और तात्त्विक विचार होते हैं; इसलिए कुछ आचार्य इसे शांत रस का स्थायी भाव मानते हैं। पर अधिकतर लोग इसे भरत के आधार पर संचारी भाव ही कहते हैं। यह वही मनोवृत्ति है जो मनुष्य को सांसारिक विषयों की ओर से उदासीन करके परमात्म-चिंतन में प्रवृत्त करती है, और इस दृष्टि से रति या श्रृंगार रस के बिलकुल विपरीत है।
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निर्वेश  : पुं० [सं० निर्√विश्+घञ्] १. भोग। २. वेतन। तनख्वाह। ३. विवाह। ४. मोक्ष। मूर्च्छा। बेहोशी। ६. बदला लेना।
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निर्वेष्टन  : पुं० [सं० निर्-वेष्टन, ब० स०] जुलाहों की सूत लपेटने की ढरकी।
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निर्वैर  : वि० [सं० निर्-वैर, ब० स०] वैर, द्वेष आदि से रहित। पुं० वैर का अभाव।
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निर्व्यथन  : पुं० [सं० निर्√व्यथ् (पीड़ा)+ल्युट्–अन] १. तीव्र पीड़ा या वेदना। २. पीड़ा से होनेवाला छुटकारा।
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निर्व्यलीक  : वि० [निर्-व्यलीक, ब० स०] १. छल आदि से रहित। निष्कपट। २. जो किसी को कष्ट न पहुँचाये। निरीह। ३. प्रसन्न। ४. सुखी।
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निर्व्याज  : वि० [सं० निर्-व्याज, ब० स०] १. व्याज अर्थात् कपट या छल से रहित। २. बाधा या विघ्न से रहित। निर्विघ्न।
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निर्व्याधि  : वि० [सं० निर्-व्याधि, ब० स०] व्याधि या रोग से मुक्त या रहित।
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निर्व्यापार  : वि० [सं० निर्-व्यापार, ब० स०] व्यापार-हीन।
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निर्व्यूढ़  : वि० [सं० निर्-वि√वह्+क्त] [भाव० निर्व्यूढि] १. पूरा बनाया हुआ। २. बढ़ा हुआ। विकसित। ३. त्यक्त। ४. भाग्यवान्। ५. सफल। ६. धकेला या निकाला हुआ।
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निर्व्यूढ़ि  : स्त्री० [सं० निर्-वि√वह्+क्तिन्] १. अन्त। समाप्ति। २. कलगी। ३. चोटी। ४. खूँटी। ५. काढ़ा।
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निर्व्रण  : वि० [सं० निर्-व्रण, ब० स०] जिसे व्रण, या घाव न हो या न लगा हो।
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निर्हरण  : पुं० [सं० निर्√हृ (हरण)+ल्युट्–अन] १. जलाने के लिए शव को अर्थी पर ले जाना। २. शव जलाना। ३. नष्ट करना।
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निर्हार  : पुं० [सं० निर्√हृ+घञ्] १. गाड़ी या धँसी हुई चीज को निकालना। २. मल-मूत्र आदि का त्याग करना। ‘आहार’ का विपर्याय। ३. धन, संपत्ति आदि जोड़ना।
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निर्हारक  : वि० [सं० निर्√हृ+ण्वुल्–अक] मुरदे उठाने या ढोनेवाला।
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निर्हारी (रिन्)  : वि० [सं० निर्√हृ+णिनि] १. वहन करनेवाला। २. फैलानेवाला। पुं०=निर्हारक।
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निर्हेतु  : वि० [सं० निर्-हेतु, ब० स०] हेतु-रहित क्रि० वि० बिना किसी हेतु के।
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निलंबन  : पुं०=अनुलंबन।
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निल  : पुं० [सं०] विभीषण का एक मंत्री जो माली राक्षस का पुत्र था।
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निलज  : वि०=निर्लज्ज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निलजई, निलजता  : स्त्री०=निर्लज्जता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निलज्ज  : वि०=निर्लज्ज।
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निलय  : पुं० [सं० नि√ली (छिपना)+अच्] १. छिपने का स्थान। जैसे–पशुओं की माँद या पक्षियों का घोंसला। २. अपने को छिपाने की क्रिया या भाव। ३. रहने का स्थान। घर। ४. शरीर-शास्त्र में हृदय के उन दोनों अवकाशों में से हर एक जिनके द्वारा सारे शरीर में रक्त कं संचार होता है। (वेन्ट्रिकल)
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निलयन  : पुं० [सं० नि√ली+ल्युट्–अन] १. छिपना। २. वासकरना। रहना। ३.=निलय।
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निलहा  : वि० [हिं० नीला+हा (प्रत्य०)] १. नीले रंगवाला। २. नीले रंग में रँगा हुआ। ३. नील-संबंधी। नीलवाला। जैसे–निलहा साहब=वह अंगरेज जो नील की खेती करता और व्यापार करता था।
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निलाज  : वि०=निर्लज्ज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निलाट  : पुं०=ललाट।
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निलाम  : पुं०=नीलाम।
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निलिंप  : पुं० [सं० नि√लिप्+श, मुम्] देवता।
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निलिंप, निर्झरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाश-गंगा।
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निलिंपा  : स्त्री० [सं० निलिम्प+टाप्] गाय।
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निलीन  : वि० [सं० नि√ली+क्त, तस्य नः] १. छिपा हुआ। २. विनष्ट। ३. गला या पिघला हुआ।
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निलोह  : वि० [हिं० नि+लोह ?] १. जिसमें मिलावट न हो। विशुद्ध। २. जिस पर किसी प्रकार की आँच न आई हो।
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निवछरा  : वि० [सं० निवृत्त] (ऐसा समय) जिसमें करने के लिए कोई काम-काज न हो।
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निवछावर  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवड़िया  : स्त्री० [हिं० नावर] छोटा नवाड़ा (नाव)।
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निवत्त  : वि०=निवृत्त।
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निवना  : अ०=नवना (झुकना)।
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निवपन  : पुं० [सं०] १. पितरों आदि के उद्देश्य से दान करना। २. वह पदार्थ जो पितरों के उद्देश्य से दान किया जाय।
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निवर  : वि० [सं० नि√वृ (रोकना)+अच्] १. निवारण करनेवाला। २. रोकनेवाला। पुं० आवरण। परदा।
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निवरा  : वि० स्त्री० [सं० नि√वृ (वरण)+अप्–टाप्] जिसका वर या पति न हो; अर्थात् कुँआरी।
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निवर्तक  : वि० [सं० नि√वृत् (बरतना)+णिच्+ण्वुल्–अक] निर्वर्तन करनेवाला।
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निवर्तन  : पुं० [सं० नि√वृत्+णिच्–ल्युट्–अन] १. घूम-फिरकर अपने पहले स्थान पर आना। वापस आना। लौटना। २. फिर घटित न होना। अन्त या समाप्ति न होना। ३. किसी काम या बात से अलग या दूर रहना। बचना। ४. कार्य अथवा क्रिया से रहित या शून्य होना। ५. आगे न बढ़ने देना। रोक रखना. ६. आजकल न्यायालय की वह प्रक्रिया जो किसी बने हुए विधान को रद या समाप्त करने के लिए होती है। कानून या विधान रद करना। (रिपील) ७. अन्दर की ओर घूमना या मुड़ना। ८. वह अंग या पदार्थ जो अन्दर की ओर घूम या मुड़कर बना हो। ९. कोई ऐसी क्रिया, जो अन्त या ह्रास की ओर ले जाती हो। अन्त या समाप्ति निकट लानेवाली क्रिया। १॰. अरविंद-दर्शन में, चेतना का क्रमशः अन्तर्निहित या तिरोभूत होना जिसके द्वारा अनन्त भागवत चेतना का अन्त होता है। ‘विवर्तन’ का विपर्याय। (इन्वोल्यूशन; अंतिम चारों अर्थों के लिए) ११. जमीन की एक पुरानी नाप जो २॰ लट्ठों की होती थी।
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निवर्तित  : भू० कृ० [सं० नि√कृत+णिच्+क्त] १. लौटा या लौटाया हुआ। २. जिसका निवर्तन हुआ हो। रद।
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निवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० नि√वृत्+णिनि] १. वह जो पीछे की ओर हट आया हो। २. वह जो युद्ध क्षेत्र से भाग आया हो। वि०=निर्लिप्त।
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निवसति  : स्त्री० [सं० नि√वस् (बसना)+अतिच्] रहने का स्थान। घर।
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निवसथ  : पुं० [सं० नि√वस्+अथच्] १. गाँव। २. सीमा। हद।
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निवसन  : पुं० [सं० नि√वस्+ल्युट्–अन] १. निवास करने की क्रिया या भाव। २. निवास के योग्य अथव निवास का स्थान। जैसे–गाँव का घर। ३. वसन। वस्त्र। कपड़ा। ४. स्त्रियों के पहनने का अधोवस्त्र।
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निवसना  : अ० [सं० निवास] निवास करना। रहना।
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निवह  : पुं० [सं० नि√वह्+घ] १. समूह। यूथ। २. सात वायुओं में से एक वायु।
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निवाई  : वि० [सं० नव] १. नवीन। नया। २. अनोखा। विलक्षण। स्त्री० नयापन। नवीनता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [?] १. गरमी। ताप। २. ज्वर। बुखार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाकु  : वि० [सं० नि√वच् (बोलना)+घुण्] चुप। मौन।
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निवाज  : वि०=नवाज। (देखें) स्त्री०=नमाज़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाजना  : स० [फा० निवाज़] अनुग्रह या प्रार्थना करना।
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निवाजिश  : स्त्री० [फा०] १. अनुग्रह। कृपा। २. दया। मेहरबानी।
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निवाड़  : स्त्री०=निवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाड़ा  : पुं० १.=नवाड़ा। २.=नावर (नावों की क्रीड़ा)।
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निवाड़ी  : स्त्री०=निवारी।
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निवाण  : स्त्री० [सं० निम्न] नीची या ढालुई जमीन।
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निवात  : पुं० [सं० नि√वा (गति)+क्त] १. रहने का स्थान। घर। २. ऐसा कवच या वर्म जो शास्त्रों से छेदा न जा सके। ३. सुरक्षित स्थान। ४. शांति। वि०=निर्वात।
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निवान  : पुं० [सं० निम्न] १. नीची जमीन जहाँ सीड़, कीचड़ या पानी भरा रहता हो। २. झील या तालाब। पुं०=नवान्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवाना  : वि० [स्त्री० निवानी]=निमाना। उदा०–हरीचन्द नित रहत दिवाने, सूरज अजब निवानी के।–भारतेन्दु। स०=नवाना (झुकाना)।
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निवान्या  : स्त्री० [सं० नि√वा+क=निव (पीनेवाला)–अन्य ब० स०, टाप्] वह मृतवत्सा जौ जो दूसरी गाय के बछड़े को लगाकर दूही जाय।
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निवार  : स्त्री० [फा० नवार] मोटे सूत की बनी हुई तीन-चार अंगुल चौड़ी वह पट्टी जिससे पलंग बुने जाते हैं। स्त्री० [सं० नेमि+आर] पहिए की तरह की लकड़ी का वह गोल चक्कर जो कूएँ की नींव में धँसाया जाता है जिसके ऊपर कोठी की जोड़ाई होती है। जमावट। पुं० [सं० नीवार] तिन्नी का धान। स्त्री० [?] एक प्रकार की बड़ी और मोटी मूली।
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निवारक  : वि० [सं० नि√वृ (रोकना)+णिच्+ण्वुल्–अक] १. निवारण करनेवाला। २. दूर करने, रोकने या हटानेवाला।
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निवारण  : पुं० [सं० नि√वृ+णिच्+ल्युट्–अन] १. किसी की बढ़ने या फैलने से रोकना। २. दूर करना। हटाना। ३. आनेवाली बाधा या संकट को बीच में ही रोकने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। रोक-थाम। (प्रिवेन्शन) ४. निषेध। मनाही। ५. छुटकारा। निवत्ति।
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निवारन  : पुं०=निवारण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवारना  : स० [सं० निवारण] १. निवारण करना। २. संकट आदि दूर करना, रोकना या हटाना। ३. संकट आदि से किसी को बचाना या उसकी रक्षा करना। ४. कोई काम या बात टालते या रोकते हुए समय बिताना। ५. निषेध करना। मना करना।
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निवार-बाफ  : पुं० [फा० नवार+बाफ़=बुननेवाला] [भाव० निवार-बाफी] निवार अर्थात पलंग बुनने की सूत की पट्टी बुननेवाला जुलाहा।
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निवारी  : स्त्री० [सं० नेपाली या नेमाली] १. चैत में फूलनेवाला जूही की जाति का सुगंधित फूलोंवाला एक पौधा। २. इस पौधे के फूल जो सफेद और सुगंधित होते हैं। वि० [हिं० निवार] १. निवार-संबंधी। निवार का। २. निवार से बुना हुआ। जैसे–निवारी पलंग।
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निवाला  : पुं० [फा० निवालः] कौर। ग्रास।
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निवास  : पुं० [सं० नि√वस+घञ्] १. किसी स्थान को अपना घर बनाकर वहाँ बसने या रहने की क्रिया या भाव। वास। जैसे–आज-कल आप प्रयाग में निवास करते हैं। २. उक्त प्रकार से बसकर रहने का स्थान। ३. विश्राम करने का स्थान। ४. घर। मकान। ५. भौगोलिक दृष्टि से ऐसा स्थान, जहाँ किसी जाति के जीव रहते या कोई वनस्पति होती हो। ६. पहनने के वस्त्र। पोशाक।
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निवासन  : पुं० [सं० निवसन] १. किसी स्थान पर निवास करना या बसकर रहना। २. घर। मकान। ३. समय बिताने की क्रिया या भाव।
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निवास-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह स्थान जहाँ कोई व्यक्ति निवास करता या रहता हो। रहने की जगह। २. घर। मकान।
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निवासित  : भू० कृ० [सं० नि√वस्+णिच+क्त] १. (स्थान) जो आबाद किया गया हो। बसाया हुआ। २. बसा हुआ।
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निवासी (सिन्)  : वि० [सं० नि√वस्+णिनि] (स्थान-विशेष में) रहने या निवास करनेवाला। जैसे–भारत निवासी या लंका निवासी।
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निवास्य  : वि० [सं० नि√वस्+ण्यत्] (स्थान) जहाँ निवास किया जा सकता हो या किया जाने को हो। रहने के योग्य। निवास-स्थान के रूप में काम आने के योग्य।
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निविड़  : वि० [सं० नि√विड् (संघात)+क] [भाव० निविड़ता] १. जिसमें अवकाश या स्थान न हो। २. घना। सघन। ३. गंभीर। ४. भारी डील-डौलवाला। ५. चिपटी, टेढ़ी या दबी हुई नाकवाला।
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निविड़ता  : स्त्री० [सं० निविड़+तल–टाप्] १. निविड़ होने की अवस्था या भाव। घनापन। २. गंभीरता। ३. वंशी के पाँच गुणों में से एक जो उसके स्वर की गंभीरता पर आश्रित होता है।
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निविद्धान  : पुं० [सं० निविद√धा (धारण)+ल्युट्–अन] एक दिन में समाप्त होनेवाला यज्ञ।
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निविरीष  : वि० [सं० नि+विरीसच्] १. घना। २. गहरा। ३. भद्दा। स्त्री० १. घनता। २. गहराई। ३. भद्दापन।
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निविल  : वि०=निविड़।
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निविशमान  : वि० [सं०] जिसने कहीं निवास किया हो या जो कहीं निवास कर रहा हो। पुं० वह लोग जो किसी उपनिवेश में बसाये गये हों।
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निविशेष  : वि० [सं० निर्विशेष] १. जिसमें दूसरों से कोई विशेषता न हो। साधारण। सामान्य। २. तुल्य। समान। पुं० १. समानता। २. एक-रूपता।
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निविष  : वि०=निर्विष (विषहीन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निविष्ट  : वि० [सं० नि√विश् (प्रदेश)+क्त] [भाव० निविष्टता] १. बैठा हुआ। आसीन। २. जो कहीं निवेश बनाकर या डेरा डालकर ठहरा हो। ३. किसी काम या बात के लिए तत्पर या तुला हुआ। ४. (मन) एकाग्र करके नियंत्रित किया हुआ। ५. क्रम या व्यवस्था से लगाया हुआ। ६. जिसका प्रवेश हुआ हो। प्रविष्ट। ७. कहीं लिखा, दर्ज किया या चढ़ाया हुआ। (एन्टर्ड) ८. बाँधा या लपेटा हुआ। ९. ठहरा या ठहराया हुआ। स्थित। १॰. किसी के अन्दर भरा या रखा हुआ।
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निविष्ट  : स्त्री० [सं० नि√विश्+क्तिन्] १. मैथुन या संभोग करना। २. विश्राम करना। ३. खाते आदि में लिखने, दर्ज करने या चढ़ाने की क्रिया या भाव। ४. इस प्रकार चढ़ी, चढ़ाई या लिखी हुई बात या रकम। (एन्ट्री)
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निवीत  : पुं० [सं० नि√व्ये (आच्छादन)+क्त] १. यज्ञोपवीत, जो गले में पहना हुआ हो। २. ओढ़ने का कपड़ा। चादर। ओढ़नी।
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निवीती (तिन्)  : वि० [सं० निवीत+इनि] १. जो यज्ञोपवीत पहने हो। २. जो चादर ओढ़े हो।
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निवीर्य  : वि०=निर्वीर्य।
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निवृत्त  : भू० कृ० [सं० नि√वृत+क्त] १. वापस आया या लौटाया हुआ। २. जिसकी सांसारिक विषयों में प्रवृत्ति न रह गई हो। ३. जो कोई काम करके उससे छुट्टी पा चुका हो। जो अपना काम कर चुका हो। ४. (कार्य) जो पूरा हो चुका हो। मुक्त। पुं० १. आवरण। २. परदा। ३. लपेटने का कपड़ा। बेठन।
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निवृत्ति  : स्त्री० [सं० नि√वृत्+क्तिन्] १. निवृत्त होने की क्रिया या भाव। २. वापस आना या लौटना। ३. किसी काम की प्रवृत्ति का अभाव होना। ४. सांसारिक विषयों का किया जानेवाला त्याग। ५. ‘प्रवृत्ति’ का विपर्याय। ६. छुटकारा। मुक्ति। ७. अपने कार्य या पद से अवकाश पाकर अथवा अवधि पूरी हो जाने पर सदा के लिए हट जाना। (रिटायरमेंट) ८. एक प्राचीन तीर्थ।
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निवृत्तिक  : वि० [सं०] निवृत्ति-संबंधी। जैसे–निवृत्तिक मार्ग या साधना।
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निवेद  : पुं० [सं० नैवेद्य] देवता को चढ़ाया हुआ पदार्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निवेदक  : वि० [सं० नि√विद् (जानना)+णिच्+ण्वुल्–अक] (व्यक्ति) जो नम्रतापूर्वक किसी से कोई बात कहे। निवेदन करनेवाला।
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निवेदन  : पुं० [सं० नि√विद्+णिच्+ल्युट्–अन] १. नम्रतापूर्वक किसी से कोई बात कहना। २. इस प्रकार कही हुई कोई बात जो प्रायः सुझाव के रूप में होती है। ३. समर्पण। ४. आहुति।
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निवेदन-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी एक या कई व्यक्तियों ने निवेदन लिखा हो। (लेटर आफ रिक्वेस्ट)
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निवेदना  : स० [सं० निवेदन] १. विनती, निवेदन या प्रार्थना करना। २. सेवा में भेंट आदि के रूप में उपस्थित करना।
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निवेदित  : भू० कृ० [सं० नि√विद्+णिच्+क्त] १. (बात) जो निवेदन या प्रार्थना के रूप में कही गई हो। २. (पदार्थ) जो भेंट आदि के रूप में अर्पित या समर्पित किया गया हो।
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निवेद्य  : पुं० [सं० नि√विद्+ण्यत्] नैवेद्य। (दे०)
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निवेरना  : स०= निबेड़ना (निपटाना)।
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निवेरा  : वि० [हिं० नि+सं० वरण] [स्त्री० निवेरी] १. चुना या छाँटा हुआ। वि० [सं० नवल] १. नेवला। २. अनोखा। पुं०=निबेड़ा।
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निवेश  : पुं० [सं० नि√विश्+घञ्] [वि० नैवेशिक, भू० कृ० निवेशित, निविष्ट] १. डेरा। शिविर। २. प्रवेश। पैठ। ३. घर। मकान। ४. विवाह। ५. ठहराया या रखा जाना। स्थापन। ६. किसी निश्चय, विधि आदि में पड़नेवाली कठिनता या होनेवाली बाधा से बचने के लिए निकाला हुआ मार्ग या निश्चित किया हुआ विधान। (प्रॉविजन)
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निवेशन  : पुं० [सं० नि√विश्+ल्युट्–अन] १. डेरा। २. घर। ३. नगर।
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निवेशनी  : स्त्री० [सं० निवेशन+ङीप्] पृथ्वी।
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निवेष्ट  : पुं० [सं० नि√वेष्ट् (लपेटना)+घञ्] १. वह कपड़ा जिसमें कोई चीज ढकी या लपेटी जाय। बेठन। २. सामवेद का एक प्रकार का मंत्र।
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निवेष्टन  : पुं० [सं० नि√वेष्ट+ल्युट्–अन] १. ढकने या लपेटने की क्रिया या भाव। २. ढकने या लपेटनेवाली चीज। बेठन।
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निवेष्य  : पुं० [सं० नि√विष् (व्याप्ति)+ण्यत्] १. व्याप्ति। २. बरफ का पानी। ३. जल-स्तंभ। (देखें)
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निव्याधी (धिन्)  : पुं० [सं० नि√व्यध् (मारना)+णिनि] एक रुद्र का नाम।
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निव्यूढ़  : पुं० [सं० नि-वि√ऊह् (वितर्क)+क्त] १. अध्यवसाय। २. शक्ति। ३. उत्साह।
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निशंक  : वि०=निःशंक।
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निशंग  : पुं०=निषंग।
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निश  : स्त्री०=निशा (रात्रि)।
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निशचर  : वि०, पुं०=निशाचर।
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निशठ  : पुं० [सं०] बलदेव के एक पुत्र का नाम। (पुराण)
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निशतर  : पुं० [फा०] वह उपकरण जिससे चीर-फाड़ की जाय। नश्तर। (शल्य चिकित्सा)
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निशब्द  : वि० [सं० निःशब्द] १. (स्थान) जो शब्द से रहित हो। २. (व्यक्ति) जो चुप या मौन हो।
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निशब्दक  : वि० [सं० निःशब्दक] शब्द न करनेवाला। (साइलेंसर)
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निशमन  : पुं० [सं० नि√शम् (शान्ति)+णिच्+ल्युट्–अन] १. दर्शन। देखना। २. श्रवण। सुनना।
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निशरण  : पुं० [सं० नि√शृ (हिंसा)+ल्युट्–अन] मारण। वध।
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निशल्या  : स्त्री० [सं०] दंती (वृक्ष)।
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निशांत  : वि० [सं० नि-शांत, प्रा० स०] १. (व्यक्ति) पूर्ण रूप से या बहुत अधिक शांत। २. (वातावरण या स्थान) जिसमें शांति न हो। पुं० १. निशा अर्थात् रात्रि का अंत। पिछली रात। रात का चौथा प्रहर। २. तड़का। प्रभात। ३. घर। मकान।
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निशांध  : वि० [सं० निशा-अन्ध, स० त०] जिसे रात को दिखाई न दे। जिसे रतौंधी हो।
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निशांधा  : स्त्री० [सं० निशा√अन्ध (दृष्टि-विघात)+अच–टाप्] जतुका लता।
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निशांधी  : स्त्री० [सं० निशा√अन्ध्+अच्–ङीष्] १. जतुका या पहाड़ी नामक लता। २. राजकुमारी।
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निशा  : स्त्री० [सं० नि√शो (क्षीण करना)+क–टाप्] १. रात्रि। रजनी। रात। २. हलदी। ३. दारू हलदी। ४. फलित ज्योतिष में, इन छः राशियों का समूह–मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धनु और मकर।
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निशाकर  : वि० [सं० निशा√कृ (करना)+ट] निशा करनेवाला। पुं० १. चन्द्रमा। २. महादेव। शिव। ३. कुक्कुट। मुरगा। ४. कपूर।
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निशा-केतु  : पुं० [सं० ष० त०] चन्द्रमा।
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निशाखातिर  : स्त्री० [फा० निशा+अ० खातिर] किसी काम या बात के संबंध में मन में होनेवाला वह पूरा विश्वास जो किसी दूसरे के समझाने पर उत्पन्न होता है।
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निशाख्या  : स्त्री० [सं० निशा-आख्या, ब० स०] हलदी।
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निशा-गृह  : पुं० [सं० मध्य० स०] शयनागार।
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निशाचर  : वि० [सं० निशा√चर्(गति)+ट] रात के समय चलने या विचरण करनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. गीदड़। ३. उल्लू। ४. साँप। ५. चकवा-पक्षी। चक्रवाक। ६. भूत, प्रेत आदि। ७. चोर। ८. महादेव। शिव। ९. चनेर नामक गंध-द्रव्य। १॰. बिल्ली। ११. एक प्रकार की ग्रंथिपर्णी या गठिवन।
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निशाचर-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. रावण। २. शिव।
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निशाचरी  : वि० [सं० निशाचर+ङीष्] १. निशाचर-संबंधी। निशाचर का। जैसे–निशाचरी माया। २. निशाचरों की तरह का। स्त्री० १. राक्षसी। २. कुलटा या व्यभिचारिणी। ३. अभिसारिका। नायिका। ४. केशिनी नामक गंध-द्रव्य।
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निशा-चर्म  : पुं० [सं० स० त०] अंधकार। अंधेरा।
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निशा-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. हिम। पाला। २. ओस।
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निशाट  : पुं० [सं० निशा√अट् (भ्रमण)+अच्] १. उल्लू। २. निशाचर।
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निशाटक  : पुं० [सं० निशा√अट्+ण्वुल्–अक] गूगल।
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निशाटन  : वि० [सं० निशा√अट्+ल्यु–अन] रात्रि को चलनेवाला। निशाचर। पुं० उल्लू।
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निशात  : वि० [सं० नि√शो (तेज करना)+क्त] १. सान पर चढ़ाकर तेज किया हुआ। २. ओर आदि लगाकर चमकाया हुआ। वि० [फा० नशात] १. आनंद। सुख। २. सुखभोग।
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निशातिक्रम, निशात्मय  : पुं० [सं० निशा-अतिक्रम, निशा-अत्यय, ष० त०] १. रात का बीतना। २. प्रातःकाल।
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निशाद  : वि० [सं० निशा√अद् (खाना)+अच्] रात को खानेवाला। पुं० निषाद। (दे०)
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निशादि  : वि० [सं० निशा-आदि, ब० स० या ष० त०] सायं। संध्या।
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निशान  : पुं० [फा०] १. चिह्न। लक्षण। २. ऐसा प्राकृत या आकस्मिक चिह्न या लक्षण जिससे कोई चीज पहचानी जाय या जिससे किसी घटना या बात का परिचय, प्रमाण या सूत्र मिले। ३. मोहर आदि की छाप। ४. झंडा या पताका जिससे किसी संप्रदाय, राज्य आदि की पहचान होती है। ५. प्राचीन काल में वह झंडा जो राजाओं की सवारियों के आगे चलता था। ६. कलंक। धब्बा। ७. वह चिह्न जो लेख्यों आदि पर अशिक्षित लोग अपने हस्ताक्षर के बदले बनाते हैं। जैसे–अगूँठे का निशान। ८. पता। ठिकाना। मुहा०–निशान-देना=सम्मान आदि तामील करने के लिए यह बताना कि यही असामी है। ९. निशाना। १॰. दे० ‘निशानी’।
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निशान-कोना  : पुं० [सं० ईशान+हिं० कोना] उत्तर और पूर्व का कोण।
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निशानची  : वि० [फा०] १. बढ़िया निशाना लगानेवाला। पुं० जुलूस या राजा आदि की सवारी के आगे-आगे झंडा लेकर चलनेवाला व्यक्ति।
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निशान-देही  : स्त्री० [फा० निशाँ देही] १. किसी का पता-ठिकाना बतलाना। २. न्यायालय के सम्मन आदि की तामील के लिए चपरासी के साथ जाकर यह बतलाना कि यही वह आदमी है जिसे सम्मन दिया जाना चाहिए। प्रतिवादी की पहचान कराना।
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निशान-पट्टी  : स्त्री० [फा० निशान+हिं० पट्टी] १. चेहरे की गठन और रूप रंग का वर्णन। हुलिया।
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निशान-बरदार  : पुं० [फा०] झंडा हाथ में लेकर जुलूस, सवारी आदि के आगे चलनेवाला व्यक्ति।
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निशाना  : पुं० [फा० निशानः] १. वह वस्तु या बिंदु जिस पर शस्त्र से आघात किया जाय। क्रि० प्र०–करना।–बनाना। २. किसी पदार्थ को लक्ष्य बनाकर उसकी ओर किसी प्रकार का वार करने की क्रिया। वार। मुहा०–निशाना बाँधना=निशाना साधना। (देखें नीचे) निशाना मारना या लगाना=(क) ठीक लक्ष्य पर वार करना। (ख) ठीक लक्ष्य पर वार करने का अभ्यास करना। ३. मिट्टी आदि का वह ढेर या और कोई पदार्थ, जिस पर निशाना साधा जाय ४. वह जिसे लक्ष्य बनाकर कोई उग्र या विकट आघात या क्रिया की जाय। जैसे–किसी की नजर का निशाना, किसी के ताने या व्यंग्य का निशाना।
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निशा-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. चंद्रमा। ३. कपूर।
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निशानी  : स्त्री० [फा०] १. वह चीज जो किसी घटना या व्यक्ति का स्मरण करनेवाली हो। स्मृति-चिह्न। यादगार। जैसे–(क) यही लड़का भाई साहब की निशानी है। (ख) विधवा के पास यही अँगूठी उसके पति की निशानी बच रही है। क्रि० प्र०–देना।–रखना। २. पहचान का चिह्न। निशान।
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निशा-पति  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशा-पुत्र  : पुं० [ष० त०] नक्षत्र आदि आकाशीय पिंड।
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निशापुष्प  : पुं० [सं० निशा√पुष्प् (खिलना)+अच्] कुमुदनी। कोई।
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निशा-बल  : पुं० [ब० स०] मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धन और मकर ये छः राशियाँ जो रात के समय अधिक बलवती मानी जाती हैं। (फलित ज्योतिष)
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निशा-भंगा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] दुग्धपुच्छी नामक पौधा।
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निशा-मणि  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशामन  : पुं० [सं० नि√शम् (शांति)+णिच्+ल्युट्–अन] १. दर्शन। देखना। २. आलोचना। ३. श्रवण। सुनना।
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निशा-मुख  : पुं० [ष० त०] संध्या काल।
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निशा-मृग  : पुं० [मध्य० स०] गीदड़। श्रृगाल।
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निशा-रत्न  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशा-रुक  : पुं० दे० ‘निशासक’।
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निशा-वन  : पुं० [ब० स०] सन का पौधा।
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निशावसान  : पुं० [निशा-अवसान, ष० त०] निशा के समाप्त होने का समय। प्रभात का समय।
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निशा-विहार  : पुं० [ब० स०] राक्षस।
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निशासक  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का रूपक ताल जिसमें दो लघु और दो गुरु मात्राएँ होती हैं।
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निशास्ता  : पुं० [फा० नशास्तः] १. गेहूँ का सार। २. कपड़ों में लगाया जानेवाला कलफ या माड़ी।
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निशाहस  : पुं० [सं० निशा√हस् (हँसना)+अच्] कुमुदनी।
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निशा-हासा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] शेफालिका।
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निशाह्वा  : स्त्री० [सं० निंशा-आह्वा, ब० स०, टाप्] १. हलदी। २. जतुका नामक लता।
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निशि  : स्त्री० [सं० नि√शो+इन् ?] १. रात्रि। रात। २. स्वप्न। ३. हलदी। ४. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण और एक लघु होता है।
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निशिकर  : पुं० [सं० निशि √कृ०+ट] १. चंद्रमा। शशि।
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निशिचर  : पुं० [सं० निशि√चर् (गति)+ट]=निशाचर।
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निशिचर-राज  : पुं० [सं० ष० त०] राक्षसों का राजा, विभीषण।
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निशित  : वि० [सं० नि√शो (तीक्ष्ण करना)+क्त] जो सानपर चढ़ा हो अर्थात् चोखा या तेज। पुं० लोहा।
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निशिता  : स्त्री० [सं० निशित्+टाप्] रात्रि। निशा। रात।
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निशिदिन  : अव्य० [सं० निशि+दिन] १. रात-दिन। २. सदा। सर्वदा।
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निशिनाथ  : पुं०=निशानाथ।
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निशि-नायक  : पुं०=निशिनाथ (चंद्रमा)।
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निशि-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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निशिपाल  : पुं० [सं० निशि√पाल् (बचाना)+णिच्+अच्] १. चंद्रमा। २. एक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः भगण, जगण, नगण और रगण होते हैं।
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निशि-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०] शेफालिका।
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निशिपुष्पिका, निशिपुष्पी  : स्त्री० [ब० स०, कप्, टाप्, इत्व; ब० स०, ङीष्] शेफालिका।
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निशि-वासर  : अव्य० [द्व० स०] १. रात-दिन। २. सदा। सर्वदा।
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निशीत  : पुं०=निशीथ।
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निशीय  : पुं० सं० नि√शी (सोना)+थक्] १. रात०। २. आधी रात। ३. पुराणानुसार रात्रि का एक कल्पित पुत्र। ४. छाल या रेशे से बना हुआ कपड़ा।
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निशीथ-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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निशीथ्या  : स्त्री० [सं०] रात्रि।
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निशुंभ  : पुं० [सं० नि√शुम्भ (हिंसा)+घञ्] १. वध। २. हिंसा। दनु का पुत्र एक राक्षस जिसका वध दुर्गा ने किया था। (पुराण)
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निशुंभन  : पुं० [सं० नि√शुम्भ +ल्युट्–अन] मार डालना। वध करना।
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निशुंभ-मर्दिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्गा।
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निशुंभी (मिन्)  : पुं० [सं० निशुंभ=मोहनाश+इनि] एक बुद्ध का नाम।
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निशेश  : पुं० [सं० निशा-ईश, ष० त०] निशा के पति, चंद्रमा। वि०=निःशेष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निशैत  : पुं० [सं० निशा-एत=(गमन), ब० स०] बगुला।
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निशोत्सर्ग  : पुं० [सं० निशा-उत्सर्ग, ष० त०] प्रभात।
