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शब्द का अर्थ

संक  : स्त्री०=शंका।
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संकट  : पुं० [सं० सम√ कट् (बरसना या ढकना)+अच्] १. सँकरा रास्ता। तंग राह। २. विशेषतः जल या स्थल के दो भागों को जोड़नेवाला तंग रास्ता। जैसा—गिरि-संकट,जल-संकट, स्थल-संकट। ३. दो पहाड़ों के बीच का रास्ता। दर्रा। ४. ऐसी स्थिति जिसमें दोनों ओर कष्टों या विपत्तियों का सामना करना पड़ता हो और बीच में निश्चितता या सुखपूर्वक रहने के लिए बहुत ही थोड़ा अवकाश रह गया हो। ५. आफत। विपत्ति। वि० सँकरा। जैसा—संकट मुख।
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संकट-चौथ  : स्त्री० [सं० सकंट+हिं० चौथ] माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी।
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संकट-मुख  : वि० [सं०] जिसका मुँह सँकरा हो।
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संकट-संकेत  : पुं० [सं० ष० त०] विपत्ति या संकट में पड़े हुए लोगों का वह सांकेतिक संदेश जो आस-पास के लोगों को अपनी रक्षा या सहायता के लिए भेजा जाता है (एस० ओ० एस) जैसा—डूबते या जलते हुए जहाज का संकट-संकेत।
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संकटा  : स्त्री० [सं० संकट-टाप्] १. एक प्रसिद्ध देवी जो संकट या विपत्ति का निवारण करनेवाली मानी जाती है। २. फलित ज्योतिष में अष्ट योगिनियों में से एक।
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संकटापन्न  : भू० कृ० [सं० द्वि० त०] १. संकट या कष्ट में पडा हुआ। २. संकटपूर्ण।
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संकत  : पुं० =संकेत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकना  : अ० [सं० शंका] १. शंका करना। संदेह करना। २. आशंकित या भयभीत होना। डरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकर  : वि० [सं० सम्√ कृ (फेंकना)+अप्] १. दो या अधिक भिन्न भिन्न तत्त्वों या पदार्थों के मेल से बना हुआ। जैसा—संकर राग। २. दो अलग अलग जातियों, वर्णों के जीवों या प्राणियों के संसर्ग से उत्पन्न। दोगला। पुं० १. अलग अलग की दो चीजों का आपस में मिलकर एक होना। २. वह जिसकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न वर्गों या जातियों के पिता और माता से हुए हो। दोगला। ३. साहित्य में ध्वनि का वह प्रकार या भेद जिसमें एक ही आश्रय से कई अभिप्राय या ध्वनियाँ निकलती हों। जैसा—प्रिय के आने पर तीन स्तनों और चंचल तथा विशाल नेत्रोंवाली नायिका द्वार पर मंगल कलश और कमलों से वंदनवार का काम बिना आयाम के ही संपादित कर रही थी। यहाँ स्तनों से कलशों और नेत्रों से कमलों के वंदनवार का भी भाव निकलता है। ४. साहित्य में दो या अधिक अलंकारों के इस प्रकार एक साथ और मिले-जुले रहने की अवस्था जिसमें या तो वे एक दूसरे से अलग न किए जा सकें या जिनका उस प्रसंग में स्वतंत्र रूप सिद्ध न हो सके। (काम्मिक्सचर) उदाहरणार्थ—यदि किसी वर्णन में दो या अधिक अंलकार समान रूप से घटित होते हों तो उन्हें संकर कहा जायगा। इसकी गणना स्वतंत्र अलंकार के रूप में होती है। ५. न्याय के अनुसार किसी एक ही स्थान या पदार्थ में अत्यंताभाव और समानाधिकरण का एक ही में होना। जैसा—मन में मूर्तत्व तो हैं, पर भूतत्व नहीं है और आकाश में भूतत्त्व हैं, पर मूर्तत्व नहीं है। परन्तु पृथ्वी में भूतत्व भी है और मूर्तत्व भी है। ६. झाडू देने पर उड़नेवाली धूल। ७. आग के जलने का शब्द। पुं०=शंकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरक  : वि० [सं० संकर+कन्] १. मिलाने या मिश्रण करनेवाला। २. संकर रूप में लानेवाला।
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संकरखण  : पुं०=संघर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकर घरनी  : स्त्री० [सं० संकर+गृहणी] शंकर की पत्नी, पार्वती।
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संकरण  : पुं० [सं०] १. संकर या मिश्रित करने की क्रिया या भाव। २. दो भिन्न भिन्न जातियों या वर्गों के प्राणियों, वनस्पतियों आदि का संयोग करा के किसी अच्छी या नई जाति का प्राणी या वनस्पति उत्पन्न करने की क्रिया, प्रणाली या भाव। (क्रास ब्रीडिंग)
