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शब्द का अर्थ

पातंग  : वि० [सं० पतंग+अण्] १. फतिंगे या फतिंगों से संबंध रखनेवाला। २. फतिंगों के रंग का। भूरा।
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पातंगि  : पुं० [सं० पतंग+इञ्] १. शनिग्रह। २. यम। ३. कर्ण। ४. सुग्रीव।
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पातंजल  : वि० [सं० पतंजलि+अण्] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत। पुं० १. पतंजलिकृत योगसूत्र। २. वह जो उक्त योग-सूत्र के अनुसार योगसाधन करता हो। ३. पतंजलिकृत महाभाष्य।
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पातंजल-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] योगदर्शन।
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पातंजल-भाष्य  : पुं० [कर्म० स०] महाभाष्य नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ।
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पातंजल-सूत्र  : पुं० [कर्म० स०] योगसूत्र।
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पातंजलीय  : वि० [सं० पातंजल] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत।
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पात  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+घञ्] १. अपने स्थान से हटकर, टूटकर या और किसी प्रकार गिरने या नीचे आने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—उल्का-पात। [√पत्+णिच्+घञ्] २. गिराने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—रक्तपात। ३. अपने उचित या पूर्व स्थान से नीचे आने की क्रिया या भाव। जैसे—अधःपात। ४. ध्वस्त, नष्ट या समाप्त होकर गिरने की क्रिया या भाव। जैसे—शरीर-पात। ५. किसी वस्तु की वह स्थिति जिसमें वह सारी शक्ति प्रायः नष्ट हो जाने के कारण सहसा गिर, ढह या विनष्ट हो जाती है। सहसा किसी चीज का गिरकर बेकाम हो जाना। (कोलैप्स) ६. किसी प्रकार जाकर कहीं गिरने, पड़ने या लगने की क्रिया या भाव। जैसे—दृष्टिपात। ७. आघात। चोट। उदा०—चलै फटि पात गदा सिर चीर, मनों तरबूज हनेकर कीर।—कविराजा सूर्यमल। ८. गणित ज्योतिष में, वह विंदु या स्थान जिस पर किसी ग्रह या नक्षत्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को काटती है। ९. वह विंदु या स्थान जहाँ एक वृत्त दूसरे वृत्त को काटता हो। १॰. ज्यामिति में वह विंदु जहाँ कोई वक्र रेखा मुड़कर अपने किसी अंश को काटती हो। (नोड) ११. ज्योतिष में, (क) वह विंदु जहाँ कोई ग्रह सूर्य की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है; अथवा कोई उपग्रह अपने ग्रह की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। (नोड) विशेष—साधारणतः ग्रहों की कक्षाएँ जहाँ क्रांतिवृत्त को काटती हुई ऊपर चढ़ती या नीचे उतरती हैं, उन्हें पात कहते हैं। ये स्थान क्रमात् आरोह-पात और अवरोह-पात कहलाते हैं। चंद्रमा के कक्ष में जो आरोह-पात और अवरोहपात पड़ते हैं वे क्रमात् राहु और केतु कहलाते हैं। इसी आधार पर पुराणों और परवर्ती भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु दो स्वतंत्र ग्रह माने गये हैं। पुं० [√पत्+णिच्+अच्] राहु। पुं० [सं० पत्र] १. वृक्ष का पत्ता। पत्र। मुहा०—पातों का लगना=पतझड़ होना या उसका समय आना। २. वृक्ष के पत्ते के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पत्ता। ३. चाशनी। शीरा। पुं० [सं० पात्र] कवि। (डिं०)
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पातक  : वि० [सं०√पत्+णिच्+ण्वुल—अक] पात करने अर्थात् गिरानेवाला। पुं० ऐसा बड़ा पाप जो उसके कर्ता को नरक में गिरानेवाला हो। ऐसा पाप जिसका फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता हो। विशेष—हमारे यहाँ के धर्मशास्त्रों में अति-पातक, उप-पातक, महा-पातक आदि अनेक भेद किये गये हैं। साधारण पातकों के लिए उनमें प्रायश्चित्त का भी विधान है।
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पातकी (किन्)  : वि० [सं० पातक+इनि] पातक माने जानेवाले कर्मों के फल भोद के लिए नरक में जानेवाला; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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पातघाबरा  : वि० [हिं० पात+घबराना] १. पत्तों की आहट तक से भयभीत और विकल होनेवाला। २. बहुत जल्दी घबरा जानेवाला। ३. बहुत बड़ा कायर या डरपोक।
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पातन  : पुं० [सं०√पत्+णिच्+ल्युट्—अन] १. गिराने या नीचे ढकेलने की क्रिया या भाव। २. फेंकने की क्रिया या भाव। ३. वैद्यक में, पारा शोबने के आठ संस्कारों में से पाँचवाँ संस्कार।
