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परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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