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शब्द का अर्थ

पाँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइ  : पुं०=पाँव। मुहा०—पाँई पारना=दे० ‘पाँव’ के अंतर्गत ‘पाँव पारना’ मुहा०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइता  : पुं०=पायँता (पैताना, चारपाई का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँओं  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँक (ा)  : पुं०=पंक (कीचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांक्त  : वि० [सं० पंक्ति+अञ्] १. पंक्ति-संबंधी। पंक्ति का। २. पंक्ति के रूप में होनेवाला।
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पांक्तेय  : वि० [सं० पंक्ति+ढक्—एय] [पंक्ति+ष्यञ्] (व्यक्ति) जो अपने अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता हो।
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पांक्त्य  : वि० [सं० पंक्ति+व्यञ्]=पांक्तेय।
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पाँख (ड़ा)  : पुं०=पंख (पक्षियों के)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पख (पखवाड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँखी  : वि० [हिं० पंख] पंख या पंखोवाला। स्त्री० १. पक्षी। २. फतिंगा। ३. काठ का एक उपकरण जिससे खेतों में क्यारियाँ बनाई जाती हैं। ४. दे० ‘पाँचा’।
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पाँखुरी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँग  : पुं० [सं० पंक] वह नई जमीन जो किसी नदी के पीछे हट जाने से उसके किनारे पर निकलती है। कछार। खादर। गंगबरार। पुं०[?] जुलाहों के करघे का ढाँचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगल  : पुं० [सं० पांगुल्य] ऊँट। (डिं०)
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पाँगा  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगा नमक  : पुं० [सं० पंक, हिं० पाँग+नोन]=समुद्री नमक।
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पाँगा नोन  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगुर  : स्त्री० [हिं० पाँव+उँगली] पैर की कोई उँगली। वि०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगुरना  : अ० [?] पनपना।
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पाँगुरा  : वि०=पांगुर (पंगुल)।
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पाँगुल  : वि०=पंगुल।
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पांगुल्य  : पुं० [सं० पंगुल+ष्यञ्] पंगुल होने की अवस्था या भाव। लंगड़ापन।
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पाँच  : वि० [सं० पंच] जो गिनती में चार से एक अधिक अथवा छः से एक कम हो। मुहा०—(किसी की) पाँचों उँगलियाँ घी में होना=हर काम में किसी को सफलता मिलना या लाभ होना। पाँचों सवारों में नाम लिखाना या पाँचवें सवार बनना=जबरदस्ती अपने को अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों की पंक्ति या श्रेणी में गिनना या समझना। औरों के साथ अपने को भी श्रेष्ठ गिनना। बड़ा बतलाने या समझने लगना। पद—पाँच जने जी जमात=घर-गृहस्थी और परिवार। पुं० [सं० पंच] १. पाँच का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—५। २. जात-बिरादरी या समाज के अच्छे या मुख्य लोग। ३. सब अच्छे आदमी। उदा०—जो पाँचहिं मत लागै नीका।—तुलसी। वि० बहुत अधिक चालाक या होशियार। उदा०—मेरे फंदे में एक भी न फँसा। पाँच बन्नो थी जिससे चार उलझे।—जान साहब।
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पाँचक  : पुं०, स्त्री०=पंचक।
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पांचकपाल  : वि० [सं० पंचकपाल+अण्] पंचकपाल संबंधी।
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पांचजनी  : स्त्री० [सं० पंचजन+अण्—ङीप्] भागवत के अनुसार पंचजन नामक प्रजापति की असिकी नामक कन्या का दूसरा नाम।
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पांचजन्य  : पुं० [सं० पचंजन+ण्य] १. पंचजन राक्षस का वह शंख जो भगवान कृष्ण उठाकर ले गये थे और स्वयं बजाया करते थे। २. विष्णु के शंख का नाम। ३. जम्बू द्वीप का एक नाम।
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पांचदश्य  : पुं० [सं० पंचदशन्+ण्य] पंचनद या पंजाब-संबंधी। पुं० १. पंजाब का निवासी। २. पंजाब।
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पाँचपंच  : पुं० बहु० [हिं०] सब या मुख्य मुख्य लोग। जैसे—पाँच पंच जो कुछ कहें, वह हम मानने को तैयार हैं।
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पांच-भौतिक  : वि० [सं० पंचभूत+ठक्—इक] १. जिसका संबंध पंचभूतों से हो। २. पंच-भूतों से मिलकर बना हुआ। जैसे—पांच भौतिक शरीर।
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पांचयज्ञिक  : वि० [सं० पंचयज्ञ+ठक्—इक] पंच यज्ञ-संबंधी। पुं० पाँच प्रकार के यज्ञों में से प्रत्येक।
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पाँचर  : पुं० [सं० पंजर] कोल्हू के बीच में जड़े हुए लकड़ी के वे छोटे टुकड़ो जो गन्ने के टुकड़ों को दबाने के लिए लगाये जाते हैं। पुं०=पच्चर।
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पांचरात्र  : पुं० [सं० पंचरात्रि+अण्] आधुनिक वैष्णव मत का एक प्राचीन रूप जिससे परम, तत्त्व, मुक्ति, मुक्ति योग और विषय (संसार) इन पाँच रात्रों (ज्ञानों) का निरूपण होता था। यह भागवत धर्म की दो प्रधान शाखाओं में से एक था।
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पांचवर्षिक  : वि० [सं० पंचवर्ष+ठञ्—इक] पाँच वर्षों में होनेवाला। पंचवर्षीय।
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पाँचवाँ  : वि० [हिं० पाँच+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० पाँचवीं] क्रम या गिनती में पाँच के स्थान पर पड़नेवाला।
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पांचशाब्दिक  : पुं० [सं० पंचशब्द+ठक्—इक] करताल, ढोल, बीन, घंटा और भेरी ये पाँच प्रकार के बाजे।
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पाँचा  : पुं० [हिं० पाँच] खेत का एक उपकरण जिसमें एक डंडे के साथ छोटी फूलकड़ियां लगी रहती हैं। यह प्रायः कटी हुई फसल या घास-भूसा इकट्ठा करने के काम आता है।
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पांचार्थिक  : पुं० [सं० पंचार्थ+ठन्—इक, वृद्धि (बा०)] शैव।
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पांचाल  : वि० [सं० पंचाल+अण्] १. पंचाल देश से संबंध रखनेवाला। पंचाल का। २. पंचाल देश में होनेवाला। पुं० १. पंचाल जाति के लोगों का देश जो भारत के पश्चिमोत्तर खंड में था। २. पंचाल जाति के लोग। ३. प्राचीन भारत में, बढ़इयों, नाइयों, जुलाहों, धोबियों और चमारों के पाँचों वर्गों का समूह।
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पांचालक  : वि० [सं० पांचाल+कन्] पंचालवासियों के संबंध का। पुं० पंचाल देश का राजा।
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पांचाल-मध्यमा  : स्त्री० [सं०] भारतीय नाट्य कला में, एक प्रकार की प्रवृत्ति या बात-चीत वेश-भूषा आदि का ढंग, प्रकार या रूप जो पांचाल शूरसेन, कश्मीर, वाह्लीक, मद्र आदि जनपदों की रहन-सहन आदि के अनुकरण पर होता था।
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पांचालिका  : स्त्री० [सं० पांचाली+कन्+टाप्, ह्रस्व]=पंचालिका।
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पांचाली  : स्त्री० [सं० पंचाल+अण्—ङीष्] १. पंचाल देश की स्त्री। २. पाँचों पांडवों की पत्नी द्रोपदी जो पांचाल देश की राजकुमारी थी। ३. साहित्यिक रचनाओं की एक विशिष्ट रीति या शैली जो मुख्यतः माधुर्य, सुकुमारता आदि गुणों से युक्त होती है। इसमें प्रायः छोटे-छोटे समास और कर्ण-मधुर पदावलियाँ होती हैं। किसी किसी के मत से गौड़ी और वैदर्भी वृत्तियों के सम्मिश्रण को भी पांचाली कहते हैं। ४. संगीत में (क) स्वर-साधन की एक प्रणाली; और (ख) इन्द्र ताल के छः भेदों में से एक। ५. छोटी पीपल।
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पांचो  : स्त्री० [हिं० पच्ची का पुराना रूप] रत्नों आदि के जड़ाव का काम। पच्चीकारी। उदा०—जाग्रत सपनु रहत ऊपर मनि, ज्यों कंचन संग पांची।—हित हरिवंश। स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पाँचेक  : वि० [हिं० पाँच+एक] १. पाँच के लगभग। २. थोड़े-से जैसे—वहाँ पाँचेक आदमी आये थे।
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पाँचै  : स्त्री० [हिं० पंचमी] किसी पक्ष की पाँचवीं तिथि। पंचमी।
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पाँछना  : स० १.=पाछना। २. पोंछना का अनु०।
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पाँज  : स्त्री० [सं० पाश] बाहु-पाश। वि० [हिं० पाँव] (जलाशय या नदी) जिसमें इतने कम पानी हो कि यों ही पाँव चलकर पार किया जा सके। स्त्री० छिछला जलाशय या नदी। पुं० पुल। सेतु। उदा०—जनक-सुता हितु हत्यो लंक-पति, बाँध्यों सागर पाँज।—सूर। पुं० [हिं० पाँजना] पाँजने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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पाँजना  : स० [सं० प्रण द्रध, प्रा० पणज्झ पँज्झ] धातुओं के टुकड़ों को जोड़ने के लिए उनमें टाँका लगाना। झालना।