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निश्कुल  : वि० दे० ‘निष्कुल’।
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निश्चक्रिक  : वि० [सं०] छल-छद्म से रहित, फलतः ईमानदार या सच्चा।
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निश्चक्षु  : वि० [सं० निर्-चक्षुस्, ब० स०] नेत्रहीन। अंधा।
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निश्चंद्र  : वि० [सं० निर्-चंद्र, ब०स०] १. चंद्रमा रहित। २. जिसमें आभा या चमक न हो। फीका।
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निश्चय  : पुं० [सं० निर्√चि (चयन)+अप्] १. कोई कार्य करने का अंतिम निर्णय या संकल्प करना। ३. इस प्रकार ठीक की हुई बात या प्रस्ताव। (रिजोल्यूशन) ३. निर्णय। ४. एक अर्थालंकार जिसमें एक बात का निषेध करके प्रकृत या यथार्थ बात के स्थापन का उल्लेख होता है। (सर्टेन्टी) ५. विश्वास। अव्य० निश्चित रूप से। अवश्य।
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निश्चयात्मक  : वि० [सं० निश्चय-आत्मन्, ब० स०, कप्] [भाव० निश्चयात्मकता] निश्चय के रूप में होने वाला।
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निश्चर  : पुं० [सं०] एकादश मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। पुं०=निशाचर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निश्चयेन  : अव्य० [सं० निश्चय का विभक्त्यन्त रूप] निश्चत रूप से। निश्चयपूर्वक।
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निश्चल  : वि० [सं० निर्√चल (गति)+अच्] [भाव० निश्चलता] १. जो अपने स्थान से जरा भी इधर-उधर चलता या हिलता-डोलता न हो। अचल। स्थिर। २. अपरिवर्तनशील।
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निश्चलता  : स्त्री० [सं० निश्चल+तल्+टाप्] निश्चल होने की अवस्था या भाव।
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निश्चलांग  : वि [सं० निश्चल-अंग, ब० स०] जिसके अंग हिलते-डुलते न हों। सदा अचल या स्थिर रहनेवाला। पुं० १. पवत। २. बगुला।
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निश्चायक  : वि० [सं० निर्√चि+ण्वुल्–अक] १. एक रोग जिसमें बहुत दस्त आते हैं। २. वायु। हवा।
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निश्चिंत  : वि० [सं० निर्-चिन्ता, ब० स०] [भाव० निश्चिंतता] (व्यक्ति) जिसे कोई चिंता न हो। बेफिक्र।
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निश्चिंतता  : स्त्री० [सं० निश्चिंत+तल्+टाप्] निश्चिंत होने की अवस्था या भाव। बे-फिक्री।
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निश्चित  : भू. कृ० [सं० निर्√चि+क्त] १. (बात या प्रस्ताव) जिसके संबंध में निश्चय हो चुका हो। २. जो अटल या स्थिर हो। ३. जो यथार्थ या सत्य हो। ४. जिसमें कोई परिवर्तन न हो सके।
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निश्चितई  : स्त्री०=निश्चिंतता।
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निश्चिति  : स्त्री० [सं० निर्√चि+क्तिन्] १. निश्चित करने की क्रिया या भाव। २. निश्चय।
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निश्चिरा  : स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी। (महाभारत)
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निश्चिला  : स्त्री० [सं०] १. शालपर्णी। २. पृथ्वी। ३. पुराणानुसार एक नदी।
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निश्चिवकण  : पुं० [सं० निर्-चुक्कण, ब० स०] मिस्सी।
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निश्चेतन  : वि० [सं० निर्-चेतन, ब० स०] चेतना या संज्ञा रहित। पुं० चेतना से रहित करना।
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निश्चेष्ट  : वि० [सं० निर्-चेष्टा, ब० स०] जो चेष्टा न करता हो या न कर रहा हो।
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निश्चेष्ट-करण  : पुं० [ष० त०] १. निश्चेष्ट करने की क्रिया या भाव। २. कामदेव का एक वाण। ३. वैद्यक में, एक प्रकार का औषध।
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निश्चेष्टीकरण  : पुं० [सं० निश्चेष्ट+च्वि, ईत्व √कृ+ल्युट्–अन]=निश्चेष्ट-करण।
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निश्चै  : पुं० अव्य०=निश्चय।
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निश्चयवन  : पुं० [सं०] १. वैवस्त मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम (पुराण)। २. एक प्रकार की अग्नि। (महाभारत)
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निश्छंद (स्)  : वि० [सं० निर-छंदस्, ब० स०] जिसने वेद न पढ़ा हो।
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निश्चल  : वि० [सं० निर-छल, ब० स०] १. (व्यक्ति) छल-कपट से रहित। २. (हृदय) जिसमें छल-कपट न भरा हो।
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निश्छाय  : वि० [सं० निर-छाया, ब० स०] छाया रहित।
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निश्छेद  : पुं० [सं० निर-छेद, ब० स०] गणित में वह राशि, जिसका किसी गुणक के द्वारा भाग न दिया जा सके। अविभाज्य।
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निश्रम  : पुं० [सं० निःश्रम] न थकना।
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निश्रयणी  : स्त्री० [सं० निःश्रयणी] सीढ़ी।
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निश्रीक  : पुं० [सं० निःश्रीक] सीढ़ी।
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निश्रेणिका तृण  : पुं० [सं० निःश्रेणिकातृण] एक तरह की घास, जिसके खाने से पशु निर्बल हो जाते हैं।
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निश्रेणी  : स्त्री० [सं० निःश्रेणी] १. सीढ़ी। जीना। २. वह साधन जिसके द्वारा एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक पहुँचा जाय। ३. मुक्ति। ४. खजूर का पेड़।
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निश्रेयस  : पुं० [सं० निःश्रेयस्] १. दुःख का अत्यन्त अभाव। २. मोक्ष। ३. कल्याण। मंगल।
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निश्वास  : पुं० [सं० निःश्वास] १. अन्दर खींचा हुआ साँस बाहर निकालना या छोड़ना। २. नाक या मुंह से बाहर निकलनेवाला श्वास। ३. गहरी या ठंढा साँस।
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निश्शंक  : वि०=निःशंक।
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निश्शक्त  : वि०=निःशक्त।
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निश्शर  : वि० [सं० निःशर] शर या वाण से रहित।
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निश्शील  : वि० [सं० निःशील] [भाव० निश्शीलता] १. जिसका शील या स्वभाव अच्छा न हो। २. जिसमें शील या संकोच न हो। बे-मुरौवत।
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निश्शेष  : वि०=निःशेष।
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निषंग  : पुं० [सं० नि√सञ्ज् (लगाव)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला आसंग या आसक्ति। लगाव। २. तरकश. ३. खड्ग। तलवार। ४. पुरानी चाल का एक तरह का बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था।
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निषंगथि  : वि० [सं० नि√सञ्ज्+घथिन्] १. आलिंगन करने या गले लगानेवाला। २. धनुष धारण करनेवाला। पुं० १. आलिंगन। २. रथ। ३. सारथी। ४. कंधा।
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निषंगी (गिन्)  : वि० [सं० निषंग+इनि] १. जो किसी पर आसक्त हो। २. धनुषधारी। तीर चलानेवाला। ३. खड्गधारी। पुं० धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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निष  : अव्य०=तनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निषक-पुत्र  : पुं० [सं०] असुर। राक्षस।
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निषकर्श  : पुं० [सं०] संगीत में स्वर साधन की एक प्रणाली जिसमें प्रत्येक स्वर का आलाप दो-दो बार करना पड़ता है।
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निषक्त  : वि० [सं० नि√सञ्ज+क्त] जो किसी पर विशेष रूप से आसक्त हो।
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निषण्ण  : वि० [सं० नि√सद् (बैठना)+क्त] १. बैठा हुआ। २. आश्रित।
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निषण्णक  : पुं० [सं० निषण्ण+कन्] १. बैठने की जगह। २. आसन।
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निषत्र  : पुं०=नक्षत्र।
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निषद्  : स्त्री० [सं० नि√सद्+क्विप्] यज्ञ की दीक्षा।
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निषद  : पुं०=निषाद (स्वर)।
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निषद्या  : स्त्री० [सं० नि√सद्+कप्–टाप्] १. बैठने की छोटी चौकी या खाट। २. व्यापारी की दूकान की गद्दी। ३. बाजार। हाट।
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निषद्यापरीषत्  : पुं० [सं०] जैन भिक्षुओं का एक आचार जिसमें ऐसे स्थान पर रहना वर्जित है, जहाँ स्त्रियाँ और हिजड़े आते-जाते हों, और यदि वहाँ रहना ही पड़े, तो चित्त को चंचल न होने देना।
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निषद्वर  : पुं० [सं० नि√सद्+ष्वरच्] १. कीचड़। २. कामदेव।
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निषद्वरी  : स्त्री० [सं० निषद्वर+ङीष्] रात्रि।
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निषध  : वि० [सं०] १. पुराणानुसार एक पर्वत। २. कुश के एक पौत्र का नाम २. जनमेजय का एक पुत्र। ४. कुरु का एक पुत्र। ५. विन्ध्य की पहाड़ियों पर का एक प्राचीन देश, जहां राजा नल राज करते थे। ६. निषाद (स्वर)।
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निषधाभास  : पुं० [सं०] ‘आक्षेप’ अलंकार के ५ भेदों में से एक।
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निषधावती  : स्त्री० [सं०] विंध्य पर्वत से निकलनेवाली एक प्राचीन नदी (मारकण्डेय पुराण)।
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निषधाश्व  : पुं० [सं०] कुरु का एक पुत्र।
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निषाद  : पुं० [सं० नि√सद्+घञ्] १. एक प्राचीन अनार्य जंगली जाति, अथवा उक्त जाति का कोई व्यक्ति। २. श्रृंगबेरपुर के पास का एक प्राचीन देश। विशेष–निषाद जाति के लोग मूलतः इसी प्रदेश के निवासी माने गये हैं, और इनकी भाषा की गिनती मुंडा भाषाओं के वर्ग में होती है। ३. नीच जाति का व्यक्ति। ४. ऐसा व्यक्ति जो शूद्रा माता और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न हुआ हो। ५. संगीत में, सरगम का सातवाँ स्वर, जो अन्य सब स्वरों से ऊंचा होता है इसका संक्षिप्त रूप ‘नि’ है। विशेष–यह हाथी के स्वर के समान गंभीर और ललाट से उच्चरित होनेवाला स्वर माना जाता है। यह वैश्य जाति, विचित्र वर्ण का और गणेश के स्वरूपवाला कहा गया है। इसका देवता सूर्य और छंद जगती है। यह उग्रा और क्षोभिणी नाम की दो श्रुतियों के योग से बना है।
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निषादकर्षु  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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निषाद-प्रिय  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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निषादित  : भू० कृ० [सं०√सद्+णिच्+क्त] १. बैठाया हुआ। २. पीड़ित।
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निषादी (दिन्)  : वि० [सं० नि√सद्+णिनि] १. बैठनेवाला। २. जो आराम कर रहा या सुस्ता रहा हो। पुं० महावत। हाथीवान्।
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निषिक्त  : भू० कृ० [सं० नि√सिच् (छिड़कना)+क्त] १. (स्थान) जिस पर जल छिड़का गया हो। २. (खेत) जो सींचा गया हो। ३. भीतर पहुँचाया हुआ। ४. जिसके अंदर या गर्भ में कोई चीज पहुंचाई गयी हो। पुं० वीर्य से उत्पन्न गर्भ।
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निषिद्ध  : भू० कृ० [सं० नि√सिध (गति)+क्त] [भाव० निषिद्ध] १. जिसे उपयोग, प्रयोग या व्यवहार में लाने का निषेध किया गया हो। २. रोका हुआ। ३. बहुत ही बुरा और परम त्याज्य।
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निषिद्धि  : स्त्री० [सं० नि√सिध्+क्तिन्] १. निषिद्द होने की अवस्था या भाव। २. निषेध।
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निषूदन  : वि० [सं० नि√सूद् (वध करना)+णिच्+ल्युट्–अन] समस्त पदों के अंत में, मारने या वध करनेवाला। जैसे–अरिनिषूदन।
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निषेक  : पुं० [सं० नि√सिच् (सींचना)+घञ्] [वि० निषिक्त ] १. जल छिड़कने या जल से सिंचाई करने की क्रिया या भाव। २. चूने, टपकने या रसने की क्रिया या भाव। ३. वीर्य। ४. गर्भ धारण कराना। ५. किसी के अंदर कोई चीज या शक्ति भरना। ६. इस प्रकार भरी हुई वस्तु या शक्ति। (इम्प्रेगनेशन)
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निषेचन  : पुं० [सं० नि√सिच्+णिच्+ल्युट्–अन] १. छिड़कना। सींचना।
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निषेध  : पुं० [सं० नि√सिध्+घञ्] १. अधिकारपूर्वक और कारणवश यह कहना कि ऐसा मत करो। मना करने की क्रिया या भाव। मनाही। (फारबिंडिग) २. वह कथन या आज्ञा जिसमें कोई बात न मानी गई हो या न किये जाने का विधान हो। (नेगेशन) ३. अपवाद। ४. अडचन। बाधा। रुकावट। ५. अस्वीकृति। इन्कार।
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निषेधक  : पुं० [सं० नि√सिध्+ल्युट्–अक] १. (व्यक्ति) निषेध या मनाही करनेवाला। २. (आज्ञा या कथन) जिसके द्वारा निषेध या मनाही की जाय। ३. बाधक।
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निषेधन  : पुं० [सं० नि√सिध्+ल्युट्–अन] निषेध करने की क्रिया या भाव।
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निषेध-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी को कोई काम न करने के लिए आदेश दिया गया हो।
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निषेध-विधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह आज्ञा, कथन या बात, जिसमें किसी काम का निषेध किया जाय। जैसे–यह काम नहीं करना चाहिए। यह निषेध-विधि है।
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निषेधाक्षेप  : पुं० [सं० निषेध-आक्षेप, ब० स०] साहित्य में आक्षेप अलंकार के तीन भेदों में से एक, जिसमें कोई बात इस ढंग से मना की जाती है कि ध्वनि से उसे करने का विधान सूचित होता है।
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निषेधात्मक  : वि० [सं० निषेध-आत्मन्, ब० स०+कप्] १. (कथन या विधान) जो निषेध के रूप में हो। २. दे० नहिक।
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निषेधाधिकार  : पुं० [सं० निषेध-अधिकार, ष० त०] १. ऐसा अधिकार जिससे किसी को कोई काम करने से रोका जा सके। २. राज्य, संस्था आदि के प्रधान के हाथ में होनेवाला वह अधिकार, जिससे वह विधायिका सभा द्वारा पारित-प्रस्ताव को कानून या विधि बनने से रोक सकता है। ३. किसी संस्था के सदस्यों के हाथ में रहनेवाला उक्त प्रकार का वह अधिकार जिससे कोई स्वीकृत प्रस्ताव व्यवहार में आने से रोका जा सकता है। (वीटो)
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निषेधित  : भू० कृ० [सं० नि√सिध्+णिच्+क्त] जिसके या जिसके लिए निषेध किया गया हो। मना किया हुआ।
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निषेवण  : पुं० [सं० नि√सेव् (सेवा)+ल्युट्–अन, णत्व] १. सेवा करना। २. आराधन या पूजा करना। ३. अनुष्ठान। ४. प्रयोग या व्यवहार में लाना। ५. बसना। रहना।
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निषेवा  : स्त्री० [सं० नि√सेव्+अङ-टाप्,इत्व]=सेवा।
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निषेवित  : भू० कृ० [सं० नि√सेव्+क्त, षत्व] जिसका निषेवण हुआ हो।
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निषेवी (विन्)  : वि० [सं० नि√सेव+णिनि] [स्त्री० निषेविनी] १. निषेवण करनेवाला। २. सेवक। ३. आराधक।
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निषेव्य  : वि० [सं० नि√सेव्+ण्यत्] जिसका निवेषण या सेवन करना उचित हो या किया जाने को हो। सेवनीय।
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निष्कंटक  : वि० [सं० निर्-कंटक, ब० स०] १. जिसके काँटे न हों। २. जिसमें कोई बाधा या बखेड़ा न हो। ३. (राज्य) जिसमें शासक का कोई वैरी या शत्रु न हो। अव्य० १. बिना किसी प्रकार की बाधा या रुकावट के। २. बिना किसी प्रकार के वैर या शत्रुता की संभावना के। बेखटके।
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निष्कंठ  : पुं० [सं० निर्-कंठ, ब० स०] वरुण (पेड़)।
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निष्कंप  : वि० [सं० निर-कंप, ब० स०] जिसमें कंपन न हो रहा हो। जो काँप न रहा हो; फलतः स्थिर।
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निष्कंभ  : पुं० [सं०] गरुड़ के एक पुत्र।
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निष्कुंभ  : पुं० [सं०] देवताओं के एक सेनापति। (पुराण)।
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निष्क  : पुं० [सं० निस्√कै (शोभा)+क] १. वैदिक काल का एक प्रकार का सोने का सिक्का जिसका मान समय-समय पर घटता-बड़ता रहता था। फिर भी साधारणतः यह १६ माशे का माना जाता था। २. उक्त सिक्के के बराबर की तौल। ३. सोना। ४. सोने का पात्र या बरतन। ५. चांडाल।
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निष्कपट  : वि० [सं० निर्-कपट, ब० स०] [भाव० निष्कपटता] कपट-रहित।
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निष्कपटी  : वि० [सं० निष्कपट] कपट-रहित।
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निष्कर  : वि० [सं० निर्-कर्, ब० स०] जिस पर कर या शुल्क न लगता हो। स्त्री० भूमि जिस पर कर न लगता हो। माफी।
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निष्करुण  : वि० [सं० निर-करुण, ब० स०] जिसके हृदय में या जिसमें करुणा न हो। करुणा-रहित।
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निष्कर्तन  : पुं० [सं० निर्√कृत् (काटना)+ल्युट्–अन] काट या फाड़ कर अलग करना।
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निष्कर्म  : वि० [सं० निर्-कर्मन्, ब० स०] १. जो कोई कर्म न करता हो। २. जो कर्म करने पर भी उसमें आसक्ति न रखता हो या लिप्त न होता हो। अकर्मा।
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निष्कर्मण्य  : वि० [सं० निर्-कर्मण्य, प्रा० स०] अकर्मण्य। निकम्मा।
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निष्कर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० निर-कर्मन्, ब० स०] १. जो कर्मों में लिप्त न हो। २. जो किसी काम का न हो। निकम्मा।
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निष्कर्ष  : पुं० [सं० निस्√कृष् (खींचना)+घञ्] १. खींचकर निकालना या बाहर करना। २. खींच या निकालकर बाहर की हुई चीज या तत्त्व। ३. विचार-विमर्श, सोच-विचार आदि के उपरांत निकलनेवाला परिणाम या स्थिर होनेवाला सिद्धांत। (कन्क्लूजन) ४. निश्चय। ५. इस बात का विचार कि कोई चीज कितनी या कैसी है। ६. राजा या शासन का प्रजा को कष्ट देते हुए उससे धन खींचना या लेना।
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निष्कर्षक  : वि० [सं० निस्√कृष्+ण्वुल्–अक] निष्कर्ष या निष्कर्षण करनेवाला।
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निष्कर्षण  : पुं० [सं० निस्√कृष्+ल्युट्–अन] १. खींचकर निकालना या बाहर करना। २. दूर करना। ३. मिटाना। ४. घटाना।
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निष्कर्षी (र्षिन्)  : पुं० [सं० निस्√कृष्+णिनि] एक प्रकार का मरुत्। वि०=निष्कर्ष।
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निष्कलंक  : वि० [सं० निर्-कलंक, ब० स०] जिस पर या जिसमें कलंक न हो। पुं० पुराणानुसार एक तीर्थ जिसमें स्नान करने से कलंक या दोष नष्ट हो जाते हैं।
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निष्कलंकित  : वि०=निष्कलंक।
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निष्कलंकी  : वि०=निष्कलंक।
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निष्कल  : वि० [सं० निर्-कला, ब० स०] [स्त्री० निष्कला] १. (व्यक्ति) जो कोई कला या हुनर न जानता हो। २. (कार्य) जो कलापूर्ण ढंग से न किया गया हो। ३. अंगहीन। ४. जिसका वीर्य नष्ट रहो चुका हो। जैसे–नपुंसक या वृद्ध। ४. पूरा। समूचा। पुं० ब्रह्म।
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निष्कला  : स्त्री० [सं० निष्कल+टाप्] ऐसी स्त्री जिसे मासिक धर्म होना बंद हो गया हो।
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निष्कली  : स्त्री० [सं० निष्कल+ङीष् ]=निष्कला।
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निष्कलुष  : वि० [सं० निर्-कलुष, ब० स०] कलुष-रहित। निर्मल या पवित्र।
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निष्कषाय  : वि० [सं० निर्-कषाय, ब० स०] १. विशुद्ध चित्तवाला। २. मुमुक्षु। पुं० एक जिन देव।
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निष्काम  : वि० [सं० निर्-काम, ब० स०] [भाव० निष्कामता] १. (व्यक्ति) जिसके मन में कामनाएं या वासनाएँ न हों, फलतः जो सब बातों से निर्लिप्त रहता हो। २. (कार्य) जो बिना किसी प्रकार की कामना के किया जाय।
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निष्कामी  : वि०=निष्काम (व्यक्ति)।
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निष्कारण  : वि० [सं० निर्-कारण,ब० स०] जिसका कोई कारण या सबब न हो। अव्य० १.बिना किसी कारण या वजह के। २. व्यर्थ। पुं० १. कहीं ले जाना या हटाना। २. मारण। वध।
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निष्कालक  : वि० [सं० निर्√कल् (गति)+णिच्+ण्वुल्–अक] जिसके बाल, रोएँ आदि मूँड़े गये हों।
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निष्कालन  : पुं० [सं० निर्√कल्+णिच्+ल्युट्–अन ] १. चलाने की क्रिया या भाव। २. पशुओं आदि को निकालना या भगाना। ३. मार डालना। वध।
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निष्कालिक  : वि० [सं० निर्-कालिक, प्रा० स०] १. जो कुछ ही दिन और जीने को हो। २. जिसका अंत निकट हो.। ३. अजेय।
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निष्काश  : पुं० [सं० निर्√काश् (शोभित होना)+अच्] १. किसी पदार्थ का बाहर निकला हुआ भाग। (प्रोजेक्शन) जैसे–मकान का बरामदा।
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निष्काशन  : पुं०=निष्कासन। (दे०)
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निष्काशित  : भू० कृ०=निष्कासित।
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निष्काष  : पुं० [सं० निर्√कष् (खरोचना)+घञ्] दूध का वह भाग जो उसके अधिक औटायो जाने के कारण बरतन में ही लगकर रह गया हो किन्तु खुरचकर निकाला जाय।
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निष्कास  : पुं० [सं० निर्√कास् (खाँसना)+घञ्] १. बाहर निकालने की क्रिया या भाव। २. किसी पदार्थ का आगे या बाहर निकला हुआ भाग। ३. वह अंश या स्थान जहाँ से कोई चीज बाहर निकलकर आगे जाती हो। (आउट-फॉल)
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निष्कासन  : पुं० [सं० निर्√कास्+ल्युट्–अन] १. किसी क्षेत्र या स्थान में निवास करनेवाले व्यक्ति को वहाँ से स्थायी रूप से और अधिकार या बल पूर्वक बाहर करना। २. किसी कर्मचारी को उसके पद से हटाना और उसे नौकरी से छुटाना। ३. देश से बाहर निकाले जाने का दंड।
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निष्कासित  : भू० कृ० [सं० निर्√कास्+क्त] जिसका निष्कासन हुआ हो। किसी क्षेत्र, पद, स्थान आदि से निकाला या हटाया हुआ।
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निष्कासिनी  : स्त्री० [सं० निर्√कास्+णिनि+ङीष्] वह दासी जिस पर स्वामी ने कोई प्रतिबंध न लगाया हो।
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निष्किंचन  : वि० [सं० निर्-किञ्चन,ब० स०] जिसके पास कुछ भी न हो। अकिंचन। दरिद्र।
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निष्किल्विष  : वि० [सं० निर्-किल्विष, ब० स०] किल्विष (दोष या पाप) से रहित।
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निष्कीटक  : वि० [सं० निर्-कीट, ब० स०] १. कीटाणुओं आदि से रहित। २. कीटाणुओं का नाश करनेवाला। पुं० वह प्रक्रिया या यंत्र जिसकी सहायता से कीटाणु नष्ट किये जाते हों। (स्टार्लाईजर)
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निष्कीटण  : पुं० [सं० निष्कीट+णिच्+ल्युट्–अन] १. किसी वस्तु को तपाकर अथवा रासायनिक प्रक्रियाओं से कीटों या कीटाणुओं से रहित करना। २. उत्पादन करनेवाले कीटाणु नष्ट करके अनुर्वर, नपुंसक या बाँझ करना। (स्टर्लाइजे़शन)
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निष्कीटित  : भू० कृ० [सं० निष्कीट+णिच्+क्त] जो कीटाणुओं से रहित किया गया हो। (स्टर्लाइज्ड)
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निष्कुंभ  : वि० [सं० निर्-कुंभ, ब० स०] कुंभ रहित। पुं० [निस्√कुट् (टेढ़ा होना)+क] दंती वृक्ष।
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निष्कुट  : पुं० [सं० निस्√कुट् (टेढ़ा होना)+क] १. घर के पास का उद्यान। नजर-बाग। २. खेत। ३. किवाड़ा। दरवाजा। ४. अंतःपुर। जनानखाना। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. खोखला वृक्ष।
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निष्कुटि  : स्त्री० [सं० निस्√कुट्+इन्] बड़ी इलायची।
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निष्कुल  : वि० [सं० निर्-कुल, ब० स०] [स्त्री० निष्कुला] १. जिसके कुल में कोई न रह गया हो। २. जो अपने किसी दोष या पाप के कारण अपने कुल या परिवार से अलग कर दिया या निकाल दिया गया हो।
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निष्कुलीन  : वि० [सं० निर्-कुलीन, प्रा० स०]अ-कुलीन।
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निष्कुषित  : भू० कृ० [सं० निस्√कुष् (खींचना)+क्त] १. छीला हुआ। २. जिसकी खाल उतार ली गई हो। ३. जहाँ-तहाँ काटा या खाया हुआ। (जैसे–कीटनिष्कुषित) कुरचकर निकाला हुआ। ४. निष्कासित।
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निष्कुह  : पुं० [सं० निर्√कुह (विस्मित करना)+अच्] पेड़ का खोखला अंश। कोटर। खोंड़रा।
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निष्कूज  : वि० [सं० निर्-कूज्, ब० स०] ध्वनि या शब्द से रहित।
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निष्कूट  : वि०[सं० निर्-कूट, ब० स०] कूट या छल कपट से रहित।
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निष्कृत  : भू० कृ० [सं० निर्√कृष् (खींचना)+क्त] [भाव० निष्कृति] १. हटाया हुआ। २. मुक्त। ३. उपेक्षित। तिरस्कृत। ४. जिसे क्षमा मिली हो। पुं० १. मिलन-स्थान। २.प्रायश्चित।
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निष्कृति  : स्त्री० [सं० निर्√कृष्+क्तिन्] १. हराने की क्रिया या भाव। २. छुटकारा। मुक्ति। ३. उपेक्षा। तिरस्कार। ४. क्षमा। ५. प्रायश्चित।
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निष्कृति-धन  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह धन जो किसी को अपने वश में से निकालकर मुक्त करने के बदले में अथवा किसी को किसी के वश से मुक्त कराने के बदले में लिया या दिया जाय। (रैन्सम)
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निष्कृप  : वि० [सं० निर्-कृपा, ब० स०] १. दूसरों पर न कृपा करनेवाला। २. तेज। धारदार।
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निष्कृष्ट  : वि० [सं० निर्√कृष्+क्त] १. निचोड़कर निकाला हुआ। २. सारभूत।
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निष्कैतव  : वि० [सं०] निश्छल।
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निष्कैवल्य  : वि० [सं० निर्-कैवल्य, ब० स०] १. विशुद्ध। २. पूर्ण। ३. मोक्ष-रहित।
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निष्कोपण  : पुं० [सं० निर्√कुष् (छीलना)+ल्युट्-अन] १. छीलना। २. शरीर पर से खाल उतारना। ३. काट या फाड़कर छिन्न-भिन्न या नष्ट-भ्रष्ट करना। ४. खुरचना। ५. निष्कासन।
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निष्क्रम  : वि० [सं० निर्-क्रम्, ब० स०] क्रमहीन। बे-तरतीब। पुं० १. मन की तृप्ति। किसी को जाति से बाहर निकालना। ३. दे० ‘निष्क्रमण’।
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निष्क्रमण  : पुं० [सं० निर्√क्रम् (गति)+ल्युट्-अन] [वि० निष्क्रांत] १. बाहर निकालना। २. हिन्दुओं में एक संस्कार जिसमें चार महीने के शिशुओं को पहले-पहल घर से बाहर निकालकर सूर्य के दर्शन कराते हैं।
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निष्क्रमणार्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० निष्क्रमण-अर्थिन्, ष० त०] १. कहीं से निकलने की इच्छा रखनेवाला। २. दे० ‘निष्क्रमिती’।
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निष्क्रमणिका  : स्त्री० [सं०] हिन्दुओं का निष्क्रमण नामक संस्कार।
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निष्क्रमिती  : पुं० [सं० निष्क्रमी] वह जो किसी संकट आदि से बचने के लिए अपना निवास स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाय या जाना चाहे। (इवैकुई)
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निष्क्रय  : पुं० [सं० निर्√क्री (विनिमय)+अच्] १. वह धन जो किसी को कोई काम या सेवा करने के बदले या किसी वस्तु का उपयोग करने के बदले में दिया जाय। जैसे–भाड़ा, मजदूरी वेतन। आदि। २. इनाम। पुरस्कार। ३. किसी चीज का दाम। मूल्य। ४. चीजों की अदला-बदली। विनिमय। ५. बेचने की क्रिया या भाव। बिक्री। ६. किसी काम या बात से छुटकारा पाने के लिए उसके बदले में दिया जानेवाला धन। जैसे–(क) यदि गौ दान न कर सके, तो उसका कुछ निष्क्रय दे दो। (ख) ओल में रखा हुआ व्यक्ति प्रायः निष्क्रय देकर छुड़ाया जाता है। ७. शक्ति। सामर्थ्य। ८. उचित धन देकर दूसरों के हाथ में पड़ी हुई चीज अपने हाथ में करना या लेना। (रिडेम्पशन)।
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निष्क्रयण  : पुं० [सं० निर्√क्री+ल्युट्–अन] १. निष्क्रय करने की क्रिया या भाव। २. निष्क्रय के रूप में दिया जाने वाला धन या रकम।
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निष्क्रांत  : भू० कृ० [सं० निर्√क्रम्+क्त] १. निकला या निकाला हुआ। २. जिसका निष्क्रमण हो चुका हो। ३.(संपत्ति) जिसका स्वामी जिसे छोड़कर दूसरे देश में चला गया हो।
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निष्कामित  : वि० =निष्क्रांत।
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निष्क्राम्य  : वि० [सं० निर्√क्रम्+ण्यत्] (माल) जो बाहर भेजा जाने को हो या भेजा जाता हो। चलानी। (माल)।
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निष्क्रिय  : वि० [सं० निर्-क्रिया, ब० स०] [भाव० निष्क्रियता] १.जिसमें किसी प्रकार की क्रिया या व्यापार न हो। निश्चेष्ट। जैसे–निष्क्रिय प्रतिरोध। २. जो किसी प्रकार की क्रिया या चेष्टा न करता हो अथवा जिसकी क्रिया या गति बीच में कुछ समय के लिए ठहर या रुक गई हो। ३. जो विहित कर्म न करता हो। पुं० ब्रह्म जो सब प्रकार की क्रियाओं, चेष्टाओं और व्यापारों से रहित माना जाता है।
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निष्क्रियता  : स्त्री० [सं० निष्क्रय+तल्+टाप्] निष्क्रिय होने की अवस्था या भाव।
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निष्क्रिय-प्रतिरोध  : पुं० [सं० कर्म० स०] किसी अनुचित आज्ञा या आदेश का किया जानेवाला ऐसा प्रतिरोध या विरोध जिसमें मिलनेवाले दंड या होनेवाली हानि की परवाह नहीं की जाती। (पैसिव रेजिस्टेन्स)।
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निष्क्रीत  : वि० [सं०निर्√क्री+क्त] १. जिससे या जिसके लिए निष्क्रय दिया गया हो। (कम्पेन्सेटेड) २. (ऋण या देन) जो चुका दिया गया हो। (रिडीम्ड)
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निष्क्लेश  : वि० [सं० निर्+क्लेश, ब० स०] १. जिसे किसी प्रकार का क्लेश न हो। सब प्रकार के क्लेशों से युक्त या रहित। २. बौद्धधर्म में, दस प्रकार के क्लेशों से मुक्त।
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निष्क्वाथ  : पुं० [सं० निर्-क्वाथ, ब० स०] मांस आदि का रसा। शोरबा।
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निष्टानक  : पुं० [सं० निर्-तानक्, प्रा० स०, षत्व, ष्टुत्व] १. गर्जन। २. कलरव।
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निष्टि  : स्त्री० [सं०√निश् (एकाग्र होना)+क्तिन्] दिति का एक नाम।
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निष्टिग्री  : स्त्री० [सं०] अदिति का एक नाम।
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निष्ट्य  : वि० [सं० निस्+त्यप्, षत्व, ष्टुत्व] परकीय। बाहरी। पुं० १. चांडाल। २. वैदिक काल में एक प्रकार के म्लेच्छ।
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निष्ठ  : वि० [सं० नि√स्था(ठहरना)+क] १. ठहरा हुआ। स्थित। २. किसी काम या बात में पूरी तरह से लगा रहनेवाला। जैसे–कर्म-निष्ठ। ३. किसी के प्रति निष्ठा (भक्ति और श्रद्धा) रखनेवाला। ४. विश्वास रखनेवाला। जैसे–धर्म-निष्ठ। ५. किसी कार्य या विषय में बराबर मन से लगा रहनेवाला। जैसे–कर्त्तव्य-निष्ठ। (प्रायः यौगिक पदों के अंत में प्रुयक्त)
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निष्ठांत  : वि० [सं० निष्ठा (नाश)+अन्त, ब० स०] नश्वर।
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निष्ठा  : स्त्री० [सं० नि√स्था+अङ+टाप्] १. अवस्था। दशा। स्थिति। २. आधार। नींव। ३. दृढ़तापूर्वक टिके या ठहरे रहने की अवस्था या भाव। ४. मन में होनेवाला दृढ़ निश्चय या विश्वास। ५. किसी बात, या व्यक्ति के संबंध में होनेवाली वह भावुकतापूर्ण मनोवृत्ति जो हमारी आंतरिक पूज्य, बुद्धि, विश्वास, श्रद्धा आदि से उत्पन्न होती है और जो हमें उस (बात विषय या व्यक्ति) के प्रति विशिष्ट रूप से आसक्त, प्रवृत्त तथा संलग्न रखती है। किसी के प्रति होनेवाली मन की ऐसी एकांत अनुरक्ति या प्रवृत्ति जो बहुत-कुछ भक्ति की सीमा तक पहुँचती हुई होती है। जैसे–अपने कर्त्तव्य, गुरु, धर्म या नेता के प्रति होनेवाली निष्ठा। ६. धार्मिक क्षेत्र में ज्ञान, की वह अन्तिम या चरम अवस्था जिसमें आत्मा पूर्ण रूप से ब्रह्म में लीन हो जाती है। ७. विष्णु जिनमें प्रलय के समय समस्त भूतों का विलय हो जाता है। ८. किसी चीज या बात का नियत समय पर होनेवाला अंत या समाप्ति। ९. विनाश। १॰. दक्षता। प्रवीणता। ११. विपत्ति। संकट।
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निष्ठान  : पुं०[सं०नि√स्था+ल्युट्–अन्] चटनी आदि चटपटी चीजें।
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निष्ठानक  : पुं०[सं०निष्ठान+कन्]=निष्ठान।
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निष्ठावान् (वत्)  : वि० [सं० निष्ठा+मतुप्] जिसकी किसी के प्रति निष्ठा हो। निष्ठा रखनेवाला।
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निष्ठित  : भू० कृ० [सं०नि√स्था+क्त] १. अच्छी तरह टिका या ठहरा हुआ। जमकर लगा हुआ। दृढ़ रूप से स्थिति। २.(व्यक्ति) जिसमें निष्ठा हो। निष्ठावान्।
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निष्ठीव  : पुं० [सं० नि√ष्ठिव् (थूकना)+घञ्, दीर्घ]=निष्ठीवन (थूक)।
