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भोग  : पुं० [सं०+भुज (उपभोग करना)+घञ्] १. भोगने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. सुख-दुख आदि का अनुभव करते हुए उन्हें अपने मन और शरीर पर प्राप्त या सहन करना। ३. इच्छाओं की तृप्ति, प्रसन्नता, मनस्तोष आदि के विचार से अभीष्ट, लाभदायक या सुखद वस्तु मनमाने ढंग से अपने उपयोग में लाने की क्रिया या भाव। जैसे—सम्पत्ति का भोग, सांसारिक सुखों का भोग। ४. किसी पदार्थ का किया जानेवाला उपयोग या व्यवहार। किसी चीज का काम में लाया जाना। ५. भोजन करना। खाना। ६. देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने उनके काल्पनिक उपभोग के उद्देश्य से रखे जानेवाले खाद्य पदार्थ। नैवेद्य। मुहा०—भोग लगाना=(क) देवताओं की मूर्तियों के सामने खाद्य पदार्थ यह समझकर रखना कि उसका आस्वादन और उपभोग करेंगे। स्वस्थ भोजन करना। खाना। ७. व्यावहारिक क्षेत्र में वह स्थिति जिसमें कोई भूमि या संपत्ति अपने अधिकार में रखकर उससे पूरा लाभ उठाया जाता है। भुक्ति। कब्जा। (पज़ेशन) ८. पुरुष और स्त्री में होनेवाला मैथुन। संभोग। ९. पाप, पुण्य आदि का वह फल जो भोगा अर्थात् प्राप्त या सहन किया जाता है। प्रारब्ध। १॰. किसी काम या बात से प्राप्त होनेवाला फल। ११. किसी की दुर्दशाओं, दुष्कर्मों आदि का वह उल्लेख जो लड़ाई-झगड़े के समय गाली-गलौज के साथ किया जाता है। जैसे—अब अगर किसीने मेरा नाम लिया तो मैं सैकड़ों भोग सुनाऊँगी। (स्त्रियाँ) १२. ज्योतिष में, सूर्य आदि ग्रहों का मीन, मेष आदि राशियों में अवस्थित रहने का काल या समय। जैसे—अभी इस राशि में बुध का भोग एक महीने और रहेगा। १३. सुख। १४. दुख। १५. ऐसी वस्तु जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त हो। १६. दावत। भोज। १७. फायदा। लाभ। १८. आमदनी। आय। १९. धन-सम्पत्ति। २॰. वह धन जो वेश्या को उसके साथ संभोग करने के बदले में दिया जाता है। २१. साँप का फन। २२. साँप। २३. देह। शरीर। २४. पंक्तिबद्ध। सेना। २५. किराया। भाड़ा। २६. घर। मकान। २७. पालन-पोषण। २८. परिणाम। मान। २९. पुर। नगर। ३॰. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना।
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भोग-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. उतना समय जितने में कोई घटना या बात आदि से अन्त तक घटित हो। (ड्यूरेशन) २. कष्ट, रोग, सुख आदि भोग जाने का पूरा समय।
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भोग-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] अन्तःपुर। जनानखाना।
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भोग-चिन्तामणि  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोग-देह  : पुं० [सं० मध्य० स०] पुराणानुसार वह सूक्ष्म शरीर जो मनुष्य को मारने के उपरांत स्वर्ग या नरक में जाकर सुख या दुःख भोगने के लिए करना पड़ता है।
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भोग-धर  : पुं० [सं० ष० त०] सर्प। साँप।
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भोगना  : स० [सं० भोग+हिं० ना (प्रत्य०)] १. किसी चीज़ का भोग करना। उपभोग या प्रयोग करना। २. किसी चीज या बात के अच्छे-बुरे फल वहन या सहन करना। ३. कष्ट सहना। विशेष—भोगना, झेलना और सहना का अन्तर जानने के लिए दे० ‘सहना’ का विशेष। ४. स्त्री के साथ प्रसंग या संभोग करना।
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भोग-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो पालन-पोषण करता हो। पालक।
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भोग-पति  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में किसी क्षेत्र विशेषतः किसी जनपद या प्रदेश का शासक।
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भोग-पत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. प्राचीन भारत में वह पत्र जो राजा को उपहार भेजने के संबंध में लिखा जाता था। (शुक्र नीति) २. वह पत्र जिसके अनुसार किसी को कोई चीज या सम्पत्ति भोगने का अधिकार दिया जाय।
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भोग-पाल  : पुं० [सं० भोग√पाल् (पालन करना)+अण्, उप० स०] १. भोगपति। २. साईस।
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भोग-पिशाचिका  : स्त्री० [सं० स० त०] भूख।
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भोग-बंधक  : पुं० [सं० भोग्य+हिं० बंधक] बंधक या रेहन का वह प्रकार जिसमें रेहन रखी जानेवाली चीज के भोग का अधिकार भी महाजन को रहता है। (मार्टगेज विद पोज़ेशन)
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भोग-भूमि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] जैनों के अनुसार वह लोक जिसमें किसी प्रकार का कर्ण नहीं करना पड़ता है और सुख भोग की सब आवश्यताएँ कल्पवृक्ष के द्वारा पूरी होती हैं।
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भोग-भृतक  : पुं० [सं० मध्य० स०] केवल भोजन, वस्त्र लेकर काम करनेवाला नौकर।
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भोग-लदाई  : स्त्री० [हिं० भोग+लदाई ?] खेत में कपास का सबसे बड़ा पौधा जिसके आसपास बैठकर देहाती लोग उसकी पूजा करते हैं।
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भोग-लाभ  : पुं० [सं० ष० त०] पहले दिये हुए अन्न के बदले में फसल तैयार होने पर ब्याज के रूप में मिलनेवाला कुछ अधिक अन्न।