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पातनीय  : वि० [सं०√पत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका पात हो सके या किया जाने को हो। २. जो गिराया जा सके या गिराया जाने को हो।
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पातबंदी  : स्त्री० [सं० पात या हिं० पाँति ?+बंदी] वह विवरण जिसमें किसी की संपत्ति और देय तथा प्राप्य धन का उल्लेख हो।
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पातयिता (तृ)  : वि० [सं०√पत्+णिच्+तृच्] १. गिरानेवाला। २. फेंकनेवाला।
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पातर  : वि० [सं० पात्रट, हिंदी पतला का पुराना रूप] १. जिसका दल मोटा न हो। पतला। २. क्षीणकाय। ३. बहुत ही संकीर्ण और तुच्छ स्वभाववाला। ४. नीच कुल का। अप्रतिष्ठित। उदा०—मयला अकलै मूल पातर खाँड खाँड करै भूखा।—सूर। स्त्री०=पत्तल। स्त्री० [सं० पातिली=एक विशेष जाति की स्त्री] १. वेश्या। २. तितली।
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पातरा  : वि० [स्त्री० पातरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातराज  : पुं० [देश०] एक तरह का साँप।
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पातरि (री)  : स्त्री०=पातर (वेश्या)।
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पातल  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पातर (वेश्या)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातला  : वि० [स्त्री० पातली]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातव्य  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+तव्यत्] १. जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। २. पीये जाने योग्य।
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पातशाह  : पुं० [फा० बादशाह] [भाव० पातशाही] बादशाह। महाराज।
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पाता (तृ)  : वि० [सं०√पा+तृच्] १. रक्षा करनेवाला। २. पीनेवाला। पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताखत  : पुं० [सं० पत्र+अक्षत] १. पत्र और अक्षत। २. देव पूजने की साधारण या स्वल्प सामग्री। ३. तुच्छ भेंट।
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पाताबा  : पुं० [फा० पाताबः] १. मोजे या जुराब के ऊपर पहना जानेवाला एक प्रकार का जूते का खोल। २. बूट, सैंडल आदि कुछ विशिष्ट जूतों के तलों के ऊपरी भाग में उसी नाप या आकार-प्रकार का लगाया जानेवाला चमड़े का टुकड़ा। ३. जुराब। मोजा।
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पातार  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताल  : पुं० [सं०√पत्+आलञ्] १. पृथ्वी के नीचे के कल्पित सात लोकों में से एक जो सबसे नीचे है और जिसमें नाग लोग वास करते हुए माने गये हैं। नागलोक। अन्य ६ लोक ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल और महातल। २. पृथ्वी के नीचे के सातों लोकों में से प्रत्येक लोक। ३. बहुत अधिक गहरा और नीचा स्थान। ४. गुफा। ५. बिल। विवर। ६. बड़वानल। ७. जन्म-कुंडली में जन्म के लग्न से चौथा स्थान। ८. पाताल यंत्र। (दे०)
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पाताल-केतु  : पुं० [ब० स०] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य।
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पाताल-खंड  : पुं० [ष० त०] पाताल (लोक)।
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पाताल-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पाताल लोक की एक नदी का नाम। २. भूगर्भ के अंदर बहनेवाली कोई नदी।
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पाताल-गारुड़ी  : स्त्री० [ष० त०] छिरिहटा नामक लता।
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पाताल-तुंबी  : स्त्री० [ष० त०] एक तरह की लता। पातालतौंबी।
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पाताल-तोंबी  : स्त्री०=पाताल-तुंबी।
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पाताल-निलय  : वि० [ब० स०] जिसका घर पाताल में हो। पाताल में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप। ३. दैत्य। राक्षस।
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पाताल-निवास  : पुं०=पाताल-निलय।
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पाताल-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा धातुएँ गलाई, ओषधियाँ पिलाई तथा अर्क, तेल आदि तैयार किये जाते हैं।
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पाताल-वासिनी  : स्त्री० [सं० पाताल√बस् (बसना)+ णिनि+ङीष्] नागवल्ली लता। पान की लता।