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निष्ठीवन  : पुं० [सं० नि√ष्ठिव+ल्युट्–अन, दीर्घ] १. मुँह से थूक या कफ निकालकर बाहर फेंकना। २. खखार। थूक। ३. वैद्यक में, एक औषध जिसका व्यवहार गले या फेफड़े से कफ निकालने में किया जाता है।
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निष्ठुर  : वि० [सं० नि√स्था+उरच्] [स्त्री० निष्ठुरा] [भाव० निष्ठुरता] १. कठिन। कड़ा। सख्त। २. उग्र। तेज। ३. जिसके हृदय में दया, ममता, मोह आदि न हो। दूसरों के कष्टों की परवाह न करनेवाला।
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निष्ठुरता  : स्त्री० [सं० निष्ठुर+तल्–टाप्] १. निष्ठुर होने की अवस्था या भाव। २. आचरण, व्यवहार आदि की निर्दयता पूर्ण कठोरता।
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निष्ठुरिक  : पुं० [सं०] एक नाग जिसका उल्लेख महाभारत में है।
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निष्ठैवन  : पुं०=निष्ठीवन (थूक)।
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निष्ठ्यूत  : वि० [सं० नि√ष्ठि्व+क्त, ऊठ्] १. थूका हुआ। २. उगला हुआ। ३. बाहर निकाला हुआ। ४. कहा हुआ। उक्त।
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निष्ण  : वि० [सं० नि√स्ना (नहाना)+क, षत्व, णत्व]=निष्णात। वि० [सं०] (काम) जो संपन्न या पूरा किया जा चुका हो। (एक-म्पिलश्ड)
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निष्णात  : वि० [सं० नि√स्ना+क्त, षत्व, णत्व] १. किसी विषय का बहुत अच्छा ज्ञाता या जानकार। २. किसी बात में बहुत अधिक निपुण। ३. ठीक तरह से पूरा या समाप्त किया हुआ। ४. उत्तम। श्रेष्ठ।
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निष्पंक  : वि० [सं० निर्-पंक, ब० स०] १. (भूमि) जिसमें कीचड़ न हो। २.(वस्तु) जिसे कीचड़ न लगा हो। ३. साफ-सुथरा। स्वच्छ।
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निष्पंद  : वि० [सं० नि-स्पन्द, ब० स०] जिसमें स्पंदन न हो या न होता हो। स्पंदन हीन।
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निष्पक्व  : वि० [सं० निस्-पक्व, प्रा० स०] [भाव० निष्पक्वता] अच्छी तरह पका या पकाया हुआ।
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निष्पक्ष  : वि० [सं० निर्-पक्ष, ब० स०] [भाव० निष्पक्षता] १. (व्यक्ति) जो किसी पक्ष या दल में सम्मिलित न हो। २. जिसकी किसी पक्ष से विशेष सहानुभूति न हो। तटस्थ। २. बिना पक्षपात के होनेवाला। पक्षपात-रहित। जैसे–निष्पक्ष-न्याय।
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निष्पक्षता  : स्त्री० [सं० निष्पक्ष+तल्–टाप्] १. निष्पक्ष होने की अवस्था या भाव। २. निष्पक्ष होकर किया जानेवाला आचरण।
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निष्पताक  : वि० [सं० निर्-पताक, ब० स०] बिना पताका का। पताका रहित।
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निष्पत्ति  : स्त्री० [सं० निर्√पद (गति)+क्तिन्] १. आविर्भाव। उत्पत्ति। जन्म। २. परिपाक या पूर्णता। ३. आज्ञा, आदेश, निश्चय आदि के अनुसार किसी कार्य का किया जाना। (एकज़िक्यूशन) ४. उद्देश्य, कार्य आदि की सिद्धि। ५. निर्वाह। ६. मीमांसा। ७. निश्चय। ८. हठयोग में नाद की चार अवस्थाओं में से अंतिम अवस्था।
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निष्पत्ति-लेख  : पुं० [ष० त०] इस बात का सूचक लेख कि अमुक कार्य या व्यवहार से हमारा कोई संबंध नहीं रह गया। फारखती।
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निष्पति-विधि  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘प्रत्ययवृत्ति’।
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निष्पत्र  : वि० [सं० निर्-पत्र, ब० स०] १. जिसमें पत्ते न हों। पत्रहीन। २. जिसे पंख न हो।
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निष्पत्रिका  : स्त्री० [सं० निष्पत्र+क+टाप्, इत्व] करील (पेड़)।
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निष्पद  : वि० [सं० निर्-पद, ब० स०] १.जिसके पद या पैर न हों। पुं० बिना पहियोंवाला यान या सवारी।
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निष्पन्न  : वि० [सं० निर्√पद+क्त] १. जन्मा हुआ। उत्पन्न। २. भली-भाँति पूरा किया हुआ। २. जो आज्ञा, आदेश, निश्चय आदि के अनुसार पूरा किया गया हो। (एकज़िक्यूटेड)
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निष्पराक्रम  : वि० [सं० निर्-पराक्रम, ब० स०] पराक्रमहीन।
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निष्परिकर  : वि० [सं० निर्-परिकर, ब० स०] जिसने कोई तैयारी न की हो।
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निष्परिग्रह  : वि० [सं० निर्-परिग्रह, ब० स०] १. जिसके पास कुछ न हो। २. जो दान आदि न ले। ३. जिसकी पत्नी न हो अर्थात् कुँवारा या रंडुआ। ४. विषय-वासना आदि से अलग रहनेवाला। पुं० १. यह प्रतिज्ञा या व्रत कि हम किसी से दान न लेंगे। २.यह प्रतिज्ञा या व्रत कि हम विवाह न करेंगे। या गृहस्थी बनाकर न रहेंगे।
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निष्परुष  : वि० [सं० निर्-परुष, ब० स०] जो सुनने में परुष अर्थात् कर्कश न हो। कोमल और मधुर।
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निष्पर्यन्त  : वि० [सं० निर्-पर्यंत, ब० स०] पर्यंत या सीमा से रहित। अपार। असीम।
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निष्पलक  : अव्य० [सं० निर्+हिं०, पलक] बिना पलक गिराये या झपकाये।
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निष्पवन  : पुं० [सं० निस्√पू(पवित्र करना)+ल्युट्–अन] धान आदि की भूसी निकालना। कूटना। दाँना।
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निष्पात  : पुं० [सं० निस्√पत् (गिरना)+घञ्] १. न गिरना। २. पूरी तरह से गिरना।
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निष्पाद  : पुं० [सं० निर्√पद्+घञ्] १. अनाज की भूँसी निकालने का काम। दाँना। २. मटर। ३. सेम। ४. बोड़ा। लोबिया।
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निष्पादक  : वि० [सं० निर्√पद्+णिच्+ण्वुल्–अक] निष्पत्ति या निष्पादन करनेवाला। पुं० १. आज्ञा, आदेश निश्चय आदि के अनुसार कोई काम करनेवाला व्यक्ति। २. वह जो वसीयत में उल्लिखित बातों का पालन या व्यवस्था करने का अधिकारी बनाया गया हो। (एकजिक्यूटर)
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निष्पादन  : पुं० [सं० निर्√पद्+णिच्+ल्युट्—अन] आज्ञा, आदेश, नियम, निश्चय आदि के अनुसार कोई काम ठीक तरह से पूरा करना। तामील। (एकज़िक्यूशन)
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निष्पादित  : भू० कृ० [सं० निर्√पद+णिच्+क्त] जिसकी निष्पत्ति या निष्पादन हो चुका हो। निष्पन्न।
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निष्पाप  : वि० [सं० निर्-पाप, ब० स०] १.(व्यक्ति) जिसने पाप न किया हो। २.(कार्य) जिसके करने से पाप न लगता हो।
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निष्पार  : वि० [सं०]=अपार।
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निष्पाव  : पुं० [सं० निर्√पू+घञ]१. अनाज के दानों आदि की भूसी निकालना। २. उक्त काम के लिए सूप से की जाने वाली हवा। सेम।
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निष्पीड़न  : पुं० [सं० निस√पीड् (दबाव)+ल्युट्–अन] निचोंड़ने की क्रिया या भाव।
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निष्पुत्र  : वि० [सं० निर्-पुत्र, ब० स०] १. पुरुषहीन। २. जहाँ आबादी न हो।
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निष्पुलाक  : वि० [सं० निर्-पुलाक, ब० स०] (अन्न) जिसमें से सारहीन दाने निकाल दिए गए हों। २. भूसी निकाला हुआ। पुं० आगामी उत्सर्पिणी के १४ वें अर्हत् का नाम।
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निष्पेषण  : पुं० [सं० निर्√पिष् (पीसना)+ल्युट्–अन] १. पेरना। २. पीसना। ३. रगड़ना।
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निष्पेषित  : भू० कृ० [सं० निर्√पिष्+णिच्+क्त] १. पेरा हुआ। २. पीसा हुआ।
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निष्पौरुष  : वि० [सं० निर्-पौरुष, ब० स०] पौरुष-हीन।
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निष्प्रकंप  : पुं० [सं० निर्-प्रकंप, ब० स०] तेरहवें मन्वतर के सप्तर्षियों में से एक।
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निष्प्रकारक  : वि० [सं० निर्-प्रकार, ब० स०, कप्] जो किसी विशिष्ट प्रकार का न हो, अर्थात् साधारण या सामान्य। जैसे–निष्प्रकारक ज्ञान।
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निष्प्रकाश  : वि० [सं० निर्-प्रकाश, ब० स०] अंधकार पूर्ण।
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निष्प्रचार  : वि० [सं० निर्-प्रचार, ब० स०] जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर न जा सके। जिसमें गति न हो। न चल सकने योग्य। पुं० गति न होने की अवस्था या भाव।
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निष्प्रताप  : वि० [सं० निर्-प्रताप, ब० स०] प्रताप-रहित।
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निष्प्रतिघ  : वि० [सं० निर्-प्रतिघ, ब० स०] जिसमें कोई बाधा या रुकावट न हो। अबाध।
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निष्प्रतिभ  : वि० [सं० निर्-प्रतिभा, ब० स०] जिसमें प्रतिभा न हो या न रह गई हो।
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निष्प्रतीकार  : वि० [सं० निर्-प्रतीकार, ब० स०] जिसका प्रतिकार न किया जा सके या न हो सके।
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निष्प्रभ  : वि० [सं० निर्-प्रभा, ब० स०] प्रभा-हीन।
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निष्प्रयोजन  : वि० [सं० निर्-प्रयोजन, ब० स०] १. जिसमें कोई प्रयोजन या मतलब न हो। जैसे–निष्प्रयोजन प्रीति। २. जिसमें कोई प्रयोजन सिद्ध न होता हो। व्यर्थ का। निरर्थक। फजूल। अव्य० बिना किसी प्रयोजन या मतलब के।
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निष्प्राण  : वि० [सं० निर्-प्राण, ब० स०] १. जिसमें प्राण न हों। निर्जीव। २. मरा हुआ। मृत। ३. जिसमें कोई महत्त्वपूर्ण गुण न हों। जैसे–निष्प्राण साहित्य।
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निष्प्रेही  : वि०=निष्पृह।
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निष्फल  : वि० [सं० निर्-फल, ब० स०] १. (कार्य या बात) जिससे किसी फल की प्राप्ति या सिद्धि न हो। जैसे–निष्फल प्रयत्न। २. (पौधा या वृक्ष) जिसमें फल न लगता हो या न लगा हो। ३. (व्यक्ति) जिसे अंडकोश न हो या जिसका अंडकोश निकाल लिया गया हो। पुं० धान का पयाल।
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निष्फला  : वि० [सं० निष्फल+टाप्] (स्त्री) जिसका रजोधर्म होना बंद हो गया हो।
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निष्फलि  : पुं० [सं०] अस्त्रों को काटने या निष्फल करनेवाला अस्त्र।
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निष्यंद  : पुं०=निस्यंद।
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निसंक  : वि०=निःशंक।
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निसंकी  : वि० [सं० निःशंक] १. निःशंक। २. निःशंक हो कर बुरे काम करनेवाला। उदा०–नीच, निसील, निरीस निसंकी।–तुलसी।
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निसंग  : वि०=निस्संग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निसँठ  : वि० [हिं० नि+सँठ=पूँजी] जिसके पास धन या पूँजी न हो। निर्धन। गरीब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसंस  : वि० [हिं० नि+साँस] जो सांस न ले रहा हो, अर्थात् मरा हुआ या मरे के हुए के समान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसंस  : वि०=नृशंस (क्रूर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निसंसना  : अ० [सं० निःश्वास] १. निःश्वास लेना। २. हाँफना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निस  : स्त्री०=निशा (रात्रि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निसक  : वि० [सं० निः+शक्त] अशक्त। कमजोर। दुर्बल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निसकर  : पुं०=निशाकर (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निसचय  : पुं०=निश्चय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निसत  : वि० [हिं० नि+सं० सत्य] असत्य। मिथ्या। वि० [हिं० नि+सत] जिसमें कुछ भी सत्त्व या सार न हो। निःसत्व।
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निसतरना  : अ० [सं० निस्तार] निस्तार अर्थात् छुटकारा पाना। स० निस्तार या उद्धार करना।
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निसतार  : पुं०=निस्तार।
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निसतारना  : स० [सं० निस्तार+ना (प्रत्य०)] निस्तार करना। छुटकारा देना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निसद्द  : वि०=निःशब्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस-द्योस  : अव्य० [सं० निरी+दिवस] रात-दिन। नित्य। सदा।
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निसनेही  : स्त्री०=निःस्नेहा (अलसी)।
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निसबत  : स्त्री० [अ० निस्बत] १. संबंध। लगाव। ताल्लुक। २. वैवाहिक संबंध की ठहरौनी या पक्की बात-चीत। मँगनी। सगाई। ३. तुलना। मुकाबला। क्रि० प्र०–देना।
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निसबती  : वि० [अ०] १. ‘निसबत’ का। २. जिससे निसबत (रिश्ता या संबंध) हो। पद–निसबती भाई=बहनोई का साला।
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निसयाना  : वि० [हिं० नि+सयाना ?] १. जिसकी सुध-बुध खो गयी हो। २. अनजान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसरना  : अ०=निकलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसराना  : स० १.=निकालना। २.=निकलवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसर्ग  : पुं० [सं०नि√सृज् (छोड़ना)+घञ्] [वि० नैसर्गिक] १. उपहार, भेंट, दान, दक्षिणा आदि के रूप में किसी को कुछ देना। २. छोड़ना या त्यागना। उत्सर्ग करना। ३. बाहर निकालना। ४. मल त्याग करना। ५. आकृति या रूप। ६. विनिमय। ७. सृष्टि। ८. वह तत्त्व या शक्ति जिससे सृष्टि के समस्त कार्य या व्यापार संपन्न होते हैं। प्रकृति। ९. प्रकृति। स्वभाव। (नेचर अंतिम दोनों अर्थों में)
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निसर्गज  : वि० [सं० निसर्ग√जन् (उत्पत्ति)+ड] निसर्ग से उत्पन्न। नैसर्गिक। प्राकृतिक।
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निसर्गतः (तस्)  : अव्य० [सं० निसर्ग+तस्] निसर्ग या प्रकृति के अनुसार, अथवा उसकी प्रेरणा से। प्राकृतिक या स्वाभाविक रूप से। प्रकृतिशः। स्वभावतः।
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निसर्गवाद  : पुं०=प्रकृतिवाद।
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निसर्गवादी  : पुं०=प्रकृतिवादी।
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निसर्ग-विज्ञान  : पुं०=प्रकृति-विज्ञान।
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निसर्गविद्  : पुं०=प्रकृतिवेत्ता।
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निसर्गवेत्ता  : पुं०=प्रकृतिवेत्ता।
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निसर्ग-सिद्ध  : वि० [सं० पं० त०] १. प्राकृतिक। २. स्वभाव-सिद्ध। स्वाभाविक।
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निसर्गायु (स्)  : स्त्री० [सं० निसर्ग-आयुस्, मध्य० स०] फलित ज्योतिष में आयु निकालने की एक गणना।
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नि-सवाद  : वि० [सं० निः स्वाद] जिसमें कोई स्वाद न हो। स्वाद रहित। बे-सवादी।
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निसवासर  : पुं०[सं० निशिवासर] रात और दिन। अव्य० नित्य। सदा।
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निसस  : वि०=निसँस (क्रूर)।
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निसहाय  : वि०=निस्सहाय (असहाय)।
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निसाँक  : अव्य०, वि०=निश्शंक।
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निसाँस  : पुं० [सं० निःश्वास] ठँढा साँस। लंबा साँस। वि०=निसाँसा।
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निसाँसा  : वि० [हिं० नि+साँस] [स्त्री० निसाँसी] जो साँस न ले रहा हो या न ले सकता हों अर्थात् मरा हुआ या मरे हुए के समान। उदा०–अब हौं भरौं निसाँसी, हिए न आवे साँस-जायसी।
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निसाँसी  : वि०=निसाँसा।
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निसा  : स्त्री० [हिं० निशाखातिर] १. तृप्ति। तुष्टि। पद–निसा भर=जी भर के। खूब अच्छी तरह। २. संतोष। पुं०=नशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=निशा (रात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाकर  : पुं०=निशाकर (चंद्रमा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाचर  : वि०, पुं०=निशाचर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाथा  : वि० [हिं० नि+साथ] जिसके साथ और कोई न हो। अकेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसाद  : पुं० [सं० निषाद] १. भंगी। मेहतर। २. दे० ‘निषाद’।
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निसान  : पुं० [फा० निशान] १. निशान। चिह्न। २. धौंसा। नगाड़ा।
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निसानन  : पुं० [सं० निशानन] संध्या का समय। प्रदोष काल।
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निसाना  : पुं०=निशाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसानाथ  : पुं०=निशानाथ (चंद्रमा)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
निसानी  : स्त्री०=निशानी।
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निसापति  : पुं०=निशापति (चंद्रमा)।
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निसाफ  : पुं०=इंसाफ। (न्याय)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसार  : पुं० [सं० नि√सृ (गति)+घञ्] १. समूह। २. सोनापाढ़ा। पुं० [अ०] १. कुरबान। बलि। २. निछावर। सदका। ३. मुगल शासन काल का एक सिक्का जो रुपये के चौथाई मूल्य का होता था। वि०=निस्सार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसारक  : पुं०[सं०] शालक राग का एक भेद। वि० [हिं० निसारना=निकालना] निकालनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसारना  : स० [सं० निःसरण] निकालना। बाहर करना। स० [अ० निसार] निछावर करना।
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निसारा  : स्त्री० [सं० निःसारा] केले का पेड़। पुं० [अ०] ईसाई। मसीही।
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निसावारा  : पुं० [देश०] कबूतरों की एक जाति।
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निसास  : पुं०=निसाँस (निःश्वास)। वि०=निसाँसा (बेदम)।
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निसासी  : वि०=निसाँसा।
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निसिंथ  : पुं० [सं०] सँभालू नामक पेड़।
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निसि  : स्त्री०=निशि।
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निसिकर  : पुं०=निशाकर (चंद्रमा)।
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निसिचर  : वि०, पुं०=निशाचर।
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निसिचारी  : वि०, पुं०=निशाचर।
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निसिदिन  : अव्य० [सं० निशिदिन] १. रात-दिन। आठों पहर। २. हर समय। सदा। पुं० रात और दिन।
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निसिनाथ  : पुं०=निशिनाथ (चंद्रमा)।
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निसिनाह  : पुं०=निशिनाथ। (चंद्रमा)।
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निसि-निसि  : स्त्री० [सं० निशि-निशि] अर्ध-रात्रि। निशीथ। आधी रात।
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निसिपति  : पुं०=निशिपति (चंद्रमा)।
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निसिपाल  : पुं०=निशिपाल (चंद्रमा)।
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निसिमणि  : पुं०=निशामणि (चंद्रमा)।
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निसियर  : पुं०=निशिकर (चंद्रमा)।
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निसिवासर  : पुं०=निसिदिन (रात-दिन)।
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निसीठा  : वि० [सं० नि+हिं० सीठी] [स्त्री० निसीठी] १. जिसमें कुछ तत्त्व न हो। निःसार। २. नीरस।
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निसीथ  : पुं०=निशीथ (अर्द्ध रात्रि)।
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निसंधु  : पुं० [सं०] प्रहलाद के भाई हलाद के पुत्र का नाम।
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निसुंभ  : पुं०=निशुंभ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसु  : स्त्री०=निशा (रात्रि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसुका  : वि० [सं० निःस्वक] १. निर्धन। दरिद्र। गरीब। २. गुण,विशेषता आदि से रहित। उदा०–हौं कषु कै रिस के करों ये निस के हंसि देत।–बिहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निसुग्गा  : वि०=निसोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निसुर  : वि० [सं० निःस्वर] १. शब्द-रहित। २. चुप। मौन।
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निसूदक  : वि० [सं० नि√सूद् (हिंसा)+णिच्+ण्वुल्–अक] मारने या वध करनेवाला।
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निसूदन  : पुं०[सं०नि√सूद्+णिच्+ल्युट्—अन] १. वध करना। २. नष्ट करना।
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निसृत  : भू० कृ० [निःसृत] निकाला हुआ।
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निसृता  : स्त्री० [सं० नि√सृ (गति)+क्त+टाप्] निसोथ।
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निसृष्ट  : भू० कृ० [सं० नि√सृज् (छोड़ना)+क्त] १. उपहार, भेंट, दान, दक्षिणा आदि के रूप में दिया हुआ। २. त्यागा या छोड़ा हुआ। ३. भेजा हुआ। प्रेषित। ४. जिसे स्वीकृति दी गई हो। ५. जलाया हुआ। वि० मध्यस्थ। पुं० प्रतिदिन के हिसाब के दी जानेवाली मजदूरी या वेतन। दैनिक भृति। (कौ०)
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निसृष्टार्थ  : पुं० [सं० निसृष्ट-अर्थ, ब० स०] १. वह धीर और बुद्धिमान व्यक्ति जिसे किसी महत्पूर्ण कार्य के प्रबंध या व्यवस्था का भार सौंपा जाय या सौंपा जा सके। २. सन्देशवाहक। दूत। ३. साहित्य में तीन प्रकार के दूतों (या दूतियों) में से एक जो प्रेमिका और प्रेमी का पारस्परिक स्नेह देखकर स्वयं उनके मिलन या संयोग की व्यवस्था करे।
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निसेनी  : स्त्री० [सं० निःश्रेणी] सीढ़ी। जीना। सोपान।
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निसेष  : वि०=निःशेष।
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निसेस  : पुं०[सं० निशेश] चंद्रमा।
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निसैनी  : स्त्री०=निसेनी (सीढ़ी)।
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निसोग  : वि० [सं० निःशोक] १.जिसे कोई शोक या चिंता न हो। २.जिसे किसी बात की चिंता या फिक्र न हो। लापरवाह।
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निसोच  : वि० [सं० निःशोच] जिसे सोच या चिंता न हो।
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निसोत (ा)  : वि० [सं० निःसंयुक्त] [वि० स्त्री० निसोती] जिसमें और किसी चीज का मेल न हो। शुद्ध। निरा। स्त्री०=निसोथ।
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निसोत्तर  : पुं०=निसोत।
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निसोथ  : स्त्री० [सं० निसृत्ता] १. एक प्रकार की लता जिसमें पत्ते गोल और नुकीले होते हैं और जिसमें गोल फल लगते हैं। २. उक्त लता का फल।
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निसोधु  : स्त्री० [हिं० सोध या सुध] १.सुध। खबर। २.सन्देश। सँदेसा।
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निस्की  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का रेशम की कीड़ा।
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निस्केवल  : वि०=निष्केवल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्तंतु  : वि० [सं० निर्-तंतु, ब० स०] १. तंतुओं से रहित। २. जिसके आगे कोई संतान न हो।
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निस्तंद्र  : वि० [सं० निर्-तंद्रा, ब० स०] १. जिसे तंद्रा न हो। २. जिसमें आलस्य न हो। निरालस्य। ३. बलवान। शक्तिशाली।
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निस्तत्त्व  : वि० [सं० निर्-तत्त्व, ब० स०] जिसमें तत्त्व न हो। तत्त्व-हीन।
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निस्तनी  : स्त्री० [सं० नि-स्तन, ब० स०, ङीष्] औषध की वटिका। गोली।
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निस्तब्ध  : वि० [सं०नि√स्तम्भ (रोकना)+क्त] [भाव० निस्तब्धता] १. जो हिलता-डोलता न हो। जिसमें गति या व्यापार न हो। २. निश्चेष्ट।
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निस्तमस्क  : वि० [सं० निर्-तमस्, ब० स०, कप्] जिसमें अँधेरा न हो।
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निस्तरंग  : वि० [सं० निर्-तरंग, ब० स०] जिसमें तरंगें न उठ रही हों; फलतः शान्त और स्थिर। उदा०–उड़ गया मुक्त नभ निस्तरंग।–निराला।
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निस्तर  : पुं०=निस्तार। उदा०–निस्तर पाइ जाइँ इक बारा।–जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्तरण  : पुं० [निर्√तृ (पार होना)+ल्युट्–अन] १. पार उतरना या होना। २. झंझटों, बखेड़ों, भव-बंधनों आदि से छुटकारा मिलना या पाना।
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निस्तरना  : अ० [सं० निस्तरण] १. पार होना। २. मुक्त होना। छुटकारा पाना। स० १. पार उतराना। २. मुक्त करना। उदा०–अजहूँ सूर पतित पदतज तौ जौ औरहू निस्तरतौ।–सूर।
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निस्तरी  : स्त्री० [देश०] रेशम के कीड़ों की एक जाति जिनका रेशम कुछ कम चमकदार और कुछ कम मुलायम होता है। इसकी तीन उपजातियाँ-मदरासी, सोनामुखी और कृमि है।
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निस्तर्क्य  : वि०=अतर्क्य।
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निस्तल  : वि० [सं० निर्-तल्, ब० स०] [भाव० निस्तलता] १. बिना तल का। जिसका तल न हो। २. जिसके तले का पता न हो। बहुत गहरा। अंतहीन। उदा०–प्रेयसी के प्रणय के निस्तल विभ्रम के।–निराला।
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निस्तला  : स्त्री० [सं० निस्तल+टाप्] वटिका गोली।
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निस्तार  : पुं० [सं० निर्√तृ+घञ्] १. तर या तैर कर पार होने की क्रिया या भाव। २. बंधन, संकट आदि से बचकर निकलने की क्रिया या भाव। उद्धार। छुटकारा। ३. काम पूरा करके उससे छुट्टी पाना। ४. अभीष्ट की प्राप्ति या सिद्धि।
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निस्तारक  : वि० [सं०निर्√तृ+णिच्+ण्वुल्–अक] [स्त्री० निस्तारिका] १. पार उतारनेवाला। २. झंझटों, बंधनों आदि से छुड़ानेवाला।
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निस्तारण  : पुं० [सं० निर्√तृ+णिच्+ल्युट्–अन] १. नदी आदि के पार करना या ले जाना। २. बंधनों आदि से छुड़ाना। मुक्त करना। ३. जीतना। ४. सामने आये हुए कार्य व्यवहार आदि को नियमित रूप से करना अथवा उसका निराकरण करना। (डिस्पोजल)। ५. रसायनशास्त्र में निथारने की क्रिया या भाव।
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निस्तारन  : पुं०=निस्तारण।
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निस्तारना  : स० [सं० निस्तार+ना (प्रत्य०)] १. पार उतारना। २. उद्धार करना। छुड़ाना।
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निस्तार-बीज  : पुं० [सं० ष० त०] वह बीज या तत्त्व जिसकी सहायता से मनुष्य भव-सागर से पार उतरता हो। (पुराण)
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निस्तारा  : पुं०=निस्तार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्तिमिर  : वि० [सं० निर्-तिमिर्, ब० स०] तिमिर या अंधकार से रहित।
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निस्तीर्ण  : भू० कृ० [निर्√तृ+क्त] १. जो पार उतर चुका हो। २. जिसका निस्तार या छुटकारा हो चुका हो। मुक्त। ३. पूरा किया हुआ। निष्ण।
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निस्तुष  : वि० [सं० निर्-तुष, ब० स०] १. जिसमें भूसी न हो या जिसकी भूसी निकाल ली गई हो। बिना भूसी का। २. निर्मल। साफ।
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निस्तुष-क्षीर  : पुं० [सं० ब० स०] गेहूँ।
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निस्तुष-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्फटिक मणि।
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निस्तुषित  : भू० कृ० [सं० निस्तुष+णिच्+क्त] १. जिसका छिलका या भूसी अलग कर दी गई हो। २. छीला हुआ। ३. त्यागा हुआ। त्यक्त। ४. छोटा या पतला किया हुआ।
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निस्तेज  : वि० [सं० निर्-तेज, ब० स०] जिसमें तेज न हो। तेज-हीन।
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निस्तैल  : वि० [सं० निर्-तैल, ब० स०] जिसमें तेल न हो अथवा जिस पर तेल न लगा हो।
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निस्तोद  : पुं० [सं० निस्√तुद् (व्यथित करना)+घञ्] १. चुभाने की क्रिया या भाव। २. डंक मारना।
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निस्त्रप  : वि० [सं० निर्-त्रपा, ब० स०] निर्लज्ज। बेशर्म।
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निस्त्रिंश  : वि० [सं० नृशंस] जिसमें दया न हो। निर्दय। पुं० [सं० निर्-त्रिंशत्, प्रा० स०] १. खड्ग। २. एक प्रकार का तांत्रिक मंत्र।
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निस्त्रिंश-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+कप्+टाप्, इत्व] थूहर।
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निस्त्रुटी  : स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची।
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निस्त्रैगुण्य  : वि० [सं० निर्-त्रैगुण्य, ब० स०] जो तीनों गुणों से रहित या हीन हो। पुं० सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे या रहित होने की अवस्था या भाव।
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निस्त्रैणपुष्पिक  : पुं० [?] धतूरा।
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निस्नेह  : वि० [सं० निर्-स्नेह, ब० स०] १. जिसमें स्नेह या प्रेम न हो। २. जिसमें स्नेह या तेल न हो। पुं० एक प्रकार का तांत्रिक मंत्र।
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निस्नेह-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] भटकटैया। कटेरी।
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निस्पंद  : वि० [सं० निर्-स्पंद, ब० स०] जिसमें स्पंदन न हो। स्पंदनरहित। पुं०=स्पंदन।
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निस्पृह  : वि० [सं० निर्-स्पृह, ब० स०] जिसे किसी प्रकार की स्पृहा या इच्छा न हो। इच्छा या स्पृहा से रहित।
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निस्पृहता  : स्त्री० [सं० निस्पृह+तल्+टाप्] निस्पृह होने की अवस्था या भाव।
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निस्पृहा  : स्त्री० [सं० निस्पृहा+टाप्] अग्निशिखा या कलिहारी नामक पेड़।
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निस्पृही  : वि०=निस्पृह।
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निस्प्रेही  : वि०=निस्पृह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्फ  : वि० [फा० निस्फ] अर्द्ध। आधा।
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निस्फल  : वि०=निष्फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्फी  : वि० [फा० निस्फ़] निस्फ या आधे के रूप में होनेवाला। जैसे–निस्फी बँटाई=ऐसी बँटाई जो दो बराबर भागों में अर्थात् आधी आधी हो।
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निस्बत  : स्त्री० [अ०] निसबत। (दे०) स्त्री० दे० ‘दो-सखुना’।
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निस्बती  : वि०=निसबती।
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निस्यंद  : पुं० [सं० नि√स्यन्द (चूना)+घञ्] १. चूना या रिसना। क्षरण। २. परिणाम। ३. प्रकट करना।
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निस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० नि√स्यन्द+णिनि] बहने या रसनेवाला।
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निस्यों  : वि० [सं० निश्चिंत] निश्चिन्त। बे-फिक्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पद–निस्यो करि=निश्चिन्त होकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्राव  : पुं० [सं० नि√स्रु (बहना)+घञ्] १. वह जो चू, बह या रसकर निकला हो। २. भात की पीच। माँड़।
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निस्व  : वि० [सं० निःस्व] जिसके पास ‘स्व’ अर्थात् अपना कुछ भी न हो, अर्थात् दरिद्र।
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निस्वन  : पुं० [सं० नि√स्वन् (शब्द)+अप्] शब्द। ध्वनि।
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निस्वान  : पुं० [सं० नि√स्वन+घञ्] १. शब्द। ध्वनि। निस्वन। २. तीर के चलने से होनेवाली हवा में सुरसुराहट। पुं०=निश्वास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निस्संकोच  : वि० [सं० निर्-संकोच, ब० स०] जिसमें संकोच या लज्जा न हो। संकोचरहित। अव्य० बिना किसी संकोच के। बे-धड़क।
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निस्संग  : वि० [सं० निर्-संग, ब० स०] १. जिसका किसी से संग या साथ न हो। २. अकेला। ३. विषय वासनाओं से रहित। ४. एकांत। निर्जन।
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निस्संतान  : वि० [सं० निर्-संतान, ब० स०] जिसे कोई संतान न हो।
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निस्संदेह  : वि० [सं० निर्-संदेह, ब० स०] जिसमें कोई या कुछ भी संदेह न हो। असंदिग्ध। अव्य० १. बिना किसी प्रकार के सन्देह के। २. निश्चित रूप से। अवश्य।
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निस्सत्त्व  : वि० [सं० निर्-सत्त्व, ब० स०] सत्त्वहीन।
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निस्सरण  : पुं० [सं० निर्-सरण, ब० स०] निकलने की क्रिया या भाव। २. निकलने का मार्ग या स्थान।
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निस्सहाय  : वि० [सं० निर्-सहाय, ब० स०] जिसकी सहायता करनेवाला कोई न हो। असहाय।
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निस्सार  : वि० [सं० निर्-सार, ब० स०] सारहीन।
