शब्द का अर्थ
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सागर :
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पुं० [सं०] १. समुद्र, जो पुराणानुसार महाराज सगर का बनाया हुआ माना जाता है। उदथि। जलधि। २. बहुत बड़ा तालाब। झील० ३. दशनामी संन्यासियों का एक भेद। ४. उक्त प्रकार के संन्यासियों की उपाधि। ५. एक प्रकार का हिरन। पुं० [अ० सागर] १. बड़ा प्याला। कटोरा। २. शराब पीने का प्याला। |
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सागरज :
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वि० [सं०] सागर या समुद्र से उत्पन्न। पुं० सुमद्री नमक। |
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सागर-धरा :
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स्त्री० [सं०] पृथ्वी। भूमि। |
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सागरनेमि :
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स्त्री० [सं०] पृथ्वी। |
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सागरमुद्रा :
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स्त्री० [सं०] इष्टदेव। का ध्यान या आराधना करने की एक प्रकार की मुद्रा। |
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सागर-मेखला :
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स्त्री० [सं०] पृथ्वी। |
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सागर-लिपि :
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स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्राचीन लिपि। |
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सागरवासी (सिन्) :
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वि० [सं० सागर√वस् (रहना)+णिनि] १. समुद्र में वास करने या रहनेवाला। २. समुद्र के तट पर रहनेवाला। |
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सागर-संगम :
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पुं० [सं०] नदी और समुद्र का संगम स्थान, विशेषतः वह स्थान जहाँ समुद्र की लहरें नदी की धारा से मिलती हैं। (एस्चुअरी) |
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सागरांत :
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पुं० [सं० ष० त०] १. समुद्र का किनारा। समुद्र-तट। २. समुद्रतट का विस्तार। |
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सागरांता :
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स्त्री० [सं० सागरांत-टाप्] पृथ्वी। |
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सागरांबरा :
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स्त्री० [सं० ब० स० सागराम्बरा] पृथ्वी। |
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सागरालय :
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पुं० [सं० ब० स०] सागर में रहनेवाले वरुण। |
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सागर :
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अव्य० [?] सामने। सम्मुख। उदा०—प्रीतम को जब सागस लहै।—नंददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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