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मूल-बंध  : पुं० [ष० त०] १. किसी विवादास्पद विषय से संबंध रखनेवाले सभी प्रकार के मतो या विचारों की गवेषणा करके उस पर अपना अधिकारिक मत प्रकट करना (डिस्सर्टेशन)। २. दे० ‘शोध-निबंध’।
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मूसर्रह  : वि० [अ०] १. तसरीह से युक्त। ब्योरेवार। २. स्पष्ट रूप से कहा हुआ।
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मूँ  : सर्व० १. =मेरा। २. =मुझे। (डिं०)
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मूँकना  : स० [सं० मुक्त] १. मुक्त करना। छोड़ना। २. त्यागना।
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मूँग  : पुं० [सं० मुदग्] एक प्रसिद्ध अन्न जिसकी दाल बनती है। पद—मूँग की दाल खानेवाला=डरपोक, निकम्मा या पुरुषार्थहीन। मुहावरा—(किसी पर) मूँग पढ़कर मारना=किसी प्रकार का तांत्रिक उपचार विशेषतः वशीकरण करने के लिए मंत्र पढ़ते हुए किसी पर मूँग के दाने फेंकना। (किसी की) छाती पर मूँग दलना=किसी को दिखलाते हुए ऐसा काम करना जिससे उसे ईर्ष्या या जलन हो, अथवा हार्दिक कष्ट हो।
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मूँगफली  : स्त्री० [हिं० भूस (भूमि)+फली] १. जमीन पर चारों ओर फैलनेवाला एक प्रकार का क्षुप जिसकी खेती उसके फलों के लिए प्रायः सारे भारत में की जाती है। इसकी जड़ में मिट्टी के अन्दर फल लगाते है, जिसके दाने या बीज रूप-रंग और स्वाद में बादाम से बहुत कुछ मिलते-जुलते होते हैं। २. इस क्षुप का फल। चिनिया बादाम। बिलायती मूँग। (संस्कृत में इसे भू-चरणक और भू-शिबिका कहते हैं)।
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मूँगर (ा)  : पुं० [स्त्री० अल्पा० मूँगरी]=मोंगरा।
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मूँगरी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की तोप।
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मूँगा  : पुं० [हिं० मूँग] १. समुद्र में रहनेवाले हर प्रकार के कीड़ों के समूह-पिंड की लाल ठठरी जिसकी गुरिया बनाकर पहनते हैं। इसकी गिनती रत्नों में की जाती है। (कोरल) २. एक प्रकार का गन्ना। पुं० =मोग (रेशम)।
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मूँगिया  : वि० [हिं० मूँग+इया (प्रत्यय)] मूँग के दानों के रंग का। पुं० १. उक्त प्रकार का अमौआ या हरा रंग जिसमें कुछ नीली आभा भी होती है। मुंगी। २. उक्त रंग का पुरानी चाल का एक प्रकार का धारीदार कपड़ा।
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मूँगी  : वि० [हिं० मूँगा] मूंगे के रंग की तरह का लाल। पुं० उक्त प्रकार का लाल रंग। (कोरल)
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मूँछ  : स्त्री० [सं० श्मश्रु, प्रा० मस्सु से मच्छु] १. पुरुषों तथा कुछ अन्य जीव-जंतुओं के ऊपर वाले होंठ और नासिक के बीचवाले अंश में होनेवाले बाल। लोक-व्यवहार में यह पौरुष के लक्षण के रूप में माने जाते हैं। मुहावरा—मूँछे उखाड़ना=(क) कठिन दंड देना। (ख) घमंड चूर करना। मूँछों पर ताव देना या हाथ फेरना=विजय या वीरता की अकड़ दिखाना। अभिमान या बड़प्पन प्रकट करना। मूँछे नीची होना=(क) अभिमान नष्ट होने के कारण लज्जित होना। (ख) अपमान या अप्रतिष्ठा होना। २. कुछ विशिष्ट जीव-जंतुओं के होंठों पर होनेवाले उक्त प्रकार के बाल जिनके द्वारा वे चीजों का स्पर्श करके उनका ज्ञान प्राप्त करते हैं।
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मूँछी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की कढ़ी।
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मूँज  : स्त्री० [सं० मुञज्] सरकंडों के ऊपरी भाग का छिलका जिसे भिगो और कूटकर चारपाइयाँ बुनने के लिए बाध या बान (एक प्रकार की रस्सी) बनाया जाता है।
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मूँड़  : पुं० [सं० मुंड] सिर। कपाल। मुहावरा—मूँड़ मुड़ाना=त्यागी या विरक्त होकर किसी साधु-संन्यासी का चेला बनना। उदाहरण—‘मूँड़’ के शेष मुहावरे। के लिए देखें ‘सिर’ के मुहा०।
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मूँड़-कटा  : वि० [हिं० मूँड़+काटना] सिर-कटा
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मूँड़न  : पुं० =मुंडन।
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मूँड़ना  : स० [सं० मुंडन] १. उस्तरे से रगड़कर शरीर के किसी अंग पर निकले हुए बाल निकालना, विशेषतः सिर के बाल निकालना। २. चालाकी से किसी से धन-दौलत ले लेना। ३. किसी को चेला बनाना।
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मूँड़ी  : स्त्री० [हिं० मुँड़ (सिर) का स्त्री० अल्पा] १. सिर। मस्तक। मूँड़। पद—मूँड़ी काटा=स्त्रियों की एक गाली जिसका आशय होता है—तेरा सिर काटा जाय अर्थात् तू मर जाय। मुहावरा—(किसी की) मूँड़ी मरोड़ना=किसी को धोखा देकर उसका माल छीन लेना या दबा बैठना। २. किसी चीज का अगला और ऊपरी भाग।
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मूँड़ीबंध  : पुं० [हिं० मूँड़+बंध] कुश्ती का एक पेंच।
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मूँदना  : स० [सं० मुद्रण] १. ऊपर से कोई वस्तु डाल या फैलाकर किसी वस्तु को छिपाना। आच्छादित करना। २. छेद या सूराख बन्द करना। ३. आँखों के सम्बन्ध में दोनों पलकें इस प्रकार मिलाना कि देखने का काम बन्द हो जाय। संयो० क्रि०—देना।—लेना। ४. किसी चीज को उलट या ढककर रखना।
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मूंदर  : स्त्री०=मुंदरी (अँगूठी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूंध  : स्त्री०=मुग्धा (राज०) उदाहरण—मूँध मेरसी खीज।—ढोल० मा०। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मू  : पुं० [फा०] १. बाल। २. रोआँ। ३. केश।
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मूआ  : वि० [मृत्त] [स्त्री० मूई] १. मरा हुआ। मृत। २. उपेक्षासूचक गाली के रूप में प्रयुक्त होनेवाला विशेषण। जैसे—मूआ नौकर अभी तक नहीं आया (स्त्रियाँ)।
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मूक  : वि० [सं०√मव् (बाँधना)+कक्, वकार को ऊठ] [भाव० मूकता] १. जो कुछ भी बोल न रहा हो। २. गूँगा। ३. दीन-हीन। लाचार। पुं० १. दानव राक्षस। २. तक्षक का एक पुत्र।