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पाताली  : स्त्री० [देश०] ताड़ के फल के गूदे की बनाई तथा सुखाकर खाई जानेवाली टिकिया। वि० [सं० पाताल] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल में रहने या होनेवाला। ३. पृथ्वी के नीचे होनेवाला। (अंडर ग्राउंड) जैसे—वृक्ष के पाताली तने।
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पाताली-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] वनस्पति विज्ञान में, उत्पत्ति-भेद से पत्तियों के चार प्रकारों में से एक। प्रायः भूमि पर अपने तने फैलानेवाले पौधों की पत्तियाँ जो प्रायः बहुत छोटी होती हैं। (स्केल लीफ) जैसे—आलू की पाताली पत्ती।
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पातालीय  : वि० [सं०] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल का। २. पाताल में अर्थात् पृथ्वी-तल के नीचे या भूगर्भ में रहने या होनेवाला।
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पातालौका (कस्)  : वि० [सं० पाताल-ओकस् ब० स०] पाताल लोक में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप।
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पाति  : स्त्री० १.=पाती (चिट्ठी)। २.=पत्ती। पुं० [सं०√पा+अति] १. स्वामी। २. पति। ३. पक्षी।
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पातिक  : वि० [सं० पात+ठन्—इक्] १. फेंका हुआ। २. नीचे गिराया या ढकेला हुआ। पुं० सूँस नामक जल-जंतु।
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पातिग  : पुं०=पातक। उदा०—अनेक जनम ना पातिग छूटै।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातित  : भू० कृ० वि० [सं०√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. फेंका हुआ। ३. झुकाया हुआ।
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पातित्य  : पुं० [सं० पतित-ष्यञ्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। गिरावट। २. अधःपतन।
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पातिल  : स्त्री० [सं० पातिली] एक तरह की मिट्टी की हँड़िया जिसमें विवाह आदि के समय दीया जलाया जाता है तथा हँड़िया का आधा मुँह ढक्कन से ढक दिया जाता है। वि०=पतला।
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पातिली  : स्त्री० [सं० पाति√ली (लीन होना)+ड+अण्+ङीष्] १. जाल। फंदा। २. मिट्टी की पातिल नामक हँड़िया। ३. किसी विशिष्ट जाति की स्त्री।
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पातिव्रत  : पुं०=पातिव्रत।
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पातिव्रत्य  : पुं० [सं० पतिव्रता+ष्यञ्] पतिव्रता होने की अवस्था, गुण और भाव। पति के प्रति होनेवाली पूर्ण निष्ठा की भावना।
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पातिसाह  : पुं०=पातशाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाती  : स्त्री० [सं० पत्री, प्रा० पत्ती] १. चिट्ठी। पत्री। पत्र। २. निशान। पता। ३. वृक्ष का पत्ता या पत्ती। स्त्री० [हिं० पति] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लोक-लज्जा।
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पातुक  : वि० [सं०√पत्+उकञ्] १. गिरनेवाला। २. पतनोन्मुख। पुं० १. झरना। २. पहाड़ की ढाल। ३. एक स्तनपायी दीर्घाकार जल-जंतु। जल-हस्ती।
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पातुर  : स्त्री० [सं० पातिली=स्त्री विशेष] वेश्या।
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पातुरनी  : स्त्री०=पातुर (वेश्या)।
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पात्य  : वि० [सं०√पत्+णिच्+यत्] १. जो गिराया जा सकता हो। २. दंडित किये जाने के योग्य। ३. प्रहार करने योग्य। ४. [√पत्+ण्यत्] गिरने योग्य। पुं० [पति+यक] पति होने का भाव। पतित्व।
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पात्र  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ष्ट्रन] [स्त्री० पात्री] [भाव० पात्रता] १. वह आधान जिसमें कुछ रखा जा सके। बरतन। भाजन। २. ऐसा बरतन जिसमें पानी पीया या रखा जाता हो। ३. यज्ञ में काम आनेवाले उपकरण या बरतन। यज्ञ-पात्र। ४. जल का कुंड या तालाब। ५. नदी की चौड़ाई। पाट। ६. ऐसा व्यक्ति जो किसी काम या बात के लिए सब प्रकार से उपयुक्त या योग्य समझा जाता हो। अधिकारी। जैसे—किसी को कुछ देने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह उसे पाने या रखने का पात्र है या नहीं। ७. उपन्यास, कहानी, काव्य, नाटक आदि में वे व्यक्ति जो कथा-वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया-कलाप या चरित्र से कथा-वस्तु की सृष्टि और परिपाक होता है। ८. नाटक में, वे अभिनेता या नट जो उक्त व्यक्तियों की वेष-भूषा आदि धारण कर के उनके चरित्रों का अभिनय करते हैं। अभिनेता। जैसे—इस नाटक में दस पुरुष और छः स्त्रियाँ पात्र हैं। ९. राज्य का प्रधान मंत्री। १॰. वृक्ष का पत्ता। पत्र। ११. वैद्यक में, चार सेर की एक तौल। आढ़क। १२. आज्ञा। आदेश। वि० [स्त्री० पात्री] जो किसी कार्य या पद के लिए उपयुक्त होने के कारण चुना या नियुक्त किया जा सकता हो। (एलिजिबुल)
