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संघ  : पुं० [सं०] १. लोगों का समुदाय या समूह। २. लोगों का एक साथ मिलकर रहना। ३. आपस में गठे या मिले हुए होने की अवस्था या भाव। ४. मनुष्यों का वह समाज या समुदाय जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए बना हो। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार का लोकतंत्री राज्य या शासन प्रकार जिसकी व्यवस्था जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते थे। ६. उक्त के अनुकरण पर गौतम बुद्ध की बनाई हुई वह प्रतिनिधिक संस्था जो बौद्ध धर्म के अनुयायियों और विशेषतः भिक्षुओं आदि के संबंध में आचार, व्यवहार आदि के नियम बनाती और व्यवस्था करती थी। इसका महत्त्व इतना अधिक था कि बुद्ध और धर्म के साथ इसकी गणना भी बौद्धों में होने लगी थी। ७. साधु सन्यासियों विशेषतः बौद्ध भिक्षुओं और श्रमणों के रहने का मठ। ८. आधुनिक राजनीति में, राज्यों, राष्ट्रों आदि के पारस्परिक समझौते से बननेवाला ऐसा संघठन जो कुछ विशिष्ट बातों में एक केन्द्रीय सत्ता का अधिकार और अनुशासन मानता हो (फेडरेशन)।
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संघचारी (रिन्)  : वि० [सं०] १. (पक्षी और पशु) जो झुंड बनाकर रहता हो। २. (व्यक्ति) जो अधिकतर लोगों अर्थात् बहुमत के अनुसार कोई काम करता हो। पुं० मछली।
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संघट  : पुं०[सं० सम्√ घट् (मिलना)+अच्] १. समूह। राशि। ढेर। २. मुठ-भेड़। संघर्ष। ३. दे० ‘संघटन’।
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संघटन  : पुं० [सं०] १. किसी चीज के विभिन्न अवयवों को जोड़कर उसे प्रतिष्ठित करना। रचना। २. व्यक्तियों का मिलना। ३.किसी विशिष्ट वर्ग या कार्य-क्षेत्र के लोगों का मिलकर एक इकाई का रूप धारण करना जिससे वे सामूहिक रूप से अपने हितों की रक्षा कर सकें। ४.बिखरी हुई शक्तियों को एक में मिलाकर उन्हें किसी काम के लिए तैयार करना। ५. इस उद्देश्य से बनाई हुई संस्था (आरगनाइजेशन, अंतिम तीनों अर्थो के लिए)। २. स्वरों या शब्दों का संयोग।
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संघटित  : भू० कृ० [सं] १. जिसका संघटन हुआ हो। २. (व्यक्तियों का वर्ग) जो एक होकर तथा सामूहिक रूप से अपने ध्येय की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हो। ३. युद्ध, प्रतियोगिता आदि में लगा हुआ। उदा०—सुर बिमान हिम-भानु, भानु संघटित परस्पर।—तुलसी। ४. बजाता हुआ।
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संघट्ट  : पुं० [सं०] १. रचना का प्रकार या स्वरूप। बनावट। गठन। २. संघर्ष।
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संघट्ट-चक्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष में, युद्ध का परिणाम जानने के लिए बनाया जानेवाला एक प्रकार का चक्र।
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संघट्टन  : पुं० [सं०] १. बनावट। रचना। गठन। २. मिलन। संयोग। ३. घटना। ४. दे० ‘संघटन’।
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संघट्टित  : भू० कृ० [सं० सं√ घट्ट (इकट्ठा करना)+क्त] १. एकत्र किया हुआ। २. बनाया हुआ। निर्मित। रचित। ३. चलाया हुआ। चालित। ४. रगड़ा या पीसा हुआ। घर्षित।
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संघतिया  : पुं० १. =संगतिया। २. =संघाती। (साथी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघती  : पुं०[सं० संघ, हिं० संग] १. संगी। साथी। सहचर। २. दे० ‘संगतिया’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघ-न्यायालय  : पुं० [ष० त०] संघराज्य का सर्वोच्च न्यायालय (फ़ेडरल कोर्टं)।
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संघपति  : पुं०[स० ष० त०] किसी संघ का प्रधान अधिकारी।
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संघरना  : पुं० [सं० संहार+हिं० ना (प्रत्य०)] १. संहार करना। मार डालना। नाश करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सँघराना  : स० [हिं० संग?] दुःखी या उदास गौ को, उसका दूध दूहने के लिए, परचाना और पुचकारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघर्ष  : पुं० [सं०] १. कोई चीज घिसने, घोटने या रगड़ने की क्रिया। २. किसी चीज के कण अलग करने या उसका तल घटाने या घिसने के लिए की जानेवाली कोई ऐसी क्रिया जिसमें बल लगाकर किसी कड़ी चीज से बार बार रगड़ते हैं। रगड़। ३. दो विरोधी दलों या पक्षों में एक