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फ  : देवनागरी वर्णमाला का बाइसवाँ व्यंजन जो पवर्ग के अन्तर्गत दूसरा वर्ण है तथा जो भाषा-विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से ओष्ठ्य, अघोष, महाप्राण तथा स्पृष्ट वर्ण है।
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फंक  : स्त्री० १. =फाँक। २. =फंकी।
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फँकनी  : स्त्री०=फंकी।
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फंका  : पुं० [हिं० फाँकना] [स्त्री० अल्पा० फंकी] १. अंजुली या हथेली में लिया हुआ खाद्य पदार्थ (विशेषतः दाने या बुकनी) फाँकने या झटके से मुँह में डालने की क्रिया। २. खाद्य पदार्थ की उतनी मात्रा जितनी एक बार उक्त ढंग से मुँह में डाली जाती हो। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना। मुहावरा—(किसी चीज का) फंका करना=नाश करना। नष्ट करना। फंका मारना या लगाना=मुँह में रखकर फाँकना। ३. किसी चीज का छोटा खंड या टुकड़ा।
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फंकी  : स्त्री० [हिं० फंका] १. कोई चीज फाँकने की क्रिया या भाव। २. वह चीज जो फाँककर खायी जाय। ३. किसी चीज की उतनी मात्रा जितनी एक बार में फाँकी जाय। (मुहा० के लिए दे० ‘फंका’ के मुहा०)। ४. किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा।
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फंग  : पुं० [सं० बंध] १. बंधन। २. फंदा। ३. अधीनता। ४. अनुराग या प्रेम का बन्धन।
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फंट  : पुं० =फणि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फंड  : पुं० [अ०] वह धन-राशि जो किसी विशिष्ट उद्देश्य से इकट्ठी की गयी अथवा अलग या सुरक्षित रखी गयी हो। कोश। जैसे—चेरिटी फंड, प्राविडेंट फंड। पुं० [सं०] उदर। जठर।
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फंद  : पुं० [हिं० फंदा] १. फंदा। २. जाल। पाश। ३. किसी को फँसाने के लिए उसके साथ किया जाने वाला छल या धोखा। ४. फंदे में फँसने पर होनेवाला कष्ट। ५. कष्ट दुख। ६. मर्म। रहस्य। ७. नथ की काँटी को फँसाने का फंदा। गूँज।
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फंदना  : अ० [हिं० फंदा] १. फंदे अर्थात् जाल में फँसना। २. किसी के धोखे में आना। ३. मुग्ध होना। स० १. फंदा या जाल बिछाना। २. फंदे में फँसाना। स०=फाँदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फंदरा  : पुं० =फंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फंदवार  : वि० [हिं० फंदा+वार (प्रत्यय)] १. फाँदने अर्थात् पंदे या जाल में दूसरों को फँसानेवाला। २. फंदा बिछानेवाला।
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फंदा  : पुं० [सं० पाश या बंधन] १. रस्सी आदि में एक विशेष प्रकार की गाँठ लगाकर बनाया जानेवाला घेरा जो किसी को फँसाकर रखने या बाँधने केकाम आता है। जैसे—(क) कुएँ से पानी निकालने के समय घड़े के गले में लगाया जानेवाला फंदा। (ख) फाँसी पर लटकाने के लिए अभियुक्त के गले में डाला जानेवाला उक्त प्रकार का घेरा। क्रि० प्र०—देना।—बनाना।—लगाना। पद—फंदेदार। (दे०) २. कोई ऐसी कपटपूर्ण बात या योजना जिसका मुख्य उद्देश्य किसी को फँसाना होता है। ३. रस्सियों आदि का बुना हुआ जाल। मुहावरा—फंदा लगाना=किसी को फँसाने के लिए छलपूर्ण आयोजन या युक्ति करना। (किसी के) फंदे में पड़ना या फँसना=किसी के जाल या धोखे में फँसना। ४. कोई ऐसी बात जिसमें पड़कर मनुष्य विवश हो जाता और कष्ट भोगता हो। ५. कुछ खाने या पीने के समय, अचानक हँसने आदि के कारण खाद्य या पेय पदार्थ का गले में इस प्रकार अटक या रुक जाना कि आदमी बोल न सके। उदाहरण—किसी ने रूमाल में हँसी रोकी तो किसी के गले मे चाय का फंदा पड़ गया। अजीम बेग चगताई।
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फँदाना  : स० [हिं० फंदना] ऐसा काम करना जिससे कोई फंदे में जा फँसे। स० [हिं० फाँदना] किसी को फाँदने में प्रवृत्त करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फँदावना  : स०=फँदाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फंदेदार  : वि० [हिं०+फा०] जिसमें पंदा लगा या बना हो। पुं० अंकन, सीयन आदि में ऐसी रचना जिसमें एक कड़ी या लड़ के अन्तिम सिरे से कुछ पहले ही दूसरी कड़ी या लड़ का पहला सिरा आरम्भ होता है।
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फंदैत  : पुं० [हिं० फंदा+ऐत(प्रत्यय)] १. वह जो फंदा डालकर या जाल बिछाकर पशु-पक्षियों को फँसाता हो। बहेलिया। व्याध। २. वह पालतू तथा सिखाया हुआ पशु जो अपनी जाति के अन्य पशुओं को जाल में फँसाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फँफाना  : अ० [अनु] १. बोलने में हकलाना। २. दूध में उबाल आना।
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फँसना  : अ० [सं० पाश, हिं० फाँस] १. पाश अर्थात् फंदे में पड़ना और फलतः कसा जाना। २. किसी प्रकार के जाल में इस प्रकार अटकना कि उससे छुटकारा या मुक्ति न हो सके। ३. किसी चीज में किसी दूसरी चीज का इस प्रकार चले जाना अटकना या उलझना कि सहज में वह बाहर न निकल सकती हो। जैसे—बोतल में काग फँसना। ४. एक चीज में दूसरी चीज का उलझकर अटक जाना। जैसे—काँटों में पल्ला फँसना। ५. लाक्षणिक अर्थ में अधिक अथवा विकट कामों में इस प्रकार व्यस्त रहना कि उससे अवकाश या छुटकारा मिलने की जल्दी आशा न हो। जैसे—झंझट या मुकदमें में फँसना। ६. किसी की चिकनी-चुपड़ी या छलपूर्ण बातो में आना और छला जाना। ७. पर-पुरुष या पर-स्त्री के प्रेम में पड़ने के कारण उससे ऐसा अनुचित संबंध स्थिर होना जो जल्दी छूट न सके।
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फँसनी  : स्त्री० [हिं० फँसना] एक प्रकार की हथौड़ी जिससे कसेरे लोटे, गगरे आदि का गला बनाते हैं।
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फँसरी  : स्त्री० १. =फाँसी। २. =फँसौरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फँसवार  : पुं० =फंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फँसाना  : स० [हिं० फँसना] १. ऐसा काम करना जिससे कोई चीज फँसती हो। बंधन, फंदे जाल में लाना और जकड़कर रखना। २. कोई चीज इस प्रकार अटकाना या किसी दूसरी चीज में उलझाना कि वह जल्दी छूट न सके जैसे—बोतल में काग फँसाना। ३. धन आदि किसी ऐसे व्यक्ति को देना या ऐसी स्थिति में लगा रखना कि उससे या वहाँ से जल्दी वह लौटकर प्राप्त न हो सकता हो। ४. किसी चाल युक्ति आदि के द्वारा किसी को इस प्रकार अपने अधिकार में लाना कि उसे ठगा या धोखा देकर अपना स्वार्थ साधा जा सके। जैसे—असामी फँसाना। ५. पर-पुरुष या पर-स्त्री को अपने प्रेम-पाश में आबद्ध करके उससे अनुचित संबंध स्थापित करना।
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फँसाव  : पुं० [हिं० फँसना+आव (प्रत्यय)] १. फँसने की क्रिया या भाव। २. ऐसी चीज या बात जो दूसरों को फँसाने के लिए हो।
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फँसिहारा  : वि० [हिं० फाँस+हारा (प्रत्यय)] [स्त्री० फँसिहारिन] फँसानेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फँसौरी  : स्त्री० [हिं० फाँसना+औरी (प्रत्यय)] १. फंदा। पाश। २. वह रस्सी जिसके फंदे में अभियुक्त का गला फँसाकर उसे फाँसी दी जाती है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फ  : पुं० [सं०√फक्क (नीचे जाना)+ड] १. कट वाक्य। रूखी बात। २. दुत्कार। ३. व्यर्थ की बातें। ४. यज्ञ करना। ५. अंधड़। आँधी। ६. जँभाई। ७. फल की प्राप्ति।
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फक  : वि० [सं० स्फटिक] १. स्वच्छ। साफ। २. खूब सफेद। वि० [फा० फक] १. (व्यक्ति) भय, लज्जा आदि के कारण जिसके चेहरे का रंग उड़ गया हो। क्रि० प्र०—होना।—पड़ना। पद—फक रेहन-रेहन रखी हुई चीज का बंधक से मुक्त होना। मुहावरा—फक कराना=रेहन रखी हुई चीज धन देकर छुड़ाना।
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फकड़ा  : पुं० [हिं० फक्कड़] बहुत ही निम्न कोटि और व्यर्थ की कविता या तुक-बंदी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फकड़ी  : स्त्री० [हिं० फक्कड़] १. फक्कड़पन। २. दुर्दशा। दुर्गति।
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फकत  : अ० य० [अ० फ़क़त०] १. बस इतना ही। २. केवल। सिर्फ।
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फकर  : पुं० =फखर (गर्व)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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फका  : पुं० १. =फंका। २. =फाँक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फकीर  : पुं० [अ० फ़क़ीर] [स्त्री० फकीरन, फकीरनी, भाव० फकीरी] १. भीख अथवा भीख के रूप में कोई चीज माँगनेवाला व्यक्ति। २. त्यागी। महात्मा। ३. संत। साधु। ४. बहुत ही निर्धन व्यक्ति। कंगाल।
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फकीरी  : स्त्री० [हिं० फकीर+ई (प्रत्य०)] १. ऐसी अवस्था जिसमें कोई भीख माँग कर निर्वाह करता हो। फकीर होने की अवस्था या भाव। २. कंगालपन। निर्धनता। वि० फकीर-संबंधी। फकीर का। जैसे—फकीरी दवा। पुं० एक प्रकार का अंगूर।
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फक्कड़  : पुं० [हिं० फाका=उपवास] [भाव० फक्कड़पन] १. ऐसा निर्धन व्यक्ति जो फाकों या उपवासों के बावजूद भी खुश और मस्त रहता हो। २. ऐसा व्यक्ति जो बहुत ही बुरी तरह से या लापरवाह होकर धन उड़ाता हो और अपने भविष्य का कुछ भी ध्यान न रखता हो। ४. फकीर। भिखमंगा। पुं० [सं० फक्किका] अश्लील बातें और गाली-गलौज। कुवाच्य। क्रि० प्र०—बकना। मुहावरा—फक्कड़ तौलना-गाली-गुफ्ता बकना। कुवाच्य कहना।
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फक्कड़बाज  : पुं० [हिं०+फा०] [भाव० फक्कड़बाजी] वह जो बहुत फक्कड़ अर्थात् गाली-गुफ्ता बकता या प्रायः अश्लील बातें करता हो।
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फक्कड़ाना  : वि० [हिं० फक्कड़+आना (प्रत्यय)] १. फक्कड़ी का। २. फक्कड़ों की तरह का।
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फक्किका  : स्त्री० [सं०√फक्क+ण्वुल् (भाव में)—अक्र+टाप्, इत्व] १. वह बात जो शास्त्रार्थ में दुरूह स्थल को स्पष्ट करने के लिए पूर्वपक्ष के रूप में कही जाय। कूट-प्रश्न। २. अनुचित व्यवहार। ३. धोखे-बाजी।
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फक्कुल्रेहन  : पुं० [अ०] बंधक या रेहन रखी हुई चीज छुड़ाना।
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फखर  : पुं० [फा० फख्र] सात्त्विक अभिमान। गौरवजन्य गर्व। जैसे—अपनी कौम या मुल्क का फखर।
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फख्र  : पुं० =फखर।
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फग  : पुं० =फंग (बंधन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फगवा  : पुं० =फगुआ (फाग)।
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फगुआ  : पुं० [हिं० फागुन] १. होलिकोत्सव का दिन। होली। २. उक्त अवसर पर होनेवाला आमोद-प्रमोद। ३. उक्त अवसर पर गाये जानेवाले एक तरह के अश्लील गीत। फाग। ४. उक्त अवसर पर दिया जानेवाला उपहार, भेंट या त्योहारी।
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फगुआना  : स० [हिं० फगुआ] फागुन के महीने में किसी के ऊपर रंग छोड़ना या उसे सुनाकर अश्लील गीत गाना। अ० फागुन के महीने में इतना अधिक उच्छंखल तथा मस्त होना कि सभ्यता का ध्यान न रह जाय।
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फगुनहट  : स्त्री० [हिं० फागुन+हट (प्रत्यय)] १. फागुन मास की तेज हवा। क्रि० प्र०—चलना। २. फागुन में होनेवाली वर्षा।
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फगुनिया  : पुं० [हिं० फागुन+इया (प्रत्यय)] त्रिसंधि नामक फूल। वि० १. फागुन-संबंधी। फागुन का। २. फागुन मास में होनेवाला।
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फगुहरा  : पुं० =फगुहारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फगुहारा  : पुं० [हिं० फगुआ+हारा (प्रत्यय)] १. वह जो फाग खेलता हो। विशेषतः ऐसा व्यक्ति जो दूसरों के यहाँ फाग खेलने के लिए जाय। २. फाग नामक गीत गानेवाला व्यक्ति।
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फजर  : पुं० [अ० फ़ज्र] १. प्रातःकाल। सवेरा। २. प्रातःकाल के समय पढ़ी जानेवाली नमाज।
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फजल  : पुं० [अ० फ़ज़्ल] अनुग्रह। कृपा। मेहरबानी।
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फज़ा  : स्त्री० [अ० फ़ज़ा] [वि० फजाई] १. खुला हुआ मैदान। विस्तृत क्षेत्र। २. शोभा। ३. मनोरंजक और सुन्दर वातावरण। ४. वातावरण।
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फजिअत  : स्त्री०=फ़जीहत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फजिर  : स्त्री०=फजर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फजिल  : पुं० =फजल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फजिहतिताई  : अ० फज़ीलत] १. फजीहत। २. फजीहत करनेवाली बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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फज़ीता  : पुं०=फजीहत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फज़ीती  : स्त्री०=फजीहत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फजीलत  : स्त्री० [अ० फज़ीलत] १. उत्कृष्टता। श्रेष्ठता। २. प्रधानता। पद—फजीहत की पगड़ी=(क) विद्धता-सूचक पगड़ी। (ख) विद्धत्तासूचक कोई चिन्ह। (मुसलमानों में एक प्रथा है जिसमें वे गुणी और विद्वान व्यक्ति को सम्मानित करने के लिए उसके सिर पर पगड़ी बाँधते हैं।
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फजीहत  : स्त्री० [अ० फ़ज़ीहत] १. पूरी या बहुत अधिक दुर्दशा। कलंककारी तथा घृणित रूप में होनेवाली खराबी। २. बहुत ही घृणित और हेय रूप में होनेवाला झगड़ा या तकरार। पद—थुक्का-फजीहत। (दे०)
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फजीहती  : स्त्री०=फजीहत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फजूल  : वि० [अ० फ़ुजुल] जो किसी काम का न हो। निरर्थक। अव्य० व्यर्थ। बे-फायदा।
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फजूलखर्ज  : वि० [अ०+फा०] अधिक खर्च करनेवाला। अपव्ययी। पु० व्यर्थ का व्यय। अपव्यय।
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फजूलखर्जी  : स्त्री० [अ०+फा०] व्यर्थ बहुत अधिक व्यय करना। अपव्यय। फजूलखर्च।
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फज्ल  : पुं०=फजल।
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फट  : स्त्री० [अनु०] १. फटने की क्रियाया भाव। २. किसी चीज के फटने से होनेवाला शब्द। ३. मोटर, मशीन आदि के चलने अथवा चिपटी हलकी चीज के आघात से होनेवाला शब्द। पद—फट से या फटाफट=बहुत जल्दी। तुरन्त। स्त्री०=फटकार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फटक  : स्त्री० [हिं० फटकना] १. फटकने की क्रिया या भाव। २. अन्न को फटकने पर उसमें से निकनलेवाला रद्दी अंश। फटकन। पुं०=स्फटिक। पुं०=फाटक। अव्य० [हिं० फट] फट से। तुरन्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फटकन  : स्त्री० [हिं० फटकना] १. फटकने की क्रिया या भाव। २. फटकने, झाड़ने आदि पर निकलनेवाली धूल, मिट्टी आदि। ३. अनाज फटकने पर निकलनेवाला निरर्थक या रद्दी अंश।
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फटकना  : अ० [अनु० फट] १. फट-फट शब्द करना। २. कपड़े को इस प्रकार झटके से झाड़ना कि उसमें लगी हुई धूल तथा पड़ी हुई सिलवटें निकल जायँ। ३. पटकना। ४. अस्त्र आदि चलाना या फेंकना। ५. सूप में अनाज रखकर उसे इस प्रकार बार-बार उछालना कि उसमें मिला हुआ कूड़ा-करकट छँटकर अलग हो जाय। मुहावरा—फटकना-पछोड़ना=(क) सूप या छाज पर रखा हुआ अन्न हिलाकर साफ करना। (ख) अच्छी तरह देख-भालकर पता लगाना कि कहीं कोई त्रुटि या दोष तो नहीं है। ६. रूई आदि फटके या धुनकी से धुनना। अ० १. किसी का इस प्रकार कहीं जा या पहुँचकर उपस्थित होना कि लोग उसकी उपस्थिति का अनुभव करने लगें। विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग अधिकतर नहिक रूप में होता है। जैसे—वहाँ कोई फटक नहीं सकता (या फटकने नहीं पाता)। पर कुछ उर्दू कवियों ने इसका प्रयोग सहिक रूप में भी किया है। जैसे—अक्सर औकात आ फटकते हैं। २.अलग या दूर होना। न रह जाना। ३. विवशता की दशा में हाथ-पैर पटकना। फटफटाना। ४. कुछ करने के लिए हाथ-पैर हिलाना। प्रयत्नशील होना। पुं० गुलेल का फीता जिसमे गुल्ला रखकर फेंकते हैं।
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फटकनी  : स्त्री० [हिं० फटकना] १. फटकने की क्रिया या भाव। २. अनाज फटकने का सूप।
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फटकरना  : अ० [हिं० फटकारना का अ०] फटकारा जाना। स०=फटकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फटकरी  : स्त्री=फिटकरी।
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फटकवाना  : स० [हिं० फटकना का प्रे०] फटकने में प्रवृत्त करना। फटकने का काम किसी से कराना।
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फटका  : पुं० [अनु०] १. फटफटाने अर्थात् विवश होकर हाथ-पैर पटकने क्रिया या भाव। २. धुनिये की धुनकी जिससे वह रूई आदि धुनता है। क्रि० प्र०—खाना। ३. फले हुए पेड़ों में बँधी हुई वह लकड़ी जिसके साथ बँधी हुई रस्सी हिलाने से उससे फट-फट शब्द होता है। (इससे फल खानेवाली चिड़ियाँ वहाँ से उड़ जाती या पास नहीं आती। ४. काव्य के रस आदि गुणों से हीन कविता जिसमें बहुत सी साधारण तुकबन्दी के सिवाय कुछ भी न हो। क्रि० प्र०—जोड़ना। पुं० [हिं० फटकन] एक प्रकार की बलुई भूमि जिसमें पत्थर के टुकड़े अधिक होते हैं। इसी कारण यह उपजाऊ नहीं होती। पुं० =फाटक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फटकाना  : स० [हिं० फटकना] १. किसी को कुछ फटकने में प्रवृत्त करना। फटकवाना। २. अलग करना। ३. फेंकना।
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फटकार  : स्त्री० [हिं० फटकारना] १. फटकारने की क्रिया या भाव। २. ऐसी कठोर बात जिससे किसी की भर्त्सना की जाय। फटकार कर कही हुई बात। दुतकार। झिड़की। क्रि० प्र०—पड़ना।—बताना।—सुनना।—सुनाना ३. शाप। (क्व०) ४. वह कोड़ा या चाबुक जो घोड़ों को सधाने-सिखाने के समय जोर की आवाज करने के लिए चलाते या फटकारते हैं।
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फटकारना  : स० [अनु] १. कोई चीज इस प्रकार वेगपूर्वक और झटके से हिलाना कि उसमें से फट शब्द हो। जैसे—कोड़ा या चाबुक फटकारना। २. एक में मिली हुई बहुत-सी चीजें इस प्रकार हिलाना या झटका मारना जिसमें वे छितरा जायँ। जैसे—जटा या दाढ़ी फटकारना। ३. इस प्रकार झटके से हिलाना कि कोई चीज दूर जा पड़े। झटकारना। ४. शस्त्र आदि का प्रहार करने के लिए इधर-उधर हिलाना। जैसे—गदा फटकारना। ५. कपड़े को पत्थर आदि पर पटक कर धोना। ६. क्रुद्ध होकर किसी से ऐसी कड़ी बातें कहना जिससे वह चुप हो जाय या लज्जित होकर दूर हट जाय। खरी और कड़ी बातें कहकर चुप कराना। जैसे—आप जब तक उन्हें फटकारेगें नहीं, तब तक वे नहीं मानेंगे। संयों० क्रि०—देना। ७. बहुत शान से या ऐंठ दिखाते हुए धन अर्जित या प्राप्त करना। जैसे—दस-पाँच रुपए रोज तो वह बात में फटकार लेता है। संयो० क्रि०—लेना।
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फटकिया  : पुं० [देश] मीठा नामक विष का एक भेद जो गोबरिया से कम विषैला होता है।
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फटकी  : स्त्री० [हिं० फटक] १. वह झाबा जिसमें बहेलिया पकड़ी हुई चिड़ियाँ रखते हैं। २. दे० ‘फटका’।
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फटकेबाज  : पुं० [हिं० फटका+फा० बाज] [भाव० फटकेबाजी] वह जो बहुत ही निम्नकोटि और बाजारू कविताएँ करता हो।
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फटन  : स्त्री० [हिं० फटना] १. फटने की क्रिया या भाव। फटने के कारण किसी चीज में पड़नेवाली दरार या बननेवाला रेखाकार चिन्ह। ३. भूगोल में, चट्टानों आदि पर दबाव पड़ने के कारण होनेवाली दरार। (क्लीवेज़)
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फटना  : अ० [हिं० फाड़ना का अ० रूप] १. आघात लगने के कारण या यों ही किसी चीज़ का बीच में से इस प्रकार खंडित होना या उसमें दरार पड़ जाना कि अन्दर की चीजें बाहर निकल पड़ें या बाहर से दिखायी देने लगें। जैसे—दमीन या दीवार फटना। मुहावरा—फट पड़ना=अचानक बहुत अधिक मात्रा में आ पहुँचना। सहसा आ पड़ना। जैसे—(क) दौलत तो उनके घर मानों फट पड़ी है। (ख) आफत तो उनके सिर मानों पट पड़ी है। फटा पड़ना-इतनी अधिकता होना कि अपने आधार या आधान में समा न सके। जैसे—उसका रूप तो मानों फटा पड़ता था। २. किसी पदार्थ का बीच से कटकर या दो टुकड़े हो जाना। जैसे—कपड़ा फटना। ३. बीच या सीध में से निकलकर किसी ओर असंगत रूप से बढना या अलग होकर दूर निकल जाना। मुहावरा—फट जाना या पड़ना=बीच या सीध में अचानक निकलकर इधर या उधर हो जाना। जैसे—वह घोड़ा चलते-चलते दाहिनी या बायी ओर बढ़ जाता है। ४. किसी गाढ़े द्रव पदार्थ में ऐसा विकार होना जिससे उसका पानी अलक और सार भाग अलग हो जाय। जैसे—खून फटना, दूध फटना। ५. रोग विकार आदि के कारण शरीर के किसी अंग में ऐसी पीड़ा या वेदना होना कि मानों वह अंग फट जायगा। जैसे—दर्द के मारे आँख या सिर फटना, बहुत अधिक थकावट के कारण पैर फटना, हो-हल्ले से कान फटना। ६. लाक्षणिक रूप में मन या हृदय पर ऐसा आघात लगना कि उसकी पहलेवाली साधारण अवस्था न रह जाय। जैसे—किसी के दुर्व्यवहार से चित्त (मन या हृदय) फटना, शोर से छाती फटना। ७. किसी चीज या बात का अपनी साधारण या प्रसम अवस्था में न रहकर विकृत अवस्था में आना या होना। जैसे—चिल्लाते-चिल्लाते आवाज (या गला) फटना। ८. किसी पर विपत्ति के रूप में आकर गिरना। उदाहरण—सीता असगुन कौं कटाई नाक बार, सोई अब कृपा करि राधिका पै फेर फाटी है।—रत्ना०।
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फट-फट  : स्त्री० [अनु] १. फट-फट शब्द। जैसे—(क) चप्पल या जूते की फट-फट। (ख) मोटर की फट-फट। २. व्यर्थ की बकवाद। ३. कहा-सुनी। तकरार।
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फटफटाना  : स० [अनु०] फट-फट शब्द उत्पन्न करना। अ० १. फट-फट शब्द करते हुए उधर-उधर व्यर्थ घूमना। मारा-माना फिरना। २. विवश होने पर कुछ चिन्तित या विकल होना। ३. व्यर्थ का प्रलाप या बकवाद करना।
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फटहा  : वि० [हिं० फटना] १. फटा हुआ। २. अंड-बंड और अश्लील बातें बकनेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फटा  : वि० [हिं० फटना] १. जो फट गया हो। जैसे—फटा कपड़ा। मुहावरा—किसी के फटे पैर देना=दूसरे की विपत्ति अपने सिर लेना। २. जो बहुत ही बुरी या हीन अवस्था में आ गया हो। पद—फटे हाल (या हालों)-बहुत ही दुर्दशाग्रस्त रूप में। जैसे—महीने भर में ही भागा हुआ लड़का फटेहाल (या हालों) घर आ पहुँचा। ३. जो बहुत विकृत अवस्था में हो। जैसे—फटी आवाज। पुं० किसी चीज के फटने से बना हुआ गड्ढा या दरार। स्त्री० [सं० फट+टाप्] १. साँप का फन। २. अभिमान। घमंड। ३. छल। धोखा। ४. छिद्र। छेद।
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फटाका  : पुं० [अनु०] फट की तरह होनेवाला जोर का शब्द।
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फटाटोप  : पुं० [सं० ष० त०] साँप का फैला हुआ फन।
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फटान  : स्त्री० [हिं० फटना] १. फटन। २. वृक्ष का खोंडर।
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फटिक  : पुं० [सं० स्फटिक, पा० फटिक] १. स्फटिक। बिल्लौर। २. संग-मरमर।
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फटिका  : स्त्री० [सं० स्फटिक] १. एक प्रकार की शराब जो जौ आदि से खमीर उठाकर बिना चुवाये बनायी जाती है। २. गुलेल की डोरी के बीचो-बीच रस्सी से बनकर बनाया हुआ वह चौकोर हिस्सा जिसमें मिट्टी की गोली रखकर चलायी जाती है। उदाहरण—बीच परे भौर फटिका से सुधरत हैं।—सेनापति।
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फटीचर  : वि० [हिं० फटा+चीर] १. (व्यक्ति) जो फटे-पुराने कपड़े पहनता हो या पहने रहता हो। २. बहुत ही तुच्छ या हेय।
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फटेहाल  : क्रि० वि० [हिं० +अ०] बहुत ही दीन या बुरी अवस्था में। दुर्दशाग्रस्त रूप में।
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फट्टा  : पुं० [हिं० फटना] [स्त्री० अल्पा० फट्टी] १. लकड़ी आदि को चीरकर निकाला हुआ छोटा तख्ता। २. बाँस आदि को चीरकर निकाला हुआ पतला खंड या छड़। पुं० [सं० पट] टाट। मुहावरा—फट्टा उलटना=टाट उलटना। दिवाला निकालना।
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फट्टी  : स्त्री० [हिं० फट्टा] १. छोटा तख्ता। २. बाँस की चिरी हुई पतली छड़ी। ३. बच्चों के लिखने की पटिया। पट्टी। (पश्चिम)
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फड़  : पुं० [सं० पण] १. वह कपड़ा जो छोटे दूकानदार जमीन पर बिक्री की चीजे सजाकर रखने के लिए बिछाते हैं। २. कोठी, दूकान आदि का वह भाग जहाँ बैठकर चीजें खरीदी या बेचीं जाती है। पद—फड़पर-मुकाबले में। सामने। उदाहरण—भगे बलीमुख महाबली लखि फिरैं न फट (फड़) पर झेरे।—रघुराज। ३. बिछावन बिछौना। उदाहरण—सूल से फलन के फर (फड़) पैतिय फूल-छरी सी परी मरझानी। ४. जूएखाने में, वह स्थान जहाँ जुआरी बैठकर जूआ खेलते हैं। ५. दल। समूह। क्रि० प्र०—बाँधना। पुं० [सं० पटल या फल] १. गाड़ी का हरसा। २. वह गाड़ी जिस पर तोप रखकर ले चलते हैं। चरख। पुं०=फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) फड़क
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फड़कन  : स्त्री० [हिं० फड़कना] १. फड़कने की क्रिया या भाव। फड़क। फड़फड़ाहट। २. धड़कन। ३. उत्सुकता। वि० १. भड़कनेवाला। जैसे—फड़कन बैल। २. चंचल। ३. तेज।
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फड़कना  : अ० [अनु०] १. इस प्रकार बार-बार नीचे ऊपर या इधर-उधर हिलना कि फड़-फड़ शब्द हो। २. शरीर के किसी अंग में स्फुरण होना। अंग का वायु-विकार आदि के कारण रह-रहकर थोड़ा उभरना और दबना। जैसे—आँख या कंधा फड़कना। मुहावरा—(किसी की) बोटी-बोटी फड़कना=(किसी का) बहुत अधिक चंचल होना। ३. कोई बहुत बढ़िया या विलक्षण चीज देखकर या बात सुनकर मन में उक्त प्रकार का स्फुरण होना जो चीज या बात के विशेष प्रशंसक होने का सूचक होता है। संयो० क्रि०—उठना।—जाना। ४. पक्षियों के पर हिलना। फड़फड़ाना। अ०=फटकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फड़काना  : स० [हिं० फड़कना का प्रे०] १. किसी को फड़कने में प्रवृत्त करना। २. उत्तेजित करना। भड़काना। ३. विचलित करना। ४. हिलाना-डुलाना।
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फड़का-पेलन  : पुं० [देश] एक प्रकारका बैल जिसका सींग सीधा ऊपर को उठा और दूसरा नीचे को झुका होता है।
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फड़नबीस  : पुं० [फा० फर्दनवीस] मराठों के राजत्वकाल का एक राजपद। विशेष—मूलतः यह पद राजसभा के साधारण लेखकों को दिया जाता था। पर बाद में यह दीवानी या माल विभाग के ऐसे कर्मचारी के ऐसे कर्मचारियों को भी दिया जाने लगा था जो बड़े-बड़े इनाम या जागीरें देने की व्यवस्था करते थे।
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फड़फड़ाना  : अ० [अनु०] १. फड़-फड़ शब्द होना। २. पक्षियों आदि का पकड़े जाने पर बंधन से निकल भागने के लिए जोरों से पर मारते हुए फड़-फड़ शब्द करना। ३. लाक्षणिक अर्थ में घोर कष्ट, विपत्ति, संकट आदि से अत्यधिक संतप्त होना और उससे छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना। ४. विशेष उत्सुकता के कारण चंचल होना। स० १. कोई चीज बार-बार हिलाकर फड़-फड़ शब्द उत्पन्न करना। जैसे—पर फड़फड़ाना। २. दे० ‘फटफटाना’।
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फड़बाज  : पुं० [हिं० फड़+बाज (प्रत्यय)] [भाव० फड़बाजी] वह जो अपने यहाँ जूआ खेलने के लिए बुलाता हो। अपने यहाँ लोगों को जूआ खेलानेवाला व्यक्ति।
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फड़िया  : पुं० [हिं० फड़-दूकान+इया (प्रत्यय)] १. वह बनिया जो फुटकर अन्न बेचता हो। २. वह जो अपने यहाँ जूए का फड़ रखकर लोगों को जूआ खेलाता हो। फड़बाज।
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फड़ी  : स्त्री० [हिं० फड़] ईंटों, पत्थरों आदि का परिमाण स्थिर करने के लिए लगाया जानेवाला वह ढेर जो तीस गज लम्बा, एक गज चौड़ा और एक गज ऊँचा हो।
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फडुआ  : पुं० [स्त्री० फडुही]=फावड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फड़ई, फड़ही  : स्त्री० १. फरुही। २. छोटा फावड़ा।
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फड़ोलना  : स० [सं० स्फुरण] किसी चीज को उलटना-फलटना। इधर-उधर या ऊपर-नीचे करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फण  : पुं० [सं०√फण (विस्तृत होना)+अच्] १. साँप के सिर का वह रूप जब वह अपनी गर्दन के दोनों ओर की नलियों में वायु भरकर उसे फुलाकर छन्नाकार बना लेता है। फन। २. रस्सी का गाँठदार फंदा। मुद्धी। ३. नाव का ऊपरी अगला भाग।
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फणकर  : पुं० [सं० ब० स०]=फणधर।
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फणधर  : पुं० [सं० ष० त०] साँप।
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फणा  : स्त्री० [सं० फण+टाप्]=फण।
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फणाकृति  : वि० [सं० फणा-आकृति, ब० स०] साँप का फन के आकार का। गोलाकार छितराया या फैला हुआ।
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फणि-कन्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] नागकन्या।
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फणि-केसर  : पुं० [ब० स०] नागकेसर।
