शब्द का अर्थ
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नाकंद :
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वि० [फा० ना+कंद] १. (बछड़ा) जिसके दूध के दाँत अभी न टूटे हों। २. मूर्ख। |
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नाक :
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स्त्री० [सं० नासिका] १. जीव-जंतुओं या प्राणियों के चेहरे पर का वह उभरा हुआ लंबोतरा अंग जो आँखों के नीचे और मुख-विवर के ऊपर बीचो-बीच रहता है और जिसमें दोनों ओर वे दो नथने या छिद्र रहते हैं; जिनसे वे सांस लेते और सूँघते हैं। साँस लेने और सूँघने की इंद्रिय। विशेष–(क) नाक से बोलने और स्वरों आदि का उच्चारण करने में भी सहायता मिलती है। (ख) मस्तक या मस्तिष्क के अंदर के मल का कुछ अंश प्रायः कफ आदि के रूप में दोनों नथनों के रास्ते बाहर निकलता है। (ग) लोक व्यवहार में, नाक को प्रायः प्रतिष्ठा, मर्यादा, सौंदर्य आदि के प्रतीक के रूप में भी मानते हैं, जिसके आधार पर इसके अधिकतर मुहावरे बने हैं। पद–नाक का बाँसा=नाक के दोनों नथनों के बीच का भीतरी परदा। (किसी की) नाक का बाल=ऐसा व्यक्ति जो किसी बड़े आदमी का घनिष्ठ समीपवर्ती हो और साथ ही उस बड़े आदमी पर अपना यथेष्ट प्रभाव रखता हो। जैसे–उन दिनों वह खवास राजा साहब की नाक का बाल हो रहा था। नाक की सीध में=बिना इधर-उधर घूमे या मुड़े हुए और ठीक सामने या सीधे। जैसे–नाक की सीध में चले जाओ, सामने ही उनका मकान मिलेगा। बैठी हुई नाक=चिपटी नाक। मुहा०–नाक कटना=प्रतिष्ठा या मर्यादा नष्ट करना। इज्जत बिगाड़ना। (ख) अपनी तुलना में किसी को बहुत ही तुच्छ या हीन प्रमाणित अथवा सिद्ध करना। जैसे–यह मकान मुहल्ले भर के मकानों की नाक काटता है। नाक-कान (या नाक-चोटी) काटना=बहुत अधिक अपमानित और दंडित करने के लिए शरीर के उक्त अंग काटकर अलग कर देना। (किसी के आगे या सामने) नाक घिसना या रगड़ना=बहुत ही दीन-हीन बनकर और गिड़गिड़ाते हुए किसी प्रकार की प्रार्थना प्रतिज्ञा या याचना करना। नाक (अथवा नाक भौं) चढ़ाना या सिकोड़ना=आकृति से अरुचि, उपेक्षा, क्रोध, घृणा, विरक्ति आदि के भाव प्रकट या सूचित करना। जैसे–आप तो दूसरों का काम देखकर यों ही नाक (अथवा नाक-भौ) चढ़ाते या सिकोड़ते हैं। नाक तक खाना=इतना अधिक खाना या भोजन करना कि पेट में और कुछ भी खा सकने की जगह न रह जाय। (किसी स्थान पर) नाक तक न दी जाना=इतनी अधिक दुर्गंध होना कि आदमी से वहाँ खड़ा न रहा जा सके। नाक पकड़ते दम निकलना=इतना अधिक दुर्बल होना कि छू जाने से गिर पड़ने या मर जाने का डर हो। अधिक अशक्त या क्षीण होना। नाक पर उँगली रख कर बातें करना=स्त्रियों या हिजड़ों की तरह नखरे से बातें करना। नाक पर गुस्सा रहना या होना=ऐसी चिड़चिड़ी प्रकृति होना कि बात-बात पर क्रोध प्रकट होता रहे। जैसे–तुम्हारी तो नाक पर गुस्सा रहता है; अर्थात् तुम जरा सी बात पर बिगड़े जाते हो। (कोई चीज) किसी की नाक पर रख देना=किसी की चीज उसके मांगते ही तुरंत या ठीक समय पर उसे लौटा या दे देना। तुरंत दे देना। जैसे–हम हर महीने किराया उनकी नाक पर रख देते हैं। नाक पर दीया बाल कर आना=यशस्वी, विजयी या सफल होकर आना। (अपनी) नाक पर मक्खी न बैठने देना=इतनी खरी या साफ प्रकृति का होना कि किसी को भी कुछ भी कहने-सुनने का अवसर न मिले। (किसी की) नाक पर सुपारी तोड़ना या फोड़ना=बहुत अधिक तंग या परेशान करना। नाक फटना या फटने लगना=कहीं इतनी अधिक दुर्गंध होना कि आदमी से वहाँ खड़ा न रहा जा सके। नाक-भौं चढ़ाना या सिकोड़ना=दे० ऊपर ‘नाक चढ़ाना या सिकोड़ना’। नाक में तीर करना या डालना=खूब तंग या हैरान करना। बहुत सताना। नाक रगड़ना=दे० ऊपर ‘नाक घिसना’। नाक में बोलना=इस प्रकार बोलना कि श्वास का कुछ अंश नाक से भी निकले, और उच्चारण सानुनासिक हो। नकियाना। नाक लगाकर बैठना=अपने आपको बहुत प्रतिष्ठित या बड़ा समझते हुए औरों से बहुत-कुछ अलग या दूर रहना (किसी