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निस्सारक  : वि० [सं० निर्√सृ (गति)+णिच्+ण्वुल–अक] निकानेवाला।
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निस्सारण  : पुं० [सं० निर्√सृ+णिच्+ल्युट्–अन] निकालने की क्रिया या भाव।
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निस्सारित  : भू० कृ० [सं० निर्√सृ+णिच्+क्त] निकाला हुआ। बाहर किया हुआ।
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निस्सीम  : वि० [सं० निर्-सीम, ब० स०] १. जिसकी कोई सीमा न हो। असीम। २. बहुत अधिक।
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निस्सृत  : भू० कृ० [सं० निर्√सृ+क्त] बाहर निकला हुआ। पुं० तलवार के ३२ हाथों में से एक।
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निस्स्नेह  : वि० [सं० निर्-स्नेह, ब० स०] स्नेहरहित।
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निस्स्नेह-फला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] सफेद भटकटैया।
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निस्स्पंद  : वि०=निस्पंद।
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निस्स्वक  : वि० [सं० निर्-स्व, ब० स०, कप्] दरिद्र। धनहीन।
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निस्स्वादु  : वि० [सं० निर्-स्वादु, ब० स०] १. जिसका या जिसमें कोई स्वाद न हो। २. जिसका स्वाद अच्छा न हो।
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निस्स्वार्थ  : वि० [सं० निर्-स्वार्थ, ब० स०] (कार्य) जो बिना किसी निजी स्वार्थ के और विशेषतः परमार्थ की भावना से किया गया हो। जैसे–निस्स्वार्थ सेवा। अव्य० बिना किसी स्वार्थ या मतलब के।
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निहंग  : वि० [सं० निःसंग] १. एकाकी। अकेला। २. जो घर-गृहस्थी की झंझटों में न पड़ा हो अर्थात् अविवाहित और परिवारहीन। ३. नंगा। ४. निर्लज्ज। बेशरम। पुं० १. एक प्रकार के वैष्णव साधु। २. अकेला रहनेवाला विरक्त या साधु। ३. सिक्खों का एक संप्रदाय जो ‘कूका’ भी कहलाता है।
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निहंगम  : वि०=निहंग।
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निहंग-लाडला  : वि० [हिं० निहंग+लाडला] जो माता पिता के दुलार के कारण बहुत ही उद्दंड और लापरवाह हो गया हो।
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निहंता (तृ)  : वि० [सं० नि√हन् (मारना)+तृच्] [स्त्री० निहंत्री] १. विनाशक। नाश करनेवाला। २. मार डालने या हत्या करनेवाला।
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निह  : उप० [सं० निस्] नहिक भाव का सूचक एक उपसर्ग या पूर्व प्रत्यय। जैसे–निहकर्मा, निहकलंक,निहपाप आदि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निहकर्मा  : वि० [सं० निष्कर्म] कर्म न करनेवाला।
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निहकलंक  : वि०=निष्कलंक।
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निहकाम  : वि०=निष्काम।
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निहकामी  : वि०=निष्काम।
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निहचक  : पुं० [सं० नेमि+चक्र] पहिए के आकार का काठ का वह गोल चक्कर जिसके ऊपर कूएँ की कोठी खड़ी की जाती है। निवार। जमवट। जाखिम।
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निहचय  : पुं०=निश्चय।
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निहचल  : वि०=निश्चल।
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निहचिंत  : वि०=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहठ, निहठा  : स्त्री० [सं० निष्ठा] लकड़ी का वह टुकड़ा जिस पर रखकर बढ़ई, गढ़ने की चीजें बसूले से गढ़ते हैं।
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निहत  : भू० कृ० [सं० नि√हन्+क्त] १. चलाया या फेंका हुआ। २. नष्ट किया हुआ। विनष्ट। ३. जो मार डाला गया हो।
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निहतार्थ  : पुं० [सं० निहत-अर्थ, ब० स०] काव्य में एक प्रकार का दोष।
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निहत्था  : वि० [हिं० नि+हाथ] १. जिसके हाथ में कोई अस्त्र न हो। शस्त्रहीन। २. जिसके हाथ में कुछ या कोई साधन न हो।
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निहनन  : पुं० [सं० नि√हन्+ल्युट्–अन] वध। मारण।
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निहनना  : स० [सं० निहनन] मारना। मार डालना।
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निहपाप  : वि०=निष्पाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहफल  : वि०=निष्फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहल  : पुं० दे० ‘गंग-बरार’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहव  : पुं० [सं० नि√ह्वे (बुलाना)+अप्] पुकारना। बुलाना।
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निहषरना  : अ० [सं० नि+क्षरण] बाहर आना या निकलना (राज०) उदा०–निहषरता नखरै नर।–प्रिथीराज।
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निहस  : पुं० [?] चोट। प्रहार। (डि०) उदा०–नीसाने पड़ती निहस।–पृथीराज।
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निहसना  : स० [सं० निघोषण] शब्द करना। अ० शब्द होना। अ० [सं० विलसन] सुशोभित होना। लसना। उदा०–नासा अग्रि मुताहल निहसति।–प्रिथीराज।
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निहाई  : स्त्री० [सं० निघाति, मि० फा० निहाली] लोहारों और सुनारों का जमीन में गड़ा या लकड़ी आदि में जुड़ा हुआ लोहे का वह टुकड़ा जिस पर वे धातु के टुकड़ों को रखकर हथौड़े से कूटते या पीटते हैं।
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निहाऊ  : पुं० [सं० निघाति] लोहे का घन।
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निहाका  : स्त्री० [सं०] १. गोह नामक जंतु। २. घड़ियाल।
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निहाना  : स० [सं० नि+घात] १. नष्ट करना। मारना। २. दबाना।
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निहानी  : स्त्री० [सं० निखनित्री] नक्काशी करने का एक उपकरण।
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निहाय  : पुं०=निहाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहायत  : अव्य० [अ०] बहुत अधिक। अत्यन्त।
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निहार  : स्त्री० [हिं० निहारना] निहारने की क्रिया या भाव। पुं० [सं० निस्सरण] निकलने का मार्ग। निकास। पुं० [?] लट्ट। पुं०=नीहार (देखें)। वि०=निहाल।
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निहारना  : स० [सं० निभालन=देखना] १. अच्छी तरह और ध्यानपूर्वक अथवा टक लगाकर देखना। २. ताकना।
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निहारनि  : स्त्री० [हिं० निहारना] निहारने की क्रिया या भाव। निहार।
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निहारिका  : स्त्री०=नीहारिका।
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निहारुआ  : पुं०=नहरुआ (रोग)।
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निहाल  : वि० [फा०] १. जिस पर किसी की बहुत अधिक या विशेष कृपा हुई हो और इसी लिए जो प्रफुल्लित तथा संतुष्ट हो। २. धन, दौलत आदि मिलने पर जो मालामाल या समृद्ध हुआ हो। पूर्ण-काम। सफल-मनोरथ। पुं० पौधा।
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निहालचा  : पुं० [फा० निहालचः] बच्चों के सोने की छोटी गद्दी।
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निहालना  : स०=निहारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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निहाल लोचन  : पुं० दे० ‘निहालचा’।
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निहाली  : स्त्री० [फा०] बिस्तर पर बिछाने का गद्दा। स्त्री०=निहाई।
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निहाव  : पुं० [सं० निघाति] निहाई।
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निहिंसन  : पुं० [सं० नि√हिंस् (मारना)+ल्युट्–अन] मार डालना। वध करना।
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निहि  : उप० सं० ‘निस्’ उपसर्ग का एक विकृत रूप। जैसे–निहिचय, निहिचिंत।
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निहिचय  : पुं०=निश्चय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहिचिंत  : वि०=निश्चिंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहित  : वि० [सं० नि√धा(धारण)+क्त, हि आदेश] १.(चीज) जो किसी दूसरी चीज के अन्दर स्थित हो और बाहर न दिखाई देती हो। अन्दर छिपा या दबा हुआ। (लेटेन्ट) २. स्थापित किया हुआ। ३. दिया या सौंपा हुआ।
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निहीन  : वि० [सं० नि-हीन, प्रा० स०] परमहीन। बहुत क्षुद्र या तुच्छ।
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निहुँकना  : अ०=निहुरना (झुकना)।
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निहुड़ना  : अ०=निहुरना (झुकना)। स०=निहुराना (झुकाना)।
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निहुरना  : अ० [हिं० नि+होड़न] १. झुकना। नवना। २. नम्र होना।
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निहुराई  : स्त्री० [हिं० निहुरना] झुकने की क्रिया या भाव। स्त्री०=निठुराई (निष्ठुरता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहुराना  : स० [हिं० निहुरना का प्रे०] १.झुकना। नवाना। २. नम्र होने के लिए विवश करना।
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निहोर  : पुं०=निहोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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निहोरना  : अ० [हिं० निहोरा] प्रार्थना या विनती करना। स० किसी पर अनुग्रह करके उसे उपकृत या कृतज्ञ करना। उदा०–सोइ कृपालु केवटहि निहोरे।–तुलसी।
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निहोरा  : पुं० [सं० मनोहार,हिं० मनुहार] १. किसी के किए हुए अनुग्रह या उपकार के बदले में प्रकट की या मानी जानेवाली कृतज्ञता। एहसान। क्रि० प्र०–मानना। मुहा०–(किसी का) निहोरा लेना=ऐसी स्थिति में होना कि कोई उपकार करे और इसके लिए उसका कृतज्ञ होना पड़े। २. निवेदन। विनय। ४. आसरा। भरोसा। क्रि० प्र०—लगना। अव्य० के लिए। वास्ते। दे० ‘निहोरे’।
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निहोरे  : अव्य० [हिं० निहोरा] किसी के किए हुए अनुग्रह या उपकार के आधार पर अथवा उसके कारण। जैसे–हम किस निहोरे उनके यहाँ जाएँ, अर्थात् उन्होंने हमारी कौन सी भलाई या कौन-सा सद्व्यवहार किया है जिसके लिए हम उनके यहाँ जायँ। उदा०–धरहुँ देह नहि आन निहोरे।–तुलसी।
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निह्नव  : पुं० [सं० नि√ह्नु (छिपाना)+अप्] १. निहित अर्थात् छिपे हुए होने की अवस्था या भाव। २. अविश्वास। ३. शुद्धता। पवित्रता। ४. एक प्रकार का साम-गान।
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निह्नुवन  : पुं० [सं० नि√ह्नु+ल्युट्—अन] १. इनकार। २. बहाना।
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निह्नवोत्तर  : पुं० [सं० निह्नव-उत्तर-मध्य० स०] टाल, मटोलवाला उत्तर। बहानेबाजी।
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निह्नुत  : भू० कृ० [सं० नि√ह्नु+क्त] [भाव० निह्नुति] १. अस्वीकृत किया हुआ। २. छिपाया हुआ।
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निह्नुति  : स्त्री० [सं० नि√ह् नु+क्तिन्] अस्वीकार। इन्कार। २. छिपाव। दुराव। गोपन।
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निह्रद  : पुं० [सं० नि√ह्रद् (शब्द)+घञ्] ध्वनि। शब्द।
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नींद  : स्त्री० [सं० निद्रा] १. प्राणियों की वह प्राकृतिक स्थिति जिसमें वे थोडे़-थोड़े समय पर और प्रायः नियमित रूप से अपनी बाह्य चेतना और ज्ञान से रहित होकर पड़े रहते हैं और जिसमें उनके मन मस्तिष्क तथा शरीर को पूर्ण विश्राम मिलता है। जागते रहने के विपरीत की अर्थात् सोने की अवस्था, क्रिया या भाव। क्रि० प्र०-आना।–टूटना।–लगना। मुहा०–नींद उचटना या उचाट होना=किसी विघ्न या बाधा के कारण नींद में भंग पड़ना। नींद करना=(क) सोना। (ख) उदासीन, निश्चित या लापरवाह होना। उदा०–संतों जागत नींद न कीजै।–कबीर। नींद खुलना या टूटना=ठीक समय पर नींद पूरी हो जाने पर उसका अंत होना। नींद पड़ना=कष्ट, चिंता आदि की दशा में किसी प्रकार नींद आना। नींद भर सोना=जितनी इच्छा हो उतना सोना। नींद सचरना=नींद आना। नींद हराम होना=ऐसे कष्ट या चिंता की स्थिति में होना कि नींद बिलकुल न आवे या बहुत कम आवे।
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नींदड़ा (ड़ी)  : स्त्री०=नींद।
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नींदना  : अ०=सोना (नींद लेना)। स०=निराना।
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नींदर  : स्त्री०=नींद। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नींदाला  : वि० [सं० निद्रालु] [स्त्री० नींदाली] १. जिसे नींद आ रही हो। २. सोया हुआ।
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नींन  : स्त्री०=नींद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नींब  : स्त्री०=नीम (पेड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नींबू  : पुं० [सं० निंश्कु, अ० लेमूँ] १. एक पौधा जिसके गोलाकार या लंबोतरे छोटे फल खट्टे रस से भरे होते हैं। २. उक्त पौधे का फल।
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नींबू-निचोड़  : वि० [हिं० नींबू+निचोड़ना] १.(व्यक्ति) जो किसी का सारा तत्त्व उसी प्रकार निकाल लेता हो जिस प्रकार नींबू का रस निकाला जाता है। २. (व्यक्ति) जो थोड़ा सा परिश्रम या सहायता करके उसी प्रकार यथेष्ठ लाभ उठाता हो जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी तरकारी या दाल में अपनी तरफ से नींबू का थोड़ा सा रस डालकर उसमें साझेदार बन बैठता है।
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नींव  : स्त्री० [सं० निमि,प्रा० नेह] १. मकान, महल, आदि की दीवार का वह निचला हिस्सा जो जमीन के अन्दर रहता है। २. उक्त अंश बनाने से पहले जमीन में खोदा जानेवाला गड्ढा। ३. लाक्षणिक अर्थ में वह आरंभिक तथा मौलिक कार्य जिसे आगे चलकर बहुत अधिक उत्कृष्ट या उन्नत रूप मिला हो। पद–नींव का पत्थर=वह तत्त्व, बात या व्यक्ति जो किसी बहुत बड़े कार्य का आधार या मूल हो।
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नीअर  : अ० दे० ‘निकट’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीक  : पुं० [सं० निक्त] १. अच्छापन। उत्तमता। २. कल्याण। भलाई। उदा०–आपन मोर नीक जौ चहहू।–तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=नीका।
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नीका  : वि० [सं० निक्त=साफ, स्वच्छ] १. उत्तम। बढ़िया। २. अच्छा। भला। उदा०–काकपच्छ सिर सोहत नीके।–तुलसी। क्रि० प्र०–लगना।
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नीके  : अव्य० [हिं० नीक] अच्छी तरह।
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नीको  : वि०=नीका।
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नीखर  : वि० [सं० नि+क्षरण] १. निखरा हुआ। २. स्वच्छ। साफ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीगना  : वि० [हिं० न+गिनना]=अनगिनत (अगणित)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीग्रो  : पुं०=दे० ‘हबशी’।
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नीच  : वि० [सं० भाव० नीचता] १. आचार, व्यवहार गुण-कर्म जाति-पाँत आदि के विचार से बहुत ही छोटा और फलतः तुच्छ या हीन। पद–नीच ऊँच=(क) बुराई और अच्छाई। (ख) हानि और लाभ। (ग) दुःख और सुख। २. नैतिक धार्मिक आदि दृष्टियों से बहुत ही निंदनीय, बुरा या हीन। पद–नीच कमाई=अनुचित या दूषित ढंग से प्राप्त किया जानेवाला धन। पुं० १. चोर नामक गंध द्रव्य। २. दशार्ण देश का एक पर्वत। ३. फलित ज्योतिष में किसी ग्रह के उच्च स्थान से सातवें घर में होने की स्थिति। नीच-ग्रह। ४. किसी ग्रह के भ्रमण मार्ग में वह स्थान जो पृथ्वी से सबसे अधिक दूर हो।
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नीचक  : वि० [सं० नीच+कन्] १. बहुत ही छोटे कदवाला। ठिंगना। २. धीमा। मंद। ३. क्षुद्र। कमीना। नीच।
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नीच-कदंब  : पुं० [सं० ब० स०] गोरखमुंड़ी।
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नीचका  : स्त्री० [सं० नि-ई√चक् (प्रतिघात)+अच्—टाप्] अच्छी और बढ़िया गौ।
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नीचकी (किन्)  : वि० [सं० नि-ई√चक्+इनि] [स्त्री० नीचकिनी] १. उच्च। ऊँचा। २. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० १. ऊपरी भाग। २. वह जिसके पास अच्छी गौएँ हों।
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नीचग  : वि० [सं० नीच√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० नीचगा] १. नीचे की ओर जानेवाला। २. ओछा। तुच्छ। नीच। ३. नीच कुल की स्त्री के साथ संभोग करनेवाला। पुं० १. जल। पानी। २. फलित ज्योतिष के अनुसार वह ग्रह जो अपने उच्च स्थान से सातवें पड़ा हो।
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नीचगा  : स्त्री० [सं० नीचग+टाप्] १. नदी। २. नीच कुल के पुरुष के साथ संभोग करनेवाली स्त्री।
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नीचगामी (मिन्)  : वि० [सं० नीच√गम्+णिनि] [स्त्री० नीचगामिनी] १. नीचे की ओर जानेवाला। २. ओछा। तुच्छ। पुं० जल। पानी।
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नीच-गृह  : पुं० [सं० ब० स०] कुंडली में वह ग्रह जो अपने घर से सातवें घर में स्थित हो।
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नीचट  : वि०[सं० निश्चय] दृढ़। पक्का।
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नीचता  : स्त्री० [सं० नीच+तल्+टाप्] १. नीच होने की अवस्था या भाव। २. बहुत ही हेय आचरण या व्यवहार।
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नीचत्व  : पुं० [सं० नीच+त्व] नीचता।
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नीच-वज्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैक्रांत मणि।
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नीचा  : वि० [सं० नीच] [स्त्री० नीची, भाव० नीचाई] १. जो किसी प्रसम धरातल या स्तर से निम्न स्तर पर स्थित हो। जैसे–नीची जमीन, नीची सड़क। पद–नीचा-ऊँचा=कहीं से नीचा और कहीं से ऊँचा। ऊबड़-खाबड़। २. जो किसी की तुलना में कम ऊँचा हो अथवा जिसका विस्तार ऊपर की ओर कम हो। जैसे–नीची दीवार नीची टोपी। ३. झुका हुआ। नत। जैसे–नीचा सिर। ४. जिसका झुकाव या विस्तार नीचे की ओर हो। जैसे–नीची धोती, नीचा पाजामा। मुहा०–नीचा देना=पक्षी का झोंके या तेजी से सीधे नीचे की ओर आना। गोतना। उदा०–उठि ऊँचै नीचौ दयों मनु कलिंग झपि झौर।–बिहारी। ५. अधिकार, पद, मर्यादा आदि के विचार से जो औरों से घटकर हो। छोटा। जैसे–नीची अदालतें, नीची जाति। मुहा०–नीचा दिखाना=(क) तुच्छ ठहराना। (ख) परास्त करना। (ग) लज्जित करना। नीचा देखना=(क) तुच्छ ठहरना। (ख) परास्त होना। (ग) लज्जित होना। ६. स्वर आदि के संबंध में धीमा या मद्धिम।
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नीचाई  : स्त्री० [हिं० नीचा] अपेक्षाकृत नीचे होने की अवस्था या भाव। निचान।
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नीचान  : स्त्री०=नीचाई।
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नीचाशाय  : वि० [सं० नीच-आशय, ब० स०] तुच्छ विचार का। क्षुद्र। ओछा।
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नीचू  : वि० [हिं० नि+चूना] जो चूता न हो। न चूनेवाला। वि०=नीचा। क्रि० वि०=नीचे।
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नीचे  : क्रि० वि० [हिं० नीचा] १. किसी की तुलना में, निम्न धरातल पर या में। जैसे–ऊपर मकान मालिक और नीचे किरायेदार रहता है। २. ऐसी स्थिति में जिसमें उसके ठीक ऊपर भी कुछ हो। जैसे–(क) कुरते के नीचे गंजी पहन लो। (ख) मोटी किताब के नीचे पतली किताब रखना। पद–नीचे ऊपर=उलट-पलट। अस्त-व्यस्त। अव्यवस्थित। जैसे–सब चीजें ज्यों की त्यों रहने दो, नीचे-ऊपर मत करो। नीचे से ऊपर तक=(क) एक सिरे से दूसरे सिरे तक। (ख) सब अंगों या भागों में। सर्वत्र। मुहा०–नीचे उतारना=मरते हुए व्यक्ति को खाट,पलंग आदि से हटाकर नीचे जमीन पर लेटाना। (हिन्दू) नीचे गिरना=आचार-विचार, मान-मर्यादा आदि की दृष्टि से पतित या हीन होना। जैसे–हम नहीं जानते थे कि तुम इतना नीचे गिरोगे। नीचे लाना=(क) जमीन पर गिराना और पछाड़ना। (ख) नीचे उतारना। (ऊपर देखें) ३. किसी की अधीनता या वश में। जैसे–उसके नीचे पाँच कर्मचारी काम करते हैं।
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नीज  : पुं० [?] रस्सी।
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नीजन  : वि०, पुं०=निर्जन।
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नीजू  : स्त्री० [?] रस्सी।
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नीझर  : पुं०=निर्झर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीठ  : वि०=नीठा। अव्य०=नीठि।
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नीठा  : वि० [सं० अनिष्ट, प्रा० अनिट्ट] [भाव० नीठि] १. जो अच्छा न लगे। अरुचिकर। २. अनिष्ट-कारक। बुरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नीठि  : स्त्री० [हिं० नीठ] अरुचि। अनिच्छा। अव्य० बहुत कठिनता या मुश्किल से। ज्यों-त्यों करके। जैसे-तैसे। पद–नीठि नीठि=ज्यों त्यों करके। बहुत कठिनता से। किसी न किसी प्रकार। जैसे-तैसे। उदा०–नीठि नीठि भीतर गई डीठि डीठि सो जोरि।–बिहारी।
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नीड़  : पुं० [हिं० नि√ईड् (स्तुति)+घञ्] १. बैठने या ठहरने का स्थान। २. चिड़ियों का घोंसला। ३. रथ में रथी के बैठने का स्थान।
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नीड़क  : पुं० [हिं० नीड√कै (शोभित होना)+क] १. पक्षी। चिड़िया। २. घोंसला।
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नीड़ज  : पुं० [हिं० नीड√जन् (उत्पत्ति)+ड] पक्षी।
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नीड़ोद्भव  : पुं० [सं० नीड-उद्भव, ब० स०] पक्षी। चिड़िया।
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नीत  : भू० कृ० [सं०√नी (ले जाना)+क्त] १. कहीं पहुँचाया या लाया हुआ। २. ग्रहण किया हुआ। गृहीत। ३. पाया या मिला हुआ। प्राप्त। ४. स्थापित।
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नीति  : स्त्री० [सं०√नी+क्तिन्] [वि० नैतिक] १. ले जाने या ले चलने की क्रिया ढंग या भाव। २. उचित या ठीक रास्ते पर ले चलने की क्रिया या भाव। ३. आचार, व्यवहार आदि का ढंग, पद्धति या रीति। ४. आचार, व्यवहार आदि का वह प्रकार या रूप जो बिना किसी का उपकार किये या किसी को कष्ट पहुँचाये अपने लिए और दूसरों के लिए भी मंगलकारी,शुभ तथा सम्मानजनक हो। ५. ऐसा आचार-व्यवहार जो सबकी दृष्टि में लोक या समाज के कल्याण के लिए आवश्यक और उचित ठहराया गया हो या माना जाता हो। सदाचार, सद्वव्यवहार आदि के नियम और रीतियाँ। ६. राज्य या शासन की रक्षा और व्यवस्था के लिए अथवा शासक और शासित का संबंध ठीक तरह से बनाये रखने के लिए स्थिर किये हुए तत्त्व या सिद्धान्त। ७. अपना उद्देश्य सिद्ध करने या काम निकालने के लिए कौशल तथा चतुरता से किया जानेवाला आचरण या व्यवहार। तरकीब। युक्ति। हिम्मत। (पॉलिसी) ८. किसी काम या बात की उपलब्धि प्राप्ति या सिद्धि। ९. दे० ‘नीति-शास्त्र’। १॰. दे० ‘राजनीति’।
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नीति-कुंतली  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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नीतिज्ञ  : वि० [सं० नीति√ज्ञा (जानना)+क] नीति का जाननेवाला। नीतिकुशल।
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नीतिमान् (मत्)  : वि० [सं० नीति+मतुप्] [स्त्री० नीतिमती] १. नीति परायण। २. सदाचारी।
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नीतिवाद  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह वाद या सिद्धान्त जिसमें व्यवहार और आचार संबंधी नीति की प्रधानता हो।
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नीतिवादी (दिन्)  : वि० [सं० नीतिवाद+इनि] १. नीतिवाद संबंधी। २. नीतिवाद का अनुयायी। ३. जो नीति-शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार सब काम करता हो।
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नीति-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह शास्त्र जिसमें देश, काल और पात्र के अनुसार समाज के कल्याण के लिए उचित और ठीक आचार-व्यवहार करने के नियमों, सिद्धान्तों आदि का विवेचन होता है। (इथिक्स)। २. उक्त विषय पर लिखा हुआ कोई प्रामाणिक और मान्य ग्रंथ।
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नीदना  : अ०=नींदना।
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नीधना  : वि०=निर्धन।
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नीध्र  : पुं० [सं० नि√धृ (धारण)+क, पूर्वदीर्घ] १. छाजन की ओलती। वलीक। २. जंगल। वन। ३. पहिए का धुरा। नेमि। ४. चंद्रमा। ५. रेवती नक्षत्र।
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नीप  : पुं० [सं०√नी+प] १. कदंब। २. भू-कदंब। ३. गुलदुपहरिया। बन्धूक। ४. नीला अशोक। ५. पहाड़ के नीचे का तल या भाग। ६. एक प्राचीन देश। पुं० [अ० निपर] कोई चीज बाँधने के लिए लगाया जानेवाला डोरी या रस्सी का फंदा। क्रि० प्र०–देना।–लगाना।–लेना।
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नीपजना  : अ०=निपजना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीपना  : स०=लीपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीपर  : पुं० [अ० निपर] १. लंगर में बँधी हुई रस्सियों में से एक। २. वह डंडा जिससे उक्त रस्सी कसी जाती है।
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नीपातिथि  : पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि।
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नीपाना  : स० [सं० निष्पन्न] १. पूरा करना। २. उत्पन्न करना। उदा०–गिरि नीपायौ तदि निकुटी ए।–पृथीराज।
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नीब  : स्त्री०=नीम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीबर  : वि०=निर्बल (कमजोर)।
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नीबी  : स्त्री०=नीवि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीबू  : पुं०=नींबू।
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नीम  : स्त्री० [सं० निंब] छोटी-छोटी पत्तियोंवाला एक प्रसिद्ध पेड़ जिसकी पतली शाखाओं की दतुअन बनती है। इस पेड़ की पत्तियाँ और छाल अनेक प्रकार के कृमियों की नाशक मानी गई हैं। मुहा०–नीम की टहनी हिलाना=उपदंश या गरमी की बीमारी से युक्त होना। विशेष–उक्त रोग के रोगी प्रायः नीम की टहनी से पीड़ित अंग पर हवा करते हैं। इसी से यह मुहावरा बना है। वि० [फा०] १. आधा। अर्द्ध। २. आधे के लगभग या थोड़ा-बहुत। जैसे-नीम पागल, नीम राजी, नीम हकीम। ३. रंग के संबंध में जो साधारण से हलका हो। जैसे–नीम प्याजी।
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नीम-गिर्दा  : पुं० [?] बढ़इयों का एक उपकरण।
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नीमच  : पुं० [हिं० नदी+मच्छ] एक तरह की मछली।
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नीमचा  : पुं० [फा० नीमचः] खाँड़ा।
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नीमजाँ  : वि० [फा०] अध-मुआ। मृतप्राय।
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नीम-टर  : वि० [फा० नीम+हिं० टरटर] अर्द्धशिक्षित। (परिहास और व्यंग्य)
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नीमन  : वि० [सं० निर्मल] १. उत्तम। बढ़िया। २. रोगरहित। तन्दुरुस्त। नीरोग। ३. हर तरह से ठीक और काम में आने योग्य।
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नीमर  : वि०=निर्बल।
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नीम-रजा  : वि० [फा० नीम+अ० रजा] जो किसी काम या बात के लिए आधा अर्थात् थोड़ा बहुत राजी या सहमत हो गया हो।
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नीमवर  : पुं० [फा०] कुश्ती का एक पेंच जिससे पीछे खड़े हुए जोड़ को चित्त गिराया जाता है।
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नीमषारण, नीमवारन  : पुं०=नैमिषारण्य।
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नीमस्तीन  : स्त्री० दे० ‘नीमास्तीन।’
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नीमा  : पुं०, वि० [हिं० नीव] नीचा। वि० [फा० नीम] अर्ध। आधा। पुं० एक तरह का पाजामा।
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नीमावत  : पुं० [हिं० निंब] निंबार्काचार्य का अनुयायी एक वैष्णव संप्रदाय।
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नीमास्तीन  : स्त्री० [फा० नीम्+आस्तीन] एक प्रकार की कुरती या फतुही जिसकी आस्तीन आधी अर्थात् कोहनी तक होती है।
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नीयत  : स्त्री० [अ०] कोई काम करने या कोई चीज पाने के संबंध में मन में बनी रहनेवाली स्वभावजन्य वृत्ति अथवा होनेवाला विचार। आंतरिक आशय, उद्देश्य या लक्ष्य। भावना। मनशा (इन्टेन्शन)। मुहा०–नीयत डिगना=अच्छा या उचित संकल्प दृढ़ न रहना। मन में विकारपूर्ण भावना या विचार उत्पन्न करना। बुरा संकल्प होना। नीयत बदल जाना=अच्छे विचार या संकल्प के स्थान पर दूषित या बुरा विचार अथवा संकल्प होना। नीयत बाँधना=मन में दृढ़ विचार या संकल्प करना। नीयत बिगड़ना=नीयत डिगना। (दे० ऊपर) नीयत भरना=मन तृप्त होना। इच्छा पूरी होना। जी भरना। जैसे–अभी इस लड़के की नीयत भरी नहीं है, इसे थोड़ी मिठाई और दो। नीयत में फरक आना=नीयत डिगना या बिगड़ना। (किसी काम चीज या बात में) नीयत लगी रहना=किसी काम की सिद्धि या वस्तु की प्राप्ति की ओर ध्यान लगा रहना।
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नीर  : पुं० [सं०√नी+रक्] १. जल। पानी। २. जल की तरह का कोई तरल पदार्थ। जैसे–नयनों का नीर=आँसू शीतला का नीर=चेचक के फफोलों में से निकलनेवाला चेप या रस। मुहा०–(किसी की आँखों का) नीर ढल जाना=आँखों में लज्जा या शील-संकोच न रह जाना। (आँखों से) नीर ढलना=मरने के समय आँखों से जल निकलना या बहना। ३. आब। कांति। चमक। उदा०–आड़ हू भुलावै नख-सिख भरी नीर की।–सेनापति। ४. नीम के पेड़ से निकलनेवाला स्राव। ५. सुगंधबाला। ६. रहस्य संप्रदाय में, सहस्रार चक्र से झरनेवाला वह रस जो परम आवश्यक कहा गया है। उदा०–आगामी सरुभरिआ नीर। ता यहिं केवल बहु बिस्थीर।–नानक।
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नीर-क्षीर-विवेक  : पुं० [सं० नीर-क्षीर, द्व० स०, नीरक्षीर-विवेक, ष० त०] ऐसा विवेक या ज्ञान जो भले बुरे न्याय-अन्याय आदि में ठीक पूरा और स्पष्ट भेद या विभाग कर सके। विशेष–कहा जाता है कि हंस में इतना ज्ञान होता है कि वह पानी मिले हुए दूध में से दूध तो पी लेता है और पानी छोड़ देता है। इसी आधार पर यह पद बना है।
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नीरछ  : पुं०=नीरद (मेघ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नीरज  : वि० [सं० नीर√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो जल या जल से उत्पन्न हुआ हो। जलीय। पुं० १. कमल। २. मोती। ३. कुट नामक ओषधि। ४. एक प्रकार का तृण।
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नीरण  : पुं० [सं० नीर से] १. जल देना या पहुँचाना। २. नल आदि के सहायता से जल या कोई तरल पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँचाना। (पाइपिंग)।
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नीरत  : वि० [सं० निर-रत्, प्रा० स०] विरत।
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नीरद  : वि० [सं० नीर√दा (देना)+क] नीर अर्थात् जल देनेवाला। पुं० १. बादल। मेघ। २. उत्तराधिकारी या वंशज जो अपने पितरों या पूर्वजों को जल देता अर्थात् उनका तर्पण करता हो। वि० [सं० निः+रद] जिसे दाँत न हो। बिना दाँतोंवाला। दंतहीन।
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नीरधर  : वि० [सं० नीर√धृ (धारण)+अच्] जल धारण करनेवाला। पुं० मेघ।
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नीरधि  : पुं० [सं० नीर√धा+कि] समुद्र। सागर।
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नीरना  : स० [हिं० नीर] १. जल छिड़कना। २. सींचना। ३. पोषक द्रव्य भोजन आदि देकर जीवित रखना। पालना-पोसना। स० [?] छितराना। बिखेरना।
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नीर-निधि  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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नीर-पति  : पुं०[सं० ष० त०] वरुण देवता।
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नीर-प्रिय  : पुं० [सं० ब० स०] जल-बेंत।
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नीरम  : पुं० [देश०] वह बोझ जो जहाज पर केवल उसका संतुलन ठीक रखने के लिए रखा जाता है।
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नीरव  : वि० [सं० निर-रव, ब० स०] १. जिसमें से रव अर्थात् ध्वनि या शब्द निकलता हो। २. जिसमें रव या शब्द न होता हो। ३. जो बोल न रहा हो। चुप। मौन।
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नीरस  : वि० [सं० निर-रस, ब० स०] [भाव० नीरसता] १. जिसमें रस न हो। रसहीन। २. जिसके स्वाद में मिठास न हो। फीका। ३. जिससे या जिसमें मन को रस अर्थात् आनन्द न मिलता हो। ४. जिसमें कोई आकर्षण, मनोरंजक या रुचिकर तत्त्व या बात न हो। ५. सूखा हुआ। शुष्क।
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नीराँजन  : पुं० दे० ‘नीराजन।’
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नीराँजनी  : स्त्री० [सं० नीराजन] वह आधार या पात्र जिसमें आरती के लिए दीप जलाये जाते हैं। आरती।
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नीरा  : स्त्री० [सं० नीर] खजूर या ताड़ के वृक्ष का वह रस जो प्रातःकाल उतारा जाता है और जो पीने में बहुत स्वादिष्ट और गुणकारी होता है। अव्य० [हिं० नियर] समीप। पास। उदा०–दूरि बात खत पाया नीरा।–कबीर।
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नीराखु  : पुं० [सं० नीर-आखु, ष० त०] ऊदबिलाव।
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नीराजन  : पुं० [सं० निर्√राज् (शोभित होना)+ल्युट्–अन] १. देवता को दीप दिखाने की क्रिया। आरती। दीपदान। क्रि० प्र०–उतारना।–वारना। २. हथियारों को साफ करके चमकाने की क्रिया या भाव। ३. मध्य युग में वर्षाकाल बीतने पर और प्रायः आश्विन् मास में राजाओं के यहाँ होनेवाला एक पर्व जिसमें युद्ध से पहले सब हथियार साफ करके चमकाये जाते थे।
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नीराजना  : स० [सं० नीरांजन] १. नीराजन में दीप जलाकर किसी देवी या देवता की आरती करना। २. हथियार माँजकर साफ करना और चमकाना।
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नीराशय  : पुं०=जलाशय।
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नीरिंदु  : पुं० [सं० नि√ईर्+क्विप्, नीर्√इन्द्+उण्] सिहोर (वृक्ष)।
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नीरुज  : वि० [सं० निर्-रुज, ब० स०, रलोप, दीर्घ] रोग-रहित। पुं० कुट नामक ओषधि।