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संकरता  : स्त्री० [सं० संकर+तल्+टाप्] १. संकर होने की अवस्था, धर्म या भाव। सांकर्य। २. दोगलापन।
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संकर-पद  : पुं० [सं०] भाषा में ऐसा समस्त पद जो विभिन्न स्रोतों या भाषाओं के शब्दों के योग से बना हो।
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संकर समास  : पुं० [सं०] व्याकरण में दो ऐसे सब्दों का समास जिनमें से एक शब्द किसी एक भाषा का और दूसरा किसी दूसरी भाषा का हो।
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सँकरा  : वि० [सं० संकीर्ण] [स्त्री० सँकरी] १. (रास्ता) जिसकी चौड़ाई कम हो। २. (वस्त्र) जो पहनने पर कस जाता हो या जो बहुत मुश्किल से पहना जाता हो। तंग। पुं० कठिनता, विपत्ति आदि की स्थिति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० श्रृंखला] सिक्कड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरा  : पुं०=शंकराभरण (राग)।
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सँकराना  : स० [हि० सँकरा+आना (प्रत्यय)] संकुचित करना। तंग करना। स० [हिं० साँकल] अन्दर बन्द करके बाहर से साँकल लगाना। अ० सँकरा या तंग होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरित  : भू० कृ० [सं० संकर+इतच्] किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ।
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संकरिया  : पुं० [सं० संकर] एक प्रकार का हाथी।
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संकरी (रिन्)  : पुं० [सं० संकर+इनि] वह जो भिन्न वर्ण या जाति के पिता और माता से उत्पन्न हो। संकर। दोगला। स्त्री०=शंकरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरीकरण  : पुं० [सं० संकर+च्वि√ कृ (करना)+ल्युट-अन] १. दो या अधिक अलग अलग जातियों, जीवों पदार्थों आदि के योग से नया जीव या पदार्थ उत्पन्न करने की क्रिया। २. धर्म-शास्त्र में नौ प्रकार के पापों में से एक जो जातियों या प्राणियों में वर्ण-संकरता उत्पन्न करने से लगता है।
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संकर्षण  : पुं० [सं०] १. अपनी ओर खींचने की क्रिया या भाव। २. खेत में हल जोतना। ३. ग्यारह रुद्रों में से एक रुद्र। ४. श्रीकृष्ण के भाई बलदेव का एक नाम। ५. वैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके प्रवर्तक निम्बार्क जी थे। ६. कानून में अधिकार, उत्तरदायित्व आदि के विचार से किसी वस्तु या व्यक्ति के स्थान पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति का रखा या नाम चढ़ाया जाना (सबरोगेशन)।
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संकर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०√ कृष् (खींचना)+णिनि अथवा संकर्ष+इनि] १.खींचने या खींचकर मिलानेवाला। २. छोटा करनेवाला।
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संकल  : पुं० [सं० सम्√ कल् (गणना करना)+अच्] १. दो या अधिक चीजों को एक में मिलाना। २. इकट्ठा करना। संकलन। ३. गणित में जोड़ या योग नाम की क्रिया। ४. पश्चिमी पंजाब की एक प्राचीन पहाड़ी और उसके आस-पास का स्थान (आजकल का सांगला)। स्त्री० [सं० श्रृंखला] साँकल। सिकड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकलन  : पुं० [सं० सम्√ कल्+ल्युट-अन] [भू० कृ० संकलित] १. एकत्र करने की क्रिया। संग्रह करना। जमा करना। २. काम की और अच्छी चीजें चुनकर एक जगह एकत्र करना। ३. कोई ऐसी साहित्यिक कृति जिसमें अनेक ग्रन्थों या स्थानों से बहुत सी बातें इकट्ठी करके रखी गई हों। (कम्पाइलेशन)। ४. ढेर। राशि। ५. गणित में योग नाम की क्रिया। जोड़।
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संकलप  : पुं०=संकल्प।