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पाँजर  : अव्य० [सं० पंजा] पास। समीप। पुं० १. निकटता। सामीप्य। २. दे० ‘पंजर’।
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पांजी  : स्त्री० १=पाँज। २.=पंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँझ  : स्त्री०=पाँज।
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पाँडक  : पुं०=पंडुक (पेंडुकी)।
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पांडर  : पुं० [सं०√पण्ड् (गति)+अर, दीर्घ] १. कुंद का वृक्ष और फूल। २. सफेद रंग। ३. सफेद रंग की कोई चीज। ४. मरुआ। ५. पानड़ी। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. महाभारत के अनुसार ऐरावत के कुल में उत्पन्न एक हाथी। ८. पुराणानुसार एक पर्वत जो मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित कहा गया है।
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पांडर-पुष्पिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] सातला वृक्ष।
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पाँडरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
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पांडव  : वि० [सं० पांडु+अण्] पांडु संबंधी। पांडु का। पुं० १. कुंती और माद्री के गर्भ से उत्पन्न राजा पांडु के ये पाँचों पुत्र—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। २. प्राचीन काल में पंजाब का एक प्रदेश जो वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे था। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. रहस्य संप्रदाय में, पाँचों इंद्रियाँ।
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पांडव-नगर  : पुं० [सं० ष० त०] हस्तिनापुर।
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पांडवाभील  : पुं० [सं० पांडव-अभी, ष० त०√ला (लेना)+क] श्रीकृष्ण।
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पांडवायन  : पुं० [सं० पांडव-अयन, ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पांडविक  : पुं० [सं० पांडु+ठञ्—इक] एक तरह की गौरैया।
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पांडवीय  : वि० [सं० पांडव+छ—ईय] पांडु के पुत्रों से संबंध रखनेवाला पांडवों का।
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पांडवेय  : पुं० [सं० पांडु+अण्+ङीष्+ठक्—एय] १. पाँडव। २. राजा परीक्षित का एक नाम।
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पांडित्य  : पुं० [सं० पंडित+ष्यञ्] १. पंडित होने की अवस्था या भाव। २. पंडित या विद्वान् को होनेवाला ज्ञान। विद्वता।
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पांडीस  : स्त्री० [?] तलवार। (डिं०)
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पांडु  : वि० [सं०√पंड् (गति)+कु, नि. दीर्घ] [भाव० पांडुता] हलके पीले रंग का। पुं० १. पांडु फली। २. सफेद रंग। ३. कुछ लाली लिये पीला रंग। ४. त्वचा के पीले पड़ने का एक रोग। पीलिया। ५. हस्तिनापुर के प्रसिद्ध राजा जिनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पाँच पुत्र थे। ६. सफेद हाथी। ७. एक नाग का नाम। ८. परवल।
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पाँडुआ  : पुं० [सं०] वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। दोमट जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडु-कंटक  : पुं० [ब० स०] अपामार्ग। चिचड़ा।
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पांडु-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर।
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पांडुकंबली (लिन्)  : स्त्री० [सं० पांडुकंबल+इनि] ऊनी कंबल से आच्छादित गाड़ी।
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पाँडुक  : पुं०=पंडुक (पेंडकी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडुक  : पुं० [सं० पाण्डु+कन्] १. पीला रंग। २. पीलिया रोग। ३. पांडुराजा(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पांडु-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार व्रण-चिकित्सा का एक अंग जिससे फोड़े के अच्छे हो जाने पर उसके काले वर्ण को औषधि के प्रयोग में पीला बनाते हैं।
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पांडु-क्ष्मा  : स्त्री० [ब० स० ?] हस्तिनापुर का एक नाम।
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पांडु-चित्र  : पुं० [सं०] आलेख।
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पांडु-तरु  : पुं० [कर्म० स०] धौ का पेड़।
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पांडुता  : स्त्री० [सं० पांडु+तल्+टाप्] पांडु होने की अवस्था या भाव। पीलापन।
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पांडु-तीर्थ  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ।
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पांडु-नाग  : पुं० [उपमि० स०] १. पुन्नाग वृक्ष। २. [कर्म० स०] सफेद हाथी। ३. सफेद साँप।
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पांडु-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] रेणुका नामक गंध-द्रव्य।
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पांडु-पुत्र  : पुं० [ष० त०] राजा पांडु का पुत्र। पाँचों पांडवों में से प्रत्येक।
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पांडु-पृष्ठ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी पीठ सफेद हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, (वह व्यक्ति) जिससे शरीर पर कोई शुभ लक्षण न हो। ३. अकर्मण्य। निकम्मा।
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पांडु-फला  : पुं० [ब० स०, टाप्] परवल।
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पांडु-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक तरह का छोटा क्षुप।
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पांडु-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. खड़िया। दुधिया मिट्टी। २. राम-रज नाम की पीली मिट्टी।
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पांडु-रंग  : पुं० [सं० पांडुर-अंग, ब० स०, शक०, पररूप] १. एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार स्वाद में तिक्त और कृमि, श्लेष्मा, कफ आदि का नाश करनेवाला माना जाता है। २. पुराणानुसार विष्णु के एक अवतार।
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पांडुर  : वि० [सं० पांडु+र] १. पीला। जर्द। २. सफेद। श्वेत। पुं० १. धौ का पेड़। सफेद ज्वार। ३. कबूतर। बगला। ५. सफेद खड़िया। ६. कामला रोग। ७. सफेद कोढ़। ८. कार्तिकेय के एक गण का नाम। ९. सर्प। साँप। १॰. साधु-संतों की आध्यात्मिक परिभाषा में, अज्ञान।
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पांडुरक  : वि० [सं० पाण्डुर+कन्] पांडु रंग का। पीला। पुं० १. पीला रंग। २. पीलिया।
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पांडुर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुटज। कुड़ा। कुरैया।
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पांडु-पृष्ठ  : पुं०=पांडुपृष्ठ।
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पांडुर-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का छोटा क्षुप]
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पांडुरा  : स्त्री० [सं० पांडुर+टाप्] १. मषवन। माषपर्णी। २. ककड़ी। ३. बौद्धों की एक देवी या शक्ति।
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पांडु-राग  : पुं० [ब० स०] दौना नाम का पौधा। पुं० [कर्म० स०] सफेद रंग। सफेदी।
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पांडुरिमा  : स्त्री० [सं० पांडुर+इमनिच्] हलका पीलापन।
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पांडुरेक्षु  : पुं० [सं० पांडुर+इक्षु, कर्म० स०] हलके पीले रंग की ईख।
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पांडुलिपि  : स्त्री० [सं०] १. पुस्तक, लेख आदि की हाथ की लिखी हुई वह प्रति जो छपने को हो। (मैनस्क्रिष्ट) २. दे० ‘पांडुलेख’।
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पांडु-लेख  : पुं० [कर्म० स०] १. हाथ से लिखा हुआ वह आरंभिक लेख जिसमें काँट-छाँट, परिवर्तन आदि होने को हो। २. उक्त का काट-छाँट कर तैयार किया हुआ वह रूप जो प्रकाशित किये या छापा जाने को हो। (ड्राफ्ट) ३. पांडुलिपि।
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पांडु-लेखक  : पुं० [ष० त० ?] वह जो लेख आदि की पांडु-लिपि लिखकर तैयार करता हो। (ड्राफ्टमैन)
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पांडु-लेखन  : पुं० [ष० त० ?] लेख्य आदि की पांडुलिपि तैयार करने का काम। (ड्राफ्टिंग)।
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पांडु-लेख्य  : पुं० [कर्म० स०] १.=पांडुलिपि। २.=पांडुलेख।
