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शब्द का अर्थ

संभ  : पुं०=शंभु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभक्त  : भू० कृ० [सं० सम्√भज् (भाग करना)+क्त] [भाव० संभक्ति] १. बँटा हुआ। विभक्त। २. भाव या हिस्सा पाने या लेने वाला। ३. भोग करने वाला। पुं० अच्छा और पूरा भक्त।
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संभक्ति  : स्त्री० [सं० सम्√भज् (भाग करना)+क्तिन्] १. विभाजन। २. विभाग। ३. उपभोग। ४. उत्तम और पूरी भक्ति।
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संभक्ष  : वि० [सं० सम्√भक्ष् (खाना)+अच्] खाने वाला (समास में)। पुं० १. किसी के साथ बैठकर खाना। सहभोज। २. खाद्य पदार्थ।
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संभग्न  : वि० [सं०] १. बहुत टूटा-फूटा। २. हारा हुआ। परास्त। ३. विफल। पुं० शिव।
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संभर  : वि० [सं० सम्√भृ (भरण करना)+अच्] भरण पोषण करने वाला। पुं०=साँभर (झील)।
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संभरण  : पुं० [सं० सम्√ भृ (भरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० संभरणीय, संभृत] १. पालन-पोषण। २. एकत्र करना। चयन। संचय। ३. किसी काम या बात की योजना या विधान। ४. सामग्री। सामान। ५. लोगों की आवश्यकता की चीजें उनके पास पहुँचने की व्यवस्था। समायोजन। (सप्लाई) ६. यज्ञ की वेदी में लगाई जानेवाली ईटें।
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सँभरणी  : स्त्री० [सं० संभरण-ङीप्] सोमरस रखने का एक यज्ञपात्र।
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सँभरना  : अ०=संभलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० स्मरण]=स्मरण करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभल  : पुं० [सं०] १. किसी लड़की से विवाह करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति। २. स्त्रियों का दलाल। ३. वह स्थान जहाँ विष्णुव्यास नामक ब्राह्मण के घर विष्णु का दसवाँ कल्कि अवतार होने को है। इसे कुछ लोग मुरादाबाद जिले का संभल नाम का कसबा समझते हैं।
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सँभलना  : अ० [सं० संभरण] १. किसी ओर गिरने, फिसलने, लुढ़कने, भ्रष्ट आदि होने से रुकना। २. किसी बोझ आदि का रोका या किसी कर्तव्य आदि का निर्वाह किया जा सकना। ३. किसी आधार या सहारे पर रुका रहना। ४. होशियार या सावधान रहना। ५. चोट या हानि से बचाव करना। ६. स्वस्थ होना। ७. बुरी दशा से बचकर रहना। ८. अच्छी दशा में आना। स० [सं० श्रवण] सुनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सँभला  : पुं० [हिं० सँभलना] एक बार बिगड़कर फिर सँभली हुई फसल।
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सँभली  : स्त्री० [सं० संभली] कुटनी। दूती।
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संभव  : वि० [सं०] १. (काम) जो किया जा सकता हो अथवा हो सकता हो। किये जाने अथवा हो सकने योग्य। २. जिसके घटित होने की संभावना हो। जिसके संबंध में यह समझा या सोचा जा सकता हो कि ऐसा हो सकता है। मुमकिन (पाँसिबल)। पुं० १. उत्पत्ति। जन्म। पैदाइश। जैसे—कुमार संभव। २. कोई काम या बात घटित होने की अवस्था या भाव। ३. मूल कारण हेतु। मिलन। ४. संयोग। ५. स्त्री-प्रसंग। सहवास। ६. उपयुक्तता। समीचीनता। ७. किसी को अंतर्गत कर सकने की योग्यता। समाई। ८. ध्वंस। नाश। ९. मान, मूल्य आदि में समान होने की अवस्था या भाव जो तर्क में एक प्रकार का प्रमाण माना जाता है। जैसे—एक रुपया और सौ पैसे दोनों बराबर हैं। १॰. वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे अर्हत (जैन)। ११. बौद्धों के अनुसार एक लोक का नाम।
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संभवतः  : अव्य० [सं० संभु+तरिल] १. हो सकता है। संभव है कि। मुमकिन है कि। गालिबन। २. संभावना है कि। हो सकता है कि।
