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मंदा  : स्त्री० [सं० मन्द+टाप्] १. सूर्य की वह संक्रांति जो उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद और रोहिणी नक्षत्र में पड़े। २. बल्ली करंज। वि० [सं० मंद] [स्त्री० भाव० मंदी] १. मंद। धीमा। २. ढीला। शिथिल। ३. (शारीरिक अवस्था) जो ठीक न हो। ४. बिगड़ा हुआ। विकृत। ५. (बाजार या व्यापार) जिसमें तेजी न हो। जिसमें लेन-देन या क्रय-विक्रय बहुत कम हो रहा हो।
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मंदाकिनी  : स्त्री० [सं०√मंद्+आक, मंदाक+इनि वा मंद√अक् (गति)+णिनि+ङीष्] १. पुराणानुसार गंगा की वह धारा जो स्वर्ग में है। २. आकाश-गंगा। ३. सात प्रकार की संक्रांतियों में से एक। ४. चित्रकूट के पास बहनेवाली एक नदी। (महाभारत) ५. एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः दो-दो नगण और दो-दो रगण होते हैं।
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मंदाक्रांता  : स्त्री० [सं० मंद-आक्रान्ता, कर्म० स०] सत्रह अक्षरों का एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, भगण, नगण और तगण और अंत में दो गुरु होते हैं।
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मंदाक्ष  : विय [सं० मंद-अक्षि,+षच्] संकुचित आँखोंवाला। पुं० लज्जा। शरम।
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मंदाग्नि  : स्त्री० [सं० मंद-अग्नि, कर्म० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी की पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है, भूख कम लगती है और खाई हुई चीज जल्दी हजम नहीं होती।
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मंदात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० मंद-आत्मन्, ब० स०] १. मूर्ख। २. नीच।
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मंदान  : पुं० [?] जहाज का अगला भाग। (लश०)
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मंदानल  : पुं० [सं० मंद-अनल, कर्म० स०] मंदाग्नि (रोग)।
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मंदाना  : अ० [हिं० मंद] मंद पड़ना या होना। स० मन्द या धीमा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदानिल  : पुं० [सं० मंद-अनिल, कर्म० स०] धीमे चलनेवाली हलकी और सुखद वायु।
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मंदार  : पुं० [सं०√मंद्+आरन्] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक देव वृक्ष। २. आक। मदार। ३. स्वर्ग। ४. हाथ। ५. धतूरा। ६. हाथी। ७. बिन्ध्य पर्वत के पास का एक तीर्थ। ८. हिरण्य-कश्यप का एक पुत्र।
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मंदारक  : पुं० [सं० मंदार+कन्]=मंदार।
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मंदार-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] बाइस अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात तगण और अंत में एक गुरु होता है।
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मंदालसा  : स्त्री०=मदालसा।
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