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पांडु-लोमश  : वि० [कर्म० स०,+श] [स्त्री० पांडुलोमशा] सफेद रोएँवाला। जिसके रोयें या बाल सफेद हों।
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पांडु-लोमशा  : स्त्री० [सं० पांडुलोमश्+टाप्] मषवन। माषपर्णी।
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पांडु-लोमा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पांडु-लोमशा। (दे०)
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पांडु-शर्करा  : स्त्री० [ब० स०] प्रमेह रोग का एक भेद।
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पांडुशर्मिला  : स्त्री० [सं०] द्रौपदी।
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पांडू  : स्त्री० [सं० पांडु=पीला] १. हलके पीले रंग की मिट्टी। २. ऐसी कीचड़ जिसमें बालू भी मिला हो। ३. ऐसी भूमि जिसमें वर्षा के जल से ही उपज होती हो। बारानी।
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पाँडे  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. दे० ‘पाण्डेय’। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. भोजन बनानेवाला ब्राह्मण। रसोइया। ४. पंडित। विद्वान। (क्व०)
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पांडेय  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. कान्यकुब्ज और सरयूपारी ब्राह्मणों की शाखाओं का अल्ल या उपाधि। २. कायस्थों की एक शाखा। ३. दे० ‘पाँडे’।
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पाँत  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँतरना  : अ० [सं० पीत्रल] १. गलती या भूल करना। २. मूर्खता करना। उदा०—प्रमणै पित मात पूत मत पांतरि।—प्रिथीराज।
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पाँतरिया  : वि० [सं० पत्रल] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। उदा०—पांतरिया माता इ पिता।—प्रिथीराज।
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पांति  : स्त्री० [सं० पांक्ति] १. अवली। कतार। पंगत। २. बिरादरी के वे लोग जो साथ बैठकर भोजन कर सकते हों।
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पांथ  : वि० [सं० पथिन्+अण्, पन्थ-आदेश] १. पथिक। २. वियोगी। विरही। पुं० सूर्य। पुं०=पंथ (रास्ता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पांथ-निवास  : पुं० [ष० त०]=पांथ-शाला।
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पांथ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] पथिकों और यात्रियों के ठहरने के लिए रास्ते में बनी हुई जहग (इमारत या घर)। जैसे—धर्मशाला, सराय, होटल आदि।
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पाँपणि  : स्त्री० [हिं० पश्चिमी हि० पपनी] पलक। उदा०—पाँपणि पंख सँवारि नवी परि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँय  : पुं०=पाँव।
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पाँयचा  : पुं० [फा०] १. पाखानों आदि में बना हुआ पैर रखने के वे ईटें या पत्थर जिन पर पैर रखकर शौच से निवृत्त होने के लिए बैठते हैं। २. पाजामें की मोहरी का वह अंश जो घुटनों के नीचे तक रहता है।
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पाँयता  : पुं०=पैंताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँव  : पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव] १. जीव-जंतुओं, पशुओं और विशेषतः मनुष्य के नीचेवाले वे अंग जिनकी सहायता से चलते-फिरते अथवा जिनके आधार पर वे खड़े होते हैं। पैर। पद—पाँव का खटका=दे० ‘पैर की आहट।’ पाँव की जूती=बहुत ही तुच्छ या हीन वस्तु या व्यक्ति। पाँव की बेड़ी=ऐसा बंधन जो किसी की स्वच्छंद गति या रहन-सहन में बाधक हो। मुहा०—(किसी काम या बात में) पाँव अड़ाना=दे० ‘टाँग’ के अंतर्गत ‘टाँग अड़ाना।’ पाँव उखड़ जाना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत’ ‘पैर उखड़ना या उखड़ जाना’। पाँव उखाड़ना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत। पाँव उठाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव खींचना=व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना या घूमना-फिरना छोड़ देना। पाँव गाड़ना=दे० नीचे ‘पाँव रोपना’। पाँव घिसना=(क) बार-बार कहीं बहुत अधिक आना-जाना। (ख) दे० नीचे ‘पाँव रगड़ना’। (किसी स्त्री के) पाँव छुड़ाना= उपचार, औषध आदि की सहायता से ऐसा उपाय करना कि रुका हुआ मासिक रज-स्त्राव फिर से होने लगे। (किसी स्त्री के) पाँव छूटना=(क) स्त्री का मासिकधर्म से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से और अपेक्षया अधिक समय तक रज-स्त्राव होता रहना। (किसी के ) पाँव छूना=किसी बड़े का आदर या सम्मान करने के लिए उसके पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। पाँव ठहरना=दृढ़तापूर्वक या स्थिर भाव से कहीं खड़े होना। ठहरना या रुकना। पाँव तोड़कर बैठना=स्थायी रूप और स्थिर भाव से एक जगह पर रहना और व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना बंद कर देना (किसी के) पाँव दबाना या दाबना=थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिए टाँगे दबाना। (किसी काम या बात में) पाँव धरना= किसी काम में अग्रसर या प्रवृत्त होना। (किसी के) पाँव धरना या पकड़ना=किसी प्रकार का आग्रह, विनती आदि कहते मनाने के लिए किसी के पाँव पर हाथ रखना। उदा०—अब यह बात यहाँ जानि ऊधौ, पकरति पाँव तिहारे।—सूर। (किसी जगह) पाँव धरना या रखना=कहीं जाना या जाकर पहुँचना। पैर रखना। जैसे—अब कभी उन के यहाँ पाँव न रखना। (किसी जगह) पाँव धारना=कृतज्ञतापूर्वक पदार्पण करना। उदा०—धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जँह जँह नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी। (किसी के) पाँव धोकर पीना=(क) चरणामृत लेना। (ख) बहुत अधिक पूज्य तथा मान्य समझकर परम आदर, भक्ति और श्रद्धा के भाव प्रकट करना। पाँव निकालना=(क) कहीं चलने या जाने के लिए पैर उठाना या बढ़ाना। (ख) नियंत्रण आदि की उपेक्षा करते हुए कोई नई प्रवृत्ति विशेषतः अनिष्ट या अवांछित प्रवृत्ति के लक्षण दिखलाना। जैसे—तुम तो अभी से पाँव निकालने लगे। (किसी का) पाँव पड़ना=आगमन होना। आना। जैसे—आपके पाँव पड़ने से यह घर पवित्र हो गया। (किसी के) पाँव पड़ना=(क) झुककप या पैर छूकर नमस्कार करना। (ख) अपनी प्रार्थना या विनती मनवाने के लिए बहुत ही दीनतापूर्वक आग्रह करना। (किसी के) पाँव पर गिरना=दे० ऊपर ‘(किसी से) पाँव पड़ना’। पाँव पर पाँव रखकर बैठना=काम-धंधा छोड़ बैठना या पड़े रहना। निठल्ले की तरह बैठना। (किसी के) पाँव पर पाँव रखना=दूसरे के चरण चिह्नों का अनुकरण करना। किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। (किसी के) पाँव पर सिर रखना=दे० ऊपर ‘(किसी के) पाँव पड़ना’। पाँव पलोटना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर दबाना’। पाँव पसारना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर फैलाना’। पाँव-पाँव चलना=पैदल चलना। जैसे—अब कुछ दूर पाँव-पाँव भी चलो। (किसी को) पाँव पारना=पैरों पड़ने के लिए विवश करना। उदा०—कहाँ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं।—सूर। पाँव पीटना=(क) बेचैनी या यंत्रणा से पैर पटकना। छटपटाना। (ख) बहुत अधिक दौड़-धूप या प्रयत्न करना। (किसी के) पाँव पूजना=बहुत अधिक भक्ति या श्रद्धा दिखाते हुए आदर-सत्यार करना। (वर के) पाँव पूजना=विवाह में कन्या कुल के लोगों का वर का पूजन करना और कन्यादान में योग देना। (किसी के) पाँव फूलना=भय, शंका आदि से ऐसी मनोदशा होना कि आगे बढ़ने का साहस न हो। (प्रसूता का) पाँव फेरने जाना=बच्चा हो जाने पर शुभ शकुन में प्रसूता का अपने मायके में कुछ दिनों तक रहने के लिए जाना। (वधू का) पाँव फेरने जाना=विवाह होने पर ससुराल आने के बाद वधू का पहले-पहल कुछ दिनों तक अपने मायके में रहने के लिए जाना। पाँव फैलाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बढ़ाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बाहर निकालना=पाँव निकालना। पाँव रगड़ना=(क) बहुत दौड़-धूप करना। (ख) कष्ट या पीड़ा से छटपटाना। (किसी काम या बात के लिए) पाँव रोपना=(क) दृढ़तापूर्वक प्रण या प्रतिज्ञा करना। (ख) हठ करना। अड़ना। (किसी के) पाँव लगाना=पैरों पर सिर रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। (किसी स्थान का) पाँव लगा होना=किसी स्थान से इस रूप में ज्ञात या परिचित होना कि उस पर चल-फिर चुकें हों। जैसे—वहाँ का रास्ता हमारे पाँव लगा है, आप से आप ठीक जगह पहुँच जाता हूँ। (किसी काम या बात से) पाँव समेटना=अलग, किनारे या दूर हो जाना। संबंध न रखना। छोड़ देना। जैसे—अब काम में हमने पाँव समेट लिये। विशेष—यों ‘पाँव’ और ‘पैर’ एक दूसरे के पर्याय या समानक ही है, फिर भी ‘पाँव’ पुराना और पूर्वी शब्द है, तथा ‘पैर’ अपेक्षया आधुनिक और पश्चिमी शब्द है। अधिकतर पुराने प्रयोग या मुहावरे ‘पैर’ से संबद्ध है, और ‘पाँव’ की तुलना में ‘पैर’ अधिंक प्रचलित तथा शिष्ट-सम्मत हो गया है। फिर भी बोल-चाल में लोग यह अंतर न जानने या न समझने के कारण दोनों शब्दों के मिले-जुले प्रयोग करते हैं जिससे दोनों के मुहावरे भी बहुत कुछ मिल-जुल गये हैं। यहाँ दोनों के विशिष्ट प्रयोगों और मुहावरों से कुछ अंतर रखा गया है। अतः पाँव के शेष प्रयोगों और मुहावरों के लिए ‘पैर’ के मुहावरे देखने चाहिए। २. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज या बात टिकी या ठहरी रहे। मुहा०—पाँव कट जाना=आधार या आश्रम नष्ट हो जाना (किसी के) पाँव न होना=(क) ऐसा कोई आधार या आश्रम न होना जिस पर कोई टिक या ठहर सके। जैसे—इस बात का न कोई सिर है न पाँव। (ख) खड़े रहने या ठहरने की शक्ति न होना। जैसे—चोर के पाँव नहीं होते, अर्थात् उसमें ठहरने या सामने आने का साहस नहीं होता।