का) नाक में दम करना या लाना=बहुत अधिक तंग या हैरान करना। बहुत सताना। जैसे–इस लड़के ने हमारी नाक में दम कर दिया है। नाक मारना=दे० ऊपर ‘नाक चढ़ाना या सिकोड़ना’। नाक सिकोड़ना=दे० ऊपर। ‘नाक चढ़ाना या सिकोड़ना’। (किसी को) नाकों चने चबवाना=किसी को इतना अधिक तंग या दुःखी करना कि मानों उसे नाक के रास्ते चने चबाकर खाने के लिए विवश किया जा रहा हो। नाकों दम करना=दे० ऊपर ‘नाक में दम करना’। २. मस्तिष्क का वह तरल मल जो नाक के नथनों से होकर बाहर निकलता है। नेटा। रेंट। मुहा०–नाक छिनकना या सिनकना=नाक के रास्ते इस प्रकार जोर से हवा बाहर निकालना कि उसके साथ अंदर का कफ दूर जा गिरे। नाक बहना=सरदी आदि के कारण नाक से पतला कफ या पानी निकलना। ३. गौरव, प्रतिष्ठा या सम्मान की चीज, बात या व्यक्ति। जैसे–वही तो इस समय हमारे मुहल्ले की नाक हैं। उदा०–नाक पिनाकहिं संग सिधाई।–तुलसी। ४. किसी चीज के अगले या ऊपरी भाग में आगे की ओर निकला हुआ कुछ मोटा, नुकीला और लंबा अंग या अंश। ५. चरखे में लगी हुई वह खूँटी या हत्था जिसकी सहायता से उसे घुमाते या चलाते हैं। ६. लकड़ी का वह डंडा जिस पर रखकर पीतल आदि के बरतन खरादे जाते हैं। पुं० [सं० न-अक=दुःख, ब० स०] १. स्वर्ण। २. अंतरिक्ष। आकाश। ३. अस्त्र चालने का एक प्रकार का ढंग। पुं० [सं० नक्र] मगर की तरह का एक प्रकार का जल-जंतु। घड़ियाल। वि० [फा०] १. भरा हुआ। पूर्ण। (प्रत्यय के रूप में यौगिक शब्दों के अंत में) जैसे–खौफनाक, दर्दनाक। |
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नाक-कटैया :
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स्त्री० [हिं० नाक+काटना] १. नाक कटने या काटे जाने की अवस्था या भाव। २. रामलीला का वह प्रसंग जिसमें लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी और जिसके स्वाँग प्रायः राम-लीला के समय निकलते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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नाक-चर :
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पुं० [सं०] देवता। |
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नाकड़ा :
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पुं० [हिं० नाक] नाक के पकने का एक रोग। |
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नाक-कटी :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नटी। अप्सरा। |
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नाकना :
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स० [सं० लंघन, हिं० नाँधना] १. उल्लंगन करना। डाँकना। लाँघना। २. दौड़, प्रतियोगिता आदि में किसी से आगे बढ़ जाना। स० [हिं० नाक+ना (प्रत्य०)] १. चारों ओर से नाके या रास्ते रोकना। नाकाबंदी। करना। ३. आने-जाने के सब द्वार या रास्ते बंद करके किसी को घेरना। ३. कठिनता या वाधा दूर करना या पार करना। उदा०–मैं नहिं काहू कौ कछु घाल्यौं पुन्यनि करवर नाक्यो।–सूर। |
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नाक-नाथ :
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पुं० [सं० ष० त०]=नाक-पति। |
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नाक-पति :
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पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग के स्वामी, इंद्र। |
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नाक-पृष्ठ :
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पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग। |
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नाक-बुद्धि :
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वि० [हिं० नाक+बुद्धि] १. जो नाक से सूँघकर या गंध द्वारा ही भक्ष्याभक्ष्य भले-बुरे आदि का विचार कर सके, बुद्धि द्वारा नहीं। अर्थात् क्षुद्र या तुच्छ बुद्धिवाला। स्त्री० उक्त प्रकार की क्षुद्र या तुच्छ बुद्धि। |