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संकलपना  : स० [सं० संकल्प+हिं० ना (प्रत्यय)] १. किसी बात या संकल्प या दृढ़ निश्चय करना। २. धार्मिक रीति से संकल्प या मंत्रपाठ करते हुए कोई चीज दान करना। इस प्रकार छोड़ देना मानों संकल्प करके दान कर दिया हो। उदाहरण—सुख संकलपि दुख सांबर लीन्हेंऊँ—जायसी। ४. मन में किसी बात की कल्पना या विचार करना। सोचना।
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संकला  : पुं० [सं० शाक] शाक द्वीप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँकलाना  : स० [हिं० संकल्पना] १. धार्मिक वृत्ति से संकल्प या मंत्रपाठ करते हुए दान करना। उदाहरण—जब मेरे बाबा सँकलाए हे होइबों तोहारि।—लोकगीत।
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संकलित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कल्+क्त] १. जिसका संकलन हुआ हो। २. जो संकलन की क्रिया से बना हो। ३. चुन या छांटकर इकट्ठा किया हुआ। ४. (राशियों या संख्याएँ) जिसका जोड़ लगाया गया हो। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. जो थोडा-थोड़ा करके बढ़ा या इकट्ठा होकर एक हो गया हो (एग्रिगेट)।
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संकल्प  : पुं० [सं० सम√ कृप्+घञ्, र-ल] १. कोई कार्य करने की इच्छा जो मन में उत्पन्न हो। विचार। इरादा। २. कोई कार्य करने का मन में होनेवाला दृढ़ निश्चय। ३. सभा-समिति में किसी विषय में विचारपूर्वक किया हुआ पक्का निश्चय (रिजोल्यूशन) ४. धार्मिक क्षेत्र में, दान, पुण्य या और कोई देवकार्य आरंभ करने से पहले एक निश्चित मंत्र का उच्चारण करते हुए अपना दृढ़ निश्चय या विचार प्रकट करना। ५. वह मंत्र जिसका उच्चारण करते हुए उक्त प्रकार का निश्चय या विचार कार्य-रूप में परिणत किया जाता है। मुहावरा—(कोई चीज) संकल्प करना=दान करना या दान करने का दृढ़ निश्चय करना।
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संकल्पक  : वि० [सं० संकल्प+कन्] संकल्प करनेवाला।
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संकल्पना  : स्त्री० [सं०] १. संकल्प करने की क्रिया या भाव। २. शब्द, प्रतीक आदि का लगाया हुआ सामान्य से भिन्न विचारपूर्ण तथा बौद्धिक अर्थ (कन्सेपशन) ३. धारणा। ४. इच्छा। स०=संकल्पना।
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संकल्पा  : स्त्री० [सं० संकल्प+टाप्] दक्ष की एक कन्या जो धर्म की भार्या थी।
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संकल्पित  : भू० कृ० [सं० संकल्प+इतच्] १. संकल्प किया हुआ। २. निश्चयपूर्वक स्थिर किया हुआ। ३. जिसकी संकल्पना की गई हो।
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संकल्प  : वि० [सं० सम√कल्+ण्यत्, वृद्धयभाव] जिसका संकलन होने को हो या हो सकता हो। २. जो थोड़ा या युक्त किया जाने को हो। योग्य।
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संकष्ट  : पुं० [सं०] संकट (कष्ट)।
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संका  : स्त्री०=शंका।
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संकाना  : अ० [सं० शंका] १. शंकित होना। २. भयभीत होना। डरना। स० १. शकित करना। भयभीत करना। २. डराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संकाय  : स्त्री० [सं०] उच्च कोटि के अध्ययन के लिए ज्ञान-विज्ञान आदि का कोई विशिष्ट विभाग या शाखा (फैकल्टी)।
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संकायाध्यक्ष  : पुं० [सं०] आज-कल विश्वविद्यालयों में किसी संकाय का प्रधान अधिकारी (डीग ऑफ़ फ़ैकल्टी)।
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संकार  : पुं० [सं० सम√ कृ (करना)+घञ्] १. कूड़ा-करकट। २. वह धूल जो झाड़ू से उड़े। ३. आग के जलने का शब्द। स्त्री० [हिं० सँकारना] १. सँकारने की क्रिया या भाव। २. इशारा संकेत।
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सँकारना  : स० [हिं० संकार+ना (प्रत्यय)] संकेत करना। इशारा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँकारा  : पुं०=सकारा (प्रातःकाल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकाश  : वि० [सं० सम√ काश् (प्रकाश करना)+अच्] समस्त पदों के अंत में सदृश्य या समान। जैसा—अग्निसंकाय। पुं० १. प्रकाश। रोशनी। २. चमक। दीप्ति। अव्य० १. सदृश। समान। २. पास। समीप।
