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भावना  : स० [सं० भ्रमण] १. किसी चीज़ को खराद आदि पर रख कर घुमाना। २. खरादना। कुनना। ३. अच्छी तरह गढ़कर सुन्दर और सुडौल बनाना। ४. दही या मट्ठा मथना। उदाहरण—मट्ठा भाँवने के समय हँसुली नाचती होगी।—वृन्दावनलाल वर्मा। अ० १. चक्कर या फेरा लगाना। २. व्यर्थ इर-उधर घूमना।
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भावनीय  : वि० [सं० भानु+छ—ईय, गुण] भानु-संबंधी। भानु का। पुं० दाहिनी आँख।
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भावंता  : वि०=भावता।
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भाव  : पुं० [सं०√भू (होना)+णिच्+अच्] [वि० भाविक, भावुक] १. किसी वस्तु के अस्तित्व में आने, रहने या होने की अवस्था। प्रस्तुत या वर्तमान होने का तत्त्व या दशा। अस्तित्व। सत्ता। ‘अभाव’ इसी का विपर्याय है। (एग्ज़िस्टेन्स)। २. प्रत्येक ऐसा पदार्थ जो अस्तित्व में आता या जन्म लेता, बढ़ता या विकसित होता तथा अंत में नष्ट हो जाता है। ३. मन में उत्पन्न होनेवाले विचार का वह अपरिपक्व आरंभिक और मूल रूप जिसमें उसका आशय या उद्देश्य भी निहित होता है। मानस उद्बावना का वह रूप जो परिवर्धित तथा विकसित होकर विचार में परिणत होता है। जैसे—उस समय मेरे मन में अनेक प्रकार के भाव उत्पन्न हो रहे थे। ४. मन में उत्पन्न होनेवाली कोई भावना। खयाल। विचार। ५. कथन, लेख्य आदि का वह उद्दिष्ट और मुख्य अभिप्राय या आशय जो कुछ अस्पष्ट तथा गूढ़ होता है, और जो सहसा दूसरों की समझ में नहीं आता। आशय। तात्पर्य। मतलब। (सेन्स) जैसे—यहाँ कवि का भाव कुछ और ही है। ६. मन में उत्पन्न होनेवाली भावनाओं, विचारों आदि का वह आभास या छाया जो कुछ अवसरों पर आकृति आदि पर पड़ती और उन भावनाओं, विचारों आदि की सांकेतिक रूप में सूचक होती है। जैसे—उसके चेहरे पर एक भाव आता और एक जाता था। मुहा०—भाव देना=मन का कोई भाव शारीरिक चेष्टा या अंग-संचालन से प्रकट करना। उदा०—श्याम को भाव दै गई राधा।—सूर। ७. किसी चीज के प्रति होनेवाली हार्दिक भक्ति, विश्वास या श्रद्धा। उदा०—का भाखा, का संस्कृत, भाव चाहियतु साँच।—तुलसी। ८. किसी काम, चीज या बात का वह गुणात्मक अथवा धर्मात्मक तत्त्व जो उसकी मूल प्रकृति या विशेषता का आधार या सूचक होता है; और जिसकी सत्ता से पृथक् तथा स्वतंत्र मानी जाती है। (सब्स्टेन्स) जैसे—शीतल होने का भाव ही शीतलता है; इसीलिए ‘शीतलता’ भाव-वाचक संज्ञा है। ९. सांख्य में, बुद्धि-तत्त्व का कार्य, धर्म या विकार जो वेदांत के अनुसार ‘कर्म’ है। १॰. वैशेषिक में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छः पदार्थ जिनका अस्तित्व निश्चित तथा वास्तविक माना गया है। ११. व्याकरण में, धातु का अर्थ। १२. साहित्य में आश्रय की मानसिक स्थितियों का व्यंजक प्रदर्शन जिससे रस की उत्पत्ति होती है, और अनेक प्रकार के शारीरिक व्यापारों से व्यक्त होती है। साहित्यकारों ने इसके स्थायी, व्यभिचारी और सात्त्विक ये तीन प्रकार या भेद कहे हैं। (देखें उक्त शब्द) १३. संगीत के सात अंगों में से पाँचवाँ अंग जिसमें गाये जानेवाले गीत में वर्णित मनोभाव, शारीरिक अंग-संचालनों और चेष्टाओं के द्वारा मूर्त रूप में प्रदर्शित किये जाते हैं। मुहा०—भाव बताना=संगीत में गेय पद में वर्णित मनोभाव आंगिक चेष्टाओं के द्वारा प्रदर्शित करना। १४. चोचला। नखरा। मुहा०—भाव बताना=कोई काम करने का समय आने पर केवल हाथ-पैर हिला कर या बातें बना कर उसे टालने का प्रयत्न करना। (बाजारू) १५. फलित ज्योतिष में, ग्रहों की शयन, उपवेशन, प्रकाशन, गमन आदि बारह चेष्टाओं में से प्रत्येक चेष्टा या स्थिति जिसका ध्यान जन्म-कुंडली का विचार करने के समय रखा जाता है। और जिसके आधार पर फलाफल कहे जाते हैं। १६. ज्योतिष में साठ संवत्सरों में से आठवें संवत्सर की संज्ञा। १७. ज्योतिष में जन्म-समय का नक्षत्र। १८. चीज़ों आदि की वह दर या मूल्य जो प्रायः बाजारों में चलता और समय समय पर घटा-बढ़ता रहता है। निर्ख। जैसे—पहले भाव पूछ कर तब चीज खरीदनी चाहिए। पद—भाव-ताव। (देखें) क्रि० प्र०—उतरना।