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मूकता  : स्त्री० [सं० मूक+तल्+टाप्] मूक होने की अवस्था या भाव।
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मूकना  : स० [सं० मुक्त] १. मुक्त करना। २. अलग या पृथक् करना। ३. त्यागना।
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मूका  : पुं० १. =मुक्का। २. =मोखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूकिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० मूक+इमनिच्] मूक होने की अवस्था या भाव मूकता।
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मूखना  : स०=मूसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूचना  : स०=मोचना। पुं० =मोचना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूछ  : स्त्री०=मूँछ।
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मूजिब  : पुं० [अ०] आविष्कारक।
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मूजिव  : पुं० [अ०] कारण। सबब।
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मूजी  : वि० [अ०] १. ईजा देने अर्थात् कष्ट पहुँचानेवाला। सतानेवाला। अत्याचारी। २. खल। दुर्जन। ३. बहुत बड़ा कंजूस। परम कृपण।
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मूझ  : सर्व०=मुझ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूझना  : अ० [सं० मूर्च्छन] १. मूर्च्छित होना। २. मुरझाना।
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मूठ  : स्त्री० [सं० मुष्टि] १. मुट्ठी। मुहावरा—मूठ करना=तीतर, बटेर आदि को गरमाने तथा उत्तेजित करने के लिए मुट्ठी में रखकर हलके से बार बार दबाना। घूट मारना=स्त्री० (क) कबूतर को मुट्ठी में पकड़ना। (ख) हस्त क्रिया करना। २. किसी उपकरण, यंत्र, शस्त्र आदि का वह भाग जहाँ से उसे पकड़ा या उठाया जाना है। जैसे—छाता, चक्की या तलवार की मूठ। ३. किसी औजार हथियार आदि का वह भाग जो व्यवहार करते समय हाथ में रहता है। मुठिया। दस्ता। कब्जा। जैसे—छाते या तलवार की मूठ। ४. उतनी वस्तु जितनी मुट्ठी में आ सके। ५. एक प्रकार का जुआ जिसमें मुट्ठी में कौड़ियाँ बन्द करके उनकी संख्या बुझाते हैं। ६. तंत्र-मंत्र का प्रयोग। जादू। टोना। मुहावरा—मूठ मारना=किसी पर जादू-टोना करने के लिए मुट्ठी में कोई चीज पकड़कर और मंत्र पढ़कर किसी पर फेंकना।
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मूठना  : अ० [सं० मुष्ट, प्रा० मुटठ] नष्ट होना। मर मिटना। न रह जाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूठा  : पुं० =मुट्ठा।
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मूठाली  : स्त्री० [हिं० मूठ+आली (प्रत्यय)] तलवार। (डिं०)
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मूठि  : स्त्री० १. =मूठ। २. =मुट्ठी।
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मूठी  : स्त्री०=मुट्ठी।
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मूड़  : पुं० =मूँड़। वि० =मूढ़।
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मूड़ी  : स्त्री० [?] ऐसे भुने हुए चावल जो फूलकर अन्दर से पोले हो जाते हैं। फरवी। स्त्री०=मूँड़ी (मुंड या मस्तक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूड़ी-काटा  : वि० [हिं० मूँड़+काटना] जिसका सिर काटे जाने के योग्य हो, अर्थात् परम दुष्ट। (स्त्रियों की गाली)।
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मूढ़  : वि० [सं०√मुह् (अविवेक)+क्त] [भाव० मूढ़ता] १. जिसे कुछ भी बुद्धि न हो। परम मूर्ख। बिलकुल नासमझ। २. निष्चेष्ट। स्तब्ध। ३. हक्का-बक्का। पुं० तमोगुण की प्रधानता के कारण चित्त के निन्द्रायुक्त या स्तब्ध होने की अवस्था या भाव।
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मूढ़-गर्भ  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा गर्भ जिसमें से सन्तान न हो सके। विकृत होकर गिर जानेवाला गर्भ।
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मूढ़ता  : स्त्री० [सं० मूढ़+तल्+टाप्] १. मूढ़ होने की अवस्था या भाव। २. मूर्खता। ३. अज्ञान।
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मूढ़-वात  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. किसी कोश में रुकी या बँधी हुई वायु। २. बहुत जोरों का अन्धड़। तूफान। जैसे—मूढ़-वाताहत जहाज=तूफान का मारा हुआ जहाज।
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मूढात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० मूढ़-आत्मन्, ब० स०] बहुत बड़ा मूर्ख।
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मूढ़ी  : स्त्री०=मूड़ी (फरवी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूत  : पुं० [सं० मूत्र] १. पेशाब। मूत्र। मुहावरा—(किसी के आगे) मूत निकल पड़ना=भय से त्रस्त होना। मूत से निकल कर गू में पड़ना=पहले की अपेक्षा और भी अधिक बुरी दशा में जाना या पड़ना। २. औलाद। संतान। (बाजारू)।
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मूतना  : अ० [सं० मूत+ना (प्रत्यय)] पेशाब करना। मुहावरा—(किसी चीज पर) मूतना=बहुत ही तुच्छ या हेय और फलतः अग्राह्य या अस्पृश्य समझना।
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मूतरी  : पुं० [देश] एक प्रकार का जंगली कौआ। महताब। महालत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूत्र  : पुं० [सं०√मूत्र (मूतना)+घञ्] प्राणियों के उपस्थ मार्ग या जनर्नेद्रिय से निकलनेवाला वह दुर्गन्धमय तरल पदार्थ जिसमें शरीर के अनेक निकृष्ट विषाक्त अंश मिले रहते हैं। पेशाब। मूत।
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मूत्र-कृच्छ्  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें मूत्र थोड़ा-थोड़ा कुछ रुक-रुककर और प्रायः कुछ कष्ट सा होता है। (स्ट्रैगुरी)
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मूत्र-क्षय  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्राघात रोग का एक भेद।
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मूत्र-ग्रन्थि  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्राघात रोग का एक भेद।