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संकास  : वि० पुं० अव्य०=संकाश।
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संकिस्त  : वि० [सं० संकृष्ट] जो अधिक चौडा न हो। सँकरा। तंग।
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संकीर्ण  : वि० [सं० सम√ कृ+क्त] [भाव० संकीर्णता] १. जो अधिक चौड़ा या विस्तृत न हो। संकुचित। सँकरा। २. किसी के साथ मिला हुआ। मिश्रित। ३. छोटा। ४. तुच्छ। ५. नीच। ६. वर्ण-संकर। ७. लाक्षणिक अर्थ में जो उदार न हो। जिसमें व्यापकता न हो। जैसा—संकीरण विचारधारा। पुं० १. ऐसा राग या रागिनी जो दो अन्य रागों या रागिनियों के मेल से बना हो। २. विपत्ति। संकट। ३. साहित्य में एक प्रकार का गद्य जिसमें कुछ अवृत्तगंधि का मेल होता है।
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संकीर्णता  : स्त्री० [सं० संकीर्ण+टल्-टाप्] १. संकीर्ण होने की अवस्था या भाव। २. नीचता। ३. ओछापन। क्षुद्रता।
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संकीर्तन  : पुं० [सं० सम√ कीर्त (वर्णन करना)+ल्युट-अन] १. भली-भाँति किसी की कीर्ति का वर्णन करना। २. ईश्वर देवता आदि का नाम जपना या यश गाना। कीर्तन।
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संकुचक  : वि० [सं०] संकुचित करने या सिकोड़नेवाला। पुं० कुछ ऐसी मछलियाँ जो सिकुड़कर छोटी और फैलकर बड़ी हो सकती हैं।
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संकुचन  : पुं० [सं० सम√ कुच् (संकुचित होना)+ल्युट-अन] १. संकुचित करने या होने की क्रिया या भाव। सिकुड़ना। २. एक प्रकार का बाल ग्रह रोग।
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संकुचना  : अ०=सकुचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकुचित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कुच् (संकोच करना)+क्त] १. जिसमें संकोच हो। संकोच। युक्त। लज्जित। जैसा—संकुचित दृष्टि। २. सिकुड़ा या सिकोड़ा हुआ। ३. तंग। सँकरा। संकीर्ण। ४. जिमसें उदारता का अभाव हो। अनुदार।
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संकुड़ित  : वि०=संकुचित।
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संकुरना  : अ०=सिकुड़ना।
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संकुल  : वि० [सं० सम√ कुल् (इकट्ठा होना)+क] [भाव० संकुलता] १. संकुलित ।। धना। २. भरा हुआ। पूर्ण। ३. पूरा। सारा। समूचा। पुं० १. युद्ध। समर। २. झुंड। दल। ३. जन-समूह। भीड़। ४. जनता। ५. असंगत वाक्य। ६. ऐसे वाक्य जो परस्पर विरोधी हो।
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संकुलता  : स्त्री० [सं० संकुल+तल्+टाप्] संकुल होने की अवस्था या भाव।
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संकुलित  : भू० कृ० [सं० संकुल+इतच्, अथवा सम√ कुल् (इकट्ठा होना)+क्त वा] १. घना किया हुआ। २. भरा हुआ। ३. पूरा किया हुआ। ४. इकट्ठा किया हुआ।
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संकुष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√ कृष् (खींचना)+क्त] १. खींचकर नजदीक लाया हुआ। २. एक साथ किया हुआ।
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संकृष्टि  : स्त्री०=संकर्षण।
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संकेंद्रण  : पुं० [सं०] १. चारों ओर से इकट्ठा करके एक केन्द्र पर लाना या स्थिर करना। २. मन के भाव या विचार किसी एक ही बात या विषय पर लाकर लगाना (कान्सेन्ट्रेशन)।
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संकेत  : वि०=संकरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=संकेत।
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संकेत  : पुं० [सं० सम्√ कित् (बहाना)+घञ्] १. चिन्ह। निशा। २. वह चीज जो किसी को किसी प्रकार की निशानी या पहचान के लिए दी जाय (टोकन)। ३. ऐसी शारीरिक चेष्टा जिससे किसी पर अपना उद्देश्य, भाव या विचार प्रकट किया जाय। इंगित। इशारा। जैसा—आँख या हाथ से किया जानेवाला संकेत। ४. कोई ऐसी बात या क्रिया जो किसी विशेष और बँधी हुई बात या कार्य की सूचक हो। ५. किसी घटना, प्रसंग आदि पर प्रकाश डालनेवाली कोई बात। प्रतीक। ६. संकेत स्थल (दे०)।