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फणि-चक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] फलित ज्योतिष में नाड़ीचक्र जो सर्पाकार होता है और जिससे विवाह में वर-कन्या का नाड़ी-मिलान किया जाता है। नाडीनक्षत्र। (दे०)
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फणिजिह्वा, फणिजिह्विका  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. महाशतावरी। बड़ी शतावर। २. कंधी नामका पौधा।
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फणित  : भू० कृ० [सं०√फण्+क्त] १. गया हुआ। गत। २. तरल किया हुआ।
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फणि-तल्पग  : पुं० [सं० फणि-तल्प, उपमि० स०, √गम्+ड] विष्णु।
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फणि-नायक  : पुं० [सं० ष० त०] वासुकि।
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फणि-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. वासुकि। २. पतंजलि।
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फणि-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] वायु। हवा।
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फणि-फेन  : पुं० [सं० ष० त०] अफीम।
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फणि-भाष्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] पाणिनी के सूत्रों पर लिखा हुआ पतंजलि-कृत नामक व्याकरण ग्रंथ।
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फणि-भुज्  : पुं० [सं० फणिन्√भुज्(खाना)+क्विप्] वह जो साँपों का भक्षण करता हो। जैसे—गरुड़ मोर आदि।
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फणि-मुक्ता  : स्त्री० [सं० ष० त०] साँप की मणि।
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फणि-मुख  : पुं० [सं० ब० स०] साँप के मुख के आकार का एक तरह का पुरानी चाल का औजार जिससे चोर मकानों में सेंध लगाते थे।
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फणि-लता  : स्त्री० [उपमि० स०] नागवल्ली। पान की लता।
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फणि-वल्ली  : स्त्री०=फणिलता।
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फणींद्र  : पुं० [सं० फणिन्-इंद्र, ष० त०] १. शेषनाग। २. वासुकि। ३. फनवाला। साँप।
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फणी (णिन्)  : पुं० [सं० फण+इनि] १. साँप। २. केतुग्रह। ३. सीसा। ४. मरुआ नामक पौधा। ५. सर्पिणी नामक ओषधि।
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फणीश  : पुं० [सं० फणिन्-ईश, ष० त०] १. शेषनाग। २. वासुकि। ३. पतंजलि।
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फणीश्वर  : पुं० [सं० फणिन्-ईश्वर, ष० त०]=फणीश।
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फणीश्वर-चक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] शनि की नक्षत्र स्थिति के आधार पर जंबू, प्लक्ष आदि सात द्वीपों का शुभाशुभ फल जानने का एक चक्र। (ज्यो०)
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फतवा  : पुं० [अ० फत्वा] धर्म-गुरु विशेषतः किसी मुसलमान धर्म-गुरु द्वारा धर्म-संबंधी किसी विवादास्पद बात के संबंध में दिया हुआ शास्त्रीय लिखित आदेश। व्यवस्था।
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फतह  : स्त्री० [अ० फत्ह] १. युद्ध में होनेवाली विजय। जीत। २. किसी काम में होनेवाली महत्वपूर्ण सफलता। कामयाबी।
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फतह-पेंच  : पुं० [अ० फत्ह+हिं० पेंच] १. पगड़ी बाँधने का एक विशिष्ट ढंग या प्रकार। २. स्त्रियों के बाल-गूँथने और चोटी बाँधने का एक विशिष्ट ढंग या प्रकार। ३. हुक्के का एक प्रकार का नैचा।
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फतहमंद  : वि० [अ०+फा०] [भाव० फतहमंदी] १. विजयी। २. सफल।
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फतहयाब  : वि० [अ०+फा०] [भाव० फतहयाबी] =फतहमंद।
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फतिंगा  : पुं० [सं० पतंग] [स्त्री० फतिंगी] १. पाँवोंवाला कोई छोटा कीड़ा। २. पंखोंवाला वह छोटा कीड़ा जो आग की लपट या दीये की लौ के चारों ओर घूमता रहता है और अंत में जल मरता है।
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फतीर  : पुं० [अ० फ़तीर] चपातियाँ आदि पकाने के लिए गूँथा तथा संवारा हुआ ताजा आटा। (‘खमीर’ इसी का विपर्याय है)
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फतील  : पुं० [अ० फतील] १. दीये की बत्ती। २. वह बत्ती जो भूत-प्रेत आदि की बाधा दूर करने के लिए जलाई तथा प्रेत-बाधा से प्राप्त व्यक्ति को दिखलाई जाती है। पलीता।
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फतीलसोज  : पुं० [फा० फतीलसोज] १. धातु की वह चौ-मुखी दीअट जिसमें नीचे-ऊपर कई दीये जलाये जाते हैं। २. दीयट।
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फतीला  : पुं० [अ० फतीलः] १. दीये की बत्ती। २. बत्ती। ३. जरदोजी का काम करनेवालों की लकड़ी की वह तीली जिस पर बेलबूटे और फूलों की डालियाँ बनाने के लिए कारीगर तार को लपेटते हैं। दे० ‘पलीता’। पुं०=पतीला (बरतन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फतुही  : स्त्री०=फतूही।
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फतूर  : पुं० [अ० फ़ुतूर] १. दोष। विकार। २. उत्पात। उपद्रव। ३. बाधा। विघ्न। ४. शरारत।
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फतूरिया  : वि० [हिं० फतूर+इया (प्रत्यय)] १. उपद्रवी। २. शरारती।
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फतूह  : स्त्री० [अ० फ़त्ह के बहुवचन रूप फुतूह से] १. विजय। २. विजय के उपरांत लूट-पाट में मिला हुआ धन या संपत्ति ३. प्राप्ति। लाभ। ४. समृद्धि। ५. ऊपर से होनेवाली आय।
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फतूही  : स्त्री० [अ० फ़ुतूही] बिना बाँहों की एक तरह की कुरती या बंडी। स्त्री० [अ० फुतूह] लूट-पाट में प्राप्त किया हुआ धन।
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फते  : स्त्री०=फतह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फतेह  : स्त्री०=फतह।
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फदकना  : अ० [अनु०] १. फद-फद शब्द होना। २. भात, रस आदि का पकाते समय फद-फद शब्द करके उछलना। खद-बद करना। अ०=फुदकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फदका  : पुं० [हिं० फदकना] गुड़ का वह पाग जो बहुत अधिक गाढ़ा न हुआ हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फदफदाना  : अ० [अनु०] १. फदफद शब्द होना। २. वृक्षों में नयी कोपलें या पत्तियाँ निकलना। ३. शरीर में बहुत सी फुंसिया या गरमी के दाने निकल आना। ४. फदकना। स० फद-फद शब्द उत्पन्न करना।
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फदिया  : स्त्री०=फरिया (एक तरह का लहँगा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फदुक्का  : पुं० [हिं० फुदकना] टिड्डी का छोटा बच्चा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फन  : पुं० [सं० फण०] साँप के सिर के आस-पास का वह भाग जिसे साँप आवेश अथवा मस्ती में हवा भरकर फुला और फैला लेता है। मुहावरा—फन मारना=आवेश में आकर विशेष प्रयत्न करना। पुं० [फा० फ़न] १. गुण। खूबी। २. विद्या। ३. कला। ४. दस्तकारी। ५. चालबाजी। धूर्तता। ६. कौशल। पद—हरफन मौला=बहुत ही कुशल व्यक्ति। हर काम में होशियार।
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फनकना  : अ० [अनु०] १. फनफन शब्द करना। जैसे—बैल या साँप का फनकना। २. इस प्रकार तेजी से चलना कि हवा से वस्त्र फतफन करने लगे।
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फनकार  : स्त्री० [अनु०] १. फन-फन होनेवाला शब्द। २. वह फन-फन शब्द जो साँप के फूँकने या बैल आदि से साँस लेने से होता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनगना  : अ० [हिं० फुनगा] १. वृक्षों आदि का फुनगियों अर्थात् अकुरों से युक्त होना। २. अच्छी तरह उन्नति करना।
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फनगा  : पुं० [सं०-पतंग] फतिंगा। पुं०=फुनगा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनना  : अ० [हिं० फाँदना] १. फंदा बनना या लगना। २. काम का आरम्भ होना। ठनना।
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फनफनाना  : अ० [अनु०] १. मुँह से हवा छोड़कर फन-फन शब्द उत्पन्न करना। जैसे—साँप का फनफनाना। २. चंचलतापूर्वक इधर-उधर हिलना।
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फनस  : पुं० [सं० पनस, प्रा० फनस] कटहल।
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फना  : स्त्री० [अ० फना] १. पूरा विनाश। बरबादी। २. मृत्यु। मौत। ३. सूफी मत में भक्त का परमात्मा में लीन होना। वि० नष्ट। बरबाद।
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फनाना  : स० [हिं० फाँदना] १. फंदा बनाना। २. काम शुरू करना। ठानना।
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फनिंग  : पुं०=फणींद्र। (साँप)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनिंद  : पुं०=फणींद्र (साँप)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनि  : पुं० १. =फणी। २. =फन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनिक  : पुं० =फणिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनिंग  : पुं० [हिं० फतिंगा] फतिंगा। पुं० [सं० फणिक] साँप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनिधर  : पुं० [सं० फणिधर] साँप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनिपति  : पुं०=फणिपति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनियर  : पुं० [सं० फणिधर] १. फनवाला। २. अजगर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फनियाला  : पुं० दे० ‘तूर’। पुं०=फनियर (साँप)।
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फनिराज  : पुं० =फणींद्र (साँप)।
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फनी  : पुं० =फणी। स्त्री०=फन (साँप का)। पुं० =फनियर। वि० [फा० फन्नी] १. फन-संबंधी। २. फन या हुनर जाननेवाला। ३. चालाक। धूर्त।
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फनूस  : पुं०=फानूस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फन्नी  : स्त्री० [सं० फण] १. लकड़ी का वह टुकड़ा जो छेद आदि बंद करने के लिए किसी चीज में ठोंका जाता है। पच्चर। २. वास्तुकला में लोहे का वह मोटा पत्तर या कोनिया जो बाहर निकले हुए बोझ को सँभालने के लिए उसके नीचे लगायी जाती है। ३. कंघी की तरह का जुलाहों का एक औजार जो बाँस की तिलियों का बना होता है और जिससे बुना हुआ बाना दबाकर ठीक किया जाता है।
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फफका  : पुं०=फफोला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फफ्फस  : वि० [अनु०] स्थूल किंतु बलहीन या शिथिल काया वाला।
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फफकना  : अ० [अनु०] रुक-रुक कर और फफ-फफ शब्द करते हुए रोना।
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फफका  : पुं० [अनु०] फफोला। छाला।
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फफदना  : अ० [?] अधिक विस्तृत होना। इधर-उधर फैलना।
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फफसा  : पुं० [सं० फफ्फुस] फेंफड़ा। वि० १. फूला हुआ और पोला। २. जिसमें रस या स्वाद न हो। फीका। ३. (फल) जिसका स्वाद बिगड़ गया हो।
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फफूँदी  : स्त्री० [हिं० फूबती] स्त्रियों के पेडू, पर धोती, लहँगा आदि में लगायी जानेवाली गाँठ। विशेष दे० ‘नीवी’। स्त्री० [?] बरसात के दिनों में वनस्पतियों आदि पर जमनेवाली एक तरह की सफेद रंग की काई। भुकड़ी।
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फफोर  : पुं० [सं०] एक प्रकार का जंगली प्याज। पुं०=फफोला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फफोला  : पुं० [सं० प्रस्फोट] १. त्वचा के जलने पर पड़नेवाला वह छाला जिसमें पानी भरा होता है और जो सफेद झिल्ली सेयुक्त होता है। (ब्लिस्टर) २. शारीरिक विकार के कारण होनेवाला उक्त प्रकार का छाला। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। मुहावरा—दिल के फफोले फोड़ना=अपने दिल की जलन या रोष प्रकट करना। दिल का बुखार निकालना। ३. पानी का बुलबुला।
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फबकना  : अ०=फफदना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फबती  : स्त्री० [हिं० फबना] ऐसी व्यंग्यात्मक तथा हास्यपूर्ण बात जो किसी व्यक्ति की तात्कालिक स्थिति के अनुसार बहुत ही उपयुक्त रूप से फबती अर्था्त ठीक बैठती है। (रेलरी)। क्रि० प्र०—उडा़ना।—कसना।
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फबन  : स्त्री० [हिं० फबना] १. फबने अथवा फबे हुए होने की अवस्था या भाव। उदाहरण—अँगोछे की अब तुम फबन देखना।—बालमुकुंद गुप्त। २. सुंदरता।
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फबना  : अ० [सं० प्रभवन] १. उपयुक्त प्रकार से अथवा उपयुक्त स्थान पर रखे जाने पर किसी चीज का शोभन तथा सुन्दर लगना। जैसे—लाल साड़ी पर काली गोट का फबना। २. बात आदि का ठीक मौके पर उपयुक्त और शोभन लगना। जैसे—तुम्हारे मुँह पर गाली नहीं फबती। ३. व्यक्ति का बढ़िया कपड़े आदि पहने होने पर सुन्दर लगना
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फबाना  : स० [हिं० फबना] १. इस प्रकार किसी चीज को उपयुक्त स्थान पर रखना कि वह शोभन या सुन्दर जान पड़ने लगे। २. अच्छे वस्त्र आदि पहनाकर किसी को सुन्दर बनाना।
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फबि  : स्त्री०=फबन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फबीला  : वि० [हिं० फबि+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० फबीली] जो फब रहा हो। फबता हुआ।
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फरंगिस्तान  : पुं० [फा०] इंग्लैंड।
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फरंगी  : वि० [फा०] अंग्रेजों का। पुं० अंग्रेज जाति का व्यक्ति। फिरंगी।
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फरअन  : पुं० [अ० फ़िरअन] १. मिस्र के प्राचीन राजाओं की उपाधि। (फरो, फराओ) २. लोक-व्यवहार में ऐसा व्यक्ति जो बहुत ही अत्याचारी, अभिमानी तथा उद्दंड हो।
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फरक  : पुं० [अ० फ़र्क़] १. अलगाव। पार्थक्य। २. ऐसा भेद जो पार्थक्य के कारण हो अथवा पार्थक्य का सूचक हो। ३. दो विभिन्न वस्तुओं, व्यक्तियों आदि में होनेवाली विषमता। ४. हिसाब-किताब आदि में भूल-त्रुटि आदि के कारण पड़नेवाला अंतर। ५. एक रकम या संख्या को दूसरी रकम या संखया में से घटाने पर निकलनेवाला शेषांश। बाकी। ६. दो बिदुओं या स्थानों में होनेवाली दूरी या फासला। ७. भेद-भाव। दुराव। क्रि० वि० अलग। पृथक्। स्त्री०=फड़क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरकन  : स्त्री० [हिं० फरकना] फड़कने की क्रिया या भाव। फड़क।
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फरकना  : अ० [अ० फर्क-अंतर] १. अलग या दूर होना। २. कटकर निकल जाना। अ०=फड़कना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरका  : पुं० [सं० फलक] १. ऐसा छ्प्पर जो अलग से बनाकर बँड़ेर पर चढाया या रखा जाता है। २. बँड़ेर में एक ओर की छाजन। पल्ला। ३. झोपडियों, दरवाजों आदि के आगे लगाया जानेवाला टट्टर। पुं० दे० ‘फिरका’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरकाना  : स० [हिं० फरक-अलग] १. अलग या दूर करना। २. फरक या अन्तर निकालना या स्थिर करना। स०=फड़काना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरकिल्ला  : पुं० [हिं० फार+कील] गाड़ी आदि में लगाया जानेवाला वहा खूँटा जिसके सहारे ऊपर का ढाँचा खड़ा रहता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरकी  : स्त्री० [हिं० फरक] १. चिड़ीमारों की लासे से युक्त वह लकड़ी जिस पर चिड़ियों के बैठने पर उनके पैर, पंख आदि चिपक जाते हैं। २. दीवार की चुनाई में खड़े बल में लगाया जानेवाला पत्थर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरकौंहाँ  : वि० [हिं० फरकना+औहाँ (प्रत्यय)] १. फड़कनेवाला। २. फड़कता हुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरक्क  : पुं०=फरक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरग्रान  : पुं० [तु० फ़र्गाना] तुर्की के फरगाना नामक प्रदेश का निवासी।
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फरग्राना  : पुं० तुर्की के अन्तर्गत एक प्रदेश जहाँ बाबर का पैतृक राज्य था।
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फरचा  : वि० [सं० स्पृश्य, प्रा० फरस्स] [भाव० फरचाई] १. (खाद्य पदार्थ) जो किसी ने जूठा न किया हो। २. शुद्ध, साफ या स्वच्छ।
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फरचाई  : स्त्री० [हिं० फरचा+ई (प्रत्यय)] फरचा होने की अवस्था या भाव। शुद्धता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरचाना  : स० [हिं० फरचा] १. बरतन आदि धोकर साफ करना। फरचा करना। २. पवित्र या शुद्ध करना।
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फरजंद  : पुं० [फा० फर्जद] पुत्र। बेटा।
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फरजंदी  : स्त्री० [फा० फर्जदी] पुत्र-भाव। बाप-बेटे का नाता। मुहावरा—(किसी को) परजंदी में लेना=(क) पत्र या बेटा बनाना। (ख) दामाद अर्थात् पुत्र-तुल्य बनाना।
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फरजिंद  : पुं०=फरजंद (बेटा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फ़रज  : पुं०=फर्ज। (कर्त्तव्य)। स्त्री०=फर्ज (भग)।
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फरजाना  : वि० [फा० फ़रज़ानः] [भाव० फरजानगी] बुद्धिमान।
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फरजाम  : पुं० [फा० फ़र्जाम] १. अंत। समाप्ति। २. परिणाम। फल।
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फरजी  : पुं० [फा० फ़र्ज़ी] शतरंज का एक मोहरा जिसे रानी या वजीर भी कहते हैं। वि० [फा० फ़र्ज़ी] १. कल्पना में होनेवाला। काल्पनिक। २. जो पर्ज किया या मान लिया गया हो। ३. नकली।
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फरजीबंद  : पुं० [फा०] शतरंज के खेल में वह स्थिति जिसमें फरजी अर्थात् वजीर किसी प्यादे के जोर पर बादशाह को ऐसी शह देता है कि विपक्षी की हार हो जाती है।
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फरतूत  : वि० [फा० फ़र्तूत] अति। वृद्ध। बहुत बूढ़ा।
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फरद  : स्त्री० [अ० फ़र्द] १. वह बही जिसमें हिसाब-किताब लिखा होता है। २. सूची। तालिका। पुं० [अ० फर्द] १. एक या अकेला आदमी। एक व्यक्ति। २. एक ही तरह की और एक साथ बननेवाली अथवा एक साथ काम में आनेवाली चीजों के डोडे में से हर एक । जैसे—एक फरद धोती, एक फरद चादर आदि। ३. ढुलाई, रजाई आदि का वह ऊपरी पल्ला जिसके नीचे अस्तर लगाया जाता है। ४. दो चरणों या पदों की कविता। विशेष—यह शब्द उक्त अर्थों में लोक में प्रायः स्त्री रूप में प्रयुक्त होता है। ५. वह पशु या पक्षी जो जोड़ के साथ नहीं बल्कि अकेला और अलग रहता हो। ६. एक प्रकार का पक्षी जो बरफीले पहाड़ों पर होता है और जिसके विषय में वैसी ही बातें प्रसिद्ध हैं, जैसी चकवा और चकई के विषय में हैं। ७. एक प्रकार का लक्का कबूतर जिसके सिर पर टीका होता है। वि० १. अकेला। २. बेज़ोड़।
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फरना  : अ०=फलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरफंद  : पुं० [हिं० फर+अनु० फंद (जाल)] १. दाँव-पेंच। छल-कपट। २. केवल दूसरों को दिखाने और धोखे में डालने के लिए किया जानेवाला झूठा आचरण। ३. नखरा। चोंचला। क्रि० प्र०—खेलना।—दिखाना।—रचना।
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फरफंदी  : वि० [हिं० फरफंद] १. फरफंद करनेवाला। छल-कपट या दाँव-पेंच करनेवाला धूर्त। चालबाज। फरेबी। २. नखरेबाज। नखरीला।
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फरफर  : पुं० [अनु०] किसी पदार्थ के उड़ने, फडकने या हिलने से उत्पन्न होनेवाला फरफर शब्द। क्रि० वि० फरफर शब्द करते हुए।
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फरफराना  : स० [अनु०] फरफर शब्द उत्पन्न करना। अ० फरफर शब्द करते हुए हिलना। जैसे—डंडा फरफराना। अ० स०=फड़फड़ाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरफुंदा  : पुं०=फतिंगा।
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फरमाँबरदार  : वि० [फा० फ़र्माबरदार] [भाव० फरमाबरदारी०] आज्ञाकारी।
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फरमा  : पुं० [अं० फ़्रेम] १. वह ढांचा जिसमें रखकर उसी के अनुरूप कोई दूसरी चीज ढाली या बनाई जाती हो। डौल। साँचा। २. लकड़ी आदि का बना हुआ वह ढाँचा या साँचा जिस पर रखकर चमार जूता बनाते हैं। कालबतू। पुं० [अं० फार्म] १. कागज का पूरा तखता या ताव जो एक बार में प्रेस में जाता है। जुज। २. पुस्तकों आदि का उतना अंश जितना उक्त प्रकार के कागज पर एकसाथ छपता है। जैसे—इस पुस्तक के १॰ फरमें छप गये हैं अभी पाँच फरमे और बाकी हैं ३. छापेखाने में, ढाँचे में कसी हुई छपनेवाली सामग्री।
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फरमाइश  : स्त्री० [फा० फ़र्माइश] १. वह चीज जिसके लिए किसी से अनुरोध किया हो २. किसी काम या बात के लिए दी जानेवाली आज्ञा विशेषतः प्रेमपूर्वक दिया हुआ आदेश।
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फरमाइशी  : वि० [फा०] १. जो फरमाइश करके बनवाया या मँगाया गया हो। जैसे—फरमाइशी जूता। २. फरमाइश के रूप में होनेवाला।
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फरमान  : पुं० [फा० फ़र्मान] १. कोई आधिकारिक विशेषतः राजकीय आदेश। २. वह पत्र जिसमें उक्त आदेश लिखा हो।
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फरमाना  : स० [फा० फ़र्मान] कोई काम कहना। (बड़ो के संबंध में सम्मान-सूचक रूप में प्रयुक्त) जैसे—आपका फरमाना बिलकुल दुरुस्त है।
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फरयाद  : स्त्री०=फरियाद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरयारी  : स्त्री० [हिं० फाल] हल में की वह लकड़ी जिसमें फाल (फल) लगा रहता है। खोंपी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरराना  : अ०, स०=फहराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरलांग  : पुं० [अं० फ़रलांग] भूमि की दूरी नापने का एक मान जो २२0 गज के बराबर होता है।
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फरलो  : स्त्री० [अं० फ़रलांग] सरकारी नौकरों को आधे वेतन पर मिलनेवाली लंबी छुट्टी।
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फरवरी  : पुं० [अं० फ़्रेब्रुअरी] अँगरेजी सन् का दूसरा महीना जो अट्ठाइस दिनों का, परन्तु लौंद के वर्ष, उन्तीस दिनों का होता है।
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फरवार  : पुं०=खलिहान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरवारी  : स्त्री० [हिं० फरवार+ई (प्रत्यय)] उपजे हुए अन्न या फसल का वह भाग जो किसान खलिहान में से राशि उठाने के समय ब्राह्मण, बढ़ई, नाई आदि को देता हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरवी  : स्त्री० [सं० स्फुरण] १. एक प्रकार का भूना हुआ चावल जो भुनने पर अन्दर से पोला हो जाता है। मुरमुरा। २. दे० ‘लाई’। ‘फरुही’।
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फरश  : पुं० [अं० फ़र्श०] १. बैठने के लिए बिछाने का कपड़ा। बिछावन। २. कमरे आदि की पक्की और समतल भूमि जिस पर लोग बैठते हैं। ३. समतल प्रसार या फैलाव। जैसे—फूलों का फरश।
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फरशबंद  : पुं० [फा०] वह ऊँचा और समतल स्थान जहाँ गच का फरश बना हो।
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फरशी  : वि० [अ० फ़र्शी] १. फरश संबंधी। फरश का। पद—फरशी सलाम=बादशाही आदि को किया जानेवाला वह सलाम जिसमें आदमी को इस प्रकार झकना पड़ता था कि उसका सिर लगभग फरश तक पहुँच जाता था। २. जो फर्श पर रखा जाता या काम में लाया जाता हो। जैसे—फरशी जूता, फरशी झाड़, फरशी हुक्का आदि। पद—फरशी गोला-आतिशबाजी में वह गोला जो फरश पर पटकने पर आवाज देता है। स्त्री० १. कुछ खुले मुँह का धातु का वह आधान या पात्र जिस पर नैचा और सटक लगाकर तम्बाकू पीते हैं। २. उक्त पात्र और नैचे सटक आदि से युक्त हुक्का। गुड़गुड़ी। ३. पुरानी चाल की बन्दूक का वह अंग जिसमे गंज रखा जाता था।
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फरसंग  : पुं० [फा० फर्संग] ४००० गज या सवा दो मील की दूरी का एक नाप।
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फरस  : पुं० १. दे० ‘फरसा’। २. दे० ‘फरश’।
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फरसा  : पुं० [सं० परशु] १. पैनी और चौड़ी धार की एक प्रकार की कुल्हाड़ी, जो प्राचीन काल में युद्ध के काम आती थी। २. फावड़ा।
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फरसी  : वि०, स्त्री०=फरशी।
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फरहंग  : स्त्री० [फा० फ़रहंग] शब्द-कोश।
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फरहटा  : पुं० [हिं० फाल] [स्त्री० अल्पा० फरहटी] बाँस, लकड़ी आदि की पतली, लंबी पट्टी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरहत  : स्त्री० [अ० फ़र्हत] १. आनंद। प्रसन्नता। २. मन की प्रपुल्लता।
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फरहद  : पुं० [सं० पारिभद्र, पा० परिभद्द प्रा० पारिहद्द] एक प्रकार का वृक्ष जो बंगाल में समुद्र के किनारे बहुत होता है वहाँ के लोग इसे पालितेमंदार कहते हैं।
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फरहर  : वि० [सं० स्फार, प्रा० फार=अलग-अलग, अथवा फरहरा] १. जो एक में लिपटा या मिला हुआ न हो, अलग-अलग हो। जैसे—फरहर भात। २. साफ। स्पष्ट। ३. निर्मल। शुद्ध। ४. (मन) जिसमें उदासीनता, खेद आदि न हों। प्रफुल्लित। प्रसन्न। ५. चालाक। होशियार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरहरना  : अ०, सं० [अनु० फरहर] १. =फरफराना। २. =फहराना।
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फरहरा  : पुं० [हिं० फहराना] १. कपड़े आदि का वह तिकोना या चौकोना टुकड़ा जिसे छड़ के सिरे पर लगाकर झंडी बनाते हैं और जो हवा के झोंके से उडता रहता है २. झंडा। पताका। वि०=फरहर (देखें) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरहराना  : अ०, स०=फरहरना।
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फरहरी  : स्त्री० [हिं० फल+हरा (प्रत्यय)] वृक्षों के फल या उन्हीं के वर्ग की और चीजें जो खायी जाती हों। फलहरी। वि० स्त्री० फलाहारी। उदाहरण—सुख करिआर फरहरी खाना।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरहा  : पुं० [हिं० फल] धुनियों की कमान का वह चौड़ा भाग जिस पर से होकर ताँत दोनों सिरों तक जाती है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरहाद  : पुं० [फा० फ़र्हाद] इतिहास-प्रसिद्ध एक प्रेमी जिसने अपनी प्रेमिका शीरीं के आदेश पर पहाड़ काटकर नहर बनायी थी। कहते है कि किसी कुटनी के धोखा देने पर वह अपना सिर फोड़कर मर गया।
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फरही  : स्त्री० [हिं० फरहा] लकड़ी का वह चौड़ा टुकड़ा जिस पर ठठेरे बरतन रखकर रेती से रेतते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरा  : पुं० [देश] एक प्रकार का व्यंजन जो चावल के आटे को गरम पानी में गूँथकर और पतली बत्तियाँ बनाकर पानी की भाप में उबालने से बनता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फराक  : पुं० [फा० फ़राख] १. मैदान। २. आयताकार स्थान। वि० लंबा-चौड़ा। विस्तृत। पुं० [अं० फ़्राक] छोटी लड़कियों के पहिनने का अँगरेजी ढंग का एक तरह का लंबा पहनावा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फराकत  : वि०=फराख़। स्त्री०=फरागत।
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फराख  : वि० [फा० फ़राख] लम्बा-चौड़ा। विस्तृत।
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फराखदिल  : वि० [फा० फ़राख दिल] [भाव० फराखदिली] उदार हृदयवाला।
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फराखी  : स्त्री० [फा० फ़राखी] १. फराख अर्थात् विस्तृत होने की अवस्था या भाव। विस्तार २. धन-धान्य आदि की उचित संपन्नता। ३. वह तस्मा या चौड़ा फीता जो घोड़े की पीठ पर बाँधकर कसा जाता है। तंग।
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फरागत  : स्त्री० [अ० फरागत] १. छुटकारा। मुक्ति। क्रि० प्र०—पाना।—मिलना। २. कार्य आदि की समाप्ति पर होनेवाली निश्चिन्तता। ३. मल-त्याग, शौच आदि की क्रिया। जैसे—आप भी फरागत हो आयें। क्रि० प्र०—जाना। ३. दौलतमंदी। धन-संपन्नता। ४. सुख। वि० जिसे किसी काम, बंधन आदि से छुटकारा मिल गया हो।
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फराज  : वि० [फा० फराज] ऊँचा। पद—नसेब व फराज=किसी बात का ऊँच-नीच या भला-बुरा (पक्ष)। पुं० ऊँचाई।
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फरामुश  : वि०=फरामोश। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरामोश  : वि० [फा० फ़रामोश] [भाव० फरामोशी] १. भूलनेवाला। २. (व्यक्ति) जो किसी काम या बात का वादा करके भी उसे भल जाय और फलतः वादे के अनुसार काम न करे। पुं० लड़कों का एक खेल जिसमें वे आपस में एक-दूसरे को कोई चीज देते हैं और यदि पानेवाला तुरन्त फरामोश कह देता है तो उसकी जीत समझी जाती है, नहीं तो वह हार जाता है। क्रि० प्र०—बदना।
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फरामोशी  : स्त्री० [फा० फ़रामोशी] भूलने की अवस्था या भाव। विस्मृति।
