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सामान्य  : वि० [सं०] [भाव० सामान्यता] १. जिसमें कोई विशेषतः न हो। मामूली। २. सब या बहुतों से संबंध रखने वाला। ३. प्रायः सभी व्यक्तियों, अवसरों अवस्थाओं आदि में पाया जाने वाला या उनसे संबंध रखने वाला। सार्वजनिक। आम। (जनरल, उक्त दोनों अर्थों के लिए) ४. जो अपनी संगति या साधारण अवस्था, स्थिति आदि में ही हो, विशेष घटा-बढ़ा या इधर-उधर हटा हुआ न हो। प्रसम। (नार्मल) पुं० १. समान होने की अवस्था, गुण या भाव। समानता। बराबरी। २. वैशेषिक दर्शन में वह गुण या धर्म जो किसी जाति के सब प्राणियों या किसी प्रकार की सब वस्तुओं में समान रूप से पाया जाता हो। जाति-साधर्म्य। जैसै०—मनुष्यों में मनुष्यत्व सामान्य और पशुओं में पशुत्व। विशेष—वैशेषिक में ६ पदार्थों में से एक माना गया है और इसी को ‘जाति’ भी कहा गया है। ३. एक प्रकार का लोक न्याय मूलक अलंकार जिसमें उपमान और उपमेय अथवा प्रस्तुत और अप्रस्तुत का स्वरूप प्रथक होने पर भी दोनो में घुणों, धर्मों आदि के बिलकुल समान या एक होने का उल्लेख रहता है। जैसे—यह कहना कि चाँदनी रात में अटारी पर खड़ी ङुई नायिका और चंद्रमा में इतनी समानता है कि यह पता ही नही चलता कि मुख कौन है और चंद्रमा कौन ? ४. दे० ‘मध्यक’।
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सामान्य छल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] न्याय शास्त्र में एक प्रकार का छल जिसमें संभावित अर्थ के स्थान में जाति सामान्य अर्थ के योग से असंभूत अर्थ की कल्पना की जाती है।
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सामान्यतः  : अव्य० [सं० सामान्य+तसिल्] सामान्य रूप से। सामान्यता। (नार्मेली)।
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सामान्यतया  : अव्य० [सं० सामान्य०+तल-टाप्-टा] सामान्य रूप से। मामूली तौर से। सामान्यतः।
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सामान्यता  : स्त्री० [सं०] १. सामान्य या मामूली होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण, तत्व या बात जो सामान्य हो। ३. सामान्य होने या सब जगह सामान्य रूप से होने या पाये जाने की अवस्था या भाव। (जनरैलिटी)।
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सामान्यतोदृष्ट  : पुं० [सं० सामान्यतस्√दृश् (देखना)+क्त] १. तर्क और न्याय शास्त्र में अनुमान संबंधी एक प्रकार का दोष या भूल, जो उस समय मानी जाती है जब किसी ऐसे पदार्थ के आधार पर अनुमान किया जाता है जो न तो कार्य हो और न कारण। जैसा—आस को बौरते देखकर कोई यह अनुमान करे कि अन्य वृक्ष भी बौरने लगे होंगे। २. दो वस्तुओं या बातों में ऐसा साम्य, जो कार्य-कारण संबंध से भिन्न हो। जैसा—बिना चले कोई दूसरे स्थान पर नहीं पहुँच सकता। इसी से यह भी समझ लिया जाता है कि यदि किसी को कही पहुँचना हो तो उसे किसी प्रकार चलने में प्रवृत्त करना पड़ेगा।
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सामान्य-निबंधना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत के लिए किसी अप्रस्तुत सामान्य का कथन होता है।
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सामान्य बुद्धि  : स्त्री० [सं०] प्रायः सब प्रकार के जीवों में पाई जानेवाली वह सामान्य या सहज बुद्धि जिससे वे साधारण बातें बिना किसी प्रयत्न के या आप से आप समझ लेते हैं। (कॉमन सेन्स)।
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सामान्य भविष्यत्  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भविष्यत् काल का एक भेद, जिससे यह ज्ञात होता है कि अमुक बात आगे चलकर होगी, अथवा आगे चलकर अमुक व्यक्ति कोई क्रिया करेगा। धातु में ‘एगा’ ‘ऊँचा’ लगाकर इस काल के क्रिया पद बनाये जाते हैं। जैसा—जाएगा, खाएगा, हंसेगा खेलूँगा। इनमें उद्देश्य के लिंग वचन के अनुसार परिवर्तन होता है।
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सामान्य-भूत  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भूतकालिक क्रिया का एक भेद में आ या या प्रत्यय जोड़कर सामान्य भूत काल का क्रिया पद बनाते हैं। जैसा—उठा हँसा। नाचा, आया, लाया नहाया आदि।
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सामान्य-लक्षण  : पुं० [सं०] तर्क में एक ही जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों में समान रूप से पाया जानेवाला वह लक्षण या वे लक्षण जिनके आधार पर उस जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों की पहचान होती है। जैसा—किसी घोड़े के सामान्य लक्षण की सहायता से ही शेष सब घोड़ों की पहचान होती है।
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सामान्य-वर्तमान  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में वर्तमान काल का एक भेद जिससे किसी कार्य के प्राकृतिक रूप से घटित होते रहने या तत्क्षण घटित होने का पता चलता है। धातु में ता है, ता हूँ आदि प्रत्यय लगाये जाते हैं। जैसा—आता है जाता है, सोता है हँसता हूँ आदि।
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सामान्य-विधि  : स्त्री० [सं०] १. कोई साधारण विधि या आज्ञा। जैसा—बुरे काम मत करो। २. किसी देश या राष्ट्र में प्रचलित विधि प्रविधियों का वह सामूहिक मान जिसके अनुसार उस देश या राष्ट्र के निवासियों का आचरण या व्यवहार परिचालित होता है। (कॉमन लॉ)।
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सामान्य-विभाजक  : पुं० [सं०] गणित में समापर्वतक राशि (दे०) ‘समापर्वतक’।
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सामान्या  : स्त्री० [सं० सामान्य-टाप्] १. ऐसी स्त्री जो सर्व साधारण के लिए उपलब्ध या सूलभ हो। २. साहित्य में वह नायिका जो धन कमाने के उद्देश्य से पर-पुरुष से प्रेम करने का ढोंग करती है।
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सामान्यीकरण  : पुं०=साधारणीकरण (प्राचीन भारतीय साहित्य का)।
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