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मूत्र-दशक  : पुं० [सं० ष० त०] हाथी, मेढ़े, ऊंट, गाय बकरे, घोड़े, भैंसे, गधे, पुरुष और स्त्री के मूत्रों का समूह।
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मूत्र-दोष  : पुं० [सं० ब० स०] मूत्र-सम्बन्धी कोई कष्ट या विकार।
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मूत्र-नाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] उपस्थ के ऊपर या अन्दर की वह नाली जिसके द्वारा शरीर से मूत्र निकलता है।
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मूत्र-पतन  : पुं० [सं० ब० स०] १. मूत्र गिरने की अवस्था या भाव। २. गन्ध-बिलाव जिसका मूत्र प्रायः गिरता रहता है।
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मूत्र-पथ  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्र-नाली।
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मूत्र-परीक्षा  : स्त्री० [सं० ष० त०] चिकित्साशास्त्र में, रोगी के मूत्र की वह वैज्ञानिक जाँच जिससे यह पता चलता है कि शरीर में किस प्रकार के कीटाणु या विकार है। (यूरिन एग्जामिनेशन)।
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मूत्र-प्रसेक  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्र-नाली।
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मूत्र-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] ककड़ी।
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मूत्र-मार्ग  : पुं० [सं०] मूत्राशय के साथ लगी हुई वह नली या सुरंगिका जिससे होकर मूत्र आगे बढ़कर निकलने के लिए जननेंद्रिय के ऊपरी भाग तक पहुँचता है। (यूरेथ्रा)।
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मूत्र-रोध  : पुं० [सं० ष० त०] वह अवस्था जिसमें किसी प्रकार के शारीरिक विकार के फलस्वरूप पेशाब होना बंद हो जाता है। पेशाब बन्द होने का रोग।
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मूत्रल  : वि० [सं० मूत्र√ला (लेना)+क] [स्त्री० मूत्रला] अधिक और अनेक बार मूत्र लानेवाला। (औषध या पदार्थ)।
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मूत्रला  : स्त्री० [सं० मूत्रल+टाप्] ककड़ी। वि० सं० ‘मूत्रल’ का स्त्री।
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मूत्र-वृद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] अधिक बार तथा अपेक्षाकृत अधिक परिमाण में पेशाब होना।
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मूत्र-स्रोत  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘मूत्र-मार्ग’।
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मूत्राघात  : पुं० [सं० मूत्र-आघात, ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के अन्दर कुछ समय के लिए मूत्र का बनना बन्द हो जाता है।
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मूत्राशय  : पुं० [सं०] नाभि के नीचे की वह थैली जिसमें मूत्र-संचित होता है। मसाना। (यूरिनरी ब्लेडर)।
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मूत्रित  : भू० कृ० [सं० मूत्र+इतच्] १. मूत्र के रूप में निकला हुआ। २. जो पेशाब के स्पर्श के कारण गंदा हो गया हो।
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मूना  : पुं० [देश] १. पीतल या लोहे की अँकुसी जो टकुए के सिरे पर जड़ी रहती है और जिसमें रस्सी या डोरा फँसा रहता है। २. एक तरह का झाड़ या उसका फल। अ०=मुअना (मरना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर  : पुं० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। बूटी। ३. मूल धन। असल पूँजी। ४. मूल नक्षत्र। पुं० अफ्रीका की एक मुसलमान जाति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरख  : वि०=मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरखताई  : स्त्री०=मूर्खता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरचा  : पुं० =मोरचा (जंग)।
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मूरछना  : अ० [सं० मूर्च्छा] मूर्च्छित होना। बेहोश होना। स्त्री० १. =मूर्च्छा। २. मूर्च्छना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरछा  : स्त्री०=मूर्च्छा।
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मूरत  : स्त्री०=मूर्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरति  : स्त्री०=मूर्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरतिवंत  : वि० [सं० मूर्ति+वत् (प्रत्यय)] १. मूर्तिमान। २. देहधारी। सशरीर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरध  : पुं० =मूर्द्धा (सिर)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरा  : पुं० [सं० मूल] बड़ी तथा मोटी मूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरि  : स्त्री० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। बूटी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरिस  : वि० [अ०] वह जिसका कोई वारिस हुआ हो। पुं० पूर्वज।
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मूरी  : स्त्री० १. =मूली। २. मूरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरुख  : वि०=मूर्ख। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्ख  : वि० [सं०√मुह्+ख, मूर, आदेश] [भाव० मूर्खता] १. प्राचीन भारतीय आर्यों में गायत्री न जानने अथवा अर्थ सहित गायत्री न जाननेवाला। २. जिसमें ठीक ढंग से तथा विचारपूर्वक कोई काम करने अथवा कोई बात समझने-सोचने की योग्यता या शक्ति न हो। ३. लाख समझाने पर भी जिसकी समझ में कोई बात न आती हो।
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मूर्खता  : स्त्री० [सं० मूर्ख+तल्+टाप्] १. मूर्ख होने की अवस्था या भाव। २. कोई मूर्खतापूर्ण आचरण, कार्य या बात।
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मूर्खत्व  : पुं० [सं० मूर्ख+त्व]=मूर्खता।
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मूर्खिनी  : स्त्री० [सं० मूर्ख] मूर्ख स्त्री। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्खिमा  : स्त्री० [सं० मूर्ख+इमनिच्] मूर्खता। बेवकूफी।