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फरार  : वि० [अ० फ़रार] (अपराधी) जो शासन की हिरासत में आने से बचने के लिए कहीं भाग अथवा छिप गया हो। पलायित। पुं० दे० ‘फैलाव’। (विस्तार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरारी  : स्त्री० [फा० फ़रार] फरार होने की अवस्था क्रिया या भाव। वि० फरार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरालना  : स०=फैलाना।
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फराश  : पुं० [?] झाऊ की जाति का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जो पंजाब सिंध और फारस में अधिकता से होता है। पुं० १. =फर्राश। २. =पलाश। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरास  : पुं० =फर्राश।
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फरासीस  : पुं० [अं० फ्रांस] १. फ्रांस देश। २. उक्त देश का निवासी। स्त्री० पुरानी चाल की एक प्रकार की लाल छींट।
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फरासीसी  : वि० [हिं० फरासीस] फ्रांस देश का। स्त्री० फ्रांस देश की भाषा। पुं० फ्रांस देश का निवासी।
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फराहम  : वि० [फा०] [भाव० फराहमी] इकट्ठा किया हुआ।
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फरिका  : पुं०=फरका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरिया  : स्त्री० [हिं० फेरना] १. वह लहँगा जो सामने की ओर सिला नहीं रहता। २. वह ओढ़नी जो स्त्रियां लहँगा पहनने पर ऊपर से ओढ़ती है। पुं० [हिं० फिरना] रहट के चरखे के चक्कर में लगी हुई वे लकड़ियाँ जिन पर मिट्टी की हाँडि़यों की माला लटकती है। पुं० [हिं० परी=मिट्टी का कटोरा] मिट्टी की नाँद जो चीनी के कारखानों मे पाग छोड़कर चीनी बनाने के लिए रखी जाती है। हौद।
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फरियाद  : स्त्री० [फा० फर्याद] १. विपत्ति, संकट आदि में पड़ने पर सहायतार्थ की जानेवाली पुकार। २. विशेषतः दूसरों द्वारा सताये जाने आदि पर प्रमुख अधिकारी या शासक के समक्ष न्याय पाने के लिए की जानेवाली प्रार्थना। ३. न्याय की याचना के लिए न्यायालय में दिया जानेवाला प्रार्थना-पत्र।
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फरियादी  : वि० [फा० फ़र्यादी] १. फ़रियाद-संबंधी। २. फरियाद के रूप में होनेवाला। ३. फरियाद करनेवाला। ४. अभियोग उपस्थित करनेवाला। अभियोक्ता।
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फरियाना  : स० [सं० फलन या फलीकरण] १. साफ या स्वच्छ करना। २. अनाज फटकाकर उसकी भूसी आदि अलग करके उसे साफ करना। ३. विवाद का इस प्रकार अन्त करना कि दोनों पक्षों की भूलें स्पष्ट हो जायँ और दोनों को न्याय से संतोष हो जाय। निपटाना। अ० १. साफ या स्वच्छ होना। २. अनाज का भूसी आदि से अलग होना। ३. विवाद का निर्णय होना।
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फरिश्ता  : पुं० [फा० फरिश्तः] १. मुसलमानी धरमग्रन्थों के अनुसार ईश्वर का वह दूत जो उसकी आज्ञानुसार काम करता हो। जैसे—मौत का फरिश्ता। २. देव-दूत। ३. देवता। ४. कृपालु, लोकोपकारी तथा सात्त्विक वृत्तिवाला व्यक्ति।
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फरिश्तानी  : स्त्री० फारसी फरिश्ता का स्त्री। (परिहास और व्यंग्य)
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फरी  : स्त्री० [सं० फल] १. हल की फाल। कुशी २. गाड़ी का हरसा। फड़। ३. गलते का वार रोकने की चमडे़ की ढाल।
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फरीक  : पुं० [अ० फ़रीक़] १. दो परस्पर विरोधी पक्षों या व्यक्तियों में से हर एक पक्ष का व्यक्ति। पद—फरीके सानी-विरुद्ध पक्ष। मुखालिक दल। २. वादी अथवा प्रतिवादी। ३. शत्रु। वैरी।
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फरीकैन  : पुं० [अ० फ़रीक़ैन] परस्पर विरोधी दोनों पक्षों की सामूहिक संज्ञा। उभयपक्ष।
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फरीज़ा  : पुं० [अ० फरीकैन] खुदा का हुक्म जिसका पालन करना बन्दों के लिए कर्त्तव्य होता है। जैसे—नमाज रोजा हज आदि। ३. पुनीत कर्त्तव्य।
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फरीद-बूटी  : स्त्री० [अ० फरीद+हिं० बूटी] एक प्रकार की वनस्पति जिसकी पत्तियाँ बरियारे की तरह होती है।
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फरुआ  : पुं० [?] लकड़ी का वह बरतन जिसमें भिक्षुक भीख लेते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरुई  : स्त्री० १. =फरवी २. =फरुही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरुहरी  : स्त्री०=फुरहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरुहा  : पुं०=फावड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरुही  : स्त्री० [हिं० फावड़ा] १. छोटा फावड़ा। २. फावड़े के आकार का लकड़ी का बना हुआ एक औजार जिससे खेत में क्यारी बनाने के लिए मिट्टी हटायी जाती है। ३. मथानी। स्त्री०=फरबी (भुने हुए चावल)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरेंद, फरेंदा  : पुं० [सं० फलेन्द्र, प्रा० फलेन्द्र] जामुन की एक जाति जिसके फल बड़े और गूदेदार होते हैं। फलेन्दा।
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फरे-ता  : पुं० [फा० फिरेफ्तः] १. लुभाया हुआ। आसक्त। मुग्ध। २. धोखा खाया हुआ।
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फरेब  : पुं० [फा० फिरेब] १. प्रायः सत्य बात को छिपाने तथा अपने को दोष-मुक्त सिद्ध करने अथवा दूसरे को धोखा देने तथा अपना काम निकालने के लिए कही जानेवाली झूठी या बनावटी बात। २. छल-कपट।
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फरेबिया  : वि०=फरेबी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरेबी  : वि० [फा० फ़िरेब] १. फरेब संबंधी। २. फरेव या छलकपट करनेवाला। धोखेबाज। कपटी।
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फरेरा  : पुं०=फरहरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरेरी  : स्त्री०=फरहरी (फल)।
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फरैंदा  : पुं० [फां० फरिन्दः] एक प्रकार का तोता। पुं०=फलेन्दा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरो  : वि० [?] १. दबा हुआ। २. जिसका अस्तित्व न रह गया हो। ३. जो दूर हो गया हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फरोख्त  : स्त्री० [फा० फिरोख्त] बेचने या बिकने की क्रिया या भाव। विक्रय। बिक्री। जैसे—खरीद-फरोख्त। वि० [फा० फिरोख्त] बिका या बेचा हुआ।
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फरोख्तगी  : स्त्री० [फा० फ़िरोख़्तगी] फरोख्त करने अर्थात् बेचने का काम। विक्रय।
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फरोग  : पुं० [फा० फ़ुरोग़] १. रोशनी। २. रौनक। ३. ख्याति। ४. उत्कर्ष। उन्नति।
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फरोदस्त  : पुं० [फा० फ़रोदस्त] १. संगीत में एक प्रकार का संकर राग जो गौरी कान्हड़ा और पूरबी के मेल से बना होता है। २. १४ मात्राओं का एक ताल जिसमें 5 आघात २ खाली होते हैं। (संगीत)
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फरोश  : वि० [फा० फ़रोश] [भाव० फरोशी] समस्त पदों के अन्त में बिक्री करने या बेचने वाला जैसे—दिलफरोश मेवाफरोश।
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फरोशी  : स्त्री० [फा० फरोशी] १. बेचने की क्रिया या भाव २. वह माल जो बिक चुका हो। ३. बिके हुए माल से प्राप्त हुआ धन। बिक्री।
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फर्क  : पुं०=फरक।
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फर्च  : वि०=फरच।
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फर्चा  : वि०=फरचा।
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फर्ज़ंद  : पुं०=फरजंद। (बेटा)।
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फर्ज  : पुं० [अ० फ़र्ज] १. मुसलमानी धर्मानुसार वे आवश्यक कर्म जिसे न करने से मनुष्य धार्मिक दृष्टि से दोषी और पतित होता है। आवश्यक धार्मिक कृत्य। जैसे—नामज, रोजा आदि कर्म हर मुसलमान के लिए फर्ज है। २. आवश्यक और कर्त्तव्य कर्म। जैसे—मालिक की खिदमत करना नौकर का फर्ज है। क्रि० प्र०—अदा करना। ३. तर्क वितर्क के प्रसंग में, वह तथ्य या बात जो वास्तविक न होने पर कुछ समय के लिए यों ही कल्पित कर ली या मान ली जाय। अनुमानिक बात। जैसे—फर्ज कीजिए कि आप वहाँ चले गये, तो क्या होगा।
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फर्जी  : वि० [फा० फ़र्जी] १. जो फर्ज कर लिया अर्थात् तर्क-वितर्क के लिए मान लिया गया हो। २. कल्पना के आधार पर प्रस्तुत किया हुआ। कल्पित। ३. जिसकी कोई वास्तविक या विशिष्ट सत्ता न हो। पुं० [फा० फर्जी] शतरंज की फरजी नाम की गोटी।
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फर्द  : स्त्री० [फा० फ़र्द] १. कागज, कपड़े आदि का वह टुकड़ा जो किसी के साथ जुड़ा या लगा हुआ हो। २. वह कागज जिस पर कोई लेखा, विवरण या वस्तुओं की सूची लिखी हो। फरद। पद—फर्दे-जुर्म—किसी के अपराधों या अभियोगों की सूचीवाला पत्र। फर्देसजा=अपराधी को दिये हुए दंडों आदि का लेखा या विवरण।पुं० [अ०] १. वह जो अकेला हो या अकेला रहता हो। २. दे० ‘फरद’।
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फर्दनफर्दन्  : अव्य० [अ० फ़र्दन, फ़र्दन] १. एक-एक करके। २. हर एक को। ३. अलग-अलग।
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फर्म  : पुं० [अं० फर्म] कोई व्यापारिक बड़ी संस्था।
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फर्माना  : स०=फरमाना।
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फर्याद  : स्त्री०=फरियाद।
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फर्रा  : पुं० [अनु] १. गेहूँ और धान की फसल का एक रोग जो उसके फूलने के समय तेज हवा चलने से पैदा होता है। २. मोटी ईंट।
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फर्राटा  : पुं० [अनु०] वेग। तेजी। क्षिप्रता। जैसे—फर्राटे से सबक सुनना। मुहावरा—फर्राटा भरना या मारना-बहुत तेजी से दौड़ना। अव्य०खूब तेजी से दौड़ना। अव्य० खूब तेजी से। वेगपूर्वक। पुं०=खर्राटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फर्राश  : पुं० [अ० फ़र्राश] [भाव० फर्राशी] १. प्राचीन काल में वह नौकर जिसका मुख्य काम जमीन पर दरी, चांदनी आदि बिछाना होता था। २. खिदमतगार। सेवक।
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फर्राशी  : वि० [फा० फ़र्राशी] १. फर्श-संबधी। जैसे—फर्राशी पंखा-छत में लगाया जानेवाला पंखा। २. फर्श पर बिछाया जानेवाला। ३. दे० ‘फर्शी’। स्त्री० फर्राश का काम या पद।
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फर्श  : पुं० [अ० फ़र्श] १. कमरे घर आदि की पक्की तथा समतल जमीन जिस पर बैठते है। फरश। २. उक्त पर बिछाने की कोई चीज।
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फर्शी  : वि०, स्त्री० दे० ‘फरशी’।
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फलंक  : पुं०=फलक (आकाश)। स्त्री०=फलाँग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलँग  : स्त्री०=फलाँग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलँगना  : अ० =फलाँगना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलंत  : स्त्री० [हिं० फलना+अंत (प्रत्यय)] पौधों, वृक्षों आदि के फलने की क्रिया या भाव।
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फल  : पुं० [सं०√फल्+अच्] १. वनस्पितियों, वृक्षों आदि में विशिष्ट ऋतुओं में लगनेवाला वह प्रसिद्ध अंग जो उनमें फूल आने के बाद लगता है, जो प्रायः खाया जाता है तथा जिसके अंदर प्रायः उस वनस्पति या वृक्ष के बीज और कुछ अवस्थाओं में गूदा और रस भी होता है। विशेष—वनस्पति विज्ञान में अनाज के दानों (गेहूँ, चावल दाल आदि) और वृक्षों के फलों (अनार, आम, नारंगी सेब आदि) में कोई अन्तर नहीं माना जाता पर लोक व्यवहार में ये दोनों अलग-अलग चीजें मानी जाती है। २. किसी प्रकार की क्रिया घटना प्रयत्न आदि के परिमाण के रूप में होने वाली कोई बात। नतीजा। जैसे—परीक्षा-फल। ३. धार्मिक क्षेत्र में किये गये कर्मों का वह परिणाम जो दुःख सुख आदि के रूप में मिलता है। ४. जीवन में किये जानेवाले कार्यों के वे चार शभ परिणाम, जो मनुष्य के लिए अभीष्टया उद्दिष्ट कहे गये हैं। यथा—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ५. किये हुए कामों का प्रतिफल। बदला। उदाहरण—सबकी न कहे तुलसी के मते इतनो जग जीवन को फलु है।—तुलसी। ६. किसी प्रकार की प्राप्ति या लाभ। ७. अंकों आदि के रूप में वह परिणाम जिसकी प्राप्ति के लिए गणित की कोई क्रिया की जाती है। जैसे—क्षेत्र फल, गुणन-फल योग-फल। ८. गणित में वैराशिक की तीसरी राशि या निष्पत्ति में का दूसरा पद। ९. फलित ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति और योग के परिणाम के रूप में होनेवाले दुख-सुख आदि। १॰. न्याय शास्त्र में दोष या प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न होने या निकलनेवाला अर्थ जिसे गौतम ने प्रमेय के अन्तर्गत माना है। ११. किसी प्रकार के विस्तार का क्षेत्र-फल। १२. छुरी, तलवार, तीर, भाले आदि की वह तेज धारवाला या नुकीला अंग जिससे उक्त चीजें आघात या काट करती है। १३. फलक। १४. ढाल। १५. पासे पर का चिन्ह या बिन्दी। १६. ब्याज। सूद। १७. जायफल। १८. कंकोल। १९. कोरैया वृक्ष।
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फल-कंटक  : पुं० [सं० ब० स०] १. कटहल। २. श्वेत पापड़ा।
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फल-कंटकी  : स्त्री० [सं० फलकंटक+ङीष्] इंदीवरा।
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फलक  : पुं० [सं० फल+कन्] १. तखता। पट्टी। पटल। २. वह लंबा-चौड़ा कागज जिस पर कोई कोष्ठक, मान-चित्र या विवरण अंकित हो। फरद। (शीट) जैसे—दुर्वृत्त फलक। (देखें) ३. चादर। ४. तबक। वरक। ५. पुस्तक का पन्ना। पृष्ठ। ६. हथेली। ७. चौकी। ८. खाट या चारपाई का बुनावटवाला वह अंश जिस पर लोग लेटते हैं। पुं० [अं० फलक] १. आकाश। आसमान। २. ऊपरवाला लोक जो मुसलमानोंमे भाग्य का विधाता और सुख-दुःख का दाता माना जाता है। स्त्री० [अ० फलक] सबेरे का उजाला। उषा।
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फलकना  : अ० [अनु] १. छलकना। २. उमगना। ३. दे० ‘फड़कना’।
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फलक-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] ज्योतिष में एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से ज्या आदि का निर्णय किया जाता है।
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फल-कर  : पुं० [सं० ष० त०] वृक्षों के फलों पर लगनेवाला कर।
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फलका  : पुं० [अ० फलक] १. दो या अधिक खंडोवाला नाव में का वह दरवाजा जिसमें से होकर लोग ऊपर-नीचे आते-जाते हैं। २. मुलायम मिट्टी। ३. अखाड़ा। (पहलवानों का)। पुं० फफोला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फल-काम  : वि० [सं० फल√कम्+णिङ+अण्, उपपद, स०] किसी विशिष्ट फल की प्राप्ति के लिए किया जानेवाला काम।
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फल-काल  : पुं० [सं० ष० त०] वह ऋतु या मौसम जिसमें कुछ विशिष्ट वृक्ष फल देतें हो। जैसे—आमों का फल-काल गरमी और बरसात है।
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फल-कृच्छ्र  : पुं० [सं० मध्य० स] एक प्रकार का कृच्छ्र व्रत जिसमें फलों का क्वाथ मात्रा पीकर एक मास बिताया जाता है।
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फल-कृष्ण  : पुं० [सं० स० त०] १. जल आँवला। २. करंज।
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फल-केसर  : पुं० [सं० ब० स०] नारियल का वृक्ष।
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फल-कोष  : पुं० [सं० ष० त०] १. पुरुष की इंद्रिय। लिंग। २. अंक-कोश।
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फल-ग्रह  : वि० =फलग्राही।
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फलग्राही (हिन्)  : पुं० [सं० फल√ग्रह+णिनि] वृक्ष। पेड़। वि० फल ग्रहण करनेवाला।
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फल-चमस  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पुराना व्यजंन जो बड़ की छाल को कूटकर दही में मिलाकर बनाया जाता है।
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फलचारक  : पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एकराजकीय अधिकारी। २. बौद्ध विहार का एक अधिकारी।
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फलचोरक  : पुं० [सं० ब० स०] चोरक या चोर नाम का गंधद्रव्य।
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फलड़ा  : पुं०=फल (हथियारों का)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलतः  : अव्य० [सं० फल+तस्] उक्त बात के फल के रूप में। परिणामतः। इसलिए। जैसे—लोगों ने धन देना बंद कर दिया, फलतः चिकित्सालय बंद हो गया।
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फलत  : स्त्री० [हिं० फलना] १. वृक्षों के फलने की क्रिया या भाव। २. वह जो कुछ फला हो। बीजों, फलों आदि के रूप मे होनेवाली उपज। ३. कुल उपज।
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फलत्रय  : पुं० [सं० ष० त०] १. वैद्यक में, द्राक्षा, परुष और काश्मीरी इन तीनों फलों का समाहार। २. त्रिफला।
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फल-त्रिक  : पुं० [सं० ष० त०] १. भाव-प्रकाश के अनुसार सोंठ, पीपल और काली मिर्च। २. त्रिफला।
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फलद  : वि० [सं० फल√दा+क] १. फलनेवाला (वृक्ष) २. फल देनेवाला। पुं० पे़ड़। वृक्ष।
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फलदाता (तृ)  : वि० [सं० ष० त०] फल देनेवाला।
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फल-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. हिंदुओं की एक रीति जो विवाह के पहले वर-वरण के रूप में होती है। इसे वरक्षा भी कहते हैं। २. विवाह के पूर्व होनेवाली टीके की रस्म।
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फलदार  : वि० [हिं० फल+फा० दार (प्रत्यय)] १. (वृक्ष) जिसमें फल लगें हों। २. (अस्त्र) जिसके आगे घारदार फल लगा हो।
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फलदू  : पुं० [सं० फलद्रुम] एक प्रकार का वृक्ष जिसे धौली भी कहते हैं। वि० दे० ‘धौली’।
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फलन  : पुं० [सं०√फल्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० फलित] १. वृक्षों में फल उत्पन्न होना या लगना। २. किसी काम या बात का परिणाम निकलना।
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फलना  : अ० [सं० फलन] १. वृक्ष का फलों से युक्त होना। फल लगना। २. स्त्रियों का उत्पत्ति, प्रसव आदि करना। ३. गृहस्थों का संतान आदि से युक्त होना। जैसे—सदाचारी गृहस्थ का फलना फूलना। ४. किसी काम या बात का शुभ फल या परिणाम प्रकट होना। उपयोगी और फलदायक सिद्ध होना। जैसे—नया मकान उन्हें खूब फला है। उदाहरण—इतने पर भी किन्तु न उसका भाग्य फला।—मैथिलीशरण। ५. इच्छा या कामना का पूर्ण होना। सफल मनोरथ होना। पद—फलना-फूलना-(क) धन-धान्य संतान आदि से अच्छी तरह सुखी और युक्त होना। (ख) उपदंश या गरमी नामक रोग के कारण सारे शरीर में छोटे-छोटे घाव होना। परिहास और व्यंग्य) ६. शरीर के किसी भाग पर बहुत से छोटे-छोटे दानों का एक साथ निकल आना जिससे पीड़ा होती है। जैसे—गरमी से सारी कमर (या जीभ) फल गयी है। पुं० [हिं० फाल] संगतराशों की एक तरह की छेनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फल-परिरक्षण  : पुं० [सं० ष० त०] फलों को इस प्रकार रखना कि वे सड़ने-गलने न पायें। फलों को क्षतिग्रस्त होने से बचाना। (प्रिजर्वेन आफ फ्रूटस)
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फल-पाक  : पुं० [सं० ब० स०] १. करौंदा। २. जल-आँवला।
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फल-पुच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] वह वनस्पति जिसकी जड में गाँठ पड़ती हो। जैसे—प्याज, शलजम आदि।
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फल-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] [स्त्री, ०फल-पुष्पा] वह पौधा या वृक्ष जिसमें फल और फूल दोनों हों।
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फल-पूर  : पुं० [सं० फल√पूर्+क] दाड़ि। अनार।
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फल-प्रिय  : पुं० [सं० ब० स०] द्रोण काक। डोम कौवा। वि० जिसे खाने में फल अच्छे लगते हों।
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फलकंद  : पुं०=फरफंद।
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फल-फूल  : पुं० [हिं०] १. फल और फूल। २. भेंट के रूप में दी जानेवाली वस्तु।
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फल-भरता  : स्त्री, ० [सं० फल+हिं० भरना] फलों से भरे अर्थात् लदे होने की अवस्था या भाव। उदाहरण—झुक जाती है मन की डाली अपनी फल-भरता के डर में।—प्रसाद।
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फल-भूमि  : स्त्री० [सं० च० त०] स्थान जहाँ कर्मों के फल भोंगने पड़ते हों। जैसे—पृथ्वी, नरक स्वर्ग आदि।
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फल-भोजी (जिन्)  : वि० [सं० फल√भुज् (खाना)+णिनि] १. फल खानेवाला। २. केवल फलों का निर्वाह करनेवाला।
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फल-मंजरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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फल-मुख्या  : स्त्री० [सं० तृ० त०] अजमोदा।
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फल-मुग्दरिका  : स्त्री० [सं० स० त०] पिण्ड खजूर।
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फल-योग  : पुं० [सं० ष० त०] नाटक में वह स्थिति जिसमें फल की प्राप्ति या नायक के उद्देश्य की सिद्धि होती है। फलागम।
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फल-राज  : पुं० [सं० ष० त०] १. फलों का राजा। श्रेष्ठ फल। २. तरबूज। ३. खरबूजा। ४. आम।
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फल-लक्षणा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] साहित्य में एक प्रकार की लक्षणा।
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फलवर्ति  : स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का वस्ति कर्म जिसमें अँगूठे के बराबर मोटी और बारह अंगुल लम्बी पिचकारी गुदा में दी जाती है।
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फलवान्  : वि० [सं० फल+मतुप्, म+व, फलवत्] [स्त्री० फलवती] (वृक्ष आदि) जिसमें फल लगे हों। पुं० फलदार वृक्ष।
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फलविष  : पुं० [सं० ष० त०] वह वृक्ष जिसके फल विषैले होते हैं। जैसे—करंभ।
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फलश  : पुं०=फल-शाक।
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फल-शर्करा  : स्त्री० [सं० ष० त० या मध्य० स०] फलों में रहनेवाली शर्करा या चीनी जो औषधि आदि के कार्यों के लिए विशिष्ट प्रक्रिया से निकाली या बनायी जाती है। (फ्रूट शूगर)।
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फल-शाक  : पुं० [सं० मयू० स०] तरकारी बनाकर खाया जानेवाला फल।
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फल-श्रुति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. ऐसा कथन जिसमें किसी कर्म के फल का वर्णन होता है और जिसे सुनकर लोगों का वह कर्म करने की प्रवृत्ति होती है। जैसे—दान करने से अक्षय पुण्य होता है। २. उक्त प्रकार का वर्णन सुनना।
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फल-श्रेष्ठ  : पुं० [सं० ष० त० वा स० त०] आम।
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फल-संस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] ज्योतिष में आकाश के किसी ग्रह के केन्द्र का समीकरण या मंद-फल-निरूपण।
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फलसफा  : पुं० [अ० फ़ल्सफ़ः] १. ज्ञान। २. विद्या। ३. दर्शन-शास्त्र। ४. तर्क-शास्त्र। ५. तर्क, दलील।
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फलसा  : पुं० [सं० पाली] १. मुहल्ला। २. दरवाजा। पुं०=फालसा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फल-स्थापन  : पुं० [सं० ब० स०] फलीकरण या सीमन्तोन्नयन संस्कार।
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फलहरी  : स्त्री० [हिं० फल+हरी (प्रत्यय)] १. वन के वृक्षों के फल। वन-फल। २. सब प्रकार के फल। वि०=फलहारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलहार  : पुं० [सं० फलाहार] १. फलों का भक्षण। २. व्रत आदि के दिन खाये जानेवाले फल अथवा कुछ विशिष्ट फलों का बनाया जानेवाला व्यंजन।
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फलहारी  : स्त्री० [सं० फल√हृ+अण्, लहार+ङीष्, ब० स०] कालिका देवी। वि० [हिं० फलहार] १. फलहार-संबंधी। २. फलाहार के रूप में होनेवाला।
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फलाँ  : वि० [फा० फ़लाँ] कोई अनिश्चित। अमुक।
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फलाँग  : स्त्री० [?] १. एक स्थान से उछलकर दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया या भाव। कुदान। चौकड़ी। छलाँग। क्रि० प्र०—भरना।—मारना। २. उतनी दूरी जो फलाँग से पार की जाय। ३. मलखंभ की एक कसरत।
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फलाँगना  : अ० [हिं० फलाँग+ना (प्रत्यय)] एक स्थान से उछलकर दूसरे स्थान पर जाना या गिरना। फलाँग भरना। फाँदना।
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फलांश  : पुं० [सं० फल-अंश, मयू० स०] १. तात्पर्य। २. सारांश।
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फला  : स्त्री [सं०√फल्+अच्+टाप्] १. शमी। २. प्रियुंग। ३. झिझिरीट।
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फलाकना  : स०=फलाँगना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलाकाँक्षा  : स्त्री० [सं० फल-आकांक्षा, ष० त०] फल-प्राप्ति की आकांक्षा या कामना।
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फलागम  : पुं० [सं० फल-आगम, ष० त०] १. वृक्षों में फलों के आने का काल। फल लगने की ऋतु या मौसम। २. वृक्षों में फलआना या लगना। ३. शरद्-ऋतु। ४. साहित्य में रूपक की पाँच अवस्थाओं मे से पाँचवी और अंतिम अवस्था, जिसमें नायक आदि के अभीष्ट की सिद्धि होती है।
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फलाढ्य  : वि० [सं० फल-आढ्य] फलों से लदा या भरा हुआ।
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फलादन  : पुं० [सं० फल-अदन, ब० स०] १. वह जो फल खाता हो। २. तोता।
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फलादेश  : पुं० [सं० फल-आदेश, ष० त०] १. किसी बात का फल या स्वामी। फल कहना। २. ज्योतिष में वे बातें जो ग्रहों के प्रभाव या फल के रूप में बतालाई जाती है।
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फलाध्यक्ष  : पुं० [सं० फल-अध्यक्ष, ष० त०] १. फलों का मालिक या स्वामी। २. ईश्वर जो सब प्रकार के फल देता है। ३.खिरनी का पेड़।
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फलान  : स्त्री० [अ० फलाँ] स्त्री का भग। योनि। (बाजारू)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलाना  : स० [हिं० फलना का प्रे०] १. किसी को फलने मे प्रवृत्त करना। फलने का काम कराना। २. फलों से युक्त करना। वि० [वि० फलाँ] [स्त्री० फलानी] (वह) जिसका नाम न लिया गया हो। अमुक।
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फलानुमेय  : वि० [सं० फल-अनुमेय, तृ० त०] जिसका अनुमान फल या परिणाम देखने से ही किया जाय।
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फलापेक्षा  : स्त्री० [सं० फल-अपेक्षा, ष० त०] फल की अपेक्षा या कामना।
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फलाफल  : पुं० [सं० फल-अफल, द्व० स०] किसी कर्म या कार्य के शुभ-अशुभ या इष्ट-अनिष्ट फल। फल और अफल।
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फलाम्य  : पुं० [सं० फल-अम्ल, द्व० स०] १. खट्टे रसवाला या खट्टा फल। २. अम्लबेंत। ३. विषावली। विषाविल।
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फलाम्ल-पंचक  : पुं० [सं० ष० त०] बेर, अनार, विषाविल अम्लबेंत और बिजौरा ये पाँच खट्टे फल।
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फलार  : पुं०=फलाहार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलाराम  : पुं० [सं० फल-आराम, ष० त०] फलदार वृक्षों का बाग।
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फलारी  : वि०=फलाहारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फलार्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० फल√अर्थ+णिनि] वह जो फल की कामना करे। फलकामी।
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फलालीन  : स्त्री० (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)=फलालेन।
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फलालेन  : स्त्री० [अं० फ़्नानेल] एक प्रकार का ऊनी वस्त्र जो बहुत कोमल और ढीली ढाली बुनावट का होता है।
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फलावरण  : पुं० [सं० फल-आवरण, ष० त०] फलनेवाले पेड़-पौधों के फलों का वह ऊपरी आवरण जिसके अंदर बीज रहते हैं। (पेरिकॉर्प)
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फलाशन  : पुं० [सं० फल-अशन, ब० स०] १. वह जो फल खाता हो। फल खानेवाला। २. तोता।