दूसरे को दबाने के लिए होनेवाला कोई ऐसा प्रयत्न जिसमें दोनों अपनी सारी शक्ति लगा देते और यथा-साध्य एक दूसरे का उपकार या हानि करने पर तुले रहते हैं। ४. उक्त के आधार पर, कठिनाइयों, बाधाओं आदि से बचने तथा प्रबल विरोधी शक्तियों को दबाने के लिए प्राणपन से की जानेवाली चेष्टा या प्रयत्न (स्ट्रगल; अंतिम दोनों अर्थों के लिए)। ५. आधुनिक पाश्चात्य साहित्यकारों के मत से नाटक में वह स्थिति जिसमें दो परस्पर विरोधी शक्तियाँ एक दूसरे को दबाने का प्रयत्न करती हैं। ६. वह अहंकारपूर्ण बात जो अपने प्रतिपक्षी को अपना बड़प्पन जतलाने के लिए कही जाये। ७. बाजी या शर्त लगाना। ८. स्पर्धा। होड़। ९. द्वेष। वैर। १॰. काम की प्रबल वासना। ११. धीरे धीरे खिसकना, चलना या रेंगना।
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संघर्षण  : पुं० [सं० सम्√ घृष् (रगड़ना)+ल्युट्-अन] १. संघर्ष करने की क्रिया या भाव। २. भूगोल में, धारा में बहते हुए कंकड़ों की चट्टानों आदि से होनेवाली रगड़ (कोरेसन)।
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संघर्षी (षिन्)  : वि० [सं०] १. संघर्ष-रत। संघर्ष करनेवाला। २. घिसने या रगड़नेवाला। पुं० व्याकरण में ख् ग् फ् व् और द् व्यंजन वर्ग जिनका उच्चारण करते समय मख द्वार खुला रहता है परन्तु फिर भी हवा टकराती हुई झटके से बाहर निकलती है।
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संघ-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] मिलकर काम करने के लिए सम्मिलित होने की क्रिया या प्रवृत्ति।
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संघाट  : वि० [सं० संघ√ अट् (गमनादि)+यज्] दल या समूह में रहनेवाला। जो दल बाँधकर रहता हो।
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संघाटिका  : स्त्री० [सं० सम्√ घट् (मिलना)+णिच्+ण्वुल्-अक-इत्व-टाप्] १. प्राचीन भारत में स्त्रियों का एक प्रकार का पहनावा। २. कुटनी। दूती। ३. सिंघाड़ा। ४. कुंभी।
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संघाटी  : स्त्री० [सं०] बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का चीवर।
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संघाणक  : पुं० [सं०] श्लेष्मा। कफ।
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संघात  : पुं० [सं०] १. जमाव। समूह। समष्टि। २. आघात; विशेषतः अकस्मात तथा जोर से लगनेवाला आघात। टक्कर। (इम्पैक्ट)। ३. वध। हत्या। ४. कफ। श्लेष्मा। ५. देह। शरीर। ६. रहने की जगह। निवास-स्थान। ७. एक नरक का नाम।
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संघातक  : वि० [सं० संघात+कन्] १. घात करनेवाला २. प्राण लेनेवाला। ३. नष्ट या बरबाद करनेवाला।
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संघातन  : पुं० [सं०] संघात करने की क्रिया या भाव।
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सँघाती  : पुं०=सँघाती (संगी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संघाती  : पुं० [सं० संघाती+इनि] संघातक। प्राणनाशक।
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संघाधिप  : पुं० [सं० ष० त०] १. धार्मिक संघ का प्रधान (जैन)। २. किसी प्रकार के संघ का अध्यक्ष।
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संघार  : पुं०=संहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संघारना  : स०=संहारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संघाराम  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्ध भिक्षुओं, श्रमणों आदि के रहने का मठ। विहार।
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संघी  : वि० [सं० संघीय] १. दे ‘संघीय’। २. किसी संघ से संबद्ध। जैसा—जन-संघी। ३. समूहों में रहनेवाला। पुं० किसी संघ का सदस्य।
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संघीय  : वि० [सं०] १. संघ-संबंधी। संघ का। २. जिसका संघटन संघ के रूप में हुआ हो (फेडरल)।
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संघृष्ट  : भू० कृ० [सं० सं√घृष् (रगड़ना)+क्त] १. रगड़ खाया हुआ। २. रगड़ा हुआ।
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संघेला  : पुं० [सं० संग] १. साथी। सहचर। संगी। २. दोस्त। मित्र।
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संघोष  : पुं० [सं० सम्√ घुष् (ध्वनि होना)+घञ्] जोर का शब्द। घोष।
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