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पात्रक  : पुं० [सं० पात्र+कन्] १. प्यारी, हाँड़ी आदि पात्र। २. भिखमंगों का भिक्षापात्र।
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पात्रट  : पुं० [सं० पात्र√अट्+अच्] १. पात्र। प्याला। २. फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा।
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पात्रटीर  : पुं० [सं० पात्र√अट्+ईरन्] १. योग्य मंत्री या सचिव। २. चाँदी। ३. किसी धातु का बना हुआ बरतन। ४. अग्नि। ५. कौआ। ६. कंक (पक्षी)। ७. लोहे में लगनेवाला जंग या मोरचा। ८. नाक से बहनेवाला मल।
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पात्रता  : स्त्री० [सं० पात्र+तल्+टाप्] पात्र (अर्थात् किसी कार्य, पद, दान-दक्षिणा आदि का योग्य अधिकारी) होने की अवस्था, गुण और भाव।
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पात्रत्व  : पुं० [सं० पात्र+त्व] पात्रता।
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पात्र-दुष्ट-रस  : पुं० [सं० दुष्ट-रस, कर्म० स०, पात्र-दुष्ट-रस, स० त०] कविता में परस्पर विरोधी बातें कहने का एक दोष। (कवि केशवदास)
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पात्र-पाल  : पुं० [सं० पात्र√पाल्+णिच्+अण्] १. तराजू की डंडी। २. पतवार।
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पात्रभृत्  : पुं० [सं० पात्र√भृ (धारण करना)+क्विप्] बरतन माँजने-धोनेवाला नौकर
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पात्र-वर्ग  : पुं० [ष० त०] १. किसी साहित्यिक रचना के कुल पात्र। २. अभिनय करनेवालों का समूह।
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पात्र-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बरतन माँजने-धोने की क्रिया, भाव और पारिश्रमिक।
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पात्र-शेष  : पुं० [स० त०] बरतनों में छोड़ा जानेवाला उच्छिष्ट या जूठा भोजन। जूठन।
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पात्रासादन  : पुं० [सं० पात्र-आसादन, ष० त०] यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना।
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पात्रिक  : वि० [सं० पात्र+ष्ठन्—इक] जो पात्र (आढ़क नामक तौल) से तौला या मापा गया हो। पुं० [स्त्री० अल्पा० पात्रिका] छोटा पात्र या बरतन।
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पात्रिकी  : स्त्री० [सं० पात्रिक+ङीष्] १. छोटा पात्र। २. थाली।
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पात्रिय  : वि० [सं० पात्र+घ—इय] [पात्र+यत्] जिसका साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके। सहभोजी।
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पात्री (त्रिन्)  : वि०, पुं० [सं० पात्र+इनि] १. जिसके पास बरतन हो। पात्रवाला। २. जिसके पास सुयोग्य पात्र या अधिकारी व्यक्ति हो। स्त्री० पात्र का स्त्री रूप। (दे० ‘पात्र’) २. छोटा पात्र या बरतन। ३. एक प्रकार की अँगीठी या छोटी भट्ठी। ४. साहित्यिक रचना का कोई स्त्री पात्र। ५. नाटक आदि में अभिनय करनेवाली स्त्री। अभिनेत्री।
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पात्रीय  : वि० [सं० पात्र+छ—ईय] पात्र-संबंधी। पात्र का। पुं० एक प्रकार का यज्ञ-पात्र।
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पात्रीर  : पुं० [सं० पात्री√रा (देना)+क] वह पदार्थ जिसकी यज्ञ आदि में आहुति दी जाती हो।
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पात्रे-बहुल  : वि० [सं० अलुक् स०] दूसरों का दिया हुआ भोजन करनेवाला। परान्न-भोजी।
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पात्रे-समिति  : वि० [सं० अलुक् स०] पात्रेबहुल। (दे०)
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पात्रोपकरण  : पुं० [सं० पात्र-उपकरण, ष० त०] अलंकरण के छोटे-मोटे साधन।
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पात्र्य  : वि० [सं० पात्र+यत्] जिसके साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके।
