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सिवा  : अव्य० [अं०] १. जो है या हो, उसके अतिरिक्त। इसे छोड़ या बाद देकर। अलावा। जैसे—सिवा उसके यहाँ कोई नहीं पहुँचा था। विशेष—वाक्य के बीच में सिवा से पहले ‘के’ विभक्ति लगती है। जैसे—इन बातों के सिवा एक और बात भी है। हमारे सिवा, आदि प्रयोगो में यह ‘के’ विभक्ति ‘तुम्हारे’, हमारे आदि शब्दों में अंतमुक्त होती है। २. किसी की तुलना में और अधिक या बढ़कर। उदा०—तुम जुदाई में बहुत याद आये। मौत तुमसे भी सिवा याद आई।—कोई शायर। वि० फालतू और व्यर्थ। स्त्री०=शिवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवाई  : अव्य०= सिवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवाई  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मिट्टी। स्त्री०=सिलाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवान  : पुं० [सं० सीमांत] १. किसी राज्य की सीमा। २. सीमा पर स्थित प्रदेश। ३. गाँव की सीमा पर की भूमि।
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सिवाय  : अव्य, वि०=सिवा।
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सिवार  : स्त्री०=सेवार (घास)।
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सिवाल  : स्त्री०=सेवार।
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सिवाला  : पुं०=शिवालय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिवाली  : पुं० [सं० शैवाल] कुछ हल्के रंग का एक प्रकार का मरकत या पन्ना जिसमें ललाई की झलक भी होती है।
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