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साक  : पुं० [सं० शाक] शाक। साग। सब्जी। तरकारी। भाजी। पुं०=साखू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकचोरि  : स्त्री० [?] मेहँदी। हिना।
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साकट  : पुं०=साकत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकत  : पुं० [सं० शाक्त] १. शाक्त मत का अनुयायी। २. वह जो मद्य, मांस आदि का सेवन करता हो। ३. वह जिसने गुरु से दीक्षा न ली हो। निगुरा। वि० दुष्ट। पाजी।
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साकर  : स्त्री० १.=साँकल। २.=शक्कर। वि०=साँकर (सँकरा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकल्य  : पुं० [सं०] सकल की अवस्था, गुण या भाव। सफलता। समग्रता। पुं०=शाकल्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकवर  : पुं० [?] बैल। वृषभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकांक्ष  : वि० [सं० त० त०] १. (व्यक्ति) जिसके मन में कोई आकांक्षा हो। आकांक्षा रखनेवाला। २. (काम, चीज या बात) जिसे किसी और की कुछ अपेक्षा हो। सापेक्ष। पुं० भारतीय साहित्य में, एक प्रकार का अर्थदोष जो ऐसे वाक्यों में माना जाता है जिनमें किसी आपेक्षित आशय का स्पशष्ट उल्लेख न हो, और फलतः उस अपेक्षित आशय के सूचक शब्दों की आकांक्षा बनी रहती हो। यथा—‘जननी, रुचि, मुनि पितु वचन क्यों तजि हैं बन राम।—तुलसी। इसमें मुख्य आशय तो यह है कि राम वन जाना क्यों छोड़े। परन्तु ‘क्यों तजिहैं बन राम’ से यह आशय पूरी तरह से प्रकट नहीं होता, इसलिए इसमें साकांक्षा नामक अर्थ दोष है।
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साका  : पुं० [सं० शाका] १. संवत्। शाका। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. कीर्ति। यश। ४. बड़ा काम जिससे कर्ता की बहुत कीर्ति हो। मुहा०—साका करके (कोई काम) करना=सबके सामने, दृढ़ता और वीरतापूर्वक। उदा०—तस फल उन्हहिं देऊँ करि साका।—तुलसी। ५. कोई ऐसा बड़ा काम जो सहसा सब लोग न कर सकते हों और जिसके कारण कर्ता की कीर्ति हो। मुहा०—साका पूजना=किसी का अभीष्ट या उक्त प्रकार का कोई बहुत बड़ा काम सम्पन्न या सम्पादित होना। उदा०—आजु आइ पूजी वह साका।—जायसी। ६. धाक। रोब। मुहा०—साका चलाना या बाँधना= (क) आतंक फैलाना। (ख) रोब जामाना।
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साकार  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० साकारता] १. जिसका कुछ या कोई आकार हो। आकारयुक्त। २. विशेषतः ऐसा अमूर्ति, असांसारिक या पारलौकिक जीव या तत्त्व जो मूर्त रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित हुआ हो। ३. बात या योजना जिसे उद्दिष्ट, उपयोगी या क्रियात्मक आकार अथवा रूप प्राप्त हुआ हो। जैसे—सपने साकार होना। ४. मोटा। स्थूल। पुं० ईश्वर का वह रूप जो साकार हो। ब्रह्म का मूर्तिमान रूप। जैसे—अवतारों आदि में दिखाई देनेवाला रूप।
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साकारोपासना  : स्त्री० [सं० ष० त०] ईश्वर की वह उपासना जो उसका कोई आकार या मूर्ति बनाकर की जाती है। ईश्वर अथवा उसके किसी अवतार की यों ही अथवा मूर्ति बनाकर की जानेवाली उपासना। निराकार उपासना से भिन्न।
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साकिन  : वि० [अ०] १. जो एक ही स्थान पर स्थिर रहता हो। अचल। २. जो चलता-फिरता या हिलता-डोलता न हो। गति-रहित। ३. किसी विशिष्ट स्थान पर रहने या निवास करनेवाला। निवासी। जैसे—चुन्नीलाल साकिन मौजा नहरपुर। स्त्री० [अ० साकी का स्त्री०] साकी (मद्य पिलानेवाला) का स्त्री० रूप। पुं० [?] कश्मीर से नेपाल तक के जंगलों में पाया जानेवाला बकरी की तरह का एक प्रकार का पशु जिसका मांस खाया जाता है। कश्मीर में इसे ‘कैल’ कहते हैं।
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साकी  : पुं० [अ०] [स्त्री० साकिन] १. वह जो लोगों को मद्य का पात्र काम करनेवाला व्यक्ति। २. उर्दू-फारसी काव्यों में प्रेमिका की एक संज्ञा जिसका काम मद्य पिलाना माना जाता है। विशेष—हमारे यहाँ कुछ संत कवियों ने इसके स्थान पर ‘कलाली’ (देखें) का प्रयोग किया है। स्त्री० [?] कपूर-कचरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकुश  : पुं० [?] घोड़ा। अश्व। (डि०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साकृतिक  : वि० [सं०] आकृति से युक्त अर्थात् साकार किया हुआ।