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संभवन  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+ल्युट्—अन] [वि० संभवनीय, संभाव्य, भू० कृ० संभूत] १. उत्पन्न होना। पैदा होना। २. संभव या मुमकिन होना। ३. घटित या संभूत होना।
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सँभवना  : स० [सं० संभव+हिं० ना (प्रत्य०)] उत्पन्न करना। पैदा करना। अ० उत्पन्न होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभवनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे तीर्थकर (जैन)।
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संभवनीय  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+अनीयर्] १. जो हो सकता हो। मुमकिन। २. जिसकी संभावना हो।
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संभविष्णु  : पुं० [सं० सम्√ भू (होना)+इष्णुंच] १. जनक। २. उत्पादक। ३. स्त्रष्टा।
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संभवी  : [सं० संभविन] १. किसी से संभूत या उत्पन्न होने वाला। जैसे—स्वतः संभवी वस्तु या हेतु। २. जो हो सकता हो। मुमकिन। संभव।
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संभव्य  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+यत्] कपित्थ। कैथ। वि० जो हो सकता हो। संभव।
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संभाखन  : पुं०=संभाषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सँभार  : स्त्री०=सँभाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संभार  : पुं० [सं०] १. एकत्र या इकट्ठा करना। संचय। २. साज-सामान। सामग्री। ३. आयोजन। तैयारी। ४. धन संपत्ति। ५. दल-झुंड। ६. ढ़ेर। राशि। ७. पालन-पोषण। ८. देख-रेख। निगरानी। ९. नियंत्रण। निरोध।
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संभार तंत्र  : पुं० [सं०] आधुनिक युद्ध कला का वह अंग जिसमें सेना के संचालन, निवास आदि और सैनिको को उनकी आवश्यक सामग्री पहुँचाने की व्यवस्था होती है।
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सँभारना  : स० [सं० स्मरण] स्मरण करना। याद करना। स०=सँभालना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभाराधिप  : पुं० [सं०] राजकीय पदार्थों का अध्यक्ष। तोश खाने का अफसर (शुक्रनीति)।
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संभारी (रिन्)  : वि० [सं० संभार+इनि सं०√भू (भरण करना)+णिनि, संभारिन] [स्त्री० संभारिणीं] १. संभार करने वाला। २. भरा हुआ। पूर्ण।
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सँभाल  : स्त्री० [सं० संभार] १. सँभलने या सँभालने की क्रिया या भाव। २. कोई चीज सँभालकर रखने की क्रिया या भाव। देख-रेख। हिफाजत। ३. शरीर के अंग आदि सँभालकर रखने की शक्ति या समझ। तन-बदन की सुध। जैसे—वह इतना वृद्ध हो गया है कि उसे शरीर की भी सँबाल नहीं रहती। ४. प्रबंध। व्यवस्था। जैसे—गृहस्थी की संभाल। ५. किसी का किया जाने वाला पालन-पोषण।
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सँभालना  : स० [हिं सँभलना का स०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कुछ या कोई सँभले। २. गिरते हुए को बीच में ही रोकना। बीच में पकड़ या रोक रखना। ३. बिगड़ते हुए के संबंध में ऐसी क्रिया करना वह अधिक बिगड़ने न पावे और धीरे-धीरे सुधरने लगे। ४. ऐसी देख-रेख रखना कि बिगड़ने या नष्ट न होने पाए। निगरानी करना। जैसे—घर की चीजें सँभालकर रखना। ५. किसी का पालन-पोषण करना। ६. उचित प्रबंध या व्यवस्था करना। ७. कर्तव्य, कार्य भार आदि अपने ऊपर लेकर उसका ठीक तरह से निर्वाह करना। जैसे—शासन का कार्य सँभालना। ८. यह देखना कि कोई चीज जितनी या जैसी होनी चाहिए उतनी वैसी ही है न। जैसे—अपना अब सामान सँभाल लो। ९. अपने आपको आवेग-युक्त या क्षुब्ध न होने देना।जैसे—उस पर क्रोध मत करना अपने आप को सँभाले रहना। संयो० क्रि०—देना।—लेना।