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संकेतकी  : स्त्री० [सं० संकेत] आपस में व्यवहार में संक्षेप और गोपन के लिए स्थिर की हुई वह वार्ता-प्रणाली जिसमें साधारण शब्दों और पदों के लिए छोटे-छोटे सांकेतिक सब्द बना लिये जाते हैं। व्यापारिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रायः तार द्वारा समाचार और आदेश भेजने के लिए इसका उपयोग होता है। सांकेतिक भाषा (कोड)।
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संकेत-ग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में शब्द की अभिधा शक्ति से ग्रहण किया जाने अथवा निकलनेवाला अर्थ। बिंबग्रहण से भिन्न।
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संकेत-चित्र  : पुं० न ऐसा चित्र जिसमें प्रतीक के सहारे कोई बात दिखाई गई हो।
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संकेत-चिन्ह  : पुं० [सं०] १. वह चिन्ह जो शब्द के संक्षिप्त रूप के आगे लगाया जाता है। जैसा—पुं० में का—०। २. शब्द का संक्षिप्त रूप। जैसा—मध्य प्रदेश का संकेत चिन्ह है।—म० प्र०।
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संकेतन  : पुं० [सं० सम्√कित् (बहाना)+ल्युट-अन] १. संकेत करने की क्रिया या भाव। २. ठहराव। निश्चय। ३. संकेत स्थल।
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संकेतना  : अ० [सं० संकेत+हिं० ना (प्रत्यय)] संकेत या इशारा करना। स० [सं० संकीर्ण] संकट में डालना।
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संकेत-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] १. साहित्य में वह स्थल जहाँ पर प्रेमी और प्रेमिका मिलते हों। २. वह स्थान जो औरों से छिपाकर कुछ लोगों ने किसी विशेष कार्य के लिए नियत या स्थिर किया हो।
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संकेताक्षर  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसी लिपि-प्रणाली जिसमें वर्ण-माला के अक्षर अपने शुद्ध रूप में नही बल्कि निश्चित संकेत रूप में लिखे जाते हैं (साइफ़र)।
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संकेतित  : भू० कृ० [सं० सम्√ कित् (बहाना)+क्त, अथवा संकेत+इतच्] १. संकेत के रूप में लाया हुआ। जिसके संबंध में संकेत हुआ हो। २. ठहराया हुआ। निश्चित। ३. आमंत्रित।
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संकेतितार्थ  : पुं० [सं० संकेतित+अर्थ] शब्द या पद का संकेत रूप से निकलनेवाला अर्थ (साधारण शब्दार्थ से भिन्न)।
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संकेलना  : स० [सं० संकुल] १. इकट्ठा करना। २. समेटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकोच  : पुं० [सं०] १. सिकुड़ने की क्रिया या भाव। २. वह मानसिक स्थिति जिसमें भय या लज्जा अथवा साहस के अभाव के कारण कुछ करने को जी नहीं चाहता। ३. असमंजस। भागा-पीछा। ४. थोड़े में बहुत सी बातें करना। ५. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें विकास अलंकार के विरुद्ध-वर्णन होता है या किसी वस्तु का अतिशय संकोच पूर्वक वर्णन किया जाता है। ६. एक प्रकार की मछली। ७. केसर।
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संकोचक  : वि० [सं० सम√ कुच् (सिकुड़ना)+ण्वुल्-अक] १. संकोच करनेवाला। २. सिकोडऩेवाला।
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संकोचन  : पुं० [सं० सम√ कुच्+ल्युट-अन] सिकुड़ने या सिकोडऩे की क्रिया या भाव।
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सँकोचना  : स० [सं० संकोच] संकुचित करना। अ० मन में संकोच करना। असमंजस में पड़ना।
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संकोचित  : भू० कृ० [सं० संकोच+इतच्] १. संकोच युक्त। जिसमें संकोच हुआ हो। लज्जित। शरमिन्दा। पुं० तलवार चलाने का एक ढंग।