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मूर्च्छन  : पुं० [सं०√मुर्च्छ (मोह)+ल्युट-अन] [भू० कृ० मूर्च्छित] १. किसी की चेतना या संज्ञा का कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में अस्थायी रूप से लोप करने की क्रिया या भाव। बेहोश करना या बेहोशी लाना। २. प्राचीन काल का एक विशिष्ट तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी व्यक्ति की चेतना या संज्ञा नष्ट कर दी जाती थी। ३. आज-कल प्रायः इच्छाशक्ति के प्रयोग से किसी को इस प्रकार चेतनाहीन करना कि उसे शारीरिक कष्टों का अनुभव न हो और उसके स्नायविक तंत्र प्रायः बेकाम हो जाय। (मेस्मेरिज़्म)। विशेष—इस प्रक्रिया का आविष्कार आस्ट्रिया के मेस्मर नामक चिकित्सा ने रोगियों की चिकित्सा के लिए किया था। ४. उक्त के आधार पर वह प्रक्रिया जिसमें आत्मिक बल के द्वारा किसी को कुछ समय के लिए संज्ञाशून्य करके उससे कुछ असाधारण और विलक्षण कार्य कराये जाते हैं और जिसकी गणना इंद्रजाल में होती है। (मेस्मेरिज़्म) ५. वैद्यक में वह प्रक्रिया जिसके द्वारा पारा शुद्ध करने या उसका भस्म तैयार करने के लिए उसकी चंचलता नष्ट करके उसे स्थिर कर देते हैं। ६. कामदेव के पाँच वाणों में से एक, जिसके प्रभाव या प्रहार से प्रेमासक्त व्यक्ति कभी-कभी अपनी चेतना या संज्ञा खो देता है।
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मूर्च्छना  : स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+युच्-अन, टाप्] १. संगीत में किसी स्वर से आरम्भ करके सातवें स्वर तक आरोह कर चुकने के उपरांत उन्हीं स्वरों से होनेवाला अवरोह। २. उक्त प्रक्रिया के फलस्वरूप होनेवाला शब्द या निकलनेवाला स्वर।
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मूर्च्छा  : स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+अ+टाप्] वह अवस्था जिसमें अस्थायी रूप से किसी की संज्ञा लुप्त हो चुकी होती है। बेहोशी। विशेष—मूर्च्छा और संन्यास का अंतर जानने के लिए दे० ‘संन्यास’ का विशेष।
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मूर्च्छाल  : वि० [सं० मूर्च्छा+लच्] मूर्च्छित। संज्ञाहीन।
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मूर्च्छित  : भू० कृ० [सं० मूर्च्छा+इतच्] १. जो अचेत या बेहोश पड़ा हुआ हो। २. (धातु) जिसकी क्रियाशीलता नष्ट कर दी गयी हो। जैसे—मूर्च्छित पारा। ३. (व्यक्ति) जो वय अधिक होने के कारण अयोग्य तथा अशक्त हो गया हो।
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मूर्छा  : स्त्री०=मूर्च्छा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्छित  : भू० कृ०=मूर्च्छित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्त  : वि० [सं०√मूर्च्छ (मूर्च्छित होना)+क्त] १. जिसकी कोई मूर्ति अर्थात् आकार या रूप हो। २. जो किसी प्रकार के ठोस पिंड के आकार या रूप में हो। जिसका कोई भौतिक अर्थात् कड़ा या ठोस रूप हो, और इसीलिए जो देखा या पकड़ा जा सके। साकार। (कान्क्रीट) ३. जिसका महत्त्व या स्वरूप समझ में आ सके। बुद्धि-ग्राह्मा। (टैन्जबल) ४. मूर्च्छित। बेहोश।
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मूर्तता  : स्त्री० [सं० मूर्त+तल्+टाप्] मूर्त होने की अवस्था या भाव।
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मूर्तत्व  : पुं० [सं० मूर्त+त्व] मूर्त होने की अवस्था या भाव। मूर्तता।
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मूर्त-विधान  : पुं० [सं० ष० त०] केवल कल्पना के आधार पर घटनाओं, कार्यों आदि के स्वरूप, चित्र आदि बनाने की क्रिया या भाव। प्रतिभावली (इमेजरी)।
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मूर्ति  : स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+क्तिन्, छ-लोप] १. मूर्त होने की अवस्था या भाव। मूर्तता। ठोसपन। २. आकृति। शकल। सूरत। ३. देह। शरीर। ४. किसी की आकृति के अनुरूप गढ़ी हुई विशेषता उपासना, पूजन आदि के लिए बनाई हुई देवी-देवता की आकृति। प्रतिमा। जैसे—सरस्वती की पत्थर या मिट्टी की मूर्ति। ५. चित्र। तसवीर। वि० जो किसी विषय का बहुत बड़ा ज्ञाता या पंडित हो। (यौ० के अन्त में) जैसे—वेद-मूर्ति।
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मूर्ति-कला  : स्त्री० [सं० ष० त०] मूर्तियाँ बनाने की विद्या या हुनर।
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मूर्तिकार  : पुं० [सं० मूर्ति√कृ+अण्] १. मूर्ति बनानेवाला कारीगर। २. चित्रकार।
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मूर्तिप  : पुं० [सं० मूर्ति√पा] १. पुजारी। २. मूर्तिपूजक।
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मूर्ति-पूजक  : वि० [सं० ष० त०] जो मूर्ति या प्रतिमा की पूजा करता हो। मूर्ति पूजनेवाला। बुतपरस्त।
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मूर्ति-पूजन  : पुं० [सं० ष० त०] मूर्तियों की पूजा करने की क्रिया या भाव।
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मूर्ति-पूजा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सगुण भक्ति के अन्तर्गत मूर्ति की की जानेवाली पूजा। २. मूर्तियों की पूजा करने की पद्धति। प्रथा या विधान।
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मूर्तिभंजक  : वि० [सं० ष० त०] १. मूर्तियाँ तोड़नेवाला। बुतशिकन। २. फलतः जिसका मूर्तियों में विश्वास न हो।
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मूर्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० मूर्ति+मतुप्] [स्त्री० मूर्तिमती, भाव० मूर्तिमत्ता] १. जो मूर्त रूप में हो। २. फलतः सगुण तथा साकार। ३. प्रत्यक्ष। साक्षात्।
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मूर्ति-लेख  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह लेख जो किसी मूर्ति के नीचे उसके परिचय आदि के रूप में अंकित किया गया हो।
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मूर्ति-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. मूर्ति या प्रतिमा गढ़ने की कला। २. चित्रकारी।
