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प्रस्तुत  : वि० [सं० प्र√स्तु+क्त] १. जिसकी स्तुति या प्रशंसा की गई हो। २. जिसका आरंभ हुआ हो या किया गया हो। आरब्ध। ३. जो कार्य रूप में किया गया अथवा घटित हुआ हो। ४. जिसकी अभिलाषा और आशा की गई हो। ५.जो कहा गया हो। उक्त। कथित। ६. जो किसी उपयोग या काम में आने के लिए ठीक और पूरा हो चुका हो। तैयार। जैसे—(क) भोजन प्रस्तुत है। (ख) मैं चलने को प्रस्तुत हूँ। ७. (बात या विषय) जो प्रस्ताव के रूप में किसी के सामने निर्णय, विचार आदि के लिए रखा गया हो। (प्रेजेन्टेड) ८. जो इस समय उपस्थित या वर्तमान हो। मौजूद। (प्रेजेन्ट) ९. बनाकर या और किसी प्रकार तैयार किया हुआ। तैयार। (प्रोड्यूसर) पुं० १. साहित्य में, वह बात, वस्तु या विषय जिसकी चर्चा या वर्णन प्रत्यक्ष रूप से हो रहा हो; और प्रसंगवश जिसके जिसके साथ दूसरी बात, वस्तु या विषय का भी (उपमा, तुलना आदि के विचार से) उल्लेख या चर्चा हो जाती हो। (इसका विपर्याय ‘अ-प्रस्तुत’ है।) विशेष—अलंकार शास्त्र में, इस प्रकार के वर्णनीय विषय को उपमा के चाक मुख्य उपादानों में से एक उपादान माना है और ‘उपमेय’ को ही ‘प्रस्तुत’ कहा है। जैसे—‘उसका मुख चंद्रमा के समान है।’ में ‘मुख’ ही वर्ण्य विषय होने के कारण ‘प्रस्तुत’ है जिसकी उपमा चंद्रमा से दी गई है।
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प्रस्तुतांकुर  : पुं० [सं० प्रस्तुत-अंकुर, ष० त०] साहित्य में, अप्रस्तुत प्रशंसा की तरह का एक अलंकार जिसमें एक अर्थ में से एक दूसरी अर्थ भी अंकुर के रूप में निकलता है। जैसे—यदि नायिका भ्रमर से कहे कि तुम मालती को छोड़कर कँटीली केतकी के पास क्यों जाते हो। तो इसमें से एक दूसरा अर्थ यह निकलेगा कि तुम कुलीन वधू के रहते हुए पर-स्त्री या वेश्या के पास क्यों जाते हो ? अथवा यदि कहा जाय—‘तुम उनकी क्या निंदा करते हो। उनके सामने तो बड़े बड़े लोग सिर झुकाते हैं।’ तो यहाँ एक ही निंदा के साथ दूसरे की प्रशंसा भी अंकुर के रूप में लगी रहेगी।
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प्रस्तुतार्थ  : पुं० [सं० प्रस्तुत-अर्थ, ष० त०] पद, वाक्य या शब्द का वह अर्थ जो प्रस्तुत प्रसंग या विषय के विचार से ठीक निकलता या बैठता हो (संकेतार्थ से भिन्न)।
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प्रस्तुति  : स्त्री० [सं० प्र√स्तु+क्तिन] १.प्रस्तुत होने की अवस्था या भाव। २. प्रशंसा। स्तुति। ३. प्रस्तावना। भूमिका। ४. उपस्थिति। ५. तैयारी।
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प्रस्तुतीकरण  : पुं० [सं० प्रस्तुत+च्वि, इत्व, दीर्घ,√कृ(करना)+ल्युट्—अन] प्रस्तुत करने की क्रिया या भाव।
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