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फलाशी (शिन्)  : पुं० [सं०√फल+अश्+णिनि] वह जो फल खाता हो। फल खानेवाला।
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फलासंग  : पुं० [फल-आसंग, स० त०] किसी क्रम के फल के प्रति होनेवाला आसंग या आसक्ति।
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फलासव  : पुं० [सं० फल-आसव, ष० त०] चरक के अनुसार दाख, खजूर आदि फलों के आसव जो २६ प्रकार के होते हैं।
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फलाहत  : स्त्री० [हिं० फलाना=फलों से युक्त करना] १. वृक्षों आदि से फल उत्पन्न करने की क्रिया, भाव या व्यवसाय। २. कृषि-कर्म। खेती-बारी। (पश्चिम)।
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फलाहार  : पुं० [सं० फल-आहार, ष० त०] फलों का आहार। स्त्री० [सं० फलाहार] अन्न-वर्ग के खाद्यानों से भिन्न कुछ विशिष्ट फलों से बनाये जानेवाले व्यंजन जो हिन्दुओं में व्रत के दिन खाये जाते हैं। जैसे—एकादशी को स्त्रियां फलाहार करती है।
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फलाहारी (रिन्)  : पुं० [सं० फलाहार+इनि] [स्त्री० फलाहारिणी] वह जो फल खाकर निर्वाह करता हो। वि० १. फलाहार संबंधी। २. (खाद्य पदार्थ) जिसकी गिनती फलाहार में होती है। (फलाहारी चीज में अन्न का मेल नहीं होती है।) जैसे—फलाहारी मिठाई।
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फलि  : पुं० [सं०√फल्+इन्] १. एक प्रकार की मछली। २. प्याला।
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फलिक  : वि० [सं० फल+ठञ्-इक] १. फल का उपभोग करनेवाला। २. किसी कार्य, घटना या बात के उपरांत उसके फल या परिणाम के रूप में होनेवाला। (रिज़ल्टैण्ट) पुं० पर्वत। पहाड़।
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फलिका  : स्त्री० [सं० फलिक+टाप्] १. एक प्रकार का बोड़ा जो हरे रंग का होता है। २. किसी चीज के आगे का नुकीला भाग।
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फलित  : भू० कृ० [सं०फल+इतच्] १. फला हुआ। २. पूरा या संपन्न किया हुआ। ३. जिसमें कुछ विशिष्ट स्थितियों आदि के परिणामों के संबंध में विचार हुआ हो। जैसे—फलित ज्योतिष (दे०) पुं० १. पेड़। वृक्ष। २. पत्थर-फोड़। छरीला।
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फलित-ज्योतिष  : पुं० [सं० कर्म० स० वा, ष० त०] ज्योतिष की दो शाखाओं में से एक जिसमें ग्रह, नक्षत्रों आदि के मनुष्य जाति तथा सृष्टि के अन्य अंगों पर पड़नेवाले शुभाशुभ फलो का विचार होता है। (एस्टा्लोजी) ज्योतिष की दूसरी शाखा गणित ज्योतिष हैं।
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फलितव्य  : वि० [सं०√फल्+तव्य] जो फलने को हो अतवा फलने के योग्य हो।
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फलिता  : स्त्री० [सं० लित+टाप्] रजस्वला स्त्री।
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फलितार्थ  : पु० [सं० फलित-अर्थ, कर्म० स०] १. तात्पर्य। २. सारांश। निचोड़।
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फलिन  : वि० [सं०फल+इनच्] (वृक्ष) जिसमें फल लगते हों। पुं० १. कटहल। २. श्योनाक। ३. रीठा।
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फलिनी  : स्त्री० [सं०फल+इनि+ङीष्] १. प्रियंगु। २. अग्नि-शिखा नामक वृक्ष। ३ मूसली। ४. इलायची। ५. मेंहदी। ६. सोनापाढ़ा। ७. भायमाणा लता। ८. जल-पीपल। ९. दुद्धी घास। १॰. दा से बनाया हुआ आसव या मद्य।
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फली  : पुं० [सं० फल+अच्+ङीष्] १. सोनापाढ़ा। २. कटहल। ३. प्रियंगु। ४. मूसली। ५. आमड़ा। वि० [सं० फल+इनि] १. फलों से युक्त। फलवाला। २. जिसमें फल लगते हों। ३. लाभदायक। स्त्री० [हिं० फल+ई (प्रत्यय)] १. पेड़-पौधों का फल के रूप में होनेवाला वह लंबोतरा अंग जिसके अंदर केवल बीज रहते हैं। गूदा या रस नहीं रहता। (पाँड) २. उक्त प्रकार का कोई चिपटा छोटा लंबोतरा तथा हरा फल जो तरकारी आदि के रूप में खाया जाता हो। छीबीं। (बीन) जैसे—सेम की फली।
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फलीकरण  : पुं० [सं० फल+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ+ल्युट-अन] [भू० कृ० फलीकृत] १. अनाज को बूसे या भूसी से अलग करना। माँड़ना। फटकना। २. भूसी।
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फलीता  : पुं० [अ० फलीतः] १. पलीता। क्रि० प्र०—दिखाना। २. बत्ती। ३. कपड़ों में शोबा के लिए गोट के साथ टाँकी जानेवाली डोरी। ४. ताबीज। मुहावरा—फलीता सुंघाना-ताबीज या यंत्र की धूनी देना।
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फलीदार  : वि० [हिं० +फा] (पौधा या फसल) जिसमें फलियँ लगती हों। (लेग्यूमिनस)
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फलीभूत  : भू० कृ० [सं० फल+च्वि, इत्व, दीर्घ√भू+क्त] जिसकी फल या परिणाम प्रत्यक्ष हो चुका हो या निकल चुका हो।
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फलेंदा  : पुं० [सं० फलेंद्र] एक प्रकार काजामुन जिसका फल बड़ा, गूदेदार और मीठा होता है। फरेंद।
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फलेंद्र  : पुं० [सं० फल-इंद्र, सुप्सुपा, स०] फलेंद्रा या बड़ा। जामुन।
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फलोत्तमा  : स्त्री० [सं० फल-उत्तमा, स० त०] १. काकलीदाख। २. दुद्धी या दूधिया घास। ३. त्रिफला।
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फलोत्पत्ति  : स्त्री० [सं० फल-उत्पत्ति, ष० त०] १. फल की उत्पत्ति। फल का प्रकट या प्रत्यत्र होना। २. व्यापार आदि में होनेवाला आर्थिक लाभ। पुं० आम (वृक्ष)।
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फलोदय  : पुं० [सं० फल-उदय० ष० त०] १. फल का प्रत्यक्ष होना। २. हर्ष। ३. दंड। ४. स्वर्ग।
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फलोद्देश  : पुं० [सं० उद्देश्य० ष० त०] दे० ‘फलोपेक्षा’।
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फलोद्बव  : वि० [सं० फल-उद्भव, ब० स] फल में से उपजने या जन्मने वाला। पुं० फल का उद्भव या उत्पत्ति।
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फलोपजीवी (विन्)  : वि० [सं० फल-उप√जी+णिनि] जिसकी जीविका फलों के व्यवसाय से चलती हो।
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फल्क  : वि० [सं०√फल्+क] जो फैला हुआ हो अथवा जिसने अपने अंग फैलाये हों।
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फल्गु  : वि० [सं०√फल्+ड, गुगागम] १. जिसमें कुछ तत्त्व न हो। निस्सार। २. निरर्थक। व्यर्थ। ३. छोटा। ४. क्षुद्र। तुच्छ। ५. साधारण। सामान्य। स्त्री० [सं०] बिहार की एक छोटी नगरी जिसके तट पर गया नगरी बसी हुई है। २. बसंत काल। ३. मिथ्या वचन। ४. कठगूलर।
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फल्गुन  : पुं० [सं०√फल्+उनन्, गुगागम] १. अर्जुन। २. फागुन का महीना। वि० १. फागुनी नक्षत्र संबंधी। २. जिसका जन्म फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ हो। ३. लाल।
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फल्गुनाल  : पुं० [सं० फल्गुन√अल्+अच्०] फाल्गुन मास।
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फल्गुनी  : स्त्री०=फाल्गुनी।
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फल्गुनीभव  : पुं० [सं० फल्गुनी√भू+अप्] बृहस्पति।
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फल्गुवाटिका  : स्त्री० [सं० फल्गु+वाटी, ष० त०+कन्, टाप्, ह्रस्व] कठगूलर।
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फल्य  : वि० [सं० फल+यत्] १. फूल। २. कली।
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फल्ला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का रेशम जो बंगाल से आता है।
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फसकड़ा  : पुं० [अनु०] टाँगें फैलाकर तथा चूतड़ के बल बैठने का ढंग या मुद्रा। क्रि० प्र०—मारना।
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फसकना  : अ० [अनु०] १. घिसने, खिंटचने दबने आदि के फलस्वरूप कपड़े का कहीं से कुछ फट जाना। मसकना। २. नीचे बैठना। धँसना ३. तड़कना। फटना। ४. स्त्री या मादा पशु के गर्भवती होना। वि० १. (पदार्थ) जो जल्दी फसक या मसक जाता हो। २. जो जल्दी धँस या बैठ जाय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फसकाना  : स० [हिं० फसकना का स०] १. कपड़े का मसकना या दबाकर कुछ फाड़ना। २. धँसाना। ३. गर्भवती करना।
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फसद  : स्त्री० [अ० फ़स्द] यूनानी या हकीमी चिकित्सा शास्त्र में नसों या रगों में से विकारग्रस्त रक्त निकालने की क्रिया या भाव। मुहावरा—फसद खुलवाना या लेना=(क) शरीर का दूषित रक्त निकलवाना। (ख) मूर्खता या पागलपन का इलाज करना। (व्यंग्य)
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फसल  : स्त्री० [अ० फस्ल] १. ऋतु। मौसम। २. उपयुक्त काल या समय। जैसे—गेहूँ या चना होने की फसल। ३. खेत में बोये हुआ अनाजों आदि की पैदावार। (साधारणतः वर्ष में दो फसलें होती हैं—रबी और खरीफ) ४. खेत में खड़े हुए अनाजों आदि के पौधे। (क्राप) ५. दाने आदि निकालने के लिए उक्त के काटे हुए अंश या बालें (हार्वेस्ट) ६. अध्याय। प्रकरण।
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फसली  : वि० [हिं० फसल] १. फसल-संबंधी। फसल का। २. किसी विशिष्ट फसल या ऋतु में होनेवाला। जैसे—फसली बीमारी, फसली बुखार। स्त्री० हैजा नामक रोग।
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फसली कौआ  : पुं० [अ० फस्ल+हिं० कौआ] १. पहाड़ी कौआ जो शीत ऋतु में पहाड़ से उतरकर मैदान में चला जाता है। २. वह जो केवल अच्छे समय में अपना स्वार्थ साधन करने के लिए किसी के साथ लगा रहे और उसकी विपत्ति के समय काम न आये। स्वार्थी। मतलबी।
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फसली बीमारी  : स्त्री० [हिं०] हैजा नामक रोग।
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फसली-बुखार  : पुं० [अ० फस्ल+बुखार] १. दो ऋतुओं के संधिकाल के समय होनेवाला ज्वर। २. वर्षा ऋतु में जाड़ा देकर आनेवाला बुखार। जूड़ी। (मलेरिया)।
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फसली सन्  : पुं० [?] एक प्रकार का सन् या संवत्। सम्राट अकबर द्वारा चलाया गया एक सन् जिसका उपयोग आजकल जमीन, लगान, मालगुजारी आदि का हिसाब रखने के कामों में होता है। इसका आरंभ भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा से होता है।
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फसाद  : पुं० [अ० फसाद] [वि० फसादी] १. बिगाड़। विकार। खराबी। २. उत्पात। उपद्रव। ३. दंगा। बलवा। ४. लड़ाई। झगड़ा।
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फसादी  : वि० [फा० फसादी] १. फसाद खड़ा करनेवाला। २. विकार उत्पन्न करनेवाला। ३. उपद्रवी। पाजी।
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फसाना  : पुं० [फा० फ़सानः] १. कोई कल्पित या साहित्यिक रचना। २. उपन्यास। पद—फसानानवीस या फसानानिगार=कहानियाँ लिखनेवाला या उपन्यासकार।
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फसाहत  : स्त्री० [अ० फसाहत] १. कहने, लिखने आदि की वह शैली जिसमें दैनिक बोलचाल के शब्दों तथा प्रयोगों की बहुलता हो और इसलिए जिसमें स्वाभाविकता तथा प्रसाद गुण हों। २. भाषण या साहित्यिक रचना में होनेवाले उक्त गुण।
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फसिल  : स्त्री०=फसल।
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फसील  : स्त्री० [अ० फ़सील] चहारदीवारी। परकोटा।
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फसीह  : वि० [अ० फ़सीह] [भाव० फसाहत] (रचना) जिसमें फसाहत अर्थात् बोलचाल के शब्दों और प्रयोगों की बहुलता हो और फलतः जिसमें स्वाभाविकता प्रसाद गुण तथा प्रवाहशीलता हो।
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फस्त  : स्त्री०=फस्द। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फस्द  : स्त्री० [अं०]=फसद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फस्ल  : स्त्री० [अं०]=फसल।
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फस्ली  : वि०, पुं० [अं०]=फसली।
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फहम  : स्त्री० [अ० फ़ह्म] १. ज्ञान। २. बुद्धि। समझ। ३. तमीज।
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फहमाइश  : स्त्री० [फा० फह्माइश] १. शिक्षा। सीख। २. आज्ञा। हुकुम। ३. चेतावनी।
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फहरन  : स्त्री० [हिं० फहरना] फहरने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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फहरना  : अ० [सं० प्रसरण] खुले या फैले हुए वस्त्र आदि की हवा में फरफर शब्द करते हुए उड़ना।
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फहरान  : स्त्री० [हिं० फहराना] १. फहराने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘फहरन’।
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फहराना  : स० [हिं० फहराना] वस्त्र आदि को इस प्रकार एक तरफ से खुला छोड़ना कि वह हवा में फर-फर शब्द करते हुए उड़ने, लहराने या हिलने लगे। जैसे—झंडा या दुपट्टा फहराना। अ० हवा के कारण इधर-उधर हिलना।
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फहरिस्त  : स्त्री०=फेहरिस्त (सूची)।
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फहश  : वि० [अ० फुहश] फूहड। अश्लील।
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फाँक  : स्त्री० [सं० फलक] १. फल आदि का कटा हुआ लंबोतरा टुकड़ा। (विशेषतः लंबाई के बल कटा हुआ टुकड़ा) जैसे—ग्राम या सेब की फाँक। २. नारंगी मुसम्मी आदि फलों के अन्दर उक्त प्रकार का होनेवाला अंग जो ऐसे ही अन्य अंगों से जुडा रहता है। ३. खरबूजे आदि फलों पर बने हुए उन प्रकृति चिन्हों में से हर एक जहाँ पर वे काटकर फाँकें बनायी जाती है।
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फाँकड़ा  : वि० [देश०] १. बाँका। तिरछा। २. हृष्ट-पुष्ट। तगड़ा।
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फाँकना  : स० [हिं० पंकी] १. चूर्ण के रूप में कोई ओषधि या अन्य पदार्थ अंजलि में लेकर झटके से मुँह में डालना। जैसे—सत्तू फाँकना, सुती फाँकना। २. भुने हुए दाने खाना। जैसे—चने फाँकना। मुहावरा—धूल फाँकना=व्यर्थ में चारों ओर घूमना तथा मारा-मारा फिरना।
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फाँका  : पुं०=फंका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फाँकी  : स्त्री० [सं० फक्किया] १. धोखा देते हुए किसी को किसी काम या बात से अलग रखना। वंचित रखना। २. छल। धोखा। क्रि० प्र०—देना। स्त्री०—फाँक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फाँग  : स्त्री० [?] एक प्रकार का साग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फाँगी  : स्त्री०—फाँग।
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फाँट  : स्त्री० [हिं० फाटना, फटना] १. यथा क्रम कई भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना। पद—फांट बंदी=वह कागज जमींदारी के हिस्सों का ब्यौरा लिखा रहता है। २. उक्त प्रकार से किये हुए विभाग। ३. किसी चीज की दर आदि का बैठाया जानेवाला पड़ता। वि० जो आसानी से तैयार किया गया हो। पुं० [?] ओषधियों को उबालकर निकाला जानेवाला रस। काढ़ा। क्वाथ।
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फाँटना  : स० [हिं० फाँटना] १. किसी वस्तु को कई भागों में बाँटना। विभाग करना। २. ओषधियों का रस निकालने के लिए उन्हें उबालना।
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फाँटा  : पुं० [हिं० फाँटना] १. लोहे या लकड़ी का वह झुका हुआ या कोणाकार टुकड़ा जो दो वस्तुओं को परस्पर जकड़े रखने के लिए जोड़ पर जड़ा रहता है। कोनिया। पुं०=फट्टा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फाँड़  : पुं०=फाँड़ा।
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फाँड़ा  : पुं० [सं० फांड=पेट] धोती के लंबाई के बल का उतना अंश जितना कमर में लपेटा जाता है। फेंटा। क्रि प्र०-कसना।—बाँधना। मुहावरा—(किसी का) फाँड़ा पकड़ना-किसी से कुछ पाने ये लेने के लिए इस प्रकार उसे पकड़ना कि वह भागने न पाये।
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फाँद  : स्त्री० [हिं० फाँदना] फाँदने की क्रिया ढंग या भाव। पुं०=फंदा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फाँदना  : अ० [सं० फणन, हिं० फानना] झोंक से शरीर को ऊपर उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा पड़ना। जैसे—नाला फाँदना। २. नर-पशु का मादा पशु से संभोग करना। स० [हिं० फंदा] १. किसी को फंदे या जाल में फँसाना। २. कोई कार्य आरम्भ करना। ठानना।
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फाँदा  : पुं०=फंदा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फाँदी  : स्त्री० [हिं० फंदा] १. वह रस्सी जिससे कई वस्तुओं को एक साथ रखकर बाँधते हैं। गट्ठा बाँधने की रस्सी। २. उक्त प्रकार से बाँधी हुई चीज। गट्ठा।
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फाँफ  : स्त्री० [देश] दरज। संधि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फाँफी  : स्त्री० [सं० पर्पटी] १. बहुत महीन झिल्ली। बारीक तह। २. दूध के ऊपर की मलाई की हलकी तह या परत। ३. आँख के ढेले पर पड़नेवाला जाला। माँड़ा।
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फाँस  : स्त्री० [सं० पाश] १. रस्सी में बनाया हुआ वह फंदा जिसमें पशु-पक्षियों को फँसाया जाता है। २. वह रस्सी जिसमें उक्त दृष्टि से फंदा डाला या बनाया गया हो। फाँसा। स्त्री० [सं० पनस] १. बाँस सूखी लकड़ी आदि का सूक्ष्म किन्तु कड़ा तंतु जो त्वचा मे चुभ जाता है। उदाहरण—जैसे मिसिरिहु में मिली निरस बाँस की फाँस।—रहीम। क्रि० प्र०—गड़ना।—चुभना।—निकलना।—लगना। २. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसी अप्रिय बात जो मन में बहुत अधिक खटकती रहे। गाँस। ३. बाँस, बेंत आदि को चीरकर बनायी हुई पतली तीली। पतली कमाची। मुहावरा—फाँस निकालना=मन में होनेवाली खटक दूर होना।
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फाँसना  : स० [सं० पाश, प्रा० फाँस] १. फाँस अर्थात् फंदे में किसी पशु या पक्षी को फँसाना। २. छल, ढंग युक्ति आदि से किसी को इस प्रकार अपने अधिकार या लश में करना कि उससे लाभ उठाया या स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। ३. बोलचाल मे किसी को फुसलाकर उससे अनुचित संबंध स्थापित करना।
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फाँसा  : पुं० [हिं० फाँसना] वह लम्बा रस्सा (या रस्सी) जिसके एक सिरे पर फंदा बना होता हैं, और जिसकी सहायता से पशुओं का गला या पैर फँसाकर उन्हें पकड़ा अथवा शत्रु के गले में फँसाकर उन्हें पकड़ा या मारा जाता है। (लैस्सो)।
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फाँसी  : स्त्री० [सं० पाशी] १. फँसाने काफंदा। पाश। २. रस्सी आदि का वह फंदा जिसे लोग अपने गले में फँसाकर आत्महत्या करने के लिए झूल या लटक जाते हैं। क्रि० प्र०—लगाना। ३. पहले देश-द्रोहियों, हत्यारों आदि को दंड देने का एक प्रकार जिसमें दो खम्भों के बीच में एक लम्बा रस्सा बँधा रहता था और रस्से के दूसरे निचले सिरे के फंदे में अपराधी का गला फँसाकर इस प्रकार झटके से उसे नीचे गिरा दिया जाता था कि गला घुटने से वह मर जाता था। मुहावरा—(किसी के लिए) फाँसी खड़ी होना=(क) किसी को फांसी दिये जाने के लिए उसकी तैयारी करना। (ख) प्राणों या संकट उपस्थित होना। जान-जोखिम होना। फाँसी चढ़ाना, लटकाना या देना-उक्त प्रकार का दंड देकर मार डालना। ४. अपराधियों को उक्त प्रकार से दिया जानेवाला प्राण-दंड। ५. कोई ऐसा संकटपूर्ण बंधन जिसमे प्राण जाने का भय हो अथवा प्राण निकलने का सा कष्ट हो। जैसे—प्रेम की फाँसी।
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फाइल  : स्त्री० [अं० फाइल] १. कार्यालयों आदि में एक ही प्रकार या विषय के आवश्यक कागज-पत्रों की नत्थी। मिसिल। २. मोटे कागज तार, दफ्ती आदि का बना हुआ वह उपकरण जिसमें उक्त प्रकार के कागज-पत्र एक साथ रखे जाते हैं। नत्थी। ४. पत्र पत्रिका आदि के ग्रंथो का समूह।
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फाका  : पुं० [अ० फाकः] निराहार रहने की अवस्था या भाव। उपवास। पद—फाकाकशी, फाकामस्त। मुहावरा—फाकों मरना-उपवास का कष्ट भोगते हुए दिन बिताना। कई-कई दिन तक भूखे रहकर कष्ट भोगना।
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फाकाकश  : वि० [अ०+फा०] [भाव०, फाकाकशी] भोजन न मिलने के कारण फाके या उपवास करनेवाला।
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फाकामस्त  : वि० [फा०] [भाव० फाकामस्ती] जो भूखों रहकर भी आनंदित तथा प्रसन्न रहता हो।
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फाका-मस्ती  : वि० [अ०+फा०] १. बुरे दिनों में भी प्रसन्न रहने की वृत्ति।
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फाके-मस्त  : वि०=फाका-मस्त।
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फाके-मस्ती  : स्त्री०=फाका-मस्ती।
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फाखतई  : वि० [हिं० फाखता] पंडुक के रंग का। भूरापन लिए हुए लाल। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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फाख्ता  : स्त्री० [अ० फ़ाख्तः] [वि० फाखतई] पंडुक नाम का पक्षी।
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फाग  : पुं० [हिं० फागुन] १. फागुन के महीने में होनेवाला उत्सव जिमसें लोग एक दूसरे पर रंग या गुलाल डालते और वसंत ऋतु के गीत गाते हैं। क्रि० प्र०—खेलना। २. उक्त अवसर पर गाये जानेवाले गीत जो प्रायः अश्लील होते हैं।
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फागुन  : पुं० [सं० फाल्गुन] शिशिर ऋतु का दूसरा महीना। माघ के बाद का मास। फाल्गुन। विक्रमी संवत् का बारहवाँ महीना।
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फागुनी  : वि० [हिं० फागुन] फागुन-संबंधी। फागुन का।
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फाजिल  : वि० [अ० फ़ाज़िल] १. आवश्यकता से अधिक। जरूरत से ज्यादा। २. बचा हुआ। अवशिष्ट। ३. किसी विषय का बहुत बड़ा ज्ञाता या विद्वान। स्नातक।
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फाजिल-बाकी  : स्त्री० [अ०] लेन-देन का हिसाब निकालने पर बची हुई वह रकम जो दी या ली जाने को हो। क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना।
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फाटक  : पुं० [सं० कपाटक] १. कारखानों, बाड़ों, बड़े मकानों महलों आदि का बड़ा और मुख्य द्वार। बड़ा दरवाजा। तोरण। मुहावरा—(किसी व्यक्ति को) फाटक मे देना- कारागार या जेल में बंद करना। (किसी पशु को) पाटक में देना—कांजीहौस या मवेशीखाने में बन्द करना। २. मकान की चहारदीवारी में लगा हुआ दरवाजा। पुं० [हिं० फटकन] अनाज फटकने पर निकलनेवाला फालतू या रद्दी अंश। पछोड़न। फटकन।
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फाटका  : [हिं० फाटक] चीजों की दर की केवल तेजी-मंदी के विचार से किया जानेवाला वह क्रय-विक्रय का निश्चय जिसकी गिनती एक प्रकार के जुए में होती है। खेला। सट्टा। (स्पेक्युलेशन) विशेष—सम्भवतः यह पहले बड़े-बड़े बाड़ों में फाटक के अन्दर होता था, इसी से इसका नाम पड़ा होगा।
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फाटकी  : स्त्री० [सं०√स्फुट्+ण्वुल्, पृषो, सिद्धि, ङीष्] फिटकरी।
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फाटना  : अ०=फटना।
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फाड़-खाऊ  : वि० [हिं० फाड़+खाना] १. फाड़ खानेवाला। कटखन्ना। २. बहुत बड़ा क्रोधी। ३. भीषण।
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फाड़न  : स्त्री० [हिं० फाड़ना] १. फाड़ने की क्रिया या भाव। २. कागज कपड़े आदि का टुकड़ा जो पाड़ने आदि से निकले। ३. मक्खन को तपाकर घी बनाने के समय उसमें से निकलनेवाली छाँछ।
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फाड़ना  : स० [सं० स्फाटन, हिं० फाटना] १. कागज, वस्त्र आदि विस्तारवाले किसीपदार्थ का कोई अंश बलपूर्वक इस प्रकार खींचना या तानना कि वह बीच में दूर तक अपने मूल से अलग हो जाय। जैसे—(क) कपड़ा या कागज फाड़ना। (ख) गुबारा फाड़ना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। २. तेज अस्त्र से किसी चीज पर आघात करके उसे कई अंगों में विभक्त करना। जैसे—कुल्हाड़ी से लकड़ी फाड़ना। ३. किसी नुकीली या पैनी चीज से किसी वस्तु का कोई अंग काटकर अलग करना या निकालना। जैसे—शेर का अपने पंजे से किसी का पेट फाड़ना। विशेष—‘तोड़ना’ और ‘फाड़ना’ में मुख्य अन्तर यह है कि तोड़ना में तो किसी वस्तु का कोई खंड बलपूर्वक अलग कर लेने का भाव-प्रधान है परन्तु फाड़ना में किसी विस्तार में दूर तक वस्तु को बीच से अलग करने का भाव मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त कोई चीज पटककर तोड़ी तो जा सकती है परन्तु फाड़ी नहीं जा सकती। ४. किसी गोलाकार वस्तु का मुँह साधारण से अधिक और दूर तक फैलाना या बढ़ाना। जैसे—आँखें फाड़कर मुँह फाड़कर उसमें कोई चीज डालना। ५. किसी गाढ़े द्रव पदार्थ के संबंध में ऐसी क्रिया करना कि उसका जलीय अंश अलग या ठोस अंश अलग हो जाय। जैसे—खटाई डालकर दूध फाड़ना।
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फातिहा  : पुं० [अ० फातिङः] १. आरम्भ। २. प्रार्थना। ३. कुरान की पहली आयत, जो प्रायः मृत व्यक्तियों की आत्मा की शांति और सदगति की कामना से उनकी कब्र या मजार पर पढ़ी जाती है। क्रि० प्र०—पढ़ना।
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फानना  : स० [सं० फारण] रूई का धुनना। स० [हिं० फाँदना] १. कार्य आरम्भ करना। ठानना। २. दे० ‘फाँदना’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फानी  : वि० [अ० फानी] नष्ट हो जानेवाला। नश्वर।
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फानूस  : पुं० [अ० फ़ानूस] १. शीशे की चिमनी जिसमें से रोशनी छन कर चारों ओर फैलती है। २. उक्त आकार-प्रकार का शीशे का वह आधान जो प्रायः छतों में लटकाया जाता है और जिसमें लगे हुए गिलासों आदि में अनेक मोमबत्तियाँ जलायी जाती है। ३. एक प्रकार का दीपाधार जिसके चारों ओर महीन कपड़े या कागज का घेरा बना होता है। कपड़े या कागज से मढ़ी हुई पिंजरे की शकल की एक प्रकार की बड़ी कंदील। ४. समुद्र के किनारे का वह ऊंचा स्थान जहाँ रात को प्रकाश होता है और उसे देखकर जहाज बंदरगाह पर पहुँचता है। कंदीलिया पुं० [अं० फरनेस] ईंटों आदि की भट्टी जिसमें लोहा आदि गलाते हैं।
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फाफर  : पुं० [सं० पर्पट] दे० ‘कूटू’।
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फाफा  : स्त्री० [अनु] दाँत गिर जाने से फा-फा करके बोलनेवाली बुढ़िया। पोपली बुढ़िया। पद—फाफे कुटनी-वह बुढ़िया (या स्त्री) जो इधर की बात उधर लगाकर दो पक्षों में झगड़ा कराती हो।
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फाफुंदा  : पुं०=फतिगा।
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फाब  : स्त्री० [सं० प्रभा] फबने की क्रिया या भाव। फवन।
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फाबना  : अ०=फबना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फायदा  : पुं० [अ० फायदः] १. किसी काम या बात में होनेवाला किसी प्रकार का लाभ। जैसे—यह दवा बुखार में बहुत फायदा करती है। २. आर्थिक क्षेत्र में होने वाली किसी प्रकार की प्राप्ति। जैसे—इस साल उन्हें रोजगार में दल हजार रूपयों का फायदा हुआ। ३. किसी काम या बात से होनेवाला वह इष्ट या शुभ परिणाम जो किसी रूप में लाभदायक या हितकर हो। किसी तरह का अच्छा असर या प्रभाव। जैसे—व्यर्थ का झगड़ा बढ़ाने से कोई फायदा नहीं होगा।
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फायदेमंद  : वि० [फा०] लाभदायक। उपकारक।
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फायर  : पुं० [अं० फायर] १. आग। २. तोप बन्दूक आदि दागने की क्रिया या भाव। फैर।
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फायर-बिग्रेड  : पुं० [अ०] पुलिस विभाग के अन्तर्गत वह दल या वर्ग जिसका काम आग बुझाना अकस्मात् जमीन के नीचे दब जानेवाले लोगों को निकालना तथा इसी प्रकार के दूसरे काम करना होता है।
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फाया  : पुं०=फाहा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फार  : पुं० [सं० स्फार] १. खण्ड। टुकड़ा। २. किसी प्रकार के चौड़े पतले अंग का विस्तार। ३. वृक्षों के पत्तों का वह मुख्य पतला और चौड़ा अंग जो डंठल के आगे निकला रहता है। (लैमिना) पुं० फाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फारखती  : स्त्री० [अ० फारिग+फा० खती] १. रुपया अदा होने की रसीद। ऋण मुक्ति का सूचक पत्र। २. वह कागज या लेख जिस पर यह लिखा हो कि अमुक व्यक्ति अपने अधिकार या उत्तरदायित्व आदि से पूर्णतः मुक्त हो गया है और प्रस्तुत विषय से उसका कोई संबंध नहीं रह गया है। जैसे—बाप ने बेटे से फारखती लिखा ली है, अर्थात् यह लिखा लिया है कि हमारी सम्पत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं है। क्रि० प्र०—लिखना।—लिखाना।
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फारना  : स०—फाड़ना।
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फारम  : पुं० [अं० फार्म] १. प्रार्थना, विवरण आदि से संबंध रखनेवाला पत्रों आदि का वह निश्चित और विहित रूप जिनमें भिन्न-भिन्न ज्ञातव्य बातों का उल्लेख करने के लिए अलग-अलग कोष्ठक, स्तम्भ या स्थान बने होते हैं। रूपक। २. इस प्रकार का बना अथवा छपा हुआ कोई कागज। ३. खेलों आदि में, खिलाड़ी की वह शारीरिक और मानसिक स्वस्थ स्थिति जो उन्हें अच्छी तरह से खेलने में समरथ करती है। जैसे—क्रिकेट का अमुक खिलाड़ी फारम में नहीं हैं। पुं० [अ० फार्म] खेती-बारी की जमीन का वह बड़ा खंड या टुकड़ा जिसमें कुछ विशिष्ट रीतियों से अधिक मात्रा में चीजें बोई जाती हों अथवा पशु-पक्षी आदि पालन और वर्धन के लिए रखे जाते हों। (फार्म)