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मूर्तीकरण  : पुं० [सं० मूर्त+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ+लयुट-अन] [भू० कृ० मूर्तीकृत] किसी अमूर्त तत्त्व को मूर्त रूप देने की क्रिया या भाव।
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मूर्द्ध  : पुं० [सं० मूर्द्धन्] सिर।
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मूर्द्धक  : पुं० [सं० मूर्द्धन+कन्] क्षत्रिय। वि० मूर्द्ध या सिर से सम्बन्ध रखनेवाला।
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मूर्द्ध-कर्णी  : स्त्री० [सं०] छाता या ऐसी ही और कोई वस्तु जो धूप, पानी आदि से बचने के लिए सिर के ऊपर रखी या लगाई जाती हो।
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मूर्द्धकपारी  : स्त्री०=मूर्द्धकर्णी।
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मूर्द्धखोल  : पुं० =मूर्द्धकर्णी।
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मूर्द्धज  : वि० [सं० मूर्द्धन√जन् (उत्पन्न-होना)] मूर्द्धा या सिर से उत्पन्न होनेवाला अथवा उससे सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० केश। बाल।
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मूर्द्ध-ज्योति (स्)  : स्त्री० [सं० ष० त०] ब्रह्मरंध्र। (योग)
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मूर्द्धन्य  : वि० [सं० मूर्धन्+यत्] १. मूर्द्धा से सम्बन्ध रखनेवाला। मूर्द्धासम्बन्धी। २. मस्तक या सिर में रहनेवाला। ३. (वर्ण) जिसका उच्चारण मूर्द्धा से होता हो। (दे० ‘मूर्द्धन्य-वर्ण’)।
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मूर्द्धन्य-वर्ण  : पुं० [सं० कर्म० स०] देव-नागरी वर्ण-माला में वे वर्ण जिनका उच्चारण मूर्द्धा से होता है। यथा-ऋ, ट, ठ, ड, ढ, ण, र और ष।
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मूर्द्ध-पिंड  : पुं० [सं० उपमि० स०] हाथी का मस्तक।
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मूर्द्ध-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] शिरीष पुष्प।
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मूर्द्ध-रस  : पुं० [सं० मध्य० स०] भात का फेन।
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मूर्द्धा (र्द्धन्)  : पुं० [सं०√मूर्व (बाँधना)+कनिन्, व-ध०] १. मस्तक। सिर। २. व्याकरण में मुँह के अन्दर का तालू और अलिजिह्र के बीच का अंश जिसे जीभ का अग्र भाग ट, ठ, ड, ढ, ण आदि का उच्चारण करते समय उलटकर छूता है।
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मूर्द्धाभिषिक्त  : भू० कृ० [सं० मूर्धन्-अभिषिक्त, सुप्सुपा स०] १. जिसके सिर पर अभिषेक किया गया हो। २. (राजा) जिसके राज्योरोहण के समय मूर्द्धाभिषेक नामक धार्मिक कृत्य हुआ हो। पुं० १. राजा २. क्षत्रिय। एक वर्ण संकर जाति जिसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से ब्याही क्षत्रिय स्त्री के गर्भ से कही गयी है।
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मूर्द्धाभिषेक  : पुं० [सं० मूर्धन्-अभिषेक, ब० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का धार्मिक और राजकीय कृत्य जिसमें किसी नये राजा के गद्दी पर बैठने से पहले सिर पर मंत्र पढ़कर पवित्र जल छिड़का जाता था।
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मूर्वा  : स्त्री० [सं०√मूर्व (बाँधना)+अच्+टाप्] मरोड़फली लता। मधुरसा।
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मूर्विका  : स्त्री० [सं० मूर्वा+कन्+टाप्, ह्रस्व, इत्व] मूर्वा।
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मूर्वी  : स्त्री०=मूर्वा।
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मूल  : पुं० [सं०√मृ+क्ल, ऊठ-आदेश] [वि० मूलक] १. पेड़-पौधों का वह भाग जो पृथ्वी के नीचे रहता है, और जिसके द्वारा वे जलीय अंश आदि खींचकर अपना पोषण करते और बढ़ते हैं। जड़। सोर। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों की जड़े जो प्रायः खाने के काम आती है। उदाहरण—सहि दुःख कन्द मूल फल खाई।—तुलसी। पद—कन्द-मूल। ३. आदि। आरंभ। शुरू। नींव। बुनियाद। ५. कोई ऐसा तत्त्व जिसमें कोई दूसरी चीज या बात निकली, वही या बनी हो। उत्पादक तत्त्व या बात। जैसे—इस झगड़े का मूल कारण तो बताओ। ६. वह धन जो किसी प्रकार के लाभ की आशा में किसी व्यापार में लगाया जाय अथवा सूद पर किसी को उधार दिया जाय। असल पूँजी। मुहावरा—मूल पूजना=व्यापार में लगी हुई पूँजी या मूल धन निकल आना। ७. किसी पदार्थ का वह अंग या अंग जहाँ से उस पदार्थ का आरम्भ होता है। जैसे—भ्रुंज मूल। ८. कोई ऐसी चीज जिसकी अनुकृति पर वैसी ही और कोई चीज या चीजें बनाई जाती हो। ९. साहित्य में वह लेख या लेख्य जो पहले-पहल किसी ने अपनी बुद्धि या मन से तैयार किया या बनाया हो, और आगे चलकर जिसकी प्रति लिपि, व्याख्या आदि प्रस्तुत होती है। जैसे—(क) मूल की चार प्रतिलिपियाँ हुई थीं। (ख) गीता के इस संस्करण में मूल और टीका दोनों है। १॰. सत्ताईस नक्षत्रों में से उन्नीसवाँ नक्षत्र, जिसमें बालक का जन्म होना दूषित या निषिद्ध माना जाता है। ११. जमीकंद। सूरन। १२. पिप्पली मूल। १३. तंत्र में किसी देवता का आदि मंत्र या बीज। वि० १. असल और पहला। २. प्रधान। मुख्य। ३. जिसके आधार पर आगे चलकर किसी प्रकार का विकास होने को हो। अव्य० निकट। पास। समीप।
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मूलक  : वि० [सं० मूल+कन्०] १. जो किसी के मूल में हो। २. जिसके मूल में कुछ हो। ३. उत्पन्न करनेवाला। जैसे—अनर्थ मूलक। पुं० १. मूल स्वरूप। २. मूली नामक कंद। ३. वैद्यक में ३४ प्रकार के स्थावर विषों में से एक प्रकार का विष। ऐसा विष जो वृक्षों के मूल या जड़ के रूप में होता है।
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मूलक-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब०स०+ङीष्] सहिंजन (पेड़)।
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मूल-कमल  : पुं० [सं० कर्म० स०] हठयोग के अनुसार नाभि के आसपास का अवयव जो कमल के रूप में माना गया है। नाभि-कमल।
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मूल-कर्म (न्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] त्रासन, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण आदि का वह तांत्रिक प्रयोग जो औषधियों के मूल द्वारा किया जाता है। जड़ी-बूटियों के मूल से होनेवाला टोना-टोटका।
