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प्रवृत्ति  : स्त्री० [सं० प्र√वत्+क्तिन्] १. निरंतर बढ़ते रहने की क्रिया या भाव। २. किसी काम, विषय या बात की ओर अथवा किसी विशिष्ट दिशा में प्रवृत्त होने या बढ़ने की क्रिया या भाव। ३. मनुष्य के व्यक्तित्व का वह अंग जो इस बात का सूचक होता है कि वह अपने उद्देश्यों या कार्यों की सिद्धि के लिए किस प्रकार या किस रूप में सचेष्ट रहता है। ४. मन की वह स्थिति जिसमें वह किसी ऐसे काम या बात की ओर अग्रसर होता है जो उसे प्रिय तथा रुचिकर होती है। (टेन्डेन्सी) ५. दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्रों में जीवन-यापन का वह प्रकार जिसमें मनुष्य घर-गृहस्थी सांसारिक कार्यों, सुख-भोगों आदि में प्रवृत्त रहता है। ‘निर्वत्ति’ विपर्याय। ६. मनुष्यों का साघारण आचरण व्यवहार या रहन-सहन। ७. साहित्य में, नाटकों आदि का वह तत्त्व या पद्धित जो भिन्न-भिन्न देशों के आचार-व्यवहार, रहन-सहन, वेश-भूषा आदि प्रकट या सूचित करती है। देश-भेद के विचार से ये चार प्रवृत्तियाँ मानी गई हैं—आवन्ती, दक्षिणात्य, पांचाली और मागधी। विशेष—वृत्ति और प्रवृत्ति में यह अन्तर है कि वृत्ति का मुख्य संबंध आन्तर व्यापारों से और प्रवृत्ति का वाह्य व्यापारों से होता है। वृत्ति तो केवल शब्दों के द्वारा काम करती है, पर प्रवृत्ति आचार-व्यवहार के माध्यम से व्यक्त होती है। इसलिए वृत्ति तो काव्य, नाटक आदि सभी प्रकार की साहित्यिक कृतियों में होती है; परन्तु प्रवृत्ति केवल अभिनय या नाटक में होती है। ८. वर्णन। वृत्तांत। ९. उत्पत्ति। जन्म। १॰. कार्य का अनुष्ठान या आरंभ। ११. यज्ञ आदि कृत्य। १२. हाथी का मद।
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प्रवृत्ति-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] जीवन-यापन का वह प्रकार जिसमें मनुष्य सांसारिक कार्यों और बंधनों में पड़ा रहकर दिन बिताता है। ‘निवृत्ति-मार्ग’ का विपर्याय।
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प्रवृत्ति-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] बाह्य पदार्थों से प्राप्त होगेवाला ज्ञान।
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