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संकोची (चिन्)  : वि० [सं० सम√कुच्+णिनि, अथवा संकोच इति] १. संकोच करनेवाला। २. सिकुड़नेवाला। ३. जिसे स्वभावतः या प्रायः संकोच होता हो। संकोचशील।
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सँकोपना  : अ० [सं० संकोप+हिं० ना (प्रत्य)] कोप या क्रोध करना। क्रुद्ध होना। गुस्सा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संकोरना  : स०=सिकोड़ना।
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संक्रंदन  : पुं० [सं० सम√क्रन्द (रोदन)+ल्युट-अन] १. शक्र। इंद्र। २. पुराणानुसार भौत्य मनु का एक पुत्र। ३. दे० ‘क्रंदन’।
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संक्रम  : पुं० [सं०] १. सीधी अर्थात् सामने की ओर होनेवाली गति। विक्रम का विपर्याय। २. सूर्य की दक्षिणायन गति। ३. दे० ‘संक्रमण’।
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संक्रमण  : पुं० [सं० सम√क्रम् (चलना)+ल्युट-अन] १. आगे की ओर चलना या बढ़ना। ‘विक्रमण’ का विपर्याय। २. अतिक्रमण। लाँघना। ३. घूमना-फिरना। ४. एक अवस्था में धीरे-धीरे बदलते हुए दूसरी अवस्था में पहुंचना। जैसा—संक्रमण काल। ५. एक के हाथ या अधिकार से दूसरे के हाथ या अधिकार में जाना (पासिंग)। ६. सूर्य का एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करना। ७. एक स्थिति पार करते हुए दूसरी स्थिति में जाना या पहुंचना। ८. कीटाणु, रोग आदि का फैलते हुए एक से दूसरे को होना।
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संक्रमण-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह समय जब कोई पहले रूप से बदलकर दूसरे रूप में आ रहा हो। २. दे० ‘संक्रांति’।
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संक्रमण-नाशक  : वि० [सं० ष० त०] रोग के संक्रमण से बचाने या मुक्त करनेवाला। (डिसइनफ़ेक्टैंट)
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संक्रमना  : अ० [सं० संक्रमण] संक्रमण करना या होना। जैसा—सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संक्रमिक  : वि० [सं० सम√ क्रम्+ठन्] १. जिसका संक्रमण हुआ या हो रहा हो। २. अंतरित या हस्तांतरित होनेवाला।
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संक्रमित  : भू० कृ० [सं० सम्√ क्रम्+क्त] १. जिसका या जिसमें संक्रमण हुआ हो। २. किसी में युक्त या सम्मिलित किया हुआ। जैसा—संक्रमित वाक्य। ३. किसी के अन्दर पहुँचाया या प्रविष्ट किया हुआ। ४. परिवर्तित किया या बदला हुआ।
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संक्रमिता (तृ)  : वि० [सं० सम्√क्रम्+तृच्] १. संक्रमण कनरे वाला। २. जानेवाला। गमन करनेवाला। ३. प्रवेश करनेवाला।
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संक्रांत  : पुं० [सं० सम√ क्रम् (चलना)+क्त] १. दायभाग के अनुसार वह धन जो कई पीढ़ियों से चला आ रहा हो। २. दे० ‘संक्रांति’।
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संक्रांति  : स्त्री० [सं० सम्√ क्रम् (चलना)+क्तिन्] १. सूर्य का एक राशि से दूसरे राशि में जाना। २. वह समय जब सूर्य एक राशि पार करके दूसरी राशि में पहुँचता है। ३. वह दिन जिसमें सूर्य का उक्त प्रकार का संचार होता है और इसीलिए जो हिन्दुओं में पर्व या पुण्यकाल माना जाता है। ४. अंतरण या हस्तांतरण।
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संक्राम  : पुं० [सं० सम√क्रम् (चलना)+घञ्] १. कठिनाई से गमन करना। २. दुर्गम मार्ग। ३. संक्रमण।
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संक्रामक  : वि० [सं०] १. (रोग) जो या तो रोगी के संसर्गज से या पानी हवा आदि के द्वारा भी उत्पन्न होता अथवा फैलाता हो। संसर्ग से भिन्न (कान्टेजियस)। विशेष—संक्रामक और संसर्गज रोगों का अन्तर जानने के लिए देखें संसर्गज का विशेष। २. (काम या बात) जिसके औचित्य या अनौचित्य का विचार किये बिना और केवल दूसरों की देखा देखी प्रचलन या प्रचार होता हो (कान्टेजियस)।