—गिरना।—घटना।—चढ़ना।—बढ़ना। १९. आत्मा। २॰. जगत्। संसार। २१. जन्म। पैदाइश। २२. चित्त। मन। २३. कार्य, कृत्य या क्रिया। २४. कल्पना। २५. उपदेश। २६. विभूति। २७. पंडित। विद्वान। २८. पशु। जानवर। २९. भग। योनि। ३॰. रति-क्रीड़ा। संभोग। ३१. अच्छी तरह देखना। पर्यालोचन। ३२. प्रेम। मुहब्बत। स्नेह। ३३. ढंग। तरीका। ३४. तरह। प्रकार। भाँति। ३५. उपदेश। ३६. उद्देश्य। हेतु। ३७. प्रकृति। स्वभाव। ३८. कामना। वासना। ३९. अवस्था। दशा। हालत। ४॰. विश्वास। ४१. आदर-सम्मान। ४२. दे० ‘भाव अलंकार’।
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भाव-अलंकार  : पुं० [सं० कर्म० स०] नाट्य शास्त्र में अंगज अलंकारों का एक भेद जिसमें नायिका के वे आंगिक विकार या क्रिया-व्यवहार आते हैं जो उसके निर्विकार चित्तावस्था में यौवनोद्गम के साथ साथ काम-विकार का वपन करते हैं।
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भावइ  : अव्य० [हिं० भावना या भाना=अच्छा लगना, मि० पं० भाँवें] अगर इच्छा हो तो। अगर मन चाहे तो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भावक  : वि० [सं०√भू+णिच्+ण्वुल—अक] १. भावना करनेवाला। २. भाव से युक्त। भाव-पूर्ण। ३. उत्पन्न करनेवाला। उत्पादक। ४. किसी का अनुयायी, प्रेमी या भक्त। पुं० १. भाव। २. साहित्य-शास्त्र में, काव्य का अधिकारी पाठक। अव्य० [सं० भाव+क (प्रत्य०)] थोड़ा सा। ज़रा सा। किंचित्।
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भाव-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. इरादा। इच्छा। २. विचार। ३. मराठी साहित्य में वह गीत जिसमें मुख्यतः मनोभावों की प्रधानता हो।
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भावगम्य  : वि० [सं० तृ० त०] सद्भाव से जाने के योग्य। जो अच्छे भाव की सहायता से जाना जा सके।
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भाव-ग्रंथि  : स्त्री० [सं०] दे० ‘मनोग्रंथि’।
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भाव-ग्राह्य  : वि० [सं० तृ० त०] जिसे ग्रहण करने से पूर्व मन में सद्बाव लाने की आवश्यकता हो।
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भावग्राही (हिन्)  : वि० [सं० भाव√ग्रह् (ग्रहण करना)+णिनि] भाव या आशय समझनेवाला।
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भाव-चित्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह चित्र जो विशेषतः कोई मानसिक भाव प्रकट करने के उद्देश्य से बनाया गया हो।
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भावज  : वि० [सं० भाव√जन् (उत्पत्ति)+ड] भाव से उत्पन्न। स्त्री० [सं० भ्रातृजाया, हिं भौजाई] भाई, विशेषतः बड़े भाई की पत्नी। भाभी।
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भावज्ञ  : वि० [सं० भाव√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० भावज्ञता] मन की प्रवृत्ति या भाव जाननेवाला।
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भावतः  : अव्य [सं० भाव+तस्] भाव की दृष्टि से। भाव के विचार से।
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भावता  : वि० [हिं० भावना=अच्छा लगना+ता (प्रत्य०)] [स्त्री० भावती] जो भला लगे। मोहक। लुभावना। पुं० प्रियतम।
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भाव-ताव  : पुं० [सं० भाव+हिं० ताव] १. किसी चीज का भाव अर्थात् दर, मूल्य आदि। निर्ख। २. किसी चीज या बात का रंग-ढंग। क्रि० प्र०—जाँचना।—देखना।
