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पकना  : अ० [सं० पक्व, हिं० पक्का, पका+ना (प्रत्य०)] १. पक्का या परिपक्व होना। २. अनाज आदि का आँच पर रखे जाने से उबल या तपकर इस प्रकार कोमल होना या गलना कि वह खाया जा सके या खाने पर सहज में पच सके। जैसे—कढ़ी या खीर पकना। ३. कच्ची मिट्टी से बनी हुई चीजों के संबंध में, आँच से तपकर इस प्रकार कड़ा होना कि सहज में टूट न सकें। जैसे—ईंटें या मटके पकना। ४. फलों आदि के संबंध में, वृक्षों में लगे रहने की दशा में अथवा उनसे तोड़ लिए जाने पर किसी विशिष्ट क्रिया से इस प्रकार कोमल, पुष्ट और स्वादिष्ट होना कि ये खाने के योग्य हो सकें। जैसे—अमरूद या बेल पकना। ५. घाव, फोड़े आदि का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उनमें मवाद आ जाय या भर जाय। जैसे—पुलटिस बाँधने से फोड़ा पक जाता है। ६. शरीर के किसी अंग या छोटे-छोटे घावों, फुँसियों आदि से इस प्रकार भरना कि उनमें कोई विषाक्त तरल पदार्थ भर जाय। जैसे—कान पकना, जीभ या मुँह पकना। मुहा०—कलेजा पकना=कष्ट या दुःख सहते-सहते किसी ऐसी स्थिति में पहुँचना कि प्रायः मानसिक व्यथा बनी रहे। ७. लेन-देन या व्यवहार आदि में, कोई बात निश्चित या स्थिर होना। पक्का होना। जैसे—(क) सलाह पकना। (ख) यह सौदा पक जाय तो सौ रुपये मिलेंगे। ८. चौसर की गोट के संबंध में चलते-चलते सब घर पार करके ऐसी स्थिति में पहुँचना जहाँ वह मर न सके। ९. बालों के संबंध में, वृद्धावस्था अथवा किसी प्रकार के रोग के कारण सफेद होना। १॰. ऐसी अवस्था में पहुँचना जहाँ से पतन, ह्नास आदि आरंभ होता है। जैसे—दादा जी अब अधिक पक चले हैं। ११. (बात) अच्छी तरह से स्मरण या याद हो जाना। जैसे—कविता कहानी या पहाड़ा पकना। (पश्चिम)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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