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महाकाव्य  : पुं० [सं० महत्-काव्य, कर्म० स०] बहुत बड़ा और विस्तृत काव्य-ग्रंथ। विशेष—भारतीय साहित्य में पहले महाकाव्य वह कहलाता था जिसमें किसी व्यक्ति के आदि से अन्त तक के पूरे जीवन का विस्तृत विवरण होता था। पर बाद में साहित्यकारों ने इसके सम्बन्ध मे कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिये थे, यथा—यह श्रृंखला-बद्ध होने के सिवा सर्ग-बद्ध भी होना चाहिए, इसके नायक देवता, राजा या धीरोदात्त क्षत्रिय होना चाहिए, इसमें वीर, शान्त तथा श्रृंगार रसों में से कोई एक रस प्रधान होना चाहिए, बीच-बीच में प्रसंगवश और रस भी होने चाहिए, अनेक प्रकार के प्राकृतिक दृश्यों और शोभाओं मानव या लौकिक जीवन के भिन्न-भिन्न अंगो, कार्यों, घटनाओं आदि का भी वर्णन होना चाहिए, आदि आदि। इस दृष्टि से महाभारत और रामायण तो महाकाव्य हैं ही, कालिदास कृत रघुवंश, माघ-कृत शिशुपाल वध, भारवि-कृत, किरातार्जुनीय और हर्ष-कृत नैषध-चरित भी महाकाव्य की श्रेणी में आ जाते हैं। पर आज-कल वह बहुत बड़ा काव्य भी महाकाव्य मान लिया जाता है जो कवित्य की दृष्टि से बहुत उच्च कोटि का हो और जिसमें बहुत से विषयों का सुन्दर रूप में वर्णन हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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