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नाक-वनिता :
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स्त्री० [सं० ष० त०] अप्सरा। |
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नाक-वास :
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पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग में होनेवाला वास। |
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नाक-षेधक :
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पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र। |
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नाका :
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पुं० [हिं० नाकना] १. रास्ते आदि का वह छोर जिससे होकर लोग किसी ओर जाते, बढ़ते या मुड़ते हैं। प्रवेश द्वार। मुहाना। २. वह स्थान जहाँ से दुर्ग, नगर आदि में प्रवेश किया जाता है। जैसे–नाके पर पहरेदार खड़े थे। क्रि० प्र०–छेंकना।–बाँधना। पद–नाकेबंदी। (दे०) ३. उक्त के अंतर्गत वह स्थान जहाँ चौकी, पहरे आदि के लिए रक्षक या सिपाही रहते हों, अथवा जहाँ प्रवेश कर आदि उगाहे जाते हों। ४. चौकी। थाना। ५. सूई के सिरे का वह छेद जिसमें डोरा या तागा पिरोया जाता है। ६. करघे का वह अंश जिसमें तागे के ताने बँधे रहते हैं। पुं० [सं० नक्र] घड़ियाल या मगर की तरह का एक जल-जंतु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [अ० नाक] मादा ऊँट। ऊँटनी। |
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नाकादार :
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वि०, पुं०=नाकेदार। |
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नाका-बंदी :
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स्त्री०=नाकेबंदी। |
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नाकारा :
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वि० [फा० नाकारः] १. निष्कर्म। २. (व्यक्ति) जो किसी काम का न हो। निकम्मा। ३. (पदार्थ) जो काम में न आ सके। निष्प्रयोजन। पुं०=नकुल (नेवला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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नाकिस :
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वि० [अ० नाकिस] १. जिसमें कोई नुक्स या दोष हों, अर्थात् खराब या बुरा। २. जिसमें अपूर्णता या त्रुटि हो। ३. निकम्मा। रद्दी। पुं० अरबी भाषा में वह शब्द जिसका अंतिम वर्ण अलिफ, वाव या ये हो। |
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नाकी (किन्) :
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वि० [सं० नाक+इनि] स्वर्ग में वास करनेवाला। पुं० देवता। स्त्री०=नक्की।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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नाकु :
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पुं० [सं०√नम् (झुकना)+उ, नाक् आदेश] १. दीमकों की मिट्टी का दूह। बिभौट। बल्मीक। २. टीला। भीटा। ३. पर्वत। पहाड़। ४. एक प्राचीन ऋषि। |
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नाकुल :
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वि० [सं० नकुल+अण्] १. नकुल संबंधी। नेवले का। २. नेवले की तरह का। पुं० १. नकुल के वंशज या सन्तान। २. चव्य। चाब। ३. यवतिक्ता। ४. सेमल का मूसला। ५. रास्ना। |
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नाकुलक :
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वि० [सं० नकुल+ठञ्–क] नेवले की पूजा करनेवाला। |
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नाकुलि :
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पुं० [सं० नकुल+इञ्] १. नकुल का पुत्र। २. नकुल गोत्र का मनुष्य। |