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नीरे  : अव्य०=नियरे (निकट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीरोग  : वि० [सं० निर्-रोग, ब० स० रलोप, दीर्घ] १.(व्यक्ति) जिसे कोई रोग न हो। स्वस्थ। २. जिसमें दोष, विकार आदि न हों। जैसे–नीरोग वातावरण।
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नीरोवर  : पुं० [सं० नीरवर] समुद्र। (सरोवर के अनुकरण पर) उदा०–नीरोवरि प्रवसंति नई।–पृथीराज।
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नीलिंगु  : पुं० [सं० नि√लंग् (गति)+कु, नि० पूर्वदीर्घ] १. एक तरह का कीड़ा। २. गीदड़। श्रृगाल। ३. भौंरा। भ्रमर। ४. फूल।
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नील  : वि० [सं०√नील् (रंग होना)+अच्] गहरे आसमानी रंग का। पुं० १. नीला रंग। २. एक प्रसिद्ध पौधा जो २½/३ हाथ लंबा होता तथा जिसमें नीले रंग के छोटे-छोटे फूल लगते हैं, जिनसे नीला रंग तैयार किया जाता है। विशेष–यह पौधा मूलतः भारतीय है और इसकी लगभग ३॰॰ जातियाँ हैं। बहुत प्राचीन काल से इस पौधे का रंग भारत से विदेशों को जाता रहा है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसके पौधों की खेती की व्यापारिक दृष्टि से विस्तृत व्याख्या की थी। अब भी इसके रंग का उपयोग अनेक औद्योगिक कार्यो में होता है। अपने रंग के नीलेपन के कारण यह शब्द कलंक या लांछन का भी वाचक हो गया है। पद–नील का खेत=ऐसा स्थान जहाँ जाने पर कलंक या लांछन लगना निश्चित हो। ३. उक्त पौधे से निकाला हुआ नीला रंग जो प्रायः धुलाई, रंगाई आदि के कार्यों में आता है। (इंडिगो) पद–नील का टीका=कलंक या लांछन का काम या बात। मुहा०–(किसी की आँखों में) नील की सलाई फिरवा देना=अंधा कर देना। (यह प्राचीन काल का एक प्रकार का दंड था जिसमें नील गरम करके सलाई से आँखों में लगा दिया जाता था)। नील घोटना=व्यर्थ का ऐसा झगड़ा या बखेड़ा बढ़ाना जिससे कलंक या लांक्षन लगने के सिवा और कोई प्राप्ति सिद्धि न हो। नील जलाना= पानी बरसने के लिए नील जलाने का टोटका करना। नील बिगड़ना=(क) आचरण, चाल-चलन या रंग-ढंग खराब होना। (ख) किसी काम, चीज या बात का बुरी तरह से खराब होना या बिगड़ना। (ग) खराबी या दुर्दशा के दिन या समय आना। (घ) बहुत बड़ी खराबी या हानि होना। (नील के पौधों से नील (रंग) निकालने के लिए उन्हें पानी में भिगो कर सड़ाया और मथा जाता था। यदि इस प्रक्रिया में कोई त्रुटि होती थी तो नील (रंग) तैयार नहीं होता था। इसी आदार पर उक्त मुहावरा बना है; और उसमें कई प्रकार के अर्थ लगाए गए हैं।) ४. शरीर पर चोट लगने या मार पड़ने के कारण होनेवाला दाग जो बहुत कुछ नीले रंग का होता है। क्रि० प्र०–पड़ना। मुहा०–नील डालना=इतना पीटना या मारना कि शरीर पर नीले रंग का दाग पड़ जाय। ५. राम की सेना का एक बंदर। ६. एक नाग का नाम। ७. राजा अजमीढ़ का एक पुत्र जो नीलनी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ८. महाभारत के अनुसार माहिष्मती का एक राजा जिसकी एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। उस पर मोहित होकर अग्नि देवता ब्राह्मण के वेश में राजा से कन्या माँगने आये। कन्या पाकर अग्नि देवता ने राजा को वर दिया था कि तुम पर जो चढ़ाई करेगा वह भस्म हो जायेगा। जब राजसूद के समय सहदेव ने महिष्मती पर चढ़ाई की थी, तब उसकी सेना भस्म होने लगी थी, पर सहदेव के प्रार्थना करने पर अग्निदेव ने प्रकट होकर बीच-बिचाव किया और दोनों को संतुष्ट करके युद्ध बंद कराया था। ९. यम का एक नाम। १॰. मंजुश्री का एक नाम। ११. इंद्रनील मणि। नीलम। १२. मांगलिक घोष या शब्द। १३. वटवृक्ष। बरगद। १४. तालीशपत्र। १५. जहर। विष। १६. एक प्रकार का विजय साल। १७. काच लवण। १८. नृत्य में एक प्रकार का करण। १९. पुराणानुसार इलावृत्त खंड का एक पर्वत जो रम्यक वर्ष की सीमा पर है। २॰. पुराणानुसार नौ विधियों में से एक। २१. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में २१ वर्ण होते हैं। २२. दस हजार अरब या खरब की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।–१॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰।
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नील-कंठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसका कंठ या गला नीला हो। पुं० १. शिव का एक नाम जो इसलिए पड़ा था कि समुद्र मंथन से निकला हुआ विष उन्होंने अपने गले में रख लिया था, जिससे उनका गला नीला हो गया था। २. मयूर। मोर। ३. एक प्रकार की छोटी चिड़िया जिसका गला और डैने नीले होते हैं। ४. गौरा पक्षी। चटक। ५. मूली। ६. पिया-साल।
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नीलकंठाक्ष  : पुं० [सं० नीलकंठ-अक्ष, ब० स०] रुद्राक्ष (वृक्ष)।
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नीलकंठी  : स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की पहाड़ी छोटी चिड़िया, जिसकी बोली बहुत ही मधुर और सुरीली होती है। २. एक प्रकार का सुन्दर छोटा पौधा जो बगीचों में शोभा के लिए लगाया जाता है।
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नीलकंठीर  : पुं०=नील-कंठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नील-कंद  : पुं० [सं० ब० स०] भैंसा कंद। महिष्कंद। शुभ्रालु।
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नीलक  : पुं० [सं० नील+कन्] १. काच। लवण। २. बीदरी लोहा। ३. बीजगणित में एक प्रकार की अव्यक्त राशि। ४. मटर। ५. भ्रमर। भौंरा। ६. पिया-साल। ७. काला घोड़ा।
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नील-कण  : पुं० [सं० ष० त०] १. नीलम का कण या टुकड़ा। २. गोदे हुए गोदने का छोटा चिन्ह या बिन्दु।
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नीलकणा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] काला जीरा।
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नीलकांत  : पुं० [ब० स०] १. विष्णु। २. इन्द्रनील मणि। नीलम। ३. एक प्रकार की पहाड़ी चिड़िया जिसका सिर, पैर और कंठ के नीचे का भाग काला होता है और पूँछ नीली होती है। दिगदल।
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नील-केशी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] नील का पौधा।
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नीलक्रांता  : स्त्री० [तृ० त०] कृष्णा पराजिता (लता)।
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नीलक्रौंच  : पुं० [कर्म० स०] काले रंग का बगला।
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नीलगंगा  : स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी।
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नीलगाय  : स्त्री० [हिं० नील+गाय] गाय के आकार का एक तरह का नीलापन लिये भूरे रंग का वन्य-पशु। गवय। रोझ।
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नीलगिरि  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत का एक पर्वत।
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नीलग्रीव  : पुं०=नीलकंठ (शिव)।
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नीलचक्र  : पुं० [कर्म० स०] १. जगन्नाथजी के मंदिर के शिखर पर स्थित एक चक्र। २. दंडक वृत्त का एक भेद।
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नीलचर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] जिसका चमड़ा नीले रंग का हो। पुं० फालसा।
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नीलच्छद  : वि० [नील-छद, ब० स०] जिसके ऊपर नीले रंग का आवरण हो। पुं० १. गरुड़। २. खजूर।
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नीलज  : वि० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+ड] नील से उत्पन्न। पुं० एक तरह का लोहा। वर्मलोह।
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नीलजा  : स्त्री० [सं० नीलज+टाप्] नील पर्वत से उत्पन्न वितस्ता (झेलम) नदी।
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नीलज्ज  : वि०=निर्लज्ज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीलझिंटी  : स्त्री० [कर्म० स०] नीली कठसरैया।
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नील-तरा  : स्त्री० [सं०] गांधार देश की एक प्राचीन नदी जो उरुवेलारण्य से होकर बहती थी। यहीं पहुँचकर बुद्धदेव ने उरुवेल काश्यप, गया काश्यप और नदी काश्यप नामक तीन भाइयों का अभिमान दूर किया था। (बौद्ध)
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नील-तरु  : पुं० [कर्म० स०] नारियल।
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नीलता  : स्त्री० [सं० नील+तल्+टाप्] १. रंग के विचार से नीले होने की अवस्था या भाव। नीलापन। नीलिमा। २. कालापन। स्याही।
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नील-ताल  : पुं० [कर्म० स०] १. स्याम तमाल। हिताल। २. तमाल वृक्ष।
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नील दूर्वा  : पुं० [कर्म० स०] हरी दूब।
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नील-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] असन वृक्ष।
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नीलध्वज  : पुं० [उपमि० स०] १. तमाल वृक्ष। २. [ब० स०] एक राजा।
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नील-निर्यासक  : पुं० [ब० स०, कप्] पियासाल का पेड़।
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नील-निलय  : पुं० [ष० त०] आकाश।
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नील-पंक  : पुं० [उपमि० स०] १. काला कीचड़। २. अंधकार। अँधेरा।
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नील-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. नील कमल। २. गोनरा नामक घास जिसकी जड़ में कसेरू होता है। ३. अनार। ४. विजयसाल। (वृक्ष)
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नीलपत्रिका, नीलपत्री  : स्त्री० [ब० स०,+कप्+टाप्, इत्व, ब० स०, ङीष्] १. नील का पौधा। २. कृष्णताल-मूली।
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नील-पद्म  : पुं० [कर्म० स०] नीले रंग का कमल।
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नील-पर्ण  : पुं० [ब० स०] बृंदार वृक्ष।
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नील-पिच्छ  : पुं० [ब० स०] बाज (पक्षी)।
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नील-पुष्प  : पुं० [कर्म० स०] १. नीला फूल। २. [ब० स०] नीली भंगरैया। ३. काला कोराठा। ४. गठिवन।
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नील-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] १. नील का पौधा। २. अलसी। तीसी।
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नील-पुष्पिका  : स्त्री०=नील-पुष्पा।
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नील-पृष्ठ  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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नील-फला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] १. जामुन। २. बैंगन। भंटा।
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नीलबरी  : स्त्री० [सं० नील+हिं० बरी] कच्चे नील की बट्टी।
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नील-बिरई  : स्त्री० [हिं० नील+बिरई] सनाय का पौधा।
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नील-भृंगराज  : पुं० [कर्म० स०] नीला भँगरा।
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नीलम  : पुं० [फा० मिलाओ सं० नीलमणि] नीले रंग का एक प्रसिद्ध रत्न। (सैफायर) २. एक प्रकार का बढ़िया आम। स्त्री० पुरानी चाल की एक तरह की तलवार।
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नील-मणि  : पुं० [कर्म० स०] नीलम। (रत्न)
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नील-माष  : पुं० [कर्म० स०] काला उड़द।
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नील-मीलिका  : स्त्री० [सं० नील-मील, मध्य० स०+ठन्-इक, टाप्] जुगनूँ।
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नील-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] काली मिट्टी।
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नीलमोर  : पुं० [हिं० नील+मोर] कुरही (पक्षी)।
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नील-लोह  : पुं० [कर्म० स०] बीदरी लोहा।
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नील-लोहित  : वि० [कर्म० स०] नीलापन लिये लाल। बैंगनी। पुं० महादेव। शिव।
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नील-लोहिता  : स्त्री० [कर्म० स०] १. जामुन की एक जाति। २. पार्वती।
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नीलवर्ण  : वि० [ब० स०] नीले रंग का।
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नील-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] बदाक बाँदा। परगाछा।
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नील-वसन  : वि० [ब० स०] जिसने नीले रंग के वस्त्र पहने हों। पुं० १. [कर्म० स०] नीला कपड़ा। २. [ब० स०] शनिग्रह। ३. बलराम।
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नील-वानर  : पुं० [कर्म० स०] दक्षिण भारत के पश्चिमी तट पर रहनेवाले एक तरह के बंदर जिनके चेहरे पर चारों ओर लंबे और घने बाल होते हैं।
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नीलवासा (सस्)  : वि०=नील वसन। पुं० शनिग्रह।
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नीलवीज  : पुं० [ब० स०] पिया-साल।
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नील-वृत्त  : पुं० [ब० स०] तूल। रूई।
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नील-वृष  : पुं० [कर्म० स०] लाल रंग का ऐसा साँड़ जिसका मुँह सिर पूँछ और खुर सफेद हों। विशेष–ऐसा साँड़ श्राद्ध में उत्सर्ग करने के लिए प्रशस्त माना गया है।
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नील-वृषा  : स्त्री० [सं० नील√वृष् (उत्पादन)+क+टाप्] बैंगन।
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नील-वेणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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नील-शिखंड  : पुं० [ब० स०] रुद्र का भेद।
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नील-शिग्रु  : पुं० [कर्म० स०] सहिंजन का पेड़। शोभांजन।
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नील-संध्या  : स्त्री० [उपमि० स०] कृष्णा पराजिता।
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नील-सार  : पुं० [ब० स०] तेंदू का पेड़।
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नील-सिर  : स्त्री० [हिं० नील+सिर] एक तरह की बत्तख जिसके सिर का रंग नीला होता है।
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नील-स्वरूप (क)  : पुं० [ब० स०, कप्] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः तीन तीन भगण और दो दो गुरु अक्षर होते हैं।
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नीलांग  : वि० [नील-अंग, ब० स०] जिसके अंग नीले रंग के हों। नीले अंगोंवाला। पुं० सारस (पक्षी)।
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नीलांजन  : पुं० [नील-अंजन, कर्म० स०] १. नीला सुरमा। २. तूतिया।
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नीलांजना  : स्त्री० [सं० नील√अंज् (मिलाना)+णिच्+ल्यु–अन, टाप्] १. बिजली। नीलांजनी। २. काली कपास।
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नीलांजनी  : स्त्री० [सं० नीलांजन+ङीष्]=नीलांजना।
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नीलांजसा  : स्त्री० [सं०] १. बिजली। विद्युत। २. एक अप्सरा का नाम। ३. एक प्राचीन नदी।
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नीलांबर  : वि० [सं० नील-अंबर, ब० स०] नीले कपड़ेवाला। नीला वस्त्र धारण करनेवाला। पुं० १. नीले रंग का कपड़ा। २. बलदेव। ३. शनैश्चर। ४. राक्षस। ५. तालीशपत्र।
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नीलांबरी  : स्त्री० [सं० नीलांबर+ङीष्] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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नीलांबुज  : पुं० [नील-अंबुज, कर्म० स०] नील कमल।
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नीला  : वि० [सं० नील] [स्त्री० नीली] आकाश या नील की तरह के रंग का। नील वर्ण का। आसमानी। (ब्ल्यू) विशेष–राजस्थान में प्रायः हरा (रंग) ही नीला कहलाता है। मुहा०–(किसी को नीला करना)=मारते मारते शरीर पर नीले दाग डालना। बहुत मार मारना। चेहरा नीला पड़ना=भय आदि के कारण चेहरे का रंग उतर जाना। चेहरा या हाथ पैर नीले पड़ना=चेहरे या शरीर का रंग इस प्रकार बदल जाना कि मानों शरीर में रक्त ही न रह गया हो। पुं० १. इंद्र नील मणि। २. नीलम। ३. एक प्रकार का कबूतर। स्त्री० १. नीली मक्खी। २. नीली पुनर्नवा। ३. नील का पौधा। ४. एक प्रकार की लता। ५. एक प्राचीन नदी। ६. संगीत में एक प्रकार की रागिनी जो मल्लार राग की भार्या कही गई है।
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नीलाक्ष  : वि० [नील-अक्षि, ब० स०] नीली आँखोंवाला। जिसकी आँखें नीले रंग की हों। पुं० राजहंस।
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नीलाचल  : पुं० [नील-अंचल, कर्म० स०] १. नील गिरि पर्वत। २. जगन्नाथ पुरी के पास की एक छोटी पहाड़ी।
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नीलाणी  : स्त्री० [हिं० नीला=हरा] हरियाली। (डिं०)
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नीला थोथा  : पुं० [सं० नील तुत्थ] ताँबे की एक उपधातु जो कृत्रिम और खनिज दो प्रकार की होती है। तूतिया।
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नीलाम  : पुं० [पुर्त,लेलम् या लेइलम्] १. वस्तुओं की होनेवाली वह सार्वजनिक बिक्री जिसमें सबसे अधिक या बढ़कर दाम लगानेवाले के हाथ वस्तुएँ बेची जाती हैं। २. इस प्रकार की चीजें बेचने की क्रिया, ढंग या भाव। विशेष–हमारे यहां इस प्रकार की विक्रय-प्रथा को ‘प्रतिक्रोश’ कहते थे। मुहा०–(किसी चीज का) नीलाम पर चढ़ना=किसी चीज का ऐसी स्थिति में आना कि उसकी बिक्री नीलाम के रूप में हो। जैसे–अदालत की आज्ञा से उसका मकान नीलाम पर चढ़ा है।
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नीलामघर  : पुं० [हिं० नीलाम+घर] वह स्थान जहां चीजें नीलाम की जाती हों।
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नीलामी  : वि० [हिं० नीलाम] नीलाम के रूप में बिकनेवाला या बिका हुआ। जैसे–नीलामी घड़ी। स्त्री० दे० ‘नीलाम’।
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नीलाम्ला  : स्त्री० [नीला-अम्ला, कर्म० स०] नीली कठसरैया।
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नीलाम्लान  : पुं० [नील-आम्लान, कर्म० स०] १. एक प्रकार का पौधा जिसमें सु्न्दर फूल लगते हैं। काला कोराठा। २. उक्त पौधे का फूल।
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नीलारुण  : पुं० [नील-अरुण, कर्म० स०] ऊषा।
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नीलालक  : वि० [सं० नील-अलक, ब० स०] [स्त्री० नीला लका] नीले या काले बालोंवाला। उदा०–घन नीलालका दामिनी जित ललना वह।–निराला।
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नीलालु  : पुं० [नील-आलु, कर्म० स०] एक तरह का कंद।
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नीलालेप  : पुं० [सं०] बालों में लगाया जानेवाला खिजाब।
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नीलावती  : स्त्री० [सं० नीलवती] एक तरह का चावल।
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नीलाशी  : स्त्री० [सं० नील्√अश् (व्याप्ति)+अण्,+ङीप्] नीला सिंदुवार।
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नीलाश्म (न्)  : पुं० [नील-अश्मन्, कर्म० स०] नीलम।
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नीलाश्व  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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नीलासन  : पुं० [नील-असन, कर्म० स०] १. पियासल का पेड़। २. कामशास्त्र में एक प्रकार का आसन या रतिबंध।
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नीलाहट  : स्त्री० [हिं० नीला+आहट (प्रत्य०)] किसी चीज में दिखाई पड़नेवाली हलके नीले रंग की झलक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीलि  : स्त्री० [सं०√नील्+इन्] १. नील का पौधा। २. नीलिका रोग। ३. एक प्रकार का जल-जंतु। ४. नीलिका अर्थात् आँखें तिलमिलाने का रोग। वि०=नीला।
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नीलिका  : स्त्री० [सं० नीली+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. नीलबरी। २. नीला संभालू। नीली निर्गुंडी। ३. आँखें तिलमिलाने का रोग। लिंगनाथ। ४. आघात, चोट आदि लगने पर शरीर पर पड़ा हुआ नीला दाग। नील।
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नीलिका-मुद्रण  : पुं० [मध्य० स०] १. एक प्रकार की छपाई जिसमें नीली जमीन पर सफेद अक्षर और सफेद रेखाएँ अंकित होती हैं। (ब्ल्यू प्रिंटिग) २. उक्त प्रकार से छापा हुआ कागज। (ब्ल्यू प्रिंट) विशेष–प्रायः जमीनों मकानों आदि के नकशे आज-कल इसी रूप में छपते या बनते हैं।
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नीलिनी  : स्त्री० [सं० नील+इनि+ङीप्] १. नील का पौधा। २. नील।
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नीलिमा  : स्त्री० [स० नील+इमानिच्] १. नील होने की अवस्था, गुण या भाव। नीलापन। २. कालापन। श्यामलता। स्याही।
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नीली  : स्त्री० दे० ‘नीलि’ और ‘नीलिका’। वि० हिं० ‘नीला’ का स्त्री०।
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नीली कर्म  : पुं० [सं०] सिर के बाल रँगने की क्रिया। खिजाब लगाना।
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नीली घोड़ी  : स्त्री० [हिं० नीली+घोड़ी] एक प्रकार का स्वाँग जिसमें जामे के साथ सिली हुई कागज की ऐसी घोड़ी होती है जिसे पहन लेने से जान पड़ता है कि आदमी घोड़े पर सवार है। पहले डफाली इसे पहन कर गीत गाते हुए भीख माँगने निकलते थे।
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नीली चकरी  : स्त्री० [हिं० नीली+चकरी] एक तरह का पौधा।
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नीली चाय  : स्त्री० [हिं० नीली+चाय] अगिया घास या यज्ञकुश।
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नीली राग  : पुं० [सं० नील+अच्+ङीष्, नीली राग उपमि० स०] १. प्रगाढ़ प्रेम। २. [ब० स०] घनिष्ठ मित्र।
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नीली संधान  : पुं० [ष० त०] नील का खमीर।
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नीलू  : स्त्री० [हिं० नील] एक तरह की घास। पलवान।
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नीलोत्पल  : पुं० [नील-उत्पल, कर्म० स०] नील कमल।
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नीलोत्पली (लिन्)  : पुं० [सं० नीलोत्पल+इनि] १. शिव का एक अंश। २. बौद्ध महात्मा मंजुश्री का एक नाम।
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नीलोफर  : पुं० [सं० नीलोत्पल से फा०] १. नील कमल। २. कुमुदनी। कोई।
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नीवँ  : स्त्री०=नींव।
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नीवर  : पुं० [?] १. परिव्राजक। संन्यासी। २. बौद्ध भिक्षु। ३. रोजगार। वाणिज्य। ४. रोजगारी। वणिक। ५. कीचड़। ६. जल। पानी।
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नीवाक  : पुं० [सं० नि√वच् (बोलना)+घञ्, कुत्व, दीर्घ] १. अकाल के समय किसी चीज की होनेवाली अत्यधिक माँग। २. अकाल। दुर्भिक्ष।
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नीवानास  : वि० [हिं० नींव+सं० नाश] चौपट। विनष्ट। पुं० जड़-मूल से होनेवाला नाश। बरबादी।
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नीवार  : पुं० [सं० नि√वृ (स्वीकार)+घञ्, दीर्घ] जलीय भूमि में आप से आप होनेवाला धान। तीनी। स्त्री०=निवार।
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नीवि (वी)  : स्त्री० [सं० नि√व्ये (आच्छादन करना)+इञ्, यलोप, उपसर्ग-दीर्घ] १. कमर में लपेटी हुई धोती में की वह गाँठ जो स्त्रियाँ यों ही अथवा उसके ऊपर डोरी से बाँधती हैं। २. वह डोरी जिसे स्त्रियाँ कमर में धोती के ऊपर लपेट कर बाँधती हैं। फुबती। ३. लहँगे के नेफे में पड़ी हुई डोरी। इजारबंद। नाला। ४. जनानी धोती या साड़ी। (क्व०) ५. लँगोटी। ६. मूलधन। पूँजी। ७. वह जमा किया हुआ मूलधन जिसका केवल ब्याज दूसरे कामों में लगता हो। (कौ०)
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नीवी ग्राहक  : पुं० [सं० ष० त०] वह व्यक्ति जिसके पास चन्दे का अथवा और किसी प्रकार का धन जमा हो और उस धन का प्रबंध करता हो। (कौ०)
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नीव्र  : पुं० [सं० नि√वृ+क, पूर्वदीर्घ] दे० ‘नीघ्र’।
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नीशार  : पुं० [सं० नि√शृ (नष्ट करना)+घञ्, दीर्घ] १. सरदी हवा आदि के बचाव के लिए टाँगा जानेवाला परदा या कनात। २. मसहरी। ३. सरदी से बचने के लिए ओढ़ा जानेवाला कपड़ा। जैसे–कंबल, लोई आदि।
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नीस  : पुं० [?] सफेद धतूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीसक  : वि०=निःशक्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=निश्शंक।
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नीसरणी  : स्त्री०=निसेनी (सीढ़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीसाण  : पुं०=निशान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीसानी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २३ मात्राएँ होती हैं और १३वीं और १॰वीं मात्रापर विराम होता है। स्त्री०=निशानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीसार  : पुं०=नीशार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नीसू  : पुं० [?] जमीन पर गड़ा हुआ लकड़ी की ठीहा जिस पर रखकर गन्ना, चारा आदि काटा जाता है।
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नीहँ  : स्त्री०=नींव। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नीहार  : पुं० [सं० नि√हृ (हरण)+घञ्, दीर्घ] १. कोहरा। २. तुषार। पाला।
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नीहार-जल  : पुं० [सं० ष० त०] ओस।
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नीहारिका  : स्त्री० [सं० नीहार+कन्+टाप्, इत्व] रात के समय आकाश में दिखाई पड़नेवाले घने कोहरे की तरह के प्रकाश-पुंज। (नेब्युला)
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नुकता  : पुं० [अ० नुक्तः] १. लेखन में अक्षरों के साथ लगाई जानेवाली बिंदी। २. शून्य का सूचक चिन्ह। ३. किसी प्रकार की बिन्दी या बिन्दु। पुं० १. ऐसी छिपी हुई या रहस्यपूर्ण बात जो सहसा सब की समझ में न आ सके। २. ऐब। दोष। क्रि० प्र०–निकालना। पद–नुकता चीनी। (देखें) ३. चटपटी और मजेदार बात। चुटकुला। क्रि० प्र०–छोड़ना। ४. वह झालर जो घोड़ों की आँखों पर उन्हें मक्खियों से बचाने के लिए बाँधी जाती है। तिल्हरी।
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नुकता-चीन  : वि० [अ० नुक्तः+फा० चीन] [भाव० नुकताचीनी] दूसरे के दोष या बुराइयाँ ढूँढ़नेवाला। छिद्रान्वेषी।
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नुकता चीनी  : स्त्री० [अ० नुक्तः+फा० चीनी] १. दूसरे के दोष या बुराइयाँ ढूँढ़ना। छिद्रान्वेषण। २. दूसरों के दोषों की ओर इंगित करना। दोष दरशाना।
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नुकती  : स्त्री० [फा० नखुदी] महीन और मीठी बुँदिया जिसके प्रायः लड्डू बनाये जाते हैं।
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नुकना  : अ०=लुकना (छिपना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नुकरा  : पुं० [फा० नुक्रः] १. चाँदी। २. घोड़ों का सफेद रंग। ३. सफेद रंग का घोड़ा। वि० (घोड़ा) जिसका रंग सफेद हो।
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नुकरी  : स्त्री० [अ० नुक्र] जलाशयों कि किनारे रहनेवाली एक छोटी चिड़िया जिसके पैर सफेद और चोंच काली होती है।
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नुकसान  : पुं० [फा० नुकसान] १. कमी। छीज। २. किसी काम या व्यापार में होनेवाला घाटा। हानि। क्रि० प्र०–उठाना। ३. ऐसी क्षति जिससे किसी काम, बात या व्यवहार में कमी पड़ती या बाधा होती है। जैसे–भूकंप से कई मकानों का नुकसान हुआ है। क्रि० प्र०–पहुँचना।–पहुँचाना। मुहा०–(किसी का) नुकसान भरना=किसी की क्षति या हानि होने पर उसकी पूर्ति करना। ४. किसी प्रकार की होनेवाली खराबी या विकार। जैसे–बुखार में नहाना नुकसान करता है।
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नुकसानी  : स्त्री० [फा० नुक्सान] १. नुकसान। हानि। २. हानि पूरी करने के लिए दिया जानेवाला धन। क्षति-पूर्ति। वि० (पदार्थ) जिसका कुछ अंश टूट-फूट या बिगड़ गया हो। जैसे–नुकसानी माल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नुकाई  : स्त्री० [हिं० नुकाना] खुरपी से निराने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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नुकाना  : स० [देश०] खुरपी से निराना। स०=लुकाना (छिपाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नुकीला  : वि० [हिं० नोक+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० नुकीली] १. जिसमें नोक हो। २. तेज नोकवाला। ३. नोंक-झोंक अर्थात् सज-धजवाला। बाँका तिरछा। जैसे–नुकीला जवान।
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नुक्कड़  : पुं० [हिं० नोंक] १. नोक की तरह आगे निकला हुआ कोना या सिरा। २. कोना। ३. मकान, गली रास्ते का वह अंत या सिरा जहाँ कोई मोड़ पड़ता हो।
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नुक्का  : पुं० [हिं० नोंक] १. नोक। २. गेड़ी खेलने की छोटी लकड़ी या डंडा। क्रि० प्र०–मारना।–लगाना।
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नुक्का-टोपी  : स्त्री० [हिं० नोक+टोपी] एक तरह की पतली दोपलिया नोकदार टोपी।
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नुक्स  : पुं० [अ० नुक्श] १. किसी चीज में होनेवाली ऐसी कमी या त्रुटि जिससे उस वस्तु में अपूर्णता रहती हो। २. चारित्रिक दोष।
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नुखरना  : अ० [देश०] भालू का चित्त लेटना। (कलंदर)
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नुखार  : स्त्री० [देश०] छड़ी से भालू के मुँह पर किया जानेवाला आघात। (कलंदर) पुं०=लुकाट (लकुट का पेड़ और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नुगदी  : स्त्री० १.=नुकती। २.=लुगदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नुचना  : अ० [हिं० ‘नोचना’ का अ०] नोचा जाना (दे० ‘नोचना’) पुं०=नोचना। (बाल नोचने की चिमटी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नुचवाना  : स० [हिं० नोचना का प्रे०] नोचने का काम दूसरे से कराना। किसी को कुछ नोचने में प्रवृत्त करना।
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नुचित  : वि० [सं० लुंचित] १. नोचा हुआ। २. जिसके सिर के बाल नुचे हुए हों। (जैन साधु)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नुजट  : पुं० [?] संगीत में २४ शोभाओं में से एक।
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नुजूम  : पुं० [अ०] ज्योतिष।
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नुजूमी  : वि० [अ०] नुजूम-संबंधी। पुं० ज्योतिषी।
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नुत  : भू० कृ० [सं०√नु (स्तुति)+क्त] १. वदित। २. स्तुत। ३. पूजित।
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नुति  : स्त्री० [सं०√नु+क्तिन्] १. वंदन। २. स्तुति। ३. पूजन।
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नुत्त  : भू० कृ० [सं०√नुद्(प्रेरणा)+क्त] १. चलाया या फेंका हुआ। २. क्षिप्त। ३. हटाया हुआ। ४. प्रेरित।
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नुत्फा  : पुं० [अ० नुत्फः] १. पुरुष का वीर्य। शुक्र। मुहा०–नुत्फा ठहरना=स्त्री संभोग के फलस्वरूप गर्भ रहना। २. औलाद। संतान।
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नुत्फा हराम  : वि० [अ०] जिसका जन्म व्यभिचार से हुआ हो।
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नुनखरा  : वि० [हिं० नून+खारा] जिसमें कुछ कुछ खारापन हो।
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नुनना  : स० [सं० लवण, लून] खेत काटना। लुनना। वि०=नुनखरा।
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नुनाई  : स्त्री० १.=लुनाई (लावण्य) २.=लुनाई (लुनने की क्रिया या भाव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नुनी  : स्त्री० [देश०] शहतूत की जाति का एक पेड़।
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नुनेरा  : पुं० [हिं० नून+ऐरा] १. नमक बनानेवाला, विशेषतः नोना मिट्टी से नमक निकालनेवाला। २. अमलोनी या नोनी नामक साग। नोनिया।
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नुमा  : प्रत्य० [फा०] १. दूसरों को कुछ दिखलाने या प्रदर्शित करनेवाला। जैसे–राहनुमा=मार्ग प्रदर्शक। २. दिखाई देने या प्रकट होनेवाला। जैसे–खुशनुमा। ३. देखने में किसी के अनुरूप या सदृश्य या समान जान पड़ने या होनेवाला। जैसे–सन्दूक-नुमा मकान। ४. किसी की ओर संकेत करनेवाला। जैसे–कुतुबनुमा=दिग्दर्शक यंत्र (समस्त पदों के अंत में प्रयुक्त)।
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नुमाइंदगी  : स्त्री० [फा०] नुमाइंदा अर्थात् प्रतिनिधि होने की अवस्था या भाव। प्रतिनिधित्व।
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नुमाइंदा  : पुं० [फा० नुमाइंदः] वह जो दूसरों का प्रतिनिधित्व करता हो।
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नुमाइश  : स्त्री० [फा०] [वि० नुमाइशी] १. ऊपर या बाहर से सब लोगों को दिखाने की क्रिया या भाव। दिखावट। प्रदर्शन। २. ऊपरी ठाठ-बाट या तड़क-भड़क। सज-धज। ३. अनोखी, उपयोगी नई या इसी तरह की बहुत सी चीजें इस प्रकार एक जगह रखना कि सब लोग उन्हें देख सकें और उनका परिचय प्राप्त कर सकें। ४. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार से बहुत सी चीजें इकट्ठी कर लोगों को दिखाने के लिए रखी जाती हैं। प्रदर्शनी (एग्जिबिशन) क्रि० प्र०–लगना।–लगाना।
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नुमाइशगाह  : स्त्री० [फा०] वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार की उत्तम और अद्भुत वस्तुएँ इकट्ठी कर के दिखाई जाती हैं। प्रदर्शनी-स्थल।
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नुमाइशी  : वि० [फा० नुमाइश] १. नुमाइश संबंधी। २. (वस्तु) जो नुमाइश में रखी गयी हों या रखी जाने को हों। ३. सुन्दर। ४. जिसके अंदर या नीचे विशेष तत्त्व न हो। दिखावटी। दिखौआ।
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नुमाई  : स्त्री० [फा०] ऊपर से दिखाने की क्रिया या भाव। प्रदर्शन। (समस्त पदों के अंत में प्रयुक्त) जैसे–खुद-नुमाई=आत्म प्रदर्शन या अभिमानपूर्वक यह दिखलाना कि हम ऐसे हैं।
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नुमाया  : वि० [फा०] जो साफ दिखायी देता हो। जाहिर प्रकट।