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सँभाला  : पुं० [हिं० सँभलना] १. सँभलने या सँभालने की क्रिया या भाव। २. मरणासन्न व्यक्ति की वह स्थिति जिसमें वह कुछ समय के लिए थोड़ा चैतन्य हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि उसकी स्थिति सँभल जायगी।—वह मरने से बच जायगा। उदा—बीमारे महब्बत ने लिया तह से सँभाला लेकिन वह सँभाले से सँभल जाय तो अच्छा-कोई शायर। क्रि०—प्र०—लेना।
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सँभालू  : पुं० [हिं० सिंधुवार] श्वेत सिंधुवार वृक्ष।
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संभावन  : पुं० [सं० सम्√भू० कृ० (होना)+णिच्-ल्युट्-अन संभावना] [वि० संभावनीय, संभावितव्य, संभाव्य, भू० कृ० संभावित] १. कल्पना। भावना। अनुमान। २. इकट्ठा करना। ३. ठीक या पूरा करना। ४. आदर-सम्मान। ५. किसी के प्रति होने वाली पूज्य बुद्धि या श्रद्धा। ६. पात्रता। योग्यता। ७. ख्याति। प्रसिद्धि। ८. स्वीकृति।
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संभावना  : स्त्री० [सं० संभावन-टाप्] १. किसी घटना या बात के संबंध की वह स्थिति जिसमें उस घटना के घटित होने या उस बात के पूरे होने की शक्यता होती है। ऐसा जान पड़ता है कि अमुक घटना या बात होना बहुत कुछ संभव प्रतीत होता है (पौसिबिलिटी)। २. साहित्य में उक्त के आधार पर एक प्रकार का अलंकार जिसमें इस बात का उल्लेख होता है कि यदि अमुख बात हो जाय तो अमुक बात हो सकती है। जैसे—एहि विधि उपजै लच्छि जब होइ सीय सम तूल।—तुलसी। ३. दे० ‘संभावन’
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संभावनीय  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+णिच्-अनीयर] १. जिसकी संभावना हो या हो सकती हो। २. जिसकी कल्पना की जा सकती हो। ध्यान या विचार में आ सकने योग्य।
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संभावित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी कल्पना या विचार किया गया हो। २. उपस्थित या प्रस्तुत किया हुआ। ३. आदृत। ४. प्रसिद्धि। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. जिसकी संभावना हो। संभावनीय। संभव। मुमकिन।
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संभावितव्य  : वि० [सं० सं√भू (होना)+णिच्-तव्य] १. कल्पना या अनुमान के योग्य। २. जिसके संबंध में अनुमान या कल्पना की जा सके। ३. जिसका सत्कार किया जा सकता हो या किया जाने को हो। ४. मुमकिन। संभव।
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संभाव्य  : वि० [सं० सम्√भू (होना)+णिच्-यत] १. जिसकी संभावना हो। जो हो सकता हो। २. प्रशंसनीय। ३. आदर या पूजा का अधिकारी अथवा पात्र। पूज्य और मान्य। ४. जो कल्पना या विचार में आ सकता हो।
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संभाव्यतः  : अव्य० [सं०] संभावना है कि।
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संभाष  : पुं० [सं० सं√भाष् (कहना)+घञ्, सम्भाष] १. कथन। बातचीत। संभाषण। २. करार। वादा।
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संभाषण  : पुं० [सं० सम्√भाष् (भाषण करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० संभाषित, वि० संभाषणी, संभाष्य] आपस में होनेवाली बातचीत। वार्तालाप।
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संभाषणीय  : वि० [सं० सम√भाष् (भाषण अरना)+अनीयर्] जिसके साथ बात-चीत या वार्तालाप किया जा सकता हो।
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संभाषा  : स्त्री० [सं० सम्√भाष (कहना)+अङ्—टाप्] १. संभाषण। २. किसी बात या विषय का तथ्य या स्वरूप जानने के लिए होने वाला वाद विवाद या विचार। (डिबेट)
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संभाषित  : भू० कृ० [सं० सं√भाष् (भाषण देना)+क्त] १. अच्छी तरह कहा हुआ। २. जिसके साथ बात-चीत की गई हो।