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भाव-दत्त  : पुं० [सं० तृ० त०] चोरी न कर के मन में केवल चोरी की भावना करना जो जैनियों के अनुसार एक प्रकार का पाप है।
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भाव-दया  : वि० [सं० मध्य० स०] किसी जीव की दुर्गति देखकर उसकी रक्षा के लिए अंतःकरण में दया लाना। (जैन)
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भावन  : पुं० [सं०√भू (होना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. भावना। २. ध्यान। ३. विष्णु। वि० [हिं० भाना=भला लगना] भाने या भला लगनेवाला। प्रियदर्शी।
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भावना  : स्त्री० [सं०√भू+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. मन में किसी बात का होनेवाला चिंतन। ध्यान। २. मन में उत्पन्न होनेवाली कोई कल्पना, भाव या विचार। खयाल। विशेष—दार्शनिक दृष्टि से यह चित्त का एक संसार है जो अनुभव, स्मृति आदि के योग से उत्पन्न होता है। ३. कामना। चाह। वासना। ४. वैद्यक में, औषध आदि को किसी प्रकार के रस या तरल पदार्थ में बार बार मिला कर घोटना और सुखाना जिसमें उस औषध में रस या तरल पदार्थ के कुछ गुण आ जायँ। पुट। ५. चिन्ता। फिक्र। क्रि० प्र०—देना। अ०=भाना (अच्छा लगना)। वि०=भावता या भावन (अच्छा लगनेवाला)।
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भाव-नाट्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह भाव-प्रधान नाटक जिसमें कुछ संगीत भी हो।
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भावनामय-शरीर  : पुं० [सं० भावना+मयट्, भावनामय-शरीर, कर्म० स०] सांख्य के अनुसार एक प्रकार का शरीर जो मनुष्य मृत्यु से कुछ ही पहले धारण करता है और जो उसके जन्म भर के किए हुए सभी कर्मों के अनुरूप होता है। कहते हैं कि जब आत्मा इस शरीर में पहुँच जाती है, तभी मृत्यु होती है।
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भावना-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर आदि का आध्यात्मिक तथा भक्तिपूर्ण मार्ग या साधन।
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भावनि  : स्त्री० [हिं० भाना या भावना=अच्छा लगना] मन में सोचा हुआ काम या बात। वह जो जी में आया हो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाव-निक्षेप  : पुं० [सं० ष० त०] जैनों के अनुसार, किसी पदार्थ का वह नाम जो उसका केवल प्रस्तुत स्वरूप देखकर रखा गया हो।
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भावनीय  : वि० [सं०√भू+णिच्+अनीयर्] चित्त या विचार में लाये जाने के योग्य। जिसकी भावना की जा सके या हो सके।
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भाव-पक्ष  : [सं० ष० त०] साहित्यिक रचना का वह पक्ष जिसमें उसकी निष्पत्ति रस का सांगोपांग वर्णन या विवेचन होता है। जिसमें विशेष रूप से काव्यगत भावनाओं, कल्पनाओं तथा विचारों की प्रधानता होती है।
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भाव-परिग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थिति जिसमें मनुष्य धन का संग्रह करता तो नहीं है अथवा नहीं कर पाता परन्तु उसमें धन-संग्रह की भावना प्रबल होती है।
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भाव-प्रधान  : पुं०=भाववाच्य। वि० [सं०] जिसमें भाव या भावों की तीव्रता या प्रधानता हो।
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भाव-बंध  : पुं० [सं० तृ० त०] जैनों के अनुसार भावनाएँ या विचार जिनके द्वारा कर्म-तत्त्व से आत्मा बंधन में पड़ती है।
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भाव-भंगी  : स्त्री० [सं० ष० त०] मन का भाव प्रकट करनेवाला अंग-विक्षेप। वह शारीरिक क्रिया जो मन का भाव प्रकट करनेवाली हो।