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संक्रामित  : भू० कृ० [सं० सम√क्रम् (चलना)+क्त] संक्रमण के द्वारा कही तक पहुँचाया हुआ।
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संक्रीडन  : पुं०[सं० सम्√ क्रीडा (खेलना करना)+ल्युट-अन] १. क्रीड़ा करना। खेलना। २. परिहास करना।
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संक्रोन  : स्त्री०=संक्रांति। पुं०=संक्रमण।
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संक्रोश  : पुं० [सं० सं०√ क्रुश् (चिल्लाना)+घञ्] जोर से शब्द करना चिल्लाना।
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संक्षय  : पुं० [सं० सम्√ क्षि+अच्] १. पूरी तरह से होनेवाला नाश। २. प्रलय।
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संक्षारक  : वि० [सं०√ क्षर+ण,क्षार,+कन्,सम+क्षारक] संरक्षण करनेवाला (कोरोसिव)।
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संक्षारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० संक्षारित] क्षार आदि की उत्पति या योग के कारण किसी पदार्थ का धीरे-धीरे क्षीण होकर नष्ट होना (कोरोजन)।
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संक्षालन  : पुं० [सं० सम्√ क्षल् (धोना)+णिच्-ल्युट-अन] [भू० कृ, संक्षालित] १. धोने की क्रिया। २. वह जल जो धोने नहाने आदि के काम में आता हो।
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संक्षिप्त  : वि० [सं०√ क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. ढेर के रूप में आया या लगाया हुआ। २. जो संक्षेप में कहा या लिखा गया हो। ३. (लेख, पुस्तक आदि का वह रूप) जिसमें कुछ बातें घटाकर उसका रूप छोटा कर दिया गया हो। ४. (शब्द आदि का रूप) जो लघु हो।
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संक्षिप्तक  : पुं० [सं० संक्षिप्त] शब्द या पद का संक्षिप्त रूप या संकेत चिन्ह। (एब्रिविएशन)।
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संक्षिप्त-लिपि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार की लेखन प्रणाली जिसमें ध्वनियों के सूचक अक्षरों या वर्णों के स्थान पर छोटी रेखाओं, बिन्दुओं आदि का प्रयोग करके लिपि का रूप बहुत संक्षिप्त कर दिया जाता है (शार्ट हैन्ड)। विशेष—इसमें लिपि उतनी ही जल्दी लिखी जाती है, जितनी जल्दी आदमी बोलता चलता है।
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संक्षिप्ता  : स्त्री० [सं० संक्षिप्त—टाप्] ज्योतिष में बुध ग्रह की एक प्रकार की गति।
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संक्षिप्ति  : स्त्री० [सं० सम्√ क्षिप् (संक्षिप्त करना)+क्तिन्] नाटक में चार प्रकार की आरभटियों में से एक।
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संक्षेप  : पुं० [सं० सम√ क्षिप् (संक्षिप्त करना)+घञ्] १. थोड़े में कोई बात कहना। २. थोड़े में कही हुई बात का रूप। ३. कम करना। घटाना। ४. लेख आदि का काट-छांट कर कम किया हुआ रूप। समाहार। ५. चुंबक पत्थर।
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संक्षेपक  : वि० [सं०] १. फेंकनेवाला। २. नष्ट करनेवाला। ३. संक्षिप्त रूप में लानेवाला।
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संक्षेपण  : पुं० [सं० सम√ क्षिप् (कम करना)+ल्युट-अन] काट-छाँट कर या और किसी प्रकार संक्षिप्त (कम या छोटा) करने की क्रिया या भाव।
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संक्षेपतः  : अव्य० [सं० संक्षिप्त+तमिल्] संक्षेप में। थोड़े में।
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संक्षेपतया  : अव्य० [सं० संक्षेप+तल्-टाप्—टा] संक्षेप में। संक्षेपतः।
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संक्षोभ  : पुं० [सं० सम्√क्षृभ् (चंचल होना)+घञ्] १. चंचलता। २. कंपन। ३. विप्लव। ४. उलट-फेर। ५. अहंकार। घमंड। ६. किसी अप्रिय घटना के कारण मन को लगनेवाला गहरा आघात या धक्का (शॉक)।
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संकलेंदु  : पुं० [सं०] पूर्णिमा का चाँद। पूरा चाँद।
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