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पाँव-चप्पी  : स्त्री० [हिं० पाँव+चापना=दबाना] पैर दबाने की क्रिया या भाव।
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पांवचा  : पुं०=पाँयचा।
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पाँवड़ा  : पुं० [हिं० पाँव+ड़ा (प्रत्य०)][स्त्री० पाँवड़ी] १. वह कपड़ा जो किसी बड़े और पूज्य व्यक्ति के मार्ग में इस उद्देश्य से बिछाया जाता है कि वह इस पर से हो कर चले। २. वह कपड़ा या ऐसी ही और कोई चीज जो पैर पोंछने के लिए कहीं पड़ा या बिछा रहता हो। पाँवदान। ३. दे० ‘पाँवड़ी’।
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पाँवड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँव+ड़ी (प्रत्य०)] १. खड़ाऊँ। २. जूता। ३. सीढ़ी। सोपान। ४. ऐसी चीज या जगह जिस पर प्रायः पैर रखे जाते या पड़ते हों। ५. गोटा-पट्ठा बिननेवालों का एक औजार जो बुनते समय पैरों से दबाकर रखा जाता है और जिससे ताने के तार ऊपर उठते और नीचे गिरते रहते हैं। स्त्री० [हिं० पौरि, पौरी] १. वह कोठरी जो किसी घर के भीतर घुसते ही रास्ते में पड़ती हो। ड्योढ़ी। पौरी। २. बैठने का ऊपरी कमरा। बैठक। ३. ‘पौरी’।
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पाँवर  : वि०=पामर। पुं०=पाँवड़ा। स्त्री०=पाँवड़ी।
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पाँवरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।
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पांशन  : वि० [सं०√पंस् (नाश करना)+ल्यु—अन, दीर्घ, पृषो०] १. कलंकित करनेवाला। भ्रष्ट करनेवाला। २. दुष्ट। ३. हेय। (प्रायः समास में व्यवहृत) जैसे—पौलस्त्य-कुल-पांशन। पुं० १. अपमान। २. तिरस्कार।
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पांशव  : पुं० [सं० पांशु+अण्] रेह का नमक।
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पांशु  : स्त्री०[सं०√पंस् (श्)+उ, दीर्घ] १. धूलि। रज। २. बालू। ३. गोबर की खाद। पाँस। ४. पित्त पापड़ा। ५. एक प्रकार का कपूर। ६. भू-संपत्ति। जमीन। जायदाद।
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पांशु-कसीस  : पुं० [उपमि० स०] कसीस।
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पांशुका  : स्त्री० [सं० पांशु√कै (चमकना)+क+टाप्] केवड़े का पौधा।
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पांशुकुली  : स्त्री० [सं० पांशु√कुल, (इकट्ठा होना)+क+ङीष] राजमार्ग।
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पांशु-कूल  : पुं० [ष० त०] १. धूल का ढेर। २. चीथड़ों आदि को सीकर बनाया हुआ बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का वस्त्र। ३. गुदड़ी। ४. वह दस्तावेज या लेख्य जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम न लिखा गया हो।
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पांश-कृत  : वि० [तृ० त०] १. धूल के ढका हुआ। २. पीला पड़ा हुआ। ३. मैला-कुचैला।
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पांशु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पाँगा नमक।
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पांशु-चंदन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पांशु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांशुज  : पुं० [सं० पांशु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक।
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पांशु-धान  : पुं० [ष० त०] धूल का ढेर।
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पांशु-पटल  : पुं० [ष० त०] किसी चीज पर जमी धूल की तह या परत।
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पांशु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुआ (साग)।
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पांश-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांशुर  : पुं० [सं० पांशु√रा (देना)+क] १. डाँस। २. खंज। ३. पंगु व्यक्ति।
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पांशु-रागिनी  : स्त्री० [सं० पांशु√रञ्ज् (रंगना)+घिनुण्+ ङीप्] महामेदा।
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पांशु-राष्ट्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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पांशुल  : वि० [सं० पांशु+लच्] [स्त्री० पांशुला] १. जिस पर गर्द या धूल पड़ी हो। मैला-कुचैला। २. पर-स्त्री-गामी। व्यभिचारी। पुं० १. पूतिरकंज। २. शिव।
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पांशुला  : स्त्री० [सं० पांशुल+टाप्] १. कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री। २. राजस्वला स्त्री। ३. जमीन। भूमि। ४. केतकी।
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पाँस  : स्त्री० [सं० पांशु] १. राख, गोबर, मल, मूत्र आदि, सड़ी-गली चीजें जो खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए उसमें डाली जाती हैं। खाद। क्रि० प्र०—डालना।—देना। २. कोई चीज सड़ाकर उठाया जानेवाला खमीर। ३. विशेषतः मधु आदि का वह खमीर जो शराब बनाने के लिए उठाया जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।
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पाँसना  : स० [हिं० पाँस+ना (प्रत्य०)] खेत में पाँस या खाद डालना।
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पाँसा  : पुं०=पासा।
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पाँसी  : स्त्री० [सं० पाश] घास, भूसा आदि बाधने के लिए रस्सियों की बनी हुई बड़ी जाली। जाला।
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पांसु  : स्त्री० [√पंस्+उ, दीर्घ]=पांशु।
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पांसु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पांगा नमक।
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पांसु-खुर  : पुं० [ब० स०] घोड़ों के खुरों का एक रोग।
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पांसु गुंठित  : वि० [तृ० तृ०] धूल से ढका हुआ।
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पांसु-चदन  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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पांसु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांसु-चामर  : पुं० [ब० स०] १. बड़ा खेमा। तंबू। २. नदी का ऐसा किनारा जिस पर दूब जमी हो। ३. धूल। ४. प्रशंसा।
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पांसुज  : वि० [सं० पांसु√जन्+ड] पाँगा नमक।
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पांसु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुए का साग।
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पांसु-भव  : पुं० [ब० स०] पाँगा नमक।
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पांसु-भिक्षा  : स्त्री० [सं० पांसु√भिक्ष् (याचना)+अङ्—टाप्] धौ का पेड़।
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पांसु-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांसुर  : पुं० [सं० पांसु√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का बड़ा मच्छड़। दंश। डाँस। २. लूला-लँगड़ा जीव या प्राणी।
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पांसुरागिणी  : स्त्री० [सं० दे० ‘पांशुरागिनी’] महामेदा।
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पाँसुरी  : स्त्री०=पसली।
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पांसुल  : वि० [सं० पांसु+लच्] १. धूल से लथ-पथ। २. मलिन। मैला। ३. पापी। ४. पर-स्त्रीगामी। पुं० शिव।
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पांसुला  : वि० [सं० पांसुल+टाप्] १. व्यभिचारिणी (स्त्री)। २. रजस्वला (स्त्री)। स्त्री० १. पृथ्वी। २. केतकी।
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पाँसु  : पुं० [हिं० पाँस+ऊ (प्रत्य०)] कुम्हारों का एक उपकरण जिससे वे गीली मिट्टी चलाते और सानते हैं।
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पाँही  : अव्य० [हिं० पँह] १. निकट। पास। समीर। २. प्रति।
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पांटबर  : पुं० [सं० पट्ट+अम्बर] रेशमी वस्त्र। रेशमी कपड़ा।
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पाँयजेहरि  : स्त्री० [हिं० पाँय+जेहरी] पायजेब।