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भाव-भक्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. भक्ति-भाव। २. आदर-सत्कार। सम्मान।
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भाव-मृषावाद  : पुं० [सं० तृ० त०] १. वह स्थिति जिसमें मनुष्य झूठ नहीं बोलता पर उसके मन में झूठ बोलने की प्रवृत्ति जागरुक होती है। २. शास्त्र के वास्तविक अर्थ को दबाकर अपना हेतु सिद्ध करने के लिए झूठ-मूठ नया अर्थ करना। (जैन)
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भाव-मैथुन  : पुं० [सं० तृ० त०] वह स्थिति जिसमें मनुष्य प्रत्यक्ष रूप से तो मैथुन नहीं करता या नहीं करना चाहता परन्तु उसका मन विशेषतः सुप्त मन मैथुनिक विचारों में रत रहता है।
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भावय  : पुं० [देश०] वह व्यक्ति जो धातु की चद्दर पीटने के समय पासे को सँड़से से पकड़े रहता और उलटता रहता है।
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भावर (रि)  : स्त्री० [हिं० माना] १. भाने की अवस्था या भाव। २. अभिरुचि। उदा०—भावरि अनभावरि भरे करौ कोरि बकवाद।—बिहारी। स्त्री०=भाँवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाव-लय  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थिति जिसमें शुद्ध भावात्मक धरातल पर लय की प्रतीति होती है।
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भावलिपि  : स्त्री० [सं० ष० त०] लिपि का वह आरंभिक और मूल प्रकार जिसमें मन के भाव या विचार अक्षरों या वर्णों के द्वारा नहीं, बल्कि उन भावों या विचारों के प्रतीकों के द्वारा अंकित और सूचित किये जाते थे। (आइडियोग्राफी) उत्तरी अमेरिका और मिस्र के आदिम निवासियों की लिपियों की गणना भाव-लिपि में होती है।
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भावली  : स्त्री० [देश०] जमींदार और असामी के बीच उपज की होनेवाली बँटाई।
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भाव-वाचक  : स्त्री० [सं० ष० त०] व्याकरण में वह संज्ञा जिससे किसी पदार्थ का भाव, धर्म, या गुण आदि सूचित हो। जैसे—कुरूपता, सुशीलता, कट्टरपन, बुरापन आदि।
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भाव-वाच्य  : पुं० [सं० तृ० त०] व्याकरण में वह तत्त्व जो अकर्मक क्रिया पद की उस स्थिति का सूचक होता है जब वह कर्ता का व्यापार सूचित न कर के क्रिया के व्यापार का ही बोध कराता है। उक्त अवस्था में क्रिया पद के साथ कर्ता प्रथमा विभक्ति से युक्त न हो कर तृतीया विभक्ति से युक्त होता है। जैसे—अब हाथ से कलम उठने लगी है।
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भाव-विकार  : पुं० [सं० ष० त०] जन्म, अस्तित्व, परिणाम, वर्धन, क्षय और नाश ये छः विकार। (यास्क)
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भाव-व्यंजक  : वि० [सं० ष० त०] अच्छी तरह या स्पष्ट रूप से भाव प्रकट या व्यक्त करनेवाला।
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भाव-व्यंजन  : पुं० [सं० ष० त०] मन का भाव प्रकट करने की क्रिया या दशा।
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भाव-शबलता  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थिति जिसमें एक एक करके अनेक भाव श्रृंखलाबद्ध रूप में प्रकट होते हैं अथवा अनेक भावों का मिश्रण दिखाई पड़ता हो।
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भाव-शांति  : स्त्री० [सं० ष० त०] साहित्य में वह अवस्था जब मन में किसी नये विरोधी भाव के उत्पन्न होने पर पहले का कोई भाव शान्त या समाप्त हो जाता है।
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भाव-संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थिति या स्थल जहाँ दो अविरोधी भावों की संधि होती है।
