शब्द का अर्थ
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नृ :
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पुं० [सं०√नी (ले जाना)+ऋन्, डित्] १. नर। मनुष्य। २. शतरंज का मोहरा। |
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नृ-कपाल :
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पुं० [ष० त०] मनुष्य की खोपड़ी। |
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नृ-केशरी (रिन्) :
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पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा व्यक्ति जो सिंह या शेर के समान पराक्रमी और श्रेष्ठ हो। २. नृसिंह अवतार। |
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नृग :
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पुं० [सं०] १. मनु के एक पुत्र का नाम। २. उशीनर का पुत्र जो यौधेय वंश का मूल पुरुष था। |
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नृगा :
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स्त्री० [सं०] राजा उशीनर की पत्नी का नाम। |
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नृघ्न :
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वि० [सं० नृ√हन् (हिंसा)+टक्] मनुष्य घातक। |
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नृतक :
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पुं०=नर्त्तक। |
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नृतना :
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अ० [सं० नृत] नृत्य करना। नाचना। |
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नृति :
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स्त्री० [सं०√नृत् (नाँचना)+इन्] नाच। नृत्य। |
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नृतु (तू) :
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पुं० [सं०√नृतु+कु] नर्त्तक। |
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नृत्त :
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पुं० [सं०√नृत्+क्त] वह नाच जिसमें अंगों का विक्षेप भी किया जाता है। |
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नृतांग :
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पुं० [सं०] नृत्य का अंग। |
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नृत्य :
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पुं० [सं०√नृत्+क्यप्] ताल, लय आदि के अनुसार मन-बहलाव के लिए शरीर के अंगों का किया जानेवाला संचालन। विशेष दे० ‘नाच’। |
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नृत्यकी :
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स्त्री०=नर्त्तकी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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नृत्य-गीत :
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पुं० [सं०] धार्मिक, सामाजिक आदि अवसरों पर होनेवाला ऐसा नृत्य जिसमें नर्त्तक साथ ही साथ गाते भी हैं। जैसे–गुजरात का गरबा प्रसिद्ध नृत्य गीत है। |
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नृत्य-नाटक :
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पुं० [सं०] ऐसा अभिनय या नाट्य जिसमें नृत्यों की अधिकता हो। |
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नृत्य-प्रिय :
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पुं० [ब० स०] १. महादेव। २. कार्तिकेय का एक अनुचर। |
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नृत्यशाला :
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स्त्री० [ष० त०] नाचघर। |
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नृ-दुर्ग :
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पुं० [सं० मध्य० स०] वह दुर्ग जिसके चारों ओर मनुष्यों विशेषतः सैनिकों का घेरा हो। |
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नृ-देव :
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पुं० [सं० स० त०] १. राजा। २. ब्राह्मण। |
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नृ-धर्मा (र्मन्) :
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पुं० [सं० ब० स० अनिच्] कुबेर। |
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नृपंजय :
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पुं० [सं० नृप√जि (जीतना)+खश्,मुम्] एक पुरुवंशी नरेश। |
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नृप :
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वि० [सं० नृ√पा (रक्षा)+क] [भाव० नृपता] मनुष्यों की रक्षा करनेवाला। पुं० राजा। |
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नृप-कंद :
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पुं० [मध्य० स०] लाल प्याज। |
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नृप-जय :
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पुं० [सं०] एक पुरुवंशीय राजा। |
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नृपता :
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स्त्री०[सं० नृप+तल्+टाप्] नृप अर्थात् राजा होने की अवस्था,गुण या भाव। राजत्व। |
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नृ-पति :
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पुं०[सं० ष० त०] १.राजा। २.कुबेर। |
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नृप-द्रुम :
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पुं० [मध्य० स०] १,अमलतास। २.खिरनी का पेड़। |
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नृप-द्रोही(हिन्) :
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पुं० [सं० नृप√द्रुह (द्रोह करना)+णिनि] परशुराम। |
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नृप-प्रिय :
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पुं० [ष० त०] १. लाल प्याज। २. राम शर। सरकंडा। ३. एक प्रकार का बाँस। ४. जड़हन धान। ५. आम का पेड़। ६. पहाड़ी तोता। |
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नृप-प्रिय-फला :
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स्त्री० [ब० स० टाप्] बैंगन। |
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नृप-प्रिया :
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स्त्री० [सं० नृपप्रिय+टाप्] १. केतकी। २. पिंडखजूर। |
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नृपमांगल्य (क) :
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पुं० [ब० स० कप्] तरवट का पेड़। आहुल। |
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नृप-मान :
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पुं० [ष० त०] पुरानी चाल का एक तरह का बाजा जो राजाओं के भोजन के समय बजाया जाता था। |
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नृप-वल्लभ :
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स्त्री० [ष० त०] १. आम। २. राजा का सखा। |
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नृप-वल्लभा :
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स्त्री० [ष० त०] १. रानी। २. केतकी। |
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नृप-वृक्ष :
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पुं० [मध्य० स०] सोनालु का पेड़। |
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नृप-शासन :
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पुं० [ष० त०] राजा की आज्ञा। |