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पाँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइ  : पुं०=पाँव। मुहा०—पाँई पारना=दे० ‘पाँव’ के अंतर्गत ‘पाँव पारना’ मुहा०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइता  : पुं०=पायँता (पैताना, चारपाई का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँओं  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँक (ा)  : पुं०=पंक (कीचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांक्त  : वि० [सं० पंक्ति+अञ्] १. पंक्ति-संबंधी। पंक्ति का। २. पंक्ति के रूप में होनेवाला।
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पांक्तेय  : वि० [सं० पंक्ति+ढक्—एय] [पंक्ति+ष्यञ्] (व्यक्ति) जो अपने अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता हो।
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पांक्त्य  : वि० [सं० पंक्ति+व्यञ्]=पांक्तेय।
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पाँख (ड़ा)  : पुं०=पंख (पक्षियों के)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पख (पखवाड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँखी  : वि० [हिं० पंख] पंख या पंखोवाला। स्त्री० १. पक्षी। २. फतिंगा। ३. काठ का एक उपकरण जिससे खेतों में क्यारियाँ बनाई जाती हैं। ४. दे० ‘पाँचा’।
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पाँखुरी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँग  : पुं० [सं० पंक] वह नई जमीन जो किसी नदी के पीछे हट जाने से उसके किनारे पर निकलती है। कछार। खादर। गंगबरार। पुं०[?] जुलाहों के करघे का ढाँचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगल  : पुं० [सं० पांगुल्य] ऊँट। (डिं०)
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पाँगा  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगा नमक  : पुं० [सं० पंक, हिं० पाँग+नोन]=समुद्री नमक।
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पाँगा नोन  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगुर  : स्त्री० [हिं० पाँव+उँगली] पैर की कोई उँगली। वि०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगुरना  : अ० [?] पनपना।
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पाँगुरा  : वि०=पांगुर (पंगुल)।
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पाँगुल  : वि०=पंगुल।
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पांगुल्य  : पुं० [सं० पंगुल+ष्यञ्] पंगुल होने की अवस्था या भाव। लंगड़ापन।
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पाँच  : वि० [सं० पंच] जो गिनती में चार से एक अधिक अथवा छः से एक कम हो। मुहा०—(किसी की) पाँचों उँगलियाँ घी में होना=हर काम में किसी को सफलता मिलना या लाभ होना। पाँचों सवारों में नाम लिखाना या पाँचवें सवार बनना=जबरदस्ती अपने को अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों की पंक्ति या श्रेणी में गिनना या समझना। औरों के साथ अपने को भी श्रेष्ठ गिनना। बड़ा बतलाने या समझने लगना। पद—पाँच जने जी जमात=घर-गृहस्थी और परिवार। पुं० [सं० पंच] १. पाँच का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—५। २. जात-बिरादरी या समाज के अच्छे या मुख्य लोग। ३. सब अच्छे आदमी। उदा०—जो पाँचहिं मत लागै नीका।—तुलसी। वि० बहुत अधिक चालाक या होशियार। उदा०—मेरे फंदे में एक भी न फँसा। पाँच बन्नो थी जिससे चार उलझे।—जान साहब।
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पाँचक  : पुं०, स्त्री०=पंचक।
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पांचकपाल  : वि० [सं० पंचकपाल+अण्] पंचकपाल संबंधी।
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पांचजनी  : स्त्री० [सं० पंचजन+अण्—ङीप्] भागवत के अनुसार पंचजन नामक प्रजापति की असिकी नामक कन्या का दूसरा नाम।
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पांचजन्य  : पुं० [सं० पचंजन+ण्य] १. पंचजन राक्षस का वह शंख जो भगवान कृष्ण उठाकर ले गये थे और स्वयं बजाया करते थे। २. विष्णु के शंख का नाम। ३. जम्बू द्वीप का एक नाम।
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पांचदश्य  : पुं० [सं० पंचदशन्+ण्य] पंचनद या पंजाब-संबंधी। पुं० १. पंजाब का निवासी। २. पंजाब।
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पाँचपंच  : पुं० बहु० [हिं०] सब या मुख्य मुख्य लोग। जैसे—पाँच पंच जो कुछ कहें, वह हम मानने को तैयार हैं।
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पांच-भौतिक  : वि० [सं० पंचभूत+ठक्—इक] १. जिसका संबंध पंचभूतों से हो। २. पंच-भूतों से मिलकर बना हुआ। जैसे—पांच भौतिक शरीर।
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पांचयज्ञिक  : वि० [सं० पंचयज्ञ+ठक्—इक] पंच यज्ञ-संबंधी। पुं० पाँच प्रकार के यज्ञों में से प्रत्येक।
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पाँचर  : पुं० [सं० पंजर] कोल्हू के बीच में जड़े हुए लकड़ी के वे छोटे टुकड़ो जो गन्ने के टुकड़ों को दबाने के लिए लगाये जाते हैं। पुं०=पच्चर।
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पांचरात्र  : पुं० [सं० पंचरात्रि+अण्] आधुनिक वैष्णव मत का एक प्राचीन रूप जिससे परम, तत्त्व, मुक्ति, मुक्ति योग और विषय (संसार) इन पाँच रात्रों (ज्ञानों) का निरूपण होता था। यह भागवत धर्म की दो प्रधान शाखाओं में से एक था।
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पांचवर्षिक  : वि० [सं० पंचवर्ष+ठञ्—इक] पाँच वर्षों में होनेवाला। पंचवर्षीय।
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पाँचवाँ  : वि० [हिं० पाँच+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० पाँचवीं] क्रम या गिनती में पाँच के स्थान पर पड़नेवाला।
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पांचशाब्दिक  : पुं० [सं० पंचशब्द+ठक्—इक] करताल, ढोल, बीन, घंटा और भेरी ये पाँच प्रकार के बाजे।
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पाँचा  : पुं० [हिं० पाँच] खेत का एक उपकरण जिसमें एक डंडे के साथ छोटी फूलकड़ियां लगी रहती हैं। यह प्रायः कटी हुई फसल या घास-भूसा इकट्ठा करने के काम आता है।
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पांचार्थिक  : पुं० [सं० पंचार्थ+ठन्—इक, वृद्धि (बा०)] शैव।
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पांचाल  : वि० [सं० पंचाल+अण्] १. पंचाल देश से संबंध रखनेवाला। पंचाल का। २. पंचाल देश में होनेवाला। पुं० १. पंचाल जाति के लोगों का देश जो भारत के पश्चिमोत्तर खंड में था। २. पंचाल जाति के लोग। ३. प्राचीन भारत में, बढ़इयों, नाइयों, जुलाहों, धोबियों और चमारों के पाँचों वर्गों का समूह।
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पांचालक  : वि० [सं० पांचाल+कन्] पंचालवासियों के संबंध का। पुं० पंचाल देश का राजा।
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पांचाल-मध्यमा  : स्त्री० [सं०] भारतीय नाट्य कला में, एक प्रकार की प्रवृत्ति या बात-चीत वेश-भूषा आदि का ढंग, प्रकार या रूप जो पांचाल शूरसेन, कश्मीर, वाह्लीक, मद्र आदि जनपदों की रहन-सहन आदि के अनुकरण पर होता था।
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पांचालिका  : स्त्री० [सं० पांचाली+कन्+टाप्, ह्रस्व]=पंचालिका।
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पांचाली  : स्त्री० [सं० पंचाल+अण्—ङीष्] १. पंचाल देश की स्त्री। २. पाँचों पांडवों की पत्नी द्रोपदी जो पांचाल देश की राजकुमारी थी। ३. साहित्यिक रचनाओं की एक विशिष्ट रीति या शैली जो मुख्यतः माधुर्य, सुकुमारता आदि गुणों से युक्त होती है। इसमें प्रायः छोटे-छोटे समास और कर्ण-मधुर पदावलियाँ होती हैं। किसी किसी के मत से गौड़ी और वैदर्भी वृत्तियों के सम्मिश्रण को भी पांचाली कहते हैं। ४. संगीत में (क) स्वर-साधन की एक प्रणाली; और (ख) इन्द्र ताल के छः भेदों में से एक। ५. छोटी पीपल।
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पांचो  : स्त्री० [हिं० पच्ची का पुराना रूप] रत्नों आदि के जड़ाव का काम। पच्चीकारी। उदा०—जाग्रत सपनु रहत ऊपर मनि, ज्यों कंचन संग पांची।—हित हरिवंश। स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पाँचेक  : वि० [हिं० पाँच+एक] १. पाँच के लगभग। २. थोड़े-से जैसे—वहाँ पाँचेक आदमी आये थे।
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पाँचै  : स्त्री० [हिं० पंचमी] किसी पक्ष की पाँचवीं तिथि। पंचमी।
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पाँछना  : स० १.=पाछना। २. पोंछना का अनु०।
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पाँज  : स्त्री० [सं० पाश] बाहु-पाश। वि० [हिं० पाँव] (जलाशय या नदी) जिसमें इतने कम पानी हो कि यों ही पाँव चलकर पार किया जा सके। स्त्री० छिछला जलाशय या नदी। पुं० पुल। सेतु। उदा०—जनक-सुता हितु हत्यो लंक-पति, बाँध्यों सागर पाँज।—सूर। पुं० [हिं० पाँजना] पाँजने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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पाँजना  : स० [सं० प्रण द्रध, प्रा० पणज्झ पँज्झ] धातुओं के टुकड़ों को जोड़ने के लिए उनमें टाँका लगाना। झालना।