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भाव-संवर  : पुं० [सं० ष० त०] जैनों के अनुसार वह क्रिया या शक्ति जिससे मन में नये भावों का ग्रहण रुक जाता है।
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भाव-सत्य  : पुं० [सं० तृ० त०] ऐसा सत्य जो ध्रुव न होने पर भी भाव की दृष्टि से सत्य हो।
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भाव-सर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] तन्मात्राओं की उत्पत्ति। (सांख्य)
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भाव-हरण  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी की कविता, लेख आदि के भाव चुरा कर उन्हें अपनी मौलिक कृति के रूप में लोगों के सामने उपस्थित करना। २. साहित्यिक चोरी। (प्लेजिअरिज़्म)
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भाव-हारी (रिन्)  : पुं० [सं० भाव√हृ+णिनि, उप० स०] दूसरों की कविताओं, लेखों आदि के भाव चुरा कर उन्हें अपनी मौलिक कृति बतलानेवाला व्यक्ति। (प्लेजिअरिस्ट)
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भाव-हिंसा  : स्त्री० [सं० स० त०] केवल मन में किसी के प्रति हिंसापूर्ण भाव होना। ऐसी स्थिति में मनुष्य हिंसा की भावना कार्य रूप में परिणति नहीं करता।
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भावांकन  : पुं० [सं० भाव-अंकन, ष० त०] भावों को चित्रों या विशेष प्रकार के चिह्नों में अंकित करने की क्रिया या भाव। (आइडियोग्राफी) विशेष दे० ‘चित्रलिपि’।
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भावांतर  : पुं० [सं० भाव-अंतर, ष० त०] १. मन की अवस्था का बदल कर कुछ और हो जाना। २. अर्थान्तर।
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भावात्मक  : वि० [सं० भाव-आत्मन्, ब० स०,+कप्] १. जिसमें किसी प्रकार का मानसिक भाव भी मिला हो। २. भावों से परिपूर्ण या युक्त (रचना) ३. जो भाव से युक्त अर्थात् जिसमें अभाव न हो। वि० दे० ‘सहिक’।
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भावानुग  : वि० [सं० भाव० अनुग, ष० त०] [स्त्री० भावानुगा] भाव का अनुसरण करनेवाला।
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भावानुगा  : स्त्री० [सं० भावानुग+टाप्] छाया।
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भावापहरण  : पुं० =भावहरण।
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भावाभाव  : पुं० [सं० भाव० अभाव, द्व० स०] १. भाव और अभाव। होना या न होना। २. उत्पत्ति और नाश या लय। ३. जैनों के अनुसार भाव का अभाव में अथवा वर्तमान का भूत मे होनेवाला परिवर्तन।
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भावाभास  : पुं० [सं० भाव०+आभास, ष० त०] साहित्य में काव्य दोषों के अन्तर्गत वह स्थिति जिसमें कोई व्यभिचारी भाव किसी रस का पोषक न होकर स्वतंत्र रूप से भाव-व्यवस्था को प्राप्त होता हुआ सा दिखाई देता है।
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भावार्थ  : पुं० [सं० भाव-अर्थ] १. ऐसा विवरण या विवेचन जिसमें मूल का केवल भाव या आशय आ जाय, अक्षरशः अनुवाद न हो। (शब्दार्थ) से भिन्न) २. अभिप्राय। आशय। तात्पर्य। मतलब।
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भावालंकार  : पुं० दे० ‘भाव० अलंकार’।
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भावालीना  : स्त्री० [सं० भाव-आलीना, स० त०] छाया।
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भावाश्रित  : वि० [सं० भाव-आश्रित, ष० त०] (काव्य, गीत, नृत्य आदि) जो मानसिक भावों के आधार पर स्थित हो। पुं० संगीत में हस्तक का एक भेद। गेय पद का भाव के अनुसार हाथ उठाना, घुमाना और चलाना।