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पातंग  : वि० [सं० पतंग+अण्] १. फतिंगे या फतिंगों से संबंध रखनेवाला। २. फतिंगों के रंग का। भूरा।
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पातंगि  : पुं० [सं० पतंग+इञ्] १. शनिग्रह। २. यम। ३. कर्ण। ४. सुग्रीव।
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पातंजल  : वि० [सं० पतंजलि+अण्] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत। पुं० १. पतंजलिकृत योगसूत्र। २. वह जो उक्त योग-सूत्र के अनुसार योगसाधन करता हो। ३. पतंजलिकृत महाभाष्य।
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पातंजल-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] योगदर्शन।
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पातंजल-भाष्य  : पुं० [कर्म० स०] महाभाष्य नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ।
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पातंजल-सूत्र  : पुं० [कर्म० स०] योगसूत्र।
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पातंजलीय  : वि० [सं० पातंजल] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत।
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पात  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+घञ्] १. अपने स्थान से हटकर, टूटकर या और किसी प्रकार गिरने या नीचे आने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—उल्का-पात। [√पत्+णिच्+घञ्] २. गिराने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—रक्तपात। ३. अपने उचित या पूर्व स्थान से नीचे आने की क्रिया या भाव। जैसे—अधःपात। ४. ध्वस्त, नष्ट या समाप्त होकर गिरने की क्रिया या भाव। जैसे—शरीर-पात। ५. किसी वस्तु की वह स्थिति जिसमें वह सारी शक्ति प्रायः नष्ट हो जाने के कारण सहसा गिर, ढह या विनष्ट हो जाती है। सहसा किसी चीज का गिरकर बेकाम हो जाना। (कोलैप्स) ६. किसी प्रकार जाकर कहीं गिरने, पड़ने या लगने की क्रिया या भाव। जैसे—दृष्टिपात। ७. आघात। चोट। उदा०—चलै फटि पात गदा सिर चीर, मनों तरबूज हनेकर कीर।—कविराजा सूर्यमल। ८. गणित ज्योतिष में, वह विंदु या स्थान जिस पर किसी ग्रह या नक्षत्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को काटती है। ९. वह विंदु या स्थान जहाँ एक वृत्त दूसरे वृत्त को काटता हो। १॰. ज्यामिति में वह विंदु जहाँ कोई वक्र रेखा मुड़कर अपने किसी अंश को काटती हो। (नोड) ११. ज्योतिष में, (क) वह विंदु जहाँ कोई ग्रह सूर्य की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है; अथवा कोई उपग्रह अपने ग्रह की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। (नोड) विशेष—साधारणतः ग्रहों की कक्षाएँ जहाँ क्रांतिवृत्त को काटती हुई ऊपर चढ़ती या नीचे उतरती हैं, उन्हें पात कहते हैं। ये स्थान क्रमात् आरोह-पात और अवरोह-पात कहलाते हैं। चंद्रमा के कक्ष में जो आरोह-पात और अवरोहपात पड़ते हैं वे क्रमात् राहु और केतु कहलाते हैं। इसी आधार पर पुराणों और परवर्ती भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु दो स्वतंत्र ग्रह माने गये हैं। पुं० [√पत्+णिच्+अच्] राहु। पुं० [सं० पत्र] १. वृक्ष का पत्ता। पत्र। मुहा०—पातों का लगना=पतझड़ होना या उसका समय आना। २. वृक्ष के पत्ते के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पत्ता। ३. चाशनी। शीरा। पुं० [सं० पात्र] कवि। (डिं०)
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पातक  : वि० [सं०√पत्+णिच्+ण्वुल—अक] पात करने अर्थात् गिरानेवाला। पुं० ऐसा बड़ा पाप जो उसके कर्ता को नरक में गिरानेवाला हो। ऐसा पाप जिसका फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता हो। विशेष—हमारे यहाँ के धर्मशास्त्रों में अति-पातक, उप-पातक, महा-पातक आदि अनेक भेद किये गये हैं। साधारण पातकों के लिए उनमें प्रायश्चित्त का भी विधान है।
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पातकी (किन्)  : वि० [सं० पातक+इनि] पातक माने जानेवाले कर्मों के फल भोद के लिए नरक में जानेवाला; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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पातघाबरा  : वि० [हिं० पात+घबराना] १. पत्तों की आहट तक से भयभीत और विकल होनेवाला। २. बहुत जल्दी घबरा जानेवाला। ३. बहुत बड़ा कायर या डरपोक।
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पातन  : पुं० [सं०√पत्+णिच्+ल्युट्—अन] १. गिराने या नीचे ढकेलने की क्रिया या भाव। २. फेंकने की क्रिया या भाव। ३. वैद्यक में, पारा शोबने के आठ संस्कारों में से पाँचवाँ संस्कार।
