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निगम  : पुं० [सं० नि√गम् (जाना)+अप्] १. पथ। मार्ग। रास्ता। २. प्राचीन भारत में, वह पथ या रास्ता जिस पर होकर व्यापारी लोग अपना माल लाते और ले जाते थे। ३. उक्त के आधार पर रोजगार या व्यापार। ४. वेद जिसकी, शिक्षाएँ सब के चलने के लिए सुगम मार्ग के रूप में हैं। ५. वेद का कोई शब्द, पद या वाक्य अथवा इनमें से किसी की टीका या व्याख्या। ६. ऐसा ग्रंथ जिसमें वैदिक मतों का निरूपण या प्रतिपादन हो। ७. विधि या विधान के अनुसार अस्तित्व में आई हुई ऐसी संस्था जो शरीरधारी व्यक्ति की तरह काम करती है और जिसके कुछ निश्चित अधिकार, कृत्य तथा कर्तव्य होते हैं। ८. दे० ‘नगर महापालिका’। ९. मेला। १॰. कायस्थों की एक शाखा।
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निगमन  : संज्ञा [सं० नि√गम्+ल्युट्–अन] १. किसी संस्था या को निगम का रूप देने की क्रिया या भाव। २. न्याय में, वह कथन प्रतिज्ञा, जो हेतु, उदाहरण और उपनय तीनों से सिद्ध हुई या होती हो। (डिडक्शन)
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निगमनिवासी (सिन्)  : पुं० [सं० निगम नि√वस् (बसना)+णिनि] विष्णु।
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निगमपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. निगम का प्रधान अधिकारी। २. दे० ‘नगर-प्रमुख’।
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निगम-बोध  : पुं० [सं० ब० स०] पृथ्वीराज रासो में उल्लिखित एक पवित्र स्थान जो यमुना नदी के तट पर तथा दिल्ली के पास था।
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निगम-संचारी  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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निगमागम  : पुं० [सं० निगम-आगम, द्व० स०] वेद और शास्त्र।
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निगमित  : वि० [सं०] जिसे निगम का रूप दिया गया हो। (इन्कारपोरेटेड)
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निगमी (मिन्)  : वि० [सं० निगम+इनि] वेदज्ञ।
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निगमीकरण  : पुं० [सं० निगम+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट–अन] किसी संस्था को निगम का रूप देना। (इन्कारपोरेशन)
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निगमीकृत  : भू० कृ० [सं० निगम+च्वि, ईत्व√कृ+क्त]=निगमित।
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