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नुसखा  : पुं० [अ० नुस्ख] १. कागज का ऐसा टुकड़ा जिस पर कुछ लिखा हो। २. छपी अथवा लिखी हुई पुस्तक की प्रति। ३. वह कागज जिस पर रोगी के लिए औषध और उसकी सेवन विधि लिखी हो। मुहा०–नुसखा बाँधना=वैद्य या हकीम के लिखे अनुसार औषधियों की पुड़िया बाँधकर रोगियों को देना। ४. व्यय का अवसर या योग। जैसे–वहाँ जाना भी ५) का नुसखा है।
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नुहरना  : अ०=निहुरना (झुकना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नू  : विभ० व्रज, पंजाबी, राजस्थानी आदि भाषाओं में कर्मकारक की विभक्ति, को।
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नूका  : पुं० [?] कज्जल नामक छंद।
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नूत  : वि० नूतन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नूतन  : वि० [सं० नव+तनप्, नू-आदेश] [भाव० नूतनता, नूतनत्व] १. नया। नवीन। २. तुरंत या हाल का। ताजा। ३. अनूठा। अनोखा।
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नूतन-चंद्रिक  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक रोग।
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नूतनता  : स्त्री० [सं० नूतन+तल्+टाप्] नूतन होने की अवस्था या भाव।
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नूतनत्व  : पुं० [सं० नूतन+त्व] नूतनता।
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नूत्न  : वि० [सं० नव+त्नप्, नू आदेश]=नूतन।
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नूद  : पुं० [सं०√नुद्+क, पृषो० दीर्घ] शहतूत।
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नूधा  : पुं० [देश०] एक तरह का देशी तंबाकू।
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नून  : पुं० [?] १. आल। २. आल की जाति की एक प्रकार की लता। पुं० [सं० लवण] नमक। पद–नून-तेल=घर-गृहस्थी के निर्वाह के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ और शेष सामग्री।
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नून-ताई  : स्त्री०=न्यूनता।
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नूनी  : स्त्री० [सं० न्यून हिं० नूनी] लिंगेन्द्रिय, विशेषतः बच्चों की।
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नूपुर  : पुं० [सं०√नू (प्रशंसा)+क्विप् नू√पुर (आगे जाना)+क] १. स्त्रियों के पैर का आभूषण। पैंजनी। २. घुँघरू। ३. नगण का पहला भेद। ४. इक्ष्वाकु वंश के एक राजा।
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नूर  : पुं० [अ०] १. ज्योति। प्रकाश। पद–नूर का तड़का=(क) प्रभात का समय। (ख) आभा। चमक। (ग) शोभा। श्री। खुदा का नूर=दाढ़ी पर के बढ़ाये हुए बाल। (मुसल०) उदा०–और तो मैं क्या कहूँ, बन आये हो लंगूर से। दाढ़ी मुड़वाओ, मैं बाज आई खुदा के नूर से।–जान साहब। मुहा०–नूर बरसना=बहुत अधिक शोभा या श्री चारों ओर फैलना। ४. सूफी संप्रदाय में ईश्वर का एक नाम। ५. फारसी संगीत में, बारह मुकामों या गायन-प्रकारों में से एक।
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नूरबाफ  : पुं० [अ० नूर+फा० बाक] जुलाहा। ताँती।
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नूरा  : पुं० [अ० नूर] १. ऐसी कुश्ती में जिसमें दोनों पहलवानों में पहले से तै होता है कि एक दूसरे को चित नहीं गिरायेंगे। २. दवाओं का वह चूर्ण जो स्त्रियाँ अपने गुप्त अंग के बाल साफ करने के लिए लगाती है। (मुसल० स्त्रियाँ)। वि० १.चमकता हुआ। प्रकाशमान। २. तेजस्वी।
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नूरानी  : वि० [अ०] १. जिसमें नूर या प्रकाश हो। २. चमक दमक वाला।
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नूरी  : वि० [अ०] नूर संबंधी। पुं० [फा०] लाल रंग की एक तरह की चिड़िया।
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नूह  : पुं० [अ०] शामी और इमरानी मतों के अनुसार एक पैंगबर जिनके समय में भयंकर तूफान आया था और जिसके फलस्वरूप सारी सृष्टि जलमग्न हो गयी थी। कहते हैं कि उस समय जो थोड़े से लोग बचे थे उन्ही की संतान इस समय है। (यह तूफान भारतीय खंड प्रलय के समान माना गया है)।
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नृ  : पुं० [सं०√नी (ले जाना)+ऋन्, डित्] १. नर। मनुष्य। २. शतरंज का मोहरा।
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नृ-कपाल  : पुं० [ष० त०] मनुष्य की खोपड़ी।
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नृ-केशरी (रिन्)  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा व्यक्ति जो सिंह या शेर के समान पराक्रमी और श्रेष्ठ हो। २. नृसिंह अवतार।
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नृग  : पुं० [सं०] १. मनु के एक पुत्र का नाम। २. उशीनर का पुत्र जो यौधेय वंश का मूल पुरुष था।
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नृगा  : स्त्री० [सं०] राजा उशीनर की पत्नी का नाम।
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नृघ्न  : वि० [सं० नृ√हन् (हिंसा)+टक्] मनुष्य घातक।
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नृतक  : पुं०=नर्त्तक।
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नृतना  : अ० [सं० नृत] नृत्य करना। नाचना।
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नृति  : स्त्री० [सं०√नृत् (नाँचना)+इन्] नाच। नृत्य।
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नृतु (तू)  : पुं० [सं०√नृतु+कु] नर्त्तक।
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नृत्त  : पुं० [सं०√नृत्+क्त] वह नाच जिसमें अंगों का विक्षेप भी किया जाता है।
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नृतांग  : पुं० [सं०] नृत्य का अंग।
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नृत्य  : पुं० [सं०√नृत्+क्यप्] ताल, लय आदि के अनुसार मन-बहलाव के लिए शरीर के अंगों का किया जानेवाला संचालन। विशेष दे० ‘नाच’।
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नृत्यकी  : स्त्री०=नर्त्तकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नृत्य-गीत  : पुं० [सं०] धार्मिक, सामाजिक आदि अवसरों पर होनेवाला ऐसा नृत्य जिसमें नर्त्तक साथ ही साथ गाते भी हैं। जैसे–गुजरात का गरबा प्रसिद्ध नृत्य गीत है।
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नृत्य-नाटक  : पुं० [सं०] ऐसा अभिनय या नाट्य जिसमें नृत्यों की अधिकता हो।
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नृत्य-प्रिय  : पुं० [ब० स०] १. महादेव। २. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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नृत्यशाला  : स्त्री० [ष० त०] नाचघर।
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नृ-दुर्ग  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह दुर्ग जिसके चारों ओर मनुष्यों विशेषतः सैनिकों का घेरा हो।
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नृ-देव  : पुं० [सं० स० त०] १. राजा। २. ब्राह्मण।
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नृ-धर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं० ब० स० अनिच्] कुबेर।
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नृपंजय  : पुं० [सं० नृप√जि (जीतना)+खश्,मुम्] एक पुरुवंशी नरेश।
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नृप  : वि० [सं० नृ√पा (रक्षा)+क] [भाव० नृपता] मनुष्यों की रक्षा करनेवाला। पुं० राजा।
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नृप-कंद  : पुं० [मध्य० स०] लाल प्याज।
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नृप-जय  : पुं० [सं०] एक पुरुवंशीय राजा।
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नृपता  : स्त्री०[सं० नृप+तल्+टाप्] नृप अर्थात् राजा होने की अवस्था,गुण या भाव। राजत्व।
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नृ-पति  : पुं०[सं० ष० त०] १.राजा। २.कुबेर।
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नृप-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] १,अमलतास। २.खिरनी का पेड़।
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नृप-द्रोही(हिन्)  : पुं० [सं० नृप√द्रुह (द्रोह करना)+णिनि] परशुराम।
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नृप-प्रिय  : पुं० [ष० त०] १. लाल प्याज। २. राम शर। सरकंडा। ३. एक प्रकार का बाँस। ४. जड़हन धान। ५. आम का पेड़। ६. पहाड़ी तोता।
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नृप-प्रिय-फला  : स्त्री० [ब० स० टाप्] बैंगन।
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नृप-प्रिया  : स्त्री० [सं० नृपप्रिय+टाप्] १. केतकी। २. पिंडखजूर।
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नृपमांगल्य (क)  : पुं० [ब० स० कप्] तरवट का पेड़। आहुल।
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नृप-मान  : पुं० [ष० त०] पुरानी चाल का एक तरह का बाजा जो राजाओं के भोजन के समय बजाया जाता था।
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नृप-वल्लभ  : स्त्री० [ष० त०] १. आम। २. राजा का सखा।
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नृप-वल्लभा  : स्त्री० [ष० त०] १. रानी। २. केतकी।
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नृप-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] सोनालु का पेड़।
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नृप-शासन  : पुं० [ष० त०] राजा की आज्ञा।
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नृ-पशु  : पुं० [उपमि० सं०] वह जो मनुष्य होने पर भी पशुओं का सा आचरण करता हो।
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नृप-सुत्  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० नृपसुता] राजकुमार।
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नृप-सुता  : स्त्री० [ष० त०] १. राजकन्या। राजकुमारी। २. छुछूँदर।
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नृपांश  : पुं० [नृप-अंश,ष० त०] आय,उपज आदि का वह अंश जो राजा को दिया जाता हो।
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नृपात्मज  : पुं० [नृप-आत्मज्,ष० त०] [स्त्री० नृपात्मजा] राजकुमार।
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नृपाध्वर  : पुं० [नृप-अध्वर,मध्य० स०] राजसूय यज्ञ।
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नृपान्न  : पुं० [नृप-अन्न,ष० त०] १. राजा का अन्न। २. राजभोग धान।
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नृपाभीर  : पुं० [सं० अभि√ईर्(सूचना)+क,नृप-अभीर,ष० त०] एक तरह का बाजा। विशेष दे० ‘नृपमान’।
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नृपामय  : पुं० [आमय-नृप,ष० त० पूर्वनिपात] यक्ष्मा राजरोग।
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नृपाल  : पुं० [सं० नृ√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] राजा।
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नृपावर्त्त  : पुं० [सं० नृप+आ√वृत्त (बरतना+अच्)] एक तरह का रत्न। राजावर्त्त।
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नृपासन  : पुं० [नृप-आसन,ष० त०] राजसिंहासन। तख्त।
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नृपाह्व  : पुं० [नृप-आह्वा,ब० स०] लाल प्याज।
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नृपाह्वय  : वि० [सं० नृप-आ√ह् वे(स्पर्धा)+अच्] राजा कहलानेवाला। राजा नामधारी।
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नृपोचित  : वि० [नृप-उचित,ष० त०] राजाओं के लिए उचित या उपयुक्त। राजाओं के योग्य। जैसे-नृपोचित व्यवहार। पुं० एक प्रकार का काला बड़ा उरद। राज-माष। २. लोबिया।
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नृमणा  : स्त्री० [सं० नृ-मन, ब० स०, टाप्, णत्व]प्लक्षद्वीप की एक महानदी। (भागवत)
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नृमणि  : पुं० [सं०] एक पिशाच जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि वह बच्चों को तंग किया करता है।
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नृ-मर  : वि० [सं० ष० त०] मनुष्यों को मारनेवाला। पुं० राक्षस।
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नृमल  : वि०=निर्मल।
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नृ-मिथुन  : पुं० [सं० ष० त०] १. स्त्री-पुरुष का जोड़ा। २. मिथुन राशि।
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नृ-मेध  : पुं० [सं० ष० त०] नरमेध(दे०)।
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नृ-यज्ञ  : पुं० [सं० मध्य० स०] गृहस्थ के लिए आवश्यक माने हुए पंचयज्ञों में से एक जिसमें अतिथि का सत्कार उचित ढंग से करने को कहा गया है।
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नृ-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] मनुष्यों का लोक। मर्त्यलोक।
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नृ-वराह  : पुं० [सं० कर्म० स०] वाराह रूपीधारी। विष्णु भगवान।
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नृ-वाहन  : पुं० [सं० ब० स०] कुबेर।
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नृ-वेष्टन  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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नृशंस  : वि० [सं० नृ√शंस् (हिंसा)+अण्] [भाव,नृशंसता] १. क्रूर। निर्दय। २. अत्याचारी। ३. बहुत बड़ा अनिष्ट या अपकार करनेवाला।
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नृशंसता  : स्त्री० [सं० नृशंस+तल्+टाप्] नृशंस होने की अवस्था,गुण या भाव।
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नृ-श्रृंग  : पुं० [सं० ष० त०] मनुष्य के सींग के समान अस्तित्वहीन और कल्पित वस्तु।
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नृ-सिंह  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह जो मनुष्यों में उसी प्रकार प्रधान और श्रेष्ठ हो, जिस प्रकार पशुओं में सिंह होता है। सिंह जैसे पराक्रम वाला व्यक्ति। २. पुराणानुसार विष्णु का चौथा अवतार जो आधे मनुष्य और आधे सिंह के रूप में हुआ था। विशेष-विष्णुका यह रूप भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए हुआ था,और इस अवतार में उन्होंने राक्षसों के राजा हिरण्यकश्यप को मारा था। ३. कामशास्त्र में एक प्रकार का आसन या रति-बंध।
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नृसिंह-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] वैशाष शुक्ल चतुर्दशी इसी तिथि को भगवान नृसिंह अवतरित हुए थे।
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नृसिंह-पुराण  : पुं० [मध्य० स०] एक उपपुराण।
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नृसिंपुरी  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश (बृहत्संहिता)।
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नृ-सोम  : पुं० [उपमि० स०] ऐसा मनुष्य जो चंद्रमा के समान प्रकाशमान हो। बहुत बड़ा आदमी।
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नृ-हरि  : पुं० [कर्म० स०] नृसिंह। (दे०)।
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ने  : विभ० [सं० एन०] १. हिन्दी में,सकर्मक भूतकालिक क्रिया के कर्ता के साथ लगनेवाली एक विभक्ति। जैसे-राम ने खाया,कृष्ण ने मारा। २. गुजराती तथा राजस्थानी में कर्म तथा संप्रदाय कारकों की विभक्ति। ‘को’ के स्थान पर प्रयुक्त।
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नेअमत  : स्त्री० [अ०]=नियामत (देन)।
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नेईं,नेई  : स्त्री०=नींव।
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नेउछावरि  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेउतना  : स० [हिं० न्योता] निमंत्रण देना। बुलाना।
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नेउतहरि(री)  : वि० [हिं० न्योता] १. जिसे न्योता (निमंत्रण) दिया गया हो। निमंत्रित। २. (वह) जो निमंत्रण पर आया हो।
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नेउता  : पुं० १.=न्योता (निमंत्रण) २.नौरता (त्योहार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेउर  : पुं० [सं० नुपुर] १. पैंजनी। २. घुँघरु उदा०–सूँधा वास ऊनै नेउर सद।–प्रिथीराज।
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नेउला  : पुं०=नेवला।
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नेक  : वि० [सं० निक्त(=नीका,अच्छा) से फा०] १. अच्छा। भला। २. उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे-नेक चलन। ३. शिष्ट। सज्जन। सदाचारी। जैसे-नेक आदमी। ४. मांगलिक। शुभ। जैसे-नेक सायत। ५. जिसमें केवल उपकार या भलाई हो। सद्। जैसे-नेक सलाह। वि० [हिं० न+एक] जरा-सा। थोड़ा-सा। अव्य० किंचित। कुछ। जरा। उदा०–नेकु हँसौंही बानि,तजि लखौ परत मुख नीठि।–बिहारी।
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नेक-चलन  : वि० [फा० नेक+हिं० चलन] [भाव० नेक-चलनी] जिसका आचरण उत्तम हो।
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नेकचलनी  : स्त्री० [हिं० नेक-चलन+ई(प्रत्य०)] अच्छा आचरण।
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नेक-नाम  : वि० [फा०] [भाव० नेकनामी] जिसकी किसी अच्छे काम या बात के लिए प्रसिद्धि हो। सुख्यात।
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नेकनामी  : स्त्री० [फा०] नेकनाम होने की अवस्था या भाव। सुख्याति।
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नेक-नीयत  : वि० [फा० नेक+अ० नीयत] [भाव० नीकनीयता] १. जिसकी नीयत (उद्देश्य,विचार या संकल्प) अच्छी हो। सदाशय। २. ईमानदार और सच्चा।
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नेक-नीयती  : स्त्री० [फा०+अ०] १. नेक-नीयत होने की अवस्था या भाव। सदाशयता। २. ईमानदारी और सचाई।
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नेक-बख्त  : वि०[फा०] [भाव० नेक-बख्ती] १.भाग्यवान। सौभाग्यशाली। २.सुशील। ३.भोला-भाला।
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नेक-बख्ती  : स्त्री० [फा०] १. अच्छा भाग्य। सौभाग्य। २. सुशीलता। ३. भलमंसत।
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नेकरी  : स्त्री० [?] समुद्र की लहर का थपेड़ा। हाँक (लश०)।
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नेकी  : स्त्री० [फा०] १. नेक होने की अवस्था या भाव। २. अच्छाई। भलाई। ३. शिष्टता और सौजन्य। सदाशयता। ४. दूसरे के साथ किया जानेवाला नेक कार्य अर्थात् किसी के उपकार या हित का काम। परोपकार। पद-नेकी और पूछ पूछ=किसी का उपकार करने के लिए उससे पूछने की क्या आवश्यकता है किसी का उपकार उसके कुछ कहे बिना ही करना चाहिए। नेकी बदी=(क) भलाई और बुराई। (ख) पाप पुण्य। (ग) शुभ और अशुभ घटनाएँ।
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नेकु  : अव्य० [हिं० न+एक] जरा। थोड़ा सा। उदा०–जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।–घनानंद।
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नेख  : पुं० [?] शस्त्र। हथियार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेग  : पुं०[सं० नैयमिक] १. मांगलिक और शुभ अवसरों पर संबंधियों नौकरों-चाकरों तथा अन्य आश्रितों (जैसे-नाई,धोबी,चमार आदि) को कुछ धन आदि देने की प्रथा। २. इस प्रकार दिया जानेवाला धन या वस्तु। ३. उक्त के आधार पर किसी प्रकार का परम्परागत अधिकार या स्वत्व। दस्तूर। ४. कोई शुभ कार्य। जैसे-सौ रुपए खर्च करके तुमने कोई नेग तो किया नहीं। ५. अनुग्रह। कृपा। पुं० [सं० निकट] १. निकटता। सामीप्य। २. संबंध। संपर्क। मुहा०–किसी के नेग लगना=(क) संबंध या संपर्क में आना। (ख) किसी में लीन होना। समाना। (किसी चीज या बात का) नेग लगना=सार्थक या सफल होना। जैसे-चलो,ये रुपए तो नेग लगे,अर्थात् इनका व्यय होना सफल हुआ।
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नेग-चार  : पुं० [हिं० नेक+सं० चार] १. मांगलिक अवसरों पर होनेवाले सामाजिक उपचार, क्रियाएँ विधान आदि। २. उक्त अवसरों पर नेग के रूप में लोगों को थोड़ा-थोड़ा धन देने की क्रिया या भाव। ३. दे० ‘नेग जोग’।
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नेग-जोग  : पुं० [हिं० नेग+अनु० जोग] १. शुभ अवसरों पर संबंधियों तथा काम करनेवालों को कुछ धन दिये जाने की प्रथा। २. ऐसा मांगलिक या शुभ अवसर जिस पर लोगों को नेग देने की प्रथा हो।
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नेगटी  : पुं० [हिं० नेग+टा (प्रत्य०)] नेग या परम्परागत रीति का पालन करनेवाला। दस्तूर पर चलनेवाला।
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नेगी  : पुं० [हिं० नेग] १. शुभ अवसरों पर नेग पाने का अधिकारी। जैसे-धोबी नाई भाट आदि। २.किसी की उदारता दया आदि से लाभ उठाकर बराबर उसकी आकांक्षा और आशा रखनेवाला व्यक्ति। उदा०–गलरामृत शिव आशुतोष बलविश्व सकल नेगी।–निराला।
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नेगी-जोगी  : पुं०[हिं०नेग-जोग] =नेगी।
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नेचर  : पुं० [अं०] निसर्ग। प्रकृति।
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नेचरिया  : वि० [अ० नेचर+इया(अप्र०)] जो केवल प्रकृति को सृष्टि का कर्ता मानता हो,ईश्वर को न मानता हो। प्रकृतिवादी। नास्तिक।
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नेचवा  : पुं० [देश०] पलंग का पाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेछावर  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेज  : पुं०=नेजा (भाला)। उदा०–हयौ नेज चामंड वीर दो सहस लरै मर।–चंदबरदाई।
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नेजक  : पुं० [सं०√निज् (साफ करना)+ण्वुल-अक] रजक। धोबी।
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नेजन  : पुं० [सं०√निज्+ल्युट्-अन] १. कपड़े धोने की क्रिया या भाव। २. सफाई करना।
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नेजा  : पुं० [फा० नैज़ः] १. भाला। बरछा। २. साँग। पुं० [देश०] चिलगोजा नाम का सूखा मेवा। (पश्चिम)।
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नेजा-बरदार  : वि० [फा० नेज़ःबरदार] भाला लेकर चलनेवाला।
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नेजाल  : पुं० [फा० नेजः] भाला। बरछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेजोछना  : स०=अँगोछना या अंग पोंछना (मिथिला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेटा  : पुं० [हिं० नाक+टा] नाक से निकलनेवाला कफ या बलगम। क्रि० प्र०-निकलना।–बहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेठना  : अ०, स०=नाठना (नष्ट करना या होना)।
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नेड़उ  : अव्य० [सं० निकट,पं० नेड़े] समीप। नजदीक। उदा०–दिन नेड़उ आइयो दुरी।–प्रिथीराज।
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नेड़ी  : स्त्री०=लेंडी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेड़े  : अव्य० [सं० निकट,प्रा० निअड़] नजदीक। निकट। पास । (पश्चिम)।
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नेत  : पुं० [सं० नेत्रम्] १. वह रस्सी जिससे मथानी चलाई जाती है। नेती। २. एक तरह का बढ़िया रेशमी कपड़ा। ३. झंडे में लगा हुआ फहरानेवाला कपड़ा। पताका। ४. बिछाने की चादर। उदा०–पुनि गज हस्ति चढ़ावा नेत बिछावा बाट।–जायसी। पुं०[सं०नियति=ठहराव] १.किसी बात का स्थिर होना। ठहराव। निर्धारण। २.दृढ़ निश्चय या संकल्प। ३.प्रबंध। व्यवस्था। स्त्री० दे० ‘नीयत’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेतली  : स्त्री० [सं० नेत्रम्] १. मथानी चलाने की डोरी। २. एक प्रकार की पतली डोरी (लश०)।
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नेता(तृ)  : पुं० [सं०√नी (ले जाना)+तृच्] [स्त्री० नेत्री] १. वह पशु जो अपने झुंड के आगे आगे चलता हो। २. मनुष्यों में वह जो लोगों को मार्ग दिखलाता हुआ आगे चलता हो और दूसरों को अपने साथ ले जाता हो। अगुआ। नायक। ३. आजकल किसी धार्मिक संप्रदाय अथवा किसी राजनीतिक या सामाजिक दल का वह व्यक्ति जो आवश्यक बातों में लोगों का मार्ग प्रदर्शन करता हो और लोगों को अपना अनुयायी बनाकर रखता हो। (लीडर)। ४. प्रभु। मालिक। स्वामी। ५. कार्य का निर्वाह या संचालन करनेवाला अधिकारी। ६. नीम का पेड़। ७. वह जो दूसरों को दंड आदि देता हो। ८. नाटक का नायक। ९. विष्णु का एक नाम। पुं० [हिं० नेत] मथानी की रस्सी। नेती।
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नेतागिरी  : स्त्री० [हिं० नेता+फा० गिरी] नेता बनकर दूसरों का मार्ग प्रदर्शन करने का काम।
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नेति  : अव्य० [सं० न+इति,व्यस्तपद] इसका कहीं अंत नहीं है। यह अनन्त है। (प्रायः ईश्वर,ब्रह्म आदि की महिमा में प्रयुक्त)। स्त्री०=नेती।
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नेती  : स्त्री० [सं० नेत्रम्] १. मथानी चलाने की रस्सी। २. दे० ‘नेती धोती’।
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नेती-धोती  : स्त्री० [सं० नेत्र,हिं० नेता+सं० धौति] आँतों और पेट का मल साफ करने की हठयोग की एक क्रिया जिसमें कपड़े की लंबी पट्टी मुँह के रास्ते पेट में उतारी जाती है और तब इसे बाहर खींचने पर इसके साथ मल बाहर निकलता है।
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नेतुल्ली  : पुं० [हिं० नेता+तुल्ली (प्रत्य०)] छोटा या तुच्छ नेता। (उपहास और व्यंग्य)।
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नेतृत्व  : पुं० [सं० नेतृ+त्व] नेता बनाकर किसी सम्प्रदाय या दल का मार्ग-दर्शन तथा उसके कार्यों का संचालन करना।
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नेत्र  : पुं०[ सं०√नी+ष्ट्रन्] १. आँख। २. दोनों आँखों के आधार पर दो की संख्या। ३. मथानी की रस्सी। ४. पेड़ की जड़। ५. जटा। ६. रथ। ७. नाड़ी। ८. एक तरह का रेशमी कपड़ा। ९. वैद्यक में वस्ति-कर्म में काम आनेवाली सलाई। १॰. दे० ‘नेता’।
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नेत्र-कनीनिका  : स्त्री० [ष० त०] आँख की पुतली।
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नेत्रच्छद  : पुं० [सं० नेत्र√छद् (ढँकना)+णिच्+क,ह्रस्व] पलक।
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नेत्रज  : पुं० [सं० नेत्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] आँसू।
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नेत्र-जल  : पुं०आँसू।
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नेत्रण  : पुं०[सं० नेत्र से] किसी को ठीक मार्ग दिखलाते हुए ले चलना।
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नेत्र-पर्यंत  : पुं०[ष० त०] आँख का कोना।
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नेत्र-पाक  : पुं०[ष० त०] आँख का एक रोग।
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नेत्र-पिंड  : पुं०[ष० त०] १.आँख का डेला। २. [ब० स०] बिल्ली।
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नेत्र-पुष्करा  : स्त्री०[ब० स०, टाप्] रुद्र जटा नामक लता।
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नेत्र-बंध  : पुं०[ब० स०] आँख मिचौली का खेल। (महाभारत)।
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नेत्र-बाला  : स्त्री०[सं०] सुगंधबाला नामक वनौषधि।
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नेत्र-भाव  : पुं०[ष० त०] नृत्य और संगीत में वे भाव जो केवल आँखों की मुद्रा से प्रकट किये जाते हैं।
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नेत्र-मंडल  : पुं० [ष० त०] आँख का डेला।
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नेत्र-मल  : पुं०[ष० त०] आँख में से निकलनेवाला कीचड़ या मल। गिद्द।
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नेत्र-मार्ग  : पुं०[ष० त०] हठयोग में माना जानेवाला अन्तःकरण के पास का वह नेत्र-गोलक जिसका एक सूत्र के द्वारा मस्तिष्क तक संबंध होता है।
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नेत्र-मीला  : स्त्री०[ब० स० पृषो० ल-न] यवतिक्ता लता।
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नेत्र-योनि  : पुं०[ब० स०] १.इंद्र (गौतम के शाप से इनके शरीर पर योनि के आकार के चिन्ह निकल आये थे)। २.चंद्रमा।
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नेत्र-रंजन  : पुं०[ष० त०] कज्जल। काजल।
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नेत्र-रोग  : पुं०[ष० त०] आँखों में होनेवाला रोग।
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नेत्ररोगहा(हन्)  : पुं०[सं० नेत्ररोग√हन्(हिंसा)=+क्विप्] वृश्चिकाली (वृक्ष)।
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नेत्र-रोम(न्)  : पुं० [ष० त०] बरौनी।
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नेत्रवस्ति  : स्त्री०[ष० त०] एक प्रकार की छोटी पिचकारी।
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नेत्र-वारि  : पुं०[ष० त०] आँसू।
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नेत्रविट्(ष्)  : पुं०[ष० त०] आँख का कीचड़।
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नेत्र-विष  : पुं०[ब० स०] एक प्रकार का साँप जिसकी आँखों में विष होना माना जाता है। कहते हैं कि इसके देखने मात्र से प्राणियों पर विष का प्रभाव पड़ता है।
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नेत्रा-संधि  : स्त्री०[ष० त०] आँख का कोना।
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नेत्र-स्तंभ  : पुं०[ष० त०] वह स्थिति जिसमें आँखों की पलकों का उठना और गिरना बन्द हो जाता है।
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नेत्र-स्राव  : पुं०[ष० त०] आँखों से पानी बहना।
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नेत्रहा(हन्)  : पुं०[सं०नेत्र√हन्+क्विप्] वृश्चिकाली (वृक्ष)।
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नेत्रांत  : पुं०[ष० त०] आँख का बाहरी कोना।
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नेत्राबु  : पुं०[नेत्र-अंबु,ष० त०] आँसू।
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नेत्रांभ(स्)  : पुं०[नेत्र-अंभस्,ष० त०] आँसू।
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नेत्राभिष्यंद  : पुं० [नेत्र-अभिष्यंद,ष० त०] छूत से फैलनेवाला एक नेत्र-रोग।
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नेत्रामय  : पुं० [नेत्र-आमय,ष० त०] आँख का रोग।
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नेत्रारि  : पुं० [नेत्र-अरि,ष० त०] थूहर। सेहुँड़।
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नेत्रिक  : पुं० [सं० नेत्र+ठन्–इक] १. एक प्रकार की छोटी पिचकारी(सुश्रुत)। २. कलछी।
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नेत्री  : स्त्री० [सं० नेत्र+ङीप्] १. सं० ‘नेता’ का स्त्री०। स्त्री नेता। २. लक्ष्मी। ३. नाड़ी। ४. नदी।
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नेत्रोत्सव  : पुं० [नेत्र-उत्सव, ष० त०] १. नेत्रों का आनन्द। देखने का मजा। २. दर्शनीय और सुन्दर वस्तु।
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नेत्रोपमफल  : पुं० [नेत्र-उपमा,ब० स० नेत्रोपम-फल,कर्म० स०] बादाम। (भाव प्रकाश)।
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नेत्रौषध  : पुं० [नेत्र-औषध,ष० त०] १. आँख की दवा। २. पुष्प। कसीस।
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नेत्रौषधि(धी)  : स्त्री० [नेत्र-औषधि,ष० त०] मेढ़ासिंगी (पौधा)।
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नेत्र्य  : वि० [सं०] १. नेत्र संबंधी। २. नेत्रों को सुख देनेवाला।
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नेत्र्य-गण  : पुं० [सं० नेत्र+यत्,नेत्र्य-गण,कर्म० स०] रसौत,त्रिफला,लोध,ग्वालपाठा, बनकुलथी आदि ओषधियों का वर्ग।
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नेदिष्ठ  : वि० [सं० अन्तिक+इष्ठन्,नेद-आदेश] १. निकट का। पास का। २. दक्ष। निपुण। पुं० १. अंकोट या ढेरे का वृक्ष।
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नेदिष्ठी(ठिन्)  : वि० [सं० नेदिष्ठ+इनि] समीप का। निकटस्थ। पुं० सगा या सहोदर भाई।
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नेनुआ  : पुं० [देश०] १. एक प्रसिद्ध लता। २. उक्त का लंबोतरा फल जिसकी तरकारी बनाई जाती है। वैद्यक में यह वात तथा पित्त नाशक माना गया है। घिया-तरोई।
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नेप  : पुं० [सं०√नी+प] १. पुरोहित। २. जल।
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नेपचून  : पुं० [फ्रांसीसी] सूर्य की परिक्रमा करनेवाला एक नक्षत्र। एक ग्रह जिसका पता कुछ ही दिन पहले लगा था। वरुण।
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नेपथ्य  : पुं० [सं०√नी+विच्,ने(नेता)+पथ्य,ष० त०] १. सजावट। सज्जा। २. पहनने के कपड़े। पोशाक। (विशेषतः अभिनेताओं की) ३. वेष-भूषा। ४. रंग-मंच का वह भाग जो दर्शकों की दृष्टि से ओझल रहता है और जिसमें अभिनेता या नट उपयुक्त वेश-भूषा आदि से सज्जित होते हैं। ५. रंग-भूमि। रंगशाला।
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नेपाल  : पुं० [देश०] उत्तर प्रदेश के उत्तर और हिमालय के तल में स्थित एक पहाड़ी देश तथा राज्य।
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नेपालक  : पुं० [सं० नेपाल+कन्] ताँबा।
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नेपालजा  : स्त्री० [सं० नेपाल√जन् (उत्पत्ति)+ड+टाप्] मनःशिला। मैनसिल।
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नेपाल-निंब  : पुं० [मध्य० स०] एक तरह का चिरायता।
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नेपाल-मूलक  : पुं० [सं०] हस्तिकंद (कंद)।
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नेपालिका  : स्त्री० [सं० नेपालक+टाप्,इत्व] मनःशिला। मैनसिल।
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नेपाली  : वि० [हिं० नेपाल] १. नेपाल राज्य से संबंध रखेवाला। २. नेपाल में बसने,होने या रहनेवाला। पुं० नेपाल देश का नागरिक या निवासी। स्त्री० नेपाल देश की भाषा। स्त्री०=निवारी (पौधा और उसका फूल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेपुर  : पुं०=नूपुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेफा  : पुं० [फा० नेफ़ः] पायजामे, लहँगे आदि का नेफा जिसमें नाला आदि डाला जाता है। पुं० [अ० नार्थ ईस्ट इण्डिया एजेंसी के आरभिक अक्षरों का समूह] वे पहाड़ी प्रदेश जो भारत के उत्तर पूर्व में पड़ते हैं।
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नेब  : पुं०=नायब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेबू  : पुं०=नींबू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेम  : वि०[सं०√नी+मन्] १. अर्ध। आधा। २. अन्य। दूसरा। पुं० [सं०] १. काल। समय। २. अवधि। ३. खंड। टुकड़ा। ४. दीवार। ५. धोखेबाजी। छल। ६. गड्ढा। गर्त। ७. संध्या का समय। ८. जड़। मूल। पुं० [सं० नियम] १. नियम। कायदा। २. नियमित रूप से या बराबर होती रहनेवाली बात। पद-नेम-धरम=पूजा-पाठ देव-दर्शन आदि धार्मिक कृत्य। ३. प्रथा। रीति।
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नेमत  : स्त्री०= नियामत।
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नेमता  : स्त्री० [सं०] नाचने-गाने का व्यवसाय करनेवाली स्त्री। नर्तकी। .