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पातनीय  : वि० [सं०√पत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका पात हो सके या किया जाने को हो। २. जो गिराया जा सके या गिराया जाने को हो।
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पातबंदी  : स्त्री० [सं० पात या हिं० पाँति ?+बंदी] वह विवरण जिसमें किसी की संपत्ति और देय तथा प्राप्य धन का उल्लेख हो।
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पातयिता (तृ)  : वि० [सं०√पत्+णिच्+तृच्] १. गिरानेवाला। २. फेंकनेवाला।
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पातर  : वि० [सं० पात्रट, हिंदी पतला का पुराना रूप] १. जिसका दल मोटा न हो। पतला। २. क्षीणकाय। ३. बहुत ही संकीर्ण और तुच्छ स्वभाववाला। ४. नीच कुल का। अप्रतिष्ठित। उदा०—मयला अकलै मूल पातर खाँड खाँड करै भूखा।—सूर। स्त्री०=पत्तल। स्त्री० [सं० पातिली=एक विशेष जाति की स्त्री] १. वेश्या। २. तितली।
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पातरा  : वि० [स्त्री० पातरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातराज  : पुं० [देश०] एक तरह का साँप।
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पातरि (री)  : स्त्री०=पातर (वेश्या)।
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पातल  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पातर (वेश्या)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातला  : वि० [स्त्री० पातली]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातव्य  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+तव्यत्] १. जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। २. पीये जाने योग्य।
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पातशाह  : पुं० [फा० बादशाह] [भाव० पातशाही] बादशाह। महाराज।
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पाता (तृ)  : वि० [सं०√पा+तृच्] १. रक्षा करनेवाला। २. पीनेवाला। पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताखत  : पुं० [सं० पत्र+अक्षत] १. पत्र और अक्षत। २. देव पूजने की साधारण या स्वल्प सामग्री। ३. तुच्छ भेंट।
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पाताबा  : पुं० [फा० पाताबः] १. मोजे या जुराब के ऊपर पहना जानेवाला एक प्रकार का जूते का खोल। २. बूट, सैंडल आदि कुछ विशिष्ट जूतों के तलों के ऊपरी भाग में उसी नाप या आकार-प्रकार का लगाया जानेवाला चमड़े का टुकड़ा। ३. जुराब। मोजा।
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पातार  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताल  : पुं० [सं०√पत्+आलञ्] १. पृथ्वी के नीचे के कल्पित सात लोकों में से एक जो सबसे नीचे है और जिसमें नाग लोग वास करते हुए माने गये हैं। नागलोक। अन्य ६ लोक ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल और महातल। २. पृथ्वी के नीचे के सातों लोकों में से प्रत्येक लोक। ३. बहुत अधिक गहरा और नीचा स्थान। ४. गुफा। ५. बिल। विवर। ६. बड़वानल। ७. जन्म-कुंडली में जन्म के लग्न से चौथा स्थान। ८. पाताल यंत्र। (दे०)
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पाताल-केतु  : पुं० [ब० स०] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य।
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पाताल-खंड  : पुं० [ष० त०] पाताल (लोक)।
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पाताल-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पाताल लोक की एक नदी का नाम। २. भूगर्भ के अंदर बहनेवाली कोई नदी।
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पाताल-गारुड़ी  : स्त्री० [ष० त०] छिरिहटा नामक लता।
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पाताल-तुंबी  : स्त्री० [ष० त०] एक तरह की लता। पातालतौंबी।
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पाताल-तोंबी  : स्त्री०=पाताल-तुंबी।
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पाताल-निलय  : वि० [ब० स०] जिसका घर पाताल में हो। पाताल में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप। ३. दैत्य। राक्षस।
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पाताल-निवास  : पुं०=पाताल-निलय।
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पाताल-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा धातुएँ गलाई, ओषधियाँ पिलाई तथा अर्क, तेल आदि तैयार किये जाते हैं।
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पाताल-वासिनी  : स्त्री० [सं० पाताल√बस् (बसना)+ णिनि+ङीष्] नागवल्ली लता। पान की लता।
