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शब्द का अर्थ

मेर  : पुं० १. =मेरु। २. =मेल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
मेरवन  : स्त्री० [हिं० मेरवना] १. मिलाने की क्रिया या भाव। २. किसी में मिलाई हुई दूसरी चीज। मेल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेरवना  : स०=मिलाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेरा  : वि० [हिं० मै+एरा (प्रत्यय)] ‘मैं’ का सम्बन्ध सूचक विभक्ति से युक्त सार्वनामिक विशेषण रूप। मुहावरा—मेरा-तेरा करना=किसी को अपना और किसी को पराया समझना। आत्म और पर का भेद-भाव रखना। पुं० =मेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेराउ  : पुं० =मेराव।
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मेराज  : स्त्री० [अ० मिअराज] १. ऊपर चढ़ने का साधन। २. सीढ़ी। ३. मुसलमानों के विश्वासानुसार मुहम्मद साहब का आसमान पर जाकर ईश्वर-साक्षात्कार करना।
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मेराना  : स०=मिलाना।
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मेराब  : पुं० [हि० मेर=मेल] १. मिलने या मिलाने की क्रिया या भाव। २. मिलन। मिलाप।
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मेरी  : स्त्री० [हि० मेरा] अहंभाव। अहंकार। सर्व० हिं० ‘मेरा’ का स्त्री।
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मेरु  : पुं० [सं०√मि (प्रक्षेप)+रु] १. एक पुराणोक्त पर्वत जो सोने का कहा गया है। सुमेरु। २. एक विशिष्ट आकार-प्रकार का देव-मन्दिर। ३. हिंडोले में ऊपरवाली वह लकड़ी जिससे झूलनेवाली रस्सियाँ बँधी रहती है। ४. पृथ्वी के उत्तरी ध्रुवों में से प्रत्येक ध्रुवों (पोल)। विशेष—उत्तरी ध्रुव सुमेरु और दक्षिणी ध्रुव सुमेर कहलाता है। ५. जपमाला के बीच का बड़ा दाना जो और सब दानों के ऊपर होता है। इसी से जप का आरम्भ किया जाता है और इसी पर उसकी समाप्ति होती है। ६. वीणा का ऊपरी उठा हुआ भाग। ७. छन्दशास्त्र में प्रत्यय के अन्तर्गत वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि कितनी मात्राओं या वर्णों के (प्रस्तार के अनुसार निकाले हुए) किसी भेद या छन्द में गुरु और लघु के कितने रूप होते हैं। ८. हठयोग में सुषुम्ना नाड़ी का एक नाम।
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मेरुआ  : पुं० [सं० मेरु+हिं० आ (प्रत्यय)] छोर का वह अंश जिसमें रस्सियाँ बँधी होती है। वि० [हिं० मेरवना=मिलाना] मिला हुआ। मिश्रित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेरुक  : पुं० [सं० मेरु+कन्] १. ईरान में स्थित एक देश। २. यज्ञ का धुआँ। ३. धूप।
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मेरु-ज्योति  : स्त्री० [सं० ष० त०] उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में रात के समय बीच में दिखाई पड़ती रहनेवाली एक प्रकार की ज्योति जिससे बहुत कुछ दिन का सा प्रकाश होता है। (आरोराबोरिएलिस)। विशेष—दक्षिण ध्रुव में दिखायी पड़नेवाले उक्त ज्योति को ‘कुमेरु ज्योति’ कहते हैं।
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मेरु-दंड  : पुं० [सं० उपमित स०] १. मनुष्यों और बहुत से जीव-जंतुओं में पीठ के बीचोबीच गरदन से लेकर कमर पर की त्रिकास्थि तक का पृष्ठवंश जिसमें कमेरुकाएँ (हड्डी की गुरियाँ) माला की तरह गुथी रहती है और जिनके दाहिने बाएँ शाखाओं के रूप में लम्बी-लम्बी हड्डियाँ निकली होती हैं। रीढ़ (बैकबोन) विशेष—हठयोग के अनुसार इसके मध्य सुषम्ना, बाई ओर इड़ा (चन्द्रमा) और दाहिनी ओर पिंगला (सूर्य) नाम की नाड़ियाँ होती हैं। २. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसी चीज या बात जिसके आधार पर कोई दूसरी चीज या बात ठीक तरह से आश्रित रहकर पूरी तरह से अपना काम करती है। जैसे—तुलसी-कृत रामायण हिन्दू संस्कृति का मेरु-दंड है। ३. भूगोल में पृथ्वी के दोनों ध्रुवों को मिलानेवाली एक कल्पित सीधी रेखा।
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मेरुदंडी (डिन्)  : वि० [सं० मेरुदंड+इनि] रीढ़वाला (प्राणी)।
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मेरुदेवी  : स्त्री० [सं०] ऋषभदेव की माता।
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मेरु-पृष्ठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी पीठ या नीचेवाला भाग समतल भूमि पर नहीं, बल्कि अंडाकार उभरे हुए तल पर हो। जैसे—मेरुपृष्ठ यंत्र (तांत्रिकों का) ‘भू पृष्ठ’ का विपर्याय। पुं० १. आकाश। २. स्वर्ग। ३. एक प्राचीन जाति।
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मेरु-यंत्र  : पुं० [सं० उपमित स०] १. चरखा। २. बीजगणित में एक प्रकार का चक्र।
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मेरुरज्जु  : स्त्री० [सं०] एक मोटी नस जो शरीर के तंत्रिकातंत्र के केन्द्र के रूप में है और जो गरदन के पिछले भाग से कमर तक रीढ़ की हड्डी के साथ फैली हुई है। (स्पाइनल कार्ड) विशेष दे० १. ‘तांत्रिका’। २. ‘तांत्रिका तंत्र’।
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मेरु-शिखर  : पुं० [सं० ष० त०] १. मेरु पर्वत। की चोटी। २. हठयोग में, सहस्रार चक्र का एक नाम। (दे० ‘सहस्रार’)।
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