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पगड़ी  : स्त्री० [सं० पटक,हिं० पाग+ड़ी (प्रत्य०)] १. सिर पर लपेटकर बाँधा जानेवाला लंबा कपड़ा। उष्णीण। पाग। साफा। क्रि० प्र०—बँधना।—बाँधना। विशेष—मध्ययुग में पगड़ी प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा की सूचक होती थी; इसी से इसके कई अर्थों और मुहावरों का विकास हुआ है। मुहा०—(किसी की) पगड़ी उतारना या उतार लेना=छीन या ठगकर किसी से बहुत-कुछ धन ले लेना। (किसी के सिर) पगड़ी बँधना=(क) महत्वपूर्ण या शीर्ष स्थान प्राप्त होना। (ख) किसी का उत्तराधिकारी या स्थानापन्न बनाया जाना। (किसी से) पगड़ी बदलना=किसी से भाई-चारे और घनिष्ठ मित्रता का संबंध स्थापित करना। विशेष—१. मध्ययुग में जब किसी से बहुत अधिक या घनिष्ठ मित्रता का संबंध हो जाता था,तब उस मित्रता को स्थायी बनाये रखने के प्रतीक के रूप में अपनी पगड़ी सिर पर रख दी जाती थी और उसकी पगड़ी आप पहन ली जाती थी। २. पगड़ी बाँधनेवाले अर्थात् वयस्क पुरुष का वाचक शब्द या संज्ञा। जैसे—गाँव भर से पगड़ी पीछे एक रुपया ले लो; अर्थात् प्रत्येक वयस्क पुरुष से एक रुपया ले लो। ३. व्यक्ति की प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा। मुहा०—(किसी से) पगड़ी अटकना=किसी के साथ ऐसा मुकाबला विरोध या स्पर्धा होना कि उसकी हार-जीत पर प्रतिष्ठा की हानि या रक्षा अवलंबित हो। आपस में पगड़ी उलछना=एक के हाथों दूसरे की दुर्दशा और बेइज्जती होना। जैसे—आज-कल उन दोनों में खूब पगड़ी उछल रही है। (किसी की) पगड़ी उछालना=किसी को अपमानित करके उपहासास्पद बनाना। दुर्दशा करना। (किसी को) पगड़ी उतारना-अपमानित या दुर्दशा-ग्रस्त करना। (किसी के सिर किसी बात की) पगड़ी बँधना=किसी काम या बात का यश या श्रेय प्राप्त होना। जैसे—इस काम के लिए प्रयत्न चाहे जिसने किया हो, पर इसकी पगड़ी तो तुम्हारे ही सिर बँधी है। (किसी की) पगड़ी रखना=प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा की रक्षा करना। (किसी के आगे) पगड़ी रखना या रख देना=किसी से दीनता और नम्रतापूर्वक यह कहना कि हमारी प्रतिष्ठा या लाज की रक्षा आप ही कर सकते हैं। ४. आज-कल दुकान,मकान आदि किराये पर लेने के समय उसके मालिक को अनुकूल तथा संतुष्ट करने के लिए अवैध रूप से पेशगी दिया जानेवाला धन। जैसे—इस दुकान का किराया तो ५॰) महीना ही है, पर दुकान का मालिक हजार रुपये पगड़ी माँगता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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