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पाताली  : स्त्री० [देश०] ताड़ के फल के गूदे की बनाई तथा सुखाकर खाई जानेवाली टिकिया। वि० [सं० पाताल] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल में रहने या होनेवाला। ३. पृथ्वी के नीचे होनेवाला। (अंडर ग्राउंड) जैसे—वृक्ष के पाताली तने।
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पाताली-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] वनस्पति विज्ञान में, उत्पत्ति-भेद से पत्तियों के चार प्रकारों में से एक। प्रायः भूमि पर अपने तने फैलानेवाले पौधों की पत्तियाँ जो प्रायः बहुत छोटी होती हैं। (स्केल लीफ) जैसे—आलू की पाताली पत्ती।
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पातालीय  : वि० [सं०] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल का। २. पाताल में अर्थात् पृथ्वी-तल के नीचे या भूगर्भ में रहने या होनेवाला।
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पातालौका (कस्)  : वि० [सं० पाताल-ओकस् ब० स०] पाताल लोक में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप।
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पाति  : स्त्री० १.=पाती (चिट्ठी)। २.=पत्ती। पुं० [सं०√पा+अति] १. स्वामी। २. पति। ३. पक्षी।
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पातिक  : वि० [सं० पात+ठन्—इक्] १. फेंका हुआ। २. नीचे गिराया या ढकेला हुआ। पुं० सूँस नामक जल-जंतु।
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पातिग  : पुं०=पातक। उदा०—अनेक जनम ना पातिग छूटै।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातित  : भू० कृ० वि० [सं०√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. फेंका हुआ। ३. झुकाया हुआ।
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पातित्य  : पुं० [सं० पतित-ष्यञ्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। गिरावट। २. अधःपतन।
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पातिल  : स्त्री० [सं० पातिली] एक तरह की मिट्टी की हँड़िया जिसमें विवाह आदि के समय दीया जलाया जाता है तथा हँड़िया का आधा मुँह ढक्कन से ढक दिया जाता है। वि०=पतला।
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पातिली  : स्त्री० [सं० पाति√ली (लीन होना)+ड+अण्+ङीष्] १. जाल। फंदा। २. मिट्टी की पातिल नामक हँड़िया। ३. किसी विशिष्ट जाति की स्त्री।
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पातिव्रत  : पुं०=पातिव्रत।
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पातिव्रत्य  : पुं० [सं० पतिव्रता+ष्यञ्] पतिव्रता होने की अवस्था, गुण और भाव। पति के प्रति होनेवाली पूर्ण निष्ठा की भावना।
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पातिसाह  : पुं०=पातशाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाती  : स्त्री० [सं० पत्री, प्रा० पत्ती] १. चिट्ठी। पत्री। पत्र। २. निशान। पता। ३. वृक्ष का पत्ता या पत्ती। स्त्री० [हिं० पति] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लोक-लज्जा।
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पातुक  : वि० [सं०√पत्+उकञ्] १. गिरनेवाला। २. पतनोन्मुख। पुं० १. झरना। २. पहाड़ की ढाल। ३. एक स्तनपायी दीर्घाकार जल-जंतु। जल-हस्ती।
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पातुर  : स्त्री० [सं० पातिली=स्त्री विशेष] वेश्या।
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पातुरनी  : स्त्री०=पातुर (वेश्या)।
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पात्य  : वि० [सं०√पत्+णिच्+यत्] १. जो गिराया जा सकता हो। २. दंडित किये जाने के योग्य। ३. प्रहार करने योग्य। ४. [√पत्+ण्यत्] गिरने योग्य। पुं० [पति+यक] पति होने का भाव। पतित्व।
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पात्र  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ष्ट्रन] [स्त्री० पात्री] [भाव० पात्रता] १. वह आधान जिसमें कुछ रखा जा सके। बरतन। भाजन। २. ऐसा बरतन जिसमें पानी पीया या रखा जाता हो। ३. यज्ञ में काम आनेवाले उपकरण या बरतन। यज्ञ-पात्र। ४. जल का कुंड या तालाब। ५. नदी की चौड़ाई। पाट। ६. ऐसा व्यक्ति जो किसी काम या बात के लिए सब प्रकार से उपयुक्त या योग्य समझा जाता हो। अधिकारी। जैसे—किसी को कुछ देने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह उसे पाने या रखने का पात्र है या नहीं। ७. उपन्यास, कहानी, काव्य, नाटक आदि में वे व्यक्ति जो कथा-वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया-कलाप या चरित्र से कथा-वस्तु की सृष्टि और परिपाक होता है। ८. नाटक में, वे अभिनेता या नट जो उक्त व्यक्तियों की वेष-भूषा आदि धारण कर के उनके चरित्रों का अभिनय करते हैं। अभिनेता। जैसे—इस नाटक में दस पुरुष और छः स्त्रियाँ पात्र हैं। ९. राज्य का प्रधान मंत्री। १॰. वृक्ष का पत्ता। पत्र। ११. वैद्यक में, चार सेर की एक तौल। आढ़क। १२. आज्ञा। आदेश। वि० [स्त्री० पात्री] जो किसी कार्य या पद के लिए उपयुक्त होने के कारण चुना या नियुक्त किया जा सकता हो। (एलिजिबुल)