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पाँजर  : अव्य० [सं० पंजा] पास। समीप। पुं० १. निकटता। सामीप्य। २. दे० ‘पंजर’।
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पांजी  : स्त्री० १=पाँज। २.=पंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँझ  : स्त्री०=पाँज।
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पाँडक  : पुं०=पंडुक (पेंडुकी)।
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पांडर  : पुं० [सं०√पण्ड् (गति)+अर, दीर्घ] १. कुंद का वृक्ष और फूल। २. सफेद रंग। ३. सफेद रंग की कोई चीज। ४. मरुआ। ५. पानड़ी। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. महाभारत के अनुसार ऐरावत के कुल में उत्पन्न एक हाथी। ८. पुराणानुसार एक पर्वत जो मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित कहा गया है।
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पांडर-पुष्पिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] सातला वृक्ष।
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पाँडरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
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पांडव  : वि० [सं० पांडु+अण्] पांडु संबंधी। पांडु का। पुं० १. कुंती और माद्री के गर्भ से उत्पन्न राजा पांडु के ये पाँचों पुत्र—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। २. प्राचीन काल में पंजाब का एक प्रदेश जो वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे था। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. रहस्य संप्रदाय में, पाँचों इंद्रियाँ।
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पांडव-नगर  : पुं० [सं० ष० त०] हस्तिनापुर।
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पांडवाभील  : पुं० [सं० पांडव-अभी, ष० त०√ला (लेना)+क] श्रीकृष्ण।
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पांडवायन  : पुं० [सं० पांडव-अयन, ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पांडविक  : पुं० [सं० पांडु+ठञ्—इक] एक तरह की गौरैया।
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पांडवीय  : वि० [सं० पांडव+छ—ईय] पांडु के पुत्रों से संबंध रखनेवाला पांडवों का।
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पांडवेय  : पुं० [सं० पांडु+अण्+ङीष्+ठक्—एय] १. पाँडव। २. राजा परीक्षित का एक नाम।
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पांडित्य  : पुं० [सं० पंडित+ष्यञ्] १. पंडित होने की अवस्था या भाव। २. पंडित या विद्वान् को होनेवाला ज्ञान। विद्वता।
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पांडीस  : स्त्री० [?] तलवार। (डिं०)
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पांडु  : वि० [सं०√पंड् (गति)+कु, नि. दीर्घ] [भाव० पांडुता] हलके पीले रंग का। पुं० १. पांडु फली। २. सफेद रंग। ३. कुछ लाली लिये पीला रंग। ४. त्वचा के पीले पड़ने का एक रोग। पीलिया। ५. हस्तिनापुर के प्रसिद्ध राजा जिनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पाँच पुत्र थे। ६. सफेद हाथी। ७. एक नाग का नाम। ८. परवल।
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पाँडुआ  : पुं० [सं०] वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। दोमट जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडु-कंटक  : पुं० [ब० स०] अपामार्ग। चिचड़ा।
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पांडु-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर।
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पांडुकंबली (लिन्)  : स्त्री० [सं० पांडुकंबल+इनि] ऊनी कंबल से आच्छादित गाड़ी।
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पाँडुक  : पुं०=पंडुक (पेंडकी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडुक  : पुं० [सं० पाण्डु+कन्] १. पीला रंग। २. पीलिया रोग। ३. पांडुराजा(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पांडु-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार व्रण-चिकित्सा का एक अंग जिससे फोड़े के अच्छे हो जाने पर उसके काले वर्ण को औषधि के प्रयोग में पीला बनाते हैं।
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पांडु-क्ष्मा  : स्त्री० [ब० स० ?] हस्तिनापुर का एक नाम।
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पांडु-चित्र  : पुं० [सं०] आलेख।
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पांडु-तरु  : पुं० [कर्म० स०] धौ का पेड़।
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पांडुता  : स्त्री० [सं० पांडु+तल्+टाप्] पांडु होने की अवस्था या भाव। पीलापन।
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पांडु-तीर्थ  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ।
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पांडु-नाग  : पुं० [उपमि० स०] १. पुन्नाग वृक्ष। २. [कर्म० स०] सफेद हाथी। ३. सफेद साँप।
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पांडु-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] रेणुका नामक गंध-द्रव्य।
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पांडु-पुत्र  : पुं० [ष० त०] राजा पांडु का पुत्र। पाँचों पांडवों में से प्रत्येक।
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पांडु-पृष्ठ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी पीठ सफेद हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, (वह व्यक्ति) जिससे शरीर पर कोई शुभ लक्षण न हो। ३. अकर्मण्य। निकम्मा।
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पांडु-फला  : पुं० [ब० स०, टाप्] परवल।
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पांडु-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक तरह का छोटा क्षुप।
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पांडु-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. खड़िया। दुधिया मिट्टी। २. राम-रज नाम की पीली मिट्टी।
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पांडु-रंग  : पुं० [सं० पांडुर-अंग, ब० स०, शक०, पररूप] १. एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार स्वाद में तिक्त और कृमि, श्लेष्मा, कफ आदि का नाश करनेवाला माना जाता है। २. पुराणानुसार विष्णु के एक अवतार।
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पांडुर  : वि० [सं० पांडु+र] १. पीला। जर्द। २. सफेद। श्वेत। पुं० १. धौ का पेड़। सफेद ज्वार। ३. कबूतर। बगला। ५. सफेद खड़िया। ६. कामला रोग। ७. सफेद कोढ़। ८. कार्तिकेय के एक गण का नाम। ९. सर्प। साँप। १॰. साधु-संतों की आध्यात्मिक परिभाषा में, अज्ञान।
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पांडुरक  : वि० [सं० पाण्डुर+कन्] पांडु रंग का। पीला। पुं० १. पीला रंग। २. पीलिया।
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पांडुर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुटज। कुड़ा। कुरैया।
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पांडु-पृष्ठ  : पुं०=पांडुपृष्ठ।
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पांडुर-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का छोटा क्षुप]
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पांडुरा  : स्त्री० [सं० पांडुर+टाप्] १. मषवन। माषपर्णी। २. ककड़ी। ३. बौद्धों की एक देवी या शक्ति।
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पांडु-राग  : पुं० [ब० स०] दौना नाम का पौधा। पुं० [कर्म० स०] सफेद रंग। सफेदी।
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पांडुरिमा  : स्त्री० [सं० पांडुर+इमनिच्] हलका पीलापन।
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पांडुरेक्षु  : पुं० [सं० पांडुर+इक्षु, कर्म० स०] हलके पीले रंग की ईख।
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पांडुलिपि  : स्त्री० [सं०] १. पुस्तक, लेख आदि की हाथ की लिखी हुई वह प्रति जो छपने को हो। (मैनस्क्रिष्ट) २. दे० ‘पांडुलेख’।
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पांडु-लेख  : पुं० [कर्म० स०] १. हाथ से लिखा हुआ वह आरंभिक लेख जिसमें काँट-छाँट, परिवर्तन आदि होने को हो। २. उक्त का काट-छाँट कर तैयार किया हुआ वह रूप जो प्रकाशित किये या छापा जाने को हो। (ड्राफ्ट) ३. पांडुलिपि।
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पांडु-लेखक  : पुं० [ष० त० ?] वह जो लेख आदि की पांडु-लिपि लिखकर तैयार करता हो। (ड्राफ्टमैन)
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पांडु-लेखन  : पुं० [ष० त० ?] लेख्य आदि की पांडुलिपि तैयार करने का काम। (ड्राफ्टिंग)।
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पांडु-लेख्य  : पुं० [कर्म० स०] १.=पांडुलिपि। २.=पांडुलेख।