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फारस  : पुं० [सं० पारस्य, फा० फ़ार्स] अफगानिस्तान के पश्चिम का एक प्रसिद्ध देश जिसे आज-कल ईरान कहते हैं तथा जिसमें वैदिक युग में आर्य लोग रहते थे, जहाँ कुछ दिनों बाद फारसी धर्म और अन्त में इस्लाम का प्रचार हुआ था।
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फारसी  : वि० [फा० फ़ार्सी] फारस या ईरान देश में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। फारस का। स्त्री० फारसी अर्थात् आधुनिक ईरान की भाषा जो वस्तुतः आर्य-परिवार की ही है।
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फारा  : पुं० १. =फार (फालः २. =फरा (व्यंजन)
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फारिग  : वि० [अ० फ़ारिग़] १. जो अपना कोई काम करके निश्चित हो गया हो। जिसने किसी काम से छुट्टी पा ली हो। मुक्त। स्वतंत्र। आजाद। ३. काम से फुरसत पाया हुआ। सावकाश। अवकाश-प्राप्त।
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फारिग-खती  : स्त्री० दे० ‘फारखती’।
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फारिगुलबाल  : वि० [अ० फारिग-उल्बाल] [भाव० फारिगुलबाली] १. जिस पर बाल-बराबर भी भार न रह गया हो। फलतः सब प्रकार से बेफिक्र या निश्चित। २. जो सब प्रकार से सम्पन्न और सुखी हो।
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फारी  : स्त्री०=फरिया (ओढ़नी)। उदाहरण—चनैटा खीरोद फारी।—जायसी।
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फार्म  : पुं० दे० ‘फारम’।
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फाल  : पुं० [सं० फल+अण् वा√फल्+घञ्] १. महादेव। २. बलदेव। ३. कुछ विशिष्ट पौधों या फलों के रेशों से बुना हुआ कपड़ा। विशेष—मध्य युग में रूई से बुना हुआ कपड़ा भी इसी के अन्तर्गत माना जाता था। ४. रूई का पौधा। ५. फरसा। फावड़ा। पुं० नौ प्रकार की दैवी परीक्षाओं या दिव्यों में सेएक जिसमें लोहे की तपायी हुई फाल अपराधी को चटाते थे और जीभ के जलने पर उसे दोषी और न जलने पर निर्दोष समझते थे। स्त्री लोहे का लम्बा, चौकोर छड़ जिसका सिरा नुकीला और पैना होता है और जो हल की लकड़ी के नीचे लगा रहता है कुस। कुसी। पुं० [सं० प्लव] १. चलने में एक स्थान से उठाकर आगे के स्थान में पैर डालना। डग। २. कूदने में उक्त प्रकार से एक के बाद रखा जानेवाला दूसरा पैर। फलाँग। ३. उतनी दूरी जितनी उक्त क्रियाओं के समय एक के बाद दूसरा पैर रखने में पार की जाती है। क्रि० प्र०—भरना।—रखना। मुहावरा—फाल बाँधना-फलाँग मारना। कूदकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। उछलकर लाँघना। स्त्री० [सं० फलक या हिं० फाड़ना] १. किसी ठोस चीज का काटा या कतरा हुआ पतले दल का टुकड़ा। जैसे—सुपारी की फाल। २. सुपारी के कटे हुए टुकड़े। छालिया। स्त्री० [अ० फाल] रमल में पाँसा आदि फेंककर शुभ-अशुभ बताने की क्रिया। क्रि० प्र०—देखना।—निकालना।
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फाल-कृष्ट  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. (खेत) जो जोता जा चुका हो। २. (अन्न) जो हल से जोते हुए खेत में उपजा हो। ३. कृषि या खेती से प्राप्त होनेवाला।
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फालतू  : वि० [?] १. (पदार्थ) जो उपयोग में न आ रहा हो और यों ही पड़ा या रखा हुआ हो। २. जो किसी काम का न हो। जिससे किसी प्रकार का काम न सरता हो। निरर्थक। रद्दी। जैसे—फालतू आदमी।
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फाल-नामा  : पुं० [अ०+फा] वह ग्रंथ जिसे देखकर फाल की सहायता से शकुनों या शुभाशुभ का विचार किया जाता है।
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फालसई  : वि० [हिं० फालसा+ई (प्रत्यय)] फालसे के रंग का। ललाई लिये हुए कुछ-कुछ नीला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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फालसा  : पुं० [सं० परूषक, पुरुष, प्रा० फरूस] १. एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसमें छड़ी के आकार की सीधी डालियाँ चारों ओर निकलती है और दोनों ओर सात-आठ अंगुल भर को गोल खुरदरे पत्ते तथा मटर के आकार के फल लगते हैं। २. उक्त वृक्ष का छोटा गोलाकार फल जो वैद्यक में ज्वर, क्षय तथा बात को नष्ट करनेवाला माना गया है। पुं० [?] मैदानों में भागकर आया हुआ जंगली पशु।
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फालिज  : पुं० [अ० फाजिल] अर्धाग या पक्षाघात नामक रोग। लकवा। क्रि० प्र०—गिरना।—मरना।
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फालूदा  : पुं० [फा० फालूदः] १. गेहूँ के सत्त से बननेवाला एक प्रकार का पेय पदार्थ। २. निशास्ते, मैदे आदि का बना हुआ एक प्रकार का व्यंजन जो सेवई की तरह का होता है और जो शरबत कुलफी आदि के साथ खाया जाता है।
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फाल्गुन  : पुं० [सं०√फल्+उनन्, गुक्+अण्] १. चांद्र वर्ष का अंतिम महीना जो माघ के बाद और चैत के पहले पड़ता है। फागुन। २. दूर्वा नामक सोम लता। ३. अर्जुन का एक नाम। ४. अर्जुन वृक्ष। ५. एक प्राचीन तीर्थ। ६. बृहस्पति का एक वर्ष जिसका उदय फाल्गुनी नक्षत्र में होता है।
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फाल्गुनिक  : वि० [सं० फल्गुनी या फाल्गुनी+ठक्-इक] १. फाल्गुनी नक्षत्र संबंधी। २. फाल्गुनी की पूर्णिमा से संबंध रखनेवाला। पुं० फाल्गुन मास।
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फाल्गुनी  : स्त्री० [सं० फाल्गुन+ङीष्] १. फाल्गुन मास की पूर्णिमा। २. पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र।
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फावड़ा  : पुं० [सं० फाल, प्रा० फाड़] [स्त्री० अल्पा० फावड़ी] मिट्टी खोदने का प्रसिद्ध उपकरण। फरसा। क्रि० प्र०—चलाना। मुहावरा—फावड़ा बजना=खुदाई का काम आरम्भ होना।
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फावड़ी  : स्त्री० [हिं० फावड़ा] १. छोटा फावड़ा। २. फावड़े के आकार का काठ का एक उपकरण जिससे घास, लीद मैला आदि हटाया जाता है।
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फाश  : वि० [फा० फाश] १. खुला हुआ। प्रकट। स्पष्ट। मुहावरा—परदा फाश होना=भेद या रहस्य खुलना। (प्राय बुरे प्रसंगों में)। २. जिसके आगे या ऊपर का आवरण हट गया हो। अनावृत्त।
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फासला  : पुं० [अ० फासिलः] अवकाश संबंधी दूरी। अंतर। जैसे—दो मील का फासला।
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फासिज्म  : पुं० =फैसिज्म।
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फासिस्ट  : पुं० =फैसिस्ट।
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फासिद  : वि० [अ० फासिद] १. फसाद या उपद्रव खड़ा करनेवाला। २. खराबी या विकार पैदा करनेवाला। ३. बुरा। खोटा।
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फासिला  : पुं० =फासला।
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फास्फोरस  : पुं० [यूना० अं०] एक उल्लेखनीय अधातविक तत्त्व जो अपने विशुद्ध रूप में नहीं परन्तु आक्सीजन, कैलशियम और मैगनेशियम के साथ मिला हुआ पाया जाता है।
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फाहा  : पुं० [सं० फाल=रूई या सं० पोत=कपड़ा, प्रा० पोथ, हिं० फोया] १. तेल, घी आदि में तर की हुई कपड़े की पट्टी या रूई का लच्छा। जैसे—अतर का फाहा। २. घाव, फोड़े आदि पर चिपकाया जानेवाला कपड़े का वह टुकडा जिसमें मरहम लगी रहती है।
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फाहिश  : वि० [अ० फ़ाहिश] १. अत्यन्त दूषित। बहुत बुरा। २. हेय।
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फाहिशा  : स्त्री० [अ० फ़ाहिशा] कुलटा। पुंश्चली।
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फाहुरा  : पुं० =फावड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिंकरना  : अ०=फेंकरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिंकवाना  : स०=फेंकवाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिंगक  : पुं० [सं० कलिंग+पृषो०]=फिंगा।
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फिंगा  : पुं० [सं० फिंगक] लाल पंजो, भूरे पैरों तथा पीली चोंचवाला एक तरह का पक्षी। फेंगा।
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फिकई  : स्त्री० [?] चने की तरह का एक मोटा अन्न। (बुंदेल खंड)
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फिकर  : स्त्री० =फिक्र।
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फिकरा  : पुं० [अ० फ़िक्रः] १. वाक्य। २. दूसरों को धोखा देने के लिए कही जानेवाली बात। पद—फिररेबाज—क्रि० प्र०—देना।—बताना। मुहावरा—(किसी का) फिकरा चलना=धोखा देने के लिए किसी की कही हुई बात का अभीष्ट परिणाम या फल होना। फिकरा बनाना या तराशना-धोखा देने के लिए कोई बात गढ़कर कहना। ३. व्यंग्यपूर्ण बात। मुहावरा—फिकरे ढालना या सुनाना=व्यंग्यपूर्ण बात कहना। आवाज कसना। (किसी को) पिकरा देना या बताना=किसी को झूठी आशा में रखने या टालने के लिए इधर-उधर की बातें बनाना या बहानेबाजी करना।
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फिकरेबाज  : पुं० [अ० फ़िक्र+फा० बाज] [भाव० फिकरेबाजी] १. वह जो लोगों को धोखा देने के लिए बातें गढ़-गढ़कर कहता हो। झाँसा-पट्टी देनेवाला। २. वह जो व्यंग्यपूर्ण बात कहने अथवा फबतियाँ कसने मे अग्रणी या दक्ष हो।
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फिकवाना  : स०=फेंकवाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिकार  : पुं० =फिकई (कदन्न)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिकिर  : स्त्री०=फिक्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिकैत  : पुं० [हिं० फेंकना] [भाव० फिकैती] १. गतका-फरी, पटा-बनेठी आदि का खिलाड़ी। पटेबाज। २. बरछा या भाला फेंककर चलानेवाला योद्धा।
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फिकैती  : स्त्री० [हिं० फिकैत+ई (प्रत्यय)] १. पटा-बनेठी चलाने का काम या विद्या। पटेबाजी। २. भाला आदि फेंककर चलाने की कला या विद्या।
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फिक्र  : स्त्री० [अ० फ़िक्र] १. वह मानसिक अवस्था जिसमे मन विक्षुब्ध होकर किसी होनेवाली अथवा बीती हुई बात या उसके परिणाम के सम्बंध में विकल भाव से बार-बार विचार करता रहता है और साथ ही भयभीत होता तथा दुःखी रहता है। चिंता। क्रि० प्र०—लगना। २. किसी बात के निर्वाह पालन आदि के संबंध में होनेवाला ध्यान। जैसे—उस रोगी को अपने बच्चों की फ़िक्र थी। क्रि० प्र०—होना। ३. कोई काम करने के लिए मन में किया जाने या होनेवाला विचार। ध्यान। उदाहरण—अब मौत नकारा आन बजा चलने की फ़िक्र करो बाबा।—नजीर। ४. उपाय की उद्भावना या विचार। यत्न। तदवीर। जैसे—अब तुम हमें छोड़ दो और अपनी फ़िक्र करो। ५. साहित्य में काव्य-रचना के लिए किया जानेवाला चिंतन या विचार।
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फिक्रमंद  : वि० [फा० फिक्रमंद] जिसे फिक्र या चिंता लगी हुई हो।
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फिचकुर  : पुं० [सं० पिछ-लार] मूर्च्छा के समय मुँह में से निकलनेवाली झाग या फेन। क्रि० वि०—निकलना।—बहना।
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फिट  : वि० [अ० फ़िट] १. उपयुक्त। ठीक। मुनासिब। २. जिसके सब अंग-उपांग या कल-पुरजे बिलकुल ठीक या दुरुस्त हों। हर तरह से तैयार। मुहावरा—(कल या मशीन) फिट करना=यंत्र के पुरजे आदि यथा-स्थान बैठकर उसे ठीक तरह से काम करने के योग्य बनाना। ३. जो नाप आदि के विचार से ठीक या पूरा हो अपने स्थान पर ठीक बैठनेवाला। उपयुक्त। जैसे—उन्हें यह जूता फिट आयेगा। पुं० मिरगी आदि रोगों का वह दौरा जिसमें आदमी बेहोश हो जाता है और उसके मुँह से झाग आदि निकलने लगती है। स्त्री०=फिटकार।
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फिटकार  : स्त्री० [हिं० फिट (अनु०)+कार (प्रत्य०)] १. धिक्कार। लानत। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—पड़ना। सुनना। मुहावरा—मुँह पर फिटकार बरसना=चेहरा बहुत ही फीका या उत्तर हुआ होना मुख की कांति न रहना। श्रीहत होना। (किसी को) फिटकार लगाना=किसी के फिटकारने का परिणाम दिखायी देना। २. हलकी मिलावट।
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फिटकिरी  : स्त्री० [सं० स्फटिक] सफेद रंग का एक प्रसिद्ध खनिज पदार्थ जो पत्थर के डले की तरह होता और प्रायः ओषध के काम आता है। (एलम)
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फिटकी  : स्त्री० [अनु०] १. सूत के छोटे-छोटे फुचरे जो कपडे की बुनावट में निकले रहते हैं। २. छींटा। ३. फुटकी। स्त्री०=फिटकिरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिटन  : स्त्री० [अं०] पुरानी चाल की एक तरह की चार पहियोंवाली बड़ी घोड़ा-गाड़ी जिसमें एक या दो घोड़े जोते जाते थे।
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फिटर  : पुं० [अं०] १. कलों के पुरजे दुरुस्त करने और यंत्रों में उन्हें यथास्थान बैठानेवाला मिस्त्री। २. वह दरजी जो सिले कपडों को किसी की नाप-जोख के बराबर करता हो।
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फिटसन  : पुं० [देश] कठसेमल का छोटा वृक्ष जिसकी पत्तियाँ चारे के काम में आती है।
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फिट्टा  : वि० [हिं० फिट] जो फटकार खा-खाकर निर्लज्ज हो गया हो। फटकार खाने का अभ्यस्त। जैसे—फिट्टे मुँह। पद—फिट्टे मुँह-तुम्हारे मुँह पर फिटकार पड़। तुम्हें धिक्कार है।
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फितना  : पुं० [अ० फित्नः] १. अकस्मात् होनेवाला उपद्रव। २. उत्पात। उपद्रव। ३. दंगा-फसाद। लड़ाई-झगड़ा। ४. बगावत। विद्रोह। क्रि० प्र०—उठना।—उठाना।—खड़ा करना। ५. ऐसा व्यक्ति जो बहुत ही दुष्ट प्रकृति का हो तथा दूसरों से लड़ाई-झगड़ा करता रहता हो। ६. एक प्रकार का पौधा और उसका फूल। ७. एक प्रकार का इत्र।
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फितरत  : स्त्री० [अ० फ़ित्रक] १. स्वभाव। प्रकृति। २. सृष्टि। ३. चालाकी। चालबाजी। ४. शरारत।
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फितरती  : वि० [अ० फ़ित्रती] १. चतुर। होशियार। २. चालाक। धूर्त। ३. शरारत करनेवाला।
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फितरी  : वि० [अ० फ़ित्री] १. प्राकृतिक। २. जन्म-जात। सहज।
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फितूर  : पुं०=फतूर।
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फितूरिया  : वि०=फतूरिया।
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फिदवी  : वि० [अ० फ़िद्वी] १. स्वामि-भक्त। आज्ञाकारी। २. किसी के लिए जान तक न्योछावर करनेवाला। ३. निवेदक। पुं० दास। सेवक। (स्वयं अपने संबंध में नम्रतासूचक)।
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फिदा  : पुं० [अ० फिदा] १. किसी पर कुछ न्यौछावर या बलिदान करना। २. किसी के लिए आत्म-बलिदान करना। ३. आसक्त होने की अवस्था या भाव। वि० १. दूसरे के लिए आत्म-बलिदान करनेवाला। २. अपने आप को किसी पर न्यौछावर करनेवाला। ३. पूर्णरूप से आसक्त।
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फिदाई  : वि० [अ० फिदाई] १. प्राण न्यौछावर करनेवाला। आत्म-बलिदान करनेवाला। २. जो किसी के प्रेम में पूरी तरह से पागल हो रहा हो। पुं० १. भक्त। २. आंशिक।
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फिद्दा  : पुं० =पिद्दा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिनगा  : पुं० =भुनना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिनिया  : स्त्री० [देश] कानों में पहनने का एक आभूषण।
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फिनीज  : स्त्री० [स्पे० पिनज़] एक प्रकार की छोटी नाव जिस पर दो मस्तूल होते हैं।
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फिफरी  : स्त्री०=पपड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिफ्फ  : पुं०=फेफड़ा। (राज०)
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फिया  : स्त्री० [सं० प्लीहा] प्लीहा। तिल्ली।
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फिरंग  : पुं० [अ० फ्रांक] १. यूरोप का देश। गोरों का मुल्क। फिरंगि-स्तान। २. आतशक या गरमी नामक रोग।
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फिरंगिस्तान  : पुं० [अ० फ्रांक+फा० स्तान] फिरंगियों के रहने का देश। गोरों का देश, यूरोप।
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फिंरगी  : वि० [हिं० फिरंग] १. फिरंग देश में उत्पन्न। २. फिरंग देश से सम्बन्ध रखनेवाला। ३. फिरंग रोग से सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० फिरंग देश अर्थात् यूरोप का निवासी। (उपेक्षासूचक) स्त्री० विलायती तलवार।
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फिरंट  : वि० [अ० फ्रन्ट] प्रतिकूल। विरुद्ध। (केवल व्यक्तियों के सम्बन्ध में प्रयुक्त) जैसे—आजकल वह हमसे फिरंट हो गया है।
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फिरंदर  : वि० [हिं० फिरना=घूमना] १. बराबर इधर-उधर घूमता फिरता रहनेवाला। २. बराबर इधर-उधर घूमते-फिरते रहने या उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—फिरंदर अवस्था में रहनेवाली जंगली जातियाँ।
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फिर  : अव्य० [हिं० फिरना] १. जैसा एक बार हो चुका हो, वैसा ही दूसरी बार भी। एक बार और। दोबारा। पुनः जैसे—(क) इस बार तो छोड़ देता हूँ, फिर कभी ऐसा काम मत करना। (ख) उनके मकान के बाद फिर एक बगीचा पड़ता है। पद—फिर-फिर-एक से अधिक बार। बार-बार। २. भविष्य में कभी या किसी समय। जैसे—फिर आना तो बातें होगी। ३. कोई बात हो चुकने पर। पीछे। अनंतर। उपरांत।। बाद। जैसे—जरा उससे बातें शुरू करो, फिर देखो कि वह क्या-क्या करता है। पद—फिर क्या है=तब क्या पूछना है। तब तो कोई अड़चन ही नहीं है। जैसे—अगर आप वहाँ चले जायें तो फिर क्या हैं। ५. इसके अतिरिक्त। इसके सिवाय। जैसे—फिर यह भी तो है कि वह कहाँ जाकर बैठ रहे।
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फिरक  : स्त्री० [हिं० फिरना] एक प्रकार की छोटी गाड़ी जिस पर देहाती लोग चीजों को लादकर इधर-उधर ले जाते हैं। (रुहेलखंड)।
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फिरकना  : अ० [हिं० फिरना] १. फिरकी की तरह घूमना। किस अक्ष पर घूमना या चक्कर लगाना। २. थिरकना। नाचना।
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फिरका  : पुं० [अ० फिर्क] १. जाति। २. वर्ग। ३. गिरोह। जत्था। ४. पंथ। सम्प्रदाय। ५. अफरीदियों, पख्तूनों आदि में कोई विशिष्ट वर्ग जो अलग जाति के रूप में रहता हो।
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फिरकी  : स्त्री० [हिं० फिरकना] १. चमड़े, दफ्ती, धातु आदि का वह गोल या चक्राकार टुकड़ा जो बीच की कीलों को एक स्थान पर टिकाकर उसके चारों ओर घूमता हो। २. लड़कों का एक प्रकार का छोटा खिलौना जो घुमाने से अपनी धुरी पर जोरों से घूमता हुआ चक्कर लगाता है। फिरहरी। भँभीरी। ३. चकई या चकरी नामका खिलौना। ४. धातु, लकड़ी या और किसी चीज का वह गोल टुकड़ा जो चरखे, तकले आदि में लगा रहता है। ५. मालखंभ की एक कसरत जिसमे जिधर के हाथ से मलखंभ लपेटते हैं उसी ओर गर्दन झुकाकर फुर्ती से दूसरे हाथ के कंधे पर मलखंभ को लेते हुए उड़ान करते हैं। ६. कुश्ती का एक दाँव या पेंच।
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फिरकी दंड  : पुं० [हिं०] एक प्रकार की कसरत या दंड करते समय दोनों हाथों को जमीन पर जमाकर उनके बीच में से सिर देकर चारों ओर चक्कर लगाते हैं।
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फिरकेबंदी  : स्त्री० [फा० फ़िर्कःबंदी] दलबंदी।
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फिरकैया  : स्त्री० [हिं० फिरना] १. घूमने या चक्कर लगाने की क्रिया या भाव। उदाहरण—फिरकैया लै निर्त्त अलायन बिच बिच तान रसीली। -ललित किशोरी। २. दे० ‘फिरकी’।
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फिरगाना  : पुं०=फिरंगी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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फिरता  : वि० [हिं० फिरना या फेरना] १. जो जाकर फिर आधा हो। लौटा हुआ। २. जो फेर दिया गया हो। लौटाया या वापस किया हुआ। जैसे—फिरता माल। ३. जो घूम-घूम कर फिर रहा हो अथवा घूम-फिर कर कोई काम करता हो। पुं० १. फिरने, लौटने या वापस होने की अवस्था क्रिया या भाव। २. फेरने, लौटाने या वापस करने की क्रिया या भाव। ३. दलाली के रूप में मिलनेवाला धन (दलाल)।
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फिरौदस  : पुं० [अ० फिर्दौस] १. वाटिका। बाग। २. स्वर्ग। बहिश्त।
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फिरदौसी  : वि० [अ० फ़िदौंसी] स्वर्ग में रहनेवाला। पुं० फारसी भाषा का एक महान कवि जिसकी प्रसिद्ध रचना शाहनामा महाकाव्य है।
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फिरना  : अ० [हिं० फिरना का अ०] १. किसी चीज का ऐसी स्थिति में आना, होना या लाया जाना कि वह किसी अक्ष या धुरी पर अथवा किसी विशिष्ट घेरे में या मार्ग पर घूमने या चक्कर खाने लगे। जैसे—(क) चक्की या पहिया फिरना। (ख) मनका या माला फिरना। २. किसी दिशा में घूमना या मुड़ना अथवा घुमाया या मोड़ा जाना। मुड़ना। जैसे—(क) ताले में ताली फिरना। (ख) यह गली आगे चलकर दाहिनी ओर फिर गयी है। ३. किसी मार्ग या पथ पर किसी का घूमना, विशेषतः बार-बार चक्कर लगाना। जैसे—गली में चोरों या शहर में सिपाहियों का फिरना। ४. जहाँ सेकोई चला हो उसका लौटकर फिर वही आना या पहुँचना। वापस लौटना। जैसे—साजन अब क्या फिरेंगे। ५. जो चीज जहाँ से आयी हो उसका वहीं वापस भेजा जाना। जैसे—बिका हुआ माल फिरना। ६. सूचना आदि के रूप में सबके सामने घुमाया जाना। जैसे—(क) डुग्गी या डोंगी फिरना। (ख) दुहाई फिरना। ७. घूम, मुड़ या पलटकर विरुद्ध दिशा में आना। जैसे—पीछे की ओर मुँह फिरना। मुहावरा—जी फिरना=चित्त विरक्त होना। ८. उन्मुख होना। जैसे—ध्यान फिरना। मुहावरा—किसी ओर फिरना=प्रवृत्त होना। ९. लाक्षणिक अर्थ में पहले से बिलकुल विपरीत स्थिति मे आना। दिशा बदलना। जैसे—(क) किस्मत फिरना। (ख) दिन फिरना। १॰. सामान्य या साधारण अवस्था की अपेक्षा हीन अवस्था को प्राप्त होना। जैसे—(क) बुद्धि फिरना। (ख) आँखें फिरना। (मर जाना) मुहावरा—सिर फिरना=बुद्धि भ्रष्ट होना। हर बात उलटी समझ मे आना। ११. कही हुई बात या दिये हुए वचन पर दृढ़ न रहना। मुकरना। १२.किसी तरल पदार्थ का पोता जाना। जैसे—कमरे में चूना या दरवाजों पर रंग फिरना। १३. धीरे से मला जाना। जैसे—सिर पर हाथ फिरना। १४. गुदा से गुह या विष्टा का त्यागा जाना। जैसे—झाड़ा या टट्टी फिरना।
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फिरनी  : स्त्री० [?] चीनी, मेवे आदि से युक्त एक प्रकार का खाद्य जो दूध में चौरठे को उबाल तथा जमाकर तैयार किया जाता है।
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फिरवा  : पुं० [हिं० फिरना] १. गले में पहनने का एक आभूषण। २. सोने के तार में कई फेरे डालकर बनायी जानेवाली अँगूठी।
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फिरवाना  : स० [हिं० फिरना का प्रे०] फेरने का काम दूसरे से कराना।
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फिराई  : स्त्री० [हिं० फिराना] फिराने या फेरने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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फिराऊ  : वि० [हिं० फिरना] १. जो लौट रहा हो। वापस आने या लौटनेवाला। जैसे—फिराऊ मेला। २. जिसके संबंध में यह निश्चय हो कि कोई शर्त पूरी होने या न होने की दशा में फेरा या लौटाया जा सकेगा। जैसे—फिराऊ रेहन। ३. दे० ‘जाक’।
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फिराक  : पुं० [अ० फ़िराक] १. वियोग। बिछोह। २. किसी बात की अपेक्षा या आवश्यकता होने पर उसके संबंध की चिंता या सोच। जैसे—नौकरी के फिराक में इधर-उधर घूमना। स्त्री०=फ्राक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फिराद  : (दि) स्त्री०=फरियाद।
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फिराना  : स० [हिं० फिरना] १. फिरने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कोई या कुछ फिरने लगे। २. घुमाया, टहलाया या सैर कराना। ३. चारों ओर चक्कर देना। घुमाना। ४. ऐंठना। मरोड़ना। ५. वापस करना। लौटाया। ६. दे० ‘फेरना’।
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फिरार  : वि०=फरार।
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फिरारी  : स्त्री० [देश०] ताश के खेल में उतनी जीत जितनी एक हाथ चलने में होती है। एक चाल की जीत। वि०=फरार (भागा हुआ)।
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फिरि  : क्रि० वि०=फिर।
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फिरियाद  : स्त्री०=फरियाद।
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फिरियादी  : वि०=फरियादी।
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फिरिश्ता  : पुं०=फरिश्ता।
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फिरिहरा  : पुं० [हिं० फिरना] एक प्रकार की चिड़िया जिसकी छाती लाल और पीठ काले रंग की होती है।
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फिरिहरी  : स्त्री० [हिं० फिरना+हारा (प्रत्यय)] फिरकी नाम का खिलौना।
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फिरौती  : स्त्री० [हिं० फेरना] १. फिरने या फेरने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. वह धन जो दुकानदार किसी बेची हुई वस्तु को वापस लेते वक्त विक्रय-मूल्य में से काट लेते हैं। २. वापस आने या लौटाने का भाव। पद—फिरौती में=आती या लौटती बार। वापसी में।
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फिर्का  : पुं०=फिरका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फ़िलहकीकत  : अव्य० [अ० फ़िलहक़ीक़त] हकीकत में० सचमुच। वस्तुतः।
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फिलहाल  : अव्य० [अ० फ़िलहाल] इस समय। अभी।
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फिल्म  : स्त्री० [अ० फ़िल्म] [वि० फिल्मी] १. फोटो या छाया-चित्र उतारने के लिए रासायनिक क्रिया से बनायी हुई एक प्रकार की लम्बी पट्टी। २. उक्त प्रकार की वह पटटी जिस पर चल-चित्र या सिनेमा के चित्र अंकित होते हैं। ३. उक्त की सहायता से दिखाया जानेवाला चल-चित्र।
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फिल्मी  : वि० [अं० फिल्म+हिं० ई (प्रत्य०)] १. फिल्म संबंधी। फिल्म का। २. चल-चित्र या सिनेमा संबंधी। जैसे—फिल्मी गीत।
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फिल्ली  : स्त्री० [देश] १. लोहे की छड़ का एक टुकड़ा जो जुलाहों के करघे में तूर में लगाया जाता है। स्त्री०=पिंडली।
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फिस  : अव्य० [अनु०] कुछ भी नहीं। (व्यंग्य) जैसे—टाँय टाँय फिस।
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फिसड्डी  : वि० [अनु० फिस] [भाव० फिसड्डीपन] १. जो किसी प्रकार की प्रतियोगिता में सबसे पीछे रह गया हो या हार गया हो। २. सबसे पिछड़ा हुआ। ३. जिसमें कुछ करते-धरते न बनता हो। अकर्मण्य। निकम्मा।
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फिसफिसाना  : अ० [अनु० फिस] ढीला, मंद या शिथिल पड़ना या होना।
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फिसलन  : स्त्री० [हिं० फिसलना] १. फिसलने की क्रिया या भाव। २. ऐसा स्थान जहाँ से अथवा जहाँ पर कोई फिसलता हो। ३. ऐसा स्थान जहाँ काई, चिकनाई आदि के कारण पैर फिसलता हो।
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फिसलना  : अ० [सं० प्रसरण] १. किसी स्थान पर काई, चिकनाहट, ढाल आदि के कारण पैरों हाथों आदि का ठीक तरह से जमकर न बैठना और फलतः उस पर रगड़ खाते हुए कुछ दूर आगे बढ़ जाना। रपटना। जैसे—(क) सीढ़ियों पर पैर फिसलने के कारण नीचे आ गिरना। (ख) शीशे पर हाथ फिसलना। २. लाक्षणिक रूप में किसी प्रकार का आकर्षक या लाभदायक तत्त्व देखकर उचित मार्ग से भ्रष्ट होते हुए सहसा उस ओर प्रवृत्त होना। जैसे—तुम तो कोई अच्छी चीज देखकर तुरन्त फिसल पडते हों। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना। वि० जिस पर सहज मे कुछ या कोई फिसल सकता हो। फिसलनवाला। जैसे—फिसलना पत्थर।
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फिसलाना  : स० [हिं० फिसलना का स०] किसी को फिसलने में प्रवृत्त करना।
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फिहरिस्त  : स्त्री०=फेहरिस्त। (सूची)।
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फींचना  : सं०=फीचना।
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फी  : अव्य० [अं० फ़ी] हर एक। प्रत्येक। जैसे—फी अदमी दो रुपये लगेंगे। स्त्री० [अनु०] ऐब। त्रुटि। दोष। क्रि० प्र०—निकालना। स्त्री० [अं० फ़ी] फीस।
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फीचना  : सं० [अनु० फिच्-फिच्] कपड़े को गीला करके और बार-बार पटकर साफ करना। पछाड़ना।
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फीक  : स्त्री० [?] चाबुक की मार।