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नेमि  : स्त्री [सं०√नीमि] १. पहिए का चक्कर या घेरा। चक्र- परिधि।२. किसी प्रकार का चक्कर या घेरा। ३. कूएँ के ऊपर का चबूतरा। जगत। ४. कूएँ की जमवट। ५. किनारा। तट। ६. तिनिश वृक्ष। ७. वज्र। ८. पुराणानुसार एक दैत्य। ९. दे० ‘नेमि नाथ’।
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नेमिचक्र  : पुं० [सं०] एक राजा जो परीक्षित के वंशजों में से था।
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नेमी (मिन्)  : पुं० [सं० नेम+इनि] तिनिश वृक्ष। स्त्री० नेमि। वि० [सं० नियम] किसी प्रकार के नियम, विशेषतः धार्मिक कृत्य-संबंधी नियम का दृढ़तापूर्वक और सदा पालन करने वाला। जैसे- गंगा-स्नान या देव-दर्शन का नेमी। पदः नेमी-धरमी।
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नेमी-धरमी  : वि० [सं० नियम-धर्मी] १. धार्मिक नियमों और सिद्धांतों का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाला। २ नित्य पाठ-पूजा, देव-दर्शन आदि धार्मिक कृत्य करने वाला।
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नेयार्थ  : पुं० [सं० नेय-अर्थ, कर्म० स०] एक पद-दोष जो उस समय माना जाता है जब किसी शब्द से उसके ऐसे लाक्षणिक अर्थ का बोध कराया जाता है जो साधारणतः उससे अभिव्यंजित नहीं होता।
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नेयार्थता  : स्त्री० [सं० नेयार्थ+तल्+टाप्] नेयार्थ दोष होने की अवस्था या भाव।
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नेर  : क्रि० वि० दे०‘नियर’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेरता  : [सं० नैर्ऋत] नैर्ऋत्य दिशा। पश्चिम दक्षिण का कोना।
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नेरवाती  : स्त्री० [देश०] एक तरह की नीले रंग की पहाड़ी भेड़।
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नेरा  : वि० [हिं० नेक] [स्त्री नेरी] जरा-सा। थोड़ा—सा। उदा०–अब ऐसी अनेरी पत्याति न नेरी।–घनानन्द।
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नेराना  : अ०, स०=नियराना।
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नेरुबा  : पुं० [सं० नलहिं,नाली नारी] वह नाली जिसमें से कोल्हू में का तेल बाहर निकलता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेरे  : अव्य [हिं० नियर] निकट। पास। समीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेव  : वि०=नायब। स्त्री०=नींव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवग  : पुं०=नेग। (डिं०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवगी  : पुं०=नेगी (डिं०)।
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नेवछावर  : स्त्री०=निछावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवज  : पुं०=नैवेद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवजा  : पुं०=नेजा (चिलगोजा)।
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नेवजी  : स्त्री०=नेवारी (पौधा तथा फूल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवत  : पुं०=न्यौता। (निमंत्रण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवतना  : स० [हिं० न्योता] न्योता या निमंत्रण देना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवतहारी  : पुं० [हिं० न्योता] वह व्यक्ति जिसे किसी मांगलिक अवसर पर न्योता दिया गया हो या न्योता देने पर आया हो।
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नेवता  : पुं०=न्योता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवती  : पुं० दे० ‘नेवतहरी’। उदा०–नेवती भएउँ बिरह की आगी।–जायसी।
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नेवना  : अ० [सं० नमन] १. झुकना। २. नम्र होना। स० झुकाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवर  : पुं० [सं० नूपुर] १. पैरों में पहनने का नूपुर नाम का गहना। पैंजनी। २. घुँघरू। ३. घोड़ों के पैर में होनेवाला वह घाव जो दूसरे पैर की रगड़ या ठोकर से होता है। क्रि० प्र०-लगना। वि० [सं० निर्बल] १. कमजोर। २. खराब। बुरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवरना  : अ० [सं० निवारण] निवारण होना। दूर होना। स० १. निवारण करना। २. निपटाना। भुगताना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवरा  : पुं० [देश०] लाल कपड़े की वह खोली जो झारी पर चढ़ाई जाती है। पुं०=नेवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवल  : पुं०१.=नेवर। २.=नेवला।
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नेवला  : पुं० [सं० नकुल,प्रा० नउल] चूहे के आकार का भूरे रंग का चार पैरोंवाला एक प्रसिद्ध जंतु जो सांप को मार डालता है।
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नेवा  : पुं० [सं० नियम] १. प्रथा। दस्तूर। रवाज़। २. कहावत। लोकोक्ति। वि० [?] चुप। मौन। पुं०=लेवा। अव्य०=नाई (तरह या समान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवाज  : वि०=निवाज (दयालु)।
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नेवाजना  : स०=निवाजना। (दया करना)।
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नेवाड़ा  : पुं०=निवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवाड़ी  : स्त्री०=नेवारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवाना  : स०=नवाना। (झुकाना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवार  : पुं० [देश०] नेपाल की एक आदिम जाति। स्त्री०=निवार।
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नेवारना  : स० [सं० निवारण] निवारण करना। हटाना। दूर करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेवारी  : स्त्री० [सं० नेपाली] १. चमेली की जाति का फूलों का सुगंधित फूलों का एक प्रसिद्ध पौधा जो चैतमें फूलता है। २. उक्त पौधे का फूल।
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नेष्टा(ष्टृ)  : पुं० [सं०√नी+तृन्, नि० सिद्धि]१. एक ऋत्विक्। २. त्वष्टा देवता।
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नेष्टु  : पुं० [सं० निश् (एकाग्रता)+तुन्] मिट्टी का ढेला।
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नेस  : पुं० [फा० नेश] १. जंगली सूअर के आगे निकला हुआ दाँत। सींग। २. दंश। डंक।
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नेसकुन  : पुं० [देश०] बंदरों का जोड़ा। (कलंदर)।
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नेसुक  : अव्य० वि०=नेक या नेकु (जरा या थोड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेसुहा  : पुं० दे० ‘ठीहा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नेस्त  : वि० [फा०] [भाव० नेस्ती] १. जो न हो। नष्ट। बरबाद।
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नेस्त-नाबूद  : वि० [फा०] जड़-मूल से नष्ट। समूल नष्ट।
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नेस्ती  : स्त्री०[सं० नास्ति से फा०]१. न होने की अवस्था या भाव। अनस्तित्व। २. आलस्य। सुस्ती। ३. नाश। बरबादी। वि० चौपट या सर्वनाश करने वाला।
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नेह  : पुं० [सं० स्नेह] १. स्नेह। प्रीति। प्यार। मुहब्बत। २. घी, तेल या ऐसा ही कोई चिकना और तरल पदार्थ।
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नेहाल  : वि०=निहाल।
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नेही  : वि०=स्नेही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नै  : स्त्री० [सं० नदी, प्रा० णई] नदी। स्त्री० [फा०] १. नरकट। नरसल। २. बाँस की नली। ३. हुक्के की निगाली। ४. बाँसुरी। विभ०=ने (कर्मकारक की विभक्ति) (व्रज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नैऋत  : वि०=नैर्ऋत्य।
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नैक  : वि० [सं० न-एक, सहसुपा स०]१. जो एक नहीं, बल्कि उससे कुछ अधिक हो। अनेक। २. जो अकेला न हो। पुं० विष्णु। वि०, अव्य०=नेक (जरा या थोड़ा)।
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नैकचर  : वि० [सं० नैक√चर् (गति)+ट] जो अकेला न चलता हो। फलतः झुंडों में रहनेवाला। जैसे-भेड़, हाथी, हिरन आदि।
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नैकटिक  : वि० [सं० निकट+ठक—इक]निकटवर्ती पास का।
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नैकट्य  : पुं० [सं० निकट+ष्यञ्]निकटता नजदीकी।
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नैकधा  : अव्य० [सं० नैकधाच्] अनेक प्रकारों से। अनेर रूपों में।
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नैक-भेद  : वि० [सं० ब० स०] विभिन्न प्रकार का। अलग तरह का।
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नैक-श्रृंग  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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नैकषेय  : पुं० [सं० निकषा+ढक्–एय] रावण की माता,निकषा के वंशज।
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नैकृतिक  : वि० [सं० निकृतिठक्-इक] दूसरों की हानि करके निष्ठुरतापूर्वक जीविका चलानेवाला। २. कटु बातें कहनेवाला। कटु-भाषी।
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नैगम  : वि० [सं० निगम+अण्] १. निगम संबंधी। निगम का। २. वेदों अथवा अन्य धर्म ग्रन्थों में लिखा हुआ। ३. जिसमें ब्रह्म के स्वरूप आदि का प्रतिपादन हो। आध्यात्मिक। पुं० १. उपनिषद्। २. नय। नीति।
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नैगम-नय  : पुं० [सं० कर्म० स०]जैन दर्शन का यह तर्क या सिद्धान्त कि सामान्य के बिना विशेष और विशेष के बिना सामान्य नहीं रह सकता।
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नैगमिक  : वि० [सं० निगम+ठक्—इक] १. जिसका संबंध वेदों से हो। २. वेदों से निकला हुआ।
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नैगमेय  : पुं० [सं०] १. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम। २. दे० ‘नैगमेष’।
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नैगमेष  : पुं० [सं०] बालकों का एक ग्रह जिसका प्रकोप होने पर बच्चे रोते हैं, उनके मुंह से फेन गिरता है तथा ज्वर आदि विकार भी होते हैं।
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नैघंटुक  : पुं० [सं० निघंटु+ठक्—क] वैदिक शब्दों की वह शब्दावली जिसकी व्याख्या यास्क ने अपने निरुक्त में की है।
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नैचा  : पुं० [फा० नैचः] नरकट की नालियों का वह ढाँचा जो हुक्के में लगा होता है और जिसके द्वारा तम्बाकू का धुआँ खींचा जाता है।
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नैचाबंद  : पुं० [फा० नैचःबन्द] हुक्कों के नैचे बनानेवाला।
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नैचाबंदी  : स्त्री० [फा० नैचःबंदी] नैचा बनाने का काम और पारिश्रमिक।
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नैचिक  : पुं० [सं० नीचा+ठक्-इक] बैल का माथा।
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नैचिकी  : स्त्री० [सं० नीचि=गोशिरोभाग+कन्+अण्+ङीप्] अच्छी गाय।
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नैची  : स्त्री० [हिं० नीचा] कूएँ के पास की वह ढालुई जमीन जिस पर से बैल मोट खींचते समय नीचे आते-जाते रहते हैं।
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नैचुल  : वि० [सं० निचुल+अण्] निचुल संबंधी। हिज्जल वृक्ष-संबंधी। पुं० निचुल या हिज्जल का बीज या फल।
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नैज  : वि० [सं० निज+अण्] निज का। निजी।
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नैटी  : स्त्री० [देश] दुद्धी या दूधिया घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नैड़ी  : क्रि० वि०=नेड़े (नजदीक)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नैड़ों  : क्रि० वि०=नेड़े।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नैतल  : पुं० [सं० नितल+अण्] नीचे का लोक।
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नैतल-सद्म(न)  : पुं० [सं० ब० स०]नैतल में रहने वाले यम।
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नैतिक  : वि० [सं नीति+ठक—इक] [भाव० नैतिकता] १. नीति का। नीति संबंधी।जैसे- नैतिक विचार। २. नीति के अनुसार होने वाला। जैसे नैतिक उत्तर दायित्व। ३. युक्ति आचरण या व्यवहार से संबंध रखने वाला। जैसे नैतिक पतन।
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नैतिकता  : स्त्री० [सं० नैतिक+तल्-टाप्] नीति शास्त्र के सिद्धान्तों का होनेवाला ज्ञान तथा उनके अनुसार किया जानेवाला अच्छा आचरण।
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नैत्य  : वि० [सं० नित्य+अण्] १. नित्य संबंधी। नित्य का। २. नित्य या रोज होनेवाला। दैनिक। पुं० नियमित रूप से और नित्य किये जानेवाले काम। नित्य कर्म।
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नैत्यक  : वि०[सं० नैत्य+कन्]नित्य होने या किया जाने वाला। नैत्य। पुं० व्यापरिक अथवा कार्यालय संबंधी कार्यों का नित्य का बँधा हुआ क्रम। (रुटीन)
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नैत्र  : वि० [सं०] नेत्रों या आँखों से संबंध रखनेवाला।
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नैत्रिकी  : स्त्री० [सं० नेत्र से] आधुनिक चिकित्सा की वह शाखा जिसमें नेत्र-संबंधी रोगों और उनकी चिकित्सा प्रणाली की विवेचना होती है। (आप्थेलमॉलोजी)।
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नैदाघ  : वि० [सं० निदा+घ+अण्] १. निदाध संबंधी। निदाघ का। २. गरमी या ग्रीष्म ऋतु में होनेवाला। पुं० गरमी का मौसम। ग्रीष्म ऋतु।
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नैदाघिक  : वि० [सं० निदाघ+ठञ्-इक] नैदाघ।
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नैदाघीय  : वि० [सं० निदाघ+छण्-ईय]निदाघ-संबंधी। नैदाघ।
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नैदानिक  : वि० [सं० निदान+ठक्–इक] निदान संबंधी। रोगों के निदान से संबंध रखने वाला। (क्लिनिकल) पुं० वह जो विशिष्ट रूप से रोगों का निदान करता हो।
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नैदानिकी  : स्त्री०[ सं० नैदानिक से]रोगों का निदान करने की विद्या या शास्त्र।
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नैदेशिक  : वि० [सं० निदेश+ठक्-इक] १. निदेश संबंधी। २. निदेश का पालन करनेवाला। पुं० नौकर। सेवक।
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नैद्र  : वि० [सं० निद्रा+अण्] निद्रालु।
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नैधन  : वि० [सं० निधन+अण्] जिसका निधन या नाश होने को हो। नश्वर। पुं० जन्मकुण्डली में लग्न से आठवाँ घर जिसके आधार पर मृत्यु का विचार होता है (ज्यो०)।
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नैधानी  : स्त्री० [सं० निधान+अण्+ङीप्] भू-भाग अलग अलग दरसाने के लिए बनाई जानेवाली ऐसी सीमा जिसके कोयले,भूसी आदि से भरे हुए घड़े गड़े हों। (स्मृति)।
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नैधेय  : वि० [सं० निधि+ढक्-एय] निधि संबंधी। निधि का।
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नैन  : पुं० [सं० नयन] १. आँख। नयन। २. दीवार में से धूआँ निकलने का छेद। धूम-नेत्र। धमाला। पुं० [सं० नवनीत] मक्खन। पुं० अन्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नैन-पटी  : स्त्री० [सं० नयन+पट] आँख या आँखों पर बाँधी जानेवाली पट्टी।
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नैनसुख  : पुं० [सं० नयन+सुख] एक प्रकार का सफेद सूती कपड़ा।
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नैना  : पुं० [सं० नयन] आँख। नेत्र। अ०=नवना। स०=नवाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नैनू  : पुं० [हिं० नैन=आँख] पुरानी चाल की एक प्रकार की बूटीदार मलमल। पुं० [सं० नवनीत] मक्खन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नैपातिक  : वि० [सं० निपात+ठक्-इक] निपात-संबंधी।
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नैपाल  : वि० [सं० नेपाल+अण्] नेपाल देश संबंधी। नेपाल का। पुं० १. नेपाल निंब। २. एक प्रकार की ईख। ३. नेपाल देश।
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नैपालिक  : वि० [सं० नेपाल+ठक्-इक] नेपाल में बनने,होने या रहनेवाला। पुं० ताँबा।
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नैपाली  : वि० [हिं० नैपाल] नैपाल देश का। पुं० १. नेपाल देश का निवासी। स्त्री० [सं०] १. नव-मल्लिका। निवारी। २. मैनसिल। ३. नील का पौधा। ४. एक प्रकार की निर्गुंडी। स्त्री० [हिं० नैपाल] नैपाल देश की बोली या भाषा।
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नैपुण्य  : पुं० [सं० निपुण+ष्यञ्] १. निपुणता। २. ऐसा कार्य या विषय जिसके लिए निपुणता आवश्यक हो।
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नैभृत्य  : पुं० [सं० निभृत+ष्यञ्] १. नम्रता। विनय। २. छिपाव। दुराव। ३. स्थिरता।
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नैमंत्रणक  : पुं० [सं० निमंत्रण+वुञ्–अक] बहुत से लोगों को बुलाकर कराया जानेवाला भोजन। भोज। दावत।
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नैमय  : पुं० [सं०] व्यवसायी। रोजगारी।
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नैमित्त  : वि० [सं० निमित्त+अण्] १. निमित्त संबंधी। २. निमित्त से उत्पन्न। ३. चिन्ह संबंधी।
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नैमित्तिक  : वि० [सं० निमित्त+ठक्–इक] १. जो किसी निमित्त से किया जाय। २.जो किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए हो। जैसे-नैमित्तिक कार्य। ३. आकस्मिक। अप्रायिक। पुं० ज्योतिषी।
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नैमित्तिक प्रलय  : पुं० [सं०] वेदांत के अनुसार प्रत्येक कल्प के अंत में होनेवाला तीनों लोकों का क्षय या पूर्ण विनाश। ब्राह्म प्रलय।
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नैमित्तिक लय  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का प्रलय जिसमें बारह सूर्य उदित होते हैं और १॰॰ वर्ष अनावृष्टि होती है। (गरुड़ पुराण)।
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नैमिश  : पुं०=नैमिष।
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नैमिष  : वि० [सं० निमिष+अण्] १. निमिष संबंधी। २. क्षणिक। पुं० १. नैमिषारण्य तीर्थ। २. एक प्राचीन जाति जो महाभारत के समय यमुना के किनारे बसी थी।
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नैमिषारण्य  : पुं० [सं० नैमिष-अरण्य,कर्म० स०] एक प्राचीन वन जो आजकल के सीतापुर जिले में पड़ता है और एक प्रसिद्ध तीर्थ है। नीमखार।
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नैमिषि  : पुं० [सं० नि√मिष्+क,निमिष+इत्र्] नैमिषारण्य का निवासी।
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नैमिषीय  : वि० [सं० निमिष+छण्-ईय] निमिष संबंधी। निमिष का।
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नैमिषेय  : वि० [निमिष+ढक्—एय]१. नैमिष-संबंधी। २. नैमिषारण्य का।
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नैमेय  : पुं० [सं० नि√मि (लेनदेन) यत्+अण्] १. वस्तुओं का अदला-बदला। विनिमय। २. रोजगार। वाणिज्य।
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नैयग्रोध  : पुं० [सं० न्यग्रोध+अण्, ऐ-आगम] वट वृक्ष का फल।
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नैयत्य  : वि० [सं० नियत+ष्यञ्] नियत, प्रतिष्ठित या स्थिर होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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नैयमिक  : वि० [सं० नियम+ठक्-इक] १. नियम संबंधी। २. नियम के अनुसार होने या किया जानेवाला।
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नैया  : स्त्री०=नाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नैयायिक  : पुं० [सं० न्याय+ठक्-इक]न्याय दर्शन का ज्ञाता। न्यायवेत्ता।
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नैरंग  : पुं० [फा०] १. अद्भुत या विलक्षण चीज या बात। २. इंद्रजाल। जादू। ३. कपट। छल। धोखा।
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नैरंगबाज  : पुं० [फा०] [भाव० नैरंगबाजी] १. मायावी। जादूगर। २. कपटी। छल। धोखा।
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नैरंगी  : स्त्री० [फा०] १. दे० ‘नैरंग’। २. चालबाजी। धूर्तता। ३. चित्र की चंचलता।
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नैरंजना  : स्त्री० [सं०] फल्गु नदी का प्राचीन नाम।
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नैरंतर्य  : पुं० [सं० निरंतर+ष्यञ्] निरंतरता।
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नैरंति  : स्त्री० [सं० नैऋत्य] दक्षिण-पश्चिम के बीच की दिशा। नैऋत्य कोण।
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नैर  : पुं० [सं० नगर] १. नगर। शहर। २. जनपद। देश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नैरपेक्ष्य  : पुं० [सं० निरपेक्ष+ष्यञ्] १. निरपेक्षता। २. उपेक्षा।
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नैरयिक  : वि० [सं० निरय+ठक्-इक] नरक संबंधी। २. नरक में रहने या होनेवाला।
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नैरर्थ्य  : पुं० [सं० निरर्थ+ष्यञ्] निरर्थकता।
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नैरात्म्य  : पुं० [सं० निरात्मन्+ष्यञ्]१. निरात्म होन की अवस्था या भाव। २. एक दार्शनिक सिद्धांत जिसमें यह प्रतिपादित किया जाता है कि वास्तव में आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। (निहलिज्म)
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नैरात्म्यवाद  : पुं०=अनात्मवाद।
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नैराश्य  : पुं० [सं० निराश+ष्यञ्] १. निराश होने की अवस्था या भाव। ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य निराश हो जाता हो। ना-उम्मेदी। २. निराश होने के फलस्वरूप होनेवाली उदासी।
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नैरास्य  : पुं० [सं०] बाण चलाने का एक मंत्र।
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नैरिक  : वि० [सं० नीर+ठक्-इक] नीर या जल संबंधी। जैसे–नैरिक चिन्ह, नैरिक रेखा।
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नैरिकेय  : पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें जल विशेषतः भूतल के नीचे के जल के गुणों नियमों प्रवाहों विभाजनों आदि का विचार होता है। (हाइड्रॉलाजी)।
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नैरुक्त  : वि० [सं० निरुक्त+अण्]१. शब्दों की निरुक्ति या व्युक्त्पत्ति से संबंध रखने वाला। २. निरुक्त शास्त्र सं संबंध रखने वाला। पुं०१.वह व्यक्ति जो शब्दों की निरुक्ति या व्युत्पत्ति जानता हो। २. वह ग्रंथ जिसमें शब्दों की निरुक्ति या व्युत्पत्ति बतलाई गयी हो।
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नैरुक्तिक  : वि०, पुं० [सं० निरूक्त+ठक्-इक]=नैरुक्त।
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नैरुज्य  : पुं० [सं० निरुज+ष्यञ्] निरुज या निरोग होने की अवस्था या भाव। आरोग्य। तंदुरस्ती। स्वस्थता।
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नैरूहिक  : पुं० [सं० निरूह+ठक्-इक]एक तरह की वस्ति। (सुश्रुत)
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नैर्ऋत  : पुं० [सं० निर्ऋति+अण्] निर्ऋति-संबंधी। पुं० १. निर्ऋति की संतान अर्थात् राक्षस। २. नैऋत्य अर्थात् पश्चिम-दक्षिण कोण का स्वामी राहु। ३. मूल नक्षत्र।
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नैर्ऋती  : स्त्री० [सं० नैर्ऋत+ङीप्] १. दक्षिण-पश्चिम के मध्य की दिशा व कोण। २. दुर्गा।
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नैर्ऋतेय  : वि० [सं० निऋति++ढक्–एय] निर्ऋति संबंधी। पुं० निर्ऋति देवता के वंशज।
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नर्ऋत्य  : वि० [सं०] निर्ऋति संबंधी। पुं० निर्ऋति का वंशज। निशाचर। २. दक्षिण पश्चिम की दिशा। ३. मूल नक्षत्र।
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नैर्गुण्य  : पुं० [सं० निर्गुण+ष्यञ्]१. निर्गुणता। २. कला कौशल आदि के ज्ञान का अभाव। ३. सत्त्व रज और तम तीनों गुणों से रहित होने की अवस्था या भाव।
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नैर्देशिक  : वि० [सं० निर्देश+ठक्–इक] १. निर्देश संबंधी। २. निर्देश के रूप में होनेवाला। ३. निर्देश का पालन करनेवाला। पुं० नौकर। भृत्य।
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नैर्मल्य  : पुं० [सं० निर्मल+ष्यञ्] १. निर्मलता। २. विषय-वासना आदि से रहित होना।
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नैर्लज्य  : पुं० [सं० निर्लज्य+ष्यञ्] निर्लज्जता। बेहयाई।
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निर्वाहिक  : वि० [सं० निर्वाह+ठक्-इक]१. निर्वाह-संबंधी। जो निर्वाह के लिए हो। जिसका या जिससे निर्वाह हो सके।
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नैल्य  : पुं० [सं० नील+ष्यञ्] नीले होने की अवस्था या भाव। नीलापन।
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नैवासिक  : वि० [सं० निवास+ठक्-इक] १. निवास संबंधी। २. निवास के अनुकूल या योग्य। (स्थान)
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नैवेद्य  : पुं० [सं० निवेद+ष्यञ्] देवता या मूर्ति को भेंट की या चढ़ाई हुई खाद्य वस्तु। भोग। क्रि० प्र०-लगाना।
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नैवेशिक  : वि० [सं० निवेश+ठक्-इक] निवेश संबंधी। पुं० १. गृहस्थी के उपकरण या पात्र। २. ब्राह्मण को दी जानेववाली भेंट।
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नैश  : वि० [सं० निशा+अण्] १. निशा संबंधी। निशा का। २. रात में किया या होनेवाला। ३. अंधकार-पूर्ण।
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नैशिक  : वि० [सं० निशा+ठञ्-इक] निश्चल होने की अवस्था या भाव। निश्चलता। स्थिरता।
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नैश्चित्य  : पुं० [सं० निश्चित+ष्यञ्]१. निश्चित होने की अवस्था या भाव। निश्चिति। २. निश्चय।
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नैश्श्रेयस(सिक)  : वि० [सं० निश्श्रेयस्+अण्, निश्श्रेयस्+ठक्-इक] १. कल्याणकारक। २. मोक्ष दायक।
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नैषध  : वि० [सं० निषध+अण्] निषध-देश संबंधी। निषध देश का। पुं० १. निषध देश का राजा। २. राजा नल। ३. निषध देश का निवासी। ४. श्री हर्षकृत एक प्रसिद्ध संस्कृत काव्य जिसमें निषध देश के राजा नल की कथा है।
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नैषधीय  : वि० [सं० नैषध+छ-ईय] १. नैषध संबंधी। २. राजा नल के संबंध का।
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नैषध्य  : पुं० [सं० निषध+ण्य] राजा नल का वंशज।
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नैषाद, नैषादि  : पुं० [सं० निषाद+अण्, निषाद+इञ्] निषाद का वंशज।
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नैषेचनिक  : पुं० [सं० निषेचन+ठक्-इक] राज्याभिषेक के अवसर पर दिया जानेवाला उपहार (कौ०)।
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नैष्कर्म्य  : पुं० [सं० निष्कर्मन्+ष्यञ्] १. निष्कर्म होने की अवस्था या भाव। २.कर्मों का परित्याग। निष्क्रियता। ३. आसक्ति और फल की कामना छोड़कर कार्य करना। ४. अकर्मण्यता और आलस्य। ५. आत्मज्ञान।
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नैष्किक  : वि० [सं० निष्क+ठक्-इक]१. निष्क-संबंधी। निष्क का। २. निष्क देकर खरीदा या मोल लिया हुआ। पुं० टकसाल का प्रधान अधिकारी।
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नैष्कतिक  : वि०[सं० निष्कृति+ठक्-इक] दूसरे की हानि करके अपना प्रयोजन सिद्ध करने वाला स्वार्थी।
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नैष्क्रमण  : पुं० [सं० निष्क्रमण+अण्]निष्क्रमण नामक कृत्य या संस्कार।
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नैष्ठिक  : वि० [सं० निष्ठा+ठक-इक][स्त्री० नैष्ठिकी]१. निष्ठावान। निष्ठायुक्त। २. अंतिम और निश्चित रूप में किया जाने वाला। (डेफिनिट) ३. निश्चित। ४. दृढ़। पक्का। ५. सर्वोत्तम। ६. परिपूर्ण। पुं० ऐसा ब्रह्मचारी जो उपनयन संस्कार होने पर आजीवन गुरु के आश्रम में रहकर व्रह्मचर्य का पालन करे।
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नैष्ठुर्य  : पुं० [सं० निष्ठुर+ष्यञ्]=निष्ठुरता।
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नैष्ठ्य  : वि० [सं० निष्ठा+ण्य] निष्ठायुक्त। आचरणशील।
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नैसर्गिक  : वि० [सं० निसर्ग+ठक्-इक] [स्त्री० नैसर्गिकी] १. निसर्ग या प्रकृति से संबंध रखने या उससे होनेवाला। प्राकृतिक। २. निसर्ग से उत्पन्न। ३. स्वाभाविक।
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नैसर्गिकी  : स्त्री० [सं० नैसर्गिक से]१. वे बातें या विचार जो निसर्ग से संबंध रखती या उससे उत्पन्न होती हों। २. दार्शनिक क्षेत्रों में यह धारणा या विश्वास कि सारी सृष्टि वास्तविक है और इसमें कोई अलौकिक या दैवी तत्त्व अथवा भाव नहीं है। कला पक्ष और साहित्य में यह सिद्धांत कि संसार में नैसर्गिक या प्राकृतिक रूप में जो कुछ वस्तुतः होता हुआ दिखाई देता है उसका अंकन या चित्रण ज्यों का त्यों उसी रूप में होना चाहिए; और उसमें आदर्शों, नैतिक विचारों आदि का आरोप नहीं किया जाना चाहिए। ४. आधुनिक धार्मिक क्षेत्र में, यह धारणा या विश्वास कि मनुष्यों में धर्म तत्त्व का आविर्भाव किसी अलौकिक या दैवी शक्ति की प्रेरणा से नहीं हुआ है, और मनुष्य ने धर्म संबंधी सभी भावनाएँ तथा विचार नैसर्गिक या प्राकृतिक जगत से ही लिए हैं। (नैचुरलिज्म, उक्त सभी अर्थों में)
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नैसर्गिकी दशा  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] फलित ज्योतिष में ग्रहों की एक प्रकार की दशा।
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नैसना  : स० [सं० नाशन] नष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नैसा  : वि० [सं० अनिष्ट] [स्त्री० नैसी] अनैसा। बुरा। खराब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नैसुक  : वि०=नेसुक (थोड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नैहर  : पुं० [सं० ज्ञाति, प्रा० णाति,णाई=पिता+हिं० घर] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके पिता का घर। माँ-बाप का घर। पीहर। मायका। ‘ससुराल’ का विपर्याय।
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नोआ  : पुं० [हिं० नोवना] [स्त्री० अल्पा० नोइनी, नोई] दूध दूहते समय गाय के पीछले पैरों में बाँधी जानेवाली रस्सी। बंधी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नोइनी, नोई  : स्त्री० हिं० ‘नोआ’ का स्त्री रूप।
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नोक  : स्त्री० [फा०] [वि० नुकीला] १. किसी कड़ी चीज का वह सिरा जो बराबर पतला हुआ इतना सूक्ष्म हो गया हो कि सहज में दूसरी चीज के तल में गड़ या धँस सके। शंकु की तरह का अगला सिरा। अनी। जैसे–छुरी,पेसिंल या सूई की नोक। मुहा०–नोक दुम भागना=बहुत तेजी से सीधे भागना। २.किसी चीज का आगेवाला वह सिरा जो शेष अंशों की तुलना में पतला हो। जैसे-पानी में निकली हुई जमीन की नोक। ३.कोण बनानेवाली दो रेखाओं के मिलने का स्थान या बिंदु। जैसे-चबूतरे या दीवार की नोक। ४.मान-मर्यादा। इज्जत। प्रतिष्ठा। ५.ऐसी टेक या प्रतिज्ञा जिसका निर्वाह या पालन आवश्यक समझा जाता है। आन। जैसे-चलिए किसी तरह आपकी नोक तो रह गई। मुहा०–नोक को लेना=बहुत बढ़-बढ़कर बाते बघारना। शेखी हाँकना।
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नोक-झोंक  : स्त्री० [फा० नोक+हिं० झोंक] १. बनाव-सिंगार। सजावट। २. ठाठ-बाट। शान। जैसे–उनका हर काम नोक-झोंक से होता है। ३. तपाक। तेज। दर्प। जैसे–उस दिन तो वह बहुत नोक-झोंक से बातें करते थे। ४. खटकने या चुभनेवाली व्यंग्यपूर्ण बात। ताना। ५. आपस में होनेवाली ऐसी कहा-सुनी या वाद-विवाद जिसमें कटुता की मात्रा कम और आक्षेप तथा व्यंग्य की मात्रा अधिक हो। जैसे-आज-कल उन लोगों में खूब नोक-झोंक चल रही है। क्रि० प्र०-चलना।
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नोक-दम  : अव्य० [हिं० नोक+फा० दम] ठीक सामने की ओर। बिल्कुल सीधे। जैसे-नोक-दम भागना।
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नोकदार  : वि० [फा०] १. जिसमें नोक हो। नोकवाला। २. मन में चुभने या भला लगनेवाला। ३. तड़कःभड़कवाला। सजीला।
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नोकना  : अ० [हिं० नोक] अनुराग, लाभ आदि को कारण आगे की ओर प्रवृत्त होना या वढ़ना। उद०—रीझि रहे उत हरि इत राधा, अरस-परस दोउ नोकत।–सूर
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नोक-पलक  : स्त्री [हिं० नोक पलक]१. चेहरे का गठन या बनावट। २. बनावट या रचना के विचार से किसी चीज के भिन्न-भिन्न अंग या अवयव। जैसे यह जूता नोक पलक से ठीक है। उदा०—इस संस्करण में मैंने ‘मधुबाला’ की नोक-पलक सुधार दी है—बच्चन। ३. पहनावे आदि के विचार से व्यक्ति का रूप रंग। (व्यंग्य) जैसे-वकील साहब नोक-पलक से दुरुस्त थे।
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नोक-पान  : पुं० [हिं०] १. पान के आकार का वह चमड़ा जो जूते की नोक और ऐड़ी पर लगा रहता है। २. देशी जूतों की बनावट में काट-छांट, सुन्दरता या मजबूती।
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नोका-झोंकी  : स्त्री०=नोक-झोंक।
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नोकीला  : वि०=नुकीला।
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नोख  : वि० [स्त्री० नोखी] =अनोखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नोच  : स्त्री० [हिं० नोचना] १. नोचने की क्रिया या भाव। २. झपटकर जबरदस्ती छीन लेने या छीनकर भागने की क्रिया या भाव। पद-नोच-खसोट (देखें)।
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नोच-खसोट  : स्त्री० [हिं० नोचना+अनु० खसोटना] १. दो जीवों का परस्पर लड़ते समय अपने-अपने दाँतों नाखूनों आदि से दूसरे के अंगों में से बाल,मांस आदि नोचना। २. दे० ‘छीना-झपटी’।
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नोचना  : स० [सं० लुंचन] १. किसी जमी या लगी हुई वस्तु को निर्दयता पूर्वक झटके से खींचकर अलग करना। जैसे पेड़ के पत्ते या सिर के बाल नोचना। संयो० क्रि०—डालना।–देना।–लेना। २. नाखून, दाँत पंजे आदि से पकड़कर झटके से कुछ अंश निकालना—जैसे गीदड़ ने बच्चे को जगह-जगह से नोच डाला था। ३. किसी के हाथ में पकड़ी हुई वस्तु बलात् उससे छीनने का प्रयत्न करना। संयो० क्रि०—लेना। ४. किसी को किसी काम या बात के लिए इस प्रकार बार-बार तंग या परेशान करना कि ऐसा जान पड़े कि उसका अंग नोचा जा रहा है। जैसे—(क) नालायक लड़के रुपए-पैसे के लिए माँ-बाप को नोचते रहते हैं। (ख) दिवालिए को तगादा करने वाले नोचते हैं। पुं० वह छोटी चिमटी जिससे शरीर के फालतू बाल आदि खींचकर उखाड़े जाते हैं। मोचना।
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नोचा-नोची  : स्त्री०=नोच-खसोट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नोचू  : वि० [हिं० नोचना] १. नोचनेवाला। २. छीना-झपटी करनेवाला। ३. किसी काम या बात के लिए बार-बार बहुत तंग करनेवाला।
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नोट  : पुं० [अं०] १. वह छोटा लेख जो किसी बात का ध्यान रखने-रखाने के लिए उसके संबंध में कहीं टाँक या लिख लिया गया हो। २. लिखी हुई संक्षिप्त चिट्ठी या परचा। ३. अभिप्राय, आशय, विचार आदि प्रकट करनेवाला छोटा लेख। टिप्पणी। ४.राज्य या शासन की ओर से निकाला या प्रचलित किया हुआ कागज का वह टुकड़ा जिस पर धन की संख्या या अंकित मूल्य लिखा रहता है और यह भी लिखा रहता है कि इसे लानेवाले को राज्य या शासन इतना धन देगा। इसका प्रचलन सिक्कों की ही तरह और उनके स्थान पर होता है। जैसे-एक रुपये,पाँच रुपये,दस रुपये और सौ रुपये के नोट आज-कल चलते हैं।
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नोट-बुक  : स्त्री० [अं०] वह छोटी कापी या बही जिसमें कुछ बातें स्मरण रखने के लिए लिखी जाती हैं।
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नोटिस  : स्त्री० [अं०] १. विज्ञप्ति। सूचना। २. इश्तहार। विज्ञापन।
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नोदन  : पुं० [सं०√नुद्(प्रेरणा+णिच्+ल्युट्-अन)]१. पशुओं को चलाने या हाँकने की क्रिया या भाव। २. वह कोड़ा या छड़ी जिससे पशु चलाए या हांके जाते हैं। औंगी पैना। प्रतोदन। ३. खंडन।
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नोदना  : स्त्री० [सं०√नुद्+णिच्+युच्-अन,टाप्] प्रेरणा।
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नोदयिता(तृ)  : वि० [सं०√नुद+णिच+तृच्]प्रेरित करने या आगे बढ़ाने वाला।
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नोन  : पुं० [सं० लवण,हिं० लोन] नमक।
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नोनचा  : पुं० [सं० नोन+फा० अचार] १. नमकीन अचार। २. आम की फाँकों की वह अचार जो केवल नमक डालकर बनाया गया हो। ३. नमक मिली हुई बादाम की गिरी। ४.ऐसी भूमि जिसमें नोना अधिक हो।
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नोनछी  : स्त्री० [हिं० नोन+छार] लोनी मिट्टी।
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नोनहरा  : पुं० [हिं० नोन] पैसा (गंधर्वों की बोली)।
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नोनहरामी  : वि०=नमक हराम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नोना  : वि० [हिं० नोन=नमक] [स्त्री० नोनी,भाव० नोनाई] १. खार या नमक के स्वादवाला। खारा। जैसे–इस कूएँ का पानी नोना है। नमकीन। ३. अच्छा। बढ़िया। ४. सलोना। सुन्दर। पुं० १. वह खारा या नमकीन अंश या क्षार जो मिट्टी की पुरानी दीवारों या सीड़वाली जमीन में प्राकृतिक रूप से निकलकर ऊपर आता है। क्रि० प्र०-लगना। २. नोनी मिट्टी। ३. शरीफा। सीताफल। ४. प्रायः नावों आदि में पेंदे में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। उधई। सं० दे० ‘नोवना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नोना-चमारी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रसिद्ध कल्पित जादूगरनी जिसकी दोहाई मंत्रों में रहती है।
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नोनिया  : पुं० [हिं० नोना] लोनी मिट्टी से नमक निकालने का काम करनेवाली एक जाति। स्त्री० अमलोनी या लोनिया नामक पौधा जिसके पत्तों का साग बनता है।
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नोनी  : स्त्री० [सं० लवण] १. खारी या लोनी मिट्टी। नोना। २. अमलोनी या लोनिया नाम का पौधा। वि० हिं० ‘नोना’ का स्त्री०।
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नोबुल-पुरस्कार  : पुं० [नोबुल(व्यक्ति का नाम)+सं०पुरस्कार] एक जगत् प्रसिद्ध बहुत बड़ा और सम्मानास्पद पुरस्कार जो प्रति वर्ष नीचे लिखे पाँच विषयों में काम करनेवाले सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों को दिया जाता है। भौतिक विज्ञान,रसायन शास्त्र,चिकित्सा शास्त्र साहित्य और शांति रक्षा। विशेष-यह पुरस्कार एक लाख रुपयों से कुछ ऊपर का होता है। और स्वीडन के सुप्रसिद्ध व्यापारी धनकुबेर और दानशील एल्फैड बर्नहार्ड नोबुल (सन् १८३३-१७९६ ई.) द्वारा स्थापित एक बहुत बड़े दान-खाते से दिया जाता है।
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नोर  : वि० [सं० नवल] नवीन। नया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नोल  : वि०=नोर (नवल)। स्त्री० [देश०] चिड़िया की चोंच।
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नोवना  : स० [सं० नद्ध,हिं०नढ़ना,नहना] (गाय के पिछले पैरों में) नोआ बाँधना। बंधी बाँधना।
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नोहर  : वि० [सं० नोपलम्य,प्रा० नोल्लह,या मनोहर] १.जल्दी न मिलनेवाला। अलम्य। दुर्लभ। २.अद्भुत। अनोखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौं-धरई  : स्त्री०=नाम-धराई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौं-धराई  : स्त्री०=नाम-धराई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौं-धरी  : स्त्री०=नाम-धराई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौं  : वि० [सं० नव] जो गिनती में आठ से एक अधिक हो। जैसे-नौखंडा महल। मुहा०–नौ दो ग्यारह होना=चुपचाप या धीरे से खिसक जाना या चल देना। निकल या हट जाना। वि० [सं० नव (नया) से फा०] हाल का। नया। (प्रायः यौगिक पदों के आरंभ में प्रयुक्त) जैसे–नौ-जवान नौ-सिखुआ। पुं० [सं०√नुद+डौ] म समुद्र में चलनेवाला जहाज। जल-यान। २. उक्त पर चलने वाला आदमी। ३. नाविक। मल्लाह। स्त्री० [ अ० नौअ] १. ऐसी जाति या वर्ग जिसमें एक ही तरह की चीजें या जीव सम्मिलित हों। २. तरह। प्रकार।
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नौकड़ा  : वि० [हिं० नौ=नव या नया+कड़ा (प्रत्य०)] [स्त्री० नौकड़ी] १. अभी हाल का। ताजा। २. नव-युवक। नौ-जवान। पद-नौकड़ा वीर=हनुमान जी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० नौ+कौड़ी] एक प्रकार का जूआ जो तीन आदमी हाथ में तीन-तीन कौड़ियाँ लेकर खेलते हैं।