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पात्रक  : पुं० [सं० पात्र+कन्] १. प्यारी, हाँड़ी आदि पात्र। २. भिखमंगों का भिक्षापात्र।
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पात्रट  : पुं० [सं० पात्र√अट्+अच्] १. पात्र। प्याला। २. फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा।
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पात्रटीर  : पुं० [सं० पात्र√अट्+ईरन्] १. योग्य मंत्री या सचिव। २. चाँदी। ३. किसी धातु का बना हुआ बरतन। ४. अग्नि। ५. कौआ। ६. कंक (पक्षी)। ७. लोहे में लगनेवाला जंग या मोरचा। ८. नाक से बहनेवाला मल।
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पात्रता  : स्त्री० [सं० पात्र+तल्+टाप्] पात्र (अर्थात् किसी कार्य, पद, दान-दक्षिणा आदि का योग्य अधिकारी) होने की अवस्था, गुण और भाव।
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पात्रत्व  : पुं० [सं० पात्र+त्व] पात्रता।
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पात्र-दुष्ट-रस  : पुं० [सं० दुष्ट-रस, कर्म० स०, पात्र-दुष्ट-रस, स० त०] कविता में परस्पर विरोधी बातें कहने का एक दोष। (कवि केशवदास)
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पात्र-पाल  : पुं० [सं० पात्र√पाल्+णिच्+अण्] १. तराजू की डंडी। २. पतवार।
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पात्रभृत्  : पुं० [सं० पात्र√भृ (धारण करना)+क्विप्] बरतन माँजने-धोनेवाला नौकर
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पात्र-वर्ग  : पुं० [ष० त०] १. किसी साहित्यिक रचना के कुल पात्र। २. अभिनय करनेवालों का समूह।
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पात्र-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बरतन माँजने-धोने की क्रिया, भाव और पारिश्रमिक।
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पात्र-शेष  : पुं० [स० त०] बरतनों में छोड़ा जानेवाला उच्छिष्ट या जूठा भोजन। जूठन।
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पात्रासादन  : पुं० [सं० पात्र-आसादन, ष० त०] यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना।
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पात्रिक  : वि० [सं० पात्र+ष्ठन्—इक] जो पात्र (आढ़क नामक तौल) से तौला या मापा गया हो। पुं० [स्त्री० अल्पा० पात्रिका] छोटा पात्र या बरतन।
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पात्रिकी  : स्त्री० [सं० पात्रिक+ङीष्] १. छोटा पात्र। २. थाली।
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पात्रिय  : वि० [सं० पात्र+घ—इय] [पात्र+यत्] जिसका साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके। सहभोजी।
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पात्री (त्रिन्)  : वि०, पुं० [सं० पात्र+इनि] १. जिसके पास बरतन हो। पात्रवाला। २. जिसके पास सुयोग्य पात्र या अधिकारी व्यक्ति हो। स्त्री० पात्र का स्त्री रूप। (दे० ‘पात्र’) २. छोटा पात्र या बरतन। ३. एक प्रकार की अँगीठी या छोटी भट्ठी। ४. साहित्यिक रचना का कोई स्त्री पात्र। ५. नाटक आदि में अभिनय करनेवाली स्त्री। अभिनेत्री।
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पात्रीय  : वि० [सं० पात्र+छ—ईय] पात्र-संबंधी। पात्र का। पुं० एक प्रकार का यज्ञ-पात्र।
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पात्रीर  : पुं० [सं० पात्री√रा (देना)+क] वह पदार्थ जिसकी यज्ञ आदि में आहुति दी जाती हो।
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पात्रे-बहुल  : वि० [सं० अलुक् स०] दूसरों का दिया हुआ भोजन करनेवाला। परान्न-भोजी।
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पात्रे-समिति  : वि० [सं० अलुक् स०] पात्रेबहुल। (दे०)
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पात्रोपकरण  : पुं० [सं० पात्र-उपकरण, ष० त०] अलंकरण के छोटे-मोटे साधन।
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पात्र्य  : वि० [सं० पात्र+यत्] जिसके साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके।
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