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भाविक  : वि० [सं० भाव+ठक्-इक] १. भाव-संबंधी। भाव का। २. भाव या आशय जाननेवाला। ३. मर्मज्ञ। ४. नैसर्गिक। प्राकृतिक। ५. असली। वास्तविक। ६. भविष्य में होनेवाला। भावी। पुं० १. ऐसा अनुमान जो अभी हुई न हो पर आगे चल कर होनेवाला हो। भावी अनुमान। २. साहित्य में एक प्रकार का अंलकार जिसमें भूत और भविष्यत् भावों या पदार्थों का एक साथ तथा प्रत्यक्षवत् दर्शन किया जाता है।
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भावित  : भू० कृ० [सं०√भू (होना)+णिच्+क्त] १. जिसकी भावना की गई हो। सोचा या विचारा हुआ। २. मिलाया हुआ। मिश्रित। ३. शुद्ध किया हुआ। शोधित। ४. जिसमें किसी रस आदि की भावना की गई हो। जिसमें पुट दिया गया हो। ५. किसी गंध से युक्त किया हुआ। बासा या बसाया हुआ। ६. अधिकार में आया हुआ। प्राप्त। ७. भेंट किया हुआ। अर्पित। ८. उत्पन्न जात।
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भाविता  : स्त्री० [सं० भाविन्+तल्+टाप्] भावी का भाव। होनेहार। होनी।
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भावितात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० भावित-आत्मन्० ब० स०] जिसने ईश्वर का मनन तथा चिंतन करके अपनी आत्मा शुद्ध कर ली हो।
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भावित्र  : पुं० [सं०√भू (होना)+णित्रिन्, वृद्धि] स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों का समाहार। त्रैलोक्य।
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भावी (विन्)  : वि० [सं०√भू+इनि, णित्व] १. भविष्य में होने या घटित होनेवाला। २. जो भाग्य के विधान के अनुसार अवश्य होने को हो। किस्मत में बदा हुआ। स्त्री० १. भविष्यत् काल। भविष्य मे अनिवार्य तथा निश्चित रूप से घटित होनेवाली बात या व्यापार। अवश्य होनेवाली बात। भवितव्यता।
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भावुक  : वि० [सं०√भू (होना)+उकञ्, वृद्धि] १. भावना करने या सोचने-समझनेवाला। २. जिसके मन में भावों का उद्वेग या संचार बहुत जल्दी होता हो। ३. (व्यक्ति) जो मन मे उठे हुए भाव के वशीभूत हो जाय और कर्त्तव्य अकर्त्तव्य भूल जाय। ४. उत्तम भावना करनेवाला। अच्छी बातें सोचनेवाला। पुं० १. भला आदमी। सज्जन। २. कल्याण। मंगल। ३. बहनोई।
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भावे  : अव्य=भावै। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भावे प्रयोग  : पुं० [सं० व्यस्त पद] व्याकरण में क्रिया का ऐसे रूप में होनावाला प्रयोग जिसमें कर्ता या कर्म के पुरुष लिंग और वचन के अनुसार उसके रूप नहीं बदलते, और क्रिया सदा अन्य पुरुष, पुल्लिंग और एक वचन में रहती है। (इम्पर्सनल यूज) जैसे—उन्हें यहाँ बुलाया जायगा (विशेष दे० ‘प्रयोग के अन्तर्गत’)।
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भावै  : अव्य० [हिं० भाना=अच्छा लगना] १. चाहे जो हो। २. जो चाहे तो। अच्छा लगे तो। ३. अथवा। चाहे। या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भावोत्सर्ग  : पुं० [सं० भाव०-उत्सर्ग, ष० त०] क्रोध आदि बुरे भावों का त्याग। (जैन)
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भावोदय  : पुं० [सं० भाव०-उत्सर्ग, ष० त०] साहित्य में एक अंलकार जिसमें किसी नवीन भाव के उदय होने का उल्लेख या वर्णन होता है।
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भावोन्मेष  : पुं० [सं० भाव+उन्मेष, ष० त०] मन में होनेवाला किसी भाव का उदय।
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भाव्य  : वि० [सं०√भू (होना)+ण्यत्] १. जिसका होना बिलकुल निश्चित हो। अवश्य होनेवाला। अवश्यम्भावी। २. जिसकी भावना की जा सके। ३. जो प्रमाणित या सिद्ध किया जाने को हो।
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