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भोग लियाल  : स्त्री० [?] कटारी नाम का शस्त्र। (डिं०)
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भोगली  : स्त्री० [देश०] १. छोटी नली। पुपली। २. नाक में पहनने का लौंग। ३. कान में पहनने की तरकी। ४. नाक (या लौंग) में पहनने के लौंग (या फूल) में पीछे की ओर से बंद करने के लिए डाली जानेवाली लम्बी पतली और पोली कील।
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भोगवती  : स्त्री० [सं० भोग+मतुप्,म—व,+ङीन्] १. पाताल गंगा। २. गंगा। ३. पुराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ। ४. एक प्राचीन नदी। ५. नागों के रहने की नाम की पुरी। ६. कार्तिकेय की एक मातृका।
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भोगवना  : स०=भोगना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भोगवसा  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोगवान् (वत्)  : पुं० [सं० भोग+मतुप्, म—व] १. साँप। २. अभिनय। नाट्य। ३. गीत। गाना।
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भोगवाना  : स० [हिं० भोगना का प्रे० रूप] भोगने में दूसरे को प्रवृत्त करना। भोग करना।
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भोग-विलास  : पुं० [सं० द्व० स०] सब प्रकार के सुख भोगते हुए किया जानेवाला अमोद-प्रमोद। सुख-चैन की वह स्थिति जिसमें मनुष्य वासनाओं की तृप्ति में लिप्त रहता हो।
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भोग-वेतन  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह धन जो किसी धरोहर रखी हुई वस्तु के व्यवहार के बदले में उसके स्वामी को दिया जाय।
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भोग-व्यूह  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह व्यूह जिसमें सैनिक एक दूसरे के पीछे खड़े किये हों। (कौ०)
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भोग-शरीर  : पुं०=भोगा-देह।
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भोग-सामंत  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोगांतराय  : पुं० [सं० भोग-अंतराय, सुप्सुपा स०] वह अंतराय जिसका उदय होने से मनुष्य के भोगों की प्राप्ति में विघ्न पड़ता है। (जैन)
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भोगांश  : पुं० [सं०]=देशांतर (भूगोल का)।
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भोगाधिकार  : पुं० [सं० भोग अधिकार, मध्य० स०] वह अधिकार जो किसी दूसरे की वस्तु का कुछ समय भोग करते रहते के उपरांत प्राप्त होता है। (ऑकुपैन्सी राइट)
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भोगाना  : स० [हिं० भोगना का प्रे०] भोगने में दूसरे को प्रवृत्त करना। भोग कराना।
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भोगावती  : स्त्री०=भोगवती।
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भोगिआर  : वि० [हि० भोगना] जो भोगे जाने के योग्य हो। फलतः आकर्षक या सुन्दर। (पूरब)
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भोगिक  : पुं० [सं० भोग+ठन्—इक] १. गाँव का मुखिया। २. साईस।
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भोगिन  : स्त्री०=भोगिनी।
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भोगिनी  : स्त्री० [सं० भोग+इनि,+ङीप्] १. राजा की उपपत्नी। २. रखेली स्त्री। ३. नागिन।
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भोगींद्र  : पुं० [सं० भोगिन-इन्द्र, स० त०] पतंजलि का एक नाम।
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भोगी (गिन्)  : वि० [सं० भोग-इनि] १. भोगनेवाला। जो भोगता हो। २. सुखी। ३. इंद्रियों के सुख-भोग की इच्छा रखनेवाला विषयासक्त। ४. विषयी। व्यसनी। ५. खानेवाला। पुं० १. वह जो गृहस्थाश्रम में रहकर सब प्रकार का सुख-दुःख भोगता हो। गृहस्थ। २. राजा। ३. जमींदार। ४. नाई। हज्जाम। ५. साँप। ६. शेषनाग। (डिं०) ७. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोगीन  : पुं० [सं० भोग+ख—ईन]=भोगी।
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भोगीभुक्  : पु० [सं० भोगिभुक्] नेवला।
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भोगीश्वरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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भोगेंद्र  : पुं० [सं० भोग-इन्द्र, स० त०] १. अधिक मात्रा में अच्छी चीजें खानेवाला। २. अच्छी तरह सुखों का भोग करनेवाला।
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भोग्य  : वि० [सं० भुज् (उपभोग करना)+ण्यत्] १. (पदार्थ या संपत्ति) जिसका भोग करना उचित हो, किया जाने को हो अथवा किया जा रहा हो। २. जो भोगे जाने अर्थात् झेले या सहे जाने को हो। पुं० १. धन। २. धान्य। ३. रेहन का भोगबंधक का प्रकार।
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भोग्य भूमि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. वह स्थान जहाँ आनन्द केलि की जाती हो। २. मर्त्य-लोक, जिसमें जीव को अपने किये हुए कर्मों का फल भोगना पड़ता है।
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भोग्या  : वि० [सं० भोग्य+टाप्] भोग्य का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० वेश्या।
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