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संभाषी (षिन्)  : वि० [सं० संभाष (भाषण करना)+णिनि] [स्त्री० संभाषिणी] १. कहने वाला। २. बातचीत करना।
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संभाष्य  : वि० [सं० सम्√भाष् (बात-चीत करना)+यत्] १. जिससे बातचीत करना उचित हो। जिससे वार्तालाप किया जा सकता हो। २. (विषय) जिस पर संभाष हो सके। (डिबेटेबुल)।
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संभिन्न  : भू० कृ० [सं०] १. पूर्णतः टूटा हुआ। २. तोड़ा फोड़ा हुआ। ३. जिसमें क्षोभ या हलचल उत्पन्न की गई हो। ४. गठा हुआ। ठोस। ५. खिला हुआ। प्रस्फुटित। ६. ठोस।
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संभिन्न प्रलाप  : पुं० [सं०] व्यर्थ की बात-चीत जो बौद्ध शास्त्र के अनुसार एक पाप है।
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संभीत  : भु० कृ० [सं० सम्√भी (डरना)+क्त] बहुत अधिक डरा हुआ।
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संभु  : पुं० [सं० सम्√भू (होना)+डु]=शंभु।
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संभुक्त  : भू० कृ० [सं० सं√भुज् (खाना)+क्त] १. खाया हुआ। २. उपभोग किया या भोगा हुआ। प्रयोग में लाया हु्आ। ३. अतिक्रान्त।
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संभूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभूति] १. जो किसी दूसरे के साथ उत्पन्न हुआ हो। २. उत्पन्न। जात। ३. युक्त। सहित। ४. बिल कुल बदला हुआ। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. बराबर। समान।
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संभूति  : स्त्री० [सं०] १. संभूत होने की अवस्था या भाव। उत्पत्ति। २. विभूति। वैभव। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. योग से प्राप्त होने वाली विभूति या अलौकिक शक्ति। ५. क्षमता। शक्ति। ६. शक्ति का प्रदर्शन। ७. उपयुक्तता। ८. पात्रता। योग्यता। ९. मरीच की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की कन्या थी।
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संभूय  : अव्य० [सं०] १. एक में। एक साथ। २. साझे में।
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संभूयकारी  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत में, किसी संघ में मिलकर व्यापार करने वाला व्यापारी जो उस संघ का हिस्सेदार होता था। (स्मृति) २. किसी के साथ-साथ काम करनेवाला।
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संभूय-क्रय  : पुं० [सं०] थोक माल बेचना या खरीदना (कौ०)।
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संभूय-गमन  : पुं० [सं०] शत्रु पर होने वाली ऐसी चढाई जिसमें सब सामंत भी अपने दलबल के साथ हों (कामंदक)।
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संभूय-समुत्थान  : पुं० [सं०] कई हिस्से दारों के साथ मिलकर किया जाने वाला व्यापार। साझे का कारबार।
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संभूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभृति] १. इकट्ठा या जमा किया हुआ। एकत्र। २. पूरी तरह से भरा या लदा हुआ। ३. युक्त। सहित। ४. पाला-पोसा हुआ। ५. जिसका आदर या सम्मान किया गया हो। ६. तैयार। प्रस्तुत। ७. बनाया हुआ। निर्मित। पुं० चीख-पुकार। हो-हल्ला।
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संभृति  : स्त्री० [सं० सम्√भृ (भरण करना)+क्तिन, संभृति] १. एकत्र करने की क्रिया या भाव। २. भीड़। समूह। ३. ढ़ेर। राशि। ४. अधिकता। बहुतायत। ५. सामान। सामग्री। ६. पालन-पोषण।
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संभृष्ट  : भू० कृ० [सं० सम्√भ्रष्ज् (भूनना)+क्त-भृ=भृषत्व-स्टूत्व] १. खूब भुना या तला हुआ। कुरकुरा। भूने या तले जाने के कारण जो करारा हो गया हो।