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मूलकार  : पुं० [सं० मूल√कृ (करना)+अण्] मूलग्रंथ का कर्ता।
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मूलकारिका  : स्त्री० [सं० मूलकारक+टाप्, इत्व] १. मूल गद्य या पद्य जिसकी टीका की गई हो २. उधार दिए मूल धन की एक विशेष प्रकार की वृद्धि या सूद। ३. चंडीदेवी का एक नाम।
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मूल-कृच्छ्र  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] स्मृतियों में वर्णित ग्यारह प्रकार के पूर्णकृच्छ्रव्रतों में से एक जिसमें मूली आदि कुछ विशेष जड़ों का क्याथ या रस पीकर एक मास तक रहना पड़ता है। (मिताक्षरा)।
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मूल-खानक  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जो पेड़ों की जड़ों से जीविका निर्वाह करती थी।
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मूलच्छेद  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी चीज की जड़ काटना जिसमें फिर वह पनप या बढ़ न सके। २. पूरी तरह से किया जानेवाला नाश।
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मूलज  : वि० [सं० मूल√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. मूल से उत्पन्न। २. जड़ से उत्पन्न होनेवाला। पुं० अदरक। आदी।
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मूलतः (तस्)  : अ० य० [सं० मूल+तस्] मूल रूप में। आदि में। प्रथमतः।
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मूल-त्रिकोण  : पुं० [कर्म० स०] फलित ज्योतिष में सूर्य आदि ग्रहों की कुछ विशेष राशियों में स्थिति।
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मूल-द्रव्य  : पुं० [कर्म० स०] १. मूलधन। पूँजी। २. वह भूत या द्रव्य जिससे अन्य भूतों या द्रव्यों की उत्पत्ति हुई है।
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मूल-द्वार  : पुं० [कर्म० स०] सिंह-द्वार। सदर दरवाजा।
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मूल-द्वारावती  : स्त्री० [कर्म० स०] द्वारावती नगरी का एक प्राचीन अंश जो आजकल की द्वारका से कुछ दूर प्रायः समुद्र के अन्दर पड़ता है।
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मूल-धन  : पुं० [कर्म० स०] वह धन जो और धन कमाने के उद्देश्य से लगाया जाय। पूंजी।
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मूलधनी  : पुं० [सं० मूलधन से] १. वह जो किसी काम में मूलधन लगाता हो। २. दे० ‘पूँजीपति’।
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मूल-धातु  : स्त्री० [कर्म० स०] शरीर के अन्दर की मज्जा।
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मूलन  : वि० [सं० मूल] पूरा। समूचा। अव्य० १. मूल में ही। मूलतः। २. निश्चित रूप में। अवश्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूल-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] मंडूक पर्णी नामक की ओषधि।
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मूल-पाठ  : पुं० [कर्म० स०] किसी लेखक के वाक्यों की वह मूल शब्दावली जिसका प्रयोग उसने स्वयं ही अपने लेख्य में किया हो। (टेक्स्ट)।
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मूल-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] किसी वंश को चलानेवाला व्यक्ति। किसी वंश का आदि पुरुष।
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मूल-पोती  : स्त्री० [मध्य० स०] छोटी पोई नाम का शाक।
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मूल-प्रकृति  : स्त्री० [कर्म० स०] संसार की बीज-शक्ति या वह आदिम सत्ता, जिसका परिणाम तथा विकास यह सारी सृष्टि है। आद्या शक्ति। प्रकृति।
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मूल-बंध  : पुं० [सं०] १. हठयोग की एक क्रिया जिसमें सिद्धासन या वज्रासन द्वारा शिश्न और गुदा के मध्यवाले भाग को दबाकर अपान वायु को ऊपर चढ़ाते हैं, जिससे कुंडलिनी जागकर मेरु-दंड के सहारे ऊपर की ओर चढ़ने लगती है। २. तांत्रिक पूजन में एक प्रकार का अंगुलि-न्यास।
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मूलबर्हण  : पुं० [सं० ष० त०] १. कोई चीज जड़ से काटना। मूलच्छेद। २. मूल नक्षत्र।
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मूल-भूत  : पुं० [सं०] वह भूत जिसमें अन्य भूतों की सृष्टि मानी जाती है। वि० १. किसी वस्तु के मूल से सम्बन्ध रखनेवाला। जो किसी दूसरे के आधार पर या किसी की नकल न हो। (ओरिजिनल) ३. असल। मौलिक। (फंडामेंटल)।
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मूल-भृत्य  : पुं० [कर्म० स०] पुश्तैनी नौकर।
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मूल-मंत्र  : पुं० [कर्म० स०] वह उपाय जिससे कोई कार्य या सब कार्य जल्दी और सहज में सिद्ध हो जाते हों।
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मूल-रक्षण  : पुं० [ष० त०] राजधानी या शासन के केन्द्र स्थान की रक्षा। (कौ०)।
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मूल-रस  : पुं० [ब० स०] मूर्वा (लता)।
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मूल-वित्त  : पुं० [कर्म० स०] मूल-धन। पूँजी।
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मूल-विष  : वि० [ब० स०] जिसकी जड़ विषैली हो। (कनेर)।
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मूल-व्यसन  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा व्यसन जो किसी परिवार या वंश में पुरुषानुक्रम या कई पीढ़ियों से चला आ रहा हो।
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मूल-शाकट  : पुं० [सं० मूल+शाकट] वह खेत जिसमें मूली, गाजर आदि मोटी जड़वाले पौधे-बोये जाते हैं।
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मूल-स्थली  : पुं० [कर्म० स०] पेड़ का थाला। आलबाल।