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नाकुली :
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वि० [सं०] नकुल संबंधी। नकुल का। नाकुल। स्त्री० [सं० नकुल+अण्-ङीष्] १.एक प्रकार का कंद जो सब प्रकार के विषों, विशेषकर सर्प के विष को दूर करनेवाला कहा गया है। नाकुली दो प्रकार की होती है। एक नाकुली, दूसरी गंध-नाकुली जो कुछ अच्छी होती है। २. यवतिक्ता। ३. रास्ना। ४. चव्य। चाब। ५. सफेद भटकटैया। |
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नाकू :
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पुं० [सं० नक्र] घड़ियाल। मगर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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नाकेदार :
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वि० [हिं० नाका+फा० दार] जिसमें कोई चीज पहनाने या पिरोने के लिए नाका या छेद हो। पुं० १. वह रक्षक या सिपाही जो किसी नाके पर चौकी पहरे आदि के लिए नियुक्त हो। २. एक अफसर या कर्मचारी जो आने-जाने के मुख्य स्थानों पर किसी प्रकार का कर, महसूल आदि वसूल करने के लिए नियत रहता हो। |
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नाकेबंदी :
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स्त्री० [हिं० नाका+फा० बंदी] १.ऐसी व्यवस्था जो नाका अर्थात् कहीं आने-जाने का मार्ग रोकने के लिए हो। २. आधुनिक राजनीति में विपक्षी या शत्रु के किसी तट, बंदरगाह अथवा स्नान को इस प्रकार घेरना कि न तो उसके अंदर कोई प्रवेश करने पावे और न वहाँ से कोई बाहर निकलने पावे। (ब्लाकेड)। |
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नाकेश :
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पुं० [सं० नाक-ईश, ष० त०] इंद्र। |
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नाक्षत्र :
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वि० [सं० नक्षत्र+अण्] १. नक्षत्र संबंधी। २. नक्षत्रों की गति आदि के विचार से जिसका मान निश्चित हो। जैसे–नाक्षत्र दिन, नाक्षत्र मास। पुं० चांद्र मास। |
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नाक्षत्र-दिन :
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पुं० [कर्म० स०] उतना समय जितना चंद्रमा को एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र तक पहुँचने अथवा एक को एक बार याम्योत्तर रेखा से होकर फिर वहीं आने में लगता है। नाक्षत्र मास का पूरा एक दिन। विशेष–यह ठीक उतना ही समय है जितना पृथ्वी को एक बार अपने अक्ष पर घूमने में लगता है। यह समय कभी घटता-बढ़ता नहीं; सदा एक सा रहता है; इसलिए ज्योतिषी लोग दिन-मान का ठीक और पूरा विचार करने के समय इसी का व्यवहार करते हैं। |
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नाक्षत्र-मास :
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पुं० [कर्म० स०] वह समय जितने में चंद्रमा को एक नक्षत्र से चल कर क्रमशः सब नक्षत्रों पर होते हुए फिर उसी नक्षत्र पर आने में लगता है और जो प्रायः २७-२८ दिनों का होता है। |
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नाक्षत्र-वर्ष :
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पुं० [कर्म० स०] १२ नाक्षत्र मासों का समूह। |
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नाक्षत्रिक :
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वि० [सं० नक्षत्र+ठक्–इक] [स्त्री० नाक्षत्रिकी] नक्षत्र संबंधी। नाक्षत्र। पुं० १. नाक्षत्र अर्थात् चांद्रमास। २. छंद शास्त्र में २७ मात्राओं के छंदों की संज्ञा। |
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नाका :
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पुं० [सं० नाभि से फा० नाफः] मृगनाभि। |
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