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पांडु-लोमश  : वि० [कर्म० स०,+श] [स्त्री० पांडुलोमशा] सफेद रोएँवाला। जिसके रोयें या बाल सफेद हों।
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पांडु-लोमशा  : स्त्री० [सं० पांडुलोमश्+टाप्] मषवन। माषपर्णी।
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पांडु-लोमा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पांडु-लोमशा। (दे०)
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पांडु-शर्करा  : स्त्री० [ब० स०] प्रमेह रोग का एक भेद।
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पांडुशर्मिला  : स्त्री० [सं०] द्रौपदी।
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पांडू  : स्त्री० [सं० पांडु=पीला] १. हलके पीले रंग की मिट्टी। २. ऐसी कीचड़ जिसमें बालू भी मिला हो। ३. ऐसी भूमि जिसमें वर्षा के जल से ही उपज होती हो। बारानी।
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पाँडे  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. दे० ‘पाण्डेय’। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. भोजन बनानेवाला ब्राह्मण। रसोइया। ४. पंडित। विद्वान। (क्व०)
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पांडेय  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. कान्यकुब्ज और सरयूपारी ब्राह्मणों की शाखाओं का अल्ल या उपाधि। २. कायस्थों की एक शाखा। ३. दे० ‘पाँडे’।
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पाँत  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँतरना  : अ० [सं० पीत्रल] १. गलती या भूल करना। २. मूर्खता करना। उदा०—प्रमणै पित मात पूत मत पांतरि।—प्रिथीराज।
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पाँतरिया  : वि० [सं० पत्रल] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। उदा०—पांतरिया माता इ पिता।—प्रिथीराज।
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पांति  : स्त्री० [सं० पांक्ति] १. अवली। कतार। पंगत। २. बिरादरी के वे लोग जो साथ बैठकर भोजन कर सकते हों।
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पांथ  : वि० [सं० पथिन्+अण्, पन्थ-आदेश] १. पथिक। २. वियोगी। विरही। पुं० सूर्य। पुं०=पंथ (रास्ता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पांथ-निवास  : पुं० [ष० त०]=पांथ-शाला।
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पांथ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] पथिकों और यात्रियों के ठहरने के लिए रास्ते में बनी हुई जहग (इमारत या घर)। जैसे—धर्मशाला, सराय, होटल आदि।
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पाँपणि  : स्त्री० [हिं० पश्चिमी हि० पपनी] पलक। उदा०—पाँपणि पंख सँवारि नवी परि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँय  : पुं०=पाँव।
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पाँयचा  : पुं० [फा०] १. पाखानों आदि में बना हुआ पैर रखने के वे ईटें या पत्थर जिन पर पैर रखकर शौच से निवृत्त होने के लिए बैठते हैं। २. पाजामें की मोहरी का वह अंश जो घुटनों के नीचे तक रहता है।
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पाँयता  : पुं०=पैंताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँव  : पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव] १. जीव-जंतुओं, पशुओं और विशेषतः मनुष्य के नीचेवाले वे अंग जिनकी सहायता से चलते-फिरते अथवा जिनके आधार पर वे खड़े होते हैं। पैर। पद—पाँव का खटका=दे० ‘पैर की आहट।’ पाँव की जूती=बहुत ही तुच्छ या हीन वस्तु या व्यक्ति। पाँव की बेड़ी=ऐसा बंधन जो किसी की स्वच्छंद गति या रहन-सहन में बाधक हो। मुहा०—(किसी काम या बात में) पाँव अड़ाना=दे० ‘टाँग’ के अंतर्गत ‘टाँग अड़ाना।’ पाँव उखड़ जाना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत’ ‘पैर उखड़ना या उखड़ जाना’। पाँव उखाड़ना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत। पाँव उठाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव खींचना=व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना या घूमना-फिरना छोड़ देना। पाँव गाड़ना=दे० नीचे ‘पाँव रोपना’। पाँव घिसना=(क) बार-बार कहीं बहुत अधिक आना-जाना। (ख) दे० नीचे ‘पाँव रगड़ना’। (किसी स्त्री के) पाँव छुड़ाना= उपचार, औषध आदि की सहायता से ऐसा उपाय करना कि रुका हुआ मासिक रज-स्त्राव फिर से होने लगे। (किसी स्त्री के) पाँव छूटना=(क) स्त्री का मासिकधर्म से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से और अपेक्षया अधिक समय तक रज-स्त्राव होता रहना। (किसी के ) पाँव छूना=किसी बड़े का आदर या सम्मान करने के लिए उसके पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। पाँव ठहरना=दृढ़तापूर्वक या स्थिर भाव से कहीं खड़े होना। ठहरना या रुकना। पाँव तोड़कर बैठना=स्थायी रूप और स्थिर भाव से एक जगह पर रहना और व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना बंद कर देना (किसी के) पाँव दबाना या दाबना=थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिए टाँगे दबाना। (किसी काम या बात में) पाँव धरना= किसी काम में अग्रसर या प्रवृत्त होना। (किसी के) पाँव धरना या पकड़ना=किसी प्रकार का आग्रह, विनती आदि कहते मनाने के लिए किसी के पाँव पर हाथ रखना। उदा०—अब यह बात यहाँ जानि ऊधौ, पकरति पाँव तिहारे।—सूर। (किसी जगह) पाँव धरना या रखना=कहीं जाना या जाकर पहुँचना। पैर रखना। जैसे—अब कभी उन के यहाँ पाँव न रखना। (किसी जगह) पाँव धारना=कृतज्ञतापूर्वक पदार्पण करना। उदा०—धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जँह जँह नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी। (किसी के) पाँव धोकर पीना=(क) चरणामृत लेना। (ख) बहुत अधिक पूज्य तथा मान्य समझकर परम आदर, भक्ति और श्रद्धा के भाव प्रकट करना। पाँव निकालना=(क) कहीं चलने या जाने के लिए पैर उठाना या बढ़ाना। (ख) नियंत्रण आदि की उपेक्षा करते हुए कोई नई प्रवृत्ति विशेषतः अनिष्ट या अवांछित प्रवृत्ति के लक्षण दिखलाना। जैसे—तुम तो अभी से पाँव निकालने लगे। (किसी का) पाँव पड़ना=आगमन होना। आना। जैसे—आपके पाँव पड़ने से यह घर पवित्र हो गया। (किसी के) पाँव पड़ना=(क) झुककप या पैर छूकर नमस्कार करना। (ख) अपनी प्रार्थना या विनती मनवाने के लिए बहुत ही दीनतापूर्वक आग्रह करना। (किसी के) पाँव पर गिरना=दे० ऊपर ‘(किसी से) पाँव पड़ना’। पाँव पर पाँव रखकर बैठना=काम-धंधा छोड़ बैठना या पड़े रहना। निठल्ले की तरह बैठना। (किसी के) पाँव पर पाँव रखना=दूसरे के चरण चिह्नों का अनुकरण करना। किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। (किसी के) पाँव पर सिर रखना=दे० ऊपर ‘(किसी के) पाँव पड़ना’। पाँव पलोटना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर दबाना’। पाँव पसारना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर फैलाना’। पाँव-पाँव चलना=पैदल चलना। जैसे—अब कुछ दूर पाँव-पाँव भी चलो। (किसी को) पाँव पारना=पैरों पड़ने के लिए विवश करना। उदा०—कहाँ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं।—सूर। पाँव पीटना=(क) बेचैनी या यंत्रणा से पैर पटकना। छटपटाना। (ख) बहुत अधिक दौड़-धूप या प्रयत्न करना। (किसी के) पाँव पूजना=बहुत अधिक भक्ति या श्रद्धा दिखाते हुए आदर-सत्यार करना। (वर के) पाँव पूजना=विवाह में कन्या कुल के लोगों का वर का पूजन करना और कन्यादान में योग देना। (किसी के) पाँव फूलना=भय, शंका आदि से ऐसी मनोदशा होना कि आगे बढ़ने का साहस न हो। (प्रसूता का) पाँव फेरने जाना=बच्चा हो जाने पर शुभ शकुन में प्रसूता का अपने मायके में कुछ दिनों तक रहने के लिए जाना। (वधू का) पाँव फेरने जाना=विवाह होने पर ससुराल आने के बाद वधू का पहले-पहल कुछ दिनों तक अपने मायके में रहने के लिए जाना। पाँव फैलाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बढ़ाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बाहर निकालना=पाँव निकालना। पाँव रगड़ना=(क) बहुत दौड़-धूप करना। (ख) कष्ट या पीड़ा से छटपटाना। (किसी काम या बात के लिए) पाँव रोपना=(क) दृढ़तापूर्वक प्रण या प्रतिज्ञा करना। (ख) हठ करना। अड़ना। (किसी के) पाँव लगाना=पैरों पर सिर रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। (किसी स्थान का) पाँव लगा होना=किसी स्थान से इस रूप में ज्ञात या परिचित होना कि उस पर चल-फिर चुकें हों। जैसे—वहाँ का रास्ता हमारे पाँव लगा है, आप से आप ठीक जगह पहुँच जाता हूँ। (किसी काम या बात से) पाँव समेटना=अलग, किनारे या दूर हो जाना। संबंध न रखना। छोड़ देना। जैसे—अब काम में हमने पाँव समेट लिये। विशेष—यों ‘पाँव’ और ‘पैर’ एक दूसरे के पर्याय या समानक ही है, फिर भी ‘पाँव’ पुराना और पूर्वी शब्द है, तथा ‘पैर’ अपेक्षया आधुनिक और पश्चिमी शब्द है। अधिकतर पुराने प्रयोग या मुहावरे ‘पैर’ से संबद्ध है, और ‘पाँव’ की तुलना में ‘पैर’ अधिंक प्रचलित तथा शिष्ट-सम्मत हो गया है। फिर भी बोल-चाल में लोग यह अंतर न जानने या न समझने के कारण दोनों शब्दों के मिले-जुले प्रयोग करते हैं जिससे दोनों के मुहावरे भी बहुत कुछ मिल-जुल गये हैं। यहाँ दोनों के विशिष्ट प्रयोगों और मुहावरों से कुछ अंतर रखा गया है। अतः पाँव के शेष प्रयोगों और मुहावरों के लिए ‘पैर’ के मुहावरे देखने चाहिए। २. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज या बात टिकी या ठहरी रहे। मुहा०—पाँव कट जाना=आधार या आश्रम नष्ट हो जाना (किसी के) पाँव न होना=(क) ऐसा कोई आधार या आश्रम न होना जिस पर कोई टिक या ठहर सके। जैसे—इस बात का न कोई सिर है न पाँव। (ख) खड़े रहने या ठहरने की शक्ति न होना। जैसे—चोर के पाँव नहीं होते, अर्थात् उसमें ठहरने या सामने आने का साहस नहीं होता।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पाँव-चप्पी  : स्त्री० [हिं० पाँव+चापना=दबाना] पैर दबाने की क्रिया या भाव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पांवचा  : पुं०=पाँयचा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पाँवड़ा  : पुं० [हिं० पाँव+ड़ा (प्रत्य०)][स्त्री० पाँवड़ी] १. वह कपड़ा जो किसी बड़े और पूज्य व्यक्ति के मार्ग में इस उद्देश्य से बिछाया जाता है कि वह इस पर से हो कर चले। २. वह कपड़ा या ऐसी ही और कोई चीज जो पैर पोंछने के लिए कहीं पड़ा या बिछा रहता हो। पाँवदान। ३. दे० ‘पाँवड़ी’।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पाँवड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँव+ड़ी (प्रत्य०)] १. खड़ाऊँ। २. जूता। ३. सीढ़ी। सोपान। ४. ऐसी चीज या जगह जिस पर प्रायः पैर रखे जाते या पड़ते हों। ५. गोटा-पट्ठा बिननेवालों का एक औजार जो बुनते समय पैरों से दबाकर रखा जाता है और जिससे ताने के तार ऊपर उठते और नीचे गिरते रहते हैं। स्त्री० [हिं० पौरि, पौरी] १. वह कोठरी जो किसी घर के भीतर घुसते ही रास्ते में पड़ती हो। ड्योढ़ी। पौरी। २. बैठने का ऊपरी कमरा। बैठक। ३. ‘पौरी’।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पाँवर  : वि०=पामर। पुं०=पाँवड़ा। स्त्री०=पाँवड़ी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पाँवरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पांशन  : वि० [सं०√पंस् (नाश करना)+ल्यु—अन, दीर्घ, पृषो०] १. कलंकित करनेवाला। भ्रष्ट करनेवाला। २. दुष्ट। ३. हेय। (प्रायः समास में व्यवहृत) जैसे—पौलस्त्य-कुल-पांशन। पुं० १. अपमान। २. तिरस्कार।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पांशव  : पुं० [सं० पांशु+अण्] रेह का नमक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पांशु  : स्त्री०[सं०√पंस् (श्)+उ, दीर्घ] १. धूलि। रज। २. बालू। ३. गोबर की खाद। पाँस। ४. पित्त पापड़ा। ५. एक प्रकार का कपूर। ६. भू-संपत्ति। जमीन। जायदाद।
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पांशु-कसीस  : पुं० [उपमि० स०] कसीस।
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पांशुका  : स्त्री० [सं० पांशु√कै (चमकना)+क+टाप्] केवड़े का पौधा।
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पांशुकुली  : स्त्री० [सं० पांशु√कुल, (इकट्ठा होना)+क+ङीष] राजमार्ग।
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पांशु-कूल  : पुं० [ष० त०] १. धूल का ढेर। २. चीथड़ों आदि को सीकर बनाया हुआ बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का वस्त्र। ३. गुदड़ी। ४. वह दस्तावेज या लेख्य जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम न लिखा गया हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पांश-कृत  : वि० [तृ० त०] १. धूल के ढका हुआ। २. पीला पड़ा हुआ। ३. मैला-कुचैला।
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पांशु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पाँगा नमक।
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पांशु-चंदन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पांशु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांशुज  : पुं० [सं० पांशु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक।
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पांशु-धान  : पुं० [ष० त०] धूल का ढेर।
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पांशु-पटल  : पुं० [ष० त०] किसी चीज पर जमी धूल की तह या परत।
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पांशु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुआ (साग)।
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पांश-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांशुर  : पुं० [सं० पांशु√रा (देना)+क] १. डाँस। २. खंज। ३. पंगु व्यक्ति।
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पांशु-रागिनी  : स्त्री० [सं० पांशु√रञ्ज् (रंगना)+घिनुण्+ ङीप्] महामेदा।
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पांशु-राष्ट्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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पांशुल  : वि० [सं० पांशु+लच्] [स्त्री० पांशुला] १. जिस पर गर्द या धूल पड़ी हो। मैला-कुचैला। २. पर-स्त्री-गामी। व्यभिचारी। पुं० १. पूतिरकंज। २. शिव।
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पांशुला  : स्त्री० [सं० पांशुल+टाप्] १. कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री। २. राजस्वला स्त्री। ३. जमीन। भूमि। ४. केतकी।
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पाँस  : स्त्री० [सं० पांशु] १. राख, गोबर, मल, मूत्र आदि, सड़ी-गली चीजें जो खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए उसमें डाली जाती हैं। खाद। क्रि० प्र०—डालना।—देना। २. कोई चीज सड़ाकर उठाया जानेवाला खमीर। ३. विशेषतः मधु आदि का वह खमीर जो शराब बनाने के लिए उठाया जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।
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पाँसना  : स० [हिं० पाँस+ना (प्रत्य०)] खेत में पाँस या खाद डालना।
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पाँसा  : पुं०=पासा।
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पाँसी  : स्त्री० [सं० पाश] घास, भूसा आदि बाधने के लिए रस्सियों की बनी हुई बड़ी जाली। जाला।
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पांसु  : स्त्री० [√पंस्+उ, दीर्घ]=पांशु।
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पांसु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पांगा नमक।
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पांसु-खुर  : पुं० [ब० स०] घोड़ों के खुरों का एक रोग।
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पांसु गुंठित  : वि० [तृ० तृ०] धूल से ढका हुआ।
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पांसु-चदन  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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पांसु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांसु-चामर  : पुं० [ब० स०] १. बड़ा खेमा। तंबू। २. नदी का ऐसा किनारा जिस पर दूब जमी हो। ३. धूल। ४. प्रशंसा।
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पांसुज  : वि० [सं० पांसु√जन्+ड] पाँगा नमक।
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पांसु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुए का साग।
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पांसु-भव  : पुं० [ब० स०] पाँगा नमक।
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पांसु-भिक्षा  : स्त्री० [सं० पांसु√भिक्ष् (याचना)+अङ्—टाप्] धौ का पेड़।
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पांसु-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांसुर  : पुं० [सं० पांसु√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का बड़ा मच्छड़। दंश। डाँस। २. लूला-लँगड़ा जीव या प्राणी।
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पांसुरागिणी  : स्त्री० [सं० दे० ‘पांशुरागिनी’] महामेदा।
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पाँसुरी  : स्त्री०=पसली।
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पांसुल  : वि० [सं० पांसु+लच्] १. धूल से लथ-पथ। २. मलिन। मैला। ३. पापी। ४. पर-स्त्रीगामी। पुं० शिव।
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पांसुला  : वि० [सं० पांसुल+टाप्] १. व्यभिचारिणी (स्त्री)। २. रजस्वला (स्त्री)। स्त्री० १. पृथ्वी। २. केतकी।
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पाँसु  : पुं० [हिं० पाँस+ऊ (प्रत्य०)] कुम्हारों का एक उपकरण जिससे वे गीली मिट्टी चलाते और सानते हैं।
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पाँही  : अव्य० [हिं० पँह] १. निकट। पास। समीर। २. प्रति।
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पांटबर  : पुं० [सं० पट्ट+अम्बर] रेशमी वस्त्र। रेशमी कपड़ा।
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पाँयजेहरि  : स्त्री० [हिं० पाँय+जेहरी] पायजेब।
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