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मोड़  : पुं० [हिं० मुड़ना या मोड़ना] १. मुडऩे या मोड़ने की अवस्था क्रिया या भाव। घुमाव। २. किसी चीज में होनेवाला घुमाव। वलन। (कर्व) ३. रास्ते आदि का वह अंश या स्थान जहाँ से वह किसी ओर मुड़ता है। जैसे—इस गली के मोड़ पर हलवाई की दुकान है। ४. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात की दिशा या प्रवृत्ति कुछ बदलकर किसी और या नई तरफ हुई हो। जैसे—यहाँ से आलोचना (या काव्य रचना) का नया मोड़ आरम्भ होता है। पुं० =मौर (सिर पर बाँधने का)। उदाहरण—(क) पाई कंकण सिर बँधीयो मोड़।—नरपति नाल्ह। (ख) पठा लीधौ जैमल पते मरसों बाँध मोड़।—बाँकीदास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
मोड़-तोड़  : पुं० [हिं० मोड़+अनु० तोड़] १. मोडने-तोड़ने मरोड़ने आदि की क्रिया या भाव। मरोड़। २. मार्गों में पड़नेवाला घुमाव-फिराव। चक्कर। ३. घुमाव-फिराव की अथवा चालाकी से भरी बातें।
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मोड़ना  : स० [हिं० मुड़ना का स०] १. ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई मुड़े। सामने वाले या सीधे मार्ग से न ले जाकर किसी दिशा में प्रवृत्त करना। जैसे—गाड़ी या घोड़ा दाहिने या बाएँ मोड़ना। मुहावरा—(किसी से) मुँह मोड़ना=विमुख होना। २. आघात करके या दबाव डालकर सीधी चीज किसी तरफ घुमाना या टेढ़ी करना। जैसे—छड़ मोड़ना, छुरी की धार मोड़ना। ३. ऐसी क्रिया करना जिससे किसी सपाट तलवारी वस्तु की परतें लग जाएँ। जैसे—कपड़ा या कागज मोड़ना। ४. किसी को कोई काम करने से रोकना या विरत करना। संयो० क्रि० डालना।—देना ५. कुछ या कोई जिस ओर उन्मुख या प्रवृत्त हो, उधर से हटाकर इधर-उधर करना। जैसे—पीठ मोड़ना, मुँह मोड़ना (देखें ‘पीठ’ और ‘मुँह’ के मुहा०)
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मोड़-मुड़क  : स्त्री० [हिं०] चित्रकला में अंगों आदि की वह स्थिति जिससे चित्र सजीव सा जान पड़ने लगता है।
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मोड़ा  : पुं० [सं० मुंड, मि० पं० मुंडा=लड़का] [स्त्री० मोड़ी] लड़का। बालक।
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मोड़ी  : स्त्री० [देश] १. बहुत जल्दी में लिखी हुई ऐसी अस्पष्ट लिपि जो कठिनता से पढ़ी जाय। घसीट लिखाई। २. दक्षिण भारत की एक लिपि।
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