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मूल-स्थान  : स्त्री० [कर्म० स०] १. रहने का आरम्भिक स्थान। २. बापदादा की जगह। पूर्वजों का निवास-स्थान। ३. प्रधान स्थान। राजधानी। ४. दीवार। भीत। ५. ईश्वर। ६. आधुनिक मुलतान नगर का पुराना और मूल नाम। (प्राचीन काल में यह तीर्थ था)।
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मूल-हर  : वि० [ष० त०] जिसने अपना सम्पूर्ण धन नष्ट कर दिया हो। (कौ०)
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मूला  : स्त्री० [सं० मूल+टाप्] १. सतावर। २. मूल नामक नक्षत्र। ३. पृथ्वी (डि०) स्त्री० [हिं० मूली] बहुत बड़ी और मोटी मूली। स्त्री०=मूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूलांश  : पुं० [सं० मूल+अंश] १. किसी वस्तु का मूल अंश या तत्त्व। २. वह मूल अंश जो आधार के रूप में हो और जिसके ऊपर किसी प्रकार की विस्तृत रचना या विकास हुआ हो। (बेस)
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मूलाधार  : पुं० [मूल-आधार, ष० त०] हठयोग में माने हुए मानव शरीर के अन्दर के छः चक्रों में से एक चक्र जिसका स्थान अग्नि-चक्र के ऊपर गुदा और श्शिन के मध्य में होता है। विशेष—यह चार दलोंवाला और लाल रंग का कहा गया है, और इसके देवता गणेश माने गये हैं। कहते हैं कि इसे सिद्ध कर लेने पर मनुष्य सब विद्याओं का ज्ञाता हो जाता है और सदा प्रसन्न तथा स्वस्थ रहता है।
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मूलार्थ  : पुं० [सं० मूल+अर्थ, एक प्रकार का क्वाथ] होमियोपैथी चिकित्सा में किसी ओषधि का वह मूल रस या सार जिससे आगे चलकर चिकित्सा के लिए अधिक शक्तिवाले रूप प्रस्तुत किये जाते हैं (मदर टिंचर)।
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मूलिक  : वि० [सं० मूल+ठन्—इक] १. मूल-सम्बन्धी। मूल का। २. जो मूल में हो। जैसे—मूलिक न्यायालय=वह न्यायालय जिसमें पहले-पहल कोई मुकदमा या वाद उपस्थित किया गया हो। ३. कंदमूल खाकर जीवन निर्वाह करनेवाला।
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मूलिन  : वि० [सं० मूल+इनि] मूल से उत्पन्न। पुं० पेड़। वृक्ष।
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मूलिनी  : स्त्री० [सं० मूलिन+ङीष्] जड़ के रूप में होनेवाली ओषधि। जड़ी।
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मूलिनी-वर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] नागदंती, श्वेतवचा, श्यामा, त्रिवृत्त, वृद्धदारका, सप्तला, श्वेतापराजिता, मूषकपर्णी, गोंडुवा, ज्योतिष्मती, बिबिं, क्षणपुष्पी, विषाणिका, अश्वगंधा, द्रवंती, और क्षीरिणी जड़ों का समाहार। (सुश्रुत)।
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मूली  : स्त्री० [सं० मूलक] १. एक पौधा जो अपनी लम्बी मुलायम जड़ के लिए बोया जाता है और जिसकी तरकारी बनती है। यह जड़ खाने में मीठी, चरपरी और तीक्ष्ण होती है। मुहावरा—(किसी को) मूली गाजर समझना=बहुत ही तुच्छ समझना। किसी गिनती में न समझना। २. एक प्रकार का बाँस। स्त्री० [सं] १. ज्येष्ठी। २. एक पौराणिक नदी। स्त्री०=मूलिका। (जड़ी) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूलीय  : वि० [सं० मूल+छ-ईय] मूल का या मूल से होनेवाली। मूल सम्बन्धी। जैसे—जिह्वा-मूलीय।
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मूलोच्छेद  : पुं० [सं० मूल-उच्छेद, ष० त०]=मूलच्छेद।
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मूलोदय  : पुं० [सं० मूल-उदय, ष० त०] ब्याज का बढ़ते-बढ़ते मूल धन के बराबर हो जाना।
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मूल्य  : पुं० [सं० मूल्य+यत्] १. मुद्रा के रूप में उतना धन जो कोई चीज क्रय करने के लिए उसके बदले में किसी को देना पड़ता है। वह दर या भाव जिस पर कोई चीज बिकती हो। अर्थशास्त्र के अनुसार यह किसी वस्तु की माँग और होनेवाली पूर्ति की मात्रा के आधार पर स्थिर होता है। ३. वह गुण, या तत्त्व जिसके आधार पर किसी का महत्त्व या मान होता है। ४. वह जो किसी को किसी कारणवशात् झेलना, भुगतना या बलिदान करना पड़ता है। जैसे—अत्यधिक परिश्रम का मूल्य स्वास्थ्य-हानि के रूप में चुकाना पड़ता है। क्रि० प्र०—चुकाना। वि० १. प्रतिष्ठा के योग्य। कदर के लायक। २. (पौधा) जो रोपा जा सकता हो। ३. (फसल) जो जड़ से उखाडी जाने के योग्य। जैसे—उड़द, मूँग आदि।
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मूल्यन  : पुं० [सं०√मूल्य+णिच्+ल्युट-अन] किसी वस्तु का मूल्य या निश्चित या स्थिर करना। दाम आँकना। मूल्यांकन। (वैल्युएशन)।
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मूल्यवान् (वत्)  : वि० [सं० मूल्य+मतुप्] १. जिसका मूल्य अत्यधिक हो। बहुमूल्य। २. जिसका महत्व य मान किसी की दृष्टि में बहुत अधिक हो।
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मूल्य-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि बाजारों में वस्तुओं के मूल्य किन आधारों पर या किन कारणों से घटते-बढ़ते रहते हैं।
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मूल्य-सूचनांक  : पुं० [ष० त०] दे० ‘सूचकाँक’।
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मूल्य-ह्रास-निधि  : पुं० [ष० त०] वह कोश या निधि जिसका मुख्य उद्देश्य दैनिक उपयोग में आनेवाले उपकरणों आदि के घिस जाने, पुराने तथा बेकाम हो जाने के कारण उनके मूल्य में क्रमशः होनेवाली घटी-पूरी करना होता है। (डिप्रिशियेशन फंड)।
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मूल्यांकन  : पुं० [सं० मूल्य-अंकन, ष० त०] १. किसी बात या वस्तु का मूल्य निर्धारित या निश्चित करने की क्रिया या भाव। (वैल्युएशन) २. किसी वस्तु की उपयोगिता, गुण, महत्त्व आदि का होनेवाला अंकन। कूत।
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मूल्यानुसार  : अव्य० [सं० मूल्य-अनुसार, ष० त०] दे० ‘यथा-मूल्य’।
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मूवना  : अ० [सं० मरण] मरना।
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मूश  : पुं० [सं० मूष से०] चूहा।
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मूष  : पुं० [सं०√मूध् (चुराना)+क]=मूषक (चूहा)।
