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मसक  : स्त्री० [हिं० मसकना] १. मसकने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज के मसकने के कारण उस पर बननेवाला चिन्ह या पड़नेवाली दरार। स्त्री०=मशक (पानी भरने की)। पुं० =मशक (मच्छर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसकत  : स्त्री०=मशक्कत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसकना  : स० [अनु] १. खिंचाव या दबाव में डालकर कपड़े को इस प्रकार विकृत करना कि उसकी बुनावट के सूत-टूटकर अलग या दूर हो जायँ। २. किसी चीज को इस प्रकार दबाना कि वह बीच में ही फट जाय या उसमें दरार पड़ जाय। ३. इस प्रकार जोर से दबाना कि बीच में से कुछ खंड अलग हो जायँ। ४. दे० ‘मसलना’। संयो० क्रि०—डालना।—देना। अ० १. कपड़े आदि का (दबाव पड़ने के कारण) बीच-बीच में कुछ फट य टूट जाना। २. अपने स्थान से खिसकना या हटना। जैसे—तुमसे मसका भी जाता नहीं, तुम काम क्या करोगे। ४. चिंतित या दुखी होना। संयो क्रि०—जाना।
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मसकरा  : पुं० =मसखरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसकला  : पुं० [अ० मिस्कल] [स्त्री० अल्पा० मसकली] १. लोहे का वह उपकरण जिससे रगड़कर तलवारें आदि चमकायी जाती है। २. तलवार आदि चमकाने की क्रिया या भाव।
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मसकली  : स्त्री०=मसकला।
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मसका  : पुं० [फा० मस्कः] १. नवनीत। मक्खन। २. ताजा निकाला हुआ घी। ३. दही का पानी। ४. बँधा हुआ पारा। तु० [हिं० मसकना] १. चूने की बरी का वह चूर्ण जो उस पर पानी छिड़कने पर हो जाता है। २. सुनारों की परिभाषा में, कायस्थ।
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