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नृ-पशु :
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पुं० [उपमि० सं०] वह जो मनुष्य होने पर भी पशुओं का सा आचरण करता हो। |
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नृप-सुत् :
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पुं० [ष० त०] [स्त्री० नृपसुता] राजकुमार। |
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नृप-सुता :
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स्त्री० [ष० त०] १. राजकन्या। राजकुमारी। २. छुछूँदर। |
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नृपांश :
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पुं० [नृप-अंश,ष० त०] आय,उपज आदि का वह अंश जो राजा को दिया जाता हो। |
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नृपात्मज :
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पुं० [नृप-आत्मज्,ष० त०] [स्त्री० नृपात्मजा] राजकुमार। |
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नृपाध्वर :
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पुं० [नृप-अध्वर,मध्य० स०] राजसूय यज्ञ। |
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नृपान्न :
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पुं० [नृप-अन्न,ष० त०] १. राजा का अन्न। २. राजभोग धान। |
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नृपाभीर :
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पुं० [सं० अभि√ईर्(सूचना)+क,नृप-अभीर,ष० त०] एक तरह का बाजा। विशेष दे० ‘नृपमान’। |
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नृपामय :
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पुं० [आमय-नृप,ष० त० पूर्वनिपात] यक्ष्मा राजरोग। |
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नृपाल :
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पुं० [सं० नृ√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] राजा। |
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नृपावर्त्त :
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पुं० [सं० नृप+आ√वृत्त (बरतना+अच्)] एक तरह का रत्न। राजावर्त्त। |
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नृपासन :
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पुं० [नृप-आसन,ष० त०] राजसिंहासन। तख्त। |
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नृपाह्व :
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पुं० [नृप-आह्वा,ब० स०] लाल प्याज। |
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नृपाह्वय :
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वि० [सं० नृप-आ√ह् वे(स्पर्धा)+अच्] राजा कहलानेवाला। राजा नामधारी। |
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नृपोचित :
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वि० [नृप-उचित,ष० त०] राजाओं के लिए उचित या उपयुक्त। राजाओं के योग्य। जैसे-नृपोचित व्यवहार। पुं० एक प्रकार का काला बड़ा उरद। राज-माष। २. लोबिया। |
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नृमणा :
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स्त्री० [सं० नृ-मन, ब० स०, टाप्, णत्व]प्लक्षद्वीप की एक महानदी। (भागवत) |
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नृमणि :
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पुं० [सं०] एक पिशाच जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि वह बच्चों को तंग किया करता है। |
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नृ-मर :
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वि० [सं० ष० त०] मनुष्यों को मारनेवाला। पुं० राक्षस। |
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नृमल :
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वि०=निर्मल। |
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नृ-मिथुन :
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पुं० [सं० ष० त०] १. स्त्री-पुरुष का जोड़ा। २. मिथुन राशि। |
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नृ-मेध :
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पुं० [सं० ष० त०] नरमेध(दे०)। |
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नृ-यज्ञ :
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पुं० [सं० मध्य० स०] गृहस्थ के लिए आवश्यक माने हुए पंचयज्ञों में से एक जिसमें अतिथि का सत्कार उचित ढंग से करने को कहा गया है। |
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नृ-लोक :
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पुं० [सं० ष० त०] मनुष्यों का लोक। मर्त्यलोक। |
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नृ-वराह :
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पुं० [सं० कर्म० स०] वाराह रूपीधारी। विष्णु भगवान। |
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नृ-वाहन :
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पुं० [सं० ब० स०] कुबेर। |
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नृ-वेष्टन :
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पुं० [सं० ब० स०] शिव। |
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नृशंस :
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वि० [सं० नृ√शंस् (हिंसा)+अण्] [भाव,नृशंसता] १. क्रूर। निर्दय। २. अत्याचारी। ३. बहुत बड़ा अनिष्ट या अपकार करनेवाला। |
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नृशंसता :
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स्त्री० [सं० नृशंस+तल्+टाप्] नृशंस होने की अवस्था,गुण या भाव। |
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नृ-श्रृंग :
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पुं० [सं० ष० त०] मनुष्य के सींग के समान अस्तित्वहीन और कल्पित वस्तु। |
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नृ-सिंह :
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पुं० [सं० कर्म० स०] वह जो मनुष्यों में उसी प्रकार प्रधान और श्रेष्ठ हो, जिस प्रकार पशुओं में सिंह होता है। सिंह जैसे पराक्रम वाला व्यक्ति। २. पुराणानुसार विष्णु का चौथा अवतार जो आधे मनुष्य और आधे सिंह के रूप में हुआ था। विशेष-विष्णुका यह रूप भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए हुआ था,और इस अवतार में उन्होंने राक्षसों के राजा हिरण्यकश्यप को मारा था। ३. कामशास्त्र में एक प्रकार का आसन या रति-बंध। |
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नृसिंह-चतुर्दशी :
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स्त्री० [मध्य० स०] वैशाष शुक्ल चतुर्दशी इसी तिथि को भगवान नृसिंह अवतरित हुए थे। |
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नृसिंह-पुराण :
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पुं० [मध्य० स०] एक उपपुराण। |
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नृसिंपुरी :
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पुं० [सं०] एक प्राचीन देश (बृहत्संहिता)। |
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नृ-सोम :
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पुं० [उपमि० स०] ऐसा मनुष्य जो चंद्रमा के समान प्रकाशमान हो। बहुत बड़ा आदमी। |
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नृ-हरि :
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पुं० [कर्म० स०] नृसिंह। (दे०)। |
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