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फीका  : वि० [सं० अपक्क, प्रा० अपिक्क] १. (खाद्य पदार्थ) जिसमें आवश्यक, उपयुक्त अथवा यथेष्ठ मिठास रस अथवा स्वाद न हो जैसे—फीका दूध (जिसमें यथेष्ट मिठास न हो) फीकी तरकारी (जिसमें यथेष्ठ नमक-मिर्च न हो) २. (रंग) जो यथेष्ठ चमकीला या तेज न हो। धूमिल मलिन। जैसे—चार दिन में ही साड़ी का रंग फीका हो जायगा। ३. (खेल, तमाशा आदि) जिसमें आनंद की प्राप्ति न हुई हो। ४. (पदार्थ या व्यक्ति) कांति, तेज, प्रभा आदि से रहित या हीन। जैसे—मुझे देखते ही उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया। मुहावरा—(किसी व्यक्ति का) फीका पड़ना-लज्जित होने के कारण निष्प्रभ या श्री-हत होना। ५. जिसका अभीष्ट या यथेष्ठ परिणाम न हुआ हो अथवा प्रभाव न पड़ा हो। उदाहरण—नीकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि।—बिहारी। ६. (व्यक्ति का शरीर) जो हलके ज्वर के कारण कुछ गरम और तेजहीन या सुस्त हो गया हो। (स्त्रियाँ) जैसे—हाथ लगाकर देखा तो पिंडा फीका लगा।
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फीता  : पुं० [पुर्त] १. सूत आदि की बुनी हुई बहुत कम चौड़ी और बहुत अधिक लम्बी वह धज्जी या पट्टी जो कई प्रकार की चीजें बाँधने और कई प्रकार के कपडों पर टाँकने के काम आती है। जैसे—जूता बाँधने की फीता, साड़ी पर टाँकने का फीता। २. उक्त प्रकार की वह धज्जी या पट्टी जिस पर इंचों आदि के चिन्ह बने होते हैं और जो चीजों की ऊँचाई, गहराई लंबाई आदि नापने के काम आती है। (टेप)।
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फीफरी  : स्त्री०=फफरी।
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फीरनी  : स्त्री०=फिरनी (खाद्य पदार्थ)।
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फीरोज़  : वि० [फा० फ़िरोज़] १. विजयी। २. सफल। ३. सुखी और सम्पन्न। ४. भाग्यवान। फीरोज के रंग का। हरापन लिये नीले रंग का।
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फीरोजा  : पुं० [फा० फ़ीरोज] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर या रत्न जो हरापन लिये नीले रंग का होता है।
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फीरोजी  : वि० [फा० फ़ीरोज़ी] फीरोजी के रंग का। हरापन लिये नीला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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फील  : पुं० [फा० फ़ील] हाथी।
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फीलखाना  : पुं० [फा०] वह स्थान जिसमें हाथी रखे जाते हैं। हस्तिशाला। हथिसार।
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फीलपा  : पुं० [फा०] एक प्रकार का रोग जिसमें पैर या हाथ फूलकर बहुत मोटा हो जाता है।
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फीलपाया  : पुं० [फा० फ़ीलपा] १. ईंटों का बना हुआ वह मोटा खम्भा जिस पर छट ठहरायी जाती है। २. पाँव सूजने का एक रोग। पुं०=फीलपा (रोग)।
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फीलवान  : पुं०=महावत। (हाथीवान)।
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फीला  : पुं० [फा० फ़ीलः] शतरंज के खेल में हाथी नाम का मोहरा।
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फीली  : स्त्री०=पिंडली।
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फीस  : स्त्री० [अं० फ़ी] १. कुछ विशिष्ट व्यवसायियों को उनके विशिष्ट कृत्यों के बदले मे पारिश्रमिक के रूप में दिया जानेवाला धन। जैसे—डाक्टर या वकील की फीस। २. वह धन जो विद्यार्थी को किसी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के बदले मे मासिक रूप से देना पड़ता है। शुल्क। ३. कर।
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फी-सदी  : अव्य० [फा० फ़ी सदी] हर सौ के हिसाब से। प्रतिशत।
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फुँकना  : अ० [हिं० फूँकना का अ० रूप] १. वस्तु आदि का जलकर पूर्णतया भस्म होना। जैसे—मकान या शव फूँकना। २. वायु का फूँककर किसी चीज में भरा जाना। जैसे—गुब्बारा फूँकना। ३. धन आदि का बहुत ही बुरी तरह से और व्यर्थ बरबाद या व्यय होना। पुं० १. धातु, बाँस आदि की वह पतली नली जिससे हवा फूँककर आग सुलगायी जाती है २. भाथी। ३. फुँकैया। (दे०) ४. गुरदा। (शरीर का अंग)।
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फुँकरना  : अ० [हिं० फुँकार] फूत्कार करना। फूँ० फूँ शब्द करना।
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फुँकवाना  : स० [हिं० फूँकना का प्रे०] फूँकने का काम दूसरे से कराना।
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फुँकाना  : स०=फुँकवाना।
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फुँकार  : स्त्री०=फूत्कार।
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फुँकारना  : अ०=फुँकरना।
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फुँकैया  : पुं० [हिं० फूँकना] १. हवा फूँकने या फूँककर भरनेवाला व्यक्ति। २. व्यर्थ धन नष्ट बरबाद या व्यय करनेवाला व्यक्ति।
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फुँदना  : पुं० [हिं० फूल+फंदा] [स्त्री० अल्पा० फुँदिया] १. कली, फूल आदि के रूप में ऊन, सूत आदि की बनी हुई छोटी गाँठ या लच्छी जो दुपटटे, चादर, साड़ी आदि के किनारे पर बनी या लगी हुई झालर के नीचे लटकायी जाती है। २. उक्त आकार-प्रकार की कोई गाँठ। जैसे—तराजू की डंडी का फुँदना।
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फुँदारा  : वि० [हिं० फुँदना] जिसमें फुँदने टँके या लगे हों। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुँदिया  : स्त्री० हिं० फुँदना का स्त्री० अल्पा०।
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फुँदी  : स्त्री०=बिंदी।
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फुँसी  : स्त्री० [सं० पनसिका, पा० फनस] रक्त आदि के विकार के कारण त्वचा पर निकलनेवाला ऐसा छोटा दाना जिसमे कुछ मवाद भी हो।
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फुआ  : स्त्री०=बूआ।
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फुआरा  : पुं०=फुहारा।
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फुकना  : स्त्री० [हिं० फुँकना] १. फुँकने की अवस्था या भाव। २. दाह। जलन।
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फुकना  : अ०=फुँकना पुं० [स्त्री० अल्पा० फुँकनी] वह बड़ी नली जिससे फूँक मारकर आग सुलगाते हैं।
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फुकनी  : स्त्री० हिं० ‘फुकना’ का स्त्री० अल्पा०।
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फुकाना  : स०=फुँकाना।
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फुक्क  : वि० [हिं० फुँकना] १. जो जलने या जलाये जाने पर पूर्णतः भस्म हो गया हो। २. (धन) जो पूर्णतः बरबाद या व्यर्थ व्यय हो चुका हो। पुं०=फुक्कू।
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फुक्कू  : वि० [हिं० फूँकना] १. फूँकने या भस्म करनेवाला। २. धन व्यर्थ नष्ट करनेवाला।
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फुचड़ा  : पुं० [देश] बुनावटवाली वस्तुओं में बाहर निकला हुआ सूत या रेशा। जैसे—इस झोले में जगह-जगह फुचड़े निकल आये हैं। क्रि० प्र०—निकलना।
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फुचला  : पुं० [अ० फुजलः] १. जूठा बचा हुआ भोजन। जूठन। २. बचा हुआ रद्दी अंश। सीटी। ३. मैल। ४. गुह। मल।
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फुट  : वि० [सं० स्फुट] १. जिसका जोड़ा न हो। एकाकी। अकेला। २. जो किसी क्रम या श्रृंखला से अलग हो। पृथक्। जुदा। वि० [हिं० फूटना] टूटा हुआ। जैसे—फुटमत। पुं० [अं०] १. लम्बाई नापने का एक उपकरण जो १२ इंच लम्बा होता है। २. उक्त लम्बाई का मान।
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फुटक  : पुं०=फुटका। उदाहरण—पानी पर पराग परि ऐसी बीर फुटक भरी आरसि जैसी।—नंददास (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)।
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फुटकर  : वि० [सं० स्फुट+हिं० कर (प्रत्यय)] १. जो युग्म न हो। जिसका जोड़ या जोडा़ न हो। अयुग्म। २. जो किसी विशिष्ट मद या वर्ग में हो और इसी कारण उन सबसे अलग रहकर अपना अलग वर्ग बनाता हो। भिन्न-भिन्न या अनेक प्रकार का। कई मेल का। जैसे—फुटकर कविता, फुटकर खर्च, फुटकर चीजों की दुकान। ३. (माल या सौदा) जो इकट्ठा या एक साथ नहीं, बल्कि अलग-अलग या खंडों में आता या रहता हो। थोक का विपर्याय। जैसे—फुटकर माल बेचनेवाला दुकानदार।
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फुटकल  : वि०=फुटकर।
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फुटका  : पुं० [सं० स्फोटक] [स्त्री० अल्पा० फुटकी] १. फफोला। छाला। २. उक्त आकार-प्रकार का कोई छोटा दाग या धब्बा। ३. उक्त आकार-प्रकार का कोई छोटा कण। क्रि० प्र०—पड़ना। ४. भुनी हुई ज्वार, धान, मक्के आदि का लावा। पुं० [?] ऊख का रस पकाने का बड़ा कड़ाहा।
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फुटकी  : स्त्री० [सं० पुटक] १. किसी वस्तु के छोटे लच्छे या जमे हुए कण जो किसी तरल पदार्थ में अलग-अलग ऊपर तैरते हुए दिखायी पड़ते हैं। बहुत छोटी अंठी। जैसे—(क) जब दूध फट जाता है तब उसके ऊपर फुटकियाँ सी दिखायी पड़ती हैं। (ख) रोगी के कफ (या थूक) में खून की फुटकियाँ दिखायी देती हैं। ३. फुदकी (चिड़िया)।
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फुट-नोट  : पुं० [अं०] पाद-टिप्पणी।
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फुट-बाल  : पुं० [अं०] १. हवा भरा हुआ रबड़ का वह बड़ा गेंद जिस पर चमड़े की खोली भी चढ़ी होती है तथा जिसे पैर की ठोकर से उछालकर खेला जाता है। २. गेंद से खेला जानेवाला खेल।
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फुट-मत  : पुं० [हिं० फूटना+सं० मत] १. ऐसी स्थिति जिसमें दो या अधिक पक्षों विशेषतः परिवार, संस्था आदि के विभिन्न सदस्यों में किसी बात के संबंध में कई परस्पर विरोधी मत होते हैं। मत-भेद। २. फूट (देखें)।
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फुटहरा  : पुं०=फुटेहरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुटा  : पुं० [अं० फ़ुट] लम्बाई नापने का वह उपकरण जिस पर इंचों और फुटों के निशान और अंक बने रहते हैं। (फुट रूल)।
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फुटेहरा  : पुं० [हिं० फूटना+हरा=पल] १. ज्वार, मकई आदि का भुना हुआ वह दाना जो फूटकर खिल गया ह। २. खूब जोरों की हँसी। मुहावरा—फुटेहरा फुटना=जोर की हँसी होना। (व्यंग्य)
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फुटैल  : वि०=फुट्टैल।
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फुट्ट  : वि० दे० ‘फुट’।
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फुट्टक  : पुं० [सं०] [स्त्री० फुट्टिका] एक तरह का कपड़ा।
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फुट्टैल  : वि० [सं० स्फुट, प्रा० फुट+ऐल(प्रत्यय)] १. पक्षी या पशु जो झुंड या दल से फूटकर अलग हो गया हो। २. जो अपने जोड़े के साथ न रहता हो। ३. बदकिस्मत। हत-भाग्य।
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फुतूर  : पुं०=फतूर।
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फुतूरिया  : वि०=फतूरिया।
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फुतूरी  : वि०=फतूरिया।
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फुत्कार  : पुं०=फूत्कार।
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फुत्कृत  : भू० कृ० [सं०] फूँका हुआ।
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फुत्कृति  : स्त्री० [सं० फूत्√कृ+क्ति]=फुत्कृति (फूत्कार)।
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फुदकना  : अ० [अनु०] १. थोड़ी-थोड़ी दूर पर उछलते हुए यहाँ से वहाँ तथा वहाँ से यहाँ आते-जाते रहना। जैसे—चिड़ियों का पेड़ों की डालियों पर फुदकना। २. उमंग में आकर अथवा प्रसन्नतापूर्वक उछलते हुए इधर-उधर आना-जाना।
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फुदकी  : स्त्री० [हिं० फुदकना] फुदकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का भाव। क्रि० प्र०—भरना। २. एक प्रकार की छोटी चिड़िया जो उछल-उछलकर या फुदकती हुई चलती हैं। ३. टिड्डी।
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फुनंग  : पुं०=फुनगा।
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फुन  : अव्य० [सं० पुनः] १. पुनः। फिर। २. और। ३. भी।
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फुनक  : स्त्री० १. =फूत्कार। २. =फुनगी (छोटा फुनगा)।
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फुनकार  : स्त्री०=फुत्कार।
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फुनगा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० फुनगी] १. वृक्ष की शाखा का अग्र भाग जिसमें कोमल पत्ते होते हैं। फुनंग। २. आलू, कपास आदि की फसलों का एक रोग। सूँडी।
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फुनना  : पुं०=फुँदना।
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फुनि  : अव्य०=फुन (फिर)। पद—फुनि-फुनि-(क) बार-बार। (ख) रह-रहकर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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फुफ्फुस  : पुं० [सं०] [वि० फौप्फुसीय] फफड़ा।
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फुफँदी  : स्त्री० १. =फुबती (नीवी)। २. =फफूँदी।
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फुफकाना  : अ०=फुफकारना।
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फुफकार  : स्त्री० [हिं० फुफकार] क्रोध में आकर मुँह से फूँ-फूँ करना। (जिससे आघात करने का भाव भी सूचित होता है)। फूत्कार करना।
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फुफनी  : स्त्री०=फफूँदी।
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फुफी  : स्त्री०=फूफी (बूआ)।
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फुफू  : स्त्री०=फूफी (बूआ)।
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फुफेरा  : वि० [हिं० फुफा+एरा (प्रत्यय)] [स्त्री० फुफरी] १. फूफा संबंधी। २. फूफा से उत्पन्न। जैसे—फुफेरा भाई।
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फुर  : वि० [हिं० फुरना] सत्य। सच्चा। उदाहरण—पिता बचन फुर चाहिअ कीन्हा।—तुलसी। अव्य० सचमुच। वास्तव में। पुं० [अनु०] पक्षियों के उड़ने पर होनेवाला शब्द। पद—फुर से=(क) फुर शब्द करते हुए। (ख) एकाएक। जल्दी से।
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फुरकत  : स्त्री० [अ० फ़ुर्क़त] वियोग। जुदाई। बिछोह।
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फुरकना  : सं० [अनु०] जुलाहों की बोली में किसी वस्तु को मुँह से चबाकर साँस के जोर से थूकना। अ०=फड़कना।
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फुरकाना  : स०=फड़काना।
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फुरती  : स्त्री० [सं० स्फूर्ति] [वि० फुरतीला] १. स्वस्थ शरीर का वह गुण जिससे कोई उमंग से तथा शीघ्रतापूर्वक किसी काम में प्रवृत्त या संलग्न होता तथा अपेक्षाकृत थोड़े समय में ही उसका सम्पादन करता है २. शीघ्रता। क्रि० प्र०—करना।
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फुरतीला  : वि० [हिं० फुरती+ईला (प्रत्यय)] [स्त्री० फुरतीली] १. जिसमें फुरती हो। पुरती से काम करनेवाला। २. बहुत तेज चलनेवाला।
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फुरन  : स्त्री० [हिं० फुरना] फुरने की क्रिया या भाव।
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फुरना  : अ० [सं० स्फुरण, प्रा० फुरण] [भाव० फुरन] १. स्फुरित होना। उद्भूत या प्रकट होना। निकलना। जैसे—मुँह से बात फुरना। २. ठीक या पूरा उतरना। सत्य सिद्ध होना। ३. अर्थ या आशय समझ में आना। ४. किसी सोची हुई बात का पूरा या सफल होना। ५. चमकना। ६. परों का फड़फड़ाना।
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फुरनी-दाना  : पुं० [फुरनी ?+हिं० दाना] एक प्रकार का चबैना जिसमें चना और चिवड़ा एक साथ मिला रहता है और जो प्रायः घी या तेल में भुना हुआ होता है।
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फुरफुर  : स्त्री० [अनु०] पक्षियों के उड़ते समय तथा परों के फड़फड़ाने से उत्पन्न होनेवाला शब्द।
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फुरफुराना  : अ० [अनु० फुर० फुर] [भाव० फुरफुराहट] १. किसी चीज का इस प्रकार हिलना कि उससे फुर-फुर शब्द हो। जसे-चिड़ियों या फतिगों का फुरफुराना। २. फहराना। स०१. कोई चीज का इस प्रकार हिलना कि उससे फुर-फुर शब्द हो। २. फड़फड़ाना।
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फुरफुराहट  : स्त्री० [अनु०] फुर-फुर शब्द करने या होने की क्रिया या भाव।
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फुरफुरी  : स्त्री० [अनु० फुर फुर] १. कुछ समय तक बराबर होता रहनेवाला फुर-फुर शब्द मुहावरा—(चिड़ियों का) फुरफुरी लेना=उड़ने के लिए पंख फड़फड़ाना।
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फुरमान  : पुं०=फरमान।
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फुरमाना  : सं०=फरमाना।
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फुरसत  : स्त्री० [अ० फ़ुर्सत] १. अवसर। समय। २. हाथ में कोई काम न होने के कारण अवकाश या समय। क्रि० प्र०—देना।—निकालना।—मिलना। पद—फुरसत से=अवकाश के समय। ३. झंझट बखेड़े, रोग आदि से होनेवाली मुक्ति।
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फुरसा  : पुं० [?] बालू के रंग का एक प्रकार का छोटा किंतु भीषण साँप।
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फुरसी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की सजा जो किसी अपराधी को सजा भोगते रहने की दशा में फिर पहले का सा अपराध करने पर दी जाती है औ पहले मिली हुई सजा के साथ जोड़ दी जाती है।
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फुरहरना  : अ० [सं०] फूटकर निकलना। प्रार्दुभूत होना।
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फुरहरा  : पुं० [हिं० फुरना=स्फुरण] १. ज्वार, मकई आदि के दानों का वह खिला हुआ रूप जो उन्हें भूनने पर प्राप्त होता है। २. खूब जोरों की हँसी। ठहाका। क्रि० प्र०—फूटना।
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फुरहरी  : स्त्री० [अनु०] १. फुर-फुर शब्द करने या होने की अवस्था या भाव। फुरफुराहट। २. पक्षियों के पर फड़फड़ाने का शब्द। मुहावरा—(पक्षियों का) फुरहरी खाना या लेना=पक्षियों का मग्न होकर अपने पर फड़फड़ाना। ३. कपड़े आदि के हवा में हिलने के कारण की क्रिया या शब्द। फरफराहट। ४. सरदी, भय आदि के कारण होनेवाली थरथराहट या रोमांच। रोमांचयुक्त कम्प। क्रि० प्र०—आना।—खाना।—लेना। ५. वह सींक जिसके सिरे पर हलकी रूई लपेटी हो और जो तेल, इत्र, दवा आदि में डुबोकर काम में लायी जाय।
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फुराना  : स० [हिं० फुर] १. कथन आदि पूरा उतारना। सच्चा ठहराना। २. प्रमाणित या सिद्ध करना। अ०=फुरना।
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फुरि  : वि०=फुर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुरेरी  : स्त्री०=फुरहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुरेरू  : स्त्री० [अनु० फुर] १. आवेश। जोश। २. साहस। हिम्मत। (बुदेल०) उदाहरण—देशराज के साथ अपने को पाकर बिक्रम को फुरेरू आ गयी।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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फुरै  : अव्य० [हिं० फुलना] सचमुच।
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फुर्ती  : स्त्री०=फुरती।
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फुर्सत  : स्त्री०=फुरसत।
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फुलंगो  : स्त्री० [हिं० फुल] पहाड़ों में होनेवाली जंगली भाँग का वह पौधा जिसमें बीज बिलकुल नहीं लगते (कलंगों से भिन्न)।
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फुल  : पुं० [हिं० फूल] हिं० ‘फूल’ का वहसंक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के आरम्भ में लगने से प्राप्त होता है जैसे—फुलझड़ी, फुलवारी आदि। पुं०=फूल। (पश्चिम)।
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फुलई  : स्त्री० [हिं० फूल] वनस्पतियों में वह सींका जिसके अगले भाग में फूल लगे होते हैं। जैसे—सरकंडे की फुलई।
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फुलका  : वि० [हिं० ‘हलका’ का अनु०] फूल का तरह हलका। फूल जैसा। जैसे—हलका फुलका। पुं० [स्त्री० अल्पा, फुलकी] १. हलकी और फूली हुई रोटी। चपाती। २. एक प्रकार का छोटा कड़ाहा जिसमें रस से चीनी बनायी जाती है। ३. छाला। फफोला।
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फुलकारी  : स्त्री० [हिं० फूल+कारी (प्रत्य)] १. कपड़े पर सूत आदि से फूल-पत्तियाँ बनाने के काम। २. एक प्रकार का कपड़ा जिसमें मामूली मलमल आदि पर रंगीन रेशमी डोरियों से फूल-बूटियाँ आदि काढ़ी हुई होती है।
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फुलचुही  : स्त्री०=फूलसुँघनी (चिड़िया)
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फुलझड़ी  : स्त्री० [हि० फूल+झड़ना] १. छोटी, पतली डंडी की तरह की एक प्रकार की आतिशबाजी जिससे फूल की सी चिनगारियाँ निकलती है। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी बात जिसका मूल उद्देश्य दो पक्षों में झगड़ा कराकर स्वयं तमाशा देखना होता है। क्रि० प्र०—छूटना।—छोड़ना।
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फुलझरी  : स्त्री०=फुलझड़ी।
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फुलनी  : स्त्री० [हिं० फूलना] ऊसर भूमि में होनेवाली एक तरह की घास।
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फुलरा  : पुं०=फुँदना।
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फुलवर  : स्त्री० [हिं० फूल+वर (प्रत्यय)] एक तरह का बूटीदार रेशमी कपड़ा।
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फुलवा  : पुं० [हिं० फूल] १. एक प्रकार की गोंद जो उबटन तथा इत्र के रूप में काम आती है। २. एक प्रकार का बैल। ३. देशी सफेद आलू। पुं०=फूल (पुष्प)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुलवाई  : स्त्री०=फुलवारी।
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फुलवाड़ी  : स्त्री०=फुलवारी।
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फुलवार  : वि० [सं० फुल्ल] प्रफुल्ल। प्रसन्न।
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फुलवारा  : पुं० [देश] चिउली नाम का पेड़।
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फुलवारी  : स्त्री० [हिं० फूल+बारी] १. वह छोटा उद्यान या बागीचा जिसमें सुन्दर फूलों के पौधे ही हों झाड़ियाँ या वृक्ष न हों। पुष्प-वाटिका। २. कागज के बने हुए फूल और पौधे जो तख्तों पर लगाकर विवाह में बरात के साथ शोभा के लिए निकाले जाते हैं। ३. लाक्षणिक रूप में बाल-बच्चे जो माता-पिता के लिए परम आनन्दमय होते हैं।
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फुलसरा  : पुं० [हिं० फूल+सार] काले रंग की एक चिड़िया जिसके सिर पर छींटे होते हैं।
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फुलसुँघी  : स्त्री० [हिं० फूल+सूँघना] एक प्रसिद्ध छोटी चिड़िया जिसका रंग नीलापन लिए काले रंग का होता है तथा जो फूलों पर फुदकती तथा मँड़राती रहती है। इसका घोंसला बहुत ही सुन्दर तथा कलापूर्ण होता है।
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फुलहरा  : पुं० [हिं० फूल+हारा] सूत, रेशम आदि के बने हुए झब्बेदार बुंदनवार जो उत्सवों में द्वार पर लगाये जाते हैं। पुं०=फुलहारा (माली)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुलहा  : वि० [हिं० फूल(धातु)] [स्त्री० फुलही] फूल नामक धातु का बना हुआ। जैसे—फुलही बटलोही। पुं०=फुलवा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुलहारा  : पुं० [हिं० फूल+हारा (प्रत्यय)] [स्त्री० फुलहारिन्, फुलहारी] माली।
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फुलांग  : स्त्री०=फुलंगो (भाँग)।
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फुलाई  : स्त्री० [हिं० फूलना] १. फूले हुए होने की अवस्था या भाव। २. फुलाने की क्रिया या भाव। ३. एक प्रकार का बबूल जो पंजाब में सिंधु और सतलज नदियों के बीच की पहाड़ियों पर होता है। फुलाह। ४. दे० ‘सर-फुलाई’।
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फुलाना  : स० [हिं० फूलना] १. वृक्षों आदि को फूलों से युक्त करना। पुष्पित करना। २. किसी चीज को फूलने में प्रवृत्त करना। ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज हवा में भरकर फूल जाय। जैसे—गुब्बारा फुलाना, फुलका फुलाना। मुहावरा—गाल या मुँह फुलाना=अभिमानपूर्वक रूष्ट होना। ३. किसी को आनंदित, पुलकित या प्रसन्न करना। ४. किसी के मन में अभिमान या गर्व उत्पन्न करना। गर्वित करना। घमंड बढ़ाना। जैसे—तुम्हीं ने तो तारीफ कर-करके उसे और फुला दिया है। अ०=फूलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुलायल  : पुं०=फुलेल।
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फुलाव  : पुं० [हिं० फूलना] १. फूले हुए होने की अवस्था क्रिया या भाव। २. दे० ‘फुलावट’।
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फुलावट  : स्त्री० [हिं० फूलना] १. किसी चीज के फूले हुए होने की अवस्था या भाव। फुलाव। २. वृक्षों आदि के फूलने की अवस्था क्रिया या भाव।
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फुलावा  : पुं० [हिं० फूल] स्त्रियों के सिर के बालों को गूँथने की डोरी जिसमें फूल या फुँदने लगे रहते हैं। खजुरा।
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फुलिंग  : पुं० [सं० स्फुलिंग, प्रा० फुलिंग] चिनगारी।
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फुलिया  : स्त्री० [हिं० फूल] १. किसी चीज का फूल की भाँति उभरा और फैला हुआ गोला सिरा। २. लोहे का एक प्रकार का बड़ा काँटा जिसका ऊपरी भाग या सिरा गोलाकार फैला होता है। ३. नाक में पहनने का फूल या लौंग नाम का गहना।
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फुलिसकेप  : पुं० [अं० फूल्सकैप] आकार के विचार से वह कागज जो १७ इंज लंबा और १२ इंज चौड़ा होता है।
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फुलुरिया  : स्त्री० [सं०] कपड़े का वह टुकड़ा जो छोटे बच्चों के चूतड़ के नीचे बिछाया जाता है। पोतड़ा।
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फुलेरा  : पुं० [हिं० फूल] फूल की बनी हुई छतरी जो देवताओं के ऊपर लगायी जाती है।
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फुलेला  : पुं० [हिं० फूल+तेल] फूलों की महक से सुवासित किया हुआ तेल जो सिर में लगाने केकाम आता है। सुगंधित तेल। पुं० [हिं० फूल] एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष।
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फुलेली  : स्त्री० [हिं० फूलेल] काँच आदि का वह बड़ा बरतन जिसमें फुलेल रखा जाता है।
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फुलेहरा  : पुं०=फुलहार।
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फुलौरा  : पुं० [हिं० फूल+ब़ड़ा] [स्त्री० अल्पा० फुलौरी] चौरठे, मैदे आदि के घोल को उबालकर बनायी जानेवाली एक तरह की बरी जो तले जाने पर काफी फूल जाती है।
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फुलौरी  : स्त्री०=छोटा फुलौरा।
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फुल्ल  : वि० [सं०√फुल्ल (खिलना)+अच्] १. फूला हुआ। विकसित। २. प्रसन्न। हर्षित। पुं० फूल। पुष्प।
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फुल्लदाम (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] उन्नीस वर्णों की एक वृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में ६, ७, ८, ९, १॰, ११, और १७वाँ वर्ण लघु होता है।
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फुल्ला  : पुं० [हिं० फुलना] १. अन्न का वह दाना जो सेंकने से फूल गया हो। फुरेहरा (पश्चिम) २. खील। ३. फूली हुई या फूल की तरह की कोई चीज। ४. आँख का फूली नामक रोग।
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फुल्ली  : स्त्री० [हिं० फूल] १. फूल के आकार का कोई आभूषण या उसका कोई भाग। २. दे० ‘फुलिया’। ३. दे० ‘फूली’।
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फुवारा  : पुं०=फुहारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुस  : पुं० [अनु०] वह शब्द जो मुँह से फूटकर साफ न निकले। बहुत धीमी आवाज। जैसे—फुस से किसी के कान में कुछ कहना।
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फुसकारना  : अ० [अनु०] फूँक मारना। फूत्कार छोड़ना।
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फुसकी  : स्त्री० [अनु०] १. किसी के कान में धीरे से कुछ कहना। २. गुदा मार्ग से निकलनेवाली वह हवा जिससे शब्द नहीं होता। ठुसकी।
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फुसड़ा  : पुं०=फुचड़ा।
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फुसफुस  : स्त्री० [अनु०] १. किसी के कान के पास मुँह करके इतने धीरे से कुछ कहना कि आस-पास के लोग न सुन सकें। २. इस प्रकार आपस में होनेवाली बात-चीत। काना-फूसी (ह्विस्पर)।
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फुसफुसा  : वि० [हिं० फूस+ या अनु० फुस] १. जो दबाने से बहुत जल्दी चूर-चूर हो जाय। जो कड़ा या करारा न हो। कमजोर और नरम। २. जिसमें तीव्रता न हो। मंद। मद्धिम।
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फुसफुसाना  : स० [अनु०] फुसफुस शब्द करते हुए कुछ कहना। बहुत ही दबे हुए या धीमे स्वर से बोलना।