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संभेद  : पुं० [सं० सम्√भिद् (प्रथक करना)+घञ्, सभ्भेद] १. अच्छी तरह छिदना या भिदना। २. ढीला होकर खिसकना या स्थान भ्रष्ट होना। ३. अलग या जुदा होना। ४. भेद-नीति। ५. प्रकार। भेद। ६. मिलन।
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संभेदन  : पुं० [सं० सम्√भिद् (भेदन करना)+ल्युट्-अन] [ वि० संभेदनीय, संभेद्य, भू० कृ० संभिन्न] अच्छी तरह छेदना या आर पार घुसाना। खूब धँसाना।
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संभेद्य  : वि० [सं० सम्√भिद् (फाड़ना)+यत्] जिसका संभेदन होने को हो या हो सकता हो।
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संभोग  : पुं० [सं०] १. किसी वस्तु का भली-भाँति किया जाने वाला पूरा उपयोग। २. स्त्री और पुरुष का मैथुन। रति-क्रीड़ा। ३. हाथी के कुम्भ का मस्तक का एक विशिष्ट भाग। ४. साहित्य ऋंगार का वह अंश जो संयोग ऋंगार कहलाता है (दे०‘ऋंगार’)।
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संभोग-काय  : पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार वह शरीर जिसमें आकर इस संसार के सुख-दुःख आदि भोगे जाते हैं।
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संभोग-ऋंगार  : पुं०=संयोग-ऋंगार।
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संभोगी (गिन्)  : वि० [सं० संभोग+इनि] [स्त्री० संभोगिनी] १. संभोग करनो वाला। व्यवहार करके सुख भोगने वाला। पुं० १. विलासी व्यक्ति। ? कामुक व्यक्ति।
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संभोग्य  : वि० [सं० सम्√भुज् (भोग करना)+ण्यत्] १. जिसका भोग व्यवहार होने को हो। जो काम में लाया जाने को हो। २. जिसका भोग या व्यवहार हो सकता हो।
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संभोज  : पुं० [सं० सं√भुज् (खाना)+घञ्] १. भोजन। खाना। २. खाद्य पदार्थ।
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संभोजक  : वि० [सं० सम्√भुज् (खाना)+ण्वुल्-अक] १. भोजन करने या खाने वाला। २. स्वाद लेने वाला।
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संभोजन  : पुं० [सं० सम्√भुज् (खाना)+ल्युट्-अन] [वि० संभोजनीय, संभोज्य, भू० कृ० संभुक्त] १. बहुत से लोगों का मिलकर खाना। २. भोज। दावत। ३. खाने की चीजें। ४. भोजन की सामग्री।
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संभोजनीय  : वि० [सं० सम्√भुज् (खाना)+अनीयर्] १. जो खाया जाने को हो। २. जो खाया जा सकता हो।
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संभोज्य  : वि० [सं०]=संभोजनीय।
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संभ्रम  : पुं० [सं०] १. चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। फेरा। २. उतावली। जल्दीबाजी। ३. घबराहट। ४. बेचैनी। विकलता। ५. किसी का सामना होने पर उससे सहमना या सिटपिटाना। ६. किसी को बड़ा समझकर उसके आगे आदर पूर्वक सिर झुकाना। ७. किसी की वह स्थिति जिसके कारण लोग उसका आदर करते या सहमते हों। ८. किसी के प्रति होने वाला पूज्य भाव। ९. गहरी चाह। उत्कंठा। १॰. साहस। हौसला। ११. गलती। चूक। भूल। १२. छवि। शोभा। १३. शिव के एक प्रकार के गण।
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संभ्रान्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संभ्रांति] १. चारों ओर घुमाया हुआ। २. क्षुब्ध। ३. प्रतिष्ठित। सम्मानित।
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संभ्रांति  : स्त्री० [सं०] १. संभ्रांत होने की अवस्था या भाव। २. क्षोभ। ३. प्रतिष्ठा। सम्मान।
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संभ्राजना  : अ० [सं० संभ्राज] पूर्णतः सुशोभित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संभ्राज  : पुं०=साम्राज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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