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साकेत  : पुं० [सं०] १. अयोध्या नगरी। अवधपुरी। २. भगवान् रामचन्द्र का लोक जिसमें उनके भक्तों को मरने पर स्थान मिलता है।
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साकेतक  : पुं० [सं० साकेत+कन्] साकेत का निवासी। अयोध्या का रहनेवाला। वि० साकेत-सम्बन्धी। साकेत का।
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साकेतन  : पुं० [सं०] साकेत। अयोध्या।
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साकोह  : पुं०=साखू (शाल वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साक्तुक  : पुं० [सं० शक्तु+ढक्=क] जौ, जिससे सत्तू बनता है। वि० १. सत्तू-सम्बन्धी। सत्तू का। २. सत्तू से बना हुआ।
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साक्ष  : वि० [सं० त० त०] १. अक्ष से युक्त। २. आँखों या नेत्रों से युक्त। आँखोंवाला।
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साक्षर  : वि० [सं०] [भाव० साक्षरता] १. अक्षर या अक्षरों से युक्त। २. (व्यक्ति) जो अक्षरों को पढ़-लिख सकता हो। ३. शिक्षित। सुशिक्षित। (लिटरेट; उक्त होनों अर्थों में)
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साक्षरता  : स्त्री० [सं०] साक्षर अर्थात् पढ़े-लिखे होने की अवस्था या भाव। (लिटरेसी)
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साक्षात्  : अव्य० [सं०] १. आँखों के सामने। प्रत्यक्ष। सम्मुख। २. प्रत्यक्ष या सीधे रूप में। ३. शरीरधारी व्यक्ति (या वस्तु) के रूप में। जैसे—विद्या में तो आप साक्षात् बृहस्पति थे। वि० मूर्तिमान्। साकार। जैसे—आप तो साक्षात् सत्य हैं। पुं०=साक्षात्कार० (क्व०)
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साक्षात्कार  : पुं० [सं०] १. आँखों के सामने प्रत्यक्ष या साक्षात् उपस्थित होना। सामने आना या होना। जैसे—ईश्वर या देवी-देवताओं का (या से) होनेवाला साक्षात्कार। २. प्रत्यक्ष रूप से होनेवाली भेंट। मुलाकात। ३. इन्द्रियों या मन को (किसी बात या विषय का) होनेवाला पूरा या स्पष्ट ज्ञान। जैसे—मानसिक साक्षात्कार।
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साक्षातकारी (रिन्)  : वि० [सं०] साक्षात् करनेवाला।
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साक्षिता  : स्त्री० [सं०] १. साक्षी होने की अवस्था या भाव। २. गवाही। साक्ष्य।
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साक्षिभूत  : पुं० [सं० कर्म० स०] विष्णु का एक नाम।
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साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं०] [स्त्री० साक्षिणी] १. वह मनुष्य जिसने किसी घटना को घटित होते हुए अपनी आँखों से देखा हो। २. उक्त प्रकार का ऐसा व्यक्ति जो किसी बात की प्रामाणिकता सिद्ध करता हो। गवाह। ३. वह जो कोई घटना घटित होते हुए देखता हो। प्रत्यक्षदर्शी। जैसे—हमारे शरीर में आत्मा साक्षी रूप में रहती है, भोग से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। स्त्री० किसी बात को कहकर प्रामाणिक करने की क्रिया। गवाही। शहादत।
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साक्षीकरण  : पुं० [सं० साक्षि√च्वि√कृ (करना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० साक्षीकृत] दे० ‘साक्ष्यंकन’।
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साक्षीकृत  : भू० कृ० [सं०] दे० साक्ष्यंकित’।
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साक्ष्यंकन  : पुं० [सं० साक्षी+अंकन] [भू० कृ० साक्ष्यंकित] किसी पत्र, लेख्य, हस्ताक्षर आदि के सम्बन्ध में साक्षी के रूप में लिखवाना कि यह ठीक और वास्तविक है। प्रमाणीकरण। (एटेस्टेशन)
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साक्ष्यकंति  : भू० कृ० [सं०] जिस पर साक्ष्यंकन हुआ हो। (एटेस्टेड)
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साक्ष्य  : पुं० [सं० साक्षि+यत्] १. वह जो कुछ अपनी आँखों से देखा गया हो। २. आँखों से देखी हुई घटना का कथन। ३. गवाही। शहादत।
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