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फुसलाना  : सं० [हिं०] १. किसी को मीठी-मीठी बातों से या बड़ी-बड़ी आशाएँ दिलाकर अपने अनुकूल बनाना। जैसे—बच्चे या स्त्री को फुसलाना। २. रूठे हुए व्यक्ति को मनाना संयो० क्रि०—लेना।
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फुहार  : स्त्री० [सं० फूत्कार-फूँक से उठा हुआ पानी का छींटा या बुलबुला] १. आकाश से बरसनेवाली पानी की बहुत हो छोटी-छोटी बूँदे जो देखने में झरने या फुहारे से उडनेवाली बूँदों के समान जान पड़ें। (ड्रिजिल)। २. ऊपर से गिरनेवाली किसी तरल पदार्थ की बहुत छोटी-छोटी बूँदें। जैसे—गुलाब जल की फुहार। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना।
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फुहारना  : स० [हिं० फुहार] किसी चीज को धोने, रँगने आदि के लिए उस पर किसी तरल पदार्थ की फुहार डालना।
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फुहारा  : पुं० [हिं० फुहार] १. एक विशिष्ट प्रकार का उपकरण जिसकी सहायता से पानी या किसी तरल पदार्थ की बहुत छोटी-छोटी बूँदें चारों ओर गिरायी जाती हैं। जल-यन्त्र। २. जल या किसी तरल पदार्थ की तेज धार। जैसे—सिर से खून का फुहारा छूटना। क्रि० प्र०—छूटना।
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फुही  : स्त्री०=फूही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुहुँकना  : अ०=फुफकारना। उदाहरण—भृकुटि के कुंडल वक्र मरोर, फुहुँकता अंध रोष फन खोल।—पन्त।
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फूँक  : स्त्री० [अनु० फूफू] १. मुँह से वेगपूर्वक निकाली जानेवाली हवा। क्रि० प्र०—मारना। २. श्वास प्रश्वास जो किसी के जीवित होने के सूचक होते हैं। मुहावरा—फूँक निकलकर या निकल जाना=शरीर से प्राण निकल जाना। मरना। ३. किसी की ओर मंत्र पढ़कर मुँह से छोड़ी जानेवाली वायु जो अनेक प्रकार के प्रभाव उत्पन्न करनेवाली मानी जाती है। पद—झाड़-फूँक (देखें)।
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फूँकना  : स० [हिं० फूँक] १. मुँह का विवर समेटकर वेग के साथ हवा छोड़ना। होठों का चारों ओर से दबाकर झोंक से हवा निकालना। जैसे—यह बाजा फूँकने से बजता है। संयो० क्रि०—देना। मुहावरा—फूँक-फूँककर चलना या पैर रखना=बहुत ही सतर्क तथा सावधान रहकर आगे बढ़ना। २. शंख, बाँसुरी आदि मुँह से बजाये जानेवाले बाजों को फूँककर बजाना जैसे—शंख फूँकना। ३. मंत्र आदि पड़कर किसी पर फूँक मारना। ४. किसी के कान में धीरे से कोई ऐसी बात कहना जिसका कोई अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न हो। जैसे—न जाने किसने उन्हें फूँक दिया है कि वे मुझसे नाराज हो गये हैं। ५. मुँह की हवा छोड़कर आग दहकाना या सुलगाना। फूँककर अग्नि प्रज्वलित करना। जैसे—चूल्हा फूँकना। ६. पूरी तरह से भस्म करने के लिए आग लगाना जलाना। जैसे—किसी का घर या झोपड़ी फूँकना। ७. धातुओं का वैद्यक की रासायनिक रीति से अथवा जड़ी-बूटियों की सहायता से भस्म करना। जैसे—सोना फूँकना। ८. बुरी तरह से नष्ट या बरबार करना। जैसे—दुर्व्यसनों में धन या संपत्ति फूँकना। पद—फूँकना—तापना—सुख-भोग के लिए व्यर्थ और बहुत अधिक खर्च करना। उड़ाना। ९. बहुत दुखी या संतप्त करना।
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फूँका  : पुं० [हिं० फूँक] १. भाथी या नली से आग पर फूँक मारने की क्रिया या भाव। २. गौओं-भैसों के स्तनों से अधिक से अधिक दूध उतारने या निकालने की एक प्रक्रिया जिसमें बाँस की नली में चरपरी या झालदार चीजें (जैसे—मिर्च आदि) भरकर फूँक मारते हुए उनके स्तनों के अन्दर इसलिए पहुँचा देते हैं कि वे अपने बच्चों के लिए दूध चुराकर न रख सकें। ३. बाँस आदि की वह नली जिससे उक्त क्रिया की जाती है। ४. छाला। फफोला।
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फूँद  : स्त्री०=फुँदना। पद—फूँद-फूँदारा-जिसमें बहुत से झब्बे या फुँदने लगे हों।
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फूँदरी  : स्त्री०=छोटा फुँदना। (बुदेल०) उदाहरण—गहरे लाल रंगवाले फूलों की फुँदरी लटक रही थी।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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फुँदा  : पु०=फुँदना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फुई  : स्त्री०=फूही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फूकना  : सं०=फूँकना।
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फूजना  : पुं० [?] अस्त-व्यस्त होना। बिखलना। (पूरब)।
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फूट  : स्त्री० [हिं० फूटना] १. फूटने की क्रिया या भाव। २. जिन लोगों को आपस में मिलकर रहना या जो आपस में मिलकर रहते आये हों, उनमें उनमें होनेवाला पारस्परिक विरोध या वैमनस्य। आपसी अनबन या बिगाड़। पद—फूट-फटक=आपस में होनेवाली अनबन या फूट। मुहावरा—फूट डालना=जो लोग मिलकर रहते हों, उनमें भेद-भाव या विरोध उत्पन्न करना। ३. एक प्रकार की ककड़ी जो पकने पर प्रायः खेतों में ही फट जाती है।
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फूटन  : स्त्री० [हिं० फूटना] १. फूटने की क्रिया या भाव। २. वह खंड या टुकड़ा जो फूटकर अलग हो गया या निकल आया हो। ३. शरीर के जोड़ों में होनेवाली वह पीड़ा जिसमें अंग फूटते हुए से जान पड़ते हैं। जैसे—हड़फूटन।
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फूटना  : अ० [सं० स्फुटन] १. मिट्टी, धातु आदि की बनी हुई वस्तु का आघात लगने अथवा गिरने के फलस्वरूप अनेक छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त होना। जैसे—(क) शीशा फूटना। (ख) स्लेट फूटना। २. विशेषतः किसी कड़ी और प्रायः गोलाकार चीज का आघात लगने पर या दबाब पड़ने पर इस प्रकार टूटना कि उसके अन्दर का अवकाश आस-पास के अवकाश के साथ मिलकर एक हो जाय। जैसे—मटका या हँडिया फूटना। ३. शरीर के किसी अंग में ठोकर लगने पर उसमें से रक्त बहने लगा। जैसे—पाँव या सिर फूटना। ४. अन्दर का दबाव पड़ने से अथवा किसी प्रकार की बाहरी क्रिया से किसी चीज का ऊपरी आवरण या स्तर फटना। जैसे—आँख फूटना, कटहल फूटना फोड़ा फूटना। ५. रासायनिक पदार्थों विशेषतः गोले, बम आदि का धमाके के साथ फटना। विस्फोट होना। ६. किसी प्रकार या रूप में ऊपर या बाहर आकर दृष्य, प्रकट या स्पष्ट होना। जैसे—(क) चन्द्रमा या सूर्य की किरण फूटना। (ख) अंग-अंग से शोभा या सौन्दर्य फूटना। ७. किसी चीज का ऊपरी आवरण को तोड़ या भेद कर वेगपूर्वक बाहर निकलना। जैसे—पहाड़ में से पानी का सोता फूटना। ८. ऊपरी दबाव हटाकर निकनला। बाहर आना अथवा प्रकट होना। जैसे—(क) गरमी के कारण शरीर में दाने फूटना। (ख) वनस्पतियों में अंकुर या वृक्ष में डालें फूटना। मुहावरा—फूट-फूटकर रोना-बिलख-बिलखकर रोना। बहुत विलाप करना। ९. उक्त के आकार पर शाखा के रूप में अलग होकर किसी सीध में जाना। जैसे—थोड़ी दूर पर सड़क से एक और रास्ता फूटा है। १॰. कली का खिलकर फूल का रूप धारण करना। प्रस्फुटित होना० ११. मत-भेद, राग-द्वेष आदि होने पर दल, मंडली समाज आदि में से निकल कर किसी का अलग होना। जैसे—(क) दल में से बहुत से लोग फूटकर विरोधियों में जा मिले हैं। (ख) इस मुकदमें का एक गवाह फूट गया है। १२. संयुक्त या साथ न रहकर अलग होना। जैसे—यह नर (पशु) अपनी मादा से फूट गया है। १३. शरीर के अंगों या जोड़ों में ऐसा दर्द होना कि वह अंग फटता हुआ सा जान पड़े। फटना। मुहावरा—उँगलियाँ फूटना=खींचने या मोड़ने से उँगलियों के जोड़ों का खट-खट बोलना। उँगलियाँ चटकाना। १४. इस प्रकार या इतना अधिक विकृत होना कि किसी काम का न रह जाय। जैसे—भाग्य फूटना। पद—फूटी आँखों का तारा=कोई ऐसी बहुत ही प्रिय वस्तु जो उसी प्रकार की बहुत सी वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर अकेली बच रही हो। जैसे—सात बच्चों में एक बच्चा फूटी आँखों का तारा रह गया है। फूटी कौड़ी=वह टूटी हुई कौड़ी जिसका कुछ भी महत्त्व या मूल्य न रह गया हो। जैसे—इसे बेचने पर तो फूटी कौड़ी भी न मिलेगी। मुहावरा—फूटी आँखों न देख सकना=जरा भी देखने की प्रवृत्ति या रुचि न होना। जैसे—सौत के लड़कों को तो वह फूटी आँखों नहीं देख सकती। फूटी आँखों न भाना=तनिक भी अच्छा न लगना। बहुत बुरा या अप्रिय लगना। जैसे—तुम्हारा यह आवागमन मुझे फूटी आँखों नहीं भाता। फूटे मुँह से बोला=उपेक्षा, द्वेष आदि के कारण किसी से साधारण बात-चीत भी न करना। १५. पानी या तरल पदार्थों का इतना खौलना कि उसके तल पर छोटे-छोटे बुलबुलों के मसूह दिखायी देने लगे। जैसे—जब दूध (या पानी) फूटने लगे, तब उसमें चावल छोड़ देना। १६. पानी या किसी तरल पदार्थ का किसी तल के इस पार से उस पार निकलना। जैसे—यह कागज अच्छा नहीं है इस पर स्याही फूटती हैं। १७. मुँह से शब्द उच्चरित होना या निकलना। जैसे—(क) लाख समझाओं पर वह मुँह से कुछ फूटता ही नहीं है। (ख) अब भी तो मुँह से कुछ फूटों। १८. कोई गुप्त, भेद या रहस्य सब पर प्रकट हो जाना। जैसे—देखों, यह बात कही फूटने न पावे, अर्थात् किसी पर प्रकट न होने पावे।
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फूटा  : पुं० [हिं० फूटना] १. फसल की वह बालें जो टूटकर खेतों में गिर पड़ती है। २. शरीर के जोड़ों में होनेवाला वह दर्द जिसमे अंग फूटते हुए जान पड़ते हैं। वि० [स्त्री० फूटी] १. जो फूट चुका हो। २. फलतः खराब या बिगड़ा हुआ। जैसे—फूटी आँख।
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फूत्कार  : पुं० [सं० फूत्√कृ+घञ्] वह शब्द जो कुछ जंतुओं के वेगपूर्वक साँस बाहर निकालते समय होता है। फू-फू। जैसे—साँप की फूत्कार।
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फुत्कृति  : स्त्री० [सं० फूत्√कृ-क्तिन्] फूत्कार। (दे०)
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फूफा  : पुं० [स्त्री० फूफी] [वि० फुफेरा] संबंध के विचार से फूफी अर्थात् बुआ का पति।
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फूफी  : स्त्री० [सं० पितृश्वसा, पा० पितुच्च्छा, पा० पिनच्छा] बाप की बहन। बुआ।
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फूफू  : स्त्री०=फूफी।
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फूर  : पुं०=फूल।
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फूरना  : अ०=फूलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फूल  : पुं० [सं० फुल्ल] १. पौधों और वृक्षों का वह प्रसिद्ध अंग जो कुछ नियत ऋतुओं मे गोल या लम्बी पंखुड़ियों के योग से गाँठों आदि के रूप में बना होता है। कुसुम। पुष्प। सुमन। (फ्लावर)। विशेष—वनस्पति-विज्ञान की दृष्टि से इसे पेड़-पौधों की जननेंद्रिय कह सकते हैं, क्योंकि फल उत्पन्न करनेवाला मूल तत्त्व या शक्ति इसी में निहित होती है। भिन्न-भिन्न फूलों के आकार-प्रकार और रूप-रंग भिन्न होते हैं और प्रत्येक वर्ग के फूल में प्रायः अलग प्रकार की और विभिन्न गंध या सुगंध भी होती है। लोक में फूल अपनी कोमलता, सुंदरता और हलकेपन के लिए प्रसिद्ध है। क्रि० प्र०—चुनना।—झड़ना।—निकलना।—फूलना।—लगना।—लोढ़ना। पद—फूल सा=बहुत सी सुन्दर, सुकुमार या हलका। फूलों की चादर=फूलो से गूँथ कर चादर की तरह का बनाया हुआ वह जाल जो मुसलमान पीरों आदि की कब्रों पर चढ़ाते हैं। फूलों की छड़ी-दे० फूल छड़ी। फूलों की सेज-वह पलंग या शय्या जिस पर सजावट और कोमलता के लिए फूलों की पंखुड़ियों फैलाई या बिछाई गयी हों। (श्रृंगार की एक सामग्री) मुहावरा—(पेड़-पौधों में) पूल आना- शाखाओं आदि मे फूल उत्पन्न होना या निकलना। फूल उतरना-पेड-पौधों में से फूलों का झड़कर या तोड़े जाने पर इस प्रकार अलग होना कि काम में आ सके। जैसे—बेले की इस क्यारी में रोज सेरों फूल उतरते हैं। फूल चुनना=वृक्षों के फूल तोड़कर इकट्ठा करना। (किसी के मुँह से) फूल झड़ना-मुँह से बहुत ही मनोहर और मीठी बातें निकलना, बहुत ही प्रिय-भाषी होना। फूल सूँघकर रहना-बहुत ही कम खाना। अत्यन्त अल्पाहारी होना। जैसे—आप खाते तो क्या हैं फूल सूँघकर रहते हैं २. किसी चीज पर अंकित कियेया और किसी प्रकार बनाये हुए फूल के आकार के बेल-बूटे या नक्काशी। ३. फूल के आकार-प्रकार की बनायी हुई कोई चीज या रचना। जैसे—(क) कान या नाक में पहनने का फूल। (ख) मथानी के डंडे के सिरे पर का फूल, कागज या चाँदी सोने के फूल। मुहावरा—(किसी के गालों पर) फूल पड़ना=बोलने, हँसने आदि के समय गालों पर छोटे गोलाकार गड्ढे से बनना जो सौन्दर्यसूचक होते हैं। जैसे—जब यह बच्चा मुस्कराता है तब इसके गालों पर फूल पड़ते हैं। ४. किसी ऐसी चीज जो देखने में वृक्षों के आकार-प्रकार की हो। जैसे—चार फूल मेथी (सूखे हुए दाने) दस फूल लौंग। ५. किसी प्रकार के चूर्ण का वह रूप जिसके दाने या रवे फूल की तरह खिले हुए और अलग हों। जैसे—आटे या चीनी के फूल। ६. किसी चीज का सत्त या सार। जैसे—फूल शराब-सुरासार। ७. किसी पतले या द्रव पदार्थ को सुखाकर जमाया हुआ पत्तर या रवा। जैसे—अजवायन के फूल देशी स्याही के फूल। ८. एक प्रकार की मिश्र धातु जो ताँबे और राँगे के मेल से बनती है। ९. दीपक की जलती हुई बत्ती पर पड़े हुए गोल दमकते दाने जो उभरे हुए मालूम होते हैं। गुल। क्रि० प्र०—झड़ना।—झाड़ना। मुहावरा—(दीपक को) फूल करना=दीआ बुझाना। १॰. शरीर पर पड़नेवाला वह लाल या सफेद धब्बा जो श्वेत कुष्ठ नामक रोग होने पर होता है। ११. स्त्रियों का वह रक्त जो मासिक धर्म में निकलता है। रज-पुष्प। क्रि० प्र०—आना। पद—फूल के दिन=स्त्री के रजस्वला होने के दिन। उदाहरण—स० महीने में कुढ़ाते थे मुझे फूल के दिन। बारे अब की तो मेरे टल गये मामूल के दिन।—रंगीन। १२. स्त्रियों का गर्भाशय। १३. घुटने या पैर की गोल हड्डी। चक्की। टिकिया। १४. शव जलाने के बाद मृत शरीर की बची हुई हड्डियाँ जो प्रायः इकट्ठी करके किसी पवित्र जलाशय या नदी में फेंकी या प्रवाहित की जाती है। क्रि० प्र०—चुनना। स्त्री० [हिं० फूलना] १. वृक्षों आदि के फूलने की अवस्था, क्रिया या भाव। फुलावट। २. मन में फूलने अर्थात् प्रफुल्लित होने की अवस्था या भाव। प्रसन्नता। प्रफुल्लता। उदाहरण—मृग नैनी दृग की फरक, उर उछाह तन फूल।—बिहारी। वि० (रंगों के संबंध में) साधारण से कम गहरा। हलका। (यौ० पदों के आरम्भ में नीम और हवा की तरह प्रयुक्त) जैसे—इस साड़ी का रंग गुलाबी तो नहीं हाँ फूल गुलाबी कहा जा सकता है।
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फूलकारी  : स्त्री० [हिं० फूल+फा० कारी] १. बेल-बूटे बनाने का काम। २. दे० ‘फूलकारी’।
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फूलगोभी  : स्त्री० [हिं० फूल+गोभी] एक प्रकार का पौधा जिसमें बड़े फूल के आकार का बँधा हुआ ठोस पिंड होता है। यह तरकारी के काम आती है। गोभी।
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फूल-छड़ी  : स्त्री० [हिं०] १. श्रृंगार, सजावट आदि के काम आनेवाली वह छड़ी जिसके चारों ओर बहुत से फूल टाँके या बाँधे गये हों। २. चित्रों मूर्तियों आदि में उक्त प्रकार का चित्रण या लक्षण।
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फूलझाड़  : पुं० [हिं०] काँस आदि की (फूलों के आकार की) सीकों का बना हुआ झाड़ू जिससे महीन धूल बहुत अच्छी तरह साफ होती है।
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फूल-डोल  : पुं० [वि० फूल+डोल] चैत्र शुल्क एकादशी को मनाया जानेवाला एक उत्सव जिसमें देवता की मूर्ति को फूलों के हिंडोले में रखकर झुलाते हैं।
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फूल ढोंक  : पुं० [?] १. प्रायः हाथ भर लम्बी एक प्रकार की मछली जो भारत के सभी प्रांतों में पायी जाती है।
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फूलदान  : पुं० [हिं० फूल+फा० दान (प्रत्यय)] मिट्टी, धातु शीशे आदि का वह पात्र जिसमें शोभा के लिए फूल, गुलदस्ते आदि लगाकर रख जाते हैं। गुलदान।
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फूलदार  : वि० [हिं० फूल+दार (प्रत्य=)] जिस पर बेल-बूटे बने हों अर्थात् फूलकारी का काम हुआ हो।
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फूलना  : अ० [हिं० फूल+ना (प्रत्यय)] १. पौधों, वृक्षों आदि का फूलों से युक्त होना। पुष्पित होना। जैसे—वह पौधा बसंत में फूलता है। मुहावरा—(किसी व्यक्ति का) फूलना-फलना=लाक्षणिक रूप में, धन-धान्य संतति आदि से परिपूर्ण और सुखी रहना। सब तरह से बढ़ना और सम्पन्न होना। २. कली का सम्पुट इस प्रकार खुलना कि उसकी पंखुड़ियाँ चारों ओर से पूरे फल का रूप धारण कर लें। ३. लाक्षणिक रूप में बहुत अधिक आनन्द या उल्लास से युक्त होना। बहुत प्रसन्न या मगन होना। मुहावरा—फूले अंग न समाना=आनन्द का इतना अधिक उद्देग होना कि बिना प्रकट किये रहा न जाय। अत्यन्त आनंदित होना। फूले फिरना या फूले-फूले फिरना=बहुत अधिक आनंद, उत्साह या उमंग से भरकर निश्चिन्त भाव से उधर-उधर घूमना। उदाहरण—स्वतंत्र सिरताज फिरत कूकत कै फूले।—दीनदयाल गिरि। ४. लाक्षणिक रूप में, मन में विशेष अभिमान या गर्व का अनुभव करना। जैसे—अपनी प्रशंसा सुनकर वह फूल जाता है। ५. किसी वस्तु के भीतरी अवकाश में किसी चीज के भर जाने के कारण उसका ऊपरी या बाहरी तल बहुत अधिक उभर आना या ऊँचा हो जाना। जैसे—(क) हवा भरने से गेंद फूलना। (ख) वायु के विकार होना या बहुत अधिक भोजन करने पर पेट फूलना। ६. किसी बात-व्यवहार से अभिमान रोष आदि के कारण किसी से रूठना या कुछ समय के लिए विरक्त होना। जैसे—हम उनके यहाँ नहीं जायँगें, आज-कल वे हमसे फूल हुए हैं। ७. आघात, आंतरिक विकार आदि के कारण शरीर के किसी अंग का कुछ उभर आना। सूजना। जैसे—इतने जोर का तमाचा लगा कि गाल फूल गया है। ८. किसी व्यक्ति का असाधारण रूप से मोटा या स्थूल होना। जैसे—उसका शरीर बादी से फूला है।
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फूल-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] १. वे फूल-पत्ते जो देवी-देवताओं को चढ़ाने जाते हैं। २. वनस्पति-विज्ञान में किसी फूल का प्रत्येक दल अथवा पत्ती के आकार का अंग। (फ्लॉवर लीफ)।
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फूल-पान  : वि० [हिं० फूल+पान] (फूल या पान के समान) बहुत ही कोमल। नाजुक।
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फूल-बत्ती  : स्त्री० [हिं०] देवताओं की आरती आदि के लिए बनायी जानेवाली रूई की एक प्रकार की बत्ती जिसके नीचे का भाग खिले हुए फूल की तरह गोलाकार फैला हुआ होता है।
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फूल-बाग  : पुं० [हिं० +अ०] वह छोटा बागीचा जिसमें केवल फूलों के पौधें हों।
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फूल-बिरंज  : पुं० [हिं० फूल+बिरंज] एक प्रकार का बढ़िया धान।
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फूल-भाँग  : स्त्री० [हिं० फूल+भाँग] हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की भाँग। फुलंगो।
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फूलमती  : स्त्री० [हिं० फूल+मती (प्रत्यय)] एक देवी जो शीतला रोग की अधिष्ठात्री मानी जाती है।
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फूल-वाला  : वि० [हिं० फूल+वाला (प्रत्यय)] १. फूलों से युक्त। २. फूलों अर्थात् बेल-बूटों का काम जिस पर हुआ हो। पुं० [स्त्री० फूलवाली] माली, विशेषतः फूल बेचनेवाला व्यक्ति।
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फूल-शराब  : स्त्री० दे० ‘सुरासार’।
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फूल-सँपेल  : वि० [हिं० फूल+साँप] बैल या गाय जिसका एक सींग दाहिनी ओर और दूसरा बाईं ओर गया हो।
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फूल-सुँघनी  : स्त्री०=फूल-सुँघनी।
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फूला  : पुं० [हिं० फूलना] १. भूने हुए अनाज की खील। २. पक्षियों को होनेवाला एक प्रकार का रोग। ३. गन्ने का रस पकाने का बड़ा कड़ाहा। ४. फूली (आँख का रोग)।
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फूली  : स्त्री० [हिं० फूल] १. सफेद दाग जो आँख की पुतली पर पड़ जाता है जिससे दृष्टि में बाधा होती है। २. एक प्रकार की सज्जी। ३. एक प्रकार की रूई।
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फूस  : पुं० [सं० तुष, पा० भूस, फुस] १. एक प्रकार की घास जो सुखाकर छप्पर आदि डालने के काम आती है। २. तृण। तिनका। वि० फूस की तरह बहुत ही तुच्छ या हीन। उदाहरण—पूस मास अति फूस ए सखि जड़वा में फूटेला बालि।—ग्राम्य गीत।
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फूह  : स्त्री०=फूही (फुहार)।
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फूहड़  : वि० [?] [भाव० फूहड़पन] १. सभ्यों की दृष्टि से अश्लील और हेय। जैसे—फूहड़ शब्द। २. (व्यक्ति) जो उजड्ड या गँवार हो तथा जिसे किसी बात का शऊर न हो। ३. बहुत ही निकम्मा (व्यक्ति)।
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फूहड़पन  : पुं० [हिं० फूहड़+पन (प्रत्यय)] फूहड़ होने की अवस्था या भाव।
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फूहर  : वि०=फूहड़।
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फूहा  : पुं० [देश] रूई का गाला। फाहा।
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फूही  : स्त्री० [हिं० फुहार] १. पानी का महीन छींटा। सूक्ष्म जल-कण। २. बरसनेवाले पानी की छोटी-छोटी बूँदों की झड़ी। झींसी। जैसे—फूही-फूही तालाब भरता है। उदाहरण—निशि के तम में झर झर, हलकी जल की फूही धरती को कर गई सजल।—पन्त। ३. घी, दूध मलाई आदि के ऊपर दिखायी देनेवाले चिकनाई के छोटे-छोटे कण। ४. फफूँदी। भुकड़ी।
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फेंक  : स्त्री० [हिं० फेंकना] फेंकने की क्रिया या भाव। वि० फेंकनेवाला (समस्त पदों के अन्त में)। जैसे—दिल फेंक औरत या मरद।
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फेंकना  : स० [सं० प्रषण, प्रा० पेखण] १. हाथ में ली हुई वस्तु को जोर या झटके से इस प्रकार छोड़ना कि वह उड़ती-उड़ती कुच दूर जा गिरे। जैसे—(क) ईंट, पत्थर रोड़ा फेंकना। (ख) नदी में जाल फेकंना। २. हाथ में ली हुई कोई चीज इस प्रकार पकड़ से अलग करना कि वह नीचे आ गिरे। गिरा या छोड़ देना। जैसे—पाठशाला से घर आते समय लड़का रास्ते में किताब नहीं फेंक आया। ३. किसी प्रकार की कमानी, दाब आदि से दबी हुई चीज के प्रति ऐसी क्रिया करना कि वह जोर या झटके से दूर जा गिरे। जैसे—कमान से तीर या तोप से गोला फेंकना। ४. असावधानी, आलस्य भूल आदि के कारण चीज या चीजें अस्त-व्यस्त रूप में इधर-उधर फैलाना या छोड़ देना। जैसे—कपड़े (या पुस्तकें) इस तरह फेंका मत करो, सँभाल कर रखना सीखो। ५. उपेक्षापूर्वक कोई किसी चीज के आगे पटकना। जैसे—बच्चा बस्ता फेंककर उसी समय कहीं चला गया। ६. आघात, प्रहार आदि के उद्देश्य से अथवा ठीक लक्ष्य पर पहुँचने के लिए वेगपूर्वक कोई चीज उछालते हुए कहीं दूर पहुंचाना। जैसे—(क) चिड़ियों (या मछलियों) पर ढेले या पत्थर फेंकना। (ख) खेल में गेंद पेंकना। ७. अनावस्य या व्यर्थ समझकर दूर हटाना। जैसे—ये पुराने कपड़ें फेंको और नये कपड़े पहनो। ८. अनावश्यक रूप से या व्यर्थ व्यय करना। जैसे—तुम सौदा खरीदना नहीं जानते, यों ही रुपए फेंक आते हों। ९. जुए के खेल में, उसका कोई उपकरण दाँव लाने के लिए चलना। जैसे—कौड़ी, गोटी, ताश आदि का पत्ता या पाँसा फेंकना। १॰. शरीर के अंगों के संबंध में उछालते या ऊपर उठाते हुए नीचे गिराना या पटकना। जैसे—यह बच्चा नींद में प्रायः हाथ-पैर फेंकता है। ११. क्रिकेट के खेल में उछली हुई गेंद को ठीक न लोक पाने के कारण नीचे गिरा देना। १२. इस प्रकार ऊपर से कोई चीज गिराना कि नीचे से कोई लोक ले। १३. कुश्ती में प्रतिद्वंद्वी को जमीन पर गिराना या पटकना। १४. काम-धंधे आदि के संबंध में स्वयं पूरा न करके उदासीनता या उपेक्षापूर्वक दूसरों पर उसका भार डालना। जैसे—तुम सब काम मुझ पर फेंककर निश्चिंत हो जाते हो।
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फेंकरना  : अ०=फेकरना।
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फेंकाना  : अ० [हिं० फेंकना] फेंका जाना।
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फेंट  : स्त्री० [हिं० पेट या पेटी] १. कमर के चारों ओर का घेरा। २. धोती का लम्बाई के बल का उतना अंश जो रस्से की तरह मोड़कर कमर के नीचे चारों ओर बाँधा या लपेटा जाता है। फेंटा (मुहा० के लिए दे० फेंटा के मुहा०) ३. घुमाव। फेरा। लपेट। स्त्री० [हिं० फेटना] फेंटने की क्रिया या भाव। जैसे—ताश के पत्तों की फेंट।
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फेंटना  : सं० [सं० पिष्ट, प्रा० पिट्ठ+ना (प्रत्यय)] १. किसी गाढ़े द्रव को इस प्रकार उँगलियों अथवा किसी उपकरण से बार-बार हिलाना कि उसमें कण आदि न रह जायँ। जैसे—खोया दही या पीठी फेंटना। २. उँगली से हिलाकर खूब मिलाना। जैसे—यह दवा शहद में फेंट कर खायी जाती है। ३. ताश के पत्तों को इस प्रकार मिलाना कि उनका क्रम बदल जाय।
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फेंटा  : पुं० [हिं० फेंट] [स्त्री० अल्पा० फेंटी] १. कमर का घेरा। २. धोती का वह भाग जो कमर के चारों ओर लपेटकर बाँधा जाता है। (जिससे धोती नीचे खिसकने या गिरने न पाये)। मुहावरा—(अपना) फेंटा कसना या बाँधना=किसी काम या बात के लिए कसकर तैयार होना। कटिबद्ध या समृद्ध होना। (किसी का) फेंटा पकड़ना-धोती का उक्त अंश पकड़कर रोकना या अन्य किसी प्रकार किसी को पकड़ रखना। ३. कमरबन्द। फटका। ४. छोटे या कम लम्बे कपड़े से सिर तक बाँधी जानेवाली हलकी पगड़ी। ५. अटेरन पर लपेटी हुई सूत की बड़ी अंटी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फेकरना  : अ० [अनु० फेंकें] १. फूट-फूट कर रोना। चिल्ला-चिल्ला कर रोना। २. जोर से चिल्लाते हुए कर्ण-कटु शब्द उत्पन्न करना। जैसे—गीदड़ का फेकरना।
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फेकारना  : स० [हिं० फेंकना] सिर के बाल खोलकर झटकारना। (स्त्रियाँ)।
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फेकैत  : पुं०=पिकैत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फेच  : पुं०=पेंच। (पूरब)।
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फेट  : स्त्री०=फेंट।
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फेटना  : स०=फेंटना।
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फेटा  : पुं०=फेंटा।
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फेड़  : पुं०=फेर। अव्य०=फिर।
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फेण  : पुं०=फेन।
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फेणक  : पुं० [सं० फेण+क] १. फेन। २. फेनी नाम का व्यंजन। बतासफेनी।
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फेद  : पुं०=फेंटा।
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फेदा  : पुं० [देश] घुँइया। अरूई।
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फेन  : पुं० [सं०√स्फाय् (बढ़ना)+नक्, फे—आदेश] [वि० फेनिल] १. बहुत छोटे-छोटे बुलबुलों का वह गठा हुआ समूह जो पानी या किसी द्रव पद्रार्थ के हिलने, सड़ने, खौलने आदि से ऊपर दिखायी पड़ता हो। झाग। क्रि० प्र०—उठना।—निकलना। २. नाक से निकलनेवाला कफ। रेंट।
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फेनक  : पुं० [स० फेन+कन्] १. फेन। झाग। २. ऐसी चीजों से शरीर मल या रगड़कर धोना जिनमें से फेन निकलता हो। ३. फेनी नाम का व्यंजन। वि० फेन उत्पन्न करने या बननेवाला। जिससे फेन उत्पन्न हो।
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फेनका  : स्त्री० [सं० फेन√कै+क+टाप्] एक तरह की पीठी।
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फेनना  : स० [हिं० फेन] ऐसा काम जिससे किसी तरल पदार्थ से फेन उत्पन्न होने लगे।
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फेन-मेह  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का प्रमेह रोग जिसमें वीर्य फेन की भाँति थोड़ा-थोड़ा गिरता है।
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फेनल  : वि० [सं०√फेन+लच्] फेनयुक्त। फेनिल।
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फेना  : स्त्री० [सं० फेन+अच्+टाप्] एक प्रकार का क्षुप।
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फेनाग्र  : पुं० [सं०फेन-अग्र, ष० त०] बुद्बुद। बुलबुला।
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फेनिका  : स्त्री० [सं० फेन+ठन्—इक+टाप्] फेन नाम की मिठाई।
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फेनिल  : वि० [सं० फेन+इलच्] जिसमें फेन हो। फेन या झाग सेयुक्त। पुं० रीठा।
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फेनी  : स्त्री० [सं० फेनिका] लपेटे हुए सूत के लच्छे की तरह मैदे की एक प्रसिद्ध मिठाई जो प्रायः दूध में मिलाकर खायी जाती है। वि० १. टेढ़ा। २. कुटिल।
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फेनोच्छ्वासित  : वि० [सं० फेन-उच्छ्वासित, तृ० त०] क्रोध, परिश्रम आदि के कारण जिसके मुँह से फेन निकल रहा हो।
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फेनोज्ज्वल  : वि० [सं० फेन-उज्ज्वल, उपमि० स०] फेन की तरह उजला।
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फेफड़ा  : पुं० [सं० फुफ्फुस+० हिंड़ा (प्रत्यय)] शरीर के भीतर धौंकनी के आकार का वह अवयव जो प्रायः दो बागों में होता है। श्वसन अंग। फुप्फुस (लंग)। पद—फेफड़े की कसरत=बच्चों के रोने का परिहासात्मक पद।
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फेफड़ी  : स्त्री० [हिं० फेफड़ा] चौपायों का एक रोग जिसमें उनके फेफड़े सूज जाते है और उनका रक्त सूख जाता है। स्त्री०=फेफड़ी।
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फेफरी  : स्त्री०=फेफड़ी।
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फेरंड  : पुं० [सं०फे√रग्ड+अच्] गीदड़। सियार।