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नौकर  : पुं० [तु०] [स्त्री० नौकरानी,भाव० नौकरी] १.वह जो घर-गृहस्थी के दौड़-धूप के छोट-मोटे काम या सेवाएँ करने के लिए वेतन देकर नियुक्त किया जाता है। भृत्य। सेवक। जैसे-नौकर भेजकर बाजार से सब चीजें मँगा लो। २. वह जो लिखा-पढ़ी,व्यवस्था आदि के कामों में सहायता देने या उन्हें संपन्न करने के लिए वेतन पर नियुक्त किया जाता या होता हो। कर्मचारी। (सर्वेन्ट) जैसे-अब कार्यालय में कई नए लिपिक नौकर रखे गए हैं। क्रि० प्र०-रखना-लगाना।
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नौकरशाह  : पुं० [तु+फा०] वह कर्मचारी जिसके हाथ में पूर्ण शासन की सत्ता हो। जो नौकर होते हुए भी अपने को मालिक या शाह समझता हो।
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नौकरशाही  : स्त्री० [तुं० नौकर+फा० शाही=शासन]१. शासन द्वारा नियुक्त कर्मचारी-वृन्द।२. एक आधुनिक शासन प्रणाली जिसमें यह माना जाता है कि देश का वास्तविक शासन राजा या निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा नहीं हो रहा है, बल्कि उनके सहायकों तथा अन्य बड़े-बड़े सरकारी कर्मचारियों के द्वारा हो रहा है। (ब्यूरोक्रेसी)
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नौकराना  : पुं० [तु० नौकर+हिं आना (प्रत्य०)] वह धन जो नौकर को उसके वेतन के अतिरिक्त और किसी रूप में दिया जाता और मिलता हो।–जैसे बाजार से सौदा लाने की दस्तूरी, विशिष्ट अवसरों पर दिया जाने वाला पुरस्कार।
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नौकरानी  : स्त्री० [तु० नौकर+हिं० आनी (प्रत्य०)] घर-गृहस्थी के काम करनेवाली दासी।
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नौकरी  : स्त्री० [तु० नौकर+हिं० ई (प्रत्य०)] १. नौकर बनकर किसी की सेवा करने अथवा उसके निर्देशानुसार काम करते रहने की अवस्था या भाव। २. वह पद या काम जिसके लिए वेतन मिलता हो। ३. किसी के कृपा-पात्र बने रहने के लिए किये जानेवाले कार्य। मुहा०–नौकरी बजाना=किसी की तरह-तरह की सेवाएँ करना। आदेश पालन करना। (किसी काम या बात के लिए) नौकरी लिखाना=किसी प्रकार की सेवा या भार अपने ऊपर लेना। जैसे-हमने तुम्हारे सब काम की नौकरी नहीं लिखाई है। क्रि० प्र० देना।–पाना।–मिलना।–लगना।–लगाना।
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नौकरी-पेशा  : पुं० [हिं० नौकरी+पेशा] वह जो नौकरी करके जीविका चलाता हो।
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नौ-कर्ण  : पुं० [सं० ष० त०] जहाज या नाव की पतवार।
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नौ-कर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका।
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नौ-कर्म(र्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] जहाज या नाव चलाने का पेशा या वृत्ति। मल्लाही।
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नौका  : स्त्री० [सं० नौ+कन्+टाप्] १. नाव। २. जहाज।
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नौकाधिकरण  : पुं०=नावाधिकारण।
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नौका-विहार  : पुं० [सं० तृ० त०] नौका पर बैठकर नदी आदि की की जानेवाली सैर।
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नौ-क्रम  : पुं० [सं० ष० त०] नावों का पुल।
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नौ-खंडा  : वि० [हिं० नौ+सं० खंड] [स्त्री० नौखंडी] नौ खंडों या मंजिलोंवाला। (मकान)।
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नौगमन  : पुं० दे० ‘नौतरण’।
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नौगरही  : स्त्री०=नौग्रही।
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नौगरी  : स्त्री०=नौग्रही।
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नौग्रही  : स्त्री० [सं० नवग्रह] १. एक प्रकार का हार जिसमें नौग्रहों की शांति के लिए नौ प्रकार के रत्न या नग जड़े रहते हैं। २. उक्त प्रकार का कंगन।
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नौचर  : वि० [सं० नौ√चर् (गति)+ट] जहाज पर जानेवाला। पुं० मल्लाह। माँझी।
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नौचा  : पुं० [फा० नौचः] [स्त्री० नौची] नवयुवक।
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नौची  : स्त्री० [फा०] १. नवयुवती। २. पेशा कमाने के उद्देश्य से कुटनी या वेश्या द्वारा पाली हुई लड़की या युवती स्त्री।
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नौज  : अव्य० [सं० नव द्य, प्र० नवज्ज]१. ईश्वर न करे कभी ऐसा हो। (शुभाकांक्षा के रूप में) २. न हो तो न सही। (उपेक्षा सूचक) ३. ऐसा कभी न हो। (कामना-सूचक)
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नौ-जवान  : वि० [फा०] [भाव० नौजवानी] १. जिसमें युवास्था का आरम्भ हुआ हो। २. जवान। युवक।
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नौजवानी  : स्त्री० [फा०] नौजवान होने की अवस्था या भाव। युवावस्था।
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नौजा  : पुं० [अ० लौजः] १. बादाम। २. चिलगोजा। ३. गले के अंदर का कौआ या घंटी।
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नौजी  : स्त्री० [फा० लौज ?] लीची।
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नौजीवक  : पुं०=नौजीविक।
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नौ-जीविक  : पुं० [सं० ब० स०] मल्लाह। माँझी।
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नौटंका  : वि० [हिं० नौ+टंक (तौल)][स्त्री० नौटंकी]१. तौल में बहुत ही हल्का। २, बहुत ही कोमल तथा सुकुमार अंगोंवाला।
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नौटंकी  : स्त्री० [हिं० नौटंका (तौल में बहुत हलका) स्त्री०] साधारण जनता में अभिनीत होनेवाला एक प्रकार का लोक-नाट्य जिसका कथानक प्रायः श्रृंगार और वीर रस से युक्त होता है। और जिसके संवाद प्रायः प्रश्नोत्तरात्मक तथा पद्य प्रधान होते हैं। इसमें संगीत की प्रधानता होती है और दुक्कड़ या नगाड़े पर विशेष रूप से चौबोले गाये जाते हैं।
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नौड़ी  : स्त्री०=लौड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौढ़ा  : स्त्री०=नवोढ़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नौतन  : वि०=नूतन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौतना  : स०=न्योतना (न्योता या निमंत्रण देना)।
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नौतनी  : स्त्री० [हिं० न्यौतना] वर-वधू को उनके संबंधियों द्वारा अपने-अपने घर बुलाकर उन्हें भोजन कराने तथा धन वस्त्र आदि देने की एक प्रथा।
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नौतम  : वि० [सं० नवतम] १. अत्यंत नवीन। बिलकुल नया। २. हाल का। ताजा। पुं० [हिं० नवना] नम्रता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौ-तरण  : पुं० [सं० तृ० त०] [वि० नौतरणीय,भू० कृ० नवतरित] जल-मार्ग से यात्रा करना।
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नौ-तरणीय  : वि० [सं० तृ० त०](नदी, समुद्र) जिसमें नौका, जहाज आदि चल सकते हों। (नैविगेबुल)
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नौ-तल  : पुं० [सं० ष० त०] वह लंबा शहतीर या लोहे की पटरी जो नाव या जहाज के सबसे नीचे रहती है और जिस पर उसका सारा ढाँचा खड़ा होता है। (कील)।
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नौता  : वि० [सं० नव या नूतन] हाल का। ताजा। नया। स्त्री० [सं० नौ] नम्रता। स्त्री०=नवत्ता (नवीनता) पुं०[?] जादूगर। पुं०=न्योता (निमंत्रण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौ-तेरही  : स्त्री० [हिं० नौ+तेरह] १. पुरानी चाल की वह छोटी ईंट जो नौ जौ चौड़ी और तेरह जौ लंबी होती थी। ककई या लखौरी ईंट। २. पासे से खेला जानेवाला एक प्रकार का जुआ। पुं०=न्योतहरी (निमंत्रित पुरुष)।
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नौतोड़  : वि० [हिं० नौ=नया+तोड़ना] नया तोड़ा हुआ। जो पहले-पहल जोता गया हो। जैसे-नौतोड़ जमीन।
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नौदर  : पुं० [हिं० नौ+दर=दांत] वह बैल जिसके नौ दाँत हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौदसी  : स्त्री० [हि० नौ+दस]महाजनी व्यवहार में, ऋण चुकाने की वह रीति जिसमें हर नौ रुपए के बदले दस रुपए देने पड़ते हैं।
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नौधा  : पुं० [सं० नौ (नया)पौधा] १. बीजों या पौधों में निकलनेवाला नया कल्ला। २. वर्षारंभ में बोई जानेवाली नील की फसल। ३. नया बाग। वि०=नवधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौन  : पुं० [सं० लवण] नमक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नौनगा  : वि० [हिं० नौ+नग] जिसमें नौ नग या रत्न हों। जैसे-नौ-नगा हार। पुं० एक प्रकार का हार जिसमें नौ नग जड़े रहते हैं।
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नौना  : अ० [सं० नमक] १. नवना। झुकना। २. किसी के आगे नम्र या विनीत होना। पुं०=नोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौ-निहाल  : पुं० [फा०] १. नया पौधा। २.बालक। बच्चा। वि० नया परन्तु होनहार शिशु।
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नौनी  : स्त्री०=नवनीत (मक्खन)। स्त्री०=नोई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौ-नेता (तृ)  : पुं०[सं० ष० त०] जहाज की पतवार पकड़नेवाला। पतवरिया।
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नौप्रभार  : पुं० [सं० मध्य० स०] अधिक से अधिक भार का वह मान जो किसी जहाज पर लादा जा सकता हो। (टनेज) विशेष–आज-कल जहाज की पात्रता या भार ढोने का सामर्थ्य पहले से नाप-जोखकर स्थिर कर लिया जाता है; और निश्चित हो जाता है कि इसमें इतने टन (१ टन=लगभग २७½ मन) से अधिक भार नहीं लदेगा।
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नौ-बंधन  : पुं० [सं० ब० स०] हिमालय का वह सर्वोच्च श्रृंग जिस पर मनु ने प्रलय के समय अपनी नाव बाँधी थी।
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नौ-बढ़  : वि० [हिं० नौ+बढ़ना] जो अभी हाल में आगे बढ़ा अर्थात् हीन से उच्च अवस्था में पहुँचा हो।
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नौबत  : स्त्री० [अ०] [वि० नौबती] १. किसी काम या बात की पारी। बारी। २. किसी अनिष्ट या अवांछनीय घटना के घटित होने की पारी या स्थिति। जैसे–सँभलकर रहो; नहीं तो भूखों मरने (या मार खाने) की नौबत आवेगी। क्रि० प्र०–आना।–पहुँचना। ३. दुर्गति। दुर्दशा। जैसे–(क) इसी लिए तो तुम्हारी यह नौबत हो रही है। (ख) सीधी तरह से रहो; नहीं तो कोई नौबत बाकी न रखूँगा। ४. नगाड़ा, शहनाई आदि मांगलिक बाजे जो मंदिरों, महलों आदि में नित्य कुछ नियमित अवसरों या समयों पर बजा करते हैं। क्रि० प्र०–बजना।–बजाना। पद–नौबत-खाना। (दे०) नौबत बजाकर=डंके कि चोट। खुले आम। मुहा०–नौबत झड़ना=नियत समय पर नौबत या मांगलिक बाजे बजना। (किसी के यहाँ) नौबत बजना= (क) खूब आनंद-मंगल होना। (ख) प्रताप और वैभव की खूब वृद्धि होना। नौबत बजाना=ऐश्वर्य, प्रभुत्व या शान दिखलाना।
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नौबत-खाना  : पुं० [अ० नौबत+फा० खानः] द्वार या फाटक के ऊपर का वह स्थान जहाँ नौबत बजती है। नक्कार-खाना।
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नौबती  : वि० [अ०] १. बारी से होनेवाला। जैसे–नौबती बुखार। २. जिसके घटित होने की संभावना हो। पुं० १. नौबत बजानेवाला। नक्कारची। २. महलों के फाटक पर पहरेदार। ३. बिना सवार का सजा हुआ घोड़ा। ४. बहुत बड़ा तंबू। शामियाना।
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नौबतीदार  : पुं० [अ० नौबत+फा० दार] राजा-महाराजाओं के महलों और शामियानों का पहरेदार।
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नौबलाध्यक्ष  : पुं०=नौसेनाध्यक्ष।
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नौबहार  : स्त्री० [फा०] वसंत ऋतु।
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नौमासा  : वि० [सं० नवमास] नौ महीने का। पुं० १. स्त्री के गर्भ का नवाँ महीना। २. उक्त अवसर पर होनेवाली रसम या संस्कार।
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नौमि  : अव्य० [सं० नमामि का अपभ्रंश] मैं प्रणाम करता हूँ। स्त्री०=नवमी या नौमी। (तिथि)।
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नौरंग  : पुं० [सं० नव-रंग] एक प्रकार की चिड़िया। पुं० औरंग (औरंगजेब बादशाह) का अपभ्रष्ट रूप।
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नौरंगा  : पुं० [हिं नौरंग] वह स्थान जहाँ नये पौधे उगाये, रोपे या लगाये जाते हैं। केड़वारी। (नर्सरी)
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नौरंगी  : स्त्री०=नारंगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौ-रतन  : पुं० [सं० नव-रत्न] १. नौ प्रकार के रत्नों का समूह। २. नौ-नगा नाम का गले में पहनने का गहना। ३. एक प्रकार की बढ़िया मीठी चटनी जिसमें नौ तरह की चीजें पड़ती हैं।
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नौरता  : पुं० [सं० नवरात्र] १. नवरात्र। २. बुंदेलखंड, व्रज आदि में मनाया जानेवाला एक प्रकार का त्योहार जिसमें कुमारी लड़कियाँ गौरी या दुर्गा की पूजा करती है।
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नौरमा  : पुं० [देश०] एक तरह का साग।
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नौरस  : वि० [सं० नव=नया+रस] १. (फलों, फूलों आदि के संबंध में) जिसमें नया रस आया हो अर्थात् हाल का। ताजा। २. नई उमर का। नौ-जवान। युवा।
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नौरातर  : पुं०=नवरात्र।
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नौरूप  : पुं० [हिं० नौ+रोपना] नील की फसल की पहली कटाई।
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नौरोज  : पुं० [फा० नौरोज] १. नया दिन। २. साल का नया दिन विशेषतः ईरानियों में फर्वरदीन मास का पहला दिन। विशेष–ईरानी लोग इस दिन बहुत बड़ा उत्सव मनाते हैं।
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नौल  : पुं० [अ० नॉवेल] जहाज पर माल लादने का भाड़ा। वि०=नवल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौ-लखा  : वि० [स्त्री० नौ-लखी] १. जिसका मूल्य नौ-लाख रुपयों के बराबर हो। २. जड़ाऊ और बहुमूल्य।
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नौलखी  : स्त्री० [?] करघे में ताने को दबाने के लिए उस पर रखी जाने वाली वह लकड़ी जिसमें भारी पत्थर बँधे रहते हैं। (जुलाहे)
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नौला  : पुं०=नेवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौलासी  : वि० [सं० नवल] कोमल। नरम। मुलायम।
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नौलेवा  : पुं० [हिं० नौ=नया+लेवा=मिट्टी] वह मिट्टी जो बाढ़ आने पर नदी के किनारों पर जमा हो जाती है।
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नौवाब  : पुं० [भाव० नौवाबी]=नवाब।
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नौ-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान जिसमें समुद्र में जहाज आदि चलाने की कला या विद्या का विवेचन होता है। (नॉटिकल सायन्स)
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नौशा  : पुं० [फा० नौशः] [स्त्री० नौशी] दूल्हा। वर।
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नौशी  : स्त्री० [फा०] नववधू। दुलहिन।
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नौशेरवाँ  : पुं० [फा०] ईरान देश का एक सम्राट जो अपनी न्यायप्रियता के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। (५३१-५७१ ई०)
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नौसत  : वि० [हिं० नौ+सात] सोलह। पुं० सोलहों श्रृंगार। उदा०–नौसत साजे चली गोपिका गिरवर पूजा हेत।–सूर।
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नौ-सफर  : वि० [फा०+अ०] जो पहले-पहले सफर या यात्रा कर रहा हो।
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नौसर  : वि० [हिं० नौ+सर=लड़ी] नौ-लड़ों या लड़ियोंवाला। उदा०–यो तो म्हाँरे नौसर हार।–मीराँ। पुं० [हिं० नौ+सर=बाजी] १. ताश के कुछ विशिष्ट खेलों में ऐसे पत्ते या सर जिसके आने पर नौ-गुना दाँव दिया या लिया जाता है। २. बहुत बड़ी चालबाजी, धूर्तता और धोखेबाजी।
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नौसरा  : [हिं० नौ+सर] नौ लड़ियोंवाला बड़ा हार।
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नौसरिया  : वि० [हिं० नौसर] १. बहुत बड़ा धूर्त और धोखेबाज। २. जालसाज। जालिया।
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नौसादर  : पुं० [फा० नौशादर] एक प्रकार की तीक्ष्ण झालदार क्षार या नमक, जिसका उपयोग औषधों में होता है।
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नौसार  : स्त्री० [हिं० नोन+सार, सं० लवणशाला] वह स्थान नोनी मिट्टी से नमक बनाया जाता हो।
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नौसिख  : वि०=नौसिखिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नौसिखिया  : वि० [सं० नवशिक्षित प्रा० नवसिक्खिअ] जिसने अभी हाल में कोई काम सीखा हो और फलतः जो अभी उस काम में कुशल या निपुण न हुआ हो।
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नौखिसुआ  : वि०=नौसिखिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नो-सेना  : स्त्री० [मध्य० स०] वह सेना जो जहाजों पर रहती और समुद्र में रहकर शत्रुओं से युद्ध करती है। (नैवी)
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नौसेनाध्यक्ष  : पुं० [सं० नौसेना-अध्यक्ष, ष० त०] नौ सेना का सबसे बड़ा अधिकारी। (एडमिरल)
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नौसेनापति  : पुं०=नौसेनाध्यक्ष।
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नौ-सेवा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. नौ सेना में की जानेवाली सेवा या नौकरी। २. नौसेना में काम करनेवालों का समूह। (नॉवल सर्विस)
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नौसैनिक  : वि० [सं० नौसेना+ठक–इक्] नौसेना संबंधी।
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नौहँड़  : वि० [सं० नव=नया+हिं० हाँड़ी] मिट्टी की नई हाँड़ी। कोरी हँडिया।
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नौहँड़ा  : पुं० [सं० नव+भाँड़] पितृपक्ष जिसमें मिट्टी के पुराने बरतन फेंककर उनके स्थान पर नये बरतन रखे जाते हैं।
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नौहर  : स्त्री० [?] अँगड़ाई।
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न्यंक  : पुं० [सं०] रथा का एक अंग।
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न्यंकु  : वि० [सं०] बहुत तेज चलने या दौड़नेवाला। पुं० १. एक प्रकार का बारहसिंघा या हिरन। २. वह शिष्य जो गुरु के पास रहकर विद्यार्जन करता हो।
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न्यंकु-भूरुह  : पुं० [सं० उपमि० स०] श्यनोक नामक वृक्ष। सोनापाठा।
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न्यंकुसारिणी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छंद।
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न्यंग  : पुं० [सं० नि√अंज् (स्पष्ट होना)+घञ्] १. चिह्न। निशान। २. जाति। प्रकार।
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न्यंचन  : पुं० [सं० नि०+अंचन, प्रा० स०] १. नीचे की ओर मुड़े हुए होने की अवस्था या भाव। २. नीचे फेंकना। ३. छिपने का स्थान। ४. विवर। बिल।
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न्यंचनी  : स्त्री० [सं० न्यंचन+ङीष्] गोद।
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न्यंचित  : भू० कृ० [सं० न्यंचन+ङीष्] गोद।
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न्यंचित  : भू० कृ० [सं० नि√अंच्+णिच्+क्त] १. नीचे की ओर झुकाया हुआ। २. नीचे फेंका हुआ। न्यंजलिका
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न्यक्करण  : पुं० [सं० न्यक्√कृ (करना)+ल्युट्–अन्] (किसी को) नीचा दिखाना।
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न्यक्कार  : पुं० [सं० न्यक्√कृ+घञ्] तिरस्कार।
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न्यक्ष  : वि० [सं० नि-अक्षि, ब० स०, षच्] १. अधम। निकृष्ट। २. समग्र। पुं० १. भैंसा। २. परशुराम।
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न्यग्भाव  : पुं० [सं० न्यक्-भाव, ष० त०] [भू० कृ० न्यगभावित] नीची अवस्था में लाये जाने अथवा तिरस्कृत किये जाने का भाव।
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न्यग्रोध  : पुं० [सं० न्यक्√रुध् (रोकना)+अच्] १. बड़ का पेड़। बरगद। २. शमी वृक्ष। ३. मोहनौषधि। ४. मूसाकानी। मूर्षिकर्णी। ५. विष्णु। ६. शिव। ७. बाँह। ८. लंबाई की एक नाप जो उतने विस्तार की होती है जितना विस्तार पूरी तरह से दोनों हाथ फैलाने पर एक हाथ की उँगलियों के सिरे से दूसरे हाथ की उँगलियों के सिरे तक होता है।
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न्यग्रोध-परिमंडल  : पुं० [सं० ब० स०] वह जिसकी लंबाई-चौड़ाई एक व्याम या पुरसा हो। (मत्स्यपुराण)
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न्यग्रोध-परिमंडला  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] कठोर स्तनों, विशाल नितंबों और क्षीण कटिवाली फलत
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न्यग्रोधा  : स्त्री० [सं० न्यग्रोध+टाप्]=न्यग्रोधी।
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न्यग्रोधादिगण  : पुं० [सं० न्यग्रोध-आदि, ब० स० न्यग्रोधादि-गण, ष० त०] वैद्यक में वृक्षों का एक गण जिसके अन्तर्गत बरगद पीपल, गूलर आदि कई वृक्ष सम्मिलित हैं।
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न्यग्रोधिक  : वि० [सं० न्यग्रोध+ठन्–इक] (स्थान) जहाँ बहुत से वट-वृक्ष हो।
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न्यग्रोधिका  : स्त्री० [सं० न्याग्रोधी+कन्–टाप्, ह्वस्व] विषपर्णी।
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न्यग्रोधी  : स्त्री० [सं० न्याग्रोध+डीष्] विषपर्णी।
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न्यच्छ  : पुं० [सं० नि-अच्छ, प्रा० स०] एक प्रकार का चर्मरोग जिसमें शरीर पर सफेद रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं।
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न्यय  : पुं० [सं० नि√इ (गति)+अच्] क्षय। नाश।
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न्यर्बुद  : वि० [सं० नि+अर्बुद, प्रा० स०] दस अरब।
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न्यर्बुदि  : पुं० [सं० नि-अर्बुद, ब० स०] एक रुद्र का नाम।
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न्यसन  : पुं० [सं० नि√अस् (फेंकना)+ल्युट्–अन] १. किसी के पास कोई चीज जमा करना। २. अपने अधिकारी से जाने देना। ३. उल्लेख करना।
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न्यस्त  : भू० कृ० [सं० नि√अस्+क्त] १. किसी स्थान पर विशेषतः नीचे धरा या रखा हुआ। २. जमाया, बैठाया या स्थापित किया हुआ। ३. चुनकर रखा या सजाया हुआ। ४. चलाया या फेंका हुआ। (अस्त्र) ५. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त। ६. न्यास के रूप में या अमानत रखा हुआ। जमा किया हुआ। ७. (धन) जो किसी विशिष्ट कार्य की सिद्धि के लिए अलग किया निकाला गया हो। ८. छिपा या दबा हुआ। निहित।
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न्यस्तलिंग  : पुं० दे० ‘लिंग’ (न्याय-शास्त्रवाला विवेचन)।
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न्यस्त-शस्त्र  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने डरकर या हारकर हथियार रख दिये हों। २. जिसने हथियार न चलाने की प्रतिज्ञा कर ली हो। पुं० पितृ लोक।
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न्यस्य  : वि० [सं० नि√अस्+यत् बा०] १. न्याय के रूप में रखे जाने के योग्य। २. चलाये या छोड़े जाने के योग्य। ३. छिपा या दबाकर रखे जाने के योग्य।
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न्यांकव  : वि० [सं० न्यंकु+अण्] रंकु या बारहसिंघे से संबंध रखने या उससे होनेवाला। पुं० रंकु बारहसिंघे की खाल।
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न्याइ  : पुं० न्याय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=नाईं (तरह)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्याउ  : पुं०=न्याय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्याक्य  : पुं० [सं० नि√अक् (टेढ़ी चाल)+ण्यत्] भूना हुआ चावल। फरुही।
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न्यात  : पुं० [हिं० न्याति] जाति के लोग। नातेदार। संबंधी। उदा०–न्यात कहैं कुल मासी रे।–मीराँ।
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न्याति  : स्त्री० [सं० ज्ञाति, प्रा. णाति] जाति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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न्याद  : पुं० [सं० नि√अद् (खाना)+ण] १. भक्षण करना। खाना। २. आहार। भोजन।
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न्याना  : वि० [सं० अज्ञान] १. जो कुछ न जानता हो। अनजान। निर्बोध। २. छोटी उमर का। अल्प-वयस्क। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्याय  : पुं० [सं० नि√इ (गति)+घञ्] १. कोई काम ठीक तरह से पूरी करने की ढंग, नियम या योजना। २. उचित, उपयुक्त या ठीक होने की आस्था या भाव। ३. ऐसा आचरण या व्यवहार जिसमें नैतिक दृष्टि से किसी प्रकार का अनौचित्य, पक्षपात या बेईमानी न हो। ४. प्रमाणों द्वारा विषयों का किया जानेवाला परीक्षण। ५. विवाद आदि के प्रसंगों में, आधिकारिक अथवा प्रामाणिक रूप से निष्पक्ष होकर यह निर्णय या निश्चय करना कि कौन-सा पक्ष उचित और कौन-सा अनुचित है; अथवा भविष्य में कार्य का निर्वाह किस प्रकार होना चाहिए और किसे कौन-सी वस्तु अथवा क्या दंड मिलना चाहिए। ६. उक्त के संबंध में अधिकारिक रूप से होने वाला निर्णय या निश्चय। ७.व्याकरण में, ऐसा नियम या सिद्धांत जिसका पालन सब जगह समान रूप से होता हो। ८. तुल्यता। समानता। ९. प्रायः कहावत या लोकोक्ति के रूप में प्रचलित या प्रसंग में ठीक वैद्यता या लगता हो। जैसे–आपकी यह बात तो देहली-दीपक न्याय से दोनों तरफ ठीक बैठती है। विशेष–हमारे यहाँ संस्कृत में इस प्रकार के बहुत से न्याय या दृष्टान्त वार्य प्रचलित थे जिनमें से कुछ का अब भी उपयुक्त अवसरों पर प्रयोग होता है। जैसे–अंध-गज न्याय, अरण्य-रोदन न्याय, कपिथ्य न्याय, घुणाक्षर न्याय, पिष्ट पोषण न्याय, बीजांकुर न्याय आदि। इस प्रकार के न्याय या तो कुछ प्रसिद्ध तथ्यों पर आश्रित होते हैं या प्रचलित लोक-कथाओं पर, और संस्कृत साहित्य में प्रायः प्रयुक्त होते हुए दिखाई देते हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध न्यायों के आशय यथा-स्थान देखे जा सकते हैं। १॰ हमारे यहाँ के छः मुख्य आस्तिक दर्शनों में से एक प्रसिद्ध दर्शन या शास्त्र जिसके कर्ता गौतम मुनि हैं और जिसमें इस बात का विवेचन है कि किस प्रकार किसी पदार्थ या विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए तार्किक दृष्टि से उसके सब अंगों या पक्षों के विकारों का निरूपण या योजना होनी चाहिए। विशेष–उक्त दर्शन में, तर्क-वितर्क के नियमों के निरूपण के सिवा आत्मा, इंद्रिय, पुनर्जन्म, सुख-दुःख आदि के स्वरूपों का भी विवेचन है; और कहा जाता है कि इन बातों का यथार्थ ज्ञान होने पर ही मनुष्य को अपवर्ग या मोक्ष मिल सकता है। ११. तर्कशास्त्र। १२. तर्कशास्त्र में, वह सम्यक् तर्क जो प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, अनय और निगमन नामक पाँचों अवयवों से युक्त हो। १३. विष्णु का एक नाम। वि० १. उचित। ठीक। वाजिब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) २. तुल्य। समान। अव्य० की तरह। के समान।
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न्यायकर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० ष० त०] (विवाद आदि का) न्याय करनेवाला। पुं० न्यायालय का वह अधिकारी जो विवादों का न्याय या फैसला करता है।
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न्यायज्ञ  : पुं० [सं० न्याय√ज्ञा (जानना)+क] न्याय+शास्त्र का ज्ञाता।
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न्यायतः(तस्)  : अव्य० [सं० न्याय+तस्] न्याय की दृष्टि या विचार से। अर्थात् उचित और संगत रूप से। न्यायपूर्वक।
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न्याय-पथ  : पुं० [सं० ष० त०] न्याय का मार्ग।
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न्याय-पर  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० न्यायपरता] १. न्यायपूर्ण आचरण करनेवाला। २. न्याय के अनुसार ठीक।
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न्याय-परता  : स्त्री० [सं० न्यायपर+तल्+टाप्] न्याय पर या न्यायपरायण होने की अवस्था या भाव। न्याय-परायणता।
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न्याय-परायण  : वि० [सं० स० त०] [भाव० न्याय-परायणता] न्यायपूर्ण आचरण करनेवाला।
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न्याय-प्रिय  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० न्याय-प्रियता] जिसे न्याय प्रिय हो। न्यायपूर्ण पक्ष का समर्थन करनेवाला।
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न्याय-मूर्ति  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य के मुख्य न्यायालय के न्यायज्ञ की उपाधि। (जस्टिस)
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न्यायवान् (वत्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] भारतीय आर्यों के दर्शनों में से एक दर्शन या शास्त्र जिसमें किसी तथ्य या बात का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए तार्किक दृष्टि से उसके विवेचन के नियम और सिद्धांत निरूपित हैं। (उसके कर्ता गौतम ऋषि हैं।)
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न्याय-शुल्क  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह शुल्क जो न्यायालय में कोई प्रार्थना-पत्र उपस्थित करने के समय अंकपत्र (स्टाम्प) के रूप में देना पड़ता है। (कोर्ट फी)
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न्याय-संगत  : वि० [सं० तृ० त०] १. (आचरण) जो न्याय की दृष्टि से ठीक हो। २. (निर्णय) जिसमें पूरा पूरा न्याय हो। (जस्ट)
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न्याय-सभा  : स्त्री० [ष० त०] अदालत। अदालत। वह सभा जहाँ न्याय होता हो अर्थात् कचहरी।
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न्याय-सभ्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] फौजदारी के कुछ खास-खास मुकदमों का विचार करते समय दौरा जज की सहायता करने के लिए नियुक्त सभ्यगण, जिनती संख्या प्रायः ३ से ७ तक होती है। इनसे न्यायाधीश का मत-भेद होने पर मामला उच्च-न्यायालय में भेज दिया जाता है। (जूरी)
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न्यायाधिकरण  : पुं० [सं० न्याय-अधिकरण, ष० त०] विवाद-ग्रस्त विषयों पर निर्णय देनेवाला न्यायालय या अधिकारी वर्ग। (ट्रिव्यूनल)
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न्यायाधिपति  : पुं० [सं० न्याय-अधिपति ष० त०] दे० ‘न्यायमूर्ति’।
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न्यायाधीश  : पुं० [सं० न्याय-अधीश, ष० त०] न्यायालय का वह अधिकारी जो विवादग्रस्त विषयों पर अपना निर्णय देता है।
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न्यायालय  : पुं० [सं० न्याय-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ पर न्यायाधीश न्याय करता हो। अदालत। कचहरी। (कोर्ट)
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न्यायिक-अधिकारी  : पुं० [सं० न्याय से] न्याय विभाग का प्राधिकारी। (जूडिशियल अथॉरिटी)
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न्यायिक-निर्णय  : पुं० [सं० न्याय से] १. न्यायासन पर बैठकर किसी मामले के संबंध में निर्णय लेना। २. इस तरह दिया हुआ निर्णय। (एडजुडिकेशन)
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न्यायी (यिन्)  : पुं० [सं० न्याय+इनि] वह जो न्याय करता हो। बिना पक्षपात के निर्णय करनेवाला। वि०=न्यायशील।
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न्यायोचित्  : वि० [सं० तृ० त०] जो न्यायतः उचित हो। न्याय-संगत।
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न्याय्य  : वि० [सं० न्याय+यत्] न्यायोचित। न्याय-संगत।
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न्यार  : पुं० [हिं० निवार] पसही धान। मुन्यन्न। पुं०=नियार। (देखें) वि०=न्यारा।
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न्यारा  : वि० [सं० निर्निकट, प्रा० निन्निअड़, पुं० हिं० निन्यार] [स्त्री० न्यारी] १. जो पास न हो। २. अलग। जुदा। पृथक्। ३. अन्य। दूसरा। भिन्न। जैसे–यह बात न्यारी है। ४. जो अपने किसी विलक्षण गुण या विशेषता के कारण औरों से भिन्न और श्रेष्ठ हो। निराला। जैसे–मथुरा तीन लोक से न्यारी। (कहा०)
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न्यारिया  : पुं० [हिं० नियार] वह व्यक्ति जो जौहरियों, सुनारों आदि की दुकानों में से निकाला हुआ नियार (कूड़ा-करकट) साफ करके उसमें से रत्नों, सोने-चाँदी आदि के कण निकालने का काम करता हो।
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न्यारे  : क्रि० वि० [हिं० न्यारा] १. अलग। पृथक्। २. दूर।
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न्याव  : पुं० [सं० न्याय] १. न्याय। इंसाफ। २. विवेक। ३. उचित और कर्तव्य का पक्ष। मुहा०–न्याव चुकाना=दो पक्षों के विवाद का न्याय करना।
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न्यास  : पुं० [सं० नि√अस् (फेंकना)+घञ्] [वि० न्यस्त] १. कोई चीज कहीं जमा या बैठाकर रखना। स्थापित करना। २. चीजें चुन या सजाकर यथा-स्थान रखना। ३. किसी चीज के कहीं रखे जाने के फलस्वरूप उस स्थान पर बननेवाला चिह्न या निशान। जैसे–चरण-न्यास, नख-न्यास, शस्त्र-न्यास। ४. वह द्रव्य या धन जो किसी के पास धरोहर के रूप में रखा जाय। अमानत। थाती। धरोहर। ५. कोई चीज किसी को देना या सौंपना। अर्पण। भेंट। ६. अंकित या चित्रित करना। ७. सामने लाकर उपस्थित करना या रखना। ८. छोड़ना। त्यागना। ९. पूजन, वंदन आदि में धार्मिक विधि के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं का ध्यान करते हुए इस प्रकार अपने शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का स्पर्श करना कि मानों उन अंगों में देवता स्थापित किये जा रहे हों। १॰. रोगी का रोग आदि शांत करने के लिए मंत्र पढ़ते हुए उक्त प्रकार से रोगी के भिन्न-भिन्न अंगों पर हाथ रखना या उन्हें स्पर्श करना। ११. चढ़ा हुआ स्वर उतारना या मंद करना। १२. संन्यास। १३. आज-कल किसी विशिष्ट कार्य के लिए अलग किया या निकाला हुआ वह धन या संपत्ति जो कुछ विश्वस्त व्यक्तियों को इस दृष्टि से सौंपी गई हो कि वे दाता की इच्छानुसार उसका उचित उपयोग और व्यवस्था करेंगे। (ट्रस्ट) १४. उक्त प्रकार के धन की व्यवस्था करनेवाले लोगों की समिति।
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न्यास-भंग  : पुं० [ष० त०] किसी के द्वारा स्थापित किये हुए न्यास का उसके प्रबंध करनेवालों द्वारा किये जानेवाला कुप्रबंध और दुरुपयोग। (ब्रीच आफ ट्रस्ट)
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न्यास-स्वर  : पुं० [ष० त०] उतारा या मन्द किया हुआ वह स्वर जिस पर गीत या राग-रागिनियों का अंत या समाप्ति होती है।
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न्यासिक  : वि० [सं० न्यास+ठन्–इक्]=न्यासी।
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न्यासी (सिन्)  : पुं० [सं० न्यास+इनि] वह जिसे किसी विशेष कार्य के लिए कुछ धन या संपत्ति सौंपी गई हो। (ट्रस्टी)
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न्युब्ज  : वि० [सं० नि√उब्ज (झुकना)+अच्] १. अधोमुख। औंधा। २. कुब्ज। कुबड़ा। ३. रोग आदि के कारण जिसकी कमर झुक गई हो। पुं० १. वट वृक्ष। बरगद। २. कुश। कुशा। ३. कुश की बनी हुई स्रुवा। ४. कमरख। (वृक्ष और फल)। ५. माला।
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न्यून  : वि० [सं० नि√ऊन् (घटाना)+अच्] [भाव० न्यूनता] १. आवश्यक या उचित से कम। थोड़ा। २. किसी की तुलना में घटकर या हल्का। ३. क्षुद्र। नीच। ४. जिसमें कुछ विकार आ गया हो। विकृत।
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न्यून-कोण  : पुं० [कर्म० स०] ज्यामिति में, वह कोण जो समकोण से छोटा होता है। (एक्यूट ऐंगिल)
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न्यून-तम  : वि० [न्यून+तमप्] जो सबसे कम, थोड़ा घटकर या संक्षिप्त हो।
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न्यूनता  : स्त्री० [सं० न्यून+तल्+टाप्] १. न्यून होने की अवस्था या भाव। २. अल्पता। कमी। हीनता। ३. साहित्य में अर्थालंकारों का एक दोष जो उस समय माना जाता है जब वर्णन में उपमेय से उपमान में कोई जातिगत, धर्मगत, धर्मगत या प्रमाणगत कमी या त्रुटि दिखाई देती है।
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न्यूनन  : पुं० [सं० नि√ऊन्+ल्युट्–अन] कम, थोड़ा या संक्षिप्त करना। घटाना।
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न्यून-पद  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में ऐसा कथन जिसमें कोई आवश्यक शब्द या पद अज्ञान या भूल से छूट गया हो।
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न्यूनांग  : वि० [सं० न्यून-अंग, ब० स०] जिसमें कोई अंग कम हो।
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न्यूनाधिक  : वि० [सं० न्यून-अधिक, द्व० स०] [भाव. न्यूनाधिक्य] १. जो कुछ बातों में कहीं कुछ कम और कुछ बातों में कहीं कुछ अधिक हो। २. उक्त प्रकार से कम या अधिक हो सकनेवाला। (मार्जिनल)
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न्यूनी  : पुं० [सं० नवनीत] मक्खन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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न्यों  : अव्य०=यों (इस तरह)।
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न्योछावर  : स्त्री०=निछावर।
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न्योजी  : स्त्री० [?] लीची नामक फल। उदा०–कोई नारंग कोई झाड़ चिरौंजी। कोई कटहर बड़हर कोई न्योजी।–जायसी। स्त्री०=नेजा (चिलगोजा)।
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न्योतना  : स० [हिं० न्योता+ना (प्रत्य०)] १. न्योता या निमंत्रण देना। २. जान-बूझकर अपने पास बुलाना।
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न्योतनी  : स्त्री० [हिं० न्योतना] मंगल अवसरों पर दिया जानेवाला भोज।
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न्योतहरी  : पुं० [हिं० न्योता] वह व्यक्ति जिसे निमंत्रण दिया गया हो। न्योता मिलने पर आया हुआ अतिथि।
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न्योता  : पुं० [सं० निमन्त्रण] १. घर में होनेवाले किसी मांगलिक उत्सव और विशेषतः भोज में सम्मिलित होने के लिए किसी से कहना। निमंत्रण। २. वह धन जो शुभ अवसरों पर इष्ट-मित्रों के यहाँ से न्योता आने पर भेजा जाता है।
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न्यौजी  : स्त्री०=न्योजी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्यौरता  : पुं०=नौरता (त्योहार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्यौरा  : पुं० १. दे० ‘नेवला’। २. दे० ‘नुपूर’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्यौला  : पुं०=नेवला।
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न्यौली  : स्त्री० [सं० नली] नेती, धोती की तरह हठयोग की एक क्रिया।
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न्निमल  : वि०=निर्मल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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न्नीजन  : वि०=निर्जन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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न्वैनी  : स्त्री० दे० ‘नोई’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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न्हान  : पुं०=नहान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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न्हाना  : अ०=नहाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० दे० ‘नन्हा’।
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न्हावना  : स०=नहलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्हास  : पुं०=नाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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न्हैरना  : स० [हिं० निहारना का पुराना रूप] देखना। उदा०–बाँझ केरा बालूड़ा चषि बिन न्हैरेलो पिंगुल तरवर चढ़िया।–गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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