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मूषक  : पुं० [सं० मूष+कन्] [स्त्री० मूषिका] १. चूहा। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह जो चुरा-छिपा कर या जबरदस्ती दूसरों का धन ले लेता हो। ३. रहस्य संप्रदायों में, मन को अज्ञान के अन्धकार में चूहे की तरह विचरता है और जिसे अन्त में काल-रूपी सर्प खा जाता है।
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मूषक-कर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] मूसाकानी (लता)।
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मूषक-वाहन  : पुं० [ब० स०] गणेश।
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मूषण  : पुं० [सं०√मूष्+ल्यु-अन] चुरा या छीन लेना। मूसना। चुराया।
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मूषा  : स्त्री० [सं० मूष+टाप्] १. सोना आदि गलान की धरिया। तैजसावर्तिनी। २. देव-ताड़ नामक वृक्ष। ३. गोखरु का पौधा। ४. गवाक्ष। झरोखा।
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मूषा-तुत्थ  : पुं० [सं० मध्य० स०] नीला थोथा। तूतिया।
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मूषिक  : पुं० [सं०√मूष्+इकन्] १. चूहा। मूसा। २. दक्षिण भारत का एक प्राचीन जनपद।
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मूषिक-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] जल में होनेवाला एक प्रकार का तृण।
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मूषिकसाधन  : पुं० [ष० त०] तंत्र में एक प्रकार का प्रयोग या साधन जिसके सिद्ध हो जाने से मनुष्य चूहे की बोली समझकर उससे शुभ-अशुभ फल कह सकता है।
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मूषिकांक  : पुं० [सं० मूषिक-अंक, ब० स०] गणेश।
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मूषिकांचन  : पुं० [सं० मूषिक√अञ्ज् (प्राप्त करना)+ल्यु-अन] गणेश।
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मूषिका  : स्त्री० [सं० मूषिक+टाप्] १. छोटा चूहा। चुहिया। २. मूसाकानी लता।
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मूषिकाद  : पुं० [सं० मूषिक√अद् (खाना)+अण्] बिडाल। बिल्ला।
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मूषिकाराति  : पुं० [मूषिक-अराति, ष० त०] बिल्ली। बिड़ाल।
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मूषीक  : पुं० [सं०√मूष्+ईकन्] बड़ा चूहा।
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मूषीकरण  : पुं० [सं०√मूष्+च्वि, इत्व, +दीर्घ√कृ (करना)+ल्युट] धरिया में धातु गलाने की क्रिया या भाव।
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मूस  : पुं० [सं० मूष] चूहा।
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मूसदानी  : स्त्री० [हिं० मूस+दानी (सं० आधान)] चूहा फँसाने का पिंजरा। चूहेदानी।
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मूसना  : स० [सं० मूषण०] १. किसी की चीज चुराकर उठा ले जाना। २. ठगना। ३. लूटना।
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मूसर  : पुं० [हिं० मूसल] =मूसल।
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मूसल  : पुं० [सं० मुशल] १. धान कूटने का एक प्रसिद्ध उपकरण जो लंबे मोटे डंडे के रूप में होता है और जिसके मध्य भाग में पकड़ने के लिए खड्डा सा होता है और छोर पर लोहे की साम जड़ी रहती है। २. उक्त आकार का प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ३. राम, कृष्ण आदि के चरणों में माना जानेवाला एक प्रकार का चिन्ह। ४. पानी बेल नाम की लता।
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मूसलचंद  : पुं० [हिं० मूसल+चंद] १. गँवार। असभ्य। २. अपढ़। ३. मूर्ख। ४. हट्टा-कट्टा परन्तु अकर्मण्य या निकम्मा आदमी। पद—दाल भात में मूसलचंद=ऐसा बहुत ही अनपेक्षित या अनभीष्ट व्यक्ति जो व्यर्थ हस्तक्षेप करना चाहता हो।
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मूसलधार  : अव्य० [हिं० मूसल+धार] मूसल के समान मोटी धार में।
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मूसला जड़  : पुं० [हि० मूसल] वृक्षों की दो प्रकार की जड़ों में से वह जड़ जो मोटी और सीधी कुछ दूर तक जमीन में चली गई हो, तथा जिसमें इधर-उधर सूत या शाखाएँ न फूटी हों। ‘झखरा’ से भिन्न। (टैप रूट)।
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मूसली  : पुं० [सं० मुशाली] हल्दी की जाति का एक पौधा।
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मूसा  : पुं० [सं० मूषक] चूहा।
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मूसा  : पुं० [इब, मौश्शा से अ०] यहूदियों के एक प्रसिद्ध धार्मिक और सामाजिक नेता जिन्होने मिस्र के इसराइलियों को दासता से मुक्त किया था। ये पैगम्बर या ईश्वरी देवदूत माने गये थे, और इन्हीं के समय से पैगम्बरी मतों का आरंभ हुआ था। इनके उपदेशों का संग्रह ‘तौरेते’ के नाम से प्रसिद्ध है।
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मूसाई  : पुं० [अ० मूसा+हिं० आई (प्रत्यय)] मूसा के धर्म का अनुयायी, यहूदी। वि० मूसा सम्बन्धी।
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मूसाकानी  : स्त्री० [सं० मूषाकर्णी] गीली जमीन में होनेवाली एक प्रकार की लता जिसके प्रायः सभी अंग ओषधि के रूप में काम आते हैं। विशेषतः चूहे के काटने से उत्पन्न होनेवाला विष दूर करने के लिए इसे पीसकर लगाया और इसका काढ़ा पिया जाता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
मूसा-हिरन  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का बहुत छोटा हिरन जो प्रायः एक बित्ता लंबा और प्रायः इतना ही ऊँचा होता है। (माउस डीयर)।
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मूसीकार  : पुं० [अ०] १. एक प्रकार का कल्पित पक्षी जिसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसकी चोंच में बहुत से छेद होते हैं, जिनमें से अनेक प्रकार के राग निकलते हैं। सामी जातियों का मत है कि मनुष्यों में संगीत का प्रचार इसी का गाना सुनने से हुआ है। २. संगीतज्ञ। ३. अरब देश का एक प्रकार का बाजा।
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मूसीक़ी  : स्त्री० [अ०] संगीत-कला। गान विद्या।
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