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फेर  : पुं० [हिं० फेरना] १. फिरने या फेरने की क्रिया या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी को अथवा किसी के चारों ओर फिरना पड़ता है। घुमाव। चक्कर। क्रि० प्र०—पड़ना। पद—फेर की बात=घुमाव की बात ऐसी बात जो सीधी या सरल न हो, बल्कि घुमाव-फिराव पेंच य चालाकी भरी हो। मुहावरा—फेर खाना=सीधे रास्ते से न जाकर घुमाव-फिराववाले रास्ते से जाना। ३. किसी प्रकार का ऐसा क्रम या सिलसिला जिसमें आवश्यकतानुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तन होता रहे। जैसे—अभी तो काम शुरू किया है तब फेर बँध(या बैठ) जायगा, तब कुछ न कुछ अच्छा ही परिणाम निकलेगा। क्रि० प्र०—बँधना।—बाँधना।—बैठाना। ४. कोई बड़ा या महत्त्वपूर्ण परिवर्तन। कुछ से कुछ हो जाना। पद—उलटे-फेर (दे० स्वतंत्र शब्द)। दिनों (या भाग्य) का फेर=दैवी घटनाओं का ऐसा क्रमिक परिवर्तन जिससे रूप या स्थिति बिलकुल बदल जाय विशेषतः अच्छी दशा से निकलकर बुरी दशा की होनेवाली प्राप्ति। ५. ऐसी स्थिति जिसमें भ्रम-वश कुछ का कुछ समझ में आये। धोखा। जैसे—(क) और कुछ नहीं तुम्हारी समझ का फेर है। (ख) यदि इस फेर में रहोगे तो बहुत धोखा खाओगे। ६. ऐसी स्थिति जिसमें बुद्धि जल्दी काम न करती हो। अनिश्चय, असमंजस या दुविधा की स्थिति। जैसे—वह बड़े फेर में पड़ गया कि वह क्या करे। क्रि० प्र०—मे डालना।—में पड़ना। ७. ऐसी स्थिति जो अन्त में हानिकारक सिद्ध हो। जैसे—उसकी बातों मे आकर मैं हजारों रुपए के फेर में पड़ गया। क्रि० प्र०—में आना।—में डालना।—में पड़ना। ८. चालाकी या धोखेबाजी से भरी हुई चाल या उक्ति। जैसे—(क) तुम उसके फेर में मत पड़ना वह बहुत बड़ा धूर्त है। (ख) वह आज-कल तुम्हें फँसाने के फेर में लगा है। उदाहरण—फेर कछू करि पौरि तै फिरि चितई मुस्काई।—बिहारी। क्रि० प्र०—में आना।—में डालना।—में पड़ना।—में लगना।—में लगाना। पद—फेर-फार (दे० स्वतंत्र शब्द)। ९. उपाय। तरकीब। युक्ति। उदाहरण—दैव जो जोरी दुहुँ लिखी मिले सौ कबनेह फेर।—जायसी। मुहावरा—फेर बाँधना-तरकीब या युक्ति लगाना। १॰. लेन-देन व्यवसाय आदि के प्रसंग में, समय-समय पर कुछ लेते और कुछ देते रहने की अवस्था या भाव। पद—हेर-फेर-लेन-देन का क्रम या व्यवसाय। जैसे—इसी तरह हेर-फेर चलता रहता है। क्रि० प्र०—बँधना।—बाँधना। ११. जंजाल। झंझट। बखेड़ा। जैसे—प्रेम (या रुपए-पैसे) का फेर बहुत बुरा होता है। पद—निन्नानबे का फेर=अधिक धन कमाने की चिता या धुन। विशेष—यह पद एक ऐसी कहानी के आधार पर बना है जिसमें किसी अपव्ययी को ठीक मार्ग पर लाने के उद्देश्य से उसे ९९ रुपए दे दिये। अपव्ययी ने सोचा था कि ये किसी प्रकार पूरे सौ रुपए हो जायँ, फलतः वह धीरे-धीरे धन इकट्ठा करने लगा था। १२. भूत-प्रेत का आवेश या प्रभाव। जैसे—कुछ फेर है इसी से वह अच्छा नहीं हो रहा है। (इस अर्थ में प्रायः ऊपरी फेर पद का ही अधिक प्रयोग होता है) १३. ओर। तरफ। दिशा। उदाहरण—सगुन होहिं सन्दर सकल मन प्रसन्न सब केर। प्रभु आगमन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।—तुलसी। १४. दे० ‘फेरा’। अव्य०=फिर। पुं० [सं०फे√रू+ड] श्रृंगाल। गीदड़।
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फेरना  : स० [हिं० फेर या फेरा] १. कोई चीज किसी फेरे या घेरे में बार-बार मंडालाकार अथवा किसी धुरी पर चारों ओर घुमाना। जैसे—(ख) माला फेरना (अर्थात् एक-एक दाना या मनका सरकाते हुए बार-बार नीचे करते हुए चक्कर देना)। (ख) चक्की फेरना। (ग) मुग्दर फेरना। (बार-बार घुमाते हुए शरीर के चारों ओर ले जाना और ले आना)। घोड़ा फेरना। (घोड़े की ठीक तरह से चलना सिखाने के लिए खेत या मैदान में मंडलाकार चक्कर लगाने में प्रवृत्त करना)। २. किसी तल या कोई चीज चारों ओर इधर-उधर ऊपर-नीचे ले जाना और ले आना। जैसे—(क) किसी की पीठ या सिर पर हाथ फेरना। (ख) दीवार पर चूना या रंग फेरना। (ग) पान फेरना=पान की गड्डी या ढोली के पानों को बार-बार उलट-पलटकर देखना और सड़े-गले पान निकालकर अलग करना। ३. कोई चीज लेकर चारों ओर या चक्कर सा लगाते हुए सबसे सामने जाना। जैसे—(क) अतिथियों के सामने, पान इलायची फेरना। (ख) नगर में डुग्गी या मुनादी पेरना। ४. जो वस्तु या व्यक्ति जहाँ या जिधर से आया हो, उसे लौटाते हुए वहीं या उसी ओर कर या भेज देना। वापस करना। जैसे—(क) बुलाने के लिए आया हुआ आदमी फेरना। (ख) दुकानदार से लिया हुआ माल या सौदा फेरना। ५. किसी के द्वारा भेजी हुई वस्तु न लेना और फलतः उसे लौटा देना। लौटाना। ६. किसी काम या चीज या बात की गति की दिशा बदलना। किसी ओर घुमाना या मोड़ना। जैसे—(क) गाड़ी या घोड़े को दाहिने या बाएँ फेरना। (ख) कुंजी या पेंच इधर या उधर फेरना। ७. जो चीज जिस दिशा में हो, उसका पार्श्व या मुँह उससे विपरीत दिशा में करना। जैसे—(क) किसी की ओर पीठ फेरना। (ख) किसी की ओर से मुँह फेरना। ८. जैसा पूर्व में रहा हो या साधारणतः रहता हो उससे भिन्न या विपरीत करना। उदाहरण—कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिँ।—तुलसी। ९. किसी चीज या बात की पहले की स्थिति बिलकुल उलट या बदल देना। जैसे—(क) जबान फेरना=बात कहकर मुकर जाना या वचन का पालन न करना। (ख) किसी के दिन फेरना=किसी को बुरी से अच्छी दशा में या प्रतिक्रमात् लाना। १॰. अभ्यास या कंठस्थ करने के लिए बार-बार उच्चारण करना या दोहराना। जैसे—लड़कों का पाठ फेरना-अच्छी तरह याद करने के लिए दोहराना।
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फेर-पलटा  : पुं० [हिं० फेरना+पलटा] गौना। द्विरागमन।
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फेर-फार  : पुं० [हिं० फेर+अनु० फार] १. बहुत बड़ा तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन। उलट-फेर। २. घुमाव-फिराव। चक्कर। ३. घुमाव-फिराव या छल-कपट की बात-चीत। धूर्तता का व्यवहार। चालाकी। जैसे—हमसे इस तरह की फेर-फार की बातें मत किया करो। ४. लेन-देन या व्यवहार के चलते रहने की अवस्था या भाव। जैसे—रोजगारियों का फेर-फार चलता रहना चाहिए।
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फेरब  : पुं० [सं० फेरव] गीदड़। उदाहरण—फेरबि फफ् फारिस गाइआ। विद्यापति।
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फेरव  : वि० [सं० फे-रव, ब० स०] १. धूर्त। चालबाज। २. हिंसक। पुं० १. राक्षस। २. गीदड़।
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फेरवट  : स्त्री० [हिं० फेरना] १. फेरने या फेरने का भाव। २. पेरे जाने पर होनेवाला चक्कर। फेरा। ३. घुमाव-फिराव। ४. अंतर। फरख।
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फेरवा  : पुं० [हिं० फेरना] सोने का वह छल्ला जो तार की दो तीन बार लपेटकर बनाया जाता है। लपेटा हुआ तार। पुं०=पेरा। पुं० [सं० फेरव] गीदड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फेरा  : पुं० [हिं० फेरना] [स्त्री० फेरी] १. किसी चीज के चारों ओर फिरने अर्थात् घूमने की क्रिया या भाव। चक्कर। परिक्रमण। जैसे—यह पहिया एक मिनट में सौ पेरे लगाता है। २. किसी लम्बी तथा लचीली चीज को दूसरी चीज के चारों ओर घुमाने, आवृत्त करने लपेटने आदि की क्रिया या भाव। ३. उक्त प्रकार से किया हुआ आवर्तन, घुमाव या लपेट। जैसे—इस लकड़ी पर रस्सी के चार फेरे अभी और लगाने चाहिए। संयो० क्रि०—देना। ४. बार-बार कही आने-जाने की क्रिया या भाव। जैसे—यह भिखमंगा दिन भर में इस बाजार के चार फेरे लगाता है। संयो० क्रि०—डालना।—लगाना। ५. कहीं जाकर वहाँ से लौटना या वापस आना, विशेषतः निरीक्षण करने, मिलने हाल-चाल पूछने आदि के उद्देश्य से किसी के यहाँ थोड़ी देर या कुछ समय के लिए जाना और फिर वहाँ से वापस लौट आना। जैसे—दिन भर में तकाजे के उद्देश्य से दस फेरे लगाता हूँ। संयो० क्रि०—लगाना।—लगवाना। ६. आवर्त। घेरा। मंडल। ७. विवाह के समय वर-वधू द्वारा की जानेवाली अग्नि की परिक्रमा। भाँवर। ८. (विवाह के उपरात) लड़की का ससुराल जाने का भाव। जैसे—उसे दूसरे फेरे घड़ी और तीसरे फेरे बाइसिकिल मिली थी। (पश्चिम) ९. दे० ‘फेर’।
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फेरा-फेरी  : स्त्री० [हिं० फेरना] १. बार-बार इधर-उधर फेरने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘हेरा-फेर’। क्रि० वि०—१. बारी-बारी से। २. रह-रहकर।
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फेरि  : अव्य० [हिं० फिर] फिर (पुनः)। पद—फेरि-फेरि=फिर-फिर। बार-बार।
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फेरी  : स्त्री० [हिं० फेरना] १. देवी-देवता आदि की की जानेवाली परिक्रमा। प्रदक्षिणा। २. विवाह के समय वर और वधू की वह प्रदक्षिणा जो अग्नि के चारों ओर की जाती है। भाँवर। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। ३. भिक्षुओं का भिक्षा के उद्देश्य से गली-मुहल्ले का लगाया जानेवाला चक्कर। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।—लेना। ४. छोटे व्यापारी द्वारा गलियों, गाँवों आदि में फुटकर ग्राहकों के हाथ सामान बेचने के उद्देश्य से लगाया जानेवाला चक्कर। पद—फेरीवाला। (दे०) ५. बार-बार कहीं आते-जाते रहना। ६. एक तरह की चरखी जिससे रस्सी पर ऐंठन डाली जाती है। ७. फेर। ८. फेरा।
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फेरीदार  : पुं० [हिं० फेरी+फा० दार] [भाव० फेरीदारी] वह जो किसी दुकानदार या महाजन की ओर से घूम-घूमकर कर्जदारों से पावना वसूल करने का काम करता हो।
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फेरीदारी  : स्त्री० [हिं० फेरीदार] फेरीदार का काम, पद या भाव।
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फेरीवाला  : पुं० [हिं० फेरी+वाला] वह छोटा व्यापारी जो गली-गली या गाँव-गाँव मे घूम-घूमकर फुटकर ग्राहकों के हाथ सौदा बेचता हो।
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फेरूआ  : पुं०=फेरवा।
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फेरूक  : पुं० [सं०] गीदड़। सियार।
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फेरौती  : स्त्री० [हिं० फेरना] टूटे-फूटे खपरैलों के स्थान पर नये खपरैले रखने की क्रिया या भाव।
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फेल  : पुं० [अ० फेल] १. कार्य, कृत्य या क्रिया। २. बुरा कर्म। पुं० [?] एक प्रकार का वृक्ष जिसे बेयार भी कहते हैं। पुं० [सं०] १. जूठा भोजन। २. जूठन वि० [अं० फेल] १. जो परीक्षा में अनुतीर्ण हुआ हो। २. जो अपने प्रायस में विफल हुआ हो। ३. जो समय पर ठीक और पूरा काम न दे।
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फेला  : स्त्री० [सं०] १. जूठा भोजन। २. जूठन।
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फेलिका  : स्त्री०=फेला।
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फेली  : स्त्री० [सं०] दे० ‘फेला’। वि० [अं० फेल] १. बुरा या बुरे काम करनेवाला। २. दुराचारी। ३. व्यभिचारी। ४. धूर्त्त।
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फेलो  : पुं० [अं० फ़ैलो] १. सहयोगी। २. किसी बहुत उच्च तथा बड़ी सभा या संस्था का सदस्य या सभासद। जैसे—विश्वविद्यालय का फेलो।
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फेल्ट  : पुं० [अं० फ़ेल्ट] १. जमाया हुआ ऊन। नमदा। जैसे—फेल्ट की टोपी। २. एक तरह की टोपी जो बहुत कुछ हैट से मिलती-जुलती है
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फेहरिस्त  : स्त्री० [अं० फ़ैहरिस्त] १. सूची। २. सूची-पत्र।
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फैंसी  : वि० [अं० फ़ैसी] १. जो किसी कल्पना या रुचि के अनुकूल हो, फलतः अलंकृत तथा सुंदर। २. काट-छाँट रंग रूप आदि के विचार से अपने वर्ग की औसत चीजों से उत्कृष्ट और सुन्दर। जैसे—फैंसी साड़ी।
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फैकल्टी  : स्त्री० [अं०] विश्वविद्यालय के अन्तर्गत किसी विद्या या शास्त्र के पंडितों और आचार्यों का वर्ग। विद्वन्मंडल।
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फेक्टरी  : स्त्री० [अं०] वह स्थान जहाँ यंत्रों की सहायता से वस्तुओं का उत्पादन या निर्माण किया जाता हो। कारखाना। निर्माणशाला।
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फ़ैज  : पुं० [अं० फैज] १. दानशीलता। २. फायदा। लाभ। क्रि० प्र०—पहुँचाना। ३. उपकार। भलाई। ४. यश। कीर्ति।
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फ़ैदम  : पुं० [अं०] जलाशयों की गहराई की एक नाप जो छः फुट की होती है। पुरसा।
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फैयाज़  : वि० [अं० फैयाज] [भाव० फैयाजी] १. जिसमें फैज अर्थात् दानशीलता हो। दानी। मुक्तहस्त। २. बहुत बड़ा उदार और भलमानुस।
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फैयाज़ी  : स्त्री० [अं० फैयाजी] १. फैयाज होने की अवस्था, गुण या भाव। दानशीलता। २. उदारता। क्रि० प्र०—दिखलाना।
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फैर  : स्त्री० [अं० फायर] १. बंदूक, तोप आदि हथियारों को दागने की क्रिया या भाव। २. उक्त के दागने, से होनेवाले शब्द। ३. बंदूक आदि की गोली का लगने या होनेवाला आघात।
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फैल  : स्त्री० [हिं० फैलना] १. फैलने या फैले हुए होने की अवस्था या भाव। विस्तार। २. लड़कों का वह दुराग्रह जो वे जमीन पर फैल अर्थात् इधर-उधर लोट-पोटकर प्रकट करते हैं। ३. और अधिक प्राप्त या वसूल करने के लिए किया जानेवाला हठ अथवा इधर-उधर की बातें। क्रि० प्र०—मचाना। पुं०=फेल। (कर्म)। पुं० [अं० फ्रेल] क्रीड़ा। खेल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फैलना  : अ० [सं० प्रसरण, प्रा० पयल्ल+ना (प्रत्यय)] १. किसी चीज का चारों ओर दूर तक विस्तृत प्रदेश में स्थित रहना या होना। विस्तार से युक्त होना। जैसे—(क) यह पर्वत (प्रदेश) सैकड़ों मील तक फैला है। (ख) कपड़े पलंगनी पर पैले हैं। २. किसी चीज का अभिवर्द्दित होकर अथवा पनपकर बहुत दूर तक पहुँचना। इधर-उधर बढ़ते हुए अधिक स्थान घेरना। जैसे—बगीचे में लताओं का फैलना। ३. किसी क्षेत्र, प्रदेश या स्थान में प्रबावपूर्ण तथा सक्रिय होना। जैसे—(क) शहर में बीमारी फैलना। (ख) गाँव मे आग फैलना। ४. आकार, रूप आदि में पहले से अधिक बड़ा या बढ़ा हुआ होना। जैसे—(क) बादी से शरीर फैलना। (ख) आबादी बढ़ने से बस्ती का चारों तरफ फैलना ५. अधि-क्षेत्र या कार्यक्षेत्र की सीमाएँ बढ़ना। जैसे—विदेशों में व्यापार फैलना। ६. बात आदि का व्यापक क्षेत्र में चर्चा का विषय बनना। जैसे—हड़ताल की खबर फैलना। ७. चारों ओर छितरा या बिखरा हुआ होना। जैसे—कमरे में सारा सामान फैला पड़ा है। ८. किसी प्रकार के अवकाश, विवर आदि का यथासाध्य अधिक विस्तृत होना। जैसे—मुँह फैलना। ९. किसी काम, चीज या बात का प्रचलन या प्रचार में आना। जैसे—आज-कल स्त्रियों में फैशन बहुत फैल गया है। १॰. किसी रूप में दूर-दूर तक पहुँचा हुआ होना या लोगों की जानकारी में होना। जैसे—बदनामी पैलना, बदबू फैलना। ११. व्यक्तियों के संबंध में, कुछ अधिक पाने या लेने के लिए आग्रहपूर्वक याचना या हठ करना। जैसे—दस रुपए इनाम मिल जाने पर भी पंडे कुछ और पाने के लिए फैलने लगे। १२. गणित के प्रसंग में लेख या हिसाब का परिकलन होना या बैठाया जाना।
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फैल-फुट्ट  : वि० [हिं० फैलना+फुट=अकेला] १. इधर-उधर फैलना या बिखरा हुआ। २. फुटकर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फैलसूफ  : वि० [यू० फ़िलसफ़-दार्शनिक] [भाव० फैलसूफी] १. बहुत बड़ा अपव्ययी। फजूलखर्ची। बहुत ठाट-बाट या शान-शौकत से रहनेवाला। ३. फरेबी और धूर्त। पुं० दार्शनिक।
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फैलसूफी  : स्त्री० [हिं० फैलसूफी] १. आवश्यकता से अधिक धन व्यय करना। अपव्यय। फजूलखर्ची। २. झूठा और दिखावटी ठाट-बाट। ३. चालाकी। धूर्तता।
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फैलाना  : स० [हिं० फैलना का स०] १. किसी को फैलने में प्रवृत्त करना। २. कोई चीज खींचकर उस विस्तार या सीमा तक ले जाना जहाँ तक वह जा सकती हो अथवा जहाँ तक उसे ले जाना आवश्यक या संगत हो। लम्बाई-चौड़ाई अथवा चौड़ाई के बल विस्तार बढ़ाना। पसारना। जैसे—(क) सुखाने के लिए पेड़ या रस्सी पर कपड़े फैलाना। (ख) कुछ पकड़ने या लेने के लिए हाथ फैलाना। ३. किसी चीज को तानते हुए आगे बढ़ना जैसे—(क) पक्षियों का पर फैलना। (ख) आराम से बैठने के लिए पैर फैलाना। ४. ऐसा काम करना जिससे कोई चीज आवश्यक या उचित से अधिक स्थान घेरे। बिखेरना। जैसे—चौकी पर तो तुमने कागज-पत्र पैला रखे है। ५. किसी पदार्थ के क्षेत्र मर्यादा सीमा आदि का विस्तार करना। बढ़ाना। जैसे—उन्होने अपना कार-बार सारे देश में फैला रखा है। ६. किसी प्रकार के घेरे या विवर का विस्तार बढ़ाना। जैसे—(क)कुछ लेने के लिए झोली फैलाना। (ख) दाँत उखाड़ने के लिए मुँह पैलाना। ७. ऐसी क्रिया करना जिससे दूर तक किसी प्रकार का परिणाम या प्रभाव पहुँचे। जैसे—यश (या सुगन्ध) फैलाना। ८. ऐसी क्रिया, करना जिससे दूर कर के लोगों को किसी बात की जानकारी या परिचय हो। जैसे—फूलों कासुगन्ध पैलाना। ९. ऐसी क्रिया करना जिससे किसी चीज का लोगों में यथेष्ट प्रचार या व्यवहार हो। उदाहरण—राज-काज दरबार में फैलावहु यह रत्न।—भारतेन्दु। १॰. कोई चीज ऐसी स्थिति में लाना कि उस पर विशेष रूप से या अधिक लोगों की दृष्टि पड़ या ध्यान आकृष्ट हो। जैसे—आडम्बर या ढोंग फैलाना। ११. गणित के क्षेत्र में, किसी प्रकार का लेखा या हिसाब तैयार करने के लिए अथवा तैयार किये हुए हिसाब की जाँच करने के लिए किसी प्रकार का परिकलन करना। जैसे—(क) ब्याज या सूद पैलाना। (ख) लागत फैलाना।
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फैलाव  : स्त्री० [हिं० फैलाना] १. फैले हुए होने की अवस्था या भाव। विस्तार। २. उतनी लम्बाई-चौडाई जिसमें कोई चीज फैली हुई हो।
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फैलावट  : स्त्री०=फैलाव।
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फैशन  : पुं० [अं० फैशन] १. समाज में विशेषतः समाज के उच्च वर्गों द्वारा किये जाने वाले बनाव-श्रृंगार धारण की जानेवाली वेश-भूषा आदि का इस रूप में होनेवाला प्रयत्न जिसे जन-साधारण भी अपनाने में अग्रसर हो रहा हो। २. ढंग। रीति।
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फैसला  : पुं० [अं० फ़ैसलः] १. न्याय-कर्ता द्वारा दी जानेवाली व्यवस्था निर्णय़। निबटारा। मुहावरा—फैसला सुनाना=न्यायाधीश अथवा निर्णायक द्वारा किसी विवादास्पद विषय के संबंध में अपना निर्णय सुनाना। २. किसी बात के संबध में किया जानेवाला अंतिम तथा दृढ़ निश्चय। क्रि० प्र०—करना।
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फैसिज्म  : पुं० [अ० फैसिज्म] शासन का वह प्रकार जिसमें प्रभुसत्ता किसी राष्ट्रवादी निरंकुश शासक में केन्द्रीभूत होती है।
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फैसिस्ट  : पुं० [अं० फैसिस्ट] १. वह जो फैसिज्म के सिद्धान्त मानता हो। २. फैसिज्म के सिद्धान्तों पर बना हुआ इटली में एक राजनैतिक दल। ३. लाक्षणिक अर्थ में, वह व्यक्ति जो सारा अधिकार अपने हाथ में रखना चाहता तथा विरोधियों को कुचल डालने का पक्षपाती हो।
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फोंक  : पुं० [सं० पुं] १. तीर का पिछला सिरा जिसपर पंखा लगाये जाते हैं० २. दे० ‘भोगली’। वि० पुं०=फोक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फोंकली  : स्त्री० दे० ‘भोगली’।
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फोंका  : पुं० [स० पुंख या हिं० फुँकना] १. लम्बा और पोला चोंगा। फोंकी। २. पीले डंठलवाले शस्यों की फुनगी। जैसे—मटर का फोंका। पुं० १. फूँका। २. सर-फोका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फोंका-गोला  : पुं० [हिं० फोंक गोला] तोप का एक प्रकार का लम्बा गोला।
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फोंदा  : पुं०=फुँदना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फोंफर  : वि० [अनु०] १. खोखला। २. पोला। ३. निस्सार। थोथा। पुं० दो तलों के बीच में ऐसी दरज या सन्धि जिसमें से उस पार की चीचें दिखायी देती हों।
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फोंफी  : स्त्री० [अनु०] १. गोल-लम्बी नली। छोटा चोंगा। २. सुनारों की वह नली जिससे वे आग धौंकते हैं। ३. दे० ‘भोगली’।
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फोक  : पुं० [सं० स्फोट] १. वह नीरस अंश जो किसी रसपूर्ण पदार्थ में से रस निचोड़कर निकाल लेने के उपरान्त बच रहता है। सीठी। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी चीज जिसमें कोई तत्त्व न रह गया हो। पुं० [?] एक तृण जिसका साग बनाया जाता है। स्त्री० [?] पीड़ा। वेदना। वि० [?] चार। (दलाल)।
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फोकट  : वि० [मरा० फुकट] १. जिसमें कुछ भी तत्त्व या सार न हो। निस्सार। २. जिसके लिए कुछ भी परिश्रम या व्यय न करना पड़ता हो। मुफ्त का। जैसे—फोकट का माल। पद—फोकट का=मुफ्त का। फोकट में=(क) बिना कुछ व्यय किये। मुफ्त। (ख) व्यर्थ, बे-फायदा।
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फोकला  : पुं० [सं० वल्कन, हिं० बोकला] [स्त्री० फोकलाई] किसी फल आदि का ऊपरी छिलका। वि०=फोका।
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फोकलाप  : वि० [देश] चौदह। (दलाल)।
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फोका  : वि० [हिं० फोक] [स्त्री० फोकी] १. फोक के रूप में होनेवाला अर्थात् रस हीन और बेस्वाद। २. जिसमें मिठास न हो। ३. जिसमें कोई तत्त्व न हो। ४. खाली। रिक्त। ५. खोखला। पोला। जैसे—फोका बाँस। ६. हलके दरजे का। घटिया। अव्य० केवल। निरा। पुं०=पोका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फोकी  : स्त्री० [हिं० फोका] ऐसी मुलायम भूमि जिसमें आसानी से हल चल सके।
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फोग  : पुं० [?] राजस्थान में होने वाला एक प्रकार का क्षुप।
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फोट  : पुं० [सं० स्फोट] स्फोट। पुं० [हिं० फूटना] १. फूटने की क्रिया या भाव। २. मुँह से निकलनेवाली मन की बात। उद्गार।
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फोटक  : वि०=फोकट।
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फोटा  : पुं० [सं० स्फोटक] १. माथे पर लगायी जानेवली गोल बिंदी। २. किसी प्रकार का गोलाकार चिन्ह। ३. दे० ‘टीका’।
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फोटो  : पुं० [अं० फ़ोटोग्राफ] १. एक विशिष्ट यांत्रिक उपकरण द्वारा खींचा हुआ चित्र। छाया-चित्र। २. वह पत्र जिसपर उक्त चित्र छपा होता है। क्रि० प्र०—उतारना।—खींचना—लेना।
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फोटोग्राफ  : पुं०=फोटो।
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फोटोग्राफर  : पुं० [अं०] फोटो अर्थात् छाया चित्र बनानेवाला कलाकार।
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फोटोग्राफी  : स्त्री० [अं०] फोटो उतारने के यंत्र के द्वारा फोटो या छाया-चित्र बनाने की कला या कृत्य।
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फोड़न  : स्त्री० [हिं० फोड़ना] वे मसाले जो दाल-तरकारी आदि आँच पर रखने से पहले उन्हें छौंकने या बघारने के लिए डाले जाते हैं। तड़का। वि० फोड़नेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फोड़ना  : स० [सं० स्फोटन, प्रा० फोड़न] १. हिं० ‘फूटना’ का स० रूप। ऐसा काम करना जिससे कोई चीज फूटे। २. खरी या करारी वस्तुओं को दबाव या आघात द्वारा तोड़ना। खंड-खंड करना। जैसे—घड़ा फोडना। पद—तोड़ना-फोड़ना। ३. ऊपरी आवरण या तल में स्थान-स्थान पर अवकाश उत्पन्न करना कि अन्दर की चीज बाहर निकल आये या निकलने लगे। जैसे—(क) कच्चा पारा शरीर को फोड़ देता है। (ख) बरसात में जमीन को फोड़कर बीज में से नये कल्ले निकलते हैं। ४. किसी दल या पक्ष के व्यक्तियों या व्यक्ति को प्रलोभन आदि देकर अपनी ओर मिला लेना। जैसे—शत्रुओं ने कई अधिकारियों को फोड़कर अपनी ओर मिला लिया। ५. व्यर्थ ऐसा परिश्रम करना जिससे कोई फल न हो या बहुत ही कम फल हो। जैसे—(क) किसी महीन काम के लिए आँखें फोड़ना। (ख) किसी को समझाने के लिए अपना सिर फोड़ना अर्थात् माथा पच्ची करना। ६. किसी का भेद या रहस्य सब पर प्रकट करना। जैसे—किसी का भंडा फोड़ना। ७. उँगलियों के संबंध में उनके पौरों को इस प्रकार ऐँठना या खींचना कि उनमें से खट्-खट् शब्द हो। जैसे—बार-बार उँगलियों फोड़ते रहना अशुभ होता है।
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फोड़ा  : पुं० [सं० स्फोटक, प्रा० फोड़] [स्त्री० अल्पा० फोड़िया] शारीरिक विकार के होने के कारण ऐसा व्रण जिसमें रक्त सड़कर मवाद के रूप धारण कर लेता है। (एब्सेस)।
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फोड़िया  : पुं० [हिं० फोड़ा, या सं० पिडिका] छोटा फोड़ा।
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फोता  : पुं० [फा० फ़ोतः] १. कमरबन्द। पटका। २. लुंगी। ३. पगड़ी। ४. खेत या जमीन पर लगनेवाला राज-कर। पोत। लगान। मुहावरा—फोता भरना=कर या लगान देना। ५. रुपये रखने की थैली। ६. अंड-कोश।
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फोतेदार  : पुं० [फा० फोतदार] १. कोषाध्याक्ष। खजांची। २. रोकड़िया। पोतदार।
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फोनोग्राफ  : पुं० [अं० फ़ोनोग्राफ़] एक प्रकार का यंत्र जिसमें कहीं हुई बात और बजाये हुए बाजों के स्वर आदि चूड़ियों में भरे रहते हैं और ज्यों के त्यों सुनायी पड़ते हैं। (ग्रामोफोन इसी का विकसित रूप है)।
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फोरना  : स०=फोड़ना।
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फोरमैन  : पुं० [अं० फोरमैन] कारखानों में कारीगरों और काम करने वालों का प्रधान या सरदार। जैसे—प्रेस का फोरमैन।
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फोहा  : पुं०=फाहा।
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फोहारा  : पुं०=फुहारा।
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फौंकना  : अ० [अनु०] आवेश में आकर डींग मारना। शेखी हाँकना।
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फौंदन  : पुं०=फुँदना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फौआरा  : पुं०=फुहारा।
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फौक  : वि० [अ० फ़ौक] १. उच्च। श्रेष्ठ। २. उत्तम। पुं० १. उच्चता। ऊँचाई। २. प्रधानता। श्रेष्ठता। मुहावरा—(किसी से) फौक ले जाना=किसी से बहुत बढ़कर या श्रेष्ठ सिद्ध होना।
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फौज  : स्त्री० [अ० फ़ौज] [वि० फौजी] १. सेना। २. झुंड। जैसे—बंदरों या बच्चों की फौज।
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फौजदार  : पुं० [अ० फ़ौज+फा० दार] [भाव० फौजदारी] सेना का एक छोटा अधिकारी।
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फौजदारी  : स्त्री० [अ०] १. फौजदार का कार्य या पद। २. वह न्यायालय जिसमें मार-पीट हत्या आदि संबंधी मुकदमों की सुनवाई होती है। ३. गहरी मार-पीट की कोई घटना।
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फौजी  : वि० [फा० फ़ौजी] १. फौज का। जैसे—फौजी अफसर। २. फौज या फौजों में होनेवाला। जैसे—फौजी लड़ाई।
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फौत  : वि० [अ० फ़ौत] १. मरा। हुआ। मृत। २. जो नष्ट हो गया हो। जैसे—किसी बात का मतलब फौत होना। स्त्री० मृत्यु। मौत।
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फौती  : वि० [अ० फ़ौत] १. मृत्यु-संबंधी। मृत्यु का। २. मरा हुआ। मृत। स्त्री० १. मृत्यु। मौत। २. किसी विशिष्ट स्थानीय शासक विशेषतः जन-गणना करनेवाले कसी अधिकारी को दी जानेवाली किसी की मृत्यु की सूचना।
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फौतीनामा  : पुं० [अ० फ़ौत+फा० नामा] १. मृत व्यक्तियों के नाम और पते की सूची जो नगरपालिका आदि की चौकी पर तैयार की जाती है और प्रधान कार्यालय में भेजी जाती है। २. सेना द्वारा किसी मृत सैनिक के घर उसकी मृत्यु का भेजा जानेवाला समाचार।
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फौरन  : क्रि० वि० [अ० फौरन] तत्क्षण। उसी समय। जल्दी ही। तत्काल। तुरन्त।
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फौरी  : वि० [अ० फ़ौरी] (काम) जो चटपट या तुरंत किया जाने को हो।
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फौलाद  : पुं० [फा० फ़ौलाद] असली लोहा।
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फौलादी  : वि० [फा०] १. फौलाद का बना हुआ। जैसे—फौलादी ढाँचा। २. बहुत ही दृढ़ या पक्का। स्त्री० वह डंडा जिसके सिरे पर बल्लम या भाला जड़ा रहता है।
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फौवारा  : पुं०=फुहारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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फ्रांस  : पुं० [अं०] यूरोप का एक प्रसिद्ध देश जो स्पेन के उत्तर में हैं।
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फ्रांसीसी  : वि० [हिं० फ्रांस+ईसी (प्रत्यय)] फ्रांस का। पुं० फ्रांस देश का निवासी। स्त्री० फ्रांस देश की भाषा।
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फ्राक  : पुं० [अं० फ्राक] लम्बी आस्तीन का ढीला ढाला एक प्रकार का छोटे बच्चों विशेषतः लड़कियों के पहनने का कुरता।
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फ्री  : वि० [अं० फ्री] १. जिस पर किसी का दबाव या नियन्त्रण न हो। स्वतंत्र। २. जिसके लिए कोई कर या देन नियत न हो। ३. जो किसी प्रकार का कर या देन चुकाने से मुक्त कर दिया गया हो।
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फ्रीमेसन  : पुं० [अं०] फ्रीमेसनरी नामक सम्प्रदाय का अनुयायी या सदस्य।
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फ्रीमेसनरी  : स्त्री० [अ०] अमेरिका और यूरोप में मध्ययुग का एक रहस्य संप्रदाय।
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फ्रेंच  : वि० [अं० फ़्रेच] फ्रांस देश का। स्त्री० फ्रांस देश की भाषा। पुं० फ्रांस देश का निवासी।
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फ्रेम  : पुं० [अं० फ़्रेम] १. चित्रों आदि का या और किसी प